पुणे पुलिस ने की भीमा कोरेगांव मामले के आरोपियों के खिलाफ पेश सबूतों से छेड़छाड़?

दस्तावेजों और फॉरेंसिक सामग्री की कॉपियों की बारीक जांच से तकनीकी गड़बड़ियों और प्रक्रिया के स्पष्ट उल्लंघन का पता चलता है.
14 December, 2019

भीमा कोरेगांव मामले में मानव अधिकार कार्यकर्ताओं के खिलाफ जिन डिजिटल सबूतों को पुणे पुलिस ने अदालत के सामने पेश किया है उनमें तकनीकी गड़बड़ियों और प्रक्रिया के स्पष्ट उल्लंघन का पता चलता है. पिछले साल पुणे पुलिस ने दावा किया था कि उसने मानव अधिकार अधिवक्ता सुरेंद्र गाडलिंग और बंदी अधिकार कार्यकर्ता रोना विल्सन के कंप्यूटरों की हार्ड ड्राइवों से इन लोगों के खिलाफ आरोप सिद्ध करने वाले कई पत्र बरामद किए हैं. इन दस्तावेजों की बारीकी से जांच करने पर पुलिस की जांच में अनियमितताओं के गंभीर सवाल खड़े होते हैं.

इन पत्रों के आधार पर पुणे पुलिस ने दावा किया है कि आरोपी “सरकार का तख्तापलट” करने और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की हत्या के माओवादी षड्यंत्र का हिस्सा थे. इन पत्रों का इस्तेमाल छत्तीसगढ़ की वकील सुधा भारद्वाज, नागपुर विश्वविद्यालय में अंग्रेजी की प्रोफेसर शोमा सेन, सुधीर धावले, कवि वरवरा राव, कार्टूनिस्ट अरुण फरेरा और महेश रावत और वेरनॉन गोंजाल्विस जैसे कार्यकर्ताओं को फंसाने के लिए किया गया. ये सभी नौ लोग इस वक्त हिरास्त में हैं.

कारवां ने पुणे पुलिस द्वारा अदालत और आरोपी व्यक्तियों को दिए उन दस्तावेजों और फॉरेंसिक सामग्री की कॉपियों की बारीकी से जांच की जो पुलिस को गाडलिंग के कंप्यूटर से मिले थे. दस्तावेजों, फंसाने वाली फाइलों के मेटाडाटा, पुणे पुलिस का आरोपपत्र और पुणे की रीजनल फॉरेंसिक साइंस लैबोरेट्री की रिपोर्ट के अध्ययन से ऐसे कई संकेत मिलते हैं जो बताते हैं कि पुलिस ने इन दस्तावेजों को कब्जे में लेने के बाद इन पर डिवाइस का इस्तेमाल किया है या इन फाइलों को एडिट किया है. सूचना प्रौद्योगिकी कानून, 2000 में उस प्रक्रिया का उल्लेख है जिसका पालन डिजिटल सबूतों की छानबीन के वक्त पुलिस को करना होगा. जान पड़ता है पुलिस ने उस प्रक्रिया का उल्लंघन किया है.

नीचे ऐसी ही छह अनियमितताओं और प्रक्रियागत उल्लंघनों को वर्णन है :

फाइलों का पुलिस कस्टडी के दौरान संपादन किया जाना

अपनी जांच में पुणे पुलिस उस पत्र पर निर्भर थी इसके बारे में उसका दावा है कि वह उसे गाडलिंग की हार्ड ड्राइव में मिला है. पत्र का शीर्षक है “Dear Surendra.docx”. यह पत्र उन ढेरों पत्रों में से एक जो पुणे पुलिस ने सितंबर 2018 में कोर्ट में जमा करने से पहले मीडिया को दिए थे. मीडिया को दिए पत्र की कॉपी में टेक्स्ट जस्टिफाइड है. लेकिन जब नवंबर 2018 में यही पत्र आरोपियों के वकीलों को दिया गया तो टेक्स्ट लेफ्ट अलाइंड है. कानूनी प्रक्रिया के अनुसार पुलिस डिवाइस का अन्य इस्तेमाल नहीं कर सकती. उसे बिटस्ट्रीम इमेज अथवा हार्ड ड्राइव का क्लोन बनाकर सामग्री का अध्ययन करना होता है. पुलिस द्वारा फाइलों के फॉर्मेट या कंटेंट में बदलाव को सबूतों के साथ छेड़छाड़ माना जाता है.

