राजनीति से प्रेरित है दिल्ली हिंसा की पुलिस जांच : अपूर्वानंद

कारवां के लिए शाहिद तांत्रे

अपूर्वानंद दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफेसर होने के साथ एक मानव अधिकार कार्यकर्ता भी हैं. उन्होंने नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी सरकार के तहत हिंदुत्व के उभार पर बेबाकी से लिखा और बोला है. पिछले साल दिसंबर में जब नागरिकता संशोधन कानून और राष्ट्रीय नागरिक पंजिका के खिलाफ देशव्यापी प्रदर्शन हो रहे थे तो अपूर्वानंद ने इस कानून के खिलाफ निरंतर आवाज उठाई. साथ ही वह जामिया मिलिया इस्लामिया में पुलिस के अत्याचार, बीजेपी से जुड़े छात्रों द्वारा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों पर हमले और शैक्षणिक संस्थानों के सरकारी दमन के खिलाफ हमेशा मुखर रहे हैं. अपूर्वानंद देश के उन बुद्धिजीवियों, लेखकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं में से एक हैं जो इस साल फरवरी में दिल्ली में हुई हिंसा की निष्पक्ष जांच की मांग कर रहे हैं. उस हिंसा में मारे गए 50 से अधिक लोगों में ज्यादातर मुस्लिम थे. दिल्ली हिंसा की पुलिस जांच, नागरिकता कानून और न्यायपालिका की भूमिका पर कारवां के रिपोर्टिंग फेलो तुषार धारा ने अपूर्वानंद से बातचीत की.

तुषार धारा : नागरिकता संशोधन कानून पास होने से लेकर दिल्ली हिंसा के बीच जो कुछ घटा उसे कैसे देखते हैं?

अपूर्वानंद : जब नागरिकता संशोधन कानून पारित हुआ तो विपक्षी दलों की चुप्पी हैरान करने वाली थी. लेकिन उत्तर प्रदेश, दिल्ली और अन्यत्र जगहों में लोगों ने आंदोलन किए. दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया और उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्रों सहित अन्य लोगों ने कानून का विरोध किया. लेकिन विरोधियों का बर्बर दमन किया गया. सुप्रीम कोर्ट ने दमन का संज्ञान लेने से इनकार कर दिया. उसने बस यह कहा कि नागरिकता संशोधन कानून का विरोध कर रहे आंदोलनकारियों को कोई हक नहीं है कि वे सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाएं और यदि आंदोलनकारी चाहते हैं कि उनकी बात सुनी जाए तो वे सड़क छोड़ कर ही अदालत आएं.

तब शाहीन बाग शुरू हुआ. शाहीन बाग के रूप में इन घटनाओं ने एक अनूठा स्वरूप धारण कर लिया. वह औरतों का अपने परिवारों के समर्थन से चलाया गया ऑर्गेनिक आंदोलन था. शाहीन बाग ने संविधान की प्रस्तावना को नागरिकता में बराबरी के अधिकार का नारा बना दिया. नागरिकता संशोधन कानून भारतीय नागरिकता हासिल करने में धर्म के आधार पर भेदभाव करता है जो संविधान की भावना के खिलाफ है. यही बात है जो शाहीन बाग का आंदोलन बतलाना चाहता था और इसके लिए उसने शांतिपूर्ण आंदोलन का रास्ता अख्तियार किया. पहली बार भारत के मुसलमान नागरिकता का दावा कर रहे थे.

तुषार धारा : शाहीन बाग का क्या असर हुआ?

अपूर्वानंद : शाहीन बाग ने भारत भर में कम से कम 200 से ज्यादा उस तरह के प्रदर्शनों को प्रेरित किया. उसने बहुत से मिथों को तोड़ा. एक मिथ था कि बुर्का पहनने वाली मुस्लिम औरतें पिछड़ी और अशिक्षित होती हैं. लेकिन हमने देखा कि इस आंदोलन का नेतृत्व औरतें कर रही थीं और आंदोलन के संबंध में उन्होंने धर्म गुरुओं को फैसला करने नहीं दिया. सरकार के लिए इस आंदोलन को खत्म करना मुश्किल था और अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षक भी इस पर नजरें टिकाए थे.

