We’re glad this article found its way to you. If you’re not a subscriber, we’d love for you to consider subscribing—your support helps make this journalism possible. Either way, we hope you enjoy the read. Click to subscribe: subscribing
एक आरटीआई के जवाब में असम सरकार के गृह एवं राजनीतिक विभाग ने बताया है कि राज्य के किसी भी विदेशी नागरिक न्यायाधिकरण ने लोकसूचना अधिकारी की नियुक्ति की अधिसूचना जारी नहीं की है. 29 अक्टूबर को प्राप्त जवाब में बताया गया है कि असम के 33 जिलों में 300 न्यायाधिकरण स्थापित किए गए हैं और फिलहाल इनमें से केवल 100 संचालित हैं, बाकी के नवगठित न्यायाधिकरण हैं. 11 सितंबर को गृह एवं राजनीतिक विभाग ने नवगठित 200 विदेशी नागरिक न्यायाधिकरणों के लिए 221 सदस्यों की नियुक्ति की अधिसूचना जारी की. लेकिन लोकसूचना अधिकारियों की नियुक्ति का कोई प्रयास फिलहाल दिखाई नहीं पड़ता.
उपरोक्त आरटीआई गैर-सरकारी संस्था कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव के प्रोग्राम कॉओर्डिनेटर वैंकटेश नायक ने लगाई थी. विदेशी नागरिक न्यायाधिकरण अर्ध न्यायिक इकाइयां हैं जिनकी स्थापना संदिग्ध विदेशियों के मामलों के निबटान के लिए की गई थी. इन इकाइयों को अपने लिए प्रक्रिया बनाने का अधिकार है. लेकिन यह उन्हें सूचना के अधिकार कानून (2005) के पालन से मुक्त नहीं करता. लोकसूचना अधिकारियों को नियुक्त न कर राज्य सरकार यह सुनिश्चित कर रही है कि वह पारदर्शिता और पड़ताल से बची रहे. लेकिन ऐसा करना आरटीआई कानून की भावना के प्रतिकूल है.
आरटीआई कानून सभी सार्वजनिक निकायों को बाध्य बनाता है कि वे लोकसूचना अधिकारियों की नियुक्तियां करें और रिकॉर्डों के रखरखाव करें ताकि “इस अधिनियम के अधीन सूचना के अधिकार को सूकर” किया जा सके. इस कानून के तहत “सार्वजनिक प्राधिकारी या निकाय” का अर्थ है जो “समुचित सरकार द्वारा जारी की गई अधिसूचना या किए गए आदेश द्वारा” स्थापित या गठित की गई है. केंद्र सरकार द्वारा 1964 के विदेशी नागरिक न्यायाधिकरण आदेश के तहत स्थापित विदेशी न्यायाधिकरण इस परिभाषा में आते हैं.
लेकिन असम के विदेशी नागरिक न्यायाधिकरण लंबे समय से अपारदर्शी रूप में काम कर रहे हैं और लोकसूचना आधिकारियों की नियुक्ति न करना उनकी गोपनियता में इजाफा करता है. कारवां में नवंबर 2019 में प्रकाशित एक रिपोर्ट में बताया गया है कि ये न्यायाधिकरण जवाबदेहिता के बिना काम कर रहे हैं और असम के अल्पसंख्यक इनसे उत्पीड़ित हैं. उस रिपोर्ट में बताया गया है कि न्यायाधिकरण के पीठासीन अधिकारी संदिग्ध अवैध आव्रजकों को उन रिपोर्टों की कॉपियां देने से मना कर देते हैं जिनके आधार पर उनकी नागरिकता को चुनौती दी गई है और जब भी उनकों ये रिपोर्टें मिली हैं उनमें असंगति पाई गईं हैं. ऐसे हालात में आरटीआई आवेदन विदेशी न्यायाधिकरणों की कार्यवाहियों का सामना कर रहे लोगों के लिए अपने मामलों की जांच रिपोर्टें या अन्य दस्तावेज प्राप्त करने का जरिया हो सकता है.
नायक ने असम सरकार के आरटीआई जबाव के परिणामों के बारे में मुझे बताया. उनका कहना है, “जिन लोगों को विदेशी घोषित किया गया है या जिनकी नागरिकता संदिग्ध मानी गई है, उनका यह बुनियादी अधिकार है कि वे अपने मामलों को जान सकें क्योंकि इसका असर उनके जीवन पर पड़ता है, फिर चाहे ऐसे लोगों पर औपचारिक रूप से कार्यवाही जारी है या नहीं.” उन्होंने आगे कहा, “जहां भी और जब भी लोगों को अपने लिए जरूरी सूचना नहीं दी जाती तो उनके पास गुवाहाटी हाईकोर्ट जाने का ही विकल्प रहता है. यह तो चांद पर जाने जैसी बात है. यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि न केंद्र सरकार ने और न ही राज्य सरकार ने इन मामलों पर अब तक गौर किया है.
