संविधान सभा से लेकर इंद्रा साहनी मामले तक, आर्थिक आरक्षण बहस पर एक नजर

संविधान सभा ने भारत में आरक्षण की प्रकृति और दायरे पर बहस की थी. विकिमीडिया कॉमनस
28 March, 2019

"आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों" के नागरिकों के लिए 12 जनवरी को सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में 10 प्रतिशत तक आरक्षण लागू करने के लिए भारतीय संविधान में 103वां संवैधानिक संशोधन किया गया. इस संशोधन में वे नागरिक शामिल नहीं हैं जो पहले ही संविधान के अनुच्छेद 15 (4) और (5), और 16 (4) के तहत शामिल थे. संविधान के ये अनुच्छेद अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण से संबंधित हैं. वास्तव में, यह आरक्षण केवल उच्च जातियों के व्यक्तियों पर ही लागू होगा. सामाजिक रूप से हाशिए पर खड़े समूहों के पिछड़ेपन को दूर करने पर केंद्रित मौजूदा आरक्षणों के विपरीत, 10 प्रतिशत कोटा केवल व्यक्तिगत आर्थिक कमजोरी पर केंद्रित है और केवल उच्च-जाति के उन परिवारों पर लागू होगा जिनकी वार्षिक आय 8 लाख से कम है.

इसकी घोषणा होने के कुछ ही समय बाद, आरक्षण विरोधी गैर-सरकारी संगठन यूथ फॉर इक्वैलिटी, वकील रीपक कंसल और पवन तथा राजनीतिक टिप्पणीकार तहसीन पूनावाला ने सुप्रीम कोर्ट में संशोधन को चुनौती देने वाली अलग-अलग याचिकाएं दायर कीं. याचिकाओं में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और ओबीसी श्रेणियों के व्यक्तियों को छोड़कर आरक्षण के लिए एकमात्र आधार के रूप में आर्थिक मानदंडों के उपयोग पर सवाल उठाया गया था. अदालत ने याचिकाओं पर सुनवाई करने का फैसला किया, लेकिन संशोधन को लागू करने पर रोक लगाने की मांग को खारिज कर दिया. इस मुद्दे पर 28 मार्च को शीर्ष अदालत दलीलें सुनेगी जिसके बाद तय किया जाएगा कि क्या याचिकाओं को पांच जजों वाली संविधान पीठ को भेजने की जरूरत है या नहीं.

आर्थिक मानदंडों के आधार पर आरक्षण के पक्ष और विपक्ष में दिए जा रहे तर्क नए नहीं हैं. ये तर्क संविधान सभा की बहसों में अपनी सबसे पुरानी बान​गी तलाशते हैं. हालांकि, संविधान सभा ने केवल आर्थिक रूप से परिभाषित पिछड़ेपन को कभी भी आरक्षण की कसौटी नहीं माना. यहां तक कि जिन सदस्यों ने आरक्षण के लिए आर्थिक आधार का समर्थन किया, उन्होंने भी ऐसे समूहों के लिए इसका समर्थन किया जिन्हें वे सामाजिक रूप से वंचित या कुछ अन्य मामलों में पिछड़े हुए मानते थे. संविधान को अपनाने के बाद, सरकार द्वारा नियुक्त कई आयोगों ने भारत में आरक्षण की प्रकृति पर विचार किया है.

स्वतंत्र भारत के संविधान की रूपरेखा बनाने के लिए 1946 में स्थापित संविधान सभा, आरक्षण को अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व को सुरक्षित रखने के लिए एक राजनीतिक सुरक्षा के रूप में लेती थी. बहस का मार्गदर्शन करने वाला निर्विरोध व्यापक सिद्धांत यह था कि आबादी का हर वर्ग, चाहे वह “संख्यात्मक रूप से या राजनीतिक रूप से अल्पसंख्यक” हो, “देश के प्रशासन में उचित प्रतिनिधित्व और एक उचित आवाज होना चाहिए.” सदन में केवल इस बात पर बहस थी कि ऐसे प्रतिनिधित्व को कैसे स्थापित किया जाए.

