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17 मार्च को केंद्र सरकार ने नागरिकता संशोधन कानून (2019) को चुनौती देने वाली लगभग 144 याचिकाओं के जवाब में सुप्रीम कोर्ट में जवाबी हलफनामा दायर किया. इस कानून ने 31 दिसंबर 2014 से पहले पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से भारत आने वाले हिंदू, सिख, बौद्ध,जैन, पारसी और ईसाइयों के लिए भारतीय नागरिकता हासिल करना आसान कर दिया है. चूंकि सरकार राष्ट्रीय नागरिकता पंजिका तैयार करने की योजना बना रही है इसलिए याचिकाकर्ताओं का विचार है कि इस कानून से इन छह समुदायों को नागरिकता साबित करने वाले दस्तावेज न होने की स्थिति में सहायता मिलेगी. इस कानून में मुसलमानों को उपरोक्त लाभ से बाहर रखा गया है और इसलिए एनआरसी इस समुदाय के सदस्यों की नागरिकता के लिए संभावित खतरा है.
सरकार ने अपने जवाबी हलफनामे में सीएए को "धर्मनिरपेक्षता, समानता और बंधुत्व के भारतीय आदर्शों को स्थापित करने वाला" बताया है. सरकार ने एनआरसी की तैयारी को एक ऐसा “आवश्यक अभ्यास” बताया है जिसकी “जिम्मेदारी” विदेशी नागरिक अधिनियम, पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) अधिनियम (1920) और नागरिकता अधिनियम 1955 "संयुक्त रूप से” उस पर डालते हैं.
जवाबी हलफनामे में किया गया एनआरसी का बचाव, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दिसंबर 2019 के उस दावे के विपरीत है जिसमें उन्होंने कहा था कि उनकी सरकार ने अखिल भारतीय एनआरसी पर सोचा तक नहीं है.
इस हलफनामे पर मीडिया का ध्यान कम गया क्योंकि उसी दिन सरकार ने कोविड-19 संक्रमण के चलते यूरोपीय संघ, ब्रिटेन और टर्की के यात्रियों पर रोक लगाने संबंधी यात्रा परामर्श जारी किया था. उस दिन लगभग सभी टेलीविजन चैनलों ने यात्रा परामर्श पर प्राइम टाइम चर्चा की.
सीएए और एनआरसी का सरकार का बचाव बहुत कपटी है. सरकार ने इन तीन देशों के छह समुदायों को चुनने के बारे में घुमावदार और असंगत तर्क दिए हैं. याचिकाओं में उठाए गए विभिन्न बिंदुओं का जवाब देते हुए सरकार ने ऐतिहासिक आंकड़ों को मनमुताबिक पेश किया. जवाबी हलफनामा विरोधाभासी बयानों और मौजूदा कानूनों के अपरिमेयकरण से भरा हुआ है. यह आलोचकों के उन आरोपों का कोई जवाब नहीं देता है जिसमें माना जाता है कि सीएए और एनआरसी का संयोजन भारतीय मुसलमानों की नागरिकता पर हमला है.
सरकार ने अपने हलफनामे में याचिकाकर्ताओं के शिकायतों को 12 श्रेणियों में वर्गीकृत कर जवाब दिया. इनमें से सबसे महत्वपूर्ण शिकायत है कि सीएए और प्रस्तावित एनआरसी से संविधान के अनुच्छेद 5-11 (नागरिकता देने और खारिज करने से संबंधित), अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता की गारंटी), अनुच्छेद 15 (भेदभाव न होने देने संबंधी), अनुच्छेद 19 ( अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता), अनुच्छेद 21 (जीवन के अधिकार की गारंटी) और अनुच्छेद 25-28 (धर्मनिरपेक्षता संबंधी) का उल्लंघन होता है.
