भारतीय न्यायपालिका : आरोपी भी जज भी

सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में पहली बार जस्टिस रंजन गोगोई और जस्टिस चेलामेश्वर समेत चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों ने प्रेस कांफ्रेंस की थी.
सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में पहली बार जस्टिस रंजन गोगोई और जस्टिस चेलामेश्वर समेत चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों ने प्रेस कांफ्रेंस की थी.
26 August, 2019

2014 में नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री कार्यालय में आगमन के साथ ही भारतीय न्यायपालिका के लिए तनावपूर्ण दिनों की घोषणा हो गई. भारतीय जनता पार्टी के घोषणापत्र में उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए राष्ट्रीय न्यायिक आयोग गठित करने का वादा था. सत्ता में आने के कुछ ही महीने बाद संसद के दोनों सदनों ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) बनाने के लिए संविधान का 90वां संशोधन पारित कर दिया. वर्ष के अंत तक 16 राज्य विधान सभाओं ने इसकी पुष्टि कर दी, राष्ट्रपति द्वारा हस्ताक्षर कर दिया गया और कानून बन गया.

अनुमान के अनुरूप एनजेएसी के छह सदस्य होने थे जिन्हें सुप्रीम कोर्ट और सभी उच्च न्यायालयों में नियुक्तियों और स्थानांतरण का नियंत्रण सौंपा जाना था. मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व में इसमें सु्प्रीम कोर्ट के दूसरे और तीसरे नंबर के वरिष्ठतम न्यायाधीशों, कानून मंत्री, मुख्य न्यायाधीश के पैनल द्वारा नामित दो “प्रतिष्ठित व्यक्तियों” और प्रधानमंत्री व नेता प्रतिपक्ष को शामिल किया जाना था. इनमें से एक व्यक्ति को या महिला या धार्मिक अल्पसंख्यक, अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति से होना था.

इस नए प्रस्तावित निकाय को कॉलेजियम व्यवस्था की जगह लेनी थी जो 1993 से इसी उद्देश्य को कार्यान्वित कर रही है. कॉलेजियम का नेतृत्व भी मुख्य न्यायाधीश करते हैं लेकिन उसकी बाकी सदस्यता उनके 4 वरिष्ठतम सहयोगियों तक सीमित है, सुप्रीम कोर्ट के बाहर से उसमें कोई प्रतिनिधित्व नहीं है. यह अनुशंसित नियुक्तियों के नाम विधि मंत्रालय को अग्रेसित करती है जो इंटेलीजेंस ब्यूरो के माध्यम से उनकी पृष्ठिभूमि की जांच कर सकता है. इसके बाद मंत्रालय की किसी आपत्ति के अतिरिक्त, अन्य उम्मीदवारों को राष्ट्रपति द्वारा न्यायालय में नियुक्त कर दिया जाता है. अगर मंत्रालय चाहे तो कारण स्पष्ट करते हुए किसी उम्मीदवार का नाम पुनर्विचार के लिए कॉलेजियम को वापस भेज सकता है. अगर कॉलेजियम फिर भी उम्मीदवार के पक्ष में है और अपनी अनुशंसा को दोहराता है तो सरकार की सभी आशंकाओं के बावजूद राष्ट्रपति के लिए नियुक्ति का परवाना (वारंट) जारी करना आवश्यक है. (प्रत्येक हाई कोर्ट का अपना कॉलेजियम है जिसमें उसका मुख्य न्यायाधीश और उसके दो वरिष्ठतम सहयोगी शामिल होते हैं. ये उम्मीदवार न्यायाधीशों को अपने समबंधित न्यायालयों के लिए नामित करते हैं, उनकी नियुक्ति से पहले उनकी फाइलों की सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम की मंजूरी आवश्यक है)

उच्च न्यायपालिका में उम्मीदवारों की चयन सूची बनाने में सरकार की कार्यकारी शाखा को प्रत्यक्ष हस्तक्षेप प्रदान करना आशावादियों की नजरों में, कुछ हद तक पारदर्शिता को बढ़ावा दे सकता था. संविधान के प्रमुख शिल्पकार बी. आर. आंबेडकर ने इसे न्यायाधीशों के कॉलेजियम वाली व्यवस्था से बेहतर माना होता जैसी कि उन्होंने संविधान सभा के साथी सदस्यों के सामने स्पष्ट भी किया था. जिस दस्तावेज को सभा ने 1949 में अभिपुष्ट किया था उसने उच्च न्यायपालिका में नियुक्तियों को केवल न्यायाधीशों या अकेले सरकार पर नहीं छोड़ा था. यह आशा करता था कि सबसे उपयुक्त नामांकित व्यक्ति की तलाश के लिए दोनों मिलकर काम करेंगे. लेकिन वह आशा 1970 के दशक में धराशायी हो गई.