आरटीआई से न केवल इन न्यायाधिकरण की मनमानी कार्यवाहियों पर ध्यान जाता बल्कि इससे पीठासीन सदस्यों की जानकारी भी मिल सकती थी. कारवां की नवंबर में प्रकाशित रिपोर्ट में पीठासीन सदस्यों के प्रदर्शन रिपोर्ट की जांच के साथ गुवाहाटी हाईकोर्ट की उस बैंच की बैठकों के मिनिट्स की पड़ताल है, जो न्यायाधिकरणों को मॉनिटर कर रही है. इन दस्तावेजों से खुलासा होता है कि सदस्यों के कार्य का मूल्यांकन उनके फैसले के सही या गलत होने के कारण नहीं होता बल्कि उनके द्वारा अधिक से अधिक लोगों को विदेशी करार दिया जाना सदस्यों के हित में होता है.
असम में एनआरसी संबंधी शोध में लगी ब्रह्मपुत्र सिविल सोसाइटी के कार्यकारी अध्यक्ष अब्दुल बातिन खांडेलकर ने उस भ्रष्ट फायदों के बारे में बताया जो सदस्यों की नियुक्ति के पीछे काम करते हैं. खांडेलकर के अनुसार, “न्यायाधिकरण के सदस्यों की नियुक्ति असम का गृह एवं राजनितिक विभाग करता है. उनके काम मूल्यांकन इस आधार पर होता है कि कितने लोगों को विदेशी घोषित किया गया है. यदि विदेशी घोषित किए गए लोगों की संख्या बहुत कम होती है तो उनकी नौकरी जाने का खतरा होता है.” हालांकि गुवाहाटी हाईकोर्ट पर इन न्यायाधिकरणों के काम को मॉनिटर करने की जिम्मेदारी है लेकिन, खांडेलकर के मुताबिक, “हाईकोर्ट मूकदर्शक बनी हुई है.” उनका कहना है, “अगर आप इन विदेशी नागरिक न्यायाधिकरण को स्वतंत्र रूप से काम करने देना चाहते हैं तो उनको गृह विभाग के कार्यकारी नियंत्रण से मुक्त करना होगा.”
यदि न्यायाधिकरणों ने लोकसूचना अधिकारियों की नियुक्ति की होती तो इस मूल्यांकन प्रक्रिया के बारे में अतिरिक्त जानकारी मिलती, जैसे किन सदस्यों ने किन आधारों पर मामलों का निबटान किया और किस प्रक्रिया के आधार पर असम सरकार ने न्यायाधिकरणों में नियुक्तियां की हैं. इस बारे में खांडेलकर कहना था कि विदेशी नागरिक न्यायाधिकरणों के संचालन की कोई मानक प्रक्रिया नहीं है. “हर न्यायाधिकरण अपनी मनमर्जी से काम करते हैं.” उन्होंने बताता कि उनका तजुर्बा है कि कुछ न्यायाधिकरण मांगी सूचना दे देते हैं और कुछ कह देते हैं कि वे आरटीआई के दायरे में नहीं आते. खांडेलकर ने बताया, “जैसाकि मैंने कहा है न्यायाधिकरण की कानूनी प्रक्रिया को व्यवस्थित करना जरूरी है.”
इस बीच नायक का मानना है कि न्यायाधिकरणों में लोकसूचना अधिकारियों की नियुक्ति न करना, संविधान द्वारा प्रदत जीवन के बुनियादी अधिकार का उल्लंघन है. रिलायंस पेट्रोकेमिकल्स बनाम प्रॉपर इटर्स ऑफ इंडियन एक्सप्रेस न्यूजपेपर के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी थी :
हमें यह याद रखना चाहिए कि जनता को जानने का अधिकार है ताकि वे उद्योगिक जीवन और लोकतंत्र की भागीदारी वाले विकास में हिस्सा ले सकें. संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत सूचना का अधिकार, इस युग में हमारे देश में जीवन के अधिकार के व्यापक फलक में मुक्त देश के नागरिक आकांशा करते हैं.
ऐसा कोई कानून या न्यायिक फैसला नहीं है जो विदेशी नागरिक अधिकरण को सूचना के अधिकार की जद से मुक्त रखता है.
Thanks for reading till the end. If you valued this piece, and you're already a subscriber, consider contributing to keep us afloat—so more readers can access work like this. Click to make a contribution: Contribute