सीएए के अलावा याचिकाकर्ताओं ने उन कानूनों को भी चुनौती दी है जिनके हवाले से सरकार एनआरसी लागू कर सकती है. उन्होंने नागरिकता अधिनियम 1955 की धारा 14ए को चुनौती दी है. इस धारा को 2003 में तत्कालीन बीजेपी सरकार ने उक्त कानून में जोड़ा था. धारा 14ए भारत के प्रत्येक नागरिक के पंजीकरण और उन्हें पहचान पत्र जारी करने से संबंधित है. धारा 14ए का एक प्रावधान कार्यपालिका को इस अभ्यास के लिए नियमों को लागू करने का अधिकार देता है. याचिकाकर्ताओं ने आरोप लगाया है कि प्रावधान कार्यपालिका को "अत्यधिक" शक्ति देता है. याचिकाकर्ताओं ने विदेशी नागरिक अधिनियम (1946) की धारा 9 को चुनौती दी है जो विदेशियों की पहचान, निरोध और निर्वासन से निपटने के लिए आजादी मिलने से पहले का कानून है. यह प्रावधान विदेशी होने का आरोप लगने पर नागरिकता साबित करने का बोझ आरोपित व्यक्ति पर डालता है. सरकार ने अपने हलफनामे में दोनों प्रावधानों का बचाव किया है.
सरकार की ओर से गृह मंत्रालय के निदेशक बीसी जोशी ने अदालत में हलफनामा दायर किया. दायर हलफनामे में नागरिकता कानूनों के इतिहास को सूचीबद्ध किया गया है. उसमें ऐसी घटनाओं का जिक्र है जिन्होंने पलायन के लिए लोगों को मजबूर किया, जैसे बांग्लादेश का अस्तित्व में आना और आजादी के बाद तैयार की गई पश्चिम और पूर्वी पाकिस्तान से होने वाले आव्रजन पर संसदीय रिपोर्ट. सरकार ने तर्क दिया है कि सीएए के तहत नागरिकता के लिए पात्र छह समुदायों के "धार्मिक उत्पीड़न" की सरकार या संसद ने कई दशकों से दस्तावेजीकरण और चर्चा की है.
सरकार द्वारा प्रस्तुत किए गए किसी भी साक्ष्य में सीएए में शामिल छह समुदायों का उल्लेख नहीं है. जब भी बात नागरिकता देने की आई, तो सरकारों ने "अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न" जैसे व्यापक शब्दों का इस्तेमाल किया था. 1980 के दशक में गृह मंत्रालय ने पाकिस्तान और बांग्लादेश के हिंदुओं और सिखों को लंबी अवधि के वीजा का लाभ देते हुए तरजीही छूट प्रदान करने के लिए दिशानिर्देश पारित किए थे. समय-समय पर सरकार द्वारा इसी तरह के दिशानिर्देश जारी किए गए हैं. 2011 में मंत्रालय ने छूट देने वाली इस सूची में दोनों देशों के बौद्धों और ईसाइयों को भी शामिल कर लिया. लेकिन इनमें से अधिकांश को गृह मंत्रालय के "निर्देश" के रूप में वर्णित किया गया है और इनका वैधानिक महत्व कम है. सरकार ने यह साबित करने के लिए कोई सबूत पेश नहीं किया कि क्या कभी किसी विधायी निर्णय में विशिष्ट धर्मों को मापदंड के रूप में उद्धृत किया गया है.
सरकार ने सीएए में लागू किए गए समान तर्कों का पालन करते हुए कुछ अन्य फैसलों का भी खुलासा किया. दिसंबर 2019 में सीएए पारित होने से पहले सरकार ने पहले से ही तीन देशों के छह समुदायों के लोगों के रहने से संबंधित विधायी नियमों में संशोधन कर दिया था जिसमें विदेशी अधिनियम 1946 के इन समुदायों के लोगों पर बिना वैध दस्तावेजों के लागू होने की बात शामिल थी. सितंबर 2015 में नरेन्द्र मोदी सरकार ने दो कार्यकारी आदेशों के माध्यम से पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) नियम, 1950 और विदेशियों विषयक आदेश, 1948 में संशोधन किया. पहले नियम में किया गया संशोधन देश में छह समुदायों को बिना किसी वैध दस्तावेज के रहने की अनुमति देता है, जो अब तक एक गैरकानूनी कार्य था. विदेशियों विषयक आदेश 1948 उन्हें विदेशियों के अधिनियम से छूट देता है, जो अन्यथा दस्तावेजों के बिना विदेशियों के रूप में पहचाने जाने वालों को हिरासत में रखने का आदेश देता है. दोनों नियमों ने केवल पाकिस्तान और बांग्लादेश से अवैध आव्रजकों को अनुमति दी थी. जुलाई 2016 में सरकार ने फिर से दोनों नियमों में संशोधन किया और ''बांग्लादेश'' को "अफगानिस्तान और बांग्लादेश" के साथ प्रतिस्थापित किया. अक्टूबर 2018 में एक अन्य कार्यकारी आदेश के माध्यम से सरकार ने तीन देशों के छह समुदायों को अनिश्चित काल तक भारत में रहने की अनुमति दी.
