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भारतीय जेलों में अत्यधिक भीड़भाड़ है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा 2018 में की गई अंतिम गणना के अनुसार देश में लगभग चार लाख पचास हजार कैदी हैं. यह संख्या जेल की वास्तविक क्षमता से लगभग सत्रह प्रतिशत अधिक है. दिल्ली और उत्तर प्रदेश की जेलों में यह क्षमता से पचास प्रतिशत अधिक है. कोविड-19 महामारी ने भारतीय जेलों और कैदियों को अत्यधिक असुरक्षित बना दिया है. इस समय वहां भीड़ कम करने की तत्काल आवश्यकता है.
इसे देखते हुए इस वर्ष 16 मार्च को मुख्य न्यायाधीश शरद ए. बोबडे के नेतृत्व में सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने स्थिति का संज्ञान लिया. एक हफ्ते बाद उन्होंने राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को आदेश दिया कि वे यह निर्धारित करने के लिए उच्च-स्तरीय समितियों का गठन करें कि किस श्रेणी के कैदियों को पैरोल या अंतरिम जमानत पर रिहा किया जा सकता है. हालांकि अदालत ने समितियों को कैदियों की रिहाई की जिम्मेदारी सौंपी लेकिन उसने आदेश में सुझाव दिया कि “राज्य/केंद्र शासित प्रदेश उन कैदियों की रिहाई पर विचार कर सकते हैं जिन्हें दोषी ठहराया गया है या उन अपराधों के लिए सुनवाई चल रही है जिनके लिए निर्धारित सजा 7 साल या उससे कम है."
इस सुझाव को आंख बंद करके लागू किया गया है. दिल्ली में एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति ने ऐसे मामलों में अपराधियों की अंतरिम जमानत पर रिहा करने की सिफारिश की, जहां अधिकतम सजा दस साल या उससे कम है और उन महिलाओं को भी जो 15 दिन या उससे अधिक समय से हिरासत में थीं और उनका ट्रायल नहीं हुआ है. समिति को उम्मीद है कि इन सिफारिशों के आधार पर लगभग 800 कैदियों को रिहा किया जाएगा. इसी तरह, उत्तर प्रदेश सरकार ने उन 11000 अपराधियों को पैरोल या अंतरिम जमानत पर रिहा करने का फैसला किया जिनकी सजा सजा 7 साल तक है. महाराष्ट्र, हरियाणा और बाकी राज्य भी समान मानदंडों का पालन कर रहे हैं और उन कैदियों को रिहा कर रहे हैं जो कम गंभीर अपराधों के लिए सजा काट रहे हैं.
उच्चतम न्यायालय द्वारा सुझाव के रूप में पेश किए गए मानदंड और फिर विभिन्न राज्यों द्वारा विनम्रतापूर्वक उसे अपनाना ना उचित है और ना ही लक्षित उद्देश्य को प्राप्त करने की दिशा में सक्षम है. ऐसा लगता है कि छोटे अपराधों के लिए दोषी ठहराए गए या अंडर-ट्रायल कैदियों को ही स्वास्थ्य और जीवन का अधिकार प्राप्त है, उन लोगों को नहीं जो लोग संगीन अपराध के लिए सजा काट रहे हैं या ट्रायल का इंतजार कर रहे है. उदाहरण के लिए, 7 साल के वर्गीकरण के चलते, जालसाजी के मामले में अभियोगाधीन एक 70 वर्षीय कैदी जिसको संक्रमण होने का खतरा अधिक है उसे अंतरिम जमानत नहीं दी जा सकती. जबकि चोरी के मामले में अभियोगाधीन 25 वर्षीय एक कैदी को जमानत दी जा सकती है. यह मानदंड अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनाए जा रहे मानदंडों से विपरीत है. .
इसका उद्देश्य छोटे अपराधियों को माफ करना नहीं होना चाहिए बल्कि इसे कोरोनावायरस महामारी से बचाव के उपाए के रूप में देखना होगा. यह अच्छी तरह से दर्ज किया गया है कि इस बीमारी ने बूढ़े लोगों को अधिक प्रभावित किया है. मधुमेह और हृदय रोग जैसे लंबे समय तक चलने वाली अंतर्निहित बीमारियों से पीड़ित लोगों में भी यह संक्रमण होने का खतरा है.
इसलिए पहला मानदंड सबसे कमजोर लोगों की पहचान करना और उनकी रक्षा करना होना चाहिए. जैसे कि वे दोषी या अंडर-ट्रायल कैदी जो साठ साल से ऊपर की आयु के हैं और जिनका स्वास्थ्य स्वास्थ्य पहले से ही खराब है. भारतीय राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में केवल आंध्र प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब और लद्दाख ने विशेष ध्यान देते हुए संवेदनशील कैदियों की पहचान की है.
अप्रैल में दिल्ली की समिति ने अपने मानदंड में ढील दी - इसमें उन अंडर-ट्रायल कैदियों को भी जमानत दी गई जिनकी अधिकतम सजा दस साल तक की है. हालांकि इन कैदियों को छह महीने से अधिक समय तक हिरासत में रहना होगा. यह अनिवार्य छह महीने की हिरासत गैर जरूरी लगती है क्योंकि मुख्य उद्देश्य यानी कोविड-19 का जिन्हें सबसे अधिक खतरा है, उनके बचाव से इसका कोई संबंध नजर नहीं आता. यह उन बूढ़े लोगों की संख्या को काफी कम कर देता है जो इस प्रावधान से लाभांवित होंगे.
इस बारे में अधिकांश भारतीय राज्यों की कार्रवाइयों को देखकर लगता है कि उन्होंने संयुक्त राष्ट्र की सिफारिशों की अनदेखी की है. संयुक्त राष्ट्र में मानव अधिकार के उच्चायुक्त मिशेल बाचेलेट ने कहा, "अधिकारियों को कोविड-19 से बचाने के लिए विशेष रूप से कमजोर लोगों को छोड़ने के तरीकों के बारे में सोचना चाहिए. उनमें बूढ़े और बीमार कैदियों के साथ कम जोखिम वाले लोग भी शामिल हों. अब सरकारों को पहले से कहीं अधिक, पर्याप्त कानूनी आधार के बिना हिरासत में लिए गए प्रत्येक व्यक्ति को रिहा करना चाहिए. जिसमें राजनीतिक कैदी और अन्य लोग भी शामिल होने चाहिए, जिन्हें केवल असंतोषजनक विचार व्यक्त करने के लिए हिरासत में लिया गया हो."
दुनिया भर में कई देश "आसानी से बीमारी की चपेट में आने वाले लोगों के समूहों" का वर्गीकरण करते हुए काम कर रहे हैं. फिलहाल कोविड-19 से सबसे ज्यादा प्रभावित संयुक्त राज्य अमेरिका भी स्वास्थ्य संकट को देखते हुए कमजोर कैदियों को रिहा कर रहा है.
यहां तक कि तुर्की की संसद, जो कैदियों के अधिकारों के संरक्षण के लिए नहीं जानी जाती, ने एक कानून पारित किया है जो उन महिला कैदियों, जिनके छह साल से कम उम्र के बच्चे हैं, बुजुर्ग और बीमार कैदियों को जल्दी रिहाई के योग्य ठहराता है.
जबकि अन्य देशों के उदाहरण उपयोगी हैं, भारत को अपने विशिष्ट संदर्भ को ध्यान में रखते हुए जेलों में भीड़ कम करने के बारे में भी सोचना होगा. साथ ही वर्गीकरण यह निर्धारित करने में मदद करेगा कि रिहा किए गए कैदी सामाजिक दूरी और अलगाव में रहने की क्षमता विकसित करे, जो इस संक्रमण से बचने के लिए आवश्यक हैं. उदाहरण के लिए, कोई कैदी जो अधिक भीड़भाड़ वाली झुग्गी में रहता है उसे शायद रिहा करने पर संक्रमण के फैलने का ज्यादा जोखिम होगा.
भारत को उन मामलों की भी समीक्षा करने की आवश्यकता है जिनमें गलत फैसले दिए गए हैं या कठोर कानून के तहत सजा दी गई हैं. आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 436 ए के तहत अगर किसी अपराधी ने अपराध के लिए अधिकतम सजा काट ली है, जिसके लिए उस पर आरोप लगाया गया है, तो उसे एक व्यक्तिगत बांड पर रिहा किया जा सकता है, यदि उसे मौत की सजा न दी गई हो. शीर्ष अदालत ने भीम सिंह बनाम भारतीय संघ के अपने 2014 के फैसले में इस कानून के प्रभावी क्रियान्वयन का आह्वान किया था. एमनेस्टी इंटरनेशनल की 2017 की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि अधिकांश जेल अधिकारियों ने धारा 436 ए के तहत रिहाई के लिए पात्र कैदियों की संख्या की गलत गणना की थी और कई मामलों में आधिकारिक तौर पर गणना की तुलना में रिहाई के पात्र कैदियों की संख्या बहुत अधिक थी. राज्यों को धारा 436 ए के तहत रिहा किए जाने के योग्य कैदियों की संख्या को लेकर पुनर्मूल्यांकन करने की तत्काल आवश्यकता है.
सरकार को राजनीतिक कैदी माने जाने वाले लोगों की गिरफ्तारी का भी आंकलन करने की जरूरत है. गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) जैसे कानून पुलिस और अदालतों को अत्यधिक अधिकार देते हैं और सबूतों की जांच से पहले लंबे समय तक व्यक्ति को हिरासत में रखने की अनुमति देते हैं. इसका अक्सर दुरुपयोग किया जाता है. फिर भी, लगभग सभी राज्यों की समितियों ने सुझाव दिया है कि प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और राष्ट्रीय जांच एजेंसी द्वारा जांच किए गए मामलों और यूएपीए के तहत दर्ज मामलों पर भी विचार नहीं किया जाना चाहिए. यह आरोप लगाया जाता है कि ईडी अक्सर अपने राजनीतिक इरादे से मामलों की जांच करता है और यह भी कि यूएपीए नियमित रूप से उन लोगों के खिलाफ कार्रवाई करता है जिनकी स्वतंत्रता अधिकारियों के लिए असुविधाजनक बन जाती है.
उदाहरण के लिए, भीमा कोरेगांव हिंसा मामले पर व्यापक रूप से राजनीति से प्रेरित होने का आरोप लगाया गया. कई कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों ने जेल में वर्षों बिता दिए. राष्ट्रीय जांच एजेंसी द्वारा इस मामले में आरोपी बनाए गए एक विद्वान आनंद तेलतुम्बडे ने पिछले हफ्ते गिरफ्तारी से राहत की मांग की थी क्योंकि वह लगभग सत्तर साल के हैं और उन्हें कोविड-19 से संक्रमित होने की संभावना हो सकती है. सर्वोच्च न्यायालय ने हालांकि, उनकी याचिका को खारिज कर दिया और उन्हें अप्रैल के मध्य में गिरफ्तार कर लिया गया. आरोपों की गंभीरता हालात की नाजुकता पर हावी हुई. इसी मामले के आरोपी 80 वर्षीय कवि और एक्टिविस्ट वरवारा राव को भी जमानत से वंचित कर दिया गया. दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर स्थायी विकलांगता और हृदय रोग से पीड़ित जीएन साईबाबा को रिहा करने का एक और अभियान चला है. विवादास्पद मामले में आजीवन कारावास की सजा सुनाए जाने के बाद से उनके स्वास्थ्य में भारी गिरावट आई है. हालांकि इन मामलों ने स्वतंत्र मीडिया संस्थानों का कुछ ध्यान आकर्षित किया है. उनमें से बहुत लोग जम्मू और कश्मीर से धारा 370 के हटाने के विरोध को लेकर सामूहिक रूप से गिरफ्तार हुए. इसकी कोई गिनती नहीं है कि क्षेत्र से कितने लोगों को गलत तरीके से हिरासत में लिया गया है. न तो सर्वोच्च न्यायालय का आदेश और न ही विभिन्न राज्यों की उच्चस्तरीय समितियां इसके बारे में सोचती हैं.
अप्रैल की शुरुआत में बॉम्बे हाईकोर्ट ने "विशेष अधिनियम" के तहत आने वाले अपराधों के लिए अभियोगाधीन कैदियों को बाहर करने के महाराष्ट्र की उच्च-समिति के फैसले के खिलाफ एक याचिका पर सुनवाई की. यह अपराध भारतीय दंड संहिता में नहीं बल्कि यूएपीए, संगठित अपराध अधिनियम के महाराष्ट्र नियंत्रण और अर्थशोधन वितरण अधिनियम के तहत आते हैं - ऐसे अपराधी महामारी को देखते हुए अस्थायी रिहाई के लिए पात्र हैं. अदालत को अभी एक आदेश पारित करना बाकी है. तब तक यह निषेध रहेगा.यदि वर्गीकरण को रद्द कर दिया जाए, तो भी बॉम्बे उच्च न्यायालय द्वारा कोई भी निर्णय केवल महाराष्ट्र राज्य पर लागू होगा और निषेध कई अन्य राज्यों में भी जारी रहेगा.
दिल्ली में स्थिति ज्यादा अजीबोगरीब है, जहां दिल्ली पुलिस की विशेष सेल और अपराध शाखा द्वारा जांच किए जा रहे मामलों को भी बाहर रखा गया है. इस प्रकार, अन्य अपराधियों जैसे समान आरोपों का सामना कर रहे किसी व्यक्ति को केवल इसलिए नहीं छोड़ा जाएगा क्योंकि विशेष पुलिस विभाग ने उसे गिरफ्तार किया था. साफ तौर पर, विशेष कृत्यों या विशेष एजेंसी द्वारा मामले की जांच पर आधारित रोक मामले को दुर्भाग्यपूर्ण निष्कर्ष तक ले जाएगा.
साफ है कि भारतीय जेलों में सामाजिक दूरी का पालन नहीं हो सकता. वृद्ध और अस्वस्थ कैदियों को इस समय जेल में डालना उन्हें मौत की सजा देने जैसा है. बुनियादी सुविधाओं की कमी, जेलों में भीड़, असंवेदनशील कर्मचारियों और अधिकारियों ने लंबे समय से भारतीय कैदियों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया है. कोविड-19 के प्रकोप से कैदियों की सुरक्षा एक अत्यावश्यक प्राथमिकता होनी चाहिए. इस देश में कैदियों के साथ कैसा कठोर व्यवहार किया जाता है, इस पर बातचीत शुरू करने का यह एक अवसर है.
अनुवाद : अंकिता
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