औपनिवेशिक कानून की तरह है यूएपीए संशोधन

केविन इलंगो/कारवां

8 जुलाई को लोकसभा में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने गैर कानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम में संशोधन बिल पेश किया. संशोधित कानून में किए गए सबसे महत्वपूर्ण बदलाव के तहत केंद्र सरकार को किसी व्यक्ति विशेष को आतंकवादी घोषित करने का अधिकार मिला गया है.

संसदीय समिति की समीक्षा के बिना इस कानून को जल्दबाजी में पारित कर 14 अगस्त से लागू कर दिया गया. शाह ने संसद को बताया कि संशोधित कानून से मिलते-जुलते कानून अन्य कई देशों में लागू हैं. लेकिन उनका यह दावा इस संशोधन से जुड़ी चिंताओं का जवाब नहीं है. संशोधित कानून पर नजर डालने से यह साफ हो जाता है कि नया कानून केंद्र सरकार को किसी भी व्यक्ति को आतंकवादी घोषित करने की बेलगाम ताकत देता है.

इस संशोधन की तीन मुख्य विशेषताएं हैं जिससे यह साफ होता है कि संशोधन पारित करते वक्त सरकार ने राज्य और नागरिक के संबंधों पर पड़ने वाले संवैधानिक असर की उपेक्षा की है. पारित संशोधन में स्पष्ट नहीं है कि सरकार का कौन सा प्राधिकरण यह तय करेगा कि आतंकवादी कौन है और इसका आधार क्या होगा? कानून द्वारा आतंकवादी घोषित किए गए व्यक्ति को इस बात की जानकारी कैसे दी जाएगी? इसके अलावा यह कानून किसी व्यक्ति को आतंकवादी घोषित करने के परिणामों पर भी मौन है. सरकार ने किए गए संशोधनों का संतोषजनक जवाब नहीं दिया है बल्कि उसने राष्ट्रीय सुरक्षा के महत्व को संशोधन का जरूरी आधार बताया है. ऐसा लगता है कि भविष्य में भारतीयों को एक लोकतंत्र के नागरिक की जगह एक पुलिसिया राज्य की प्रजा की तरह देखा जाएगा.

पहली बात तो यह कि संशोधित कानून केंद्र सरकार के उस अधिकार के प्रति स्पष्ट नहीं है जिसका प्रयोग व्यक्ति को आतंकवादी घोषित करने या उसके ऊपर लगे इस दाग को हटाने के लिए किया जाएगा. यह स्पष्ट नहीं है कि सरकार में बैठे वे कौन लोग होंगे जो किसी व्यक्ति को आतंकवादी घोषित करेंगे? यह तय करने वाले गृहमंत्री होंगे या गृह सचिव? या इसके लिए एक समिति होगी? हमें नहीं पता कि इस प्रक्रिया में कितने लोग शामिल होंगे. क्या राष्ट्रीय जांच एजेंसी या राज्य की पुलिस किसी को आतंकवादी घोषित करने के लिए उससे जुड़े मामले की जांच कर केंद्र सरकार से अनुमोदन करने को कहेंगी? क्या सरकार समय-समय पर आतंकवादी घोषित किए गए मामलों की समीक्षा करेगी?

यह भी नहीं पता है कि किसी व्यक्ति को आतंकवादी घोषित करने के मानक क्या होंगे? संशोधन कहता है कि सरकार उस स्थिति में यह तय कर सकती है जब उसे व्यक्ति के “आतंकवादी होने का विश्वास” हो. कानून में सरकार के इस विश्वास के आधारों पर कोई दिशानिर्देश नहीं है. क्या यह विश्वास 1994 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुरूप होगा जिसमें अदालत ने किसी संस्था या संगत को गैरकानूनी घोषित करने की प्रक्रिया बताई है.

इस तरह आतंकवादी घोषित करने की प्रक्रिया को अस्पष्ट रखना, ऐसे लोगों को जवाबदेही से मुक्त कर देता है जिनके पास ताकत है, इससे राज्य और जनता के बीच का संबंध असंतुलित होने लगता है. निश्चित तौर पर केंद्र सरकार इन सारे सवालों का जवाब बाद में जारी होने वाले प्रशासनिक परिपत्रों और पूरक नियमों के जरिए दे सकती है लेकिन ऐसा करने से सरकार पहले से ही जटिल इस कानून को नागरिकों के लिए और अधिक जटिल बना देगी.