लेकिन हमें यह स्वीकार करना होगा कि यह आंदोलन मुख्य रूप से मुस्लिम आंदोलन था. यह देखने में भी मुस्लिम आंदोलन था और राजनीतिक पार्टियां इससे जुड़ने से बच रही थीं और सर्वसाधारण हिंदू इसके प्रति आकर्षित नहीं हुआ. एक बहुत पुराना पूर्वाग्रह हिंदुओं के मन में है कि व्यक्तिगत रूप से भले मुस्लिम अच्छे हों लेकिन समुदाय के रूप में वे षडयंत्र करने वाले और खतरनाक मंसूबे रखने वाले होते हैं. इस पूर्वाग्रह में दोबारा जान भरी गई.

तुषार धारा : क्या सीए विरोधी प्रदर्शनों का असर दिल्ली चुनाव प्रचार में हुआ? यदि हां तो कैसे?

अपूर्वानंद : यह किसी अपशकुन जैसा था. चुनाव प्रचार से बहुत पहले प्रधानमंत्री ने कह दिया था कि सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों को उनके कपड़ों से पहचाना जा सकता है. उन्होंने बहुत शातिराना तरीके से इशारा किया है कि आंदोलन करने वाले मुसलमान हैं. गृहमंत्री अमित शाह ने वोटरों से कहा कि वे इतनी ताकत से ईवीएम का बटन दबाएं कि करंट शाहीन बाग में लगे. यह हिंसा करने का इशारा था. एक अन्य केंद्रीय मंत्री ने खुलेआम “गद्दारों को गोली मारने” का आह्वान किया. एक बीजेपी सांसद ने कहा कि आंदोलनकारी बलात्कारी हैं और हमारी बेटियों और बहनों का बलात्कार करेंगे. आंदोलनकारियों को हिंदुओं की नजरों में बदनाम करने की कोशिश की गई. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने खुद को आंदोलनों से दूर रखा. इसके बाद हमने देखा भी कि कैसे दो बंदूकधारी जामिया मिलिया और शाहीन बाग में घुस आए.

तुषार धारा : शाहीन बाग आंदोलन में आपकी क्या भूमिका थी?

अपूर्वानंद : मैं लोकतांत्रिक और नागरिक अधिकार मामले में सक्रिय रहता हूं और इन मामलों में बोलने के लिए लोग मुझे आमंत्रित करते रहते हैं. मैं ऐसी मीटिंगों को आयोजित नहीं करता लेकिन यदि मैं विचारों से सहमत हूं तो लिखकर और बोल कर इनका समर्थन करता हूं. मैं सीएए के खिलाफ हूं क्योंकि मेरी नजरों में यह एक धर्म के साथ भेदभाव करता है. हां यह सही है कि इससे भारतीय मुसलमानों को फर्क नहीं पड़ता लेकिन गृहमंत्री और सत्तारूढ़ पार्टी ने स्पष्ट किया है कि सीएए को राष्ट्रीय नागरिक पंजिका (एनआरसी) के साथ मिलाकर देखना चाहिए.इससे उनकी नीयत साफ हो जाती है. वे मुसलमानों को उनकी औकात बताना चाहते हैं और जैसा असम में साफ हुआ, नागरिकता से बेदखल भी करना चाह्हते हैं.

हमने असम में एनआरसी का भयावह परिणाम देखा है जिसकी अंतिम सूची से हिंदू और मुसलमान बाहर कर दिए गए थे. इसके चलते लोगों को डिटेंशन कैंपों में डाला गया और लाखों लोगों की जिंदगी पर इसका असर पड़ा. इसके बाद जामिया मिलिया इस्लामिया में हमला हुआ जिसने हम सबको झकझोड़झकझोर दिया. मैं एक शिक्षक हूं और जब छात्रों का दमन होता है तो मैं चुप नहीं रह सकता.