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के एक अधिवक्ता ने मुझे बताया कि “इंदिरा का मामला सबसे खराब था”. भारत के सम्पूर्ण विधिक समुदाय को उसी सामंजस्य को स्थापित करने की कल्पना करना दूर की कौड़ी नहीं है. उस समय के सुप्रीम कोर्ट के तीन वरिष्ठतम न्यायाधीशों को पीछे छोड़कर 1973 में इंदिरा गांधी का प्रधानमंत्री की हैसियत से ए. एन. रे को मुख्य न्यायाधीश पद पर आसीन करना वरिष्ठता के आधार पर पदोन्नति की उस बहुमूल्य परंपरा का उल्लंघन था जिसे न्यायपालिका ने अपने पूरे इतिहास में कायम रखा था. इस कदम को केशवानंद भारती केस में अतिक्रमित तिकड़ी के खिलाफ प्रतिशोध के रूप में देखा गया. इसमें सुप्रीम कोर्ट की 13 सदस्यीय पीठ ने मामूली बहुमत से फैसला सुनाया कि संसद ऐसा कोई कानून पारित नहीं कर सकती जो संविधान के “बुनियादी ढांचे” का उल्लंघन करता हो और पहली बार किसी कानून को रद्द करने के अदालत के अधिकार को विधिवत पुष्ट किया. गांधी ने सत्ता की शक्ति की इस कटौती को विनम्रतापूर्व नहीं लिया था.

जो घातक बीज गांधी ने बोया था उसका विषाक्त नतीजा सबसे सुविदित रूप से 1975 में उनके आपातकाल घोषित करने के बाद हैबियस कार्पस केस के रूप में सामने आया. जब रे की अध्यक्षता वाली पीठ का सामना ऐसी स्थिति से हुआ जिसमें अपने आलोचकों को बिना अदालती सुनवाई के सरकार नजरबंद रख रही थी तब पांच जजों की उस पीठ ने नजरबंदी के खिलाफ अपील करने के नागरिक को निरस्त कर दिया. केवल एक न्यायाधीश ने असहमति जताने का साहस किया.

आपातकाल के बाद न्यायपालिका को अपनी गिरी हुई छवि के सुधार की समस्या का सामना करना था. इसकी प्रतिक्रिया न्यायिक प्रधानता के सिद्धांत को मजबूती देने की थी जिसकी भूमिका के एक भाग का मतलब अब यह था कि न्यायाधीशों को नियुक्ति प्रक्रिया में सर्वश्रेष्ठ होना चाहिए और ऐसा करने के लिए सदैव आपातकाल के अतिशयों के औचित्य का उपयोग किया जाता था. इसने मान लिया कि अगर इसे स्वयं पर छोड़ दिया गया तो न्यायपालिका स्वतः सक्षम और स्वतंत्र न्यायपालिका निर्मित कर लेगी. विचार किए बिना यहां तक अमूर्त सिद्धांत को वास्तविकता बना दिया गया लेकिन तुलनात्मक रूप से मामूली ही सही अदालतों पर कार्यकारी प्रभाव जारी रहने के अनवरत उदाहरण अब भी मौजूद हैं. धीरे धीरे, शिखर पर मौजूद भारत के न्यायाधीशों ने अपने चयन और पदोन्नति के अधिकारों को लेकर और स्वयं को अधिक अहंकारी बना लिया.

एनजेएसी की संभावना ने पुराने भय को फिर से जीवित कर दिया. कुछ दिलासा भी थी कि वास्तव में 2015 की सुप्रीम कोर्ट 1975 वाली सुप्रीम कोर्ट नहीं थी. कम से कम सिद्धांत रूप में विगत दो दशकों से सरकार ने न्यायालय की संरचना में कोई हस्तक्षेप नहीं किया था. और केशवानंद भारती केस में अपनी स्थापित शक्तियों के प्रयोग के माध्यम से, जनहित याचिका में वृद्धि के माध्यम से न्यायपालिका की शक्ति इस दौरान इस हद तक बढ़ गई थी कि इस दशक के आरंभ में कानूनविद पूर्व के उलट कार्यपालिका के क्षेत्र में न्यायपालिका के ही हस्तक्षेप की आशंका से चिंतित थे. इस बार कुछ लोगों को आशा थी कि न्यायालय पहले से अधिक लोचदार होगी.

कॉलेजियम प्रणाली द्वारा निर्मित न्यायपालिका को मोदी के अधीन कार्यपालिका की समतुल्य शक्ति का सामना अब तक नहीं करना पड़ा था. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1984 आम चुनाव में शिखर पर पहुंच चुकी कांग्रेस की उनके बेटे की विरासत के बाद पहली बार बीजेपी ने एकल पार्टी बहुमत प्राप्त किया था. मोदी स्वयं बेपनाह ताकतवर इंसान थे. मोदी के मुख्यमंत्रित्व काल में गुजरात राज्य में मुस्लिम कत्लेआम के बाद सुप्रीम कोर्ट ने खुद उन्हें “आधुनिक काल के नीरो की संज्ञा दी थी जो मासूम बच्चों और लाचार महिलाओं को जलाए जाते समय कहीं और देख रहा था”.