सरकार ने अपने जवाबी हलफनामे में तर्क दिया कि सीएए “खास तरह की समस्या” को संबोधित करने के लिए तैयार किया गया कानून है. इसमें दावा किया गया कि सीएए ने सरकार द्वारा पहले लाए गए कार्यकारी संशोधनों को विधायी दर्जा दिया है. यहां सरकार यह मान रही है कि पहले जो आदेश पारित किए गए थे वे भी संविधान और कानून का अनुपालन करते थे.
नागरिकता अधिनियम, 1955 और उसके बाद के संशोधनों के तहत, किसी व्यक्ति को भारतीय नागरिकता प्रदान करने के लिए मोटे तौर पर तीन मानदंड हैं- किसी व्यक्ति का जन्म, वंश और निवास काल. किसी व्यक्ति का धर्म या "धर्म के आधार पर उत्पीड़न" कभी भी किसी कानून के तहत नागरिकता प्रदान करने का मापदंड नहीं रहा है.
अनुच्छेद 14 कानून के समक्ष समानता की गारंटी देते हुए विशिष्ट लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए लोगों के वर्गीकरण की अनुमति देता है. कोई वर्गीकरण मनमाने आधार पर न हो इसके लिए, इसे "समझदारीपूर्ण भिन्नता" पर आधारित होना चाहिए, जिसका अर्थ है समूहों का एक उचित वर्गीकरण. उदाहरण के लिए,सीएए के मामले में, जो अधिनियम के लाभों के हकदार हैं और जो नहीं हैं. इस वर्गीकरण का कानून के उद्देश्य के साथ एक "तर्कसंगत संबंध" भी होना चाहिए,जिसका अर्थ है कि वर्गीकरण अधिनियम के तहत होना चाहिए और आगे चलकर उस विशिष्ट लक्ष्य को प्राप्त करने वाला होना चाहिए.
सरकार ने तर्क दिया कि छह समुदायों का वर्गीकरण उचित है क्योंकि तीनों देशों के ये छह समुदाय अपने धर्म को मानने के चलते उत्पीड़न का सामना करते हैं और ये सभी वहां संख्यात्मक रूप से अल्पसंख्यक हैं. समुदायों के धार्मिक उत्पीड़न के सबूत के रूप में सरकार ने अपनी प्रेस विज्ञप्ति, पाकिस्तान के उच्चायोग को भेजे गए राजनयिक पत्र, संसद के सदस्यों से प्राप्त शिकायतें और पिछले कुछ दशकों में पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में अल्पसंख्यकों के हो रहे उत्पीड़न के संबंध में संसद के दोनों सदनों में पूछे गए सवाल और जवाब प्रस्तुत किए हैं. गौरतलब है कि संसद में पूछे गए अधिकांश ऐसे प्रश्न खुद बीजेपी सांसदों ने पूछे थे. उत्पीड़न के बारे में गृह मंत्रालय या विदेश मंत्रालय को दी गई अधिकांश शिकायतें भी बीजेपी सांसदों की हैं. हलफनामे में सरकार ने उत्पीड़न के बारे में गैर सरकारी संगठनों से प्राप्त शिकायतों की एक सूची प्रदान की, जिसमें से एक सनातन संस्था के एक कट्टरपंथी संगठन, हिंदू जनजागृति समिति की शिकायत भी है. इस संगठन के सदस्यों पर मुस्लिम धर्मस्थलों और मस्जिदों पर बम धमाके के मामलों में आरोपपत्र दर्ज हैं.
सरकार ने यह भी कहा है कि छह समुदायों का वर्गीकरण धार्मिक उत्पीड़न पर आधारित है और ऐसा नहीं है कि ऐसा वर्गीकरण पहले कभी नहीं हुआ. सरकार का यह दावा गलत है. सरकार ने कहा है, "संविधान का अनुच्छेद 6 पाकिस्तान से भारत आए उन सभी प्रवासियों को भारत के नागरिक के रूप में देखता है जब व्यक्ति या उसके माता-पिता या उसके दादा-दादी अविभाजित भारत में पैदा हुए थे या ऐसे व्यक्ति जो 19 जुलाई 1948 से पहले भारत चले आए थे. अगर इस तरह के व्यक्ति इस तिथि के बाद प्रवासित हुए और एक सक्षम अधिकारी के समक्ष पंजीकृत हो गए और पंजीकरण से कम से कम छह महीने पहले भारत में निवास किया था तो ऐसे व्यक्तियों को भी भारतीय नागरिक माना जाता है."