इसके बाद शाहीन बाग की औरतों ने प्रदर्शन शुरू किया. मैंने दिसंबर के अंत में पहली बार उन औरतों को संबोधित किया. शाहीन बाग की तरह के प्रदर्शन दिल्ली भर में होने लगे और छात्रों और सरोकार रखने वाले नागरिकों को आकर्षित करने लगे. मेरी इन प्रदर्शनों में भागीदारी इनके पक्ष में लिखने-बोलने और शाहीन बाग की आलोचना का जवाब देने तक ही सीमित थी.

तुषार धारा : दिल्ली हिंसा के पहले जो कुछ घट रहा था उसे आप कैसे देख रहे थे?

अपूर्वानंद : 24 फरवरी को जब मुझे पता चला कि जाफराबाद में तनाव बढ़ रहा है तो हममे से कुछ लोगों ने तय किया कि हम महिला प्रदर्शनकारियों को मनाने की कोशिश करेंगे कि वे सड़क खाली कर दें ताकि कपिल मिश्रा और उसके आदमियों को हिंसा करने का बहाना न मिले. योगेंद्र यादव, राहुल रॉय, सबा दीवान, कविता श्रीवास्तव, खालिद सैफी के साथ मैं महिलाओं को मनाने के लिए जाफराबाद गया लेकिन औरतों ने हमारी बात नहीं मानी. उसके बाद हम लोग सीलमपुर में सड़क को घेर कर आंदोलन कर रहीं महिलाओं से अपील करने गए क्योंकि हम चाहते थे कि हिंसा के नाम पर आंदोलन बदनाम न हो. वहां से हमने सभी जगह के लिए अपील जारी की. हमें डर था कि सड़क जाम का बहाना बनाकर हिंसा की जाएगी और आंदोलनकारियों को बदमान किया जाएगा. खालिद सैफी और मैं इसके बाद खजूरी में प्रदर्शन की जगह गए और वहां हमने औरतों को सड़क खाली करने के लिए तैयार कर लिया. जब हम लौट रहे थे तो हमे पता चला कि हिंसा शुरू हो गई है.

25 फरवरी को हमने सिविल सोसाइटी कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों से शांति बहाली के प्रयासों पर चर्चा करने की अपील की. हम लोगों ने दंगा प्रभावित इलाकों में राहत और बचाव समितियां भी बनाई. हमारी समितियां धर्म के आधार पर नहीं बनी थीं. मैंने 9 फरवरी को दंगाग्रस्त इलाके का भ्रमण किया ताकि मैं हिंसा की प्रकृति को समझ सकूं. इसके बाद में तीन-चार दिनों तक स्थिति का मुआयना करने वहां जाता रहा. हमने दिल्ली सरकार से भी अपील की कि वह राहत कैंप बनाए. फिर पहला राहत शिविर मुस्तफाबाद के ईदगाह मैदान में बना. हमारा उद्देश्य शांति और सांप्रदायिक सौहार्द स्थापित करना था और हिंदू और मुसलमानों को आपस में संवाद शुरू करने के लिए तैयार करना था. इसके दो-तीन सप्ताह बाद कोरोनावायरस महामारी और लॉकडाउन शुरू हो गया और हम लोग आ-जा नहीं सके. हमने दिल्ली विश्वविद्यालय में एक सामुदायिक रसोई चालू की ताकि हम दिल्ली के अन्य हिस्सों में खाना बांट सकें.

तुषार धारा : उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हिंसा कैसे शुरू हुई?

अपूर्वानंद : भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर रावण ने दिल्ली चुनावों के बाद भारत बंद का आह्वान किया था. सीलमपुर की औरतें जाफराबाद मेट्रो स्टेशन पर आईं और उन्होंने सड़क घेर ली. हम इस बात पर सहमत या असहमत भले हो सकते हैं कि ऐसा करना ठीक था या नहीं लेकिन सड़क वाधित करना हिंसा नहीं है. इसके पहले अनगिनत बार आंदोलनों में सड़क जाम की गई है. लेकिन कभी सड़क जाम करने वालों पर इस तरह दूसरे लोगों ने हमला नहीं किया था. पहले आम आदमी पार्टी में रहे और अभी नए-नए बीजेपी में शामिल हुए नेता (कपिल मिश्रा) ने दावा किया कि हम अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की भारत यात्रा पूरी हो जाने तक का इंतजार करेंगे और उसके बाद यदि दिल्ली पुलिस औरतों से सड़क खाली नहीं कर पाई तो सड़क खाली करने का काम हम करेंगे. इसके बाद हिंसा शुरू हुई.

