2002 गुजरात हिंसा : कैसे एसआईटी ने सबूतों को अनदेखा कर मोदी को दी क्लीन चिट

अहमदाबाद में 1 मार्च 2002 को मुस्लिमों की एक जलती हुई दुकान के पास खड़ी पुलिस. एमी विटाले / गेट्टी इमेजिज
19 September, 2022

इस साल जून में सुप्रीम कोर्ट ने 2002 की गुजरात हिंसा के संबंध में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अन्य के खिलाफ आपराधिक साजिश के आरोपों को खारिज कर दिया. फैसले के तुरंत बाद गुजरात पुलिस ने सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ और गुजरात पुलिस के पूर्व महानिदेशक आरबी श्रीकुमार को गिरफ्तार कर लिया. पूर्व पुलिस अधिकारी संजीव भट्ट के साथ, जो पहले से ही जेल में है, सीतलवाड़ और श्रीकुमार को एक पुलिस अधिकारी द्वारा दायर की गई एफआईआर के तहत गिरफ्तार किया गया है जिसमें उन पर ‘‘निर्दाेष’’ लोगों को फंसाने के लिए जालसाजी और सबूत गढ़ने का आरोप लगाया गया है.

27 फरवरी 2002 को अयोध्या से लौट रहे हिंदू कारसेवकों वाली साबरमती एक्सप्रेस की एक बोगी में गोधरा रेलवे स्टेशन के पास आग लग गई थी. इसके बाद गुजरात में तीन दिनों तक भयानक सांप्रदायिक हिंसा देखी गई, जो बाद के कई महीनों तक जारी रही. भीड़ ने एक हजार से ज्यादा लोगों को मार डाला जिनमें से ज्यादातर मुसलमान थे. ढरों अन्य घायल हुए और एक लाख पचास हजार से ज्यादा लोग विस्थापित हुए. राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को हिंसा को रोकने में अपनी सरकार की निष्क्रियता के लिए देश और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कड़ी निंदा का सामना करना पड़ा. बावजूद इसके कि वह राजनीतिक सत्ता में तेजी से आगे बढ़ रहे हैं, 2002 का मुस्लिम विरोधी नरसंहार मोदी के करियर पर एक खूनी दाग बना हुआ है.

हिंसा के दिनों में भीड़ ने कांग्रेस के पूर्व सांसद एहसान जाफरी की बेरहमी से हत्या कर दी थी. उनकी पत्नी जाकिया जाफरी ने 2006 में सुप्रीम कोर्ट में मोदी और 63 अन्य लोगों के खिलाफ याचिका दायर की थी. सुप्रीम कोर्ट ने 2008 में एक विशेष जांच दल का गठन किया. उस एसआईटी ने 2012 में अपनी क्लोजर रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमें मोदी और अन्य के खिलाफ ‘‘अभियोजन योग्य सबूत’’ की कमी के लिए आपराधिक आरोपों को खारिज कर दिया. एसआईटी की क्लोजर रिपोर्ट के खिलाफ 2013 में दायर पांच सौ से भी ज्यादा पेजों की एक प्रोटेस्ट पिटीशन अथवा नाराजी याचिका के अलावा जाफरी ने एसआईटी रिपोर्ट की स्वीकृति के खिलाफ 2018 में सुप्रीम कोर्ट में एक और याचिका दायर की.

जाफरी की 2018 की याचिका को खारिज करने वाले सुप्रीम कोर्ट के जून के फैसले ने एसआईटी द्वारा की गई जांच पर बहुत अधिक भरोसा जताया है. अदालत ने ‘‘अथक काम’’ के लिए एसआईटी की तारीफ की है और ऐलान किया कि ‘‘एसआईटी के नजरिए में कोई दोष नहीं पाया जा सकता है.’’ इसमें कहा गया है कि अंतिम एसआईटी रिपोर्ट, ‘‘इस मजबूत तर्क के जरिए बड़ी आपराधिक साजिश (उच्चतम स्तर पर) के आरोपों को खारिज करती है क्योंकि एसआईटी विश्लेषणात्मक विचार को उजागर करने और सभी पहलुओं की निष्पक्ष रूप से जांच कर सकने के काबिल थी.’’

हालांकि यह न्यायाधीशों का विशेषाधिकार है कि वे अपने निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए एसआईटी रिपोर्ट पर भरोसा करें या न करें पर अदालत का कोई भी फैसला एसआईटी रिपोर्ट को सार्वजनिक जांच (पब्लिक स्क्रूटनी) से परे नहीं रख सकता है. रिपोर्ट का विस्तृत अध्ययन के बाद इस दावे से सहमत होना मुश्किल होता है कि एसआईटी के नजरिए में कोई गलती नहीं थी या रिपोर्ट वास्तव में निष्पक्षता या ‘‘मजबूत़ तर्क’’ पर आधारित है.

यहां से शुरू करें कि भले ही अदालत एसआईटी रिपोर्ट पर भरोसा करते हुए, ‘‘एक बड़ी आपराधिक साजिश’’ का कोई सबूत नहीं पाती है लेकिन यह नरसंहार के दौरान अपने रवैये के लिए मोदी सरकार को दोषमुक्त करने के बराबर नहीं है. यह तथ्य कि लंबे समय तक सांप्रदायिक हिंसा हुई थी उच्चतम स्तरों पर प्रशासन की असफलता का संकेत है. इस निष्कर्ष को एसआईटी की रिपोर्ट में ही जुटाए गए सबूतों से और मजबूती मिलती है. ये सबूत हिंसा के दौरान गुजरात सरकार की कार्रवाई और मंशा पर गंभीर सवाल खड़ा करता है.

उदाहरण के लिए, हिंसा के दौरान अपना कर्तव्य निभाने वाले कई अधिकारियों के स्थानांतरण पर एक नजर डालें तो एक पैटर्न दिखाई देता है. दंगों को रोकने वाले अच्छे अधिकारियों को बाहर कर दिया गया जबकि बेअसर अधिकारी अपनी जगहों पर बने रहे. लेकिन एसआईटी यह दावा करते हुए इसे खारिज कर देती है कि तबादला करना सरकार का विशेषाधिकार है. यह तर्क उस मामले में बहुत कम समझ में आता है जहां सरकार खुद आरोपी है.

रिपोर्ट को बारीकी से पढ़ने से भी इस विचार का समर्थन नहीं होता है कि पुलिस केवल इसलिए विफल हुई क्योंकि गुजरात सरकार के सामने अचानक और इस हद तक हिंसा फूट पड़ी थी. इससे पता चलता है कि पहले दो महीनों के दौरान मुसलमानों को पुलिस फायरिंग में इतना अधिक निशाना बनाया गया था और इसे महज इत्तेफाक नहीं कहा जा सकता है.

भारतीय जनता पार्टी सरकार ने चुनिंदा रूप से अपने सहयोगी संगठन, विश्व हिंदू परिषद से सरकारी अभियोजकों की नियुक्ति की, यहां तक कि उन मामलों में भी जहां हिंसा के आरोपी संघ परिवार के थे. इस अवधि के दौरान मोदी ने कम से कम एक साक्षात्कार दिया जिसमें हिंसा को प्रतिक्रिया के रूप में समझाने की कोशिश की और अपने सार्वजनिक भाषणों में मुसलमानों को निशाना बनाया. एसआईटी ने मोदी के एक अर्थहीन स्पष्टीकरण को यूं ही मान लिया.

गोधरा अग्निकांड के तुरंत बाद शवों की हैंडलिंग के संबंध में एसआईटी ने जो सबूत जुटाए, वे बताते हैं कि सभी मानदंडों के उल्लंघन में विहिप ने अनुचित हस्तक्षेप किया हैं और यहां तक कि अहमदाबाद में 12 शवों के अंतिम संस्कार का जुलूस निकाले जाने का सबूत भी देते हैं. लेकिन एसआईटी एक कनिष्ठ अधिकारी पर शवों को विहिप को सौंपने का आरोप लगाती है और जुलूस के बारे में चर्चा तक नहीं करती है.

तीस्ता सीतलवाड़ की रिहाई की मांग को लेकर हाथों में तख्तियां लिए प्रदर्शनकारी. आरबी श्रीकुमार और संजीव भट्ट के साथ, 2002 की गुजरात हिंसा से संबंधित जालसाजी और तथ्यों को गढ़ने के लिए प्राथमिकी में उनका नाम लिया गया है.  आशीष वैष्णव / सोपा इमेजिस / गैटी इमेजिस

अंत में, एसआईटी रिपोर्ट ही ऐसे कई उदाहरण देती है जहां श्रीकुमार द्वारा की गई टिप्पणियां और आरोप सही साबित होते हैं. एसआईटी उनकी साख पर शक जाहिर करने के लिए इस तथ्य का तो इस्तेमाल करती है कि वह पदोन्नति चाहते थे लेकिन इस बात पर ध्यान नहीं देती कि उनकी उपेक्षा तब जाकर की गई जब यह साफ हो गया कि वह 2002 की हिंसा पर सरकार की लाइन पर चलने को तैयार नहीं हैं.

तब याचिकाकर्ता के पास अदालत में आने और न्यायिक प्रणाली से अपने आरोपों पर गौर करने के लिए कहने का अच्छा कारण था. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने इसके बजाए ‘‘इसमें शामिल हर संस्थान की अखंडता पर सवाल उठाने की जुर्रत’’ को देखते हुए ‘‘गुजरात राज्य के असंतुष्ट अधिकारियों के साथ-साथ अन्य लोगों’’ पर कड़ी कार्रवाई करने का फैसला सुनाया और उन पर ‘‘बदनियती से माहौल गर्माए रखने’’ का आरोप लगाया. यह फैसला इस बात की जोरदार पैरवी करता है : ‘‘वास्तव में, प्रक्रिया के इस तरह के उल्लंघन में शामिल सभी लोगों को कटघरे में खड़ा करना चाहिए और कानून के अनुसार उन पर कार्रवाई होनी चाहिए.’’

