17 मार्च को केंद्र सरकार ने नागरिकता संशोधन कानून (2019) को चुनौती देने वाली लगभग 144 याचिकाओं के जवाब में सुप्रीम कोर्ट में जवाबी हलफनामा दायर किया. इस कानून ने 31 दिसंबर 2014 से पहले पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से भारत आने वाले हिंदू, सिख, बौद्ध,जैन, पारसी और ईसाइयों के लिए भारतीय नागरिकता हासिल करना आसान कर दिया है. चूंकि सरकार राष्ट्रीय नागरिकता पंजिका तैयार करने की योजना बना रही है इसलिए याचिकाकर्ताओं का विचार है कि इस कानून से इन छह समुदायों को नागरिकता साबित करने वाले दस्तावेज न होने की स्थिति में सहायता मिलेगी. इस कानून में मुसलमानों को उपरोक्त लाभ से बाहर रखा गया है और इसलिए एनआरसी इस समुदाय के सदस्यों की नागरिकता के लिए संभावित खतरा है.
सरकार ने अपने जवाबी हलफनामे में सीएए को "धर्मनिरपेक्षता, समानता और बंधुत्व के भारतीय आदर्शों को स्थापित करने वाला" बताया है. सरकार ने एनआरसी की तैयारी को एक ऐसा “आवश्यक अभ्यास” बताया है जिसकी “जिम्मेदारी” विदेशी नागरिक अधिनियम, पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) अधिनियम (1920) और नागरिकता अधिनियम 1955 "संयुक्त रूप से” उस पर डालते हैं.
जवाबी हलफनामे में किया गया एनआरसी का बचाव, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दिसंबर 2019 के उस दावे के विपरीत है जिसमें उन्होंने कहा था कि उनकी सरकार ने अखिल भारतीय एनआरसी पर सोचा तक नहीं है.
इस हलफनामे पर मीडिया का ध्यान कम गया क्योंकि उसी दिन सरकार ने कोविड-19 संक्रमण के चलते यूरोपीय संघ, ब्रिटेन और टर्की के यात्रियों पर रोक लगाने संबंधी यात्रा परामर्श जारी किया था. उस दिन लगभग सभी टेलीविजन चैनलों ने यात्रा परामर्श पर प्राइम टाइम चर्चा की.
सीएए और एनआरसी का सरकार का बचाव बहुत कपटी है. सरकार ने इन तीन देशों के छह समुदायों को चुनने के बारे में घुमावदार और असंगत तर्क दिए हैं. याचिकाओं में उठाए गए विभिन्न बिंदुओं का जवाब देते हुए सरकार ने ऐतिहासिक आंकड़ों को मनमुताबिक पेश किया. जवाबी हलफनामा विरोधाभासी बयानों और मौजूदा कानूनों के अपरिमेयकरण से भरा हुआ है. यह आलोचकों के उन आरोपों का कोई जवाब नहीं देता है जिसमें माना जाता है कि सीएए और एनआरसी का संयोजन भारतीय मुसलमानों की नागरिकता पर हमला है.
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