संविधान सभा द्वारा मौलिक अधिकारों, अल्पसंख्यकों और जनजातीय तथा बहिष्कृत क्षेत्रों पर नियुक्त एक सलाहकार समिति ने 30 अगस्त 1947 को विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण की सिफारिश की और संविधान सभा के समक्ष अपना दृष्टिकोण व्यक्त किया. जब फिर से यह सवाल उठा तो मई 1949 में फिर से अपने विचारों की पुष्टि की गयी. प्रस्ताव को तब संविधान सभा में रखा गया था. मद्रास राज्य विधान सभा के एक निर्वाचित सदस्य और भारत छोड़ो आंदोलन में प्रमुख भागीदार रहे एस नागप्पा ने आरक्षण के समर्थन में तर्क दिया. उन्होंने कहा कि अनुसूचित जाति "एक आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक अल्पसंख्यक" हैं, जिनके लिए आरक्षण के माध्यम से प्रतिनिधित्व सुरक्षित होना चाहिए. उन्होंने क​हा था कि “यहां तक कि आज भी, मैं आरक्षण के उन्मूलन के लिए तैयार हूं, बशर्ते हर हरिजन परिवार को 10 एकड़ दलदली जमीन, बीस एकड़ सूखी जमीन मिले, हरिजनों के सभी बच्चों के लिए विश्वविद्यालय स्तर तक की शिक्षा मुफ्त हो, और नागरिक विभागों या सैन्य विभागों में प्रमुख पदों का पांचवां हिस्सा उन्हें दिया जाए.”

संयुक्त प्रांत विधानसभा से निर्वाचित मोहन लाल गौतम ने हस्तक्षेप करते हुए कहा कि यदि उनके पास ऐसी जमीन हो सके तो हर ब्राह्मण ऐसी भूमि के लिए हरिजन के साथ स्थानों की अदला-बदली करने को तैयार होगा. जवाब में, नागप्पा ने तर्क दिया कि एक हिंदू "हरिजन" में तब तक परिवर्तित नहीं हो सकता जब तक कि कोई "दूसरों के लिए मेहतरी करने और झाड़ू लगाने के लिए तैयार न हो." अस्पृश्यता का यह कलंक बीआर अंबेडकर द्वारा प्रयुक्त "मजदूरों के विभाजन" से जुड़ा हुआ है, जो उनके आजीवन सामाजिक, शै​क्षणिक और आर्थिक पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार है. संविधान सभा में अनुसूचित जातियों के लिए ​आरक्षण के केंद्र में यही मुद्दा था. यह आरक्षण सामाजिक रूप से हाशिए पर खड़े वर्गों का प्रतिनिधित्व प्राप्त करने के लिए है, राज्य की सेवाओं में आरक्षण पर संविधान सभा में बहस का आधार भी यही था.

आरक्षण के कुछ विरोधियों ने सामाजिक पिछड़ेपन के उपचार के रूप में आरक्षण को लागू करने के खिलाफ तर्क दिया, लेकिन यह विरोध लाभार्थियों की श्रेणी को लेकर नहीं था. अल्पसंख्यकों के बारे में बनी उप-समिति के प्रमुख एचसी मुखर्जी की राय थी कि पिछड़े समूहों के लिए उपयुक्त उपाय राजनीतिक सुरक्षा के नहीं बल्कि आर्थिक हैं. मुस्लिम लीग से संयुक्त प्रांत विधानसभा के एक निर्वाचित सदस्य जेड एच लारी ने तर्क दिया कि धार्मिक अल्पसंख्यकों और अनुसूचित जातियों के प्रतिनिधित्व को आनुपातिक प्रतिनिधित्व की प्रणाली, यानी बहु-सदस्य निर्वाचन क्षेत्रों में संचयी वोटों की गिनती करने, के माध्यम से सुरक्षित किया जाना चाहिए न की आरक्षण के जरिए.