इस टिप्पणी ने गुजरात पुलिस द्वारा दर्ज प्राथमिकी के आधार के रूप में काम किया जिसके बाद श्रीकुमार और सीतलवाड़ को गिरफ्तार किया गया. लेकिन अगर याचिकाकर्ताओं के पास 2002 की हिंसा के दौरान सरकार के रवैये को चुनौती देने और उस पर सवाल उठाने के वाजिब कारण हैं, तो अदालत के इस नतीजे से सहमत होना मुश्किल है कि ‘‘नीयत बद’’ है.

अगर उन दस्तावेजों को किनारे भी रख दें जिनके फर्जी होने का दावा एसआईटी कर रही है और केवल उन सबूतों पर यकीन करें जो खुद एसआईटी ने जुटाए थे तो भी 2002 में मोदी सरकार के रवैए पर गंभीर सवाल खड़े करने के पर्याप्त कारण हैं. यह जांच की कार्यप्रणाली पर भी सवाल उठाता है जो एसआईटी द्वारा जुटाए गए सबूतों का वजन कम करता है और अक्सर ऐसे नतीजों पर पहुंचता है जो तर्क की नहीं सुनते हैं. एसआईटी को जिन 32 आरोपों की जांच करने का काम सौंपा गया था, उनमें से सबसे गंभीर छह आरोपों की जांच उसने किस तरह की इसकी मैंने एक पड़ताल की है.

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कम से कम दो मामले ऐसे हैं जिनमें एसआईटी ने 2002 की हिंसा के बारे में तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के बयानों की जांच की. दोनों ही मामलों में इसने मोदी के जवाब को फेस वैल्यू पर लिया है. इस मामले में एसआईटी द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट के इस कथन के विपरीत है जिसमें कोर्ट ने कहा है कि एसआईटी ने “सभी पक्षों को निष्पक्ष रूप से” निपटाया था.

मोदी का जी न्यूज के सुधीर चौधरी को 1 मार्च 2002 को दिया गया इंटरव्यू इसमें से एक है. एसआईटी के मुताबिक, ‘‘जहां तक चौधरी को याद है,’’ चौधरी ने मोदी से गुलबर्ग सोसाइटी नरसंहार के बारे में सवाल किया था जिसमें कई लोगों समेत एहसान जाफरी भी मारे गए. चौधरी ने एसआईटी को बताया कि मोदी ने ‘‘जवाब दिया कि भीड़ ने’’ जाफरी ‘‘द्वारा की गई गोलीबारी के जवाब में इस घटना को अंजाम दिया.’’ ‘‘एडिटर्स गिल्ड की रिपोर्ट से अपनी स्मृति को ताजा करने के बाद श्री सुधीर चौधरी ने कहा है कि मुख्यमंत्री का विचार था कि वह न तो कार्रवाई चाहते थे और न ही प्रतिक्रिया.” इस दस्तावेज में चौधरी द्वारा गोधरा के बाद व्यापक हिंसा के बारे में मोदी के जवाब का स्मरण किया गया है : “गोधरा में जो परसों हुआ, जहां पर चालीस महिलाओं और बच्चों को जिंदा जला दिया गया, इससे देश में और विदेश में सदमा पहुंचना स्वाभाविक था. गोधरा के इस इलाके की आपराधिक प्रवृत्ति रही है. लोगों ने पहले भी एक महिला शिक्षक का खून किया था और अब यह जघन्या अपराध किया है जिसकी प्रतिक्रिया हो रही है.”

मोदी से उस बयान के बारे में भी पूछताछ की गई थी, जो उन्होंने टाइम्स ऑफ इंडिया को दिया था, जिसमें गुजरात में जो कुछ हुआ था, उसे ‘‘क्रिया की प्रतिक्रिया’’ के रूप में वर्णित किया था. मोदी ने ऐसा बयान दिए जाने से इनकार किया लेकिन उन्होंने जी न्यूज में जो इंटरव्यू दिया था वह उतना ही और उससे भी ज्यादा बुरा था. उन्होंने न केवल गुजरात में क्रूर हिंसा को एक ‘‘प्रतिक्रिया’’ करार दिया था बल्कि उन्होंने लोगों के एक समूह को ‘‘आपराधिक प्रवृत्ति’’ का भी बताया था. शायद ही कोई मुख्यमंत्री इस तरह की भाषा का इस्तेमाल करेगा, वह भी तब जब उसका अपना प्रशासन राज्य में हिंसा को नियंत्रित करने में असमर्थ रहा हो.

एसआईटी ने बाद में इस साक्षात्कार को लेकर मोदी से पूछताछ की. उसकी रिपोर्ट के अनुसार, मोदी ने कहा, ‘‘जिन लोगों ने गुजरात का इतिहास पढ़ा है, वे निश्चित रूप से जानते होंगे कि गुजरात में सांप्रदायिक हिंसा का एक लंबा इतिहास रहा है और राज्य ने इस तरह की सांप्रदायिक हिंसा की गंभीर घटनाओं को देखा है.’’ चूंकि साक्षात्कार के आठ साल हो चुके थे, मोदी ने दावा किया कि ‘‘उन्हें सटीक शब्द याद नहीं थे लेकिन उन्होंने हमेशा केवल और केवल शांति की अपील की थी.’’ उन्होंने कहा, ‘‘उन्होंने लोगों से सीधी और सरल भाषा में हिंसा से दूर रहने की अपील करने की कोशिश की थी. उन्होंने यह भी कहा था कि अगर इस प्रश्न में उद्धृत उनके शब्दों को सही परिप्रेक्ष्य में लिया जाता है, तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि किसी भी तरह की हिंसा से परहेज करने की लोगों से एक बहुत ही गंभीर अपील है. उन्होंने इस संबंध में अपने ऊपर लगे सभी आरोपों का खंडन किया.” मोदी यहां जो कहते हैं, उनमें से कोई भी उस बयान से मेल नहीं खाता, जो उन्होंने जी न्यूज को दिया था. एक ऐसा बयान जिसे चौधरी भी खारिज नहीं करते हैं कि मोदी ने ऐसा नहीं कहा. एसआईटी ने मोदी के स्पष्टीकरण की जांच करने का कोई प्रयास नहीं किया, इसे शब्दशः दोहराया और फिर उन्हें क्लीन चिट दे दी.

मुस्लिम विरोधी नरसंहार के दस महीने बाद 12 दिसंबर 2002 को अहमदाबाद में वोट डालने के बाद नरेन्द्र मोदी. मोदी की बतौर मुख्यमंत्री सत्ता में वापिसी हुई. अमित दवे / रॉयटर्स

जहां तक वास्तविक इंटरव्यू की बात है, जिससे मामला हमेशा के लिए सुलझ गया होता, एसआईटी की रिपोर्ट में कहा गया है कि इंटरव्यू की एक कॉपी देने के लिए ‘‘एक निवेदन पत्र भेजा गया था’’. रिपोर्ट में कहा गया है कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 91 के तहत ‘‘दो रिमाइंडर और एक नोटिस के बावजूद सीडी उपलब्ध नहीं कराई गई है.’’ एक बार फिर, एसआईटी इसे यूं ही छोड़ देती है, बिना इस बात का जिक्र किए कि क्या जी न्यूज ने नोटिस का जवाब दिया, और यह भी कि यदि कोई स्पष्टीकरण दिया गया तो क्या? और क्या चैनल के खिलाफ अवमानना के लिए कोई कार्रवाई शुरू की गई?

दूसरा आरोप, 9 सितंबर 2002 को मेहसाणा जिले के मंदिरों के शहर बेचाराजी में दिए गए गए भाषण से संबंधित है. मोदी ने कहा था, ‘‘जब हम श्रावण के महीने में पानी लाए तो आपको बुरा लगता है. जब हम बेचाराजी के विकास के लिए पैसा खर्च करते हैं, तो भी आपको बुरा लगता है. क्या भाई, हम राहत शिविर चलाएं? क्या मुझे वहां बच्चे पैदा करने वाले केंद्र शुरू कर देने चाहिए? हम दृढ़ संकल्प के साथ परिवार नियोजन की नीति पर चल कर प्रगति हासिल करना चाहते हैं. हम पांच और हमारे पच्चीस!!! किसके नाम पर ऐसा विकास किया जा रहा है? क्या गुजरात परिवार नियोजन लागू नहीं कर सकता? हमारे रास्ते में कौन सा रोड़ा आ रहा है? कौन सा धार्मिक पंथ आड़े आ रहा है? गरीबों तक पैसा क्यों नहीं पहुंच रहा है? अगर कुछ लोग बच्चे पैदा करते चले गए तो बच्चे साइकिल-पंचर की मरम्मत ही करेंगे?”

राहत शिविरों को बच्चे पैदा करने वाले केंद्र और लोगों को परिवार नियोजन के विरोधियों के रूप में इस्लामोफोबिक विचार से ग्रस्त ये शब्द इतने तेज होते हैं कि कोई भी इनके प्रभाव से बच नहीं पाता है. फिर भी एसआईटी ने निष्कर्ष निकाला कि मोदी ने ‘‘व्याख्या की थी कि भाषण किसी विशेष समुदाय या धर्म का उल्लेख नहीं करता है.’’ मोदी ने एसआईटी से कहा कि ‘‘यह एक राजनीतिक भाषण था जिसमें उन्होंने भारत की बढ़ती आबादी की ओर इशारा किया था और टिप्पणी की थी कि ‘क्या गुजरात परिवार नियोजन को लागू नहीं कर सकता है?’ श्री नरेन्द्र मोदी ने दावा किया है कि उनके भाषण को कुछ तत्वों ने तोड़-मरोड़ कर पेश किया था, जिन्होंने अपने हितों के अनुरूप इसकी गलत व्याख्या की थी. उन्होंने यह भी कहा है कि उनके चुनावी भाषण के बाद कोई दंगा या तनाव नहीं हुआ. आरोप के इस पहलू के संबंध में कोई आपराधिकता प्रकाश में नहीं आई है.’’

एसआईटी ने ठीक वही किया जो उसने जी के इंटरव्यू के मामले में किया था यानी इसने मोदी को उनके द्वारा दिए गए भाषण के सीधे निहितार्थों को नकार कर जिम्मेदारी से बचने दिया. यह एक ऐसी प्रक्रिया की तरह लगता है जिसे सच्चाई सामने लाने के लिए नहीं बल्कि उसे उलझाने के लिए बनाया गया था.

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‘‘यह तथ्य कि दंगों और पुलिस फायरिंग के शिकार मुख्य रूप से मुस्लिम समुदाय के थे, जो इस बात को स्थापित करता है कि दंगाइयों, प्रशासन, सत्तारूढ़ दल (बीजेपी) के सहयोगी सीएम के शैतानी उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए सहयोग कर रहे थे,’’ एसआईटी की रिपोर्ट एक आरोप का उल्लेख करती है. यह आरबी श्रीकुमार द्वारा नानावटी-शाह जांच आयोग को उपलब्ध कराए गए आंकड़ों का जिक्र करती है, जिसका गठन नरसंहार के बाद हुआ था.

24 अप्रैल 2002 को सरकार को सौंपी गई एक रिपोर्ट में श्रीकुमार द्वारा अपने आरोप का समर्थन करने के लिए सूचीबद्ध संख्याएं पढ़ने लायक हैं :

मुसलमानों को जीवन और संपत्ति का ज्यादा भारी नुकसान उठाना पड़ा. 636 से ज्यादा मुसलमान मारे गए जिनमें से 91 पुलिस फायरिंग में मारे गए. इसके बरक्स 181 हिंदू दंगों में मारे गए जिनमें से 76 पुलिस फायरिंग में मारे गए. 74 हिंदुओं की तुलना में 329 मुसलमान घायल हुए और मुसलमानों की संपत्ति का नुकसान 600 करोड़ रुपए हुआ, जबकि हिंदुओं को 40 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ. यह भी उल्लेख किया गया था कि अहमदाबाद शहर में 278 मुसलमान दंगों में मारे गए जिनमें से 57 पुलिस फायरिंग में मरे. इसके बरक्स 91 हिंदू मारे गए जिनमें से 30 पुलिस कार्रवाई में मारे गए. इसके अलावा अहमदाबाद में घायल हुए मुसलमानों की संख्या 408 थी. इसके मुकाबले 329 हिंदू छुरा घोंपने और आगजनी की घटनाओं के शिकार हुए.

उस समय अहमदाबाद के पुलिस आयुक्त पीसी पांडे ने एसआईटी को बताया था कि, ‘‘दंगों के दौरान पुलिस के लिए यह पहचानना मुश्किल होता है कि कोई व्यक्ति किस विशेष समुदाय का है.’’ पांडे ने 28 फरवरी 2002 की एक तारीख की ओर इशारा करते हुए यह साबित करने का प्रयास किया कि कोई प्रत्यक्ष भेदभाव नहीं हुआ था. उन्होंने कहा कि इस दिन पुलिस फायरिंग में मारे गए 17 लोगों में 11 हिंदू और छह मुस्लिम थे. एसआईटी आगे कहती है, ‘‘उन्होंने यह भी कहा है कि बाद के दिनों में मुस्लिम पक्ष से भी जवाबी कार्रवाई शुरू हुई और इसलिए जहां भी पुलिस द्वारा बल का इस्तेमाल किया गया, दोनों पक्षों के हताहत हुए.’’

पांडे ने एसआईटी को यह भी बताया कि 28 फरवरी से 30 अप्रैल के बीच 113 हिंदू और 329 मुस्लिम, कुल 442 लोग मारे गए. रिपोर्ट में कहा गया है, ‘‘इन आंकड़ों में पुलिस गोलीबारी में 100 से अधिक और निजी गोलीबारी में 33 से अधिक मौतें शामिल हैं. पांडे ने आगे कहा है कि इस अवधि के दौरान 780 आपराधिक मामले दर्ज किए गए और 2862 लोगों को गिरफ्तार किया गया जिनमें से 1755 हिंदू थे.’’ इससे पांडे ने निष्कर्ष निकाला, ‘‘यह कहना गलत है कि प्रशासन और पुलिस दंगाइयों की मदद कर रहे थे और अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को मुख्यमंत्री के कथित उद्देश्य को प्राप्त करने के इरादे से निशाना बना रहे थे.’’

यह भ्रामक है. आप एक दिन के आंकड़ों का उपयोग उस पैटर्न को झुठलाने के लिए नहीं कर सकते हैं जो महीनों में इकट्ठा किए गए आंकड़ों से सामने आता है. यह जांच करने लायक है कि पांडे के शब्द क्या सुझाव देते हैं. पांडे और श्रीकुमार द्वारा दिए गए अहमदाबाद के कुल आंकड़े अनुमानित हैं, यह देखते हुए कि पांडे के आंकड़ों में 24-30 अप्रैल 2002 की अतिरिक्त अवधि शामिल है. दिलचस्प बात यह है कि पांडे के आंकड़े यह नहीं बताते कि पुलिस फायरिंग के कारण कुल कितने मुस्लिम और कितने हिंदुओं की जान गई.

अगर पहले दिन पुलिस की गोलीबारी में 11 हिंदू और 6 मुस्लिम मारे गए, तो इसका मतलब है, अगर हम अहमदाबाद के बारे में दिए गए श्रीकुमार के आंकड़े को लें तो 1 मार्च से 24 अप्रैल के बीच 30 हिंदुओं और 57 मुसलमानों की जान गई. तो अहमदाबाद में पुलिस की गोलीबारी में कम से कम 51 मुस्लिम और 19 हिंदू मारे गए. फिर, अगर हम पांडे के शब्दों पर चलते हैं और मान लेते हैं कि पुलिस ने कोई भेदभाव नहीं दिखाया क्योंकि वे किसी विशेष समुदाय के सदस्यों की पहचान नहीं कर सकते थे, तो यह संख्या बताती है कि मुस्लिम और हिंदुओं की संख्या के बीच पांच अनुपात दो का फर्क.

अगमदाबाद में 1 मार्च 2002 को मुसलमानों पर तलवार लहराती हिंदू भीड़.  सेबस्टियन डिसूजा / एएफपी / गैटी इमेजिस

भले ही पांडे ने दावा किया है कि बाद के दिनों में और अधिक मुसलमान सड़कों पर उतर आए लेकिन यह अनुपात अस्थिर है. यह कल्पना करना मुश्किल है कि अगर एसआईटी सबूतों की निष्पक्ष जांच कर रही होती तो एसआईटी इसे हल्के में कैसे ले सकती थी. हमें इस दावे को चुनौती देने के लिए अहमदाबाद की जनसांख्यिकी या प्रत्यक्षदर्शियों की गवाही को देखने की भी जरूरत नहीं है. सड़कों पर इस अनुपात को देखते हुए यह असंभव है कि एक बार जब हम पुलिस फायरिंग में मारे गए लोगों को छोड़ दें और एक बार फिर श्रीकुमार के आंकड़ों पर विचार करें, तो मुठभेड़ के चलते 61 हिंदुओं के मुकाबले 221 मुसलमान मारे गए या मारपीट व आगजनी की घटनाओं में 329 हिंदुओं के मुकाबले 408 मुस्लिम घायल हुए.

जब हम पूरे राज्य के लिए श्रीकुमार के दिए आंकड़ों की जांच करते हैं, तो पता चलता है कि पुलिस की गोलीबारी में हुई मौतों को छोड़ कर सांप्रदायिक हिंसा में 545 मुस्लिम और 105 हिंदू मारे गए थे. यह इस तरफ इशारा करता है कि हिंदू भीड़ मुस्लिमों से कहीं अधिक थी. इसे देखते हुए यह गणना करना असंभव है कि पुलिस गोलीबारी में 76 हिंदुओं के मुकाबले केवल 91 मुस्लिम कैसे मारे गए अगर पुलिस सक्रिय रूप से अपने लक्ष्यों का चयन नहीं कर रही थी.

लंबी अवधि में जुटाए गए डेटा पैटर्न के जवाब में एकल डेटा बिंदु का उपयोग करना एक त्रुटि है. सांख्यिीकीय की किसी आम कक्षा में भी इसकी इजाजत नहीं दी सकती. सीधे शब्दों में कहें तो पुलिस गोलीबारी में मुसलमानों को चुनिंदा निशाना बनाने के अलावा कोई अन्य निष्कर्ष नहीं निकलता है. मोदी के तत्कालीन कनिष्ठ गृह मंत्री गोर्धन जदाफिया, जो हिंदू और मुस्लिम मौतों की संख्या पर नजर रख रहे थे, के बारे में एक पुलिस अधीक्षक द्वारा किए गए एक खुलासे से इस तथ्य को और बल मिलता है.

कई पुलिस अधिकारियों को उनके अधिकार क्षेत्र में हिंसा को रोकने के लिए प्रभावी कार्रवाई करने के तुरंत बाद फील्ड पोस्टिंग से स्थानांतरित कर दिया गया था. अधिकारियों में भावनगर के पुलिस अधीक्षक राहुल शर्मा भी शामिल थे.