29 फरवरी को हम उत्तर-पूर्व दिल्ली पहुंचे और हमने जले हुए मकान और दुकानें देखी और लोगों से बात की. हिंदुओं की अपेक्षा मुस्लिमों की हत्या और उनकी संपत्तियों को पहुंचा नुकसान काफी ज्यादा था. इस हिंसा का दूसरा चरित्र यह था कि इसमें जानबूझकर मस्जिदों को निशाना बनाया गया था. बहुत सारी मस्जिद बर्बाद हो गईं या उन्हेंनुक़सान पहुँचाया गया.ध्यान रखना चाहिए कि एक भी मंदिर को खरोंच तक नहीं आई. हमने पाया कि मुसलमानों के घरों और मस्जिदों में विस्फोट करने के लिए गैस सिलेंडरों का इस्तेमाल हुआ था. इस हिंसा का चरित्र साफ़ तौर मुस्लिम विरोधी था. जब दंगे खत्म हो रहे थे तब गृहमंत्री ने बयान दिया कि हिंसा स्वत:स्फूर्त थी. मैं मानता हूं कि बीजेपी अपने समर्थकों को बताना चाहती थी कि दिल्ली की हिंसा गुजरात में 2002 की हिंसा के समान थी जिसे उस समय गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस के एस6 कोच को जलाने की प्रतिक्रिया बताया गया था. गोधरा में रेल के जलने की जांच से पहले ही यह निष्कर्ष निकाल लिया गया था कि कोच को मुसलमानों ने जलाया है. गोधरा के बाद की हिंसा को हिंदुओं का स्पॉन्टेनियस या स्वत:स्फूर्त गुस्सा बताया गया.

होम मिनिस्टर का बयान यह कहने के बराबर था कि सीएए विरोधी आंदोलन की प्रवृत्ति हिंसक है और गुस्साए हिंदुओं ने स्पॉन्टेनियस प्रतिक्रिया दी है. होम मिनिस्टर ने स्कॉलर और सामाजिक कार्यकर्ता उमर खालिद और सामाजिक संगठन यूनाइटेड अगेंस्ट हेट के भाषण का जिक्र किया. संसद में अमित शाह ने कहा कि कुछ व्यक्ति विशेष इसके लिए जिम्मेदार हैं और उनके भाषणों में हिंसा की बात की गई थी. अप्रैल के आखिर में उमर खालिद पर उत्तर-पूर्वी दिल्ली की हिंसा के संबंध में गैर कानूनी गतिविधि रोकथाम कानून के तहत आरोप दर्ज किया गया.

उस भाषण के बाद जांच ने जो दिशा ली वह इस तरह है : उत्तर-पूर्वी दिल्ली के दंगे उन लोगों की साजिश का परिणाम थे जो सीएए विरोध प्रदर्शन के हिस्सा थे, ये लोग हिंदुओं और भारतीय राज्य के खिलाफ षडयंत्र कर रहे थे और जब अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप भारत के दौरे पर थे तो सरकार को शर्मिंदा करने के लिए इन लोगों ने हिंसा भड़काई. पुलिस यह नैरेटिव स्थापित करना चाहती है कि फरवरी के आखिरी दिनों में हुई हिंसा की योजना और षडयंत्र सीएए विरोधी प्रदर्शनकारी बना रहे थे. पुलिस यह नहीं पूछ रही है कि उत्तर-पूर्वी दिल्ली में आकर दंगे करने वाले बाहरी लोग कौन थे? वे लोग कौन थे जो वहां “जय श्रीराम” के नारे लगा रहे थे? हिंसा में किस ने शिरकत की और किसने हिंसा आयोजित की? पुलिस क्या कर रही है? किनको गिरफ्तार किया गया है? जामिया मिलिया इस्लामिया के विद्यार्थियों को, जामिया कोऑर्डिनेशन कमिटी के सदस्यों को जिन्होंने जामिया परिसर के बाहर शांतिपूर्ण प्रदर्शन आयोजित किए थे और 25 साल की एमबीए छात्रा गुल्फीशा को जिसने पहली बार किसी राजनीतिक प्रदर्शन में भाग लिया था.