जाति के आधार पर लाभार्थियों के वर्गीकरण के विरोध में दो आवाजें थीं. संयुक्त प्रांत के एक निर्वाचित सदस्य महावीर त्यागी और मद्रास के एक प्रोफेसर और धर्मशास्त्री जेरोम डिसूजा ने सामाजिक पिछड़ेपन के लिए अन्य मानदंड़ों का उपयोग करने का सुझाव दिया. वर्ग-आधारित आरक्षण के एक मुखर प्रस्तावक त्यागी ने तर्क दिया कि अल्पसंख्यकों का वर्गीकरण आर्थिक आधार पर होना चाहिए जिसका आधार ऐसी "नौकरी" हो जिससे जीविका चलाने के लिए पर्याप्त कमाई नहीं होती है. त्यागी ने कहा कि, "मैं समुदाय के आधार पर अल्पसंख्यकों में विश्वास नहीं करता, लेकिन आर्थिक आधार पर, राजनीतिक आधार पर और वैचारिक आधार पर अल्पसंख्यकों का अस्तित्व होना चाहिए." “मैं यह सुझाव दूंगा कि अनुसूचित जाति के स्थान पर, भूमिहीन मजदूर, मोची या इसी तरह का काम करने वाले लोगों को जिनकी कमाई जीवन जीने के लिए अपर्याप्त है, उन्हें विशेष आरक्षण दिया जाना चाहिए ...मोचियों, धोबियों और इसी तरह के अन्य वर्गों को आरक्षण के माध्यम से अपने प्रतिनिधि भेजने दीजिए क्योंकि यही लोग हैं जिन्हें वास्तव में कोई प्रतिनिधित्व नहीं मिलता है.” आर्थिक आरक्षण के लिए त्यागी का मामला 103वें संविधान संशोधन से भिन्न है, क्योंकि वे पिछड़ेपन के संकेतक के रूप में आय या संपत्ति पर भरोसा नहीं करते थे. उनका विचार व्यवसायिक समुदायों और मजदूरों के वर्गों पर केंद्रित था.

डिसूजा का तर्क था कि किसी व्यक्ति की जाति या धर्म को आरक्षण के लिए विशेष आधार नहीं होना चाहिए. इसके बजाय, "निस्संदेह सामाजिक परिवेश को ध्यान में रखते हुए, व्यक्तिगत रूप से पिछड़े और जरूरतमंद" को दिया जाना चाहिए. डिसूजा ने कहा, "एक आदमी को इसलिए सहायता दी जानी चाहिए क्योंकि वह गरीब है, क्योंकि उसकी पैदाइश और परवरिश ने उसे सामाजिक, राजनीतिक और शैक्षिक रूप से प्रगति करने का अवसर नहीं दिया."

सदन का अंतिम वोट जाति के सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण के पक्ष में था. जनवरी 1950 में, संविधान को अपनाया गया था, जिससे सरकार को अनुसूचित जाति, जनजाति और सामाजिक रूप से पिछड़े वर्ग के लोगों के लिए आरक्षण देने की अनुमति मिली, जिनका राज्य की सेवाओं में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व था. राज्य को लोक सभा और राज्य विधानसभाओं में अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों के लिए उस राज्य विशेष में रहने वाले अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजातियों की आबादी के अनुपात में भी सीटें आरक्षित करने की आवश्यकता थी. भारतीय संविधान का दृष्टिकोण यह था कि आरक्षण संरचनात्मक, सामाजिक पिछड़ेपन के कारण पीछे रह गए राजनीतिक अल्पसंख्यकों यानी एससी, एसटी और साथ ही साथ नागरिकों के अन्य वर्गों के लिए प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए एक उपकरण होगा.