इस कानून से जुड़ी दूसरी चिंता यह है कि इसमें आतंकवादी घोषित करने की प्रक्रिया की जानकारी गायब है. इसमें व्यक्ति को आतंकवादी घोषित करने के लिए सार्वजनिक घोषणा का प्रावधान है. यहां इस बात की आवश्यकता नहीं है कि सरकार ऐसे व्यक्ति को पत्र भेज कर बताए कि उसे आतंकवादी घोषित करने पर विचार किया जा रहा है. नया कानून इसके लिए सरकार को राजपत्र अधिसूचना जारी करने को कहता है जबकि किसे नहीं पता कि राजपत्र को गिने चुने लोगों के अलावा कोई नहीं पढ़ता. यह प्रावधान संस्थाओं और संगठनों पर पहले से ही लागू था. लेकिन संगठनों और व्यक्तियों में बहुत अंतर है. सबसे पहले तो व्यक्तियों के पास संगठन, स्टाफ या ऐसे मामलों से निपटने के लिए पैसा नहीं होता.

लगता है कि कानून निर्माता यह मान बैठे हैं कि यह नया कानून जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकी संगठनों के मुखिया मसूद अजहर जैसे लोगों के लिए ही है. अजहर उन पहले चार लोगों में से है जिसे 4 सितंबर को जारी राजपत्र अधिसूचना में आतंकवादी घोषित किया गया है. अन्य तीन है : लश्कर-ए-तैयबा के सदस्य हाफिज सईद और जकी-उर-रहमान लखवी और अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद इब्राहिम. लेकिन ऐसा नहीं लगता कि मामला यहीं तक सीमित रहेगा. यह ऐतिहासिक तथ्य है कि यूएपीए का एक भी मामला अदालत में साबित नहीं हुआ है. एक साल से ज्यादा समय से सत्ताधारी पार्टी से अलग विचार रखने वालों को “शहरी माओवादी” और “शहरी नक्सल” ब्रांड किया जा रहा है. संशोधन कानून को संसदीय पटल पर रखते वक्त अमित शाह ने कहा भी था, “शहरी माओवादियों के लिए काम करने वाले लोगों को बख्शा नहीं जाएगा.”

कानून के पारित होने से किसी व्यक्ति को आतंकवादी कहने के लिए मीडिया के पास अब एक कानूनी आधार है और अब जरूरी नहीं कि उस पर कोई अपराध सिद्ध हुआ हो. निर्दोष साबित करने की जिम्मेदारी अब पूरी तरह से उस व्यक्ति पर होगी जिसे सरकार आतंकवादी घोषित करना चाहती है क्योंकि गजट में घोषणा करने से पहले सरकार के दावे को चुनौती देने का कोई प्रावधान कानून में नहीं है. अब केंद्र सरकार केवल मीडिया के जरिए ही नहीं बल्कि राज्य मशीनरी के जरिए भी लोगों को सता सकती है.

इस कानून को लेकर तीसरी चिंता यह है कि इसमें यह नहीं बताया गया है कि किसी व्यक्ति को आतंकवादी घोषित करने के बाद ऐसे व्यक्ति का क्या होगा? क्या यह कानून को जल्दबाजी में पारित करा लेने के चक्कर में छूट गया? या कि सरकार ने जानबूझकर ऐसा किया है ताकि आतंकवादी घोषित किए गए व्यक्ति का भाग्य जांच एजेंसियों के हवाले कर दिया जाए. यदि हिंसा की कोई घटना होती है तो क्या पुलिस सरकार द्वारा घोषित आतंकवाद पर घटना का आरोप मढ़ेगी या ऐसे संदिग्ध लोगों पर जिनका नाम पुलिस की जांच में सामने आया है. मुझे लगता है कि जांच एजेंसियां पहला विकल्प चुनेंगी.

सुरक्षा और अपराध से संबंधित हर कानून समाज के लिए बहुत जरूरी है लेकिन यह उन नागरिक स्वतंत्रताओं के दमन का औजार भी हो सकता है जिनकी रक्षा के लिए इन्हें बनाया गया है. इस अर्थ में संशोधित यूएपीए कानून चिंतित करता है. कानून से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारियों को अपारदर्शी और पहुंच से बाहर बना देने के कारण यह कानून लोकतंत्र के नागरिकों के प्रति जवाबदेह न होकर औपनिवेशिक शासन द्वारा अपनी प्रजा पर थोपा हुआ जान पड़ता है.