तुषार धारा : खबरों की माने तो दिल्ली पुलिस ने दिल्ली हिंसा के संबंध में 751 मामले दर्ज किए हैं. हिंसा में जिन 53 लोगों की मौत हुई है उनमें से 38 मुसलमान हैं. लग रहा है कि पुलिस जामिया कोआर्डिनेशन कमेटी, पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया, पिंजरा तोड़, यूनाइटेड अगेंस्ट हेट और आपके और हर्ष मंदर जैसे बुद्धिजीवियों पर हिंसा का इल्जाम मढ़ना चाहती है और कपिल मिश्रा जैसों को बचाना चाहती है. इस कथन में कितनी सच्चाई है?

अपूर्वानंद : भौतिक हिंसा से पहले मौखिक और मनोवैज्ञानिक हिंसा होती है. हमने देखा है कि ऐसी हिंसा का इस्तेमाल सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों के खिलाफ हुआ. सीएए का मुख्य रूप से विरोध मुसलमान कर रहे थे जिनको गैर मुसलमानों का समर्थन था. लेकिन मुस्लिमों, यूनाइटेड अगेंस्ट हेट, नॉट इन माय नेम, पिंजरा तोड़, प्रोसेसरों और शिक्षकों सभी को मौखिक और मनोवैज्ञानिक हिंसा का निशाना बनाया गया.

दुर्भाग्य की बात है कि दिल्ली पुलिस हिंसा के असली जिम्मेदारों की जांच करने में दिलचस्पी नहीं दिखा रही बल्कि वह उस तयशुदा स्क्रिप्ट पर काम कर रही है जो उसके राजनीतिक मालिकों ने तैयार की है.

तुषार धारा : दिल्ली पुलिस की ओर से ऐसी कोई आधिकारिक सूचना नहीं है कि वह आपके खिलाफ जांच कर रही है. इसके बावजूद आपका नाम ऐसे लोगों में शुमार किया जा रहा है जिनकी जांच करने में दिल्ली पुलिस इच्छुक है. जब कोई आधिकारिक जानकारी है ही नहीं तो आपको यह क्यों लग रहा है?

अपूर्वानंद : यह सिर्फ अनुमान है. मेरे पास कोई आधिकारिक जानकारी नहीं है. यह अनुमान टाइम्स नाउ में 22 मई को दिखाई गई एक डिबेट के बाद शुरू हुआ. उसमें मेरी, जनता दल के राज्य सभा सांसद मनोज झा, अधिवक्ता तीस्ता सीतलवाड़ और इस्लामिक संगठन जमात-ए-इस्लामी हिंद के सलीम इंजीनियर की तस्वीर दिखाई गई. एक दिन पहले हम सबने एक मीटिंग की थी और यह तस्वीर उसी मीटिंग की थी. टाइम्स नाउ वालों ने दावा किया कि पुलिस ने एक ऐसी साजिश का भंडाफोड़ किया है जो “राज्य प्रायोजित हिंसा” का दावा करने वालों के मुंह में तमाचा है और गृहमंत्री के दावों की पुष्टि है. कहने का मतलब की जो लोग हिंसा को “राज्य प्रायोजित बता रहे हैं” वे झूठे हैं. दावा किया गया कि चैनल वालों के पास पुलिस के ऐसे दस्तावेज हैं जिसमें हिंसा में “दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर” के हाथ होने के सबूत हैं. लेकिन यह दावा साबित नहीं किया गया. इंडियन एक्सप्रेस में एक खबर छपी थी कि पुलिस के रडार में एक प्रोफेसर है.

हम कहते आए हैं कि हिंसा में हिंदू और मुसलमान मारे गए हैं और संपत्ति को नुकसान हुआ है और हिंसा की जांच होनी चाहिए. लेकिन पुलिस एक अजीब ही “साजिश” की पड़ताल कर रही है कि हिंसा के लिए सीएए विरोध लोग और जामिया के प्रदर्शनकारी जिम्मेदार हैं जिन्होंने सरकार को शर्मिंदा करने के लिए हिंसा की योजना बनाई थी.