अगले साल, पिछड़ेपन के पहचान के रूप में आर्थिक मानदंडों का उपयोग करने का सवाल फिर से उठता है. मई 1951 में, संविधान में राज्य को "नागरिकों के किसी भी सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की उन्नति के लिए या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के लिए विशेष प्रावधान" करने की शक्ति प्रदान करने के लिए संशोधन किया गया. सामाजिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए संविधान सभा के विचारों पर ही, पूर्व प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने तर्क दिया कि संशोधन ने "उन सभी अनंत विभाजनों को समाप्त करने की आवश्यकता पर काम किया है जो हमारे सामाजिक जीवन या सामाजिक संरचनाओं में विकसित हो गए हैं ...हम उन्हें किसी भी नाम से पुकार सकते हैं आप उसे जाति व्यवस्था या धार्मिक विभाजन, जो कहना पसंद करें.”

वकील और अर्थशास्त्री केटी शाह ने, जो सलाहकार समिति के सदस्य थे, प्रस्तावति संशोधन में पिछड़ेपन को निर्धारित करने के लिए सामाजिक और शैक्षिक मानदंडों पर निर्भर होने और आर्थिक-मापदंड पर निर्भर न होने की आलोचना की. शाह ने लाभार्थियों के रूप में "नागरिकों के वर्ग" को वर्गीकृत करने और व्यक्तिगत नागरिकों को नहीं करने पर सवाल उठाया. उन्होंने कहा कि नागरिकों के सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की उन्नति के प्रावधान से भारत के गरीब नागरिकों के लिए कोई फायदा नहीं होगा. संविधान की घोषणा के बाद से "सामान्य जीवन स्तर और काम करने के सामान्य उचित स्तर" पर इससे बहुत कम प्रगति देखी गयी है.

जवाब में, नेहरू ने घोषणा की कि सामाजिक पिछड़ेपन को दूर किया जाना आर्थिक विचारों सहित संचित कारकों का एक परिणाम था. विशेष रूप से "आर्थिक" पिछड़ेपन को सूचीबद्ध करने से "यह एक तरह की संचयी बात नहीं बनेगी बल्कि ये कहें कि कोई व्यक्ति जिसमें इनमें से किसी भी चीज की कमी है, उसकी मदद की जानी चाहिए." इन बहसों में, यह स्पष्ट हो गया कि केवल संरचनात्मक पिछड़ेपन, जिसमें सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक पिछड़ापन संचयी रूप से शामिल है, संवैधानिक प्रावधानों द्वारा हटाए जाएंगे. लोगों के समूहों द्वारा सामूहिक रूप से अनुभव किए जाने वाले सामाजिक पिछड़ेपन के विपरीत, जो पिछड़ापन एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में भिन्न है, केवल आर्थिक पिछड़ेपन के रूप में प्रकट होता है, उसे विशेष प्रावधानों या आरक्षणों द्वारा संवैधानिक रूप से विस्मृत नहीं किया जाना था.

1951 का संशोधन राज्य द्वारा संचालित या सहायता प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के व्यक्तियों के लिए आरक्षण, शुल्क छूट या रियायत के आधार पर किया गया था. इस तरह के उपायों के बारे में सोच यह थी कि सेवाओं और विधानसभाओं में राजनीतिक अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व केवल तभी हो सकता है जब प्रतिनिधित्व के इसी तर्क से शैक्षणिक संस्थानों तक उनकी पहुंच नियंत्रित होती हो.

भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने, 1953 में राज्यसभा के सदस्य और ख्याति प्राप्त गुजराती साहित्यकार काका कालेलकर की अध्यक्षता में पहला पिछड़ा वर्ग आयोग नियुक्त किया. इसका कार्य "सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा हुए" नागरिकों को वर्गीकृत करने हेतु मानदंड निर्धारित करना था. आयोग की 1955 की रिपोर्ट में निम्नलिखित मानदंड हैं: "पारंपरिक जाति पदानुक्रम में निम्न सामाजिक स्थिति", "जाति या समुदाय के प्रमुख वर्ग के बीच सामान्य शैक्षिक उन्नति का अभाव", "अपर्याप्त या सरकारी सेवा में कोई प्रतिनिधित्व नहीं", और "व्यापार, वाणिज्य और उद्योग के क्षेत्र में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व."

