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दिल्ली उच्च न्यायालय में मुरलीधर और तलवंत सिंह की पीठ के सामने तुषार मेहता खड़े थे. बात 26 फरवरी की है. वह दोपहर बाद तेजी से वहां पहुंचे थे.
इससे एक दिन पहले दो याचिकाकर्ताओं ने अदालत से गुहार लगाई थी कि वह भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने के लिए दिल्ली पुलिस को आदेश दे. पिछले तीन दिनों से हिंदुओं का हुजूम उत्तर पूर्वी दिल्ली में लूटपाट मचाए हुए था और मुस्लिम बाशिंदों तथा उनके कारोबार और घरों पर हमले कर रहा था. दर्जनों मारे जा चुके थे और जिस समय अदालत की कार्यवाही चल रही थी उस समय भी ये हमले जारी थे. हिंसा की शुरुआत से पहले बीजेपी के नेताओं ने सांप्रदायिक उन्माद और नफरत से भरे भाषण दिए जिन्हें रेकॉर्ड कर के बड़े पैमाने पर प्रचारित किया गया. लेकिन बीजेपी नेताओं के दंगा भड़काने के आरोपों को लेकर पुलिस से जब शिकायत की गई तो उसने कार्रवाई करने से इनकार कर दिया.
एक दिन पहले याचिकाकर्ताओं ने अदालत की शरण में जाते ही अनुरोध किया था कि उन्हें तत्काल सुना जाए. दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पटेल छुट्टी पर थे. पटेल के बाद वरिष्ठता क्रम में दूसरे स्थान पर जो न्यायाधीश जी॰एस॰सिस्तानी थे, उनके नेतृत्व वाली पीठ ने इस मामले को जरूरी नहीं माना जबकि हिंसा जारी थी. सिस्तानी ने मुख्य न्यायाधीश पटेल की अदालत में इसकी सुनवाई के लिए 26 फरवरी की तारीख निर्धारित की.
लेकिन अगले दिन भी पटेल अदालत में नहीं आए और सिस्तानी भी अनुपस्थित रहे. याचिकाकर्ता के वकील जस्टिस मुरलीधर के पास गए जो पटेल और सिस्तानी के बाद वरिष्ठ जजों में से एक थे और उन्होंने इस मसले पर सुनवाई के लिए अपनी सहमति दे दी. कुछ ही मिनट के अंदर मुरलीधर ने दोपहर 12:30 पर सुनवाई का समय निर्धारित किया और दिल्ली पुलिस को एक नोटिस भेज दिया गया.
न्यायिक प्रतिष्ठान का यह मानना है कि महत्वपूर्ण कानून है न कि जज. लेकिन मामला चाहे किसी जिला अदालत में कार दुर्घटना का हो या सुप्रीम कोर्ट में संविधान संशोधन की न्यायिक समीक्षा का, जब भी कोई मामला सूचीबद्ध होता है, लोगों का पहला सवाल यही होता है कि 'किस जज की अदालत में है?' या 'कौन सी बेंच में मामले की सुनवाई हो रही है?'. कइयों ने इसे बहुत महत्व दिया कि मुरलीधर याचिका पर सुनवाई के लिए तैयार हो गए - और उनकी अदालत के कमरे में वकीलों तथा रिपोर्टरों की भीड़ इकट्ठा हो गई. लेकिन किसी की समझ में यह नहीं आया कि वहां सॉलीसीटर जनरल मेहता क्या कर रहे हैं.
सुनवाई शुरू हुई तो अदालत का कमरा खचाखच भरा था - लोग बाहर दरवाजे तक खड़े थे. राहुल मेहता ने, जो दिल्ली सरकार की ओर से दिल्ली पुलिस के लिए स्थायी अधिवक्ता नियुक्त किए गए थे, सबसे पहले मेहता की मौजूदगी पर ऐतराज़ प्रकट किया. उन्होंने कहा कि इस मामले में केंद्र सरकार कोई वादी नहीं है और सॉलीसीटर जनरल का, जो केंद्र सरकार के दूसरे सर्वोच्च विधि अधिकारी हैं, इस अदालत में कोई काम नहीं है. मेहता ने जवाब दिया कि दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर ने उनसे कहा है कि वह दिल्ली के पुलिस कमिश्नर की ओर से पेश हों और यह कि इस मामले से केंद्र सरकार का सरोकार है.
न्यायाधीश मुरलीधर ने कहा कि वह लेफ्टिनेंट गवर्नर से मिले अनुरोध-पत्र को दिखाएं. जवाब में मेहता की इस बात से कि वह 'टेक्नोलॉजी के मामले में पूरी तरह निरक्षर' हैं लोगों को स्तब्ध कर दिया. बाद में यह कह कर कि अदालत के अधिकार क्षेत्र का मामला तो 'बहुत छोटा मुद्दा है' उन्होंने एक बार और लोगों को हैरान किया.
सॉलीसीटर जनरल के पास बस एक-सूत्री एजेंडा था और वह उसे पूरा करना चाहते थे. मेहता ने बार-बार कहा कि वह बस इतना ही चाहते हैं कि इस मामले को अगले दिन तक के लिए स्थगित कर दिया जाए ताकि इस पर जस्टिस पटेल सुनवाई कर सकें. उन्होंने पीठ से कहा कि “घृणा फैलाने से संबंधित कथित भाषणों के लिए बीजेपी नेताओं की गिरफ्तारी का मामला इतना आवश्यक नहीं है कि उसे मुख्य न्यायाधीश की अदालत से लेकर उस पर आज ही सुनवाई कर दी जाए.” जाहिर तौर पर उनके लिए इसे स्थगित रखना जरूरी था ताकि मुरलीधर की इस पर कोई राय न बने, और इसी लिए सॉलीसीटर जनरल को भागकर अदालत आना पड़ा था.
जस्टिस मुरलीधर ने मेहता को समझाया कि अविलंब सुनवाई की अपील के लिए न्यायपीठ के समक्ष मामलों के उल्लेख का एक स्थापित तरीका है और उनसे कहा कि एक विधि अधिकारी के नाते उन्हें अपील का आकलन करने में अदालत की मदद करनी चाहिए. मामले को स्थगित कराने के अपने दूसरे प्रयास में मेहता ने कहा कि केंद्रीय गृह मंत्रालय को, जिसके पास दिल्ली पुलिस का सर्वोच्च प्राधिकार है, इस मामले में एक पक्षकार बनाया जाए और उसे इतना समय दिया जाए कि वह इसकी तैयारी कर सके.
मुरलीधर इसके लिए भी सहमत नहीं हुए फिर मेहता ने तीसरा दांव चला. उन्होंने कहा कि जिन भाषणों पर सवाल उठाया गया है वे एक सप्ताह पहले दिए गए थे- दरअसल उनमें से आखिरी तो और भी पहले का है जो बीजेपी नेता कपिल मिश्रा द्वारा 23 फरवरी को दिया गया था लिहाजा एक और दिन के विलंब से कोई फर्क नहीं पड़ेगा. मुरलीधर ने जवाब में कहा कि विलंब की वजह से यह मामला और भी ज्यादा जरूरी हो गया है.
‘‘मिस्टर मेहता आप यहां एक प्रमुख विधि अधिकारी हैं,’’ मुरलीधर ने कहा, ‘‘इसलिए हम चाहते हैं कि एक विधि अधिकारी के रूप में आप हमारी मदद करें.’’ मेहता ने जवाब में कहा कि इसके लिए उन्हें निर्देश लेने की जरूरत है.
मुरलीधर ने कहा,‘‘याचिकाकर्ता की प्रार्थना तीन वीडियो पर आधारित है. समूचे देश ने इन वीडियो भाषणों को एक बार नहीं बल्कि कई बार सुना है.’’ उन्होंने मेहता से जानना चाहा कि क्या उन्होंने इन्हें देखा है और जवाब में सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि इन्हें उन्होंने नहीं देखा है. मुरलीधर ने तुरत जवाब दिया- ‘‘आप अपने अफसरों से पूछिए.’’ दिल्ली पुलिस की अपराध शाखा के प्रभारी डिप्टी कमिश्नर राजेश देव को सामने आने को कहा गया.
‘‘क्या आपने इन वीडियो को देखा है?’’ मुरलीधर ने उनसे सवाल किया. राजेश देव ने कहा कि उन्होंने केवल दो वीडियो देखे हैं लेकिन तीसरा वीडियो जो कपिल मिश्रा का है, नहीं देखा है.
‘‘कपिल मिश्रा वाला नहीं देखा है?’’ मुरलीधर ने कहा ‘‘क्या आप यह कह रहे हैं कि पुलिस आयुक्त तक ने इस वीडियो को नहीं देखा है? मैं दिल्ली पुलिस के कामकाज के तरीके से हैरान हूं.’’ इसके बाद उन्होंने कहा कि अदालत में इस वीडियो को चलाया जाए- ‘‘आप सभी लोग इसे देखिए.’’
वीडियो में दिखाया गया था कि कपिल मिश्रा उत्तर पूर्व दिल्ली के जाफराबाद में हिंसा शुरू होने से कुछ ही समय पहले एक भीड़ के सामने भाषण कर रहे थे. इलाके के मुस्लिम लोग नागरिकता (संशोधन) कानून के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे थे और मिश्रा ने उन्हें चेतावनी दी कि अगर वे वहां से नहीं हटे तो ‘‘हमें सड़क पर उतरना पड़ेगा.’’ जिस समय वह भाषण कर रहे थे उनके बगल में वर्दी में एक पुलिस अधिकारी खड़ा था.
मुरलीधर ने राजेश देव से कहा कि वह उस अफसर की शिनाख्त करें. यह अफसर उत्तर पूर्वी दिल्ली का डीसीपी वेद प्रकाश सूर्या था. मुरलीधर ने मेहता को कपिल शर्मा के भाषण का लिखित प्रारूप दिया और फिर यह मामला लंच के बाद सुनवाई के लिए स्थगित कर दिया गया.
अदालत में उपस्थित एक वकील के अनुसार अदालत के कमरे से बाहर आते समय मेहता के चेहरे पर तनाव था. लिफ्ट तक पहुंचने के बाद मेहता ने राजेश देव की ओर मुड़कर पूछा कि उसके साथ कौन चल रहा था और पास ही खड़े दो वकीलों के अनुसार मेहता ने पुलिस अफसर से कहा, ‘‘तुम्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी.’’
जब मैंने राजेश देव और मेहता से संपर्क किया तो दोनों ने इस बात से इनकार कर दिया कि यह घटना कभी हुई थी. लेकिन दोनों वकील अभी भी अपनी बात पर अड़े हैं. उनमें से एक ने मुझसे कहा, ‘‘इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है… मेरा मतलब यह तुषार मेहता हैं. आप तुषार मेहता से भला और क्या उम्मीद कर सकते हैं?’’ दूसरे वकील ने कहा, ‘‘आप देखिए कि सॉलीसीटर जनरल अदालत परिसर में एक अधिकारी को धमका रहा है. आप समझते हैं कि ऐसा होता है, आप जानते हैं कि ऐसा होता है लेकिन ऐसा होते खुद देखना वैसे ही है जैसे किसी को नंगा देख लिया गया हो.’’
लंच के अवकाश के बाद जज ने पुलिस को इस बात के लिए अगले दिन का समय दिया कि वह फैसला ले कि बीजेपी नेताओं के खिलाफ एफआईआर दर्ज करेगी या नहीं. रात के डिनर का समय होते होते मुरलीधर का तबादला पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के लिए कर दिया गया था. यह फैसला विधि मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम की दो हफ्ते पुरानी सिफारिश पर किया था जिसमें तबादले की मांग की गयी थी. सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ही उच्च न्यायालयों के गठन का मुख्य प्राधिकरण है. इस सुनवाई के कुछ घंटों बाद ही पुरानी सिफारिश पर कार्रवाई करना सबकी निगाह में आया. यह तबादला दंडात्मक कार्रवाई थी या नहीं, सरकार को इसकी तनिक भी परवाह नहीं थी भले ही यह दंडात्मक क्यों न दिखाई दे.
अगले दिन लेफ्टिनेंट गवर्नर ने न्यायाधिकार क्षेत्र जैसे ‘‘मामूली मुद्दे’’ को संबोधित किया जब उन्होंने यह बताने के लिए अधिसूचना जारी की कि उन्होंने मेहता के नेतृत्व में एक टीम का गठन किया है जो दिल्ली हिंसा से संबंधित मामलों को देखेगी. मुख्य न्यायाधीश पटेल मामले की सुनवाई के लिए वापस आ गए थे और उन्होंने, जैसा कि मेहता ने चाहा था, गृह मंत्रालय को चार हफ्ते का समय दिया कि वह याचिकाकर्ताओं के सवालों का जवाब दे. हमलों में बस कमी आनी शुरू हुई थी और उत्तर पूर्वी दिल्ली में लाशें तथा जली गाड़ियां अभी भी उन मकानों के बगल में बिखरी पड़ी थीं जो जलने की वजह से काले पड़े थे. मामला अप्रैल के मध्य तक के लिए स्थगित कर दिया गया था.
अदालतों में हमेशा परोक्ष रूप से राजनीतिक दबाव का इस्तेमाल किया जाता रहा है. आपातकाल के दिनों में नीरेन डे को इंदिरा गांधी का आदमी माना जाता था. वह एटोर्नी जनरल थे जिन्हें अनेक लोग सुप्रीम कोर्ट के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति कहा करते थे. 1976 में डे ने दलील दी कि इंदिरा गांधी की सरकार को कानूनी तौर पर इस बात की इजाजत है कि वह हत्या के मामले से भी बच जाएं (या कानूनी बारीकियों के नजरिए से कहें तो जीने का अधिकार 'राज्य की मर्जी' पर था) सुप्रीम कोर्ट नतमस्तक था. वह डे से सहमत था और उसने निवारक नजरबंदी के खिलाफ 23 उच्च न्यायालयों के आदेश को पलट दिया और इस प्रकार मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के लिए व्यापक तौर पर न्यायिक औचित्य प्रदान किया.
अदालतों में और खासतौर पर सुप्रीम कोर्ट में नरेन्द्र मोदी का चेहरा तुषार मेहता हैं. मौजूदा एटोर्नी जनरल के के वेणुगोपाल सर्वोच्च विधि अधिकारी के रूप में मेहता से ऊपर हैं लेकिन हाल के दिनों में देखा यह गया है कि अधिकांश ऐसे संवेदनशील मामलों में, जिनका ताल्लुक मोदी प्रशासन से है, वह अदालत में नहीं नजर आते हैं. कुछ वरिष्ठ वकीलों का कहना है कि सरकार के कुछ पक्षों के बारे में बहस करने से उन्हें गुरेज है. (‘बार ऐंड बेंच' को दिए गए हाल के एक इंटरव्यू में फली नरीमन ने कहा कि इमरजेंसी के दौरान उन्होंने अतिरिक्त सॉलिसीटर जनरल के पद से इसलिए इस्तीफा दिया क्योंकि कई वरिष्ठ लॉ अधिकारी जब मामले का सार-संक्षेप उन्हें बताते थे तो उन्हें ऐसे मुद्दों पर बहस करना पड़ता था जिसकी इजाजत उनका जमीर नहीं देता था. उन्होंने कहा कि - (‘‘मुझे पता था कि सारे गंदे कामों की जिम्मेदारी मेरे ऊपर आएगी.’’)
2014 में मोदी के प्रधानमंत्री बनने के कुछ ही समय बाद अतिरिक्त सॉलिसीटर जनरल के पद पर मेहता की नियुक्ति हुई और सरकार का पक्ष रखने के लिए वह कतार तोड़कर सबसे आगे आ गए. 2017 में जब उनके पूर्ववर्ती सॉलिसीटर जनरल ने इस्तीफा दे दिया तो सरकार ने एक वर्ष तक इस पद पर किसी की नियुक्ति नहीं की जबकि दो अन्य असिस्टेंट सॉलिसीटर जनरल के अंदर हताशा का भाव पैदा हो रहा था क्योंकि उन्होंने मेहता के मुकाबले ज्यादा समय तक सेवाएं दी थीं. अक्टूबर 2018 में इन दोनों व्यक्तियों पी॰ एस॰ नरसिम्हा और मनिंदर सिंह ने एक के बाद एक इस्तीफा दे दिया. सिंह ने उसी दिन इस्तीफा दिया जिस दिन मेहता को सॉलिसीटर जनरल बनाया गया. दो वर्षों के दौरान ऐसा लगता है कि खुद एटोर्नी जनरल अपने को मेहता के मातहत पाते हैं.
मेहता का उदय एक बड़ी योजना का हिस्सा हैः राष्ट्रीय दृश्य पटल पर आने के बाद मोदी सरकार का अपनी सत्ता को सुदृढ़ करना और इस सत्ता का विस्तार अदालतों तक ले जाना. मोदी के सबसे बड़े सहयोगी और मौजूदा गृह मंत्री अमित शाह के विश्वास पात्र के रूप में मेहता उस समय से ही हैं जब से गुजरात में इस सदी की शुरूआत में दोनों की मुलाकात हुई. भारत की राजनीति में अब तक के सर्वाधिक विवादास्पद राजनीतिक जीवन के धनी अमित शाह की जिंदगी के हर उतार चढ़ाव में मेहता उनके साथ खड़े रहे हैं और मेहता की खुद की किस्मत इन राजनीतिज्ञों की किस्मत के साथ आगे बढ़ती रही है. जिस समय दिल्ली पुलिस की ओर से मुरलीधर की अदालत में मेहता ने प्रवेश किया, हर हाल में उनका मकसद अमित शाह के गृह मंत्रालय का बचाव ही करना था.
गुजरात के ही वकील और राजनीतिज्ञ यतीन ओझा कई दशकों से अमित शाह और तुषार मेहता को अच्छी तरह जानते हैं और उन्होने मुझे बताया कि दोनों के बीच तालमेल इसलिए बना रहा क्योंकि ‘‘अमित शाह जो कुछ भी कहते थे उसका आंख मूंदकर तुषार मेहता पालन करते थे." 2001 से 2014 तक जिस तरह इन लोगों ने गुजरात में सरकार चलाई, मोदी और शाह चाहते हैं कि दिल्ली में भी अपने भरोसेमंद सहायकों के जरिए सरकार चलाएं. इस सदी की शुरूआत में गुजरात में स्टेट कोआपरेटिव ट्रिब्यूनल से लेकर आज सुप्रीम कोर्ट तक मेहता ने अपनी उपयोगिता का प्रदर्शन किया है.
राजनीतिक गलियारों के एक सिद्धहस्त व्यक्ति ने मुझे बताया कि मोदी और शाह ने जब सबसे पहले गुजरात से दिल्ली में पदार्पण किया तो उन्हें उन्हीं लोगों पर भरोसा करना था जो राजधानी दिल्ली की राजनीतिक जमीन से पूरी तरह वाकिफ थे. मिसाल के तौर पर अरुण जेटली के पास मीडिया तथा अन्य क्षेत्रों के अलावा, उन लोगों के मुकाबले, इस बात की बेहतर समझ थी कि सुप्रीम कोर्ट के काम करने का तरीका क्या है. जेटली को मंत्रिमंडल का प्रमुख सदस्य बनाया गया और उनके मित्र मुकुल रोहतगी को एटोर्नी जनरल के पद पर स्थापित किया गया. उस व्यक्ति का कहना है कि ‘‘लेकिन यह तो अब इतिहास की बात हो गयी. अब इन दोनों की खुद ही पकड़ मजबूत हो गयी है. इन्हें अब किसी जेटली या यहां तक कि किसी मुकुल की भी कोई जरूरत नहीं है.’’