तुषार धारा : हिंसा के बाद कोरोनावायरस महामारी पर सबका ध्यान केंद्रित हो गया और तब से राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन जारी है. इन सबका का सिविल लिबर्टी या नागरिक अधिकारों में क्या असर पड़ा है?

अपूर्वानंद : दंगों से बहुत सारे मुसलमान विस्थापित हो गए थे. हम लोग राहत शिविरों की मांग कर रहे थे और कुछ जोर आजमाइश के बाद मुस्तफाबाद के ईदगाह मैदान में एक राहत शिविर बनाया गया. लेकिन तुरंत बाद महामारी के भय ने सब को घेर लिया. हम दुविधा में पड़ गए कि लोगों को दूर-दूर कैसे रखें? जिस समय हम लोग दिल्ली दंगों के पीड़ितों के लिए राहत कार्य कर रहे थे उसी वक्त लॉकडाउन की घोषणा हो गई. बहुत सारे पीड़ित लोगों के पास न कहीं जाने की जगह थी और न ही पैसा और मिलकर सामूहिक रूप से विरोध करने का रास्ता भी नहीं था. इसके बाद बेरोजगार हो गए प्रवासियों के लिए राहत उपलब्ध कराने पर जोर दिया जाने लगा .

इस बीच दिल्ली पुलिस अपनी स्क्रिप्ट पर काम करती रही. पुलिस सीएए विरोध प्रदर्शनों के आयोजकों और उनमें शामिल होने वालों को गिरफ्तार करने लगी. पुलिस ने कुप्रचार करना शुरू कर दिया कि विश्वविद्यालयों में ऐसे मास्टरमाइंड बैठे हैं जो भारत के खिलाफ साजिश रच रहे हैं और ये लोग “अर्बन नक्सल” हैं. यही इस पूरे घटनाक्रम का इतिहास रहा है. आरोप लगाए गए कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, कोलकाता के जादवपुर विश्वविद्यालय और हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में “टुकड़े-टुकड़े गैंग” सक्रिय हैं और भारत को इनसे बहुत बड़ा खतरा है. जब कन्हैया कुमार को गिरफ्तार किया गया था तो तत्कालीन गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने गंभीर आरोप लगाया था कि भारत सरकार के पास ऐसे सबूत हैं जो बताते हैं कि इन छात्रों का संबंध सीमा पार के आतंकियों से है. उसके बाद से कन्हैया कुमार और उमर खालिद जैसे लोगों को हमेशा जान का खतरा रहता है. ऐसा 2015 से किया जा रहा है जब बुद्धिजीवियों ने मोहम्मद अखलाक की हत्या का विरोध किया था. केंद्रीय मंत्रियों ने बुद्धिजीवियों के खिलाफ अभियान चलाया और बताया कि ये लोग “देशद्रोही” और “आराम पसंद बुद्धिजीवी” हैं. पिछले छह सालों से यही चल रहा है.

तुषार धारा : दिल्ली हिंसा की जांच और भीमा कोरेगांव मामले की जांच में क्या समानता है?

अपूर्वानंद : भीमा कोरेगांव में दलित जमा हुए थे. ये लोग पेशवाओं के खिलाफ महार रेजीमेंट की जीत का उत्सव मना रहे थे. ऐसा करना दलित गौरव की अभिव्यक्ति है. जब ये लोग एल्गार परिषद से लौट रहे थे तो उन पर हमला किया गया. वह एक हिंसक कृत था. इस मामले में हिंदुत्व संगठनों के दो नेताओं को आरोपी बनाया गया. दलितों ने विरोध किया और मांग की कि मामले की जांच हो और दोषियों को सजा मिले. सरकार घबरा गई.लेकिन इन दो आरोपियों के ख़िलाफ़ क़ार्रवाई नहीं की गई. इसके बाद पुणे पुलिस ने देश भर में मानव अधिकार कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों के घरों और कार्यालयों में छापेमारी की और एक कहानी गढ़ी. इस कहानी के अनुसार, षडयंत्रकारियों का बहुत बड़ा संजाल सक्रिय है जिसमें सम्मानित और अंग्रेजी बोलने वाले लोग हैं जो भारत के खिलाफ साजिश रचने में लगा है. एक पत्र ढूंढ निकाला गया जिसके अनुसार प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश रची जा रही थी. पुलिस ने पूरे भीमा कोरेगांव मामले को 180 डिग्री का घुमाव दे दिया. अब यही तरीका वर्तमान जांच में भी अपनाया जा रहा है जिसमें हिंसा की असल वारदात को लोगों के जहन से मिटा देना चाहते हैं और अंग्रेजी बोलने वाले पढ़े-लिखे युवा मुसलमानों को हिंसक दिखाना चाहते हैं.