इस स्थिति के बारे में शर्मा ने एसआईटी को बताया :

भावनगर पुलिस 02-03-2002 की शाम तक सांप्रदायिक दंगों को नियंत्रित करने में सफल रही थी. श्री राहुल शर्मा ने कहा है कि श्री गोर्धन जदाफिया ने उनसे 16-03-2002 को फोन पर बात की और उन्हें बताया कि उन्होंने सांप्रदायिक दंगों को नियंत्रित करने में अच्छा काम किया है लेकिन दंगों में पुलिस गोलाबारी में मौतों का अनुपात उचित नहीं था, यानी मुसलमानों से ज्यादा हिंदुओं की मौत होना. श्री राहुल शर्मा ने यह भी कहा है कि 23-03-2002 को एक मस्जिद पर दंगाई भीड़ ने हमला किया था जिसके बाद 21 लोगों को गिरफ्तार किया गया था और स्थानीय नेताओं ने उन पर उन्हें रिहा करने के लिए दबाव डाला था जिससे वह सहमत नहीं थे. इसके चलते उनका कलेक्टर, आईजीपी, जूनागढ़ रेंज और डीजीपी से मतभेद हो गया. श्री राहुल शर्मा को डीसीपी, कंट्रोल रूम, अहमदाबाद शहर के रूप में स्थानांतरित कर दिया गया और उन्हें 26-03-2002 से एसपी, भावनगर के पद से मुक्त किया गया.

यहां एक सेवारत पुलिस अधिकारी है जो अपनी यह बात दर्ज कराता है कि जदाफिया वास्तव में पुलिस गोलीबारी में मुस्लिम और हिंदू मौतों के अनुपात पर नजर रख रहे थे और वह इस बारे में स्पष्ट थे कि अनुपात उनके अनुमान से मेल नहीं खाता- ‘‘मुसलमानों से ज्यादा हिंदुओं की मौत.’’ इस तथ्य का एसआईटी द्वारा विचार किए जाने वाले प्रमुख आरोपों में से एक पर असर पड़ता है : मुसलमानों के खिलाफ पुलिस पूर्वाग्रह का सवाल. एसआईटी रिपोर्ट इस दावे पर सोचना तक जरूरी नहीं समझती है. इसके बजाए वह बस इतना कहती है : ‘‘हालांकि श्री राहुल शर्मा ने कहा है कि वह उन परिस्थितियों पर टिप्पणी नहीं कर पाएंगे जिनके कारण भावनगर से अहमदाबाद शहर में उनका स्थानांतरण/तैनाती हुई क्योंकि स्थानांतरण पोस्टिंग सरकार का विशेषाधिकार है.’’

शब्द ‘‘हालांकि’’ खुद इस समस्या का संकेत है कि एसआईटी कैसे अपना मामला तैयार करती है. शर्मा एक सेवारत पुलिस अधिकारी थे जो किसी भी तरह से सरकार पर मंशा नहीं थोप सकते थे. वह बस उन हालातों का जिक्र कर सकते थे जिनके कारण उनका तबादला हुआ. एसआईटी ने उनसे एक सवाल पूछा जिसका वह संभवतः ईमानदारी से जवाब नहीं दे सके और उस जवाब का इस्तेमाल उसकी गवाही को सरसरी तौर पर खारिज करने के लिए किया. ‘‘मजबूत तर्क’’ या ‘‘विश्लेषणात्मक बुद्धि’’ इस्तेमाल करने से दूर- यहां भी एसआईटी की पद्धति एक असहज करती सच्चाई को दबा देने का सुझाव देती है.

यह तब और स्पष्ट हो जाता है जब हम एक अन्य पुलिस अधिकारी, विवेक श्रीवास्तव. की गवाही पर विचार करते हैं. श्रीवास्तव ने एसआईटी को कच्छ जिले के एक कस्बे नखतराना के बाहर एक दरगाह पर हुई घटना के बारे में बताया. एक मुस्लिम परिवार पर ‘‘तेज धार वाले हथियारों’’ से हमला किया गया था. बाद की जांच में होमगार्ड के एक कमांडेंट को गिरफ्तार किया गया, जो बीजेपी से जुड़ा था. श्रीवास्तव ने एसआईटी को बताया कि ‘‘उन्हें गृह मंत्री और मुख्यमंत्री के कार्यालय से कुछ फोन आए और उनसे मामले के विवरण के बारे में पूछा गया और यह भी पूछा गया कि क्या सभी आरोपियों के खिलाफ पर्याप्त सबूत हैं? उन्होंने पुष्टि की कि गिरफ्तारी के लिए सभी आरोपी व्यक्तियों के खिलाफ पर्याप्त सबूत उपलब्ध हैं.’’ मार्च 2002 के अंत में एक अलग पद पर उनका तबादला कर दिया गया. ‘‘हालांकि, श्री विवेक श्रीवास्तव कारणों पर टिप्पणी करने के लिए तैयार नहीं थे क्योंकि उनके अनुसार, तबादला सरकार का विशेषाधिकार था,” एसआईटी की रिपोर्ट में कहा गया है.

एसआईटी ने इस बात की जांच करने का कोई कोशिश नहीं की कि मुख्यमंत्री कार्यालय और गृह मंत्री कार्यालय इस मामले में इतनी दिलचस्पी क्यों रखते हैं. क्या इन कार्यालयों के लिए हिंसा से संबंधित हर गंभीर मामले में सबूत मांगना आम बात थी?

पुलिस अधिकारी सतीश चंद्र वर्मा की एक और गवाही उसी नजीर की गवाही देती है. 2003 और 2005 के बीच जब वर्मा कच्छ-भुज मुख्यालय में उप महानिरीक्षक के पद पर तैनात थे, तब राधनपुर पुलिस स्टेशन में दर्ज एक आपराधिक मामला उनके संज्ञान में लाया गया था. गोधरा कांड के बाद हुई सांप्रदायिक हिंसा में पुलिस की गोलीबारी में दो मुसलमानों के मारे जाने की खबर थी. शंकर चौधरी उस समय राधनपुर से बीजेपी विधायक थे. वर्मा ने एसआईटी को बताया कि ‘‘पुलिस गोलीबारी से इन दोनों मुसलमानों की मौत की पुष्टि उपलब्ध सबूतों से नहीं हुई बल्कि श्री शंकर चौधरी सहित निजी व्यक्तियों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए सबूत उपलब्ध थे, जिसके कारण इन लोगों की मौत हुई.’’ उन्होंने कहा कि उन्होंने चौधरी की गिरफ्तारी का आदेश दिया और बाद में एक पुलिस प्रशिक्षण संस्थान के प्रिंसिपल के रूप में उनका जूनागढ़ तबादला कर दिया गया. ‘‘हालांकि, श्री वर्मा ने कहा है कि वह यह नहीं कह सकते कि यह तबादला इसी उक्त आदेश का नतीजा था. उन्होंने यह भी कहा है कि वह किसी प्रशिक्षण संस्थान के प्राचार्य के पद को महत्वहीन नहीं कह सकते.

इन बातों के आधार पर एसआईटी ने नतीजा निकाला कि भले ही शर्मा, श्रीवास्तव, वर्मा और अन्य के बयान ‘‘यह बताते हैं कि उनके तबादले उनके अधिकार क्षेत्र में कुछ घटनाओं के तुरंत बाद हुए थे,’’ उनका यह स्वीकार करना कि पोस्टिंग और तबादला सरकार का विशेषाधिकार है, बताता है कि ‘‘इसे कुछ घटनाओं से नहीं जोड़ा जा सकता है जो उनके तबादले से ठीक पहले हुई थीं.’’ यह एक गैर अनुक्रमक है. सरकार की मंशा पर टिप्पणी नहीं करने के लिए अधिकारी कर्तव्यबद्ध हैं. यह किसी भी तरह से इस निष्कर्ष पर नहीं ले जा सकता है कि तबादलों को कुछ निश्चित घटनाओं से नहीं जोड़ा जा सकता है जो उनके ठीक पहले हुई थीं. वास्तव में, बयानों की प्रकृति जहां अधिकारियों ने अपने कार्यों के बारे में सरकार की विशिष्ट घटनाओं का जिक्र किया है, एसआईटी जिस आरोप की जांच कर रही थी, उसे खारिज करने के लिए पर्याप्त नहीं है.

एक अन्य आरोप जिसकी एसआईटी को जांच का काम दिया गया था वह संघ परिवार से जुड़े अधिवक्ताओं को सांप्रदायिक हिंसा से संबंधित मामलों में लोक अभियोजक के रूप में नियुक्त किए जाने से संबंधित था. यह आरोप विशेष रुचि का है क्योंकि एसआईटी सत्ता में बैठे लोगों द्वारा आपराधिक साजिश की संभावना की जांच कर रही थी.

एसआईटी रिपोर्ट लोक अभियोजकों की नियुक्ति के लिए प्रक्रिया बताती है :

पूछताछ से पता चला कि एक कस्बे में एक लोक अभियोजक की नियुक्ति की प्रक्रिया यह है कि रिक्ति को स्थानीय समाचार पत्रों में कलेक्टर और जिला मजिस्ट्रेट द्वारा अधिसूचित किया जाता है. विज्ञापन के जवाब में प्रधान सत्र न्यायाधीश और जिला मजिस्ट्रेट वाले बोर्ड द्वारा कई पात्र उम्मीदवारों का साक्षात्कार लिया जाता है. इसके बाद, लोक अभियोजक की नियुक्ति के संबंध में बोर्ड द्वारा चुने गए तीन या चार अधिवक्ताओं का एक पैनल सरकार को भेजा जाता है. सरकार अपने खुद के विवेक का इस्तेमाल कर तीन साल की अवधि के लिए लोक अभियोजक के रूप में सूचीबद्ध उम्मीदवारों में से एक का चयन और अधिसूचित करती है. इस तरह यह देखा जा सकता है कि चयन प्रक्रिया पारदर्शी होते हुए भी भेजे गए 3-4 अधिवक्ताओं के पैनल में से एक विशेष वकील को नियुक्त करने का विवेकाधिकार मिला है.