इस रिपोर्ट ने केंद्र सरकार के उद्देश्यों के लिए 2399 जातियों की "सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े" के रूप में पहचान की. हालांकि, सरकार ने यह कहते हुए जाति को पिछड़ेपन के निर्धारण के लिए एक कसौटी के रूप में खारिज कर दिया, कि यह केवल "जाति के आधार पर मौजूदा भेदों को कायम और स्थित बनाए" रखेगी. आखिरकार, सरकार ने घोषणा की कि "आर्थिक परीक्षण लागू करने से बेहतर जाति के आधार को ही लागू रखना होगा,” और यह कि राज्य सरकारें अपने चयन के मानदंड के अनुरूप पिछड़ेपन को परिभाषित करने के लिए स्वतंत्र हैं. कालेलकर आयोग की रिपोर्ट की अस्वीकृति के साथ, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के रूप में पहले से सूचीबद्ध लोगों के अलावा कोई भी पिछड़ा वर्ग केंद्र सरकार के तहत आरक्षण का लाभार्थी नहीं था. लगभग चार दशक बाद मंडल आयोग की रिपोर्ट के आंशिक कार्यान्वयन तक यही स्थिति रही.

1979 में, जनता पार्टी की सरकार ने लोकसभा के सदस्य बीपी मंडल की अध्यक्षता में दूसरे पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया. मंडल आयोग को भी सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान के लिए मानदंड निर्धारित करने का काम सौंपा गया था. आगे इन समूहों की "उन्नति के लिए उठाए जाने वाले कदम" और ऐसे समूहों के लिए सरकारी सेवाओं में आरक्षण की "वांछनीयता की जांच" करने के लिए कहा गया.

1980 में प्रस्तुत मंडल आयोग की रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि पिछड़े वर्गों की पहचान करने में जाति के बजाय आर्थिक मापदंड का उपयोग “भारतीय समाज में सामाजिक पिछड़ेपन की उत्पत्ति की अनदेखी”है. रिपोर्ट में पाया गया कि सामाजिक पिछड़ापन जाति की स्थिति का परिणाम है, जो विभिन्न प्रकार के पिछड़ेपन की ओर ले जाता है. सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को मापने के लिए, सूचकांक संकेतक बनाए गए थे: चार सामाजिक संकेतक प्रत्येक तीन अंकों का, तीन शैक्षिक संकेतक दो अंकों का प्रत्येक और चार आर्थिक संकेतक एक-एक अंक का सूचकांक करते हैं.

आर्थिक संकेतक वे वर्ग या जातियां थीं, जिनके "परिवारों' की संपत्ति का औसत मूल्य राज्य के औसत से कम से कम 25 प्रतिशत कम है," जिनकी "कच्चे घरों में रहने वाले परिवारों की संख्या राज्य के औसत से कम से कम 25 प्रतिशत अधिक है," "जिनके पीने के पानी का स्रोत" आधे से अधिक घरों के लिए आधा किलोमीटर से दूर है," "या जिनके घरों में राज्य औसत से कम से कम 25 प्रतिशत से अधिक उपभोग ऋण लिया गया था." इन सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक संकेतकों के आधार पर मंडल आयोग ने अन्य पिछड़ा वर्ग के तौर पर 3743 जातियों की पहचान की तथा इनके लिए आरक्षण, अन्य शैक्षणिक रियायतों तथा छोटे और मध्यम उद्योगों की स्थापना के लिए वित्तीय और तकनीकी सहायता देने की सिफारिश की. अपनी जातिगत पहचान के कारण समुदायों का हाशिए पर जाना पिछड़ेपन का प्राथमिक निर्धारक पाया गया, जबकि परिणामी शैक्षिक और आर्थिक पिछड़ापन यौगिक घटक पाए गए.