मोदी के शासनकाल में न्यायपालिका का पूरी तरह रूपांतरण हुआ है. अपने पहले कार्यकाल में कार्यपालिका ने आहिस्ता-आहिस्ता अदालतों का घेराव किया और मोदी के दुबारा चुने जाने के बाद इस पर धावा बोल दिया गया. सुप्रीम कोर्ट, जिसका मकसद जनता के अधिकारों की रक्षा करना था, उसकी ख्याति अब सरकार की इच्छाओं का चैंपियन बनना है. सहारा-बिड़ला डायरी में कथित तौर पर कॉरपोरेट घरानों द्वारा मोदी तथा अन्य राजनीतिज्ञों को दी जाने वाली धनराशि का ब्यौरा था लेकिन जब अदालत से कहा गया कि इसकी जांच का आदेश जारी करे तो उसने साफ तौर पर कह दिया कि इसकी कोई जरूरत नहीं है. अमित शाह के खिलाफ हत्या के एक मामले की जांच करने वाले न्यायाधीश बी एच लोया की अचानक हुई मृत्यु के बाद अदालत ने सरकार की इस बात से ही खुद को संतुष्ट कर लिया कि कहीं कुछ भी गलत नहीं हुआ है. ऐसा ही मुद्दा एलेक्टोलर बांड्स का था जिसके जरिए बीजेपी को गुप्त दान के रूप में अपार धनराशि की प्राप्ति हुई लेकिन इस मामले में भी अदालत ने इसके संवैधानिक होने की जांच की अपनी न्यायिक जिम्मेदारी को भी ताक पर रख दिया . 2019 में मोदी के दोबारा चुने जाने के बाद से सरकार ने ज्यादातर मामलों में - खासतौर पर कश्मीर के मामले में ऐसा काम किया है जैसे वह किसी भी संवैधानिक बाध्यता के प्रति उत्तरदायी नहीं है.
कार्यपालिका को तुष्ट करने के लिए न्यायाधीशों ने बंदी प्रत्यक्षीकरण जैसे वैधानिक सिद्धांतों को विकृत कर दिया है.
इस बीच कॉलेजियम की सिफारिशों के जरिए न्यायपालिका में की जाने वाली नियुक्तियों और तबादलों के मामले में सरकार मनमानी करने के लिए खुद को पूरी तरह निश्चिंत पाती है. जिन जजों ने अतीत में मोदी और शाह के सामने दिक्कतें पैदा की हैं या जो दिक्कतें पैदा कर रहे हैं उनका तबादला उनकी बारी आए बिना कर दिया जाता है अथवा उनकी पदोन्निति की अवहेलना की जाती है. ऐसे अनेक जज हैं जिनके फैसलों ने सत्ताधारी गुट को खुश किया और उन्हें आज कोई न्यायपीठ सौंप दी गयी. इनमें एक ऐसे भी जज हैं जिन पर सुप्रीम कोर्ट के एक जज ने आरोप लगाया था कि वह ‘‘हमारी पीठ पीछे कार्यपालिका की मंशाओं को पूरा करने में लगे हैं.’’ रंजन गोगोई को, जिन्होंने इलेक्ट्रोरल बांड्स की छानबीन के अवसर को जाने दिया और मुख्य न्यायाधीश के पद पर रहते हुए अनेक उच्चस्तरीय मामलों में सरकार के पक्ष में फैसले दिए, सेवा से अवकाश लेते ही राज्य सभा का सदस्य बना दिया गया.
इंदिरा गांधी के दिनों में सुप्रीम कोर्ट के एक जज और भावी मुख्य न्यायाधीश की कतार में खड़े जज के रूप में पी॰एन॰ भगवती ने इंदिरा गांधी की प्रशंसा में उन्हें ‘‘लौह इरादों वाली’’, ‘‘डायनेमिक विजन से भरपूर’’ और ‘‘महान प्रशासनिक क्षमता से युक्त’’ जैसी उपाधियां दे डाली थीं. इस वर्ष फरवरी में सुप्रीम कोर्ट के जज अरुण मिश्रा ने मोदी की प्रशंसा में कहा कि वह ‘‘बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न’’ और ‘‘अंतर्राष्ट्रीय तौर पर प्रशंसित स्वप्नदर्शी’’ हैं.
2014 से ही मेहता की मौजूदगी सुप्रीम कोर्ट में लगातार दिखाई देती है. इसकी शुरुआत परिधि से होते हुई और तेजी से केंद्र तक पहुंच गयी. अनेक मामलों में, जिन्होंने अरुचिकर छाप छोड़ी है, कार्यपालिका की इच्छा को स्वर देने के लिए अदालतों के समक्ष वही खड़े हुए. एक के बाद एक ऐसे अनेक अवसर देखने को मिले जब उन्होंने अत्यंत आवश्यक मामलों को भी स्थगित करने के लिए अदालत को राजी कर लिया. अदालत की इस बात के लिए आलोचना भी हुई कि वह कार्यवाही के दौरान मेहता को ज्यादा छूट दे रही है और उन मामलों में भी सरकार के पक्ष में फैसले सुना रही है जो कानून के घेरे से बाहर के हैं लेकिन मेहता अपनी जीत बरकरार रखते चले गए.
अनेक वरिष्ठ वकीलों और अवकाश प्राप्त जजों से जब मैंने कहा कि वे मेहता के बारे में क्या राय व्यक्त करेंगे- 'अच्छा', 'ठीक-ठाक' या 'सक्षम' और इन सभी ने जो कहा वह एक कांपलीमेंट है. एक अवकाश प्राप्त जज ने उनकी प्रशंसा में कहा कि ‘‘वह दिल्ली या बंबई के वकीलों की तरह कुशल वक्ता नहीं हैं, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि वह बुरे हैं." बेशक 2016 में मेहता ने एक बार श्रेया सिंहल बनाम भारत सरकार के मामले में सरकारी पक्ष रखते हुए सुप्रीम कोर्ट की न्यायपीठ को बहुत प्रभावित किया. अभिव्यक्ति की आजादी से संबंधित इस मामले के दौरान न्यायमूर्ति रोहिंटन नरीमन ने उन्हें खुली अदालत में धन्यवाद दिया.
लेकिन अकसर मेहता शब्दों का आडंबर खड़ा कर देते हैं, जो भी दिमाग में आता है उसे लेकर शोर मचाने लगते हैं भले ही उसका ज्ञान उन्हें व्हाट्स अप से ही क्यों न मिला हो. हाल ही में इस वर्ष उन्होंने अत्यंत स्मरणीय झूठ बयान किया जो सुप्रीम कोर्ट में दर्ज हो गया और जिसे सुप्रीम कोर्ट के इतिहास की दृष्टि से स्मरणीय कहा जाएगा. मार्च के महीने में सरकार ने बहुत हड़बड़ी में और बर्बरतापूर्ण ढंग से लॉक डाउन की घोषणा की जिसका मकसद कोरोना वायरस से लोगों को बचाना था. इसकी वजह से देश भर में लाखों की संख्या में वे मजदूर फंसे पड़े थे जो अपने गांव को छोड़ कर आए थे और काम न होने की वजह से जिनकी आजीविका समाप्त हो गई थी. उन्होंने लंबी दूरियां पार करते हुए अपने अपने घरों को पैदल ही जाना शुरू किया. एक सप्ताह के अंदर दर्जनों की मृत्यु हो गयी. 31 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने इन प्रवासी मजदूरों के संकट के बारे में एक याचिका पर सुनवाई शुरू की. सरकार की ओर से मेहता ने न्यायालय को बताया कि उस दिन दोपहर के 11 बजे तक ‘‘सड़क पर एक भी प्रवासी मजदूर नहीं था.’’ उस बयान के हफ्तों बाद, जो बाकायदा अदालत में दर्ज किया गया था, घर वापस जाते समय औरंगाबाद के निकट 15 प्रवासी मजदूर एक मालगाड़ी की चपेट में आकर मृत्यु के शिकार हुए.
मेहता लंबे समय से अदालतों में हैरान करने वाली बातें कहते रहे हैं. 2013 में जब गुजरात उच्च न्यायालय में इशरत जहां की गैर न्यायिक हत्या के मामले पर सुनवाई चल रही थी, जिसमें अमित शाह भी आरोपियों में से एक थे, राज्य की तरफ से वकील के रूप में मेहता पेश हुए ताकि अपराध की जांच करने वाली एजेंसी सीबीआई के खिलाफ वह बहस करें. सीबीआई के निष्कर्षों का विरोध करते हुए उन्होंने अदालत में ऐसा तांडव किया कि जजों को कहना पड़ा कि वह ‘‘इन चीजों से मनोविज्ञानिक तौर पर डिस्टर्ब न हों.’’ जब उनसे पूछा गया कि जो वैधानिक प्रक्रिया चल रही है उस पर उन्हें किस तरह का ऐतराज है तो इसका वह जवाब नहीं दे सके. उस अवसर पर तो अदालत ने मेहता के अजीबोगरीब व्यवहार पर कुछ टिप्पणी की भी लेकिन इस बार उन्हें तुष्ट कर दिया. हर सुबह उन अखबारों में, जो जजों के बंगलों में नियमित तौर पर पहुंचते थे, पैदल लौट रहे मजदूरों की मुखपृष्ठ पर छपी तस्वीरों के बावजूद, जजों ने मेहता की बात को स्वीकार कर लिया.
मदन लोकुर सुप्रीम कोर्ट के ऐसे जज हैं जिन्हें अवकाश लेने से पूर्व मोदी शासन के शुरुआती चार वर्षों में काम करने का अवसर मिला था मुझसे बताया कि, ‘‘अगर सरकार का पक्ष कमजोर है तो इसके अनुसार सलाह दी जानी चाहिए और कोर्ट को भी इसके अनुसार ही सलाह मिलनी चाहिए.’’ उन्होंने आगे कहा कि, ‘‘लेकिन हाल के दिनों में मैं देखता हूं कि ऐसा क्रमशः कम होता जा रहा है जिसके नतीजे के तौर पर सरकार का प्रतिनिधित्व और भी ज्यादा आक्रामक तथा जरूरत से ज्यादा जुझारू नजर आता है.’’
एक वरिष्ठ अधिवक्ता ने मुझसे कहा कि, ‘‘बेशक, अगर आप सरकार के वरिष्ठ विधि अधिकारी हैं तो अदालत आपको उचित सम्मान देगा लेकिन मैंने कभी इस तरह की श्रद्धा नहीं देखी... जिसमें आप बकवास झेलने की हर संभव कोशिश करें. मैंने कभी ऐसा नहीं देखा.’’
‘‘मैं यह नहीं कहूंगा कि वह अक्षम हैं,’’ एक अन्य वरिष्ठ अधिवक्ता ने कहा, ‘‘लेकिन वह इस समय जहां हैं वहां बहुत क्षमतावान होने की जरूरत नहीं है. उन्हें बस दबंगई दिखाने की जरूरत है. वह सरकार की एक दूसरी आवाज हैं और किसी न किसी कारणवश अदालतें उनसे डरती हैं.’’
पूरे अप्रैल महीने में प्रवासी मजदूर पैदल चलते रहे और मरते रहे. उच्च न्यायालयों ने मई में उन पर ध्यान देना शुरू किया. उड़ीसा उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार से कहा कि वह वापस आ रहे मजदूरों का कोरोना की जांच करे और यह पक्का कर ले कि वे निगेटिव हैं. मेहता ने सरकार के इस आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट से स्टे ले लिया. इसके बाद गुजरात उच्च न्यायालय ने अखबार में छपी रपटों के आधार पर स्वतः संज्ञान लेते हुए राज्य सरकार से ऐसे कदम उठाने के लिए कहा जिससे मजदूरों की तकलीफ कम हो.
आंध्र प्रदेश और मद्रास उच्च न्यायालयों ने अपनी अपनी राज्य सरकारों से और केंद्र सरकार से भी अनेक चुभते सवाल पूछे. उसी दिन सुप्रीम कोर्ट ने उस याचिका को सुनने से इनकार कर दिया जिसमें कहा गया था कि केंद्र सरकार को वह एक नोटिस भेजे ताकि वह सभी जिलाधिकारियों से कहे कि वे फंसे हुए प्रवासी मजदूरों की शिनाख्त करें और उनके रहने और खाने पीने की व्यवस्था करें और घर तक जाने की निःशुल्क परिवहन की व्यवस्था करें. बीस वरिष्ठ अधिवक्ताओं ने अदालत को लिखा कि ‘‘लाखों की संख्या में भारतीय नागरिकों को, खासतौर पर गरीब, असहाय, और निर्बल लोगों को कार्यपालिका की मर्जी पर’’ नहीं छोड़ देना चाहिए. अंततः 26 मई को सुप्रीम कोर्ट ने यह मामला अपने हाथ में लिया और एक आदेश जारी किया.
आदेश में कहा गया था कि "प्रवासी मजदूरों का संकट आज भी जारी है और सड़कों, राजमार्गों, रेलवे स्टेशनों तथा राज्य की सीमाओं पर बड़े पैमाने पर लोग फंसे पड़े हैं." अदालत ने सुनवाई के लिए 28 मई की तारीख तय की. मेहता से यह पूछने की बजाय कि दो महीने पहले उन्होंने अदालत के सामने क्यों गलत बयानी की थी, अदालत को सहयोग करने के लिए कहा गया और यह भी कहा गया है कि वे इस संकट पर सरकार के रुख का सारांश प्रस्तुत करें.
मेहता ने वे आकड़े दिए कि सरकार ने कितनी ट्रेनें चलाईं और कितने लोगों को खाना मुहैया कराया. लेकिन कहीं से यह स्पष्ट नहीं हो सका कि कितने मजदूर देश भर में अभी भी फंसे हुए हैं या पैदल घरों की ओर लौट रहे हैं. परिवहन व्यवस्था को लेकर भी विभ्रम की स्थिति बनी रही. क्या फंसे मजूदरों को निशुल्क पहुंचाया जाएगा या उनके पैसे का बाद में भुगतान करा दिया जाएगा- और अगर बाद में भुगतान होगा तो कैसे और किसके द्वारा?
उस समय तक अदालत के पास बहुत सारी आलोचनाएं आ चुकी थीं- यहां तक कि अवकाश प्राप्त जजों ने भी तीखी टिप्पणियां अखबारों में लिखी थीं. अदालत सरकार से ठोस वादा चाहती थी. अदालत ने मेहता से पूछा - ‘‘अगर किसी मजदूर की शिनाख्त होती है तो यह निश्चित किया जाना चाहिए कि उसे एक सप्ताह के भीतर या अधिक से अधिक 10 दिनों के अंदर घर भेज दिया जाएगा. वह समय क्या है? वे कौन से राज्य हैं जो उनके पैसों का भुगतान करेंगे? कोई मजदूर पैसे के भुगतान की किस तरह अपेक्षा करता है? मजदूरों को इस बात की जानकारी नहीं है कि किस राज्य को भुगतान करना है या उनके लिए कोई परिवहन उपलब्ध भी है या नहीं. एक समान नीति होनी चाहिए वर्ना इससे विभ्रम की स्थिति पैदा होगी.’’
मेहता ने वही रणनीति अपनाई जो प्रायः कठिन सवालों के पूछे जाने के समय अपनाते रहे हैं. उन्होंने स्थगन की मांग की. उन्होंने कहा, ‘‘मैंने सभी सवालों को समझ लिया है और हो सकता है राज्य सरकारें इस पर अपनी रिपोर्ट दें.’’ जजों को इससे संतोष नहीं हुआ. मेहता ने आगे कहा, ‘‘जब तक न्यायालय के पास राज्यों की रिपोर्ट नहीं आएगी, उनके सामने तस्वीर स्पष्ट नहीं होगी. दरअसल केंद्र की आलोचना से अदालत बच रही थी. ‘‘ऐसा नहीं कि सरकार कुछ नहीं कर रही है लेकिन कुछ ठोस कदम उठाने ही होंगे-’’ लेकिन स्पष्टता के लिए बार बार अनुरोध करने पर मेहता भड़क गए. उन्होंने कहा, ‘‘कोर्ट के एक अधिकारी के रूप में मैं कुछ और कहना चाहता हूं.’’ मेहता की निगाह में वे पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता और याचिकाकर्ता, जिन्होंने मजदूरों की पीड़ा केा उजागर किया, देशभक्त नहीं हैं और मेहता की निगाह में वे ‘‘विनाश के पैगंबर हैं’’ जिन्होंने केवल ‘‘नकारात्मकता, नकारात्मकता, नकारात्मकता’’ का प्रचार किया है और उन्हें इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि सरकार ने कितने अच्छे काम किए हैं. उन्होंने मानवीय त्रासदी पर लिखने वाले पत्रकारों को ‘‘गिद्ध’’ कहा और गिद्ध तथा भूख से मर रहे बच्चे की केविन कार्टर के प्रसिद्ध फोटोग्राफ को उद्घृत करते हुए अपनी बातें कहीं. बाद में पता चला कि मेहता की यह आधारहीन कहानी का सीधा संबंध व्हाट्स अप के एक संदेश से था जिसे काफी वायरल किया गया था.
मेहता के ढेर सारे एकालाप में उच्च न्यायालयों पर व्यंग्य है और उनमें से कुछ में उन्होंने कहा है कि ये न्यायालय ‘‘एक समानांतर सरकार चला रहे हैं.’’ न्यायपीठ ने उनसे यह नहीं पूछा कि संवैधानिक अदालतों के खिलाफ उनके गुस्से का कारण क्या है जबकि इन अदालतों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे कार्यपालिका के कामों पर निगरानी रखें. उनकी इस अदा को नीरेन डे समझ सकते थे जिन्होंने आपातकाल के दौरान उच्च न्यायालय के आदेशों को विफल करने के लिए सुप्रीम कोर्ट का सहारा लेने की आदत डाल रखी थी.
अदालत ने याचिकाकर्ताओं की बात को संक्षेप में सुना. बीच बीच में मेहता की बौखलाहट भी सुनाई पड़ रही थी. सब सुनने के बाद अदालत ने राज्य सरकारों से कहा कि वे एक सप्ताह के अंदर अपने जवाब प्रस्तुत करें. आदेश की घोषणा करते समय जब मेहता ने कई बार आपत्ति की तो जज ने स्पष्ट किया कि केंद्र सरकार के खिलाफ कुछ भी नहीं कहा जा रहा है.
इस सुनवाई के अगले दिन मैंने एक अवकाश प्राप्त जज से बात की जो उन गिने चुने लोगों में से थे जो अभी भी उच्चतर न्यायालयों के अविवेकपूर्ण कार्यों के बारे में खुलकर बात करते हैं. उन्होंने बड़े प्रसन्न मन से मेरा फोन रिसीव किया लेकिन जैसे ही मैंने मेहता का उल्लेख किया वह चिड़चिड़ा उठे. उन्होंने गुस्से में कहा, ‘‘आप मुझसे क्या कहलाना चाहते हैं? वह किसी काम का नहीं है. वह बकवास करता है और अदालत इसकी इजाजत देती है. उसे न्यायपीठ से भरपूर प्रोत्साहन मिलता है. मैं इस व्यक्ति के बारे में कुछ भी कहना नहीं चाहता.’’ फोन रखने से पहले जज महोदय ने मुझसे कहा कि मेहता पर जब मेरी स्टोरी छप जाए तो मैं उन्हें भेज दूं. मैंने सवाल किया, ‘‘आप उनके बारे में पढ़ना चाहते हैं लेकिन उनके बारे में बात करना नहीं चाहते?’’
‘‘बिलकुल, मैं उसके बारे में पढ़ना चाहता हूं,’’ जज ने कहा, ‘‘वह सुप्रीम कोर्ट में सबसे ताकतवर व्यक्ति है.’’