इस प्रक्रिया के जरिए नियुक्त किए गए लोक अभियोजकों की पृष्ठभूमि की छानबीन करने के बाद एसआईटी ने नतीजा निकाला कि हालांकि ऐसा प्रतीत होता है कि चयनों में राजनीतिक संबद्धता का महत्व था, अभियोजकों द्वारा अदालती ट्रायल या जमानत की सुनवाई के दौरान अभियुक्तों का ‘‘पक्ष लेने’’ का कोई विशेष आरोप प्रकाश में नहीं आया था. हालांकि, ऐसी स्थिति में किसी विशेष पक्षपात की ओर इशारा करना मुश्किल है. अभियोजकों के काम में संभावित कॉन्फिल्क्ट ऑफ इंटिरस्ट होने पर मामलों पर समग्र प्रभाव पर विचार करना अधिक समझ में आता है. उतना ही महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि एसआईटी को मजबूरन यह स्वीकार करना पड़ा है कि सरकार की मंशा विहिप या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पृष्ठभूमि वाले लोगों को नियुक्त करने के पक्ष में थी. इस सामान्य मंशा को स्थापित करने के बाद, एसआईटी को यह सुनिश्चित करना चाहिए था कि इस समय सरकार के हर कार्य को इस तथ्य के खिलाफ आंका जाए.

इसके मद्देनजर, यह समझना और भी मुश्किल हो जाता है कि एसआईटी कैसे नतीजा निकाल सकती है कि कुछ पुलिस अधिकारियों के तबादले में कोई गड़बड़ी नहीं हुई थी जबकि हम ऊपर देख चुके हैं ट्रांसफर के हर मामले में आरएसएस और विहिप की समर्थक सरकार के पास इन अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करने के विशिष्ट कारण थे. एक बार यह स्थापित हो जाने के बाद कि सरकार की मंशा संदिग्ध है, केवल यह कह कर आरोप को खारिज करना असंभव है कि तबादला सरकार का विशेषाधिकार है.

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गोधरा के मृतकों को अहमदाबाद लाना एक और उदाहरण है जिसमें गुजरात सरकार पर अपनी मंशाओं को छिपाने का आरोप लगाया गया था. इस आरोप में दो आरोप शामिल थे : गोधरा के मृतकों के शवों को विहिप को सौंप दिया गया और बाद में उन शवों का जुलूस निकालने के लिए अहमदाबाद लाया गया था.

यह एसआईटी के जुटाए तथ्य हैं. 27 फरवरी 2002 को विहिप का राज्य महासचिव जयदीप पटेल दोपहर 12.48 बजे गोधरा पहुंचा. उस शाम 8.03 से 9.15 बजे के बीच वह जदाफिया के साथ फोन कॉल के जरिए से लगातार संपर्क में रहा. उसे दिन भर पुलिस उपायुक्त आरजे सवानी के भी फोन आते रहे. ‘‘उपरोक्त कॉल डिटेल रिकॉर्ड स्थापित करते हैं कि श्री जयदीप पटेल 27-02-2002 को करीब 23.58 बजे तक गोधरा में रहे.’’ यह स्थापित करता है कि शवों को आधिकारिक तौर पर पटेल को सौंप दिया गया था- गोधरा के कार्यकारी मजिस्ट्रेट एमएल नलवया ने ‘‘विहिप के डॉ जयदीप पटेल को संबोधित एक पत्र जारी किया, जिसमें उन्होंने उल्लेख किया था कि 54 शव पांच ट्रकों के जरिए भेजे जा रहे हैं.’’

रिपोर्ट आगे विस्तार से बताती है :

विश्व हिंदू परिषद के श्री हसमुख टी. पटेल को शव सौंपे गए. इसका जिक्र किया जाना चाहिए कि शवों को उनके कानूनी वारिसों/अभिभावकों को सौंपना रेलवे पुलिस का कर्तव्य था, जिसने इस घटना के संबंध में मामला दर्ज किया था. श्री एमएल नलवया ने कहा है कि गोधरा की डीएम श्रीमती जयंती एस. रवि और एडीएम स्वर्गीय बीएम डामोर के निर्देशानुसार इन शवों को आधिकारिक तौर पर विश्व हिंदू परिषद के श्री जयदीप पटेल और श्री हसमुख टी. पटेल को सौंप दिया गया. श्री एम.एल. नलवया ने इस संबंध में नानावटी जांच आयोग के समक्ष दिनांक 05-09-2009 को एक हलफनामा दाखिल किया है .

जिला मजिस्ट्रेट को दोषी ठहराने वाली वाली यह गवाही निम्नलिखित वाक्य से कमजोर हो जाती है : ‘‘हालांकि श्रीमती जयंती रवि ने कहा है कि श्री नलवाया को ऐसा कोई निर्देश नहीं दिया गया था कि शवों को विहिप के श्री जयदीप पटेल या श्री हसमुख टी. पटेल को सौंप दिया जाए. केवल श्री जयदीप पटेल केवल शवों के साथ अहमदाबाद जाना था.

जो कोई भी भारतीय नौकरशाही को जानता है, उसके लिए यह भरोसा करना मुश्किल होगा कि जिस दिन पूरे राष्ट्र का ध्यान गोधरा पर केंद्रित था, जहां मुख्यमंत्री खुद मौजूद थे और व्यवस्थाओं की देखरेख कर रहे थे, कोई कार्यकारी मजिस्ट्रेट अपने दम पर कार्य करेगा. इससे भी ज्यादा हैरानी की बात यह है कि वह जिला मजिस्ट्रेट के निर्देशों की अवहेलना करते हुए इसे कागज पर उतार देगा. इसके अलावा, नलवाया की गवाही सीधे तौर पर रवि की तरफ इशारा करती है और बताती है कि इस बात के सबूत हैं कि शव औपचारिक रूप से विहिप को सौंपे गए थे. रवि का यह कहना कि उसने नलवाया को कोई निर्देश नहीं दिए और एसआईटी का इसे मान लेना वह भी तब जब रवि खुद आरोपी है, तर्क और निष्पकक्षता से मेल नहीं खाता. रवि ने एसआईटी से इस बात के लिए भी इनकार किया कि मृतकों को सड़क मार्ग से अहमदाबाद ले जाने का फैसला उनकी मर्जी के उलट लिया गया था. उस पर लगे आरोपों में से यह भी एक था.

 

गोधरा में मारे गए कई लोगों के शव विश्व हिंदू परिषद के महासचिव जयदीप पटेल को सौंपे गए. एक आरोप यह भी था कि शवों की झांकी निकालने के लिए अहमदाबाद लाया गया था. सैम पंथकी / एएफपी फोटो / गैटी इमेजिस

एसआईटी की रिपोर्ट कहती है कि, ‘‘हालांकि श्री एम.एल. नलवया ने विहिप के श्री जयदीप पटेल के नाम से एक पत्र संबोधित किया था और शवों को विहिप के श्री हसमुख टी. पटेल द्वारा स्वीकार किया गया, फिर भी पुलिस द्वारा शवों को अहमदाबाद शहर के बाहरी इलाके में स्थित सोला सिविल अस्पताल, अहमदाबाद तक ले जाया गया. इसमें आगे कहा गया है, पटेल ने ‘‘अस्पताल के अधिकारियों और स्थानीय पुलिस को पत्र सौंपा और साथ ही अस्पताल के अधिकारियों ने शवों को अपने कब्जे में ले लिया.’’

एसआईटी का तर्क है कि विहिप को सौंपे जाने के बाद शवों को ले जाने वाले काफिले को एक पुलिस एस्कॉर्ट प्रदान किया गया था. वह इस तकनीकी का उपयोग यह सुझाव देने के लिए करती है कि वास्तव में विहिप को कोई हैंडओवर नहीं हुआ था और यह पटेल ही थे जो पुलिस के साथ थे, न कि इसके उलट हुआ था. फिर, इसे इस तथ्य के खिलाफ पढ़ा जाना चाहिए कि निष्पक्षता और न्याय के हितों के खिलाफ जाने पर भी विहिप को खुश करने और उपकृत करने की सरकार की मंशा पहले ही एसआईटी द्वारा स्थापित की जा चुकी है.

एसआईटी का निष्कर्ष :

यह आरोप स्थापित नहीं होता कि गोधरा कांड में मारे गए लोगों के शवों को अहमदाबाद लाने का सीएम का फैसला शहर में शवों के जुलूस निकालने के लिए था. इसके अलावा, यह आरोप कि शवों को श्री जयदीप पटेल को सौंप दिया गया था, भी स्थापित नहीं होता है क्योंकि वह केवल गोधरा से अहमदाबाद तक शवों के साथ था और शवों की हिरासत पुलिस एस्कॉर्ट और उसके बाद सोला सिविल अस्पताल के अधिकारियों, प्रशासनिक और पुलिस अधिकारियों के पास रही. यह आरोप कि श्रीमती जयंती रवि की इच्छा के विरुद्ध शवों को अहमदाबाद ले जाया गया था, गलत साबित हुआ है. श्री एम एल नलवाय मामलातदार ने श्री जयदीप पटेल को शवों को सौंपे जाने का प्रमाणपत्र जारी कर गैरजिम्मेदाराना हरकत की थी. ये मामले से जुड़े सबूत थे. इस चूक के लिए उन पर विभागीय कार्रवाई की जा रही है.

यहां तक कि सभी सबूत स्पष्ट रूप से दिखाते हैं कि शव वास्तव में जयदीप पटेल को सौंपे गए थे, एसआईटी 28 फरवरी को अहमदाबाद में शवों के जुलूस के बारे में भी सबूत देती है. एसआईटी की रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘‘गोधरा नरसंहार के बारह जले हुए शवों को सोला सिविल अस्पताल से अहमदाबाद शहर के रामोल लाया गया था.’’ रिपोर्ट में कहा गया है कि ये सभी इसी इलाके के थे और अधिकारियों ने यह सुनिश्चित किया कि शव वाहनों में ले जाए जाएं न कि पैदल ‘‘क्योंकि इससे तनाव बढ़ जाता.’’ पुलिस उपायुक्त, आरजे सवानी, “मृतक के रिश्तेदारों और शुभचिंतकों को प्रत्येक शव को एक वाहन में ले जाने के लिए राजी करने में सफल रहे और अंतिम संस्कार के जुलूस पर रामोल-खोखरा से लगभग 4 किलोमीटर दूर हटकेश्वर श्मशान घाट तक पुलिस का पहरा रहा. करीब 1400 बजे तक अंतिम संस्कार हो गया और उसके बाद जो भीड़ राजमार्ग पर इकट्ठी हुई थी वह तितर-बितर हो गई.”

 

28 फरवरी 2002 को अहमदाबाद में गोधरा के मृतकों के अंतिम संस्कार के जुलूस में उमड़ी भीड़. पीटीआई

इससे ऐसा प्रतीत होता है कि उस दिन किसी समय सुबह या दोपहर में 12 वाहनों का एक जुलूस, जिनमें से प्रत्येक में एक शव था, अहमदाबाद की सड़कों से चार किलोमीटर की दूरी पर पुलिस की पहरेदारी में आगे बढ़ा. चूंकि एसआईटी इसके अलावा इस जुलूस का कोई जिक्र नहीं करती है, इसलिए हम यह तय करने की स्थिति में नहीं रह गए हैं कि इस जुलूस का क्या प्रभाव था, शवों को ले जाने वाले वाहनों की प्रकृति क्या थी और शवों के इस जलूस का क्या स्टेटस था.

आरबी श्रीकुमार एसआईटी की पूरी रिपोर्ट में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं. रिपोर्ट का एक बड़ा हिस्सा उन आरोपों की जांच है जो तत्कालीन राज्य खुफिया ब्यूरों प्रमुख रहे श्रीकुमार द्वारा लिखे गए आधिकारिक नोटों और नानावटी-शाह आयोग के सामने उनके द्वारा प्रस्तुत हलफनामे में सामने आए हैं. एक तरह से कहें तो एसआईटी रिपोर्ट मोटा-मोटी रूप में श्रीकुमार द्वारा पेश किए गए सभी सबूतों पर एक प्रतिक्रिया ही है.

एसआईटी की रिपोर्ट के अनुसार, श्रीकुमार ने एसआईटी को बताया कि 9 अप्रैल और 18 सितंबर 2002 के बीच उन्होंने सरकार और पुलिस महानिदेशक को कई रिपोर्टें भेजी थीं जो संघ परिवार के समर्थकों को कठघरे में खड़ा करती हैं और सरकारी महकमे में मुस्लिम विरोधी पूर्वाग्रह को दर्शाती हैं. साथ ही यह भी दिखलाती हैं कि आपराधिक न्याय प्रणाली को दरकिनार कर दिया गया है. उनके द्वारा भेजी गई रिपोर्टों में से एक का शीर्षक था, “अहमदाबाद शहर में वर्तमान सांप्रदायिक परिदृश्य.” उस रिपोर्ट में बताया गया है कि कैसे हाल के दिनों में अल्पसंख्यक समुदाय डरा हुआ महसूस कर रहा है क्योंकि वह बजरंग दल और विहिप के कट्टर सांप्रदायिक तत्वों की पूर्ण दया पर छोड़ दिया गया है.

आरबी श्रीकुमार, गुजरात के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक, 21 अगस्त 2004 को अहमदाबाद में गोधरा ट्रेन जलाने के मामले और अहमदाबाद में गुजरात दंगों के मामले में नानावटी-शाह जांच आयोग के सामने पेश हुए. सबूत उन्होंने पेश किया.  पीटीआई

हिंसा में मारे गए मुसलमानों और हिंदुओं की संख्या के आंकड़ों को सूचीबद्ध करने के बाद, रिपोर्ट में विस्तार से बताया गया है कि श्रीकुमार ने सरकार को क्या बताया. यह विहिप और उसकी शाखा बजरंग दल के नेताओं की हानिकारक कारगुजारियों को जाहिर करती है. एसआईटी में इस बात का जिक्र नहीं है कि बीजेपी, विहिप और बजरंग दल एक ही संघ परिवार का हिस्सा हैं या कि, वास्तव में, राज्य की खुफिया शाखा के सेवारत प्रमुख श्रीकुमार सरकार पर आरोप लगा रहे थे. इस तरह यह भी माना जा सकता है कि सरकार ने हिंसा के बाद में अपने कार्यों के प्रति विरोधी रुख अपनाना शुरू कर दिया.

रिपोर्ट नोट करती है:

श्री श्रीकुमार ने आगे पाया था कि दंगों के प्रमुख शिकार होने के चलते मुस्लिम समुदाय के भीतर आपराधिक न्याय प्रणाली के खिलाफ अविश्वास पनपा क्योंकि उनको लगा कि यह उनके खिलाफ बहुत ज्यादा पक्षपाती है. इसके अलावा, यह जिक्र भी किया गया था कि मुसलमानों ने आरोप लगाया कि पुलिस अधिकारी उनके मामलों की प्राथमिकी दर्ज करने में निष्पक्ष नहीं थे क्योंकि उन्होंने शिकायतकर्ताओं को शिकायत देने से रोकने के लिए दबाव की रणनीति का इस्तेमाल किया था, अपराध की सामग्री को कम किया और कभी-कभी पुलिस अधिकारी खुद शिकायतकर्ता बन गए और उनका पक्ष लेने की दृष्टि से विशिष्ट अभियुक्त व्यक्तियों के नाम भी छोड़ दिए. इसके अलावा, कई अलग-अलग आपराधिक कृत्यों के लिए जो अलग-अलग समय की हैं एक साथ मिला दिया गया था. श्री श्रीकुमार ने आगे जिक्र किया था कि ज्यादातर मुसलमानों ने शिकायत की कि पुलिस अधिकारी हिंदू नेताओं को गिरफ्तारी से बचते हैं फिर भले ही उनका नाम प्राथमिकी में रखा गया हो.

श्रीकुमार की रिपोर्ट ने उनके द्वारा उठाए गए मुद्दों से निपटने के लिए कई ठोस उपायों का भी सुझाव दिया. लेकिन उस समय गृह मामलों के अतिरिक्त मुख्य सचिव अशोक नारायण ने एसआईटी को बताया कि ‘‘पत्र में सामान्य अवलोकन और ठोस विवरण गायब थे.’’ इसके बाद नारायण ने श्रीकुमार के साथ इस मामले पर चर्चा की और उनसे ‘‘जहां तक हो सके अपने स्तर पर कार्रवाई करने को कहा.’’ रिपोर्ट में कहा गया है कि नारायण को ‘‘यह याद नहीं है कि उन्होंने मुख्यमंत्री को यह पत्र दिखाया या नहीं.’’

पुलिस महानिदेशक के. चक्रवर्ती ने एसआईटी को बताया कि श्रीकुमार द्वारा उठाए गए अधिकांश बिंदुओं को ‘‘मार्च और अप्रैल 2002 के महीनों में उनके द्वारा निपटाया गया था.’’ उन्होंने कहा कि अहमदाबाद के पुलिस आयुक्त पीसी पांडे ने पहले ‘‘विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल की अवांछनीय गतिविधियों के बारे में एक रिपोर्ट भेजी थी. जिसमें जबरन वसूली में लिप्त होना और सांप्रदायिकता भड़काने वाले पर्चे प्रकाशित/वितरित करना शामिल है, ‘‘और उन्होंने नारायण के साथ यह रिपोर्ट साझा की थी,’’ जिन्होंने कहा कि वह इसे सरकार के संज्ञान में लाएंगे.

बाद की रिपोर्टों में श्रीकुमार ने इनमें से कुछ बिंदुओं को दोहराया और सुझाव दिया कि जुलाई 2002 में अहमदाबाद में वार्षिक रथ यात्रा नहीं निकाली जानी चाहिए. सरकार इससे सहमत नहीं थी. 20 अगस्त 2008 तक श्रीकुमार ने एक और पत्र लिखा था जिसमें कहा गया था कि ‘‘सांप्रदायिक तनाव जारी है और हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक अंतर अभूतपूर्व स्तर तक बढ़ गया है.’’ नारायण ने सरकार की ओर से इस पत्र का जवाब देते हुए कहा कि श्रीकुमार का आकलन ‘‘राजस्व और जिला अधिकारियों जैसी अन्य एजेंसियों से प्राप्त प्रतिक्रिया के अनुरूप नहीं था.’’

एसआईटी की रिपोर्ट में कहा गया है कि इन पत्रों वाली फाइल का पता नहीं चल सका है. ‘‘हालांकि, श्री अशोक नारायण और श्री के. रथ-यात्रा के तथ्य और एसीएस (होम) के बीच हुई चर्चा के साथ-साथ श्री आरबी श्रीकुमार को भेजे गए जवाब सहित चक्रवर्ती की बातों को ध्यान में रखते हुए, यह नहीं कहा जा सकता है कि पत्रों पर कोई कार्रवाई नहीं की गई थी.