तुषार धारा : इस बीच नागरिक अधिकारों की रक्षा के मामलों में अदालतों और न्यायपालिका की भूमिका कैसी रही है?

अपूर्वानंद : सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस मदन लोकुर ने दि वायर में प्रकाशित एक एक लेख में प्रवासियों के मामले में सुप्रीम कोर्ट को एफ ग्रेड दिया है. भारतीय समाज के सबसे कमजोर वर्गों के अधिकारों की सुरक्षा के मामले में मैं सुप्रीम कोर्ट को वह ग्रेड भी नहीं दूंगा. जब उत्तर प्रदेश में सीएए विरोधियों के खिलाफ पुलिस की हिंसा पर सवाल उठा तो सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वह संपत्ति को नुकसान पहुंचाने की बात को सहन नहीं कर सकती और हिंसा रुकनी चाहिए. सुप्रीम कोर्ट के पास याचिका डाली गई थी कि वह पुलिस को हिंसा करने से रोके लेकिन उसने कहा कि पहले लोग हिंसा रोकें. सुप्रीम कोर्ट ने अपने कर्तव्य का पालन नहीं किया. सुप्रीम कोर्ट की भूमिका निराश करने वाली है. वह जनविरोधी है और वह बहुसंख्यकवादी कार्यपालिका का पक्ष ले रही है. निचली और उच्च अदालतों से अभी कुछ उम्मीद बाकी है और इसीलिए तो सॉलीसीटर जनरल तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट में उच्च अदालतों के खिलाफ बयानबाजी की है. फिर हमने देखा है कि गुजरात उच्च अदालत और अन्य उच्च अदालतों में, जहां की खंडपीठ ने सरकार के खिलाफ स्टैंड लिया, वहां रोस्टर बदले गए. जब अल-हिंद मामले में न्यायाधीश एस मुरलीधर ने पुलिस के खिलाफ आदेश जारी किया तो उनका तुरंत तबादला कर दिया गया.

तुषार धारा : जिन लोगों पर पुलिस ने आरोप लगाए हैं उनके सामने शांतिपूर्ण और नैतिक रास्ता क्या है?

अपूर्वानंद : हम जैसे लोगों को गांधी रास्ता दिखाते हैं. गांधी की हत्या अल्पसंख्यकों और दलितों का पक्ष लेने के चलते की गई थी. हमारे सामने खुली लोकतांत्रिक राजनीति और अल्पसंख्यकों के अधिकारों के लिए खड़े होने का रास्ता है . तभी हम अपने आपको सभ्य राष्ट्र कह पाएंगे. एक ऐसा राष्ट्र जहां अल्पसंख्यक भय के साये में जीते हैं, बुद्धिजीवी अपनी बात रखने से डरते हैं और विश्वविद्यालय परिसर खामोश हों वह एक अभागा राष्ट्र है. हम स्टालिनवादी रूस नहीं हैं, हम चीन या तुर्की नहीं हैं. हम अभी भी संविधान से शासित मुल्क हैं. संविधान हमें अधिकार संपन्न करता है. हमें संविधान की प्रस्तावना की तरफ लौटने की दरकार है और यही काम शाहीन बाग कर रहा था.


तुषार धारा कारवां में रिपोर्टिंग फेलो हैं. तुषार ने ब्लूमबर्ग न्यूज, इंडियन एक्सप्रेस और फर्स्टपोस्ट के साथ काम किया है और राजस्थान में मजदूर किसान शक्ति संगठन के साथ रहे हैं.