(2)
जब मेहता अपनी युवावस्था में थे उनके के पिता की कार दुर्घटना में मृत्यु हो गयी जो जामनगर में एक सामान्य सरकारी कर्मचारी थे. स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई अपने गृह नगर में पूरी करने के बाद मेहता अहमदाबाद गए. उनके पिता के एक मित्र ने मेहता का संपर्क प्रसिद्ध गुजराती लेखक श्रीकांत शाह से कराया जो इस नौजवान को लेकर राज्य की राजधानी आए ताकि अपने परिवार के साथ रख सकें. मेहता को दशकों से जानने वाले एक व्यक्ति ने मुझे बताया कि श्रीकांत शाह ने मेहता को सर एलए शाह लॉ कालेज में भर्ती कराया और उनकी हॉस्टल की फीस तब तक देते रहे जब तक मेहता कहीं और रहने के लिए नहीं चले गए. 1987 आते आते मेहता ने कानून की पढ़ाई पूरी कर ली थी और उनके कैरियर की शुरूआत हो गयी थी.
इस स्टोरी के लिए अपना इंटरव्यू देने से मेहता ने इनकार कर दिया लेकिन कहा कि मेरे पास जो भी सवाल हैं उन्हें मैं ई मेल से उनके पास भेज दूं. अपने जवाब में उन्होंने लिखा, ‘‘कानून की पढ़ाई करने के लिए मैं अहमदाबाद आ गया और सर एलए शाह लॉ कालेज में दाखिला ले लिया और एक हॉस्टल में रहने लगा.’’ मास्टर ऑफ लॉ की डिग्री की पढ़ाई करते समय ‘‘चूंकि एलएलएम के छात्रों के लिए हॉस्टल की सुविधा नहीं थी लिहाजा मैंने एक कमरा किराए पर लिया.’’ वकील बनने के बाद, ‘‘मैंने एक फ्लैट किराए पर लिया और अपने परिवार को ले आया जो जामनगर में रहता था.’’
प्रेक्टिस शुरू करने के बाद के शुरुआती वर्ष थोड़े कठिन थे लेकिन 1990 में उस समय स्थिति बेहतर हो गयी जब मेहता ने कृष्णकांत वखारिया के चैंबर के साथ काम करना शुरू किया. वखारिया ने मुझे बताया, ‘‘वह शहर के सिविल कोर्ट में प्रेक्टिस करते थे और बहुत मामूली मेहनताना उन्हें मिलता था.’’ वखारिया ने मुझे यह भी बताया कि, ‘‘उन्होंने मुझसे कहा कि मेरी सेवाओं के लिए आप जो भी मेहनताना देना चाहें, वह मेरे लिए लाभदायक ही होगा.’’ जल्दी ही मेहता इतना पैसा कमाने लगे जिसे वखारिया ने ‘‘अच्छा खासा पैसा’’ कहा.
वखारिया का चैंबर काफी व्यस्त रहता था. वह राज्य में कांग्रेस नेतृत्व के करीब थे और गुजरात के लंबे चौड़े सहकारी क्षेत्र से संबद्ध अनेक विवादों में पार्टी का प्रतिनिधित्व करते थे. उनके मुवक्किलों में से कई व्यापारी थे. वखारिया का कहना है कि, ‘‘मेरे मुवक्किलों की संख्या काफी अधिक थी और मैं उनमें से कइयों को मेहता के पास भेज देता था. इस तरह से उनका भी फायदा हो जाता था.’’
शीघ्र ही, मेहता ने खुद को कांग्रेस के साथ जुड़ा होने का कहना शुरू किया. जिन अनेक लोगों से मैंने बात की उन्हें याद है कि वह किस तरह जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी की प्रशंसा करते थे. वखारिया ने मुझे बताया, ‘‘मैं एक कांग्रेसी था और वह भी कांग्रेसी थे. उन्होने बताया कि वह कांग्रेस को वोट देते रहे हैं.’’ मेहता ने अपने लिखित जवाब में मुझे बताया, ‘‘मैं कभी भी किसी राजनैतिक दल का किसी भी रूप में समर्थक नहीं रहा.’’
1990 के दशक के मध्य से मेहता को जानने वाले गुजरात के एक वकील आनंद याग्निक ने याद किया कि मेहता ने कभी उनसे कहा था कि ‘‘मेरे लिए संविधान गीता की तरह है. जब मैं अदालत में इसे उद्घृत करता हूं तो ऐसा लगता है जैसे मैं पूजा कर रहा हूं.’’ याग्निक ने मुझे यह भी बताया कि मेहता खुद को एक गांधीवादी भी कहते थे लेकिन किसी तानाशाह को पसंद करने की उनकी चाहत के रास्ते में उनका गांधीवादी होना कभी रोड़ा नहीं बना. याग्निक का कहना है कि ‘‘मैंने हमेशा उन्हें हिटलर की प्रशंसा करते हुए सुना. हिटलर को उद्घृत करना उन्हें बहुत पसंद था. किसी भी निजी संवाद में वह अनिवार्य रूप से हिटलर का संदर्भ देते थे.’’ याग्निक को याद है कि एक बार मेहता ने कहा था कि अगर भारत में कोई तानाशाह होता तो देश कुछ अच्छा कर पाता.
याग्निक ने मुझे आगाह किया कि इस तरह की बातों का मैं बहुत ज्यादा अर्थ न लगाऊं. उन्होंने कहा, ‘‘ये सारी बातें काफी की मेज पर चलने वाली दर्शन की बातें हैं.’’ मेहता ने इस बात से इनकार किया कि उनका कभी ऐसा दृष्टिकोण था. उन्होंने लिखा,‘‘सही सोच का कोई भी व्यक्ति किसी भी तरह एडोल्फ हिटलर की प्रशंसा नहीं कर सकता. मैं किसी भी समय हिटलर की प्रशंसा करने की कल्पना तक नहीं करता.’’
याग्निक ने बताया कि "वह कभी भी किसी के उद्धरण को लिंकन या चर्चिल या नेपोलियन का बता कर पेश कर सकते थे लेकिन मैं नहीं समझता कि उन्होंने कभी भी गंभीरता से अपने को जोड़ा हो.’’
वखारिया के जूनियर के रूप में कांग्रेस के साथ मेहता का जुड़ाव उनके कैरियरवादी रुझान की एक शुरुआती अभिव्यक्ति थी. अमित शाह से मिलने के बाद बीजेपी के साथ यह नया जुड़ाव था. मेहता के विचारों में यह जो वैचारिक घालमेल था उसका रुझान उनके पेशेवर जीवन के शुरू के जीवन में दिखाई देता है. याग्निक ने मुझे बताया कि, ‘‘वह जो कुछ कहते थे उसमें हमेशा दो तरह की बातें होती थीं. अदालत में सुनवाई के दौरान उन्होंने मेधा पाटकर जैसी सक्रिय कार्यकर्ताओं पर प्रहार किया जिन्होंने नर्मदा बचाओ आंदोलन के दौरान कांग्रेस की लानत-मलामत की थी. मेहता की कार्यशैली ऐसी थी जिसमें वह ‘‘लोगों को नीचा दिखाते थे, उनकी प्रतिष्ठा को कम करके प्रस्तुत करते थे, और व्यक्तिगत हमलों के जरिए उनकी ख्याति और सम्मान को ठेस पहुंचाते थे. ऐसा करने के लिए वह उन्हें गुजरात के हितों का दुश्मन बताते थे.’’
मेहता ने मुझे लिखकर बताया कि कोई भी विधि अधिकारी किसी मामले पर बहस के दौरान अपमानजनक टिप्पणियां नहीं करता और न तो इसके लिए अदालत उसे इजाजत ही देती है. अगर कोई अधिवक्ता अपमानजनक टिप्पणियां करता है तो अदालत फौरन उसे रोक देती है.’’ उन्होंने आगे कहा कि, "जहां तक किसी याचिकाकर्ता के सुने जाने और/या प्रामाणिक होने पर बहस करने का सवाल है, यह उस वकील का न केवल अधिकार है बल्कि जिसकी तरफ से वह पेश हुआ है उसके प्रति उसका दायित्व भी है बशर्ते संबद्ध मामला इसकी मांग करता हो."
मुवक्किलों की वखारिया के पास जो लंबी सूची थी उसने मेहता को काफी व्यस्त कर दिया था और नए वकीलों की जमात अदालत में उनकी ओर हसरत भरी निगाहों से देखती थी. याग्निक ने बताया कि,‘‘उसकी पृष्ठभूमि देशी भाषा की थी लेकिन उसने भाषा पर अच्छा अधिकार हासिल किया. मामले को तैयार करने और बहस करने के उसके तरीके से हम सब काफी प्रभावित हुए.’’ ओझा भी उनकी प्रशंसा में काफी कुछ कहते रहे हैं और अहमदाबाद के एक वरिष्ठ वकील निरुपम नानावती का भी ऐसा ही मानना था जो मेहता को उस समय से ही जानते रहे हैं.
मेहता श्रीकांत शाह के परिवार के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़े रहे . शाह की बेटी श्वेता की शादी इंडियन पुलिस सर्विस के एक अधिकारी संजीव भट्ट से हुई थी. मेहता और भट्ट के बीच घनिष्ठता बढ़ी जिसकी काफी चर्चा होती थी. अहमदाबाद में वे अकसर साथ-साथ दिखाई देते और पारिवारिक छुट्टियां भी वे साथ-साथ बिताते.
इससे पहले के दशक में गुजरात में कांग्रेस की अवनति शुरू हो गयी थी और राज्य की राजनीति में तेजी से परिवर्तन हो रहा था. इसका अर्थ यह हुआ कि राज्य की शक्तिशाली सहकारिता इकाइयों पर नियंत्रण की भी होड़ शुरू हो गयी थी. इसके लिए किसानों के मतों का बहुत महत्व था जो सहकारी बैंकों से कर्ज लेते थे और अपने अन्य छोटे मोटे कामों के लिए भी कोआपरेटिव सोसाइटियों पर निर्भर थे. अहमदाबाद के एक विद्वान ने मुझे बताया कि ‘‘कोआपरेटिव यूनिट्स पर अपनी पकड़ मजबूत बनाए बिना गुजरात में किसी भी राजनीतिक दल के लिए कुछ भी हासिल करना मुमकिन नहीं था.’’ (राज्य में आज मेहता का प्रभाव कितना ज्यादा है इसका पता इस तथ्य से ही लगता है कि गुजरात के सहकारिता के क्षेत्र के बारे में अपना आकलन बताने वाले उस विद्वान ने कहा कि उसका नाम गुप्त रखा जाय.)
सहकारिता से संबंधित कानून के बारे में वखारिया को विशेषज्ञता हासिल थी और मेहता इसे तेजी से सीख रहे थे. नानावती का कहना है कि ‘‘सहकारी समितियों से जुड़े ऐसे कई मामले, जिनमें राजनीतिज्ञों की संलग्नता थी, वखारिया के पास आते थे और उनके इस काम में तुषार मेहता सहयोग करते थे."
1995 में बीजेपी ने पहली बार गुजरात में सत्ता हासिल की. उस समय पार्टी के अंदर काफी गुटबाजी थी इसलिए जल्दी ही वह सत्ता से बाहर हो गयी लेकिन बाद में एक के बाद एक अल्पकालीन सरकारों के पतन के बाद 1998 में बीजेपी दुबारा सत्ता में आयी और इस बार वह टिकी रही.
हालांकि कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गयी थी लेकिन कुछ सहकारी इकाइयों पर इसकी पकड़ बनी हुई थी. इनमें से सबसे महत्वपूर्ण इकाई अहमदाबाद जिला सहकारी बैंक की थी. जब बैंक की गवर्निंग बॉडी के चुनावों की घोषणा हुई तो इस पर नियंत्रण के लिए कांग्रेस और बीजेपी दोनों के बीच एक तरह से युद्ध छिड़ गया. इस विवाद में अमित शाह ने, जो पहले से ही मोदी के काफी करीब थे और बीजेपी के आंतरिक संघर्ष में मोदी की तरफ से मोर्चा संभालते थे, इस विवाद में बीजेपी का नेतृत्व किया.
वखारिया ने मुझे बताया, ‘‘अहमदाबाद जिला सहकारिता के मामले में मेरी सेवाएं लेने के लिए अमित शाह मेरे पास आए. उनके अनुरोध करने पर मैं इसके लिए राजी हो गया." याचिका तैयार करने के लिए वखारिया ने अमित शाह को मेहता के पास भेज दिया ‘‘और इस प्रकार दोनों एक दूसरे के संपर्क में आ गए.’’
नानावती ने याद करते हुए बताया, ‘‘यह काफी चर्चित मामला था. कोऑपरेटिव बैंकिंग के क्षेत्र में प्रवेश करने का अमित शाह का यह पहला राजनीतिक प्रयास था.’’ कई वर्षों तक मेहता अदालत में इस मामले से जुड़े रहे और अमित शाह की ओर से बहस करते रहे. इसी प्रक्रिया में वह शाह के करीब हो गए.
यतीन ओझा ने मुझे बताया कि ‘‘राज्य की यह सबसे बड़ी कोऑपरेटिव सोसाइटी थी.’’ शाह को इस बैंक का नियंत्रण पाने में सफलता मिली और ‘‘इसके बाद ही अमित शाह सभी सहकारी समितियों पर कब्जा कर सके.’’
इससे बेहतर समय और कोई नहीं हो सकता था. 2001 के गणराज्य दिवस के अवसर पर गुजरात में अत्यंत विध्वंसकारी भूकंप आया. उस समय राज्य में केशुभाई पटेल के नेतृत्व में बीजेपी की सरकार थी. इस नाजुक समय में सरकार का काम बहुत अपर्याप्त दिखा और नतीजे के तौर पर पार्टी लगातार स्थानीय निकायों के चुनावों को और उपचुनावों को हारती चली गयी. उन दिनों मोदी दिल्ली में थे और एक तरह का राजनीतिक निर्वासन झेल रहे थे. 1995 में बीजेपी ने उन्हें उस समय गुजरात से दिल्ली भेज दिया था जब राज्य के वरिष्ठ पार्टी नेताओं द्वारा उनके खिलाफ एक के बाद एक शिकायतें आने लगीं. अब मोदी ने चोरीछिपे केशुभाई पटेल के खिलाफ एक अभियान चलाया. इसके अगले वर्ष ही राज्य विधानसभा के चुनाव होने थे. बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व ने अक्टूबर में पटेल को हटाकर मुख्यमंत्री पद पर मोदी को बैठा दिया.
इसके चार महीने बाद ही गुजरात का कुख्यात मुस्लिम विरोधी दंगा हुआ. मोदी ने पूरी तरह सांप्रदायिक आधार पर विधान सभा चुनाव का अभियान चलाया और राज्य विधान सभा में बहुमत हासिल कर लिया. पार्टी के राज्य नेतृत्व में अपने कुछ मित्रों की मदद से मोदी ने खुद में और शाह में सत्ता का पूरी तरह केंद्रीकरण कर लिया.
एक अवकाश प्राप्त नौकरशाह ने, जो उन दिनों राज्य में कार्यरत था, मुझे बताया कि अगर किसी ने इन दोनों के खिलाफ कुछ कहा तो उसे किनारे कर दिया जाता था. उसने मुझसे कहा, ‘‘आपको बहुत सावधान रहना होता था, आप किसी से कोई बात निजी तौर पर कह रहे हों तो भी गारंटी नहीं कि वह उन तक पहुंच न जाए.’’ मेहता भरोसेमंद खेमे का एक हिस्सा हो गए. एक स्थानीय पत्रकार ने मुझे बताया कि मेहता, संजीव भट्ट और अमित शाह--इन्हें अहमदाबाद में ‘मशहूर तिकड़ी’ के रूप में जाना जाता था.
अप्रैल 2002 में मल्लिका साराभाई ने दो अन्य कार्यकर्ताओं के साथ गुजरात हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की जिसमें कहा गया था कि दंगों में राज्य प्रशासन की सहभागिता थी. अदालत में साराभाई का का पक्ष वखारिया रख रहे थे. आरबी श्रीकुमार ने, जो 2007 तक अहमदाबाद में अतिरिक्त पुलिस महानिरीक्षक के पद पर तैनात थे, बाद में एक न्यायिक कमीशन को बताया कि जिस दिन कोर्ट में याचिका दाखिल की गई उसके दूसरे दिन आयोजित बैठक में मोदी ने उनसे कहा कि राज्य के सेक्रेट सर्विस फंड से वह 10 लाख रुपए निकालें और इस याचिका को विफल करने के लिए संजीव भट्ट को दे दें.
इस बैठक का ब्यौरा सितंबर 2011 में सार्वजनिक हो सका जब दंगों की जांच के लिए गठित नानावती आयोग के समक्ष श्रीकुमार ने अपना आठवां हलफनामा पेश किया और फिर इस हलफनामे के संदर्भ में साराभाई ने एक संवाददाता सम्मेलन आयोजित किया और आरोप लगाया कि मोदी ने उनके वकीलों को घूस देने की कोशिश की थी. साराभाई ने कहा कि, ‘‘संजीव भट्ट ने पैसा अमित शाह को दिया था जिसे, जहां तक मेरी जानकारी है और जिसकी पुष्टि मेरे स्रोतों ने की है, अमित शाह ने कृष्णकांत वखारिया के दफ्तर में तुषार मेहता को सौंपा था.’’ साराभाई ने आगे कहा कि ‘‘यह माना जाता है और मेरे स्रोतों के पास इसका सबूत भी है कि इस पैसे को या तो मेहता और दिल्ली में मेरे वकील अग्रवाल ऐंड एसोसिएट्स में बांटा गया या अकेले तुषार मेहता को अथवा अग्रवाल ऐंड एसोसिएट्स को दिया गया.’’ उन्होंने बताया कि ऐसा इसलिए किया गया ताकि उनके वकील द्वारा अदालत में पेश किए जाने से पहले ही सरकारी पक्ष को याचिका में कही गयी बातों का पता चल जाए.
साराभाई के इन दावों की मुद्रित प्रतियां संवाददाता सम्मेलन में बांटी गयीं. बाद में उसी दिन प्रेस ट्रस्ट आफ इंडिया ने एक समाचार प्रकाशित किया जिसमें श्रीकुमार को उद्धृत करते हुए कहा गया था कि ‘‘जिस हलफनामे की प्रतियां बांटी गयी हैं वह मेरी नहीं हैं.’’ जिस तरह पीटीआई ने इस टिप्पणी को प्रस्तुत किया था और जिस तरह विभिन्न राष्ट्रीय समाचार समूहों ने इसे छापा था उससे यह स्पष्ट हो रहा था कि साराभाई के दावों को श्रीकुमार खारिज कर रहे थे.
‘‘इस कहानी का सार संक्षेप यह है कि गुजरात के मुख्यमंत्री ने एक बैठक बुलाई और मुझसे कहा कि 10 लाख रुपए संजीव भट्ट को दे दिए जाएं इसलिए मैंने वे पैसे उनको दे दिए," उन्होंने पीटीआई से जोर देकर कहा, ‘‘मुख्यमंत्री और संजीव भट्ट के बीच सीधा संवाद था इसलिए मुझे इसकी कोई जानकारी नहीं कि क्या हुआ था.’’
हाल ही में साराभाई ने मुझसे बताया कि मेहता के बारे में उन्होंने जो कुछ भी कहा था उस पर वह आज भी कायम हैं और श्रीकुमार ने कभी उनके दावों का खंडन नहीं किया. श्रीकुमार ने मुझे बताया कि साराभाई के दावों का खंडन करने का उनके पास कोई आधार नहीं था क्योंकि उनकी संबद्धता भट्ट को पैसे देने तक ही थी.
2002 में गुजरात उच्च न्यायालय में जिन वकीलों ने मेहता को देखा था उनका मानना था कि मेहता के इस व्यवहार में स्पष्ट रूप से एक बदलाव दिखाई दिया. याग्निक ने कहा, ‘‘दंगों के तुरत बाद हालांकि वह कृष्णकांत वखारिया के दफ्तर में काम कर रहे थे, उन्होंने ऐसे व्यक्ति की भूमिका निभानी शुरू की जो तोड़फोड़ में माहिर हो.’’ वखारिया के साथ मेहता 2004 तक थे. गुजरात के अनेक वकीलों और कार्यकर्ताओं के अनुसार उस समय से ही उनकी ख्याति अमित शाह के खास आदमी के रूप में हो गयी थी.