1990 में, वीपी सिंह सरकार ने घोषणा की कि वह मंडल आयोग की रिपोर्ट को उन जातियों और समुदायों के लिए लागू करेगी जो मंडल आयोग की रिपोर्ट और राज्य सरकारों की सूची दोनों के लिए सामान्य हैं. इसने "सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों" या ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत की सीमा तक केंद्र सरकार की सेवाओं में आरक्षण संबंधी एक कार्यालय ज्ञापन जारी किया. 1991 में, पीवी नरसिम्हा राव सरकार ने "आरक्षण की मौजूदा किन्हीं भी योजनाओं के तहत शामिल नहीं किए गए लोगों के अन्य आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों" के लिए केंद्र सरकार की सेवाओं में 10 प्रतिशत सीटें और पदों को आरक्षित करने के लिए ज्ञापन में संशोधन किया. क्योंकि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और "सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग" पहले से ही आरक्षण के लिए मौजूदा प्रावधानों शामिल थे, इसलिए इन अन्य "आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों" को उच्च जातियों में से पहचाना गया. ज्ञापन के अनुसार इन अन्य वर्गों को निर्धारित करने के लिए मानदंड अलग से जारी किए जाने थे.

इस ज्ञापन को 1990 और 1991 के बीच की अवधि में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष रिट याचिकाओं में चुनौती दी गई थी. इंद्रा साहनी बनाम भारतीय संघ के मामले में एक ऐतिहासिक फैसले में, सुप्रीम कोर्ट के नौ न्यायाधीशों ने कहा कि बिना किसी संरचनात्मक या सामाजिक पिछड़ेपन के अनुभव के, नागरिकों के वर्गों को केवल आर्थिक मानदंडों पर "पिछड़े वर्गों" के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है. अदालत ने पुष्टि की कि सामाजिक पिछड़ापन शैक्षिक और आर्थिक पिछड़ेपन की ओर जाता है, जैसा कि मंडल आयोग ने पाया था. इसके अनुसार, सुप्रीम कोर्ट ने संविधान से बेमेल होने के लिए “आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों” का 10 प्रतिशत आरक्षण रद्द कर दिया.

1991 का कार्यालय ज्ञापन स्वतंत्र भारत में उच्च जाति आरक्षण के लिए 103वें संविधान संशोधन के प्रावधान का एकमात्र उदाहरण है. दोनों केवल जारी करने वाले प्राधिकारी के संदर्भ में भिन्न हैं. 1991 ज्ञापन संशोधन एक नौकरशाह द्वारा इस धारणा पर जारी किया गया था कि सरकार के पास इस तरह के आरक्षण देने की शक्ति है, जबकि वर्तमान संशोधन इस तरह के आरक्षण लागू करने में सरकार को स्पष्ट रूप से सशक्त बनाने के लिए संविधान में परिवर्तन करता है. चूंकि संविधान में अब यह अनुमति देने के लिए संशोधन किया गया है जिसे साहनी अस्वीकार करते हैं, इसलिए संशोधन को चुनौती देने के लिए साहनी के फैसले का उपयोग नहीं किया जा सकता है. संविधान में संशोधन सुप्रीम कोर्ट के द्वारा तभी हो सकता है जब वह संविधान की "मूल संरचना" को नुकसान पहुंचाए या नष्ट कर दे. यह देखा जाना बाकी है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा सोहनी के किसी भी पहलू को भारतीय संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा माना जाएगा या नहीं.

समय-समय पर, सामाजिक और राजनीतिक हलकों में सामाजिक रूप से हाशिए पर खड़े समूहों के प्रतिनिधित्व को सुरक्षित रखने के लिए एक राजनीतिक रक्षा कवच के रूप में आरक्षण के उद्देश्य की पुन: पुष्टि की गई है. इसी नजरिए से देखा जाए, तो स्वतंत्र भारत के इतिहास में बहुत कम ऐसे उदाहरण हैं जो पूरी तरह से व्यक्तिगत आर्थिक मानदंडों पर आधारित उच्च-जातियों के लिए आरक्षण का समर्थन करते हैं जिनकी सामाजिक संरचनाओं में उत्पत्ति नहीं है.