रिपोर्ट में उस फाइल के गायब होने का कोई जिक्र नहीं है, जिसमें वास्तव में नोटिंग, पत्रों को किसने देखा और इस संबंध में की गई कार्रवाई का विवरण होना था. न ही यह जिक्र करती है कि विहिप और बजरंग दल के खिलाफ क्या कार्रवाई की गई. फाइल की सुविधाजनक गैरमौजूदगी में, पहले पत्र के जवाब में क्या कार्रवाई की गई इसके बारे में हमारे पास केवल नारायण और चक्रवर्ती के बयान हैं. यह देखते हुए कि पत्र में पुलिस बल पर मुस्लिमों के खिलाफ कानून-व्यवस्था तंत्र के पक्षपाती होने का आरोप लगाया गया था, वास्तव में, उन जवाबदेह लोगों- गृह मंत्रालय में सबसे वरिष्ठ नौकरशाह और राज्य पुलिस के प्रमुख- की गवाही का इस्तेमाल आरोपों को ही खारिज करने के लिए किया जाता है.

कुछ महीने पहले ही राज्य में हुई खूनी सांप्रदायिक हिंसा को देखते हुए यह सुझाव दिया गया था कि अहमदाबाद में जुलाई 2002 को होने वाली रथ यात्रा नहीं निकाली जानी चाहिए. गुजरात सरकार इससे असहमत थी. अमित दवे / रायटर्स

श्रीकुमार ने जो खुलासा किया उसके आधार पर एक और आरोप से निपटने के दौरान इन्हीं अधिकारियों को तलब किया जाता है, जो उसी रिपोर्ट पर आधारित है जो अब फाइल पर उपलब्ध नहीं है. राज्य के खुफिया ब्यूरो ने सिफारिश की थी कि कुछ अधिकारियों का तबादला कर दिया जाना चाहिए. 24 अप्रैल को नारायण और खुफिया विभाग के अतिरिक्त महानिदेशक के रूप में कार्यभार संभालने के तुरंत बाद चक्रवर्ती को एक नोट में श्रीकुमार ने सुझाव दिया कि ‘‘उन शहरों और जिलों में जहां दंगों के दौरान पुलिस या तो निष्क्रिय रही या दंगाइयों के साथ उसने सहयोगी भूमिका निभाई, वहां मौजूदा पदधारियों को हालात को देखते हुए कार्यकारी पदों से हटाया जाए.” लेकिन नानावटी आयोग को दिए श्रीकुमार के हलफनामे के अनुसार यह तब तक नहीं किया गया जब तक कि वरिष्ठ पुलिस अधिकारी केपीएस गिल राज्य में नहीं पहुंचे. (डिस्क्लेमर : लेखक गिल के रिश्तेदार लेकिन यहां इस्तेमाल की गई सारी जानकारी सीधे एसआईटी रिपोर्ट से ली गई है.)

4 मई 2002 को श्रीकुमार ने एसआईटी को बताया, गिल, जिन्हें मोदी के सुरक्षा सलाहकार के रूप में नियुक्त किया गया था, ने वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के साथ एक बैठक की. चक्रवर्ती, श्रीकुमार और पांडे के अलावा उपस्थित लोगों में कानून और व्यवस्था के अतिरिक्त महानिदेशक मणीराम और अहमदाबाद पुलिस के संयुक्त आयुक्त एमके टंडन शामिल थे. श्रीकुमार ने कहा,“ चक्रवर्ती और पांडे ने कहा कि प्रभावी पुलिस उपायों के कारण स्थिति सामान्य थी लेकिन राज्य में कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए जिम्मेदार मणीराम उनके आकलन से पूरी तरह असहमत थे.”

श्रीकुमार का दावा मणीराम के एसआईटी को दिए गए अपने बयान से समर्थित है, जिसमें उन्होंने कहा कि उन्होंने गिल को सूचित किया कि ‘‘अहमदाबाद शहर में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच तनाव जारी है’’ और पुलिस अधिकारी ‘‘जो अपने अधिकार क्षेत्रों में दंगा न रोक पाने के लिए जिम्मेदार थे और जिसके चलते जानमाल का नुकसान हुआ, उनके कद की परवाह किए बिना तुरंत उनका तबादला कर दिया जाना चाहिए और उनके स्थान पर अच्छे अधिकारियों को नियुक्त किया जाना चाहिए.” मणीराम ने यह भी कहा कि ‘‘जहां भी प्रभावी अधिकारी तैनात किए गए थे,’’ जैसे सौराष्ट्र और दक्षिण गुजरात में, ‘‘कानून और व्यवस्था की स्थिति नियंत्रण में थी.’’

श्रीकुमार ने आगे गवाही दी कि गिल ने उन्हें 8 मई को कहा था कि अहमदाबाद में निर्णय लेने के स्तर के अधिकांश पुलिस अधिकारियों का तबादला किया जाएगा और उनकी जगह एक नई टीम बनाई जाएगी. जवाब में चक्रवर्ती ने कहा कि गिल के साथ प्रारंभिक चर्चा के दौरान उन्हें और नारायण को ‘‘यह समझ आया कि सीएम अहमदाबाद शहर के वरिष्ठ अधिकारियों का तबादला कराने के साथ वैकल्पिक प्रस्ताव चाहते हैं.’’ चक्रवर्ती ने कहा कि उन्होंने अपने सुझाव नारायण को दिए, जिन्होंने एक नोट तैयार किया था जिसे मोदी ने मंजूरी दे दी थी और तबादले मई के पहले सप्ताह के अंत में लागू हो गए. उन्होंने कहा कि ‘‘क्षेत्राधिकार के अधिकारियों के स्थानांतरण से संबंधित मामला पहले से ही विचाराधीन था और मणीराम या श्रीकुमार के आग्रह पर नहीं लिया गया था.’’ एसआईटी ने नतीजा निकाला कि, ‘‘इसके मद्देनजर, श्री श्रीकुमार का आरोप है कि 24.04.2002 को राज्य आईबी द्वारा सुझाए गए क्षेत्राधिकारी अधिकारियों के तबादले मुख्यमंत्री के सलाहकार श्री केपीएस गिल के आने तक नहीं किए गए थे इसलिए बेबुनियाद हैं.’’

यह एक स्पष्ट निष्कर्ष नहीं है. इस मामले में श्रीकुमार के बयान को मणीराम का समर्थन प्राप्त है . इसके अलावा, बैठक में जहां तबादलों का सुझाव दिया गया था, चक्रवर्ती और पांडे, जो स्थानांतरित किए गए अधिकारियों में से थे, ने दावा किया कि राज्य में पुलिसिंग को लेकर कोई समस्या नहीं है. अगर यह महानिदेशक का विचार था, तो उन्होंने कुछ ही समय बाद कई वरिष्ठ अधिकारियों के तबादले की सिफारिश कैसे की?

एक आसान तरीका था जिससे इस मुद्दे को सुलझाया जा सकता था : गिल की गवाही लेकर. लेकिन एसआईटी ने ऐसा नहीं करने का फैसला किया. इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट का फैसला कहता है :

इस विश्लेषण की दूसरों के बीच इस आधार पर आलोचना की गई है कि श्री केपीएस गिल की एसआईटी द्वारा जांच नहीं की गई है. एसआईटी द्वारा श्री केपीएस गिल की जांच न करने से इस पहलू पर अंतिम रिपोर्ट में एसआईटी द्वारा प्राप्त अन्यथा सुविचारित राय पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ सकता है. किसी भी मामले में, मई 2002 के पहले सप्ताह के अंत तक एसआईबी (दिनांक 24-4-2002) की सिफारिश का स्थानांतरण आदेश को अमल में नहीं लाने से उच्चतम स्तर पर बड़ी आपराधिक साजिश रचने और फरवरी 2002 के बाद से राज्य भर में हिंसा को बढ़ावा देने के आरोप के बारे में कोई सीधा संबंध नहीं मिलता है. इस प्रकार देखा जाए तो एसआईटी की राय में कोई दोष नहीं पाया जा सकता... इस संबंध में एसआईटी की राय एक प्रशंसनीय दृष्टिकोण है और मजिस्ट्रेट, साथ ही साथ, उच्च न्यायालय में भी इसकी सराहना की गई थी.

लेकिन हम यह निर्धारित करने की कोशिश नहीं कर रहे हैं कि क्या कोई आपराधिक साजिश थी. इसके बजाय हम यह तय करने की कोशिश करते हैं कि एसआईटी द्वारा जुटाए गए सबूतों के आधार पर किन नतीजों पर पहुंचा जा सकता है. जब हम ऐसा करते हैं, तो हमें एक ऐसी तस्वीर मिलती है जो पुलिस बल के पतित होने, मुसलमानों के खिलाफ पक्षपाती होने और हिंसा को रोकने में अप्रभावी होने की श्रीकुमार की बात का समर्थन करती है. गिल के आगमन के साथ ही श्रीकुमार और मणीराम की सलाह के अनुसार तबादले हुए और वास्तव में इन बदलावों के कुछ ही समय बाद राज्य में सांप्रदायिक हिंसा कम हो गई.

श्रीकुमार द्वारा मोदी सरकार के खिलाफ बनाया गया मामला यहीं खत्म नहीं होता है, लेकिन चूंकि इस अवधि के दौरान उन्होंने जो रजिस्टर रखा है, उस पर एसआईटी ने सवाल उठाया है इसलिए इस रिपोर्ट में इस पर कोई भरोसा नहीं किया गया है.