जैसे जैसे दंगों में मोदी की संदिग्ध भूमिका के आरोपों की भरमार होने लगी, अमेरिकी सरकार ने अमेरिका में उनके प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया. याग्निक ने बताया कि मेहता और भट्ट ने उनको चेतावनी दी कि ‘‘वह थोड़ा नर्म पड़ जायं और मोदी के खिलाफ एक शब्द भी न बोलें’’ जबकि राजनीतिज्ञों ने प्रतिबंध हटवाने का प्रयास शुरू किया.
2007 में जब मोदी और शाह ने राज्य के इंचार्ज के रूप में एक और पारी की शुरूआत की तो मेहता को गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा वरिष्ठ अधिवक्ता की हैसियत दे दी गयी और उन्हें गुजरात के अतिरिक्त महाधिवक्ता पद पर नियुक्त किया गया. गुजरात में कार्यरत एक रिपोर्टर ने मुझे बताया कि उन्हें यह पद ‘‘पूरी तरह अमित शाह के इशारे पर दिया गया था.’’
मेहता ने लिखकर मुझे बताया कि, ‘‘गुजरात राज्य के एडीशनल एडवोकेट जनरल का पद मुझे किसी व्यक्ति ने नहीं बल्कि राज्य मंत्रिमंडल और राज्य के गवर्नर द्वारा दिया गया था.’’
उन दिनों गुजरात उच्च न्यायालय में इस बात की काफी चर्चा थी कि मेहता की नियुक्ति के पीछे कम से कम आंशिक तौर पर इस तथ्य की भूमिका है कि राज्य के महाधिवक्ता कमल त्रिवेदी की मोदी के साथ काफी नजदीकी थी. इस रिपोर्टर ने बताया कि, ‘‘अमित भाई इस पद पर अपना कोई आदमी चाहते थे और इसके लिए इसे चुन लिया गया.’’
मार्च 2008 में मेहता के अतिरिक्त महाधिवक्ता बनने के कुछ ही समय बाद सर्वोच्च न्यायालय ने 2002 के दंगों से जुड़े कुछ मामलों की फिर से जांच के लिए स्पेशल इन्वेस्टीगेशन टीम (एसआईटी) का गठन किया. इस मामले के एमिकस क्यूरी हरीश साल्वे उन लोगों में थे जिन्होंने एसआईटी के अफसरों की नियुक्ति को अंतिम रूप दिया. साल्वे की भूमिका जांच को निर्देशित करने में एक निष्पक्ष मध्यस्थ की थी लेकिन दंगे के मामलों के याचिकाकर्ताओं ने शिकायत की कि वे सुझावों की अनदेखी कर रहे हैं. उन्होंने एक पत्रकार को कहा कि साल्वे ने ‘‘गुजरात सरकार द्वारा सुझाए गए अफसरों के नामों को स्वीकार किया और हमसे सलाह तक नहीं ली.’’
बाद में तहलका ने एक खबर दी कि एसआईटी के गठन के महज एक महीने बाद और जब एमिकस क्यूरी की उनकी भूमिका बनी हुई थी उसी समय साल्वे ने अरबपति किशोर लूला और गुजरात सरकार के बीच एक समझौते में मध्यस्थता की. लूला ने सौर ऊर्जा परियोजना का एक प्रस्ताव साल्वे के पास भेजा जिसे साल्वे ने मेहता तक अग्रसारित किया. मेहता ने साल्वे को मोदी के दो मुख्य सहयोगियों का नंबर दिया और उन तक इस प्रस्ताव को भेजते हुए जोर देकर कहा कि यह साल्वे के मार्फत आया है. बाद में लूला को इस परियोजना के लिए 200 एकड़ जमीन दी गयी.
तहलका में पत्रकार आशीष खेतान ने लिखा, ‘‘कहा जा सकता है कि साल्वे एक कॉरपोरेट कंपनी के लिए मोदी के दफ्तर से लॉबिंग कर रहे थे और सरकार साल्वे को अनुग्रहीत करने के लिए काफी उत्साहित थी क्योंकि वह दंगों के मामले में, जिसमें मोदी सरकार को आरोपी ठहराया गया था, एमिकस क्यूरी के महत्वपूर्ण पद को संभाल रहे थे.’’ जी सी मुर्मू और संजय भवसाल नामक मोदी के जिन दो प्रमुख सहयोगियों को मेहता ने वह प्रस्ताव भेजा था वे दोनों दंगे के मामलों में आरोपी थे. सुप्रीम कोर्ट के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश पी बी सावंत ने साल्वे के इस कृत्य को अनैतिक बताया और कहा कि उन्हें एमिकस क्यूरी के पद से इस्तीफा दे देना चाहिए. साल्वे ने ऐसा नहीं किया. मेहता को भी इसका कोई परिणाम नहीं भुगतना पड़ा.
साल्वे ने अपने बचाव में कहा कि ‘‘ऐसी छोटी मोटी बातों’’ के लिए उन पर आरोप लगाना लगभग आक्रामक है. उन्होंने डींग हांकते हुए तहलका से कहा, ‘‘अगर मैं लूला को मदद करना ही चाहता तो इस प्रस्ताव को मैं अरुण जेटली को भेज सकता था जो मेरे अच्छे दोस्त हैं. मैं गुजरात के मुख्य सचिव से इस बारे में बात कर सकता था और उन्हें भेज सकता था. फिर मैं क्यों इसे तुषार मेहता को भेजूंगा?’’
दशक की समाप्ति तक एसआईटी की जांच के नतीजे सामने आने लगे थे. इस बीच सोहराबुद्दीन शेख, उसकी पत्नी और उसके सहयोगियों की गैर न्यायिक हत्या की जांच जोर पकड़ने लगी थी. सोहराबुद्दीन शेख एक जाना माना गैंगस्टर था और बताया जाता है कि गुजरात के बीजेपी नेता हरेंन पांड्या की हत्या में उसकी संलिप्तता थी. हिरेन पांड्या की पत्नी ने मोदी पर आरोप लगाया था कि उनके पति की हत्या में मोदी का हाथ है. केंद्रीय अनुसंधान ब्यूरो (सीबीआई) ने शोहराबुद्दीन शेख की मौत के सिलसिले में अमित शाह पर आरोप लगाया था कि हत्या, षडयंत्र, अपहरण, वसूली और सबूतों से छेड़छाड़ में उनका हाथ है. उनके फोन के काल रिकॉर्ड्स देखने से पता चलता था कि हत्या के कुछ दिनों पहले से ही उन पुलिस अधिकारियों के साथ शाह निरंतर संपर्क में बने हुए थे जिन्होंने शेख तथा उसके साथियों की हत्या की. इस मामले में हजारों पेज की जो चार्जशीट दाखिल हुई उसमें गुजरात के राजनीतिज्ञों, पुलिस और वसूली करने वाले गिरोहों के बीच एक गठजोड़ की जानकारी दी गयी है.
2010 में अमित शाह को गिरफ्तार कर लिया गया और जमानत से पहले उन्हें तीन महीने जेल में बिताने पड़े. ओझा ने मुझे बताया, ‘‘अमित शाह के गिरफ्तार होने के बाद तुषार मेहता ने एक तरह से वकालत की प्रेक्टिस छोड़ दी थी. वह लगातार अमित शाह के साथ रहते थे. बेशक यह काम गुप्त रूप से ही होता था क्योंकि वह अतिरिक्त महाधिवक्ता के पद पर बने हुए थे.’’
एक पत्रकार ने, जो शाह के मामले पर नियमित रिपोर्टिंग कर रहा था, मुझसे बताया कि जांच अधिकारियों की जानकारी में यह बात थी कि जिस समय अमित शाह जेल में थे मेहता ही उनके ‘‘आंख और कान’’ बने हुए थे. एक जांच अधिकारी ने याद किया कि अदालत में जांचकर्ताओं की दलीलों को काटते समय प्रायः मेहता का दृष्टिकोण यह रहता था कि उन लोगों के "निहित स्वार्थ और गलत इरादे हैं.’’ उस अधिकारी ने बताया कि, ‘‘उनके मालिक जेल में थे और वह गुस्से में थे. लेकिन मैं नहीं समझता कि किसी हवलदार तक को उनसे डर लगता था.’’
अमित शाह की जमानत अर्जी पर सुनवाई के दौरान अदालत में जिन वकीलों ने बहस की थी उनमें निरुपम नानावती थे. नानावती एक वरिष्ठ कांग्रेसी थे और एक रिपोर्ट के अनुसार इस बात से स्थानीय कांग्रेस नेतृत्व ‘‘परेशान’’ था. डीएनए में प्रकाशित रिपोर्ट में एक कांग्रेस नेता के हवाले से कहा गया था कि नानावती इस वजह से असंतुष्ट थे क्योंकि कांग्रेस के नेतृत्व वाली तत्कालीन केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एडीशनल सॉलिसिटर जनरल के पद के लिए उनके नाम की अनदेखी की थी और चुनाव में उन्हें टिकट देने से इनकार किया था. अहमदाबाद के एक रिपोर्टर ने मुझे बताया कि नानावती को ‘‘चिढ़े हुए’’ थे और वह ‘‘इसे एक मुद्दा’’ बनाना चाहते थे. समझा जाता है कि शाह के लिए उनका अदालत में जाना मेहता के प्रयास से हुआ था.
मेहता ने मुझे लिखकर बताया कि नानावती ‘‘खुद ही एक मशहूर वकील हैं’’ और उनको किसी काम में लगाने के लिए किसी की जरूरत नहीं है. उन्हें कोई भी व्यक्ति पेशेवर ढंग से अपने मुकदमे की पैरवी के लिए नियुक्त कर सकता है क्योंकि यह किसी भी वकील का अधिकार है कि मामले को सुनने के बाद वह उसकी पैरवी करे या न करे. इस संदर्भ में मैंने जब नानावती से बात की तो वह लगातार इस प्रकरण पर हंसते रहे और उन्होंने कहा कि यद्यपि उन्हें बहुत साफ तौर पर याद नहीं है लेकिन हो सकता है कि मेहता की इसमें कोई संबद्धता रही हो.
इस मामले में वरिष्ठ वकील और राजनीतिज्ञ रामजेठमलानी ने भी अमित शाह की पैरवी की थी और उनके साथ ही नानावती ने अदालत को आश्वस्त किया कि शाह की जमानत के लिए सीबीआई जो भी शर्तें रखेगी उसका वह पालन करेंगे और यहां तक कि बाद में सीबीआई अपनी कुछ शर्तें जोड़ सकती है. सीबीआई के इन दावों के बावजूद कि जेल में रहते हुए भी अमित शाह गवाहों को धमका रहे हैं, गुजरात उच्च न्यायालय ने शाह के जमानत अनुरोध को स्वीकार कर लिया और जमानत दे दी.
शाह के साथ जैसे जैसे मेहता के संबंध घनिष्ठ होते गए, वह संजीव भट्ट से अलग होने लगे जो 2002 के दंगों के शिकार लोगों के संघर्ष में लगे कार्यकर्ताओं के साथ तेजी से घुल मिल रहे थे. अप्रैल 2011 में संजीव भट्ट ने नानावती आयोग के सामने एक हलफनामा दाखिल किया. इसमें उन्होंने कहा था कि दंगों के शुरू होने के समय उस बैठक में वह मौजूद थे जिसमें मोदी ने पुलिस वालों को निर्देश दिया कि दंगाइयों को ‘‘गुस्सा निकालने दिया जाय.’’
भट्ट ने जल्दी ही आयोग के सामने एक पूरक हलफनामा भी दाखिल किया. उन्होंने बताया कि एक बार जब मेहता के फोन पर वह साथ बिताई पारिवारिक छुट्टियों का ब्यौरा ढूंढ रहे थे, उन्हें मेहता के व्यक्तिगत ई मेल में कुछ अजीबोगरीब संदेश देखने को मिले. भट्ट ने अपने हलफनामें में इन ई मेल की प्रतियां भी संलग्न की थीं. मेहता ने भट्ट पर आरोप लगाया कि उन्होंने उनके ई मेल एकाउंट से छेड़छाड़ की और उसे ‘हैक’ किया.
जैसा कि भट्ट ने अपने हलफनामें में बयान किया था, ई मेल से घटनाओं का निम्नांकित क्रम पता चलता है. अतिरिक्त महाधिवक्ता के रूप में मेहता ने एसआईटी के सरकारी ई मेल एकाउंट से दंगों के मामलों की जांच की गोपनीय रिपोर्ट प्राप्त की थी. इस रिपोर्ट को उन्होंने स्वामीनाथन गुरुमूर्ति को फारवर्ड किया जो बीजेपी नेतृत्व से घनिष्ठ संबंध रखने वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रभावशाली सिद्धांतकार हैं. गुरुमूर्ति ने इस रिपोर्ट को पढ़ने के बाद इसके जवाब में एक टिप्पणी तैयार की और फिर उसे राम जेठमलानी और महेश जेठमलानी को भेजा. दोनों 2002 के दंगों के कई आरोपियों की ओर से अदालत में पैरवी कर रहे थे. एसआईटी ने जांच के उद्देश्य से जनता के वकीलों का जो गठन किया था उनकी तो बात ही छोड़ दीजिए, इस रिपोर्ट को देखने का अधिकार राज्य के वकील और इस मामले के एमिकस के अलावा और किसी को नहीं था.
गुरुमूर्ति ने एसआईटी की इस गोपनीय रिपोर्ट पर अपनी टिप्पणी को ‘‘दि हिंदू’’ के संपादक एन राम को भी भेजा और उनसे कहा कि ‘‘किसी से बात करने से पहले मुद्दों को समझने के लिए’’ वह पहले इस रिपोर्ट को पढ़ लें. बाद में गुरुमूर्ति ने बताया कि उन्हें ऐसा काई ई मेल नहीं मिला जिसका एसआईटी से किसी तरह का सरोकार हो. एन राम ने भी कहा कि उन्हें ऐसे किसी पत्राचार की याद नहीं है और यह भी याद नहीं है कि इस सिलसिल में गुरुमूर्ति से उन्हें काई ई मेल मिला था. आयोग के सामने भट्ट ने एसआईटी के प्रमुख, सीबीआई के पूर्व निदेशक आर के राघवन पर आरोप लगाया था कि गुजरात में मोदी सरकार के खिलाफ मिले सबूत को वह नजरअंदाज कर रहे हैं. हिंदुस्तान टाइम्स से बातचीत में राम ने राघवन को ‘‘घनिष्ठ पारिवारिक मित्र’’ बताया और साथ ही कहा कि ‘‘हमारे बीच कभी गुजरात दंगों को लेकर कोई बात नहीं हुई.’’
ईमेल की एक दूसरी श्रृंखला पर आधारित इस हलफनामे में यह भी बताया गया था कि कैसे मेहता ने दंगों के दौरान सबसे बुरे नरसंहारों में से एक में शामिल बीजेपी के राजनीतिज्ञ बिपिन पटेल के वकील के पास एक याचिका का मसविदा भेजा था ताकि उसे पटेल की ओर से दायर किया जा सके. इसके बाद मेहता ने पटेल की याचिका के जवाब में अपना हलफनामा तैयार किया और इसे जीसी मुरमू के पास भेजा. उस समय मुरमू मोदी के प्रधान सचिव थे. वह दंगों से संबंधित मामलों के प्रमुख अभियुक्तों में से एक थे. जवाबी हलफनामे को उन्होंने गुरुमूर्ति को भी भेजा जिन्होंने उसे संपादित किया और फिर जेठमलानी के पास भेज दिया. उक्त हलफनामा एक अन्य आरोपी अमित शाह के दफ्तर भी भेजा गया. इसका अर्थ यह हुआ कि अतिरिक्त महाधिवक्ता ने आरोपियों में से एक द्वारा दायर किए जाने के लिए याचिका तैयार की और फिर राज्य की तरफ से इस याचिका का जवाब तैयार किया और साथ ही मामले से संबद्ध अन्य आरोपियों के साथ इस जानकारी को साझा किया.
हलफनामे में ई-मेल के जरिए प्राप्त जानकारियां भी सामने लाई गई थीं. गुरुमूर्ति ने एक ज्ञापन तैयार किया जिसमें नागरिक अधिकार कार्यकर्ता और दंगों के शिकार लोगों की ओर से याचिकाकर्ता तीस्ता सीतलवाड के खिलाफ जांच की मांग की गई थी. गुरुमूर्ति ने इस ज्ञापन को शाह, मोदी और महेश जेठमलानी को भेजा. बाद में शाह ने मेहता को भेजा जिसने गुजरात के रेजिडेंट कमिश्नर के आधिकारिक ईमेल पर फॉरवर्ड कर दिया. यह ज्ञापन बीजेपी के दिग्गज नेताओं लालकृष्ण आडवाणी, नितिन गडकरी, सुषमा स्वराज और अरुण जेटली द्वारा राष्ट्रपति तथा प्रधानमंत्री को दिया जाना था लेकिन यह कभी नहीं हुआ.
भट्ट ने अपने हलफनामे में बताया था कि किस तरह 26 जुलाई 2010 को, जिस दिन अमित शाह की गिरफ्तारी हुई थी, गुरुमूर्ति ने गडकरी और मेहता को लिखा कि यह गिरफ्तारी एक साजिश है जिसमें राजस्थान के बीजेपी नेता शामिल हो सकते हैं. कुछ दिनों बाद उन्होंने शाह के बचाव में कुछ दस्तावेज महेश जेठमलानी को भेजे. इसके बाद गुरूमूर्ति ने मेहता और जेठमलानी को एक ईमेल भेजा जिसमें उन दस्तावेजों की मांग की गई थी जिसे अमित शाह के बचाव के लिए तैयार किया गया था और भट्ट के शब्दों में ही कहे तो "ज्यादा से ज्यादा समन्वय और तुरंत संवाद स्थापित करने" का अनुरोध किया गया था. गुरुमूर्ति ने शाह की जमानत याचिका के लिए जो दस्तावेज तैयार किया था उसे मेहता को भी ईमेल कर दिया.
स्क्रोल से बातचीत में वकील प्रशांत भूषण ने कहा के "दस्तावेजों और हलफनामों के साथ सही-सही ईमेल का उल्लेख करते हुए कभी भी अदालत में इतना स्पष्ट मामला नहीं आया था. इतना ही नहीं, यह व्यक्ति, तुषार मेहता सुप्रीम कोर्ट में गुजरात सरकार का पक्ष प्रस्तुत करने के लिए खड़ा होता था. तुषार मेहता, सुप्रीम कोर्ट में गुजरात राज्य की ओर से वकील के रूप में पेश होता था, उसे गुजरात राज्य के वे हलफनामे मिल रहे हैं जिन्हें आरोपियों के वकील ने तैयार किया है और अंतिम रूप दिया है. अगर यह साजिश नहीं है तो साजिश किसे कहेंगे?"
भट्ट ने दावा किया कि इन सारे ईमेल को 2009 और 2010 में ही उन्होंने ढूंढ लिया था लेकिन इस पर उन्होंने पहले इसलिए कुछ नहीं कहा क्योंकि वह मेहता को समझाने में लगे थे कि वह खुद को साफ सुथरा रखें. मेहता ने ऐसा नहीं किया. प्रशांत भूषण ने, जिन्होंने बाद में अदालत में भट्ट की ओर से पैरवी की, आगे बताया कि "इन घटनाओं से तुषार मेहता की बेटी को अपने पिता से इतनी खीझ हुई कि वह अपना घर छोड़कर संजीव भट्ट के घर आ गई और वहीं एक साल तक रही."