सीएए के लिए एक संभावित मिसाल के रूप में अनुच्छेद 6 का हवाला देना स्पष्ट रूप से एक छलपूर्ण युक्ति है जो यह मानती है कि किसी भी व्यक्ति को नागरिकता प्रदान करने के लिए किसी विशेष धर्म से होने की आवश्यकता नहीं है. लेकिन सरकार गलत तरीके से हलफनामे में जोर देती है कि अनुच्छेद 6 के लिए धर्म का महत्व है. जवाबी हलफनामें में सरकार कहती है, "यह स्पष्ट है कि अनुच्छेद 6 ने अपनी विशेष परिस्थितियों के कारण विभाजन के बाद (जो स्पष्ट रूप से धार्मिक आधारों पर हुआ और जिसके परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर पलायन भी धार्मिक आधार पर हुआ) प्रवासियों के विशेष वर्ग को भारत के नागरिक के रूप में मानता है." अनुच्छेद 6 नेहरू-लियाकत पैक्ट को सुगम बनाता है, जिसने भारत और पाकिस्तान के विस्थापित शरणार्थियों को उनके मूल स्थानों पर लौटने की अनुमति दी थी. असम सरकार के गृह विभाग की एक आधिकारिक रिपोर्ट में कहा गया है कि इस समझौते से पूर्वी पाकिस्तान से लगभग 161000 "विस्थापित लोगों" की भारत में वापसी हुई. अनुच्छेद 6 में या आधिकारिक रिपोर्ट में किसी विशिष्ट धर्म का उल्लेख नहीं है. फिर भी सरकार संविधान के प्रावधान को एक ऐसे रूप में प्रस्तुत करती है जिसमें प्रवासियों को उनके धर्म के आधार पर वर्गीकृत किया गया था.
सरकार ने कानून बनाने से पहले नागरिकता संशोधन विधेयक पर विचार विमर्श करने के लिए 2016 में गठित एक संयुक्त संसदीय समिति की जोधपुर में शरणार्थी कॉलोनियों की अपनी यात्रा के निष्कर्षों का हवाला दिया. सरकार के हलफनामे में कहा गया है कि शरणार्थियों ने समिति के सदस्यों को बताया कि पाकिस्तान में हिंदुओं को धर्म के आधार पर सताया जाता है. निष्कर्ष निवासियों की मौखिक प्रस्तुति पर आधारित थे. भारत में कहीं भी अफगानी शरणार्थियों के साथ सरकारी अधिकारियों या सांसदों की किसी भी बातचीत का हलफनामे में उल्लेख नहीं है.
याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि छह समुदायों को एक ही समूह में मनमाने ढंग से रखा गया है क्योंकि इसने तीन देशों के कई अन्य समुदायों को छोड़ दिया है जिन्हें उनकी मान्यताओं के लिए सताया जाता है, जैसे अहमदिया, शिया, बहाई, हजारा, यहूदी, नास्तिक और बलूच समुदाय. याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया है कि अगर सीएए के तहत लाभांवित होने वाले छह समुदायों के वर्गीकरण का तर्कसंगत संबंध उनके उत्पीड़न पर आधारित है, तो इन समुदायों को भी कानून के दायरे में शामिल किया जाना चाहिए.
हालांकि सरकार ने अपने जवाब में इस विवाद को "गलत" बताया है. इसके बजाय सरकार ने जवाब में कहा कि तीन देशों के इन समुदायों को शामिल करने से स्पष्ट भेद मिट जाएगा. सरकार ने कहा कि वह उन समुदायों के उत्पीड़न को "अंतर-धार्मिक" मानती है जबकि इसे केवल "धर्मों के बीच" उत्पीड़न के रूप में पहचाना जाना चाहिए जो अलग और विशिष्ट है. सरकार ऐसा क्यों मानती है कि पाकिस्तान में बहाइयों का उत्पीड़न एक "अंतर-धार्मिक" मामला है? यह सरकार खुद ही बेहतर समझा सकती है.
संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) के कई सदस्यों ने सरकार को उत्पीड़ित समुदायों को उनके धर्म के आधार पर वर्गीकृत करने से उलट सलाह दी थी. उन्होंने सरकार को चेतावनी दी थी कि सुप्रीम कोर्ट के पिछले सभी निर्णय ऐसे वर्गीकरण का समर्थन नहीं करते. समिति की इस धारणा को सरकार ने हलफनामे में रखा है.
जेपीसी के संविधान विशेषज्ञ सदस्य ने सरकार को सलाह दी थी कि वह धर्मों का नाम न ले और इसके बजाय "उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों" शब्द का उपयोग करे. जेपीसी रिपोर्ट में संविधान विशेषज्ञ के हवाले से कहा गया है कि “अव्वल तो अल्पसंख्यक शब्द को संविधान में परिभाषित नहीं किया गया है. मैं दर्ज करना चाहूंगा कि अल्पसंख्यक का मतलब केवल धार्मिक अल्पसंख्यक नहीं है. अन्य आधार पर भी अल्पसंख्यक हो सकता है. अगर आप कहते हैं कि सताए गए अल्पसंख्यक हैं, तो इसमें वे सभी लोग आ जाएंगे जो आपकी नजर में हैं." विशेषज्ञ ने सरकार से आगे कहा, "... अगर आप अधिक सुरक्षित रहना चाहते हैं, तो हमें हिंदुओं, सिखों, पारसियों आदि जैसे धर्मों के संदर्भ को छोड़ना होगा. मैं फिर से कहता करता हूं कि अगर हम सताए हुए अल्पसंख्यकों का उपयोग करते हैं तो भी उद्देश्य पूरा हो जाएगा. समुदायों की तुलना में, अल्पसंख्यक शायद कानूनी और संवैधानिक दृष्टिकोण से अधिक उपयोगी होगा.”
सरकार ने इन छह समुदायों के पुनर्वास के उद्देश्य से केवल तीन देशों को चुनने का एक विचित्र तर्क दिया है. हलफनामे में कहा गया है कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश को इसलिए चुना गया है क्योंकि इन सभी का एक "राज्य धर्म" है. हालांकि, यह नहीं बताया गया है कि छह समुदायों के उत्पीड़न को बढ़ाने या कम करने में राज्य धर्म किस प्रकार सहायक है. एक और बेतुका स्पष्टीकरण यह है कि इन सभी देशों में पिछले कुछ दशकों में हिंसक संघर्ष हुए हैं. सरकार ने जवाब में कहा कि अफगानिस्तान पर आक्रमण किया गया और वह गृहयुद्ध में चला गया और पाकिस्तान ने कई सैन्य तख्तापलट देखे. पूर्वी पाकिस्तान ने बांग्लादेश बनने से पहले गृहयुद्ध भी झेला. सरकार ने यह नहीं बताया कि इन राजनीतिक घटनाओं ने छह समुदायों के उत्पीड़न पर कैसे असर किया.
इस तर्क के लिए कि तिब्बत के बौद्ध, श्रीलंका के तमिल हिंदू और म्यांमार के रोहिंग्याओं को भी उत्पीड़न का सामना करना पड़ा, लेकिन उन्हें सीएए के तहत शामिल नहीं किया गया है, सरकार ने कहा कि तमिल हिंदुओं और रोहिंग्याओं के मुद्दे को एक "अलग" तंत्र के तहत उठाया जा रहा है. सरकार ने यह स्पष्ट नहीं किया कि वह अलग तंत्र क्या है और उसे सीएए के तहत क्यों नहीं शामिल किया जा सकता है. अंत में, सरकार ने कहा कि इन देशों को शामिल करना एक "विदेश नीति" का मुद्दा है और इसे विधायी निकाय पर छोड़ दिया जाना चाहिए. सरकार ने जवाब दिया कि "समावेशीता के तहत" या "समावेशिता से बाहर" कानून को चुनौती देने के लिए कोई आधार नहीं हो सकता है.