एसआईटी ने 2002 की गुजरात हिंसा से संबंधित बहुत सारे सबूत रिकॉर्ड पर रखे हैं. लेकिन उन सबूतों का इस्तेमाल कई गलत निष्कर्ष निकालने के लिए किया है. इसने बार-बार उन अधिकारियों पर पूरी तरह से भरोसा किया है जो राज्य में कानून और व्यवस्था की विफलता के लिए सीधे जिम्मेदार होते अगर उन पर आरोप स्थापित हो गए होते. इसके विपरीत, जब श्रीकुमार की गवाही सरकार के आख्यान को कमजोर करती है तो उन्हें एक अविश्वसनीय गवाह के रूप में एसआईटी ने देखा है, जिनकी बातों पर भरोसा नहीं किया जाना चाहिए. रिपोर्ट कहती है :

श्री आर बी श्रीकुमार की गवाही इस बात से प्रेरित है कि उन्होंने अतिरिक्त डीजी (खुफिया) के रूप में पोस्टिंग के दौरान डेटा/सबूत एकत्र करना शुरू कर दिए थे. बाद में भी उन्होंने गृह सचिव श्री जीसी मुर्मू और आयोग के समक्ष सरकार के वकील श्री अरविंद पांड्या के साथ अपनी बातचीत को गुप्त रूप से रिकॉर्ड किया ताकि उन पर दबाव डालने का आरोप लगाया जा सके. उन्होंने गृह विभाग में बजट और समन्वय के एक अवर सचिव दिनेश कपाड़िया के साथ भी अपनी बातचीत रिकॉर्ड की थी जिसे बाद में सरकार के खिलाफ सबूत के रूप में इस्तेमाल किया जाना था. हैरानी की बात यह है कि उन्होंने फरवरी 2005 में पदोन्नति न होने तक इन सभी बातों को गुप्त रखा और 09-04-2005 को आयोग के समक्ष दायर अपने तीसरे हलफनामे में इसे सार्वजनिक किया. इसलिए श्री आरबी श्रीकुमार की ओर से ये सभी कार्य प्रेरित प्रतीत होते हैं.

यह विश्लेषण इस तथ्य की पूरी तरह से अनदेखी करता है कि अप्रैल 2002 से श्रीकुमार ने मोदी प्रशासन के तहत पुलिस की विफलता के साथ-साथ विहिप और बजरंग दल को मिल रहे सरकारी समर्थन को सामने लाने के लिए भारी जोखिम उठाया था. इसमें कोई हैरानी की बात नहीं कि सरकार द्वारा उनके खिलाफ कार्रवाई करना और उसके लिए तैयारी करने की आशंका उनको नहीं रही होगी.

श्रीकुमार द्वारा लगाए गए इन आरोपों के संबंध में कि सीएम द्वारा कई अवैध मौखिक निर्देश दिए गए थे और उन्होंने इस संबंध में एक रजिस्टर बनाए रखा था, तत्कालीन आईजीपी (प्रशासन) श्री ओपी माथुर ने कहा है कि 18.04.2002 को जब उन्होंने उसी में पृष्ठों की संख्या प्रमाणित की थी रजिस्टर पूरी तरह से खाली था और श्री श्रीकुमार ने इस तरह के रजिस्टर को बनाए रखने के उद्देश्य का खुलासा नहीं किया था,” रिपोर्ट कहती है. ‘‘श्री माथुर के अनुसार, रजिस्टर में ‘‘गुप्त’’ मोहर नहीं थी और न ही कोई शीर्षक और साथ ही अतिरिक्त डीजी, सीआईडी (खुफिया) कार्यालय के परिपत्र की मुहर थी. श्री माथुर के अनुसार, श्री श्रीकुमार ने पहली प्रविष्टि 16.04.2002 को, दूसरी और तीसरी प्रविष्टि 17.04.2002 को और चौथी प्रविष्टि 18.04.2002 को दर्ज की थी, जो यह दर्शाती है कि श्री श्रीकुमार ने न केवल इन प्रविष्टियों को पहले की तारीखों में दर्ज किया था बल्कि बाद में स्टापों को भी चिपका दिया था.

श्रीकुमार द्वारा एसआईटी को दिए गए कई बयान हैं लेकिन एक भी जगह ऐसा नहीं है जहां श्रीकुमार को इन आरोपों को स्पष्ट करने के लिए कहा गया हो. एसआईटी ने जो कुछ भी संकलित किया है, वह सिर्फ इतना है जहां माथुर ने, जो उसी सरकार के एक सेवारत अधिकारी हैं, ने उनके खिलाफ बयान दिया है. श्रीकुमार को माथुर के दावों का जवाब देने का मौका नहीं दिया गया.

बावजूद इसके उनके सह-आरोपी संजीव भट्ट की गवाही को खारिज करने के लिए श्रीकुमार की बात पर भरोसा किया जाता है. रिपोर्ट 2011 के एक मीडिया साक्षात्कार का हवाला देती है जिसमें श्रीकुमार ने कहा था कि भट्ट ने उन्हें 27 फरवरी 2002 को मोदी के आवास पर एक बैठक में भाग लेने के बारे में कभी सूचना नहीं दी थी. इसमें कहा गया है कि श्रीकुमार ने आगे कहा है कि उस समय नानावटी-शाह जांच आयोग के सामने एक हलफनामा दाखिल करते वक्त उन्होंने राज्य आईबी के सभी अधिकारियों को गोधरा दंगों के संबंध में प्रासंगिक जानकारी और दस्तावेज उपलब्ध कराने के लिए कहा था लेकिन श्री संजीव भट्ट ने उन्हें उक्त बैठक के बारे में कोई जानकारी नहीं दी.

अहमदाबाद के एक इलाके में जले हुए पेड़ों और ध्वस्त इमारतों के पास खड़ी पुलिस. 2002 के मुस्लिम विरोधी दंगों के दौरान यहां सांप्रदायिक हिंसा देखी गई थी. अर्काे दत्ता / रॉयटर्स

1984 की सिख विरोधी हिंसा की जांच आयोगों पर अपनी पहले की एक रिपोर्ट में, मैंने दोनों आयोगों की रिपोर्ट के बारे में लिखा था : “दोनों ने ही कई पीड़ितों और चश्मदीदों की गवाई दर्ज कीं और उनमें से कुछ आरोपियों को, उन पुलिस अधिकारियों सहित जो बुरी तरह प्रभावित क्षेत्रों में ड्यूटी पर थे, गिरफ्तार किया. फिर भी दर्ज की गई गवाही और निकाले गए नतीजे पूरी तरह बेमेल हैं- आयोगों की अपनी टिप्पणियां उनके नतीजों का खंडन करती हैं. इसी तरह, यहां भी एसआईटी ने खुद जुटाए सबूतों की गंभीरता को बार-बार कम करने की कोशिश की है. मोदी को ऐसी सफाई देकर बचने दिया जिसका उस इंटरव्यू से कोई लेना देना नहीं है. हिंसा के दौरान कड़ी कार्रवाई करने वालों और संघ परिवार के लोगों को पकड़ने की कोशिश करने वालों का तबादला करने के सरकार पर लगे गंभीर आरोप को यह दावा करते हुए खारिज कर दिया गया कि यह सरकार का विशेषाधिकार है. पुलिस गोलीबारी में मुस्लिम हताहतों की संख्या को आसानी से खारिज करना और भी मुश्किल है.

सांप्रदायिक हिंसा की जांच आयोग का आदेश, जैसे कि 1984 के लिए मिश्रा आयोग या 2002 के लिए नानावटी-शाह आयोग, सुप्रीम कोर्ट द्वारा एसआईटी को सौंपे गए काम से बहुत अलग है, जिसे विशिष्ट आरोपों पर गौर करना था. लेकिन जुटाए गए सबूतों और निकाले गए नतीजों के बीच का अंतर इन सभी में साफ है.

1984 की घटनाओं को लगभग चार दशक और 2002 की हिंसा को दो दशक हो चुके हैं. दोनों ही मामलों में प्रशासन की पूरी जिम्मेदारी वाले व्यक्ति ने या तो प्रधानमंत्री के रूप में कार्यभार संभाला, जैसा कि राजीव गांधी के मामले में था, या वह आगे चलकर प्रधानमंत्री बना, जैसा मोदी के साथ के है. दोनों ने हत्याओं को “क्रिया की प्रतिक्रिया” बोल कर सार्वजनिक बयान दिए, और अल्पसंख्यक के बारे में भड़काउ टिप्पणियां करने के बाद चुनाव अभियान से दोनों को फायदा हुआ. यहां तक कि अगर हम राजनीतिक दोष के सवाल को अलग रखते हैं, तो यह कैसे संभव है कि हिंसा से निपटने में विफल होने के लिए किसी वरिष्ठ पुलिस अधिकारी पर कार्रवाई नहीं की गई?

शायद अब हम जो देख रहे हैं वह न्याय न मिल पाने का विकसित रूप है. यह एक विडंबना है कि नरसंहार के वक्त गुजरात पुलिस के महानिदेशक और अहमदाबाद के पुलिस आयुक्त ने एक ऐसी पुलिस का नेतृत्व करने के लिए एक भी दिन जेल में नहीं काटा जिसने मुस्लिमों को चुन-चुन कर लक्षित किया, जबकि जिस व्यक्ति ने इस विफलता को उजागर करने के लिए भारी व्यक्तिगत जोखिम उठाया वह अब जेल में है. 1984 के अनुभव ने हमारी न्याय प्रणाली को बेहतर नहीं बनाया है बल्कि इसने इसे और खराब कर दिया है. 1984 के मामले में राज्य और न्याय प्रणाली सरकार के आचरण के बारे में उठाए गए सवालों के संतोषजनक जवाब देने में असमर्थ थी, जबकि 2002 के संबंध में क्या हम मान लें कि हम उस बिंदु पर पहुंच गए हैं जहां सवाल उठाने की प्रक्रिया को भी अपराध घोषित कर दिया जा रहा है?

(कारवां अंग्रेजी के सितंबर 2022 अंक में प्रकाशित इस कवर स्टोरी को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)