अनुच्छेद 370 के मामले में सरकार ने बदनीयत का प्रदर्शन किया है : वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन

10 August, 2019

5 अगस्त को केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने राज्यसभा में घोषणा की कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा प्रदान करने वाले भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 को प्रभावहीन कर रही है. शाह ने सदन में इससे संबंधित दो बिल पेश किए-जम्मू कश्मीर आरक्षण (द्वितीय संशोधन) विधेयक, 2019 तथा जम्मू कश्मीर पुनर्गठन विधेयक. साथ ही शाह ने उसी तारीख को जारी राष्ट्रपति के आदेश का भी हवाला दिया जिसने भारतीय संविधान के सभी प्रावधानों को राज्य पर लागू कर दिया.

आजादी मिलने के बाद जम्मू और कश्मीर के भारत में विलय को अनुच्छेद 370 ने औपचारिक स्वरूप दिया था. इसके तहत, रक्षा और विदेश नीति के मामलों के अतिरिक्त, सभी मामलों में केन्द्र सरकार को जम्मू और कश्मीर सरकार से सहमति लेनी जरूरी है.

फिर भी, जैसा कि राज्य दिसंबर 2018 से राष्ट्रपति शासन के अधीन है, केन्द्र ने इस आवश्यकता को दरकिनार कर दिया- राष्ट्रपति के आदेश ने राज्यपाल को राज्य विधानमंडल के बदले में स्वीकृति देने की अनुमति दी. पुनर्गठन विधेयक के माध्यम से, सरकार ने राज्य को दो केन्द्र शासित प्रदेशों- लद्दाख तथा जम्मू और कश्मीर में विभाजित किया. केन्द्र ने राज्य सरकार की अनुपस्थिति में कार्य किया और एक कार्यकारी आदेश के माध्यम से अपने निर्णयों की संवैधानिक वैधता पर भी सवाल खड़े कर दिए. इस कदम के पीछे कानूनी बारीकियों को समझने के लिए, कारवां ​के सहायक संपादक, अर्शु जॉन ने वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन से बातचीत की.

अर्शु जॉनः कश्मीर से संबंधित राष्ट्रपति के आदेश और अनुच्छेद 370 में बदलाव को कैसे देखते हैं?

राजीव धवन: यह आदेश संविधान के खिलाफ है. जम्मू कश्मीर का अपना संविधान है जिसे एक संविधान सभा ने तैयार किया है. इसलिए अनुच्छेद 370 का अस्तित्व उस वक्त से है जब जम्मू-कश्मीर ने अपना संविधान नहीं बनाया था. अनुच्छेद 370 केवल जम्मू-कश्मीर के संविधान के अस्तित्व में आने तक ही संक्रमणकालीन या अस्थाई था.

अनुच्छेद 370 स्थाई है. जहां एक कानूनी तथ्य है कि जम्मू कश्मीर का संविधान एक स्वतंत्र संविधान सभा ने तैयार किया है. आप इसे खत्म नहीं कर सकते. यह राष्ट्रपति के आदेश से पैदा नहीं हुआ है.

अनुच्छेद 370 की संरचना इस प्रकार से है कि यदि सरकार किसी विषय पर कानून बनाना चाहती है तो उसे जम्मू-कश्मीर सरकार से परामर्श करना होगा. अनुच्छेद 370 में संविधान सभा के उल्लेख का मतलब है कि यदि संविधान सभा के सक्रिय रहने के दौरान सरकार कोई कानून बनाना चाहती है तो उसे संविधान सभा से परामर्श करना होगा लेकिन यदि संविधान सभा सक्रिय नहीं है तो उसे जम्मू-कश्मीर के संविधान के अंतर्गत राज्य की विधान सभा से परामर्श करना होगा. इसका मतलब है कि संविधान सभा की जगह आपको जम्मू-कश्मीर विधान सभा से परामर्श लेना होगा.

राष्ट्रपति के आदेश में लिखा है कि अनुच्छेद 370 में उल्लेखित राज्य की संविधान सभा का तात्पर्य राज्य की विधान सभा से है. इसका क्या मतलब है? जाहिर है जम्मू-कश्मीर संविधान के अंतर्गत आने वाली राज्य विधान सभा. यह आदेश जम्मू-कश्मीर के संविधान को मान्यता देता है. तो आप कैसे कह सकते हैं कि इसे खत्म कर दिया गया?

एजेः आपको क्या लगता है कि अदालत इस संबंध में क्या फैसला कर सकती है? क्या अदालत उपरोक्त तर्कों को स्वीकार करेगी?

आरडीः अदालत यह कतई नहीं कह सकती कि “यह मामला कानून के दायरे में हल नहीं किया जा सकता”. राजनीति के दखल का मतलब यह नहीं है कि अदालत कानून और न्यायक्षेत्र से संबंधित सवालों को नहीं सुनेगी. यह दुखी करने वाली बात होगी की अदालत कहे कि “यह मामला कानून के दायरे में हल नहीं किया जा सकता”. जहां न्यायिक अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत आने वाला मामला है. अदालत को इस मामले में सरकार की बदनीयती पर ध्यान देना होगा, अदालत को 370 की व्याख्या करनी होगी, उसे राष्ट्रपति के आदेश की व्याख्या करनी होगी. अदालत अपनी जिम्मेदारी से भाग नहीं सकती.

एजेः अधिवक्ता अनिल शर्मा ने राष्ट्रपति के आदेश को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है.

आरडीः इतने महत्वपूर्ण मामले की कार्यवाही को याचिकाकर्ता एमएल शर्मा जैसे प्रचार के भूखे शख्स पर नहीं छोड़ा जा सकता.

एजेः राष्ट्रपति के आदेश और अनुच्छेद 370 में हुए बदलाव को कैसी संवैधानिक चुनौती मिल सकती है?

आरडीः इसे चुनौती दी जानी चाहिए क्योंकि सरकार ने विधान सभा में चर्चा और जनता से सुझाव लिए बिना एक राज्य का पुनर्गठन किया है और राज्य के स्तर को घटा कर दो केन्द्र शासित प्रदेश कर दिया है. जब 1991 में दिल्ली को विशेष शक्तियां दी गई थी तब ऐसा कानून बना कर किया गया था. तब संविधान संशोधन कर अनुच्छेद 239 (एए) जोड़ा गया था. अभी इसकी जरूरत क्यों नहीं है?

केन्द्र शासित राज्यों के लिए स्थानीय विधान सभा गठन करने के लिए संविधान में 14वां संशोधन कर अनुच्छेद 239 (एए) जोड़ा गया. आप केन्द्र शासित राज्य को एक विधान सभा तो दे सकते हैं लेकिन एक राज्य को केन्द्र शासित प्रदेश में कैसे बदल सकते हैं? यदि आप दिल्ली के लिए संविधान में संशोधन करते हैं तो जम्मू-कश्मीर के लिए क्यों नहीं?

अनुच्छेद 164 (1) का प्रावधान कहता है कि छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश और उड़ीसा को आदिवासी कल्याण मंत्रालय रखने होंगे. संविधान में संशोधन कर बिहार के स्थान पर छत्तीसगढ़ और झारखंड जोड़ा गया है. यदि यह संविधान संशोधन कर किया गया है तो जम्मू-कश्मीर के मामले में ऐसा क्यों नहीं किया गया?

भारत में विलय होने वाला दूसरा राज्य है सिक्किम. इसके विलय के लिए संविधान में 36वां संशोधन कर अनुच्छेद 371 (एफ) शामिल किया गया. इन सभी के लिए संविधान में संशोधन करना पड़ा है.

मेरा आखरी तर्क बड़ा सीधा है. जम्मू कश्मीर को दो केन्द्र शासित राज्य बनाने का विकास से कोई लेना देना नहीं है. बाहर के लोगों को जमीन खरीदने न देने का विचार जंगल की सुरक्षा और जंगलों को वहां के लोगों के कब्जे में बनाए रखने से जुड़ा है. ऐसी भूमि नीति हर कहीं होती है. ऐसी ही नीति हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम में लागू है. कुछ राज्यों के लिए तो आप कहते हैं कि यह ठीक है, हमें पहाड़ों को बचाना है. लेकिन कश्मीर में ऐसा नहीं चाहते. सभी पहाड़ी राज्य एक हद तक संरक्षित हैं. बाहर के लोग इन राज्यों में व्यवसाय कर सकते हैं लेकिन जमीन नहीं खरीद सकते.

क्या कश्मीर, अरुणाचल प्रदेश या सिक्किम से अलग है? यदि आप सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश में यह भूमि नीति इसलिए लागू रखते हैं क्योंकि ये राज्य सीमा से लगे हैं तो फिर पाकिस्तान से लगी सीमा क्या है? क्या कोई वहां जाकर जमीन खरीद सकता है? क्या कोई “अज्ञात आतंकवादी” शाह मोहम्मद वहां जाकर जमीन खरीद सकता है? क्या कोई राम गोपाल वर्मा जा कर जमीन खरीद सकता है? कुछ राज्य में बाहर के लोगों को जमीन खरीदने न देने का विचार संविधान के खिलाफ नहीं है. आप कश्मीरी हिंदू पंडितों को जमीन देना चाहते हैं? उनका अधिकार है. आप उन्हें सुरक्षा देना चाहते हैं? उन्हें सुरक्षा दीजिए क्योंकि वे सुरक्षा के हकदार हैं लेकिन आप तो कह रहे हैं कि भारत का कोई भी आदमी वहां जाकर जमीन ले सकता है.

एजेः राज्य को दो हिस्सों में बांटने वाले जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन विधेयक पर आपकी राय क्या है?

आरडीः यह विधेयक लोकतंत्र और संघीयता के खिलाफ है. इसकी प्रकृति संविधान संशोधन की होनी चाहिए थी. राज्य का पुनर्गठन संविधान के अनुच्छेद 3 और अनुच्छेद 4 के तहत होता है. 1960 में महाराष्ट्र को पुनर्गठित कर गुजरात का निर्माण किया गया था. जम्मू-कश्मीर विधेयक से क्या समझ आता है कि कल को आप चाहें तो उत्तर प्रदेश को सात राज्यों में बांट देंगे और प्रयागराज को केन्द्र शासित राज्य भी बना देंगे. कल को मुंबई को आप केन्द्र शासित राज्य बना सकते हैं.

एजेः इसके लिए संविधान संशोधन की क्या जरूरत है?

आरडीः अनुच्छेद 368 में संसद द्वारा संविधान में संशोधन की प्रक्रिया और शक्तियों का उल्लेख है. इस प्रक्रिया में संसद में राज्य के प्रतिनिधित्व से संबंधित संशोधन भी आते हैं और वे विषय भी जो 7वीं अनुसूची का हिस्सा हैं. गौरतलब है कि 1991 में संविधान में संशोधन कर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली का निर्माण किया गया था. केन्द्र शासित राज्यों के निर्माण के लिए संविधान में संशोधन आवश्यक होता है. जब यूनियन टेरिटरी का गठन किया जाता है तो उसमें जिन विषयों की आवश्यकता होती है उनसे छेड़छाड़ की गई है.

ऐसे मामलों में संसद में दो तिहाई बहुमत आवश्यक होता है. इसके अतिरिक्त यदि प्रतिनिधित्व से संबंधित या सातवीं अनुसूची से संबंधित बदलाव करना चाहते हैं तो कम से कम कुल विधान सभाओं में से आधे द्वारा अनुमोदन की आवश्यकता पड़ती है.

पहली बात तो यह कि ऐसा नहीं किया जा सकता क्योंकि 370 संविधान का हिस्सा है और ऐसा करना संविधान को बदलना है. आपको अनुच्छेद 368 में उल्लेखित प्रक्रिया का पालन करना होता है. क्योंकि यह संविधान में बदलाव है इसलिए आप को दो तिहाई बहुमत और आधे राज्यों के अनुमोदन की जरूरत है.

अनुच्छेद 3 और 4 में क्या है? अनुच्छेद 3 में राज्य विधान सभा से परामर्श जरूरी है. अनुच्छेद 3 की केन्द्रीय बात परामर्श है. यहां सत्य पाल मलिक या संसद को प्रतिनिधि नहीं माना जा सकता. लेकिन जैसा सरकार ने किया है इस हिसाब से जम्मू-कश्मीर विधान सभा अब एक संसद है.

एजेः यह तर्क दिया जा रहा है कि राष्ट्रपति शासन लागू होने के दौरान राज्य का राज्यपाल विधान सभा की ओर से मंजूरी दे सकता है?

आरडीः राष्ट्रपति का शासन डरावनी चीज है. यह डरावना है. यह एक आपातकालीन प्रावधान है. यहां राज्य से परामर्श नहीं किया गया. लोकतंत्र में जनता से परामर्श करना होता है लेकिन आपने किसी से परामर्श नहीं किया. राष्ट्रपति शासन का इस्तेमाल कर अनुच्छेद 370 में उल्लेखित प्रावधानों से बचना बदनीयती है.

एजेः राष्ट्रपति का आदेश अनुच्छेद 367 को संशोधित करता है और यह तर्क दिया जा सकता है कि इससे अनुच्छेद 370 संशोधित नहीं हुआ.

आरडीः परिभाषा में बदलाव करने का कोई मतलब नहीं है. इसका अनुच्छेद 367 से क्या लेना देना? अनुच्छेद 367 बताता है कि संविधान की व्याख्या कैसे होगी. यह मूल प्रावधानों पर कुछ नहीं कहता. यह व्याख्या से संबंधित प्रावधान है. यह अनुच्छेद वास्तविक शक्तियां नहीं देता.

एजेः लेकिन सरकार ने तो यही किया है? सरकार ने अनुच्छेद 370 की व्याख्या को बदलने के लिए अनुच्छेद 367 में एक प्रावधान जोड़ दिया है.

आरडीः हां किया है लेकिन यह कोई शक्ति नहीं देता. देखिए सीधी सी बात है कि प्रत्यक्ष तरीके से जो नहीं किया जा सकता उसे अप्रत्यक्ष तरीके से भी नहीं किया जा सकता.