अधिनियम की कथित गैर-धर्मनिरपेक्ष प्रकृति का बचाव करने के लिए सरकार ने अजीब तर्क दिया है. उसने कहा है, "यह दावा कि सीएए किसी विशेष समुदाय के खिलाफ है, गलत, निराधार और इरादतन हानिकारक है. यह पेश किया जाता है कि सीएए चीन और तिब्बत के बौद्धों और श्रीलंका के तमिल हिंदुओं को किसी भी प्रकार का अपवाद/छूट नहीं देता है." दूसरे शब्दों में, इस अधिनियम का बचाव करने के लिए, सरकार तर्क दे रही है कि न केवल मुस्लिम संप्रदाय बल्कि कुछ देशों के हिंदू भी सीएए से बाहर रखे गए हैं. यह जवाब सरकार के उसी दावे का खंडन है जिसमें उसने कहा था कि श्रीलंका के तमिल हिंदुओं और तिब्बती बौद्धों की मदद "अलग" तंत्र से की जा रही है और उनका समावेश या बहिष्करण "विदेश नीति" पर निर्भर करता है. यह भी एक झूठी तुलना है क्योंकि छह समुदायों के मामले में, दक्षिण एशिया में किसी भी मुस्लिम समुदाय को सीएए में जगह नहीं मिली है. इस प्रकार सरकार ने इस डर का निराकरण करने के लिए कुछ भी नहीं किया कि तीन देशों और छह समुदायों की उसकी पसंद मुसलमानों को सीएए से बाहर रखने के लिए डिजाइन की गई है. इसका मतलब यह होगा कि एनआरसी के लागू होने की स्थिति में समुदाय के लिए कोई गुंजाइश नहीं बचेगी.
पूरा हलफनामा विरोधाभासों से भरा है. एक बिंदु पर सरकार ने तर्क दिया है, "यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सीएए ने किसी भी तरह से, किसी व्यक्ति की नागरिकता का निर्धारण करने के लिए धर्म को आधार नहीं बनाया है." फिर एक पैराग्राफ बाद सरकार कहती है, "केवल इसलिए कि धर्म किसी भी वर्गीकरण का प्रारंभिक बिंदु है (वर्गीकरण का एकमात्र आधार नहीं) इस तरह का वर्गीकरण धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों के खिलाफ नहीं होगा."
अनुच्छेद 15 और 19 के कथित उल्लंघन का बचाव करते हुए, सरकार ने एक तकनीकी तर्क पेश किया. इसने प्रस्तुत किया कि याचिकाकर्ता "अवैध प्रवासियों की ओर से" समानता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए इन अधिकारों का दावा नहीं कर सकते क्योंकि ये अधिकार केवल भारतीय नागरिकों के लिए है. सरकार ने अपने जवाब में कहा कि सीएए ने अनुच्छेद 5, 6, 7, 8, 9 और 10 का उल्लंघन नहीं किया है, जो जन्म, वंश, निवास, प्राकृतिककरण के आधार पर नागरिकता प्रदान करने से संबंधित हैं, क्योंकि अनुच्छेद 11 संसद को किसी भी समुदाय के एक नए वर्ग को नागरिकता प्रदान करने के लिए नया कानून बनाने की अधिभावी शक्ति देती है. सरकार ने अपने बचाव में अनुच्छेद 11 को उद्धृत किया जो कहता है, "इस भाग का कोई भी प्रावधान नागरिकता के अधिग्रहण और समाप्ति और नागरिकता से संबंधित अन्य सभी मामलों के संबंध में प्रावधान बनाने की संसद की शक्ति को कम नहीं कर सकता.”
सरकार ने जवाब में कहा है कि नागरिकों के जीवन के अधिकार का "प्रस्तावित एनआरसी" द्वारा उल्लंघन नहीं होता क्योंकि रजिस्टर की तैयारी धारा 14 ए के तहत 2004 से नागरिकता अधिनियम, 1955 का हिस्सा है. यह राष्ट्रीय नागरिकता पंजिका तैयार करने और भारतीय नागरिकों को पहचान पत्र जारी करने का प्रावधान करता है. गृह मंत्रालय के निदेशक ने कहा, "मैं दावा करता हूं और बताता हूं कि राष्ट्रीय नागरिकता पंजिका के बारे में यानी 1955 के कानून की धारा 14 ए दिसंबर, 2004 1955 अधिनियम का हिस्सा है. जवाब में कहा गया है कि प्रावधानों में केवल राष्ट्रीय नागरिकता पंजिका की तैयारी से संबंधित प्रक्रिया और प्राधिकार शामिल हैं. यह कहा गया है कि राष्ट्रीय नागरिकता पंजिका की तैयारी नागरिकों के बीच गैर-नागरिकों की पहचान के लिए किसी भी संप्रभु देश द्वारा की जाने वाली एक आवश्यक गतिविधि है."