लास्ट एक्सेस्ड तारीख में गड़बड़ी

सभी फाइलों की लास्ट एक्सेस्ड तारीख में एक अजीब पैटर्न दिखाई देता है. इनका समय और तारीख “Thu Dec 7 22:04:07 UTC+0530 2017”  से “Thu Dec 7 22:05:55 UTC+0530 2017” है जो एक मिनट 48 सेकंड का है. इससे समझ आता है कि जो आखिरी चीज इन फाइलों के साथ की गई वह यह कि इन्हें वर्तमान लोकेशन में कट-पेस्ट किया गया था. ऑपरेटिंग सिस्टम विंडोज 7-  जिसका इस्तेमाल गाडलिंग कर रहे थे- लास्ट एक्सेस्ड टाइमस्टैंप तभी अपडेट होता है जब कोई नई फाइल बनाई और कॉपी या कट कर  अन्य लोकेशन में पेस्ट की जाती है. अगर फाइल बनाई या कॉपी की जाती है तो टाइमस्टैंप में फाइल क्रिएटिड टाइमस्टैंप बनता है जो लास्ट एक्सेस्ड के समान होता है. यह टाइमस्टैंप फाइल को खोलने पर अपडेट नहीं होता. गाडलिंग के मामले में गाडलिंग के कंप्यूटर से मिले दस्तावेजों की फाइल क्रिएटिड टाइमस्टैंप लास्ट एक्सेस्ड टाइमस्टैंप के पहले की है. इससे एक ही नतीजा निकलता है की फाइलों को बहुत थोड़े समय में कट और पेस्ट किया गया. पुलिस के अनुसार सभी फाइलें गाड़गिल के डेस्कटॉप के फोल्डर से मिली हैं. ऐसा असंभव लगता है कि गाडलिंग ने 7 दिसंबर 2017 को इन सभी फाइलों को, जो उनको फंसाती हैं, कंप्यूटर के डेस्कटॉप में एक फोल्डर बनाकर रखा होगा.

रीजनल फॉरेंसिक साइंस लैबोरेट्री की रिपोर्ट गडलिंग की ड्राइव से प्राप्त फाइलों के मेटाडाटा की जानकारी देती है. रिपोर्ट संकेत देती है कि ये फाइलें गडलिंग के कंप्यूटर में तब थीं जब वह कंप्यूटर उनके पास था. इन फाइलों के निर्माण, लास्ट एक्सेस्ड और मॉडिफाइड की तारीख, गडलिंग के घर मारे गए छापे के एक दिन पहले की है. लेकिन सूचना और सिस्टम सुरक्षा के विशेषज्ञ ने बताया कि इन तारीखों को पुरानी तारीख के सिस्टम में ड्राइव डालकर आसानी से बदला जा सकता है और ऐसा आसानी से मिल सकने वाले सॉफ्टवेयर की मदद से किया जा सकता है.

कार्यकर्ताओं पर छापे के दौरान प्रक्रियात्मक उल्लंघन

इस मामले में पुलिस ने जिस तरीके से उपकरणों को जब्त किया वह सूचना प्रौद्योगिकी कानून, 2000 में तय मानकों से उलट हैं. अधिनियम में कहा गया है कि सभी डिजिटल सबूतों को सुरक्षित और पारदर्शी तरीके से जब्त किया जाना चाहिए ताकि साक्ष्यों के साथ किसी तरह की छेड़छाड़ की संभावना न रहे. इसके लिए, पुलिस के पास ऐसे उपकरण हैं जो जब्ती की जगह पर इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की क्लोनिंग कर सकते हैं. जब्ती के समय, पुलिस को आरोपी व्यक्तियों को जब्त डिवाइस का "हैश मूल्य" देना होता है. हैश मूल्य एक संख्यात्मक मान है जो विशिष्ट रूप से डेटा की पहचान करता है, जो डिजिटल उपकरणों पर इलेक्ट्रॉनिक सील की तरह होता है. अगर डिवाइस का उपयोग किया जाता है या किसी भी तरह से जब्ती के बाद उसके साथ छेड़छाड़ की जाती है, तो डिवाइस का हैश मूल्य बदल जाता है और आरोपी को दिए गए मूल्य के साथ मेल नहीं खाता. 17 अप्रैल 2018 को कार्यकर्ताओं पर पुलिस के कई छापों के बाद, पुणे पुलिस के अधिकारियों ने उन्हें कोई हैश मूल्य प्रदान नहीं किया. कुछ मामलों में, जब्ती के कई महीनों बाद ये मूल्य प्रदान किए गए थे. उदाहरण के लिए, गडलिंग की ड्राइव की एफएसएल रिपोर्ट, जिसके जरिए उसके हैश मूल्य का पता चला था, उनके घर पर छापा मारने के सात महीने बाद नवंबर 2018 में दिया गया था.