गुजरात में कार्यकर्ताओं के एक समूह ने मांग की कि मेहता फौरन इस्तीफा दें. राज्य के राज्यपाल के नाम लिखे एक पत्र में लोगों ने मेहता पर "संवैधानिक पद के शर्मनाक दुरुपयोग" का आरोप लगाया. लेकिन सरकार ने कुछ नहीं किया और मेहता अतिरिक्त महाधिवक्ता के पद पर बने रहे.
सब कुछ सार्वजनिक हो जाने के बाद भी कुछ नहीं बदला. 2009 में गुजरात उच्च न्यायालय ने एक और एसआईटी का गठन किया जिसे पाँच वर्ष पूर्व इशरत जहान तथा अन्य तीन लोगों की गैरन्यायिक हत्या की जांच का काम सौंपा गया. इस मामले में भी अमित शाह मुख्य अभियुक्त थे. नवंबर 2011 में मेहता ने प्रफुल्ल खोडा पटेल से मुलाकात की जो उस समय गुजरात के गृह राज्य मंत्री थे; और राज्य के महाधिवक्ता कमल त्रिवेदी, मोदी के प्रधान सचिव जीसी मुरमू और जी एल सिंघल से मुलाकात की जो पुलिस अधिकारियों में से एक थे जिन पर इशरत जहां तथा अन्य लोगों को मारने का आरोप था. सिंघल ने, जिन्हें आने वाले दिनों में अपने गिरफ्तार होने की आशंका थी, चोरी-छिपे अपनी बातचीत को रिकॉर्ड किया जिसमें एसआईटी जांच को विफल करने के तरीकों पर विचार किया गया था.
मेहता ने मेरे पास जो जवाब भेजा उसमें खास तौर पर इस बैठक के बारे में या अतीत की कई अन्य घटनाओं के बारे में कोई टिप्पणी नहीं की. लेकिन उन्होंने यह लिखा कि, "आपके बहुत से सवालों का संबंध या तो उन न्यायिक कार्यवाहियों से है जो विचाराधीन हैं अथवा सक्षम अदालतों द्वारा निपटाए जा चुके हैं. इसलिए ऐसे किसी भी सवाल पर मैं टिप्पणी नहीं करूंगा जो विचाराधीन हैं या अदालतों द्वारा हल किए जा चुके हैं या जिन्हें मैं पूरी तरह अनावश्यक समझता हूं या जो पूरी तरह गलत तथ्यों पर आधारित हैं."
तहलका ने 2013 में सिंघल की रेकार्डिंग का ट्रांस्क्रिप्ट प्रकाशित किया. उस समय तक मोदी प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार बन चुके थे लेकिन गुजरात से दिल्ली तक की उनकी चढ़ाई के रास्ते में यह कुछ खास बाधा नहीं बना. दंगों के बारे में एसआईटी की जांच यह पता करने में विफल रही कि उन्होंने कुछ गलत किया था और अदालतों ने उनके खिलाफ नई याचिकाओं को स्वीकार करने से बार बार इनकार किया था. आम चुनाव की चहल पहल शुरू हो गयी थी और जब सीबीआई ने यह कहा कि अमित शाह के खिलाफ अभियोग चलाने का उसके पास पर्याप्त सबूत नहीं है (जिसने जांचकर्ताओं को भी हैरानी में डाल दिया), इसके बाद इशरत जहां का मामला खारिज हो गया. एक सप्ताह बाद चुनाव नतीजे घोषित हुए और मोदी को भारी बहुमत से जीत मिली.
नए प्रधानमंत्री शासन के गुजरात मॉडल को दिल्ली लाए. याग्निक ने मुझसे बताया कि ‘‘यह कहना ठीक होगा कि तुषार मेहता नरेन्द्र मोदी के बहुत करीब नहीं हैं" लेकिन अमित शाह, जिनके साथ हर अवसर पर मेहता खड़े रहते थे, अब देश के दूसरे सबसे ताकतवर राजनीतिज्ञ की हैसियत में पहुंच गए थे. वह सोहराबुद्दीन शेख के मामले में जमानत पर थे और उन्हें बीजेपी का अध्यक्ष बनाया गया. मेहता को एडीशनल सॉलिसिटर जनरल ऑफ इंडिया का पद मिला.
लेकिन उनका अतीत कभी भुलाया नहीं जा सका. एक पूर्व कांग्रेसी, जिसकी भले ही बहुत सामान्य सी प्रतिबद्धता रही हो, बीजेपी में यहां तक पहुंच गया. याग्निक ने बताया, "प्रधानमंत्री के मन में मेहता के प्रति बहुत प्रशंसा का भाव नहीं रहा होगा क्योंकि उन्हें पता था कि इस व्यक्ति ने पाला बदला है- आरएसएस की विचारधारा से इसका कोई संबंध नहीं है.’’ मेहता ने खुद भी उनसे एक बार ऐसा ही कहा था. कुछ वर्ष पूर्व एक बार जब वे सुप्रीम कोर्ट के बरामदे में मिले तो मेहता ने याग्निक से कहा कि जब वह मोदी और शाह से मिलते हैं तो वे मजाक में कहते हैं कि "देखो भाई, ये सेकुलरिस्ट आ गए."
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‘‘मंच पर और मंच से नीचे बैठे सभी विशिष्ट जन और हम सब, चाहे जहां भी बैठे हों, हम यहां एक ही मकसद से इकट्ठा हुए हैं और एक ही मानसिक और आध्यात्मिक स्तर पर यहां बैठे हैं,’’ मेहता ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के अधिवक्ता प्रकोष्ठ अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद के रजत जयंती समारोह के अवसर पर अपने संबोधन में कहा. इस संगठन ने ऐतिहासिक तौर पर बहुत साफ शब्दों में यह स्पष्ट कर दिया था कि न्यायपालिका को हिंदुत्व के दायरे में लाया जाए. सितंबर 2016 में आयोजित इस रजत जयंती समारोह का शीर्षक था- संविधान--भारतीय मूल्यों का एक मूर्तरूप’’ और भारत के एडीशनल सॉलिसिटर जनरल के रूप में मंच पर मेहता की मौजूदगी ने न्यायिक मामलों में वैचारिक दखलंदाजी को लेकर लोगों की चिंताएं तीव्र कर दी थीं.
ये चिंताएं उस समय पूरी तरह सार्वजनिक हो गयीं जब मोदी सरकार द्वारा 2014 में चौंका देने वाली तेजी के साथ 99वां संविधान संशोधन पारित किया गया. इस संशोधन के जरिए नेशनल जुडीशियल अपाइंटमेंट्स कमीशन (एनजेएसी) का गठन किया गया जिसके पास उच्चतर न्यायपालिका में नए लोगों को प्रवेश देने का और जजों के स्थानांतरण का अधिकार था. इसने कॉलेजियम प्रणाली से अपनी हैसियत बड़ी बना ली थी क्योंकि अब तक यह अधिकार इस प्रणाली के अंतर्गत महज सुप्रीम कोर्ट के पांच वरिष्ठतम न्यायाधीशों के पास था. एनजेएसी का गठन तीन वरिष्ठतम न्यायाधीशों के साथ ही कानून मंत्री और प्रधानमंत्री द्वारा नामजद दो ‘‘विशिष्ट व्यक्तियों’’, विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश को लेकर किया जाना था. कार्यपालिका द्वारा इस तरह की दखल न्यायाधीशों को रास नहीं आयी क्योंकि खासतौर पर इसी को रोकने के लिए 1993 में कॉलेजियम प्रणाली को शुरू किया गया था.
बाहरी हस्तक्षेप से पृथक कॉलेजियम न तो अपनी विवेचना का खुलासा करता था और न अपनायी गयी किसी प्रक्रिया का. इससे पहले अनेक भूतपूर्व न्यायाधीशों ने भाई भतीजावाद और व्यक्तिगत प्रतिशोध को इसके फैसलों को प्रभावित करने की चर्चा की थी और इस प्रणाली से लाभान्वित जब जज बनते थे तो उन्होंने इसमें सुधार लाने की दिशा में कुछ भी नहीं किया. भ्रष्टाचार के मामलों से धूमिल छवि वाले जजों की एक लंबी सूची थी और उनमें से किसी को जवाबदेह नहीं बनाया गया. दंडमुक्ति को संस्थागत रूप दे दिया गया था.
एनजेएसी के साथ अपनी कुछ समस्याएं भी प्रारंभ से थीं. यह स्पष्ट हो गया था कि मोदी सरकार ऐसे किसी भी व्यक्ति को प्रमुख पद पर नहीं रखेगी जिन्हें वह अपने लिए असुविधाजनक मानती है. कॉलेजियम प्रणाली ने विधि मंत्रालय को प्रस्तावित नए नामों के मूल्यांकन का अवसर दिया और विधि मंत्रालय ने कॉलेजयम से कहा कि अगर कोई नाम आपत्तिजनक है तो उस पर वह पुनर्विचार करे. जून 2014 में जब गोपाल सुब्रमणियम का नाम सुप्रीम कोर्ट के लिए प्रस्तावित किया गया तो सरकार ने उस नाम को वापस भेज दिया जबकि उसी समय ए के गोयल और अरुण मिश्रा के नाम को हरी झंठी दिखा दी.
गोयल किसी जमाने में एबीएपी के महासचिव थे और मिश्रा की नियुक्ति को इससे पहले दो बार आरएसएस के साथ उनकी कथित नजदीकी की वजह से नामंजूर कर दिया गया था. दूसरी तरफ गोपाल सुब्रमणियम ने सोहराबुद्दीन शेख के मामले में अदालत को सहयोग किया था. उनके ही सुझाव पर अमित शाह को जमानत मिलने के कुछ समय बाद ही एक वर्ष तक इस भय से गुजरात आना प्रतिबंधित कर दिया गया था कि वह अपने खिलाफ चल रहे मामले को पलट सकते हैं. सुब्रमणियम ने इस नामांकन के लिए अपनी सहमति वापस ले ली. उनका कहना था कि सरकार ने उनके खिलाफ निंदा अभियान चलाया और कोर्ट ने उनके पक्ष में खड़ा होने की दिशा में कुछ भी नहीं किया.
इस बीच सोहराबुद्दीन शेख के मामले की सुनवाई करने वाले जज बी॰एच॰ लोया इस मामले के प्रमुख अभियुक्त अमित शाह पर सुनवाई के दौरान अदालत में उपस्थित रहने का दबाव डाल रहे थे. नवंबर 2014 में कथित तौर पर हार्ट अटैक की वजह से लोया की अचानक मृत्यु हो गयी. उनके स्थान पर एम बी गोसावी जज नियुक्त हुए और एक माह के अंदर ही उन्होंने अमित शाह को दोषमुक्त घोषित कर दिया. अभियोजन पक्ष को बहस के लिए समय भी नहीं दिया गया.
एनजेएसी की संवैधानिकता को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं दाखिल की गयीं. गुजरात राज्य की ओर से मेहता ने पैरवी की. उनकी दलीलें आमतौर पर एक खानापूर्ति थीं और वे 99वें संशोधन का समर्थन करती थीं. उन दिनों मेहता छः एडीशनल जनरल सॉलिसिटर की टीम के एक सदस्य थे और अदालत में उनकी मौजूदगी शायद ही कभी देखी गयी हो. दिल्ली में सत्ता के गलियारे में उनकी छवि सुप्रीम कोर्ट में नई सरकार के अधिवक्ता के रूप में कम और मोदी तथा शाह के निजी गुट के उस सदस्य के रूप में ज्यादा थी जिसे गुजरात से दिल्ली लाया गया था.
2002 के दंगों के दौरान मोदी के प्रधान सचिव पी के मिश्रा अब प्रधानमंत्री कार्यालय में प्रमुख नौकरशाह थे जो प्रशासन में अपने मित्र समूह की नियुक्तियों और तबादलों का काम संभालते थे. जी सी मुरमू को, जिन्होंने इशरत जहां की हत्या के मामले में चल रही जांच को विफल करने के लिए हुई बैठक की मेहता के साथ चोरी छिपे मिलकर रिकॉर्डिंग की थी, वित्त मंत्रालय में स्थापित कर दिया गया. संजय भवसार, जिन्हें किशोर लूला की सौर परियोजना में मदद करने के लिए मेहता ने मुरमू के साथ संपर्क किया था, अब प्रधानमंत्री के कार्यालय में ऑफिसर आन स्पेशल ड्यूटी (ओएसडी) बन चुके थे. इस गुट के अन्य कई सदस्यों को प्रधानमंत्री के कार्यालय और अन्य मंत्रालयों में नियुक्त कर दिया गया था.
सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में एनजेएसी को असंवैधानिक घोषित किया और इसने इमर्जेंसी की याद दिला दी जिसमें न्यायपालिका में कार्यपालिका का जबर्दस्त हस्तक्षेप बढ़ गया था और जो कॉलेजियम के गठन का मुख्य कारण बना था. अक्टूबर 2015 में जब इस फैसले की घोषणा हुई तो बीजेपी के प्रवक्ताओं का गुस्सा फूट पड़ा. कानून मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने इसे संसदीय संप्रभुता के लिए आघात कहा. अरुण जेटली ने, जो कानून के क्षेत्र से लगभग रवि शंकर प्रसाद की ही तरह जुड़े थे, कहा कि इस फैसले ने ‘‘अनिर्वाचितों के अत्याचार’’ को बढ़ावा दिया है.
इस अवधि के दौरान अदालत में मेहता की मौजूदगी में से अनेक का सरोकार उन्हीं मामलों से था जो गुजरात दंगों के समय से घिसटते चले आ रहे थे. तीस्ता सीतलवाड पर आरोप लगा कि उन्होंने एक स्मारक बनाने के लिए पैसों का घपला किया है और गुजरात हाईकोर्ट ने तीस्ता की गिरफ्तारी का आदेश जारी किया. सुप्रीम कोर्ट ने गिरफ्तारी पर दो बार रोक लगाई--मेहता के इस विरोध के बावजूद कि तीस्ता के खिलाफ आरोप ‘‘स्तब्ध’’ कर देने वाले हैं. एक रिपोर्ट के अनुसार मेहता ने कहा कि तीस्ता ने इन पैसों को ‘‘ब्रांडेड कपड़ों और जूतों की खरीद जैसी अय्याशी" पर बेतहाशा खर्च किए हैं.
संजीव भट्ट भी अब दुराचार के आरोपों को झेल रहे थे. उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से अपील की कि गुजरात पुलिस द्वारा उनके खिलाफ दर्ज दो एफआईआर की वह जांच करे. पहले एफआईआर में भट्ट पर आरोप लगाया गया था कि उन्होंने अपने एक मातहत पुलिस अधिकारी से झूठे हलफनामे पर दस्तखत कराया और दूसरे एफआईआर में मेहता के ईमेल एकाउंट को हैक करने और उससे छेड़छाड़ करने का आरोप था. मेहता के ईमेल में भट्ट को जो मिला था उस पर संज्ञान लेने की बात जब उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के सामने रखी तो अरुण मिश्रा और तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एचएल दत्तू की पीठ ने जांच के भट्ट के अनुरोध को मानने से इनकार कर दिया और उन पर ही गंभीर आरोप लगाया कि वह ‘‘प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक पार्टी के नेताओं तथा गैर सरकारी संगठनों की सलाह पर और उनसे बातचीत करके काम कर रहे हैं.’’
मिश्रा द्वारा लिखे गए फैसले का ज्यादा सरोकार कानून से संबद्ध मसलों के मुकाबले भट्ट के चरित्र से संबंधित था. ऐसा ही गुजरात राज्य की ओर से पेश होने वाले सॉलिसिटर जनरल रंजीत कुमार और मेहता की ओर से पेश होने वाले एडीशनल सॉलीसीटर जनरल एल नागेश्वर राव चाहते थे. न्यायाधीश मिश्रा ने लिखा कि ‘‘याचिकाकर्ता अदालत में क्लीनहैंड्स (बेदाग) नहीं आया.’’ और ‘‘इसलिए वह किसी न्याय का हकदार नहीं है.’’ राव ने मिश्रा के ही शब्दों में कहा कि "द्वारा, जिसका कार्य खुद ही यह संकेत देता है कि वह इस अदालत में 'क्लीन हैंड्स' के साथ नहीं आया, बहुत भद्दे ढंग से...पूरी तरह अवांछित आरोप लगाए गए."
आगे इस फैसले में न्यायपीठ के बारे में बोलते हुए मिश्रा ने लिखा कि ‘‘यह नहीं कहा जा सकता कि इस अदालत में याचिकाकर्ता क्लीनहैंड्स के साथ आया.’’ पीठ ने मेहता के मेल बॉक्स की सामग्री में कुछ भी अनुचित नहीं देखा जिसे भट्ट ने अपने हलफनामे के साथ नत्थी किया था. मिश्रा ने लिखा- ‘‘हमारी राय में अदालत में जवाब दाखिल करने से पहले अगर कोई व्यक्ति किसी ऐसे व्यक्ति की राय लेता है जो मुकदमें से संबद्ध नहीं है तो किसी भी तरह इससे न्याय प्रक्रिया बाधित नहीं होती और यह किसी आपराधिक साजिश का भी संकेत नहीं है.’’ आगे मिश्रा ने एक जगह फिर लिखा- ‘‘ऐसे बहुत से जानकार लोग हैं जिनसे कभी भी सलाह ली जा सकती है और उनकी राय को महत्व दिया जा सकता है. इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है.’’
भट्ट ने पत्रकारों, कार्यकर्ताओं और वकीलों के साथ जिन ई मेल का आदान प्रदान किया था उसे भी रंजीत कुमार अदालत के संज्ञान में लाए. मिश्रा ने लिखा कि ‘‘भट्ट एक महिला एक्टिविस्ट और उसके वकील के निरंतर संपर्क में थे. ई मेल से पता चलता है कि याचिकाकर्ता का राजनीतिज्ञों, गैर सरकारी संगठनों, कार्यकर्ताओं, आदि से नापाक गठजोड़ था.’’ मिश्रा की निगाह में ये सारी बातें भट्ट के गंदे अतीत का ही प्रमाण थीं. उनकी याचिका को खारिज कर दिया गया. मेहता, मुरमू, गुरुमूर्ति, जेठमलानियों और अन्य लोगों से, जिनका ई मेल में उल्लेख था, कहा भी नहीं गया कि वे अपना पक्ष रखें. फैसले में उनके क्लीन हैंड्स होने के प्रति कोई उत्सुक्ता नहीं दिखाई गयी.
आगे चलकर भट्ट को दो दशक पूर्व हिरासत में हुई एक मौत के किसी अन्य मामले में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी. अहमदाबाद के साबरमती केंद्रीय कारागार में वह अपने दिन गुजार रहे हैं. उनके परिवार का दावा है कि उन्हें राजनीतिक उत्पीड़न का शिकार बनाया गया. मेहता ने मेरे उन सवालों का जवाब नहीं दिया जो भट्ट के साथ उनके संबंधों और उनके इतिहास से जुड़े हुए थे.
भट्ट के ई मेल से संबंधित मामले में फैसला अदालत द्वारा एनजेएसी को रद्द किए जाने से कई दिन पहले आया था और बीजेपी के प्रवक्ता इस अंतरिम काल में ‘‘माननीय अदालत’’ कहने में तनिक भी चूक नहीं करते थे.
कुछ महीने बाद फरवरी 2016 में जी न्यूज ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुए छात्रों के एक विरोध प्रदर्शन का वीडियो प्रसारित किया और उसमें भारत विरोधी नारों को गलत ढंग से डाल दिया. इसके बाद इन कथित देशद्रोहियों केा दंडित करने का मीडिया और ऑन लाइन माध्यमों में एक जुनून पैदा हो गया. तत्कालीन गृहमंत्री राजनाथ सिंह भी इस भर्त्सना में शामिल हुए और उनके वक्तव्य के कुछ ही घंटे बाद फर्जी वीडियो के आधार पर दिल्ली पुलिस ने तीन छात्रों के खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा दर्ज किया. जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार को तुरत गिरफ्तार कर लिया गया और दो अन्य आरोपी छात्रों ने भी बाद में पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया.