सरकार के अनुसार, सीएए तीन देशों के उन छह समुदायों पर लागू होगा, जिन्होंने 31 दिसंबर 2014 से पहले भारत में प्रवेश किया था यानी जिस साल मोदी ने पहली बार सरकार बनाई थी. याचिकाओं ने इस तिथि को मनमाना बताया है. अपने बचाव में सरकार ने कहा है, "देश के पास नागरिकता के लिए एक असीमित प्रावधान नहीं है और न कभी था." सरकार ने यह नहीं बताया कि उसने यह तारीख कैसे चुनी. हालांकि नागरिकता का प्रावधान कभी भी असीमित नहीं था, सभी कट-ऑफ तिथियों का निर्धारण, जैसे कि भारत के लिए 19 जुलाई 1948 और असम के लिए 24 मार्च 1971 राजनीतिक घटनाओं के आधार पर बनाई गई हैं. ये दोनों तिथियां क्रमशः भारत की स्वतंत्रता और बांग्लादेश के निर्माण की घटना से जुड़ी हैं.
विदेशी नागरिक अधिनियम की धारा 9 के बचाव में सरकार ने जवाब दिया कि इसे सर्वोच्च न्यायालय ने 2006 में सर्बानंद सोनोवाल बनाम भारत संघ मामले में बरकरार रखा है. यह प्रावधान विदेशी होने के आरोपितों पर नागरिकता साबित करने का भार डालता है. सरकार ने कहा है, “माननीय न्यायालय ने यह भी देखा कि किसी आपराधिक मामले का सामान्य नियम यह होता है कि सबूत का बोझ अभियोजन पक्ष पर होता है लेकिन यदि कोई तथ्य विशेष रूप से अभियुक्त के संज्ञान के भीतर है, तो उसे उक्त तथ्य को साबित करने के लिए सबूत प्रस्तुत करना होगा.” निर्णय हालांकि इस तथ्य पर विचार नहीं करता है कि ऐसे मामलों में आरोपियों के पास उपलब्ध सबूत- पहचान दस्तावेज- जारी करने और इन दस्तावेजों को प्रमाणित करने वाले राजकीय प्राधिकरणों या केंद्रीय प्राधिकरणों द्वारा खारिज कर दिए जाते हैं. गुवाहाटी में एनआरसी अपडेशन एक्सरसाइज पर रिपोर्टिंग करते समय मैंने पाया था कि प्रमाण के बोझ का प्रावधान किसी प्रकार व्यक्ति को नुकसान पहुंचाता है क्योंकि पुलिस और न्यायिक निकाय छोटी-सी गलती पर भी व्यक्ति के दस्तावेजों को स्वीकार करने से इनकार कर सकते हैं.
सीएए का एक प्रावधान सरकार को भारतीय मूल के विदेशी नागरिकों की नागरिकता रद्द करने की शक्ति देता है. सरकार ने अपने बचाव में कहा कि ओसीआई कार्डधारक भारतीय नागरिक नहीं हैं और उन्हें केवल लंबे समय तक रहने के लिए वीजा दिया जाता है. सरकार ने तर्क दिया है कि अगर किसी भी ओसीआई कार्डधारक ने सीएए के किसी कानून या प्रावधान का उल्लंघन किया तो सरकार के पास इस सुविधा को वापस लेने की शक्ति होनी चाहिए. सरकार ने इसे कानून बनाने की अपनी शक्ति के भीतर बताया है.
जवाबी हलफनामा एनआरसी पर पिछले छह महीनों में प्रधानमंत्री और गृहमंत्री अमित शाह द्वारा दिए गए परस्पर विरोधी बयानों के बाद दायर किया गया है. हालांकि मोदी ने दावा किया था कि एनआरसी पर उनकी सरकार ने कोई चर्चा नहीं की है फिर भी शाह ने कई बार इसकी चर्चा की और एक बार राज्य सभा में कहा भी है कि एनआरसी अपरिहार्य है. हलफनामे ने अब साबित कर दिया है कि सरकार की आधिकारिक स्थिति शाह के बयानों के अनुरूप है.
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