सुरक्षा प्रक्रियाओं का पालन करने में असंगति

मामले में पुणे पुलिस की जांच से स्पष्ट है कि पुलिस बल डिजिटल सबूत हासिल करने में हैशिंग के उपयोग से अनभिज्ञ नहीं है. मामले में आरोपपत्र से पता चलता है कि पुलिस ने मामले के दौरान जब्त किए गए अन्य इलेक्ट्रॉनिक सबूतों के लिए हैश मूल्य दर्ज किए हैं- उदाहरण के लिए, कुछ आरोपी कार्यकर्ताओं द्वारा दिए गए भाषणों के वीडियो. लेकिन पुलिस सुरक्षा प्रक्रियाओं के अपने आवेदन में चयनात्मक रही है. गौरतलब है कि ऐसा लगता है कि पुलिस को केवल उन्हीं उपकरणों से दोषी ठहराने वाली फाइलें मिली हैं जिन उपकरणों को उन्होंने प्रक्रिया का उल्लंघन करते हुए जब्त किया था और जहां उन्होंने हैश मूल्य नहीं दिया है.

आरोपी को सबूत दिखाने से इनकार करना

पुलिस ने अभियुक्तों को उनके खिलाफ पेश किए गए सबूतों की प्रतियां दिखाने और उनका निरीक्षण करने के उनके कानूनी अधिकार से वंचित रखा. पुलिस ने आरोपियों को उनके पास से जब्त किए गए उपकरणों की क्लोन बिटस्ट्रीम छवियां उपलब्ध करने में देरी की, जिसे आदर्श रूप से तो छापे के समय ही उन्हें दिया जाना चाहिए था. सबूतों के क्लोन के लिए कई आवेदनों के बाद, अदालत ने आखिरकार मई 2019 में एक आदेश पारित किया, जिसमें पुलिस को निर्देश दिया कि "आरोपी व्यक्तियों को जांच अधिकारी द्वारा दायर इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की प्रतियां" दी जाएं. सितंबर में, पुलिस ने गडलिंग को एक हार्ड ड्राइव दी, जो उनके हार्ड ड्राइव की एक बिटस्ट्रीम छवि नहीं थी, लेकिन उसमें उनके कंप्यूटर में मिली उन्हें फंसाने वाली फाइलें ही थीं. एक बिटस्ट्रीम छवि में न केवल डॉक्यूमेंट, फोटो और वीडियो होते हैं बल्कि सिस्टम और प्रोग्राम फाइलें भी होती हैं. यह पूरी हार्ड ड्राइव का एक क्लोन होता है, जो हार्ड ड्राइव और इसकी सामग्री की प्रामाणिकता का पता लगाने में महत्वपूर्ण हो सकता है.

सभी फाइलें या तो ".docx" या ".pdf" फॉर्म में हैं

इन पत्रों की विश्वसनीयता इन कथित पाए गए डॉक्यूमेंट की प्रकृति के कारण सवालों के घेरे में आ जाती है. गडलिंग के ड्राइव के पत्र, इंटरसेप्टेड ईमेल नहीं हैं - जिसमें ईमेल किसको किसने कब भेजा का ब्योरा होता है. ईमेल प्लेटफॉर्म एक तीसरी पार्टी है जो इस तरह के संचार की पुष्टि कर सकती है और तिथियों में फेरबदल करना लगभग असंभव है. लेकिन गडलिंग के ड्राइव पर पत्र ".docx" या ".pdf" प्रारूप में हैं यानी ऐसे डॉक्यूमेंट जिन्हें आसानी से बनाया जा सकता है, हेरफेर किया जा सकता है और एक असुरक्षित डिजिटल डिवाइस में जड़ा जा सकता है. यह सुनिश्चित करना संभव नहीं है कि ये पत्र किसने, किसको और कब भेजे.

10 दिसंबर 2019 को कारवां ने गडलिंग की जांच और गिरफ्तारी में शामिल पुणे पुलिस के शीर्ष अधिकारियों को एक विस्तृत प्रश्नावली भेजी. कारवां ने मामले के जांच अधिकारी, सहायक आयुक्त शिवाजी पवार और गडलिंग के घर पर छापे में शामिल दो अधिकारियों- पुलिस उपायुक्त सुहास बावचे और औरंगाबाद जिले के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक गणेश गावड़े से भी प्रश्न पूछे. पुलिस के किसी भी अधिकारी ने संपर्क नहीं किया और न ही उनके वरिष्ठों ने जवाब दिए. उनकी प्रतिक्रिया मिलने पर रिपोर्ट को अपडेट कर दिया जाएगा. रीजनल फॉरेंसिक साइंस लैबोरेट्री ने यह कहते हुए कि मामला फिलहाल न्यायालय में लंबित है, टिप्पणी करने से इनकार कर दिया.

नौ आरोपियों को जमानत देने से इनकार किया गया है और ये लोग एक साल से ज्यादा वक्त सलाखों के पीछे बिता चुके हैं.

ऊपर बांए से : सुधा भारद्वाज, सुधीर धावले, अरुण फरेरा, वेरनॉन गोंजाल्विस. नीचे बाएं से : महेश रावत, वारावारा राव, सुरेंद्र गडलिंग, रोना विल्सन, शोमा सेन.