छात्रों की जमानत याचिका का विरोध करने के लिए दिल्ली हाईकोर्ट में दिल्ली पुलिस की ओर से पैरवी के लिए मेहता पेश हुए. कन्हैया कुमार की जमानत याचिका पर सुनवाई शुरू होने से पहले ही यह समाचार सामने आया कि जी न्यूज के एक प्रोड्यूसर ने यह कहते हुए इस्तीफा दे दिया है कि उसके संपादकों ने फर्जी वीडियो के जरिए जानबूझ कर जनता को गुमराह किया. वीडियो की प्रामाणिकता पर अब गंभीर संदेह पैदा हो गया था. ऐसी हालत में मेहता ने जज से इस बात की इजाजत मांगी कि वह एक सीलबंद लिफाफे में अर्थात ऐसे लिफाफे में जिसे केवल जज ही खोल सकें, एक स्टैटस रिपोर्ट देना चाहते हैं. उनका यह अनुरोध नामंजूर कर दिया गया. बाद में उन्होंने जो रिपोर्ट दाखिल की उसमें पुलिस के इस दावे का उल्लेख था कि कोई ‘‘बड़ी साजिश’’ तैयार की गयी है जिसमें ‘‘चेहरे पर नकाब लगाए विदेशी तत्व’’ शामिल थे.
मेहता ने न्यायपीठ से यह भी कहा कि अभी और पूछताछ के लिए कन्हैया कुमार की हिरासत की अवधि बढ़ाई जाय. उनका यह अनुरोध मान लिया गया. छः दिनों बाद अगली सुनवाई तक कन्हैया कुमार लगभग तीन सप्ताह हिरासत में गुजार चुके थे. अब मेहता के जरिए पुलिस ने अदालत को बताया कि उसके पास ऐसा कोई फुटेज नहीं है जिसमें कन्हैया कुमार भारत विरोधी नारे लगा रहे हों. उनके पास बस केवल एक 'क्लिप' है जिसमें विरोध प्रदर्शन में कन्हैया कुमार दिखाई दे रहे हैं और इसके अलावा कुछ भी नहीं है. न्यायाधीश ने मेहता से पूछा कि क्या उन्हें पता है कि देशद्रोह का अर्थ क्या होता है. नतीजतन सभी तीनों छात्रों को जमानत दे दी गयी.
उसी वर्ष बाद में बीजेपी शासित राज्य छत्तीसगढ़ की ओर से मेहता सुप्रीम कोर्ट में एक नरसंहार के मामले में पेश हुए जो राज्य द्वारा पोषित मिलीशिया द्वारा किया गया था. छत्तीसगढ़ में सुरक्षा बलों द्वारा मानवअधिकारों का हनन हुआ था और पत्रकारों तथा राजनीतिक कार्यकर्ताओं को डराया धमकाया गया था. न्यायाधीश मदन लोकुर के नेतृत्व वाली पीठ ने छत्तीसगढ़ सरकार और केंद्र सरकार से कहा कि राज्य में सक्रिय माओवादी ग्रुपों के साथ वह शांतिवार्ता शुरू करे और इस सिलसिले में लोकुर ने मेहता को संकेत करते हुए कोलंबिया की सरकार और कोलंबिया के सशस्त्र विद्रोहियों के बीच हाल में हुए समझौते का उदाहरण दिया. मेहता ने वादा किया कि वह इस मसले पर ‘‘सर्वोच्च स्तर पर सरकार से बातचीत करेंगे.’’
एक सप्ताह बाद मेहता ने अदालत को बताया कि वास्तविक समस्या यह है कि कुछ लोग ‘‘आग को सुलगाए रखना चाहते हैं.’’ शांतिवार्ता की बजाय मेहता ने माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में काम कर रहे गैर सरकारी संगठनों पर प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव रखा. उन्होंने कहा, ‘‘हम उस इलाके को छोड़ नहीं सकते. राज्य का दायित्व है कि वह जनता के जीवन की रक्षा करे. यह हमारी जिममेदारी है. आग को जलते रहना छोड़ना कोई समाधान नहीं है.’’
इसके कुछ ही समय बात छत्तीसगढ़ की पुलिस ने ऐलान किया कि उसने हत्या के एक मामले में एफआईआर किया है जिसमें जिन लोगों को अभियुक्त बनाया गया था उनमें दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर नंदिनी सुंदर शामिल थीं जिन्होंने माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में काम किया था. कुछ ही दिनों के अंदर जिस व्यक्ति के नाम से एफआईआर दर्ज किया गया था उसने एनडीटीवी को बताया कि उसने नंदिनी सुंदर अथवा किसी का नाम नहीं लिखवाया था. उसी दिन जस्टिस लोकुर की पीठ ने मेहता से कहा कि वह अदालत को आश्वासन दें कि अगली सुनवाई तक कोई गिरफ्तारी नहीं होगी. मेहता ने आश्वासन तो दे दिया लेकिन हिचकिचाते हुए कहा कि ‘‘प्रामाणिक और समसामयिक’’ दस्तावेजों से, जिन्हें अदालत में पेश किया जा सकता है, पता चलता है कि नंदिनी सुंदर तथा अन्य लोगों के खिलाफ जो आरोप लगाए गए हैं वे सही हैं.
मेहता अगली सुनवाई में उन दस्तावेजों को अदालत में लेकर आए और उन्होंने कहा कि वे इसे एक सीलबंद लिफाफे में जमा करना चाहते हैं. जज ने इसकी अनुमति नहीं दी. अदालत ने सरकार को निर्देश दिया कि अगर कोई नया साक्ष्य सामने आता है तो गिरफ्तारी से पहले सरकार चार हफ्ते की नोटिस जारी करे. दो वर्ष बाद इस मामले के सभी आरोप खत्म कर दिए गए.
2016 में सरकार के पास बहुत सारे गंभीर मामले थे जिन्हें निबटाया जाना था. उत्तराखंड में सत्ता हथियाने की बीजेपी की कोशिश से उत्पन्न संवैधानिक संकट, नोटबंदी से पैदा हुई मुसीबतों से संबंधित याचिकाएं और बहुत सारे मामले. एटोर्नी जनरल के रूप में मुकुल रोहतगी केंद्र सरकार का बोझ ढो रहे थे और बहुत सारे मामलों में मेहता उनकी मदद कर रहे थे. इन सब मामलों के बीच उन्होंने प्रधानमंत्री की शैक्षणिक योग्यता को लेकर उठे विवाद पर दिल्ली विश्वविद्यालय और गुजरात विश्वविद्यालय दोनों का पक्ष प्रस्तुत करने का समय निकाल लिया.
मोदी ने दावा किया था कि उन्होंने इन दोनों संस्थानों से डिग्री ली थी और मुख्य सूचना आयुक्त ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के एक पत्र पर कार्यवाही करते हुए दोनों विश्वविद्यालयों को निर्देश दिया कि वे इन डिग्रियों को उपलब्ध कराएं. अप्रैल में गुजरात विश्वविद्यालय ने केंद्रीय सूचना आयुक्त से मिले आदेश का विरोध करने के लिए गुजरात उच्च न्यायालय की शरण ली. एक जज की पीठ ने केजरीवाल और केंद्रीय सूचना आयुक्त को नोटिस जारी किया लेकिन इस आदेश पर स्टे नहीं दिया. मेहता एक खंडपीठ के पास गए, स्टे की मांग की और उन्हें मिल गया.
मेहता ने दलील दी कि केंद्रीय सूचना आयुक्त की कार्यवाहियों में गुजरात विश्वविद्यालय कोई पक्ष नहीं था और यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के विपरीत है कि विश्वविद्यालय को उसके दस्तावेजों को उद्घाटित करने का आदेश देने से पहले उसे सुनने का अवसर न दिया जाए. बाद में उन्होंने यह दलील दी कि केजरीवाल ने केंद्रीय सूचना आयोग के समक्ष कोई औपचारिक आवेदन नहीं किया था और इस प्रकार उन्होंने सूचना के अधिकार कानून का उल्लंघन किया. यह मामला महीनों तक घिसटता रहा.
कानूनी खींचतान के बीच बीजेपी ने मोदी की शिक्षा से संबंधित मसले को हल करने के प्रयास में एक संवाददाता सम्मेलन बुलाया. इसमें अमित शाह और अरुण जेटली ने मोदी की डिग्री की प्रतियां दिखाईं लेकिन इनसे संदेह और बढ़ गया- गुजरात विश्वविद्यालय की डिग्री में एक विषय था- ‘‘समग्र राजनीति विज्ञान’’.
अदालत में मेहता की मौजूदगी काफी अर्थपूर्ण थी. जब मामला घिसटते हुए दिसंबर तक पहुंच गया तब केजरीवाल ने ट्वीट किया- ‘‘मोदी जी ने अपने सबसे अच्छे एडवोकेट तुषार मेहता को भेजा है ताकि डिग्री का खुलासा होने पर वह अदालत से स्टे ले सकें.’’ ‘‘ऐसा क्यों?’’ उन्होंने हैरानी व्यक्त करते हुए कहा कि ‘‘क्या डिग्री फर्जी है?’’ इसके बाद एक बार और मामले पर सुनवाई स्थगित हुई क्योंकि इस बार मेहता दिल्ली से गुजरात हाईकोर्ट तक पहुंचने में असमर्थ रहे. आधा साल बीत जाने के बाद भी अभी कोर्ट में यही बहस हो रही थी कि यह मामला किस जज के पास जाएगा क्योंकि एक जज से दूसरे जज के यहां मामले को हस्तांतरित करने के बारे में मेहता लगातार दलील दे रहे थे. आखिरकार उन्हें केंद्रीय सूचना आयुक्त के आदेश को निरस्त कराने में कामयाबी मिल गयी.
एक दूसरे आदेश में सूचना आयोग ने दिल्ली विश्वविद्यालय को निर्देश दिया था कि 1978 से अब तक, जिस अवधि में मोदी के ग्रेजुएट होने की बात कही जा रही थी, दिल्ली विश्वविद्यालय सभी स्नातकों के नामों की घोषणा करे. 2016 के समाप्त होते होते विश्वविद्यालय की ओर से मेहता हाईकोर्ट पहुंचे और उन्होंने इस आदेश पर भी रोक लगाने की मांग की. इस बार उन्होंने दलील दी कि अगर ऐसी कोई सूची जारी की जाएगी तो यह स्नातकों की निजता का उल्लंघन होगा. उन्होंने कहा कि केंद्रीय सूचना आयोग के इस ‘‘मनमाने’’ आदेश का ‘‘देश के सभी विश्वविद्यालयों पर दूरगामी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा क्योंकि यहां करोड़ों की संख्या में विश्वविद्यालय एक जिम्मेदारी की हैसियत से डिग्रियां रखता है.’’ अब कौन यह बताए कि बहुत सारे विश्वविद्यालयों की तरह दिल्ली विश्वविद्यालय भी वर्षों से नतीजों को अखबारों में प्रकाशित कराता रहा है या ऑन लाइन प्रसारित करता है.
स्टे मिल गया और अगली सुनवाई के लिए तीन महीने आगे की तारीख तय हुई. इससे पहले कि सुनवाई शुरू हो, आरटीआई कार्यकर्ताओं ने अदालत से अपील की कि वह हस्तक्षेप करे और इसके लिए उन्होंने केंद्रीय सूचना आयोग के आदेश को दरकिनार करने के दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रयास का उदाहरण देते हुए कहा कि आरटीआई कानून की बखिया उधेड़ी जा रही है. नवंबर 2017 में अदालत ने कहा कि वह तय करेगी कि अगली सुनवाई में हस्तक्षेप की अनुमति दी जाय या नहीं. मेहता ने अपने चिरपरिचित अंदाज में इस हस्तक्षेप का विरोध किया. उन्होंने कहा कि इन ‘‘उबाऊ बिचौलियों’’ के पास इसका कोई आधार नहीं है और ये ‘‘अनुचित कारणों’’ से ऐसा करने के लिए बेताब हैं. जब कोर्ट ने मेहता से पूछा कि क्या वह हस्तक्षेप करने वालों से एमिकस क्यूरी बनने के अनुरोध पर सहमत होंगे तो मेहता ने एक बार और स्थगन की अपील की. अब अगली सुनवाई के लिए अगस्त 2018 तय हुआ.
यह मामले को स्थगित कराने के मेहता के असाधारण कौशल का सबूत है कि मोदी की डिग्री का मामला अभी भी दिल्ली उच्च न्यायालय में अटका पड़ा है. अंतिम स्थगन जनवरी 2020 में दिया गया क्योंकि मेहता किसी और मामले में व्यस्त थे. एक साल के अंदर इस मामले की सुनवाई पांचवीं बार स्थगित की गयी.
एक तरफ तो मेहता ने केंद्रीय सूचना आयोग के आदेशों को रोक दिया और दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट और उसके साथ ही खुद न्यायपालिका को विकृत करने के मक़सद से एक नया रूप दिया जाने लगा. अब जजों ने कार्य-पालिका की इच्छा का और भए ज्यादा पालन शुरू किया और मेहता ने कार्य-पालिका की इच्छा को अदालतों में और भी ज्यादा स्वर दिया.
याग्निक का कहना है कि ‘‘एटोर्नी जनरल, सॉलिसीटर जनरल या एडीशनल एटोर्नी जनरल जैसे विधि अधिकारियों का दायित्व संविधान की रक्षा करना और कानून से संबंधित मामलों में सरकार को सलाह देना होता है. लेकिन आजकल वे एक ऐसे व्यक्ति हो गए हैं जिनके जरिए कार्य-पालिका अपने प्राधिकार का विस्तार न्याय-पालिका तक करने लगी है.’’ अपनी बात जारी रखते हुए उन्होंने कहा कि "मेहता तो अमित शाह के आदमी हैं- सुप्रीम कोर्ट तक में भी. यही हालत गुजरात में थी. वह एक एडीशनल एडवोकेट जनरल के रूप में अपने पद का दुरुपयोग कर रहे थे.’’
सुप्रीम कोर्ट से खीझ कर, खासतौर पर एनजेएसी पर उसके आदेश के बाद, सरकार ने कॉलेजियम की संस्तुति से की जाने वाली नियुक्तियों को औपचारिक रूप देने में भी टालमटोल शुरू किया. 2016 में न्यायालयों में जब बहुत ज्यादा रिक्तियां हो गयीं तो तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश टी एस ठाकुर एक सार्वजनिक समारोह में बिफर पड़े और उन्होंने सरकार से अनुरोध किया कि वह खाली स्थानों को भरे. मंच पर मोदी भी बैठे थे लेकिन उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त की. इस बीच संसद में अरुण जेटली ने न्यायिक तौरतरीकों की शिकायत की- ‘‘कदम ब कदम, एक एक ईंट को खिसकाते हुए भारत की न्यायपालिका की इमारत को नष्ट किया जा रहा है.’’
2017 की शुरूआत में टी एस ठाकुर सेवा निवृत्त हो गए और उनके स्थान पर जे एस केहर मुख्य न्यायाधीश बने. इससे महज तकरीबन एक माह पूर्व एक सार्वजनिक समारोह में मुकुल रोहतगी के साथ केहर की नोकझोक हो गयी थी जब एटोर्नी जनरल ने जजों केा कहा कि वे संवैधानिक ‘‘लक्ष्मण रेखा’’ न पार करें जो सरकार की तीनों शाखाओं के कार्यों का विभाजन करती है. केहर ने पलटते ही जवाब दिया कि एनजेएसी के माध्यम से न्यायपालिका की आजादी का अवमूल्यन करते हुए कार्यपालिका ने ही इस लक्ष्मण रेखा को लांघने की कोशिश की. लेकिन नए मुख्य न्यायाधीश के रूप में केहर का जब पहला सार्वजनिक कार्यक्रम हुआ तो इस कटुता के सारे चिन्ह समाप्त हो गयी थे. मोदी की मौजूदगी में केहर ने वादा किया कि ‘‘हम अपनी सीमाओं के अदर रहेंगे.’’ कोई यह नहीं बता सकता कि उनकी इस पलटी मारने के पीछे कौन से कारक काम कर रहे थे.
मुख्य न्यायाधीश के रूप में जे एस केहर प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता के साथ तीन सदस्यों की उस समिति में शामिल हुए जिसे सीबीआई के डायरेक्टर को नियुक्त करने की जिम्मेदारी निभानी थी. जब मोदी ने अपने चहेते उम्मीदवार आलोक वर्मा का नाम आगे बढ़ाया तो विपक्ष की आपत्तियों के बावजूद केहर ने प्रधानमंत्री का पक्ष लिया. जब सुप्रीम कोर्ट मे इस आशय की याचिका पेश की गयी जिसमें पैनल की बैठक का ब्यौरा जारी करने की मांग की गयी थी तो मेहता ने केंद्र सरकार की ओर से इसके खिलाफ पैरवी की. उन्होंने कहा कि समिति ने एक फैसला ले लिया है और ‘‘उसके विवेक पर सवाल नहीं उठाया जा सकता.’’ अदालत ने इस पर अपनी सहमति प्रकट की.
इसी फैसले के आसपास सुप्रीम कोर्ट ने बड़े ही विवादास्पद तरीके से उस याचिका को खारिज कर दिया जिसमें सहारा-बिड़ला डायरी की छानबीन की मांग की गयी थी. इसके तुरत बाद और भी ज्यादा विवाद तब पैदा हुआ जब अरुणाचल प्रदेश के एक पूर्व मुख्यमंत्री कालिखो पुल का वह पत्र सामने आया जो उन्होंने आत्महत्या से पहले लिखा था और जिसमें केहर के रिश्तेदारों तथा मुख्य न्यायाधीश की कतार में बैठे पहले व्यक्ति दीपक मिश्रा पर आरोप लगाया गया था कि उन्होंने एक अनुकूल आदेश पाने के बदले में उनसे पैसों की मांग की थी. पुल की पत्नी ने सुप्रीम कोर्ट से एक जांच की स्वीकृति चाही थी. कोर्ट ने जब इस मामले को दबाना चाहा तो पुल की पत्नी ने अपनी याचिका वापस ले ली और राष्ट्रपति के नाम पत्र लिखा. राष्ट्रपति ने कोई जवाब नहीं दिया.
उस समय एक इंटरव्यू में वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने कहा था कि, "अफसोस की बात है कि ऐसा आभास मिल रहा है कि एक तरफ तो राज्य सरकार और केंद्र सरकार दोनों में से कोई भी उस सुसाइड नोट पर कार्रवाई नहीं कर रही है और दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट सहारा-बिड़ला मामले में फैसला लेते समय राजनीतिक पार्टियों के लोगों द्वारा कथित लाभ लिए जाने को क्लीन चिट दे रहा है."
केहर के कार्यकाल में ही मेहता यूआईडीएआई का पक्ष रखने के लिए अदालत में उपस्थित हुए. यह एजेंसी विवादास्पद आधार कार्यक्रम से जुड़ी एजेंसी है. आधार का लक्ष्य प्रत्येक भारतीय के लिए एक खास तरह की डिजिटल आईडी तैयार करना था लेकिन याचिकाकर्ताओं का कहना था कि इससे निजता के अधिकार का उल्लंघन होता है. मेहता ने अदालत को आश्वासन दिया कि हाल के आधार ऐक्ट में निजता के सवाल को रखा गया है. मीडिया में लगभग हर हफ्ते आधार के आकड़ों के उद्घाटित होने की खबरें आ रही थीं तो भी मेहता के आश्वासनों से कोर्ट संतुष्ट हो गया.
अयोध्या में बाबरी मस्जिद के स्थल से संबंधित टाइटिल डिस्प्यूट पर जल्द सुनवाई हो--जो हिंदुत्ववादियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण था--इसके लिए उत्तर प्रदेश राज्य की ओर से मेहता अदालत में पेश हुए. 1992 में हिंदुओं की एक भीड़ ने मस्जिद को गिरा दिया था-- यह आरोप लगाते हुए कि यह मस्जिद उनके नायक राम के जन्मस्थान पर बनी है और इसके स्वामित्व को लेकर मुस्लिमों और हिंदुओं के समूह में ल़ड़ाई चल रही थी. ‘दि हिंदू’ में प्रकाशित एक रिपोर्ट ने मेहता की ‘‘असाधारण उत्सुकता’’ पर ध्यान दिया. अदालत ने राज्य को 10 हफ्ते का समय दिया ताकि सभी दस्तावेजों को जो विभिन्न भाषाओं में थे और साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किए गए थे, अनुवाद कराया जा सके लेकिन मेहता ने कहा कि इसके लिए महज चार हफ्ते का समय चाहिए. अगर ऐसा नहीं तो, उनके सुझाव के अनुसार, अनुवादों का मामला छोड़ ही दिया जाए क्योंकि ‘‘सभी पक्षों को पता है कि किस दस्तावेज पर वे भरोसा करेंगे.’’ अपनी दलील में मेहता ने आगे कहा, ‘‘इसलिए हम कार्यवाही शुरू करें और सुनवाई के दौरान जिस दस्तावेज की जरूरत पड़ेगी उसका अनुवाद करा लिया जाएगा.’’ अदालत ने एक महीने का समय दिया और साथ ही यह आदेश किया कि 5 दिसंबर को पहली सुनवाई हो और पहला बयान दर्ज हो. यह बाबरी मस्जिद को अवैध रूप से ध्वस्त किए जाने की 25वीं वर्षगांठ से एक दिन पहले का समय था.
सितंबर आते आते दीपक मिश्रा ने भारत के मुख्य न्यायाधीश की शपथ ली--बावजूद इसके कि वह भूमि से संबंधित धोखा-धड़ी के मामले में दोषी पाए जा चुके थे. उसी महीने मेहता गणपति विसर्जन के दौरान साइलेंट जोन में लाउड्स्पीकरों के इस्तेमाल के खिलाफ बांबे हाईकोर्ट के एक आर्डर को चुनौती देने सुप्रीम कोर्ट आए. यह धार्मिक अनुष्ठान महाराष्ट्र में खासतौर पर हिंदुओं के लिए बहुत महत्वपूर्ण था और इस आर्डर को पलटे जाने से चुनाव की दृष्टि से बीजेपी को काफी फायदा होता. मेहता ने दलील दी- ‘‘अगर इस तरह के अखिल भारतीय कानूनों को शाब्दिक अर्थों में लागू किया जाने लगा तो आप किसी छोटे से क्लीनिक, स्कूल या यहां तक कि अदालत के परिसर के पास भी लाउड्स्पीकर का इस्तेमाल नहीं कर सकते.’’ उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा कि ऐसा अगर किया गया तो समूचा देश खामोश हो जाएगा. सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि ठीक है, शोर होने दीजिए. अगले महीने ‘दि वायर’ ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की कि अमित शाह के बेटे जय शाह के व्यापार में मोदी सरकार के आने के बाद से असीमित मुनाफा हुआ है. मेहता ने एक संवाददाता सम्मेलन में ऐलान किया कि वह दि वायर के खिलाफ मान हानि के मामले में अमित शाह के बेटे की पैरवी करेंगे. चूंकि विधि अधिकारियों को निजी मामलों में पैरवी करने की इजाजत नहीं है लिहाजा मेहता को विधि मंत्रालय से विशेष अनुमति लेने की जरूरत थी. उन्हें यह अनुमति मिल गयी.
नवंबर में बीएच लोया के परिवार ने 2014 में नागपुर की एक यात्रा के दौरान उनके असामयिक निधन के बारे में सार्वजनिक तौर पर संदेह व्यक्त किया. उन दिनों वह सोहराबुद्दीन शेख मामले की सुनवाई कर रहे थे. संबंधियों ने बताया कि वह अमित शाह को दोषमुक्त करने के लिए लगातार दबाव झेल रहे थे. उन्हें ऐसा करने के एवज में हाईकोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश मोहित शाह द्वारा 100 करोड़ रुपए देने की पेशकश की गई थी. उन्होंने यह भी बताया कि मृत्यु के बाद लोया के शव की देखरेख में आरएसएस के कार्यकर्ता लगे थे जिनका इस परिवार से कोई सरोकार नहीं था.
इस रहस्योद्घाटन के बाद कई याचिकाएं दी गईं जिनमें मांग की गई थी कि सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में लोया की मृत्यु की जांच की जाए. मिश्रा ने भारत के मुख्य न्यायाधीश के अपने अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए इस मामले को सुनवाई के लिए अरुण मिश्रा के नेतृत्व वाली एक पीठ के सुपुर्द किया. सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों ने जो वरीयता क्रम में मिश्रा के बाद थे अपनी बेचैनी को व्यक्त करने के लिए एक संवाददाता सम्मेलन आयोजित किया और इस प्रकार वे कार्यरत जजों द्वारा मीडिया से बात करने के प्रतिबंध के खिलाफ गए. इसके जवाब में मिश्रा ने अपने चार वरिष्ठतम सहयोगियों में से किसी को विश्वास में लिए बिना अपने ही नेतृत्व वाली पीठ को सुनवाई की जिम्मेदारी सौंपी.
महाराष्ट्र सरकार ने यह कह कर जांच का विरोध किया कि इसने पहले ही जांच संपन्न कर ली है और जांच में कुछ भी संदिग्ध नहीं पाया गया. रोहतगी, जो अटॉर्नी जनरल के पद से हट चुके थे, महाराष्ट्र सरकार की ओर से वकील के रूप में पेश हुए. मामले की अनेक सुनवाई के समय मेहता लगातार वहां मौजूद रहे और बीच-बीच में फोन करने के लिए बाहर जाते रहे. उन्होंने बहस तो नहीं की लेकिन याचिकाकर्ता के वकील से उनकी तू तू मैं मैं हो गई. एक अवसर पर याचिकाकर्ता के वकील दुष्यंत दवे ने मेहता से कहा, "आप अदालत के कोई अफसर नहीं है. आप यहां अमित शाह के वकील के रूप में मौजूद हैं."
यह सुनवाई दो महीने तक चलती रही. महाराष्ट्र सरकार ने जो जांच की थी उस के संदर्भ में पत्रकारों ने अनेक विसंगतियों का उल्लेख किया था लेकिन अप्रैल 2018 में जो फैसला आया उसमें जांच के हर शब्द पर विश्वास व्यक्त किया गया था. इसे उचित ठहराने के लिए फैसला लिखने वाले जज डीवाई चंद्रचूड़ ने बस इतना ही लिखा कि राज्य द्वारा अदालत में पेश किए गए दस्तावेजों में "सच्चाई का आभास" मिलता था.
अगले दिन विपक्षी दलों ने एक प्रस्ताव पेश किया जिसमें मिश्रा पर महाभियोग चलाने की बात कही गई थी लेकिन उपराष्ट्रपति ने इसे स्वीकार करने से मना कर दिया. जब विपक्ष ने कार्रवाई करने के लिए राष्ट्रपति को मंजूर करने के मकसद से सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल की तब मिश्रा ने अपने पसंद के पांच जजों की एक पीठ के समक्ष मामले की सुनवाई तय की. याचिकाकर्ताओं ने इस बात का विरोध किया कि खुद से संबंधित मामले को वह प्रभावित करना चाहते हैं और इस पर बहस करने से इनकार कर दिया. इससे पहले भारत के मुख्य न्यायाधीश के पद पर उनके कार्य करते हुए सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल की गई थी जिसमें आरोप लगाया गया था कि एक मामले की सुनवाई के संदर्भ में मिश्रा ने घूस लिया था और इसकी जांच की मांग की गई थी. मिश्रा ने इस याचिका को अपनी पसंद की पीठ को सौंपा जिसका नेतृत्व वह खुद कर रहे थे और आनन फानन में उसे खारिज कर दिया.
अपने पूरे कार्यकाल में मिश्रा लगातार इन आशंकाओं से घिरे रहे कि सरकार उनके खिलाफ महाभियोग की कार्रवाई शुरू करने की इजाजत दे सकती है. इस बीच सुप्रीम कोर्ट में सरकार से संबद्ध मामले लगातार आते रहे और मिश्रा यह तय करते थे कि कौन सा मामला किस की अदालत में सुनवाई के लिए भेजा जाए.
इस दौरान मोदी सरकार के विधि अधिकारियों के हटने के दौर में तेजी आ गई थी. अपने पहले कार्यकाल के समाप्त होने के बाद रोहतगी ने पद छोड़ दिया था और उनका स्थान अटॉर्नी जनरल के रूप में केके वेणुगोपाल ने ले लिया था. अक्टूबर 2017 में रंजीत कुमार ने सॉलीसीटर जनरल के पद से इस्तीफा दे दिया था और उनके स्थान पर अभी किसी की नियुक्ति नहीं हुई थी. अक्टूबर 2018 में सेवानिवृत्त होने के कुछ दिनों बाद मनिंदर सिंह ने इस्तीफा दे दिया. मोदी सरकार के कार्यकाल में एडिशनल सॉलीसीटर जनरल के रूप में इस्तीफा देने वाले मनिंदर सिंह नवें विधि अधिकारी थे. उनकी शिकायत थी कि आगे प्रोन्नति के लिए उनकी अनदेखी की गई थी. इससे कुछ ही घंटे पहले सॉलीसीटर जनरल ऑफ इंडिया के पद पर मेहता की नियुक्ति कर दी गई थी.
(4)
"अब से कुछ वर्ष पहले तक सुप्रीम कोर्ट की राय का सम्मान किया जाता था," यह बात मदन लोकुर ने मुझसे कहीं जो 2018 की समाप्ति पर सुप्रीम कोर्ट से रिटायर हुए थे. उन्होंने आगे कहा कि, "मैं समझता हूं कि इस सम्मान का क्षरण हो रहा है." जस्टिस लोकुर ने कहा कि यह "अपेक्षाकृत रूढ़िवादी" होता गया है और एक शक्तिशाली कार्यपालिका से निपटने में असमर्थ है. जब मैंने उनसे पूछा कि क्या उन्होंने पहले कभी सुप्रीम कोर्ट की ख्याति को इतना नीचे गिरते हुए देखा था तो उन्होंने कहा, "ओह, आज यह सीढ़ी के सबसे निचले पायदान पर है."
मेहता के सॉलीसीटर जनरल बनने के बाद के दो वर्ष अनेक घटनाओं से भरपूर रहे: आम चुनाव हुआ जिसमें चुनाव आयोग के कार्यों को लेकर गंभीर सवाल उठे, इलेक्टोरल बांड के जरिए राजनीतिक दलों द्वारा चंदा लिए जाने में गोपनीयता का सवाल उठा, असम में नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन का प्रकाशन हुआ, दमनकारी ढंग से कश्मीर के विशेष संवैधानिक दर्जे को समाप्त किया गया, नागरिकता (संशोधन) कानून पारित हुआ, अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण कार्य शुरू हुआ और इस तरह की ढेर सारी घटनाएं हुईं. इन सारी घटनाओं में सुप्रीम कोर्ट कार्यपालिका पर थोड़ा अंकुश लगा सकता था-- या तो अदालती कार्रवाई के जरिए या कुछ न करने का संकेत देते हुए लेकिन इसके जरिए मोदी सरकार ने सब कुछ वैसा ही किया जैसा वह चाहती थी.
जनता की निगाह में मेहता का उत्थान और सुप्रीम कोर्ट का पतन दोनों समानांतर चलता रहा. एकाधिक बार दोनों ने परस्पर विरोधी मार्ग पर चलने के लिए एक दूसरे को प्रेरित किया.
मिश्रा के उत्तराधिकारी रंजन गोगोई पर सुप्रीम कोर्ट की एक भूतपूर्व कर्मचारी द्वारा, जो उनके निवास पर काम करती थी, यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया गया. उस महिला के परिवारजनों का कहना था कि गोगोई के यौन प्रस्ताव का 'प्रतिरोध' करने की वजह से पुलिस ने उसका उत्पीड़न किया. इस घटना के प्रकाश में आने के आधे घंटे बाद ही शनिवार की एक सुबह सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले पर विशेष सुनवाई की घोषणा की जो मामला मेहता द्वारा लाया गया था. यह नहीं स्पष्ट हुआ कि कैसे मेहता इस मामले को ला सके जबकि शनिवार को सुप्रीम कोर्ट बंद रहता है. एक घंटे के अंदर गोगोई ने मुख्य न्यायाधीश के कक्ष में उस बेंच के समक्ष सुनवाई शुरू की जिसमें अरुण मिश्रा और संजीव खन्ना के साथ वह खुद भी थे. इस मामले का शीर्षक था--"अत्यंत सार्वजनिक महत्व का मामला जिसके साथ न्यायपालिका की आजादी का सवाल जुड़ा हुआ है."
गोगोई ने इस बात के साथ शुरुआत की कि उन्होंने कुछ भी गलत नहीं किया है और शिकायतकर्ता के चरित्र पर सवाल उठाया जिस की ओर से पैरवी करने वाला कोई वकील अदालत में मौजूद नहीं था. वहां एटर्नी जनरल थे और मुख्य न्यायाधीश की ओर से उन्होंने आहत महसूस किया. मेहता ने भी शिकायतकर्ता को "एक बेशर्म औरत" कहा. न्यायपीठ ने एक आदेश जारी किया जिसमें मीडिया से कहा गया था कि वह इसकी रिपोर्टिंग करते समय संयम बरते. इस समूचे प्रकरण में गोगोई के नाम का कहीं उल्लेख नहीं था गोया उन्होंने इस समूची सुनवाई में हिस्सा ही न लिया हो.
सुप्रीम कोर्ट ने शिकायत की जांच के लिए तीन जजों की एक कमेटी बनाई. इस कमेटी के सदस्यों ने खुद ही स्पष्ट किया कि यह न तो कोई 'इन हाउस प्रोसीडिंग' है और न विभागीय जांच और वे शिकायत की छानबीन उन प्रक्रियाओं के तहत नहीं कर रहे हैं जिन्हें कानून में यौन उत्पीड़न के विरुद्ध परिभाषित किया गया है. यह स्पष्ट नहीं था कि अगर कोई अधिकार है तो वह कौन सा अधिकार है जिसके तहत इन्हें गोगोई के खिलाफ फैसला देना है. शिकायतकर्ता ने विरोध में कार्यवाही का बहिष्कार किया. जो भी हो, समिति ने अपना काम शुरू किया और उसे "आरोपों में कोई दम" नहीं दिखाई दिया.
बाद में पता चला कि गोगोई के खिलाफ शिकायतकर्ता के आरोपों की जानकारी गृह मंत्री को तब से ही थी जब गोगोई 13 महीने के अपने कार्यकाल में महज चौथे महीने में थे. तीन जजों की कमेटी के काम का कोई स्पष्ट वैधानिक और प्रक्रियात्मक आधार (प्रोसीजरल स्टैंडिंग) नहीं था और मामले को हल करने के लिए कोई दूसरी कार्यवाही नहीं शुरू की गई. वस्तुतः मुख्य न्यायाधीश के पद पर रहते हुए अधिकांश समय तक यह आरोप उनके सिर पर लटके रहे. गोगोई ने अपने पूर्ववर्ती जजों के मुकाबले राजनीतिक तौर पर ऐसे अत्यंत महत्वपूर्ण मामलों का निपटारा किया जिससे मोदी सरकार का संबंध था. अपने कार्यकाल की समाप्ति तक उनके द्वारा सरकार को दिए गए तोहफों की सूची इतनी लंबी थी कि लोगों को, जैसा कि एक वरिष्ठ वकील ने मुझसे कहा, 'दीपक मिश्रा के अपेक्षाकृत निरीह दिनों की याद आ गई.'
मुख्य न्यायाधीश का पद संभालने से पहले भी गोगोई ने नेशनल रजिस्टर आफ सिटीजंस के काम को, जो बीजेपी के लिए एक वरदान साबित हुआ, असम सरकार से भी ज्यादा तेजी के साथ आगे बढ़ाया. प्राय: वह अदालत के अपने कक्ष से इसको लागू करने के आदेश जारी करते थे. 2019 के आम चुनाव का समय आते आते उन्होंने तय किया कि चुनावी बांड की संवैधानिक वैधता की समीक्षा का सुप्रीम कोर्ट के पास समय नहीं है जबकि इनके जरिए बीजेपी ने अपने चुनाव अभियान के लिए अपार राशि इकट्ठा कर ली थी (वे याचिकाएं आज भी अदालत के सामने विचाराधीन पड़ी हैं). मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में गठित एक पीठ ने विपक्षी दलों की उन याचिकाओं को भी खारिज कर दिया जिनमें कहा गया था कि इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों में से आधी मशीनों की जांच ऑटोमेटिक जेनरेटेड पेपर बैलट से किया जाए ताकि किसी भी धोखाधड़ी की गुंजाइश न रहे.
सत्ता में वापसी के बाद मोदी ने जब अमित शाह को गृहमंत्री बनाया उसके बाद भी गोगोई ने अपनी प्रवृत्ति को जारी रखा. कश्मीर के विशेष दर्जे की हैसियत को समाप्त करने की घोषणा के बाद सरकार ने इस फैसले के खिलाफ कश्मीर घाटी में बड़े पैमाने पर प्रतिपक्ष का दमन किया. समूचा कश्मीर लॉक डाउन के अंतर्गत आ गया, यहां राजनीतिक नेताओं को बगैर किसी आरोप के हिरासत में ले लिया गया, मीडिया पर प्रतिबंध लगा दिया गया और दूर संचार को पूरी तरह ठप कर दिया गया. इससे बुरी तरह मायूस लोगों की अपीलें सुप्रीम कोर्ट में इकट्ठा होती गयीं जिनमें हस्तक्षेप की मांग थी लेकिन कोर्ट ने इंतजार कर के पता लगाने की नीति अपनाई.
कश्मीरी मीडिया को खामोश करने का विरोध करते हुए एक अखबार के संपादक ने कोर्ट से गुहार लगाई. सरकार की तरफ से मेहता ने दलील दी कि इस मामले को फौरन उठाकर रद्दी में फेंक देना चाहिए. गोगोई ने कहा कि प्रेस को लॉक डाउन से मुक्त रखना चाहिए लेकिन इस अपील पर जवाब तैयार करने के लिए उन्हें सरकार को समय देने में कोई गुरेज नहीं हुआ. बाद की एक सुनवाई में मेहता ने अदालत से बताया कि "अगले कुछ दिनों में" कश्मीर में प्रतिबंधों को उठा लिया जाएगा हालांकि महीनों तक ये प्रतिबंध बने रहे. अदालत ने याचिकाकर्ताओं से कहा कि वे सरकार को थोड़ा और समय दें. बाद में, मेहता ने अदालत को बताया कि कश्मीर में मीडिया काफी सक्रिय है और जिस महिला संपादक ने प्रतिबंधों का विरोध किया है उसने अपना अखबार न छापने का "खुद ही फैसला किया है ताकि समूचे मसले को सनसनीखेज बनाया जा सके." लॉक डाउन के कई सप्ताह गुजर जाने के बाद और घाटी में जनजीवन के ठप पड़ जाने की और भी ज्यादा खबरें आने पर मेहता ने अदालत से झूठ बोला कि "कश्मीर के लगभग 99 प्रतिशत हिस्से में किसी तरह का प्रतिबंध नहीं है."
मेहता ने कश्मीर में इंटरनेट सेवाएं फिर से चालू करने के खिलाफ दलील दी. उन्होंने अदालत से कहा कि, "बदकिस्मती से इंटरनेट जेहादियों को काफी सफलता मिलती है. यह एक वैश्विक परिघटना है. जिहादी नेता इंटरनेट के जरिए नफरत फैलाने और गैरकानूनी कामों को अंजाम देने में सफल हो सकते हैं." अदालत ने जानना चाहा कि क्या कुछ प्रतिबंधों के साथ इंटरनेट सेवाओं की इजाजत दी जा सकती है? इसके जवाब में मेहता ने कहा कि, "इसका एकमात्र समाधान यह है कि या तो आपके पास इंटरनेट हो या न हो." अदालत ने फिर जानना चाहा कि क्या किसी भी रूप में कश्मीर के लोग इंटरनेट की सेवाएं प्राप्त कर सकते हैं? मेहता ने कहा कि, "10 अगस्त से सभी पत्रकारों के लिए एक मीडिया सेंटर वहां खोला गया है. वे सुबह 8 बजे से रात के 11 बजे तक बगैर किसी रुकावट के इंटरनेट का इस्तेमाल करने के लिए स्वतंत्र हैं. इसके अलावा आम जनता के लिए भी घाटी में 15 इंटरनेट केंद्र खोले गए हैं." ये 15 इंटरनेट केंद्र घाटी की 70 लाख की आबादी के लिए थे. मेहता ने जो कुछ बताया उसके अनुसार कश्मीर में इंटरनेट तक पहुंच थी भी और नहीं भी थी.
एक कश्मीरी राजनीतिक नेता जब एक बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका के साथ दिल्ली उच्च न्यायालय पहुंचे, मेहता ने सुनवाई के समय खुद को अनुपलब्ध बताकर मामले को आगे के लिए स्थगित करा दिया. दरअसल वह उन दिनों आईएनएक्स मीडिया मामले में व्यस्त थे जिसमें पैसों के घोटाले के आरोप में कांग्रेसी नेता पी चिदंबरम की गिरफ्तारी का प्रयास चल रहा था. जब हिरासत में रखे कुछ लोगों की ओर से विपक्ष के एक सदस्य और एक कश्मीरी छात्र ने सुप्रीम कोर्ट में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की तो गोगोई ने इस याचिका को सुनवाई के लिए सूचीबद्ध करने में दो हफ्ते से भी ज्यादा का समय लगाया. अंत में जब इस पर सुनवाई शुरू हुई तो गोगोई के नेतृत्व वाली पीठ ने सरकार से, जिसका प्रतिनिधित्व मेहता कर रहे थे, यह नहीं कहा कि वह गिरफ्तार किए गए लोगों को अदालत में पेश करे या उनकी गिरफ्तारी का औचित्य साबित करे. इसकी बजाय अदालत ने कुछ शर्तों के साथ याचिकाकर्ताओं को कश्मीर जाने की इजाजत दी. इस पर संवैधानिक विद्वान हैरान रह गए. ए.जी. नूरानी ने लिखा कि, ‘‘गोगोई की अदालत सदियों से स्थापित बंदी प्रत्यक्षीकरण से संबंधित कानून को एक तेज गाड़ी की बदहवास चाल के साथ रौंदती चली जा रही है.’’
जब सुप्रीम कोर्ट ने कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त करने की चुनौती को एक संवैधानिक पीठ को सौंपने का निर्णय लिया तो मेहता ने जोरदार ढंग से इसका विरोध करते हुए कहा कि अदालत के इस फैसले के खतरनाक निहितार्थ "सीमा पार के देश" के लिए होगा. यह मामला अभी भी सुनवाई के इंतजार में है. इसके सभी फैसलों ने कोर्ट की ओर से सरकार को इस बात की पूरी छूट दी कि वह कश्मीरी जनता का उत्पीड़न करे.
गोगोई ने उस पीठ का नेतृत्व किया जिसमें फ्रांस से राफेल लड़ाकू विमानों की मोदी सरकार द्वारा की गयी समीक्षा संबंधित याचिका थी और उसे खारिज कर दिया गया. व्यापक अनियमितताओं और बढ़ी हुई कीमतों के आरोपों को खारिज करने के मकसद से सरकार ने इस सौदे का ब्यौरा अदालत में दिया. अदालत ने इन्हें सीलबंद लिफाफों में मांगा ताकि याचिकाकर्ताओं अथवा जनता को इसकी जानकारी न मिल सके. गोगोई ने उस समय भी ऐसा ही किया था जब वह एनआरसी पर, इलेक्टोरल बांड्स पर और कुछ अन्य मामलों पर सुनवाई कर रहे थे और अब उन्होंने इसे एक आम आदत बना लिया था जिससे सरकार अपने को बचाए रख सके.
कई साल पहले मेहता ने जब सीलबंद लिफाफे के इस्तेमाल की अनुमति चाही थी तो उन्हें फटकार मिली थी लेकिन अब वह अंततः इसे हासिल कर सके थे. आइएनएक्स मीडिया केस में एन्फोर्समेंट डायरेक्टरेट का प्रतिनिधित्व करते हुए उन्होंने दिल्ली उच्च न्यायालय को इस बात के लिए राजी कर लिया कि सीलबंद लिफाफे में उन्होंने जो सामग्री अदालत में पेश की है उसके आधार पर चिदंबरम को जमानत न दी जाय-- हालांकि चिदंबरम के वकीलों ने आरोप लगाया कि जो साक्ष्य प्रस्तुत किए गए हैं उन्हें तोड़ मरोड़ कर पेश किया गया है. बाद में हाईकोर्ट के इस फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने उसे फटकार लगाई और यह एक विडंबना है कि सीलबंद लिफाफों के जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल के लिए जांच एजेंसियों की आलोचना की. इस वर्ष के प्रारंभ में पत्रकार विनोद दुआ को एक एफआईआर का शिकार होना पड़ा जिसमें उन पर देशद्रोह का आरोप लगाया गया था क्योंकि उन्होंने कोरोना वायरस महामारी के प्रति मोदी सरकार के रवैये की आलोचना की थी. कानूनी राहत के लिए जब वह सुप्रीम कोर्ट पहुंचे तो उन्होंने अदालत से अनुरोध किया कि वह इस मामले में पुलिस की रिपोर्ट देखे. मेहता ने वह रिपोर्ट भी सील बंद लिफाफे में अदालत में पेश की.
सेवामुक्त होने से एकदम पहले गोगोई ने सरकार को जो तोहफा दिया वह अयोध्या मामले में दिया गया फैसला था जिसमें समूचे विवादित स्थल को राम मंदिर के निर्माण के लिए दे दिया गया था. एटोर्नी जनरल वेणु गोपाल ने सरकार की ओर से इस मामले में पैरवी की थी लेकिन जब इसमें जीत मिली तो वह कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे. काफी पहले 1992 में जब बाबरी मस्जिद ध्वस्त की गयी थी, वेणु गोपाल सुप्रीम कोर्ट में लाल कृष्ण आडवाणी की ओर से पेश हुए थे जो उन दिनों राम मंदिर अभियान का नेतृत्व कर रहे थे. तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एम.एन.वेंकट चेलैया ने हिंदू समूहों को उस स्थल पर इकट्ठा होने की इजाजत दी थी लेकिन मंदिर के विध्वंस की जानकारी मिलने के बाद उन्होंने गुस्से से चीखते हुए कहा कि यह शांतिपूर्ण जमावड़ा नहीं था जिसकी उन्होंने इजाजत दी थी. उस समय वेणु गोपाल ने अदालत में कहा, "मेरा सिर शर्म से झुक गया है."
वेणु गोपाल की गैर मौजूदगी में सॉलिसिटी जनरल ने पत्रकारों को संबोधित किया और कहा कि इस फैसले ने "न्यायपालिका में जनता के भरोसे को और भी पुष्ट किया है." मेहता ने आगे कहा कि गोगोई के नेतृत्व वाली पीठ के सभी पांचो जज "इस बात के लिए भरपूर प्रशंसा के पात्र हैं कि उन्होंने एक ऐसे विवाद का कानूनी समाधान ढूंढा जो इस शताब्दी का सबसे पुराना विवाद था." लेकिन ऐसा लगा कि वेणु गोपाल की तरह ये जज भी कोई श्रेय नहीं लेना चाहते थे. इनमें से किसी ने फैसले पर अपना नाम नहीं दिया. निश्चित तौर पर यह नहीं कहा जा सकता कि किसने इस फैसले को लिखा हालांकि अनेक वकीलों ने लिखने की शैली से अनुमान लगाया कि इसे न्यायाधीश डी.वाई॰चंद्रचूड़ ने लिखा होगा.
गोगोई ने नवंबर 2019 में पदमुक्त होने के बाद यह पद एस॰ए॰ बोबडे को सौंपा जो अयोध्या मामले में गठित पीठ के एक सदस्य थे. सुप्रीम कोर्ट ने इसकी अवधि में परिवर्तन का कोई संकेत नहीं दिया. प्रवासी मजदूरों के संकट के समय मेहता के प्रतिवेदन से जैसा देखा गया, सॉलिसिटर जनरल को मनमानी करने की आजादी जारी है.
मुख्य न्यायाधीश के पद से हटने के कुछ महीनों बाद ही गोगोई ने राज्य सभा के सदस्य की शपथ ली. उनकी नियुक्ति राष्ट्रपति ने पूरी तरह सत्ताधारी दल के समर्थन से की थी और जब वह सदन में पहुंचे तो विपक्ष ने "शर्म! शर्म!" के नारों से उनका स्वागत किया. स्पीकर ने कहा कि विपक्ष के इन शब्दों को रेकॉर्ड में नहीं दर्ज किया जाएगा और फिर समूचे विपक्ष ने सदन का बहिष्कार किया.
गोगोई की चमक पूरी तरह फीकी पड़ गयी थी. विधि मंत्री ने उनकी नियुक्ति के पक्ष में जो दलील दी उस पर कोई सहमत नहीं हो सकता था. खुद उनकी पार्टी के सदस्यों ने कुर्सियों पर अपनी पीठ टिकाए अलसाये ढंग से मेजें थपथपाईं. गोगोई अपनी कुर्सी में धंस कर बैठ गए. यह एक प्रतीकात्मक दृश्य थाः न्यायपालिका और सरकार एक दूसरे में अपनी पहचान खो चुके थे.
हाल की न्यायिक नियुक्तियों ने इस बात का ठोस उदाहरण प्रस्तुत किया है कि कॉलेजियम सिस्टम के साथ बहुत सारी खामियां जुड़ी हुई हैं. सूर्य कांत को जब सुप्रीम कोर्ट के लिए प्रोन्नति दी गयी तो उनके खिलाफ भ्रष्टाचार की लंबी सूची की पूरी तरह अवहेलना कर दी गयी. संजीव खन्ना को प्रोन्नति देते समय कॉलेजियम ने शुरू में जिन दो जजों को नामजद किया था उससे अलग हटते हुए उसने यह काम किया. वे दो जज देशभर से प्राप्त सूची में संजीव खन्ना से वरिष्ठ थे. दिनेश माहेश्वरी को जब सुप्रीम कोर्ट लाया गया उस समय वह कार्यपालिका के आदेशों का पालन कर रहे थे. अरुण मिश्रा के छोटे भाई विशाल मिश्रा को मध्य प्रदेश हाई कोर्ट में तैनात किया गया जबकि उनका बड़ा बेटा कॉलेजियम का सदस्य था.
जब न्यायपालिका की बांह ऐंठने की जरूरत पड़ी तो मेहता को उस व्यक्ति के खिलाफ बहस में डाल दिया गया जिसे कभी एक आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया गया था. 2019 में कॉलेजियम ने गुजरात हाई कोर्ट के एक जज अकील कुरैशी को मध्य प्रदेश हाई कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बनाने की सिफारिश की. इन्हीं कुरैशी ने 2010 में अमित शाह को पुलिस हिरासत में भेजा था. अब सरकार ने कुरैशी की फाइल को दबाकर रख दिया.
गुजरात हाई कोर्ट एडवोकेट एसोसिएशन, जिसका प्रतिनिधित्व फली नरीमन कर रहे थे, सुप्रीम कोर्ट पहुंचा. नरीमन ने सरकार के "जानबूझकर निष्क्रिय बने रहने" का विरोध किया और कहा कि कुरैशी की फाइल भेजे जाने के बाद से अब तक 18 अन्य नियुक्तियों को हरी झंडी मिल चुकी है. ऐसे में मेहता ने वही किया जो वह सर्वोत्तम कर सकते थेः उन्होंने कहा कि सरकार को फाइल का अध्ययन करने के लिए अभी और दो सप्ताह का समय चाहिए. बावजूद इसके कि सरकार ने पहले ही फाइल के अध्ययन में दो महीने से अधिक का समय बिता दिया था और बावजूद इसके कि इसने मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के लिए एक कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति कर दी और इस प्रकार कॉलेजियम के फैसले की अवहेलना की, अदालत ने मेहता के अनुरोध को स्वीकार कर लिया.
एक बार फिर मेहता ने कहा कि संसद के मानसून सत्र के समाप्त होने के बाद सरकार कुरैशी की नियुक्ति पर विचार करेगी इसलिए एक सप्ताह का समय और चाहिए. गोगोई ने उनसे कहा कि जो भी सरकार का आदेश हो उसे वे अदालत के सामने पेश करें. अगली सुनवाई के लिए लगभग एक पखवारे बाद का समय दिया गया. मेहता ने अब कहा कि वह अदालत के आदेश के अनुसार काम करेंगे लेकिन बस उन्हें और एक हफ्ते का समय चाहिए. इस बार गोगोई ने सुनवाई की अगली तारीख भी तय नहीं की. उन्होंने कहा कि अगले सप्ताह तय किया जाएगा कि कब सुनवाई हो.
अंततः कुरैशी की फाइल तीन महीने से भी अधिक समय तक अपने पास रखने के बाद सरकार ने इसे कॉलेजियम को भेज दिया. कॉलेजियम के सदस्य जज अपनी मूल सिफारिश के साथ इस फाइल को वापस भेज सकते थे लेकिन उन्होंने टकराव से बचना चाहा और कुरैशी को त्रिपुरा हाई कोर्ट भेज दिया.
संवैधानिक मामलों के विद्वान गौतम भाटिया ने हाल ही में सुप्रीम कोर्ट आफ इंडिया को एक्जीक्यूटिव कोर्ट आफ इंडिया कहना शुरू किया है. इस नए नामकरण के लिए बहुत सारे मोटे मोटे ग्रंथ लिखने होंगे और उन्हें तैयार करने में वर्षों लग जाएंगे लेकिन जब ये ग्रंथ तैयार होंगे तो बहुत सारी चीजों के साथ वे यह प्रदर्शित करेंगे कि किस तरह उस अवधारणा के सामने न्यायपालिका ने तेजी के साथ आत्मसमर्पण किया जिस अवधारणा में भारत के अल्पसंख्यकों के और खासतौर पर मुस्लिमों के बुनियादी अधिकारों को एक विशेष बहुसंख्यक समाज के हाथ का खिलौना बना दिया गया.
दिल्ली हिंसा के बाद से ही दिल्ली पुलिस ने, जो अमित शाह के प्रति जवाबदेह है और अदालतों में जिसका प्रतिनिधित्व मेहता के द्वारा किया जाता है, अभियुक्तों की जांच पड़ताल को एक मजाक बना दिया है. हमलों के लिए उकसाने के आरोपी कपिल मिश्रा तथा अन्य बीजेपी नेताओं के खिलाफ पुलिस ने कोई एफआईआर दर्ज नहीं की और फरवरी के उस दिन मुरलीधर की अदालत के कमरे में जो दलील दी गयी उसमें उन्हें बाद में बरी कर दिया गया. इस बीच पुलिस ने मुसलमानों के खिलाफ सैकड़ों एफआईआर दर्ज कीं. अब तक मारे गए लोगों की सबसे बड़ी संख्या मुसलमानों की है और जिन संपत्तियों को जलाया गया या बर्बाद किया उनमें भी मुस्लिमों की ही संपत्तियां ज्यादा हैं लेकिन सॉलिसीटर जनरल ने असहज बनाने वाले इन तथ्यों को लेकर, जिनमें मुसलमानों को ही दोषी ठहराया गया है, कभी अदालत में प्रवेश नहीं किया. पुलिस ने इन हमलों के षडयंत्र के आरोप में छात्रों, नागरिक समाज के कार्यकर्ताओं और विपक्षी नेताओं को भी गिरफ्तार किया है जबकि उनके खिलाफ जो आरोप लगाए गए हैं वे बहुत सतही किस्म के हैं. कथित आरोप में शामिल लोगों की सूची लंबी होती जा रही है और इस सूची में जो नाम शामिल हैं उनमें एक बात समान है- उन सब ने मौजूदा सरकार से सवाल किए हैं.
प्रारंभ में कपिल मिश्रा तथा अन्य लोगों के खिलाफ याचिका ने सुप्रीम कोर्ट को एक अवसर दिया था कि वह दिल्ली पुलिस की कार्यशैली में सुधार करे. दिल्ली हाईकोर्ट ने जब अप्रैल तक के लिए मामले को स्थगित कर दिया इसके बाद याचिकाकर्ताओं ने इस विलंब के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की और इस अपील की सुनवाई मुख्य न्यायाधीश बेबड़े के नेतृत्व वाली पीठ ने की. दिल्ली हाईकोर्ट के समक्ष मेहता ने दलील दी थी कि बीजेपी नेताओं के खिलाफ कार्यवाही करने के लिए "वातावरण अनुकूल नहीं है." बोबडे ने जब इस विलंब का कारण पूछा तो मेहता ने जवाब दिया कि चूंकि हिंसा समाप्त हो गयी है और शांति कायम हो चुकी है इसलिए कोई जल्दी नहीं है.
बोबडे ने सॉलिसीटीर जनरल से कहा, "आपने पहले यह कहा था कि वातावरण अनुकूल नहीं है. अगर अब शांति है तो एफआईआर दर्ज करने में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए." मेहता ने जवाब दिया कि हो सकता है कि बीजेपी के नेताओं को गिरफ्तार करने से फिर हिंसा भड़क उठे. यह सुनकर बोबडे हैरान रह गए और उन्होंने मामले को दिल्ली हाई कोर्ट को सौंपना उचित समझा--इस अस्पष्ट संदेश के साथ कि "यथासंभव इसे तेजी से निबटाया जाएगा."
नीरेन डे और कुछ जजों के बारे में जो इमरजेंसी के दौरान सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त थे एक कहानी प्रचलित है जो शायद अप्रामाणिक हो. प्रधानमंत्री पद से इंदिरा गांधी के हट जाने के बाद उनके शासनकाल में जो बात बहुत स्पष्ट थी लेकिन कही नहीं जाती थी उसे अब जोर शोर से कहा जाने लगाः अदालत ने एक निरंकुश सरकार के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था. आरोप कइयों पर लगाए जा सकते थे लेकिन उन्हें स्वीकार करने वाला कोई नहीं था. जज लोग अपने हाथ हवा में लहराते हुए रिटायर होने तक अदालत में बैठे रहते थे. नीरेन डे ने इस तरह की कहानियां प्रचारित करनी शुरू कीं कि अदालत में उनकी दलीलों का असली मकसद जजों की अंतरआत्मा को उकसाना था. उन पर जो लेबुल लगाया गया था कि वह सुप्रीम कोर्ट के सबसे ताकतवर व्यक्ति हैं उसे उन्होंने कभी पसंद नहीं किया. बताया जाता है कि नीरेन डे ने कहा कि ऐसा नहीं है कि वह बहुत शक्तिशाली थे--दरअसल अदालत कायरों से भरी हुई थी.
(कारवां अंग्रेजी के अक्टूबर 2020 के अंक में प्रकाशित इस प्रोफाइल का अनुवाद आनंद स्वरूप वर्मा ने किया है. इसे मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)