इससे अधिक चिंता इस बात की थी कि अशांति को बढ़ावा देने के लिए बीजेपी का पैतृक निकाय राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ बहुत पहले से न्यायपालिका में हिंदुत्व की विचारधारा को दाखिल करना चाहता था. आरएसएस की छात्र इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की 1998 की कॉन्फ्रेंस में भारत सरकार के पुनर्गठन के प्रस्ताव का एक मसौदा वितरित किया गया था जिसमें साधू–सन्यासियों की एक ‘गुरु सभा’ के निर्माण का प्रस्ताव किया गया था. अन्य कार्यों के अतिरिक्त यह निकाय न्यायिक आयोग के बतौर काम करता जिसके पास सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों का नामांकन करने और अभियोग चलाने का अधिकार होता. इसकी जानकारी ‘आरएसएस गेम प्लान’ शीर्षक से प्रकाशित एक पत्रिका के लेख में सुब्रह्मण्यम स्वामी द्वारा दी गई थी जो अब बीजेपी के सांसद हैं.

वह प्रस्ताव भले ही काल्पनिक लगा हो लेकिन हिंदुत्व का चुपके से न्यायपालिका में हस्तक्षेप पहले ही एक सच्चाई बन चुकी थी. मिसाल के तौर पर ए. के. गोयल की 2001 में पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट में नियुक्ति को लीजिए. इसके दो साल बाद यह तथ्य सामने आया कि इंटेलिजेंस ब्यूरो की पृष्ठभूमि जांच में पता चला था कि गोयल आरएसएस की अधिवक्ता शाखा अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद के महामंत्री थे. एक विशेष अध्ययन के अंतर्गत “प्रतिष्ठा/सत्यनिष्ठा” शीर्षक से रिपोर्ट में उन्हें “भ्रष्ट व्यक्ति” कहा गया था. उस समय बीजेपी के अरुण जेटली के नेतृत्व वाले कानून मंत्रालय ने गोयल के नामांकन को किसी तरह प्रमाणित कर दिया.

राष्ट्रपति केआर नारायणन ने गोयल की नियुक्ति के परवाने पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया और फाइल मंत्रालय को वापस भेज दी. फिर फाइल को कॉलेजियम को वापस भेजने के बजाए जेटली ने गोयल के नामांकन का स्वयं बचाव किया और आई. बी. के निष्कर्षों को “मिथ्या आरोप” कहकर खारिज कर दिया. गोयल की फाइल को एक बार फिर वापस भेज दिया गया, इस बार उस पर प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपई का हस्ताक्षर संलग्न था. अब गोयल की फाइल दूसरी बार नारायणन के सामने आई थी, उन्होंने अनिच्छापूर्वक नियुक्ति के परवाने पर हस्ताक्षर कर दिए. नारायणन ने मंत्रालय को लिखा “मैं महसूस करता हूं कि कार्यवाही के अधिक वांछनीय मार्ग के रूप में वही प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिए थी …जहां मुख्य न्यायाधीश का, जो चयन प्रक्रिया का अभिन्न अंग हैं, सुझाव मांगा जाता और विधिवत प्राप्त किया जाता है. मैं इस बात की भी कद्र करता, अगर मेरी त्वरित टिप्पणियों को मेरे पूर्व विचार के साथ भारत के मुख्य न्यायाधीश के साथ साझा किया जाता”.

गोयल दो उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश के बतौर सेवाएं देते रहे. मोदी के प्रधानमंत्री बनने के कुछ ही समय बाद गोयल को सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त कर दिया गया. पिछले वर्ष अवकाश प्राप्त करने से ठीक पहले उन्होंने एक पीठ की अध्यक्षता की जिसने लंबे समय से हिंदुत्व के आंखों की किरकिरी रहे अनुसूचित जाति एंव जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम के प्रावधानों को कमजोर कर दिया.

गोयल के साथ अरुण मिश्रा को भी पदोन्नत कर सुप्रीम कोर्ट लाया गया था. शुरू में कॉलेजियम ने तीन बार विचार किया था और मिश्रा के नामांकन के खिलाफ निर्णय लिया था, उनमें से एक अवसर पर उसने उनकी पृष्ठिभूमि की जांच के लिए कहा था. इकोनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली में प्रकाशित एक लेख के अनुसार जांच में पता चला था कि मिश्रा आरएसएस के निकट थे. मोदी सरकार के आगमन के साथ ही किसी पूर्व आशंका को साफ तौर पर दरकिनार कर दिया गया.

ठीक उसी समय जब गोयल और मिश्रा की पदोन्नति की गई थी मोदी सरकार ने पूर्व सॉलिसिटर जनरल गोपाल सुब्रमण्यम की सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति को अवरुद्ध कर दिया था. कॉलेजियम को लिखे गए एक पत्र में सुब्रमण्यम ने लिखा था कि जब मोदी का गुजरात में शासन था उसी दौरान 2005 में राज्य में सुरक्षा बलों द्वारा सोहराबुद्दीन शेख की गैरन्यायिक हत्या के मामले में मोदी के सहायक आमित शाह के मुकदमे से उनके जुड़े रहने के लिए अपमान स्वरूप यह प्रतिशोध था. सुब्रमण्यम ने विचार के लिए प्रस्तावित अपना नाम वापस ले लिया.

अक्टूबर 2015 में पूर्वाभास की भावना का अस्तित्व खत्म हो गया. 99वें संशोधन पर विचार करने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी कि एनजेएसी के निर्माण से इसने न्यायिक स्वतंत्रता का उल्लंघन किया है जो संविधान की मूल विशेषता रही है. इसलिए संशोधन को असंवैधानिक करार दे दिया गया. फैसले के दूसरे दिन इंडियन एक्सप्रेस ने पहले पेज पर शीर्षक लगाया, “न्यायालय सर्वोच्च: सुप्रीम कोर्ट”.

20 अप्रैल 2019 को साढ़े दस बजे भगवान दास रोड सुनसान था. सुबह ऑटो रिक्शा और कारों की भीड़, काले और सफेद कपड़ों में परेशान, भागते वकील, सुप्रीम कोर्ट के गेट सी के अंदर सुरक्षा जांच की कतार सब के सब गायब थे. मुख्य ब्लॉक के बाएं भाग में पाइप से पानी डाला जा रहा था. इससे उत्पन्न होने वाली फुहारें कोर्ट रूम की तरफ जा रहे किसी भी व्यक्ति पर बौछार डाल सकती थीं, लेकिन कोई था ही नहीं. शानिवार का दिन था और न्यायालय बंद होने वाला था.

एक घंटा पहले खबर फैल चुकी थी कि वर्तमान मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पर सुप्रीम कोर्ट की एक पूर्व कर्मचारी ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया था. एक दिन पूर्व कर्मचारी ने अपने आरोपों का विवरण देते हुए न्यायालय के कार्यरत न्यायाधीशों, बार और गोगोई को एक शपथपत्र भेजा था. उसने लिखा कि उसे सुप्रीम कोर्ट से निकाल दिया गया था और चूंकि उसने “सीजेआई की अवांछित यौन पेशकदमी” का विरोध किया था इसलिए उसे व उसके परिवार को पुलिस द्वारा प्रताड़ित किया गया था.

लगभग 10 बजे सुबह सुप्रीम कोर्ट ने एक नोटिस जारी कर कहा कि गोगोई ने न्यायपालिका की निष्पक्षता को प्रभावित करने वाले सार्वजनिक महत्व के एक बड़े मामले के समाधान हेतु “खास बैठक” के लिए एक “विशेष पीठ” का गठन कर दिया था. पीठ में जस्टिस मिश्रा और संजीव खन्ना के साथ-साथ स्वयं गोगोई भी शामिल थे. सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता द्वारा मामला न्यायालय के सामने पेश किया गया, यद्यपि यह स्पष्ट नहीं था कि कैसे, क्योंकि न्यायालय का सत्र चालू नहीं था.

मैं पाइप वाले पानी के फव्वारे के नीचे से न्यायालय की सीढ़ियों से ऊपर भीड़ को पार करता हुआ केंद्रीय गुंबद की ओर भागा. सीजेआई न्यायालय कक्ष के बाहर एक रक्षक ने मेरे प्रेस पास की जांच की और मैं अपनी सांसों को नियंत्रित करने के लिए कुछ सेकेंड के लिए रुक गया. अंदर गोगोई प्राकृतिक न्याय को रौंदने वाले क्रमानुसार तीसरे जज बनने वाले थे: किसी भी व्यक्ति को स्वयं अपने मामले में जज नहीं होना चाहिए (Nemo judex in sua causa).

44वें मुख्य न्यायाधीश जे. एस. खेहर को कालिखो पूल की मौत के बाद जांच का सामना करना पड़ा था. कालिखो 2016 में थोड़े समय के लिए अरुणाचल प्रदेश के कार्यवाहक मुख्यमंत्री थे. लंबे समय तक कांग्रेस के सदस्य रहे पूल ने अपनी पार्टी छोड़ दी थी और अन्य बागियों और बीजेपी के समर्थन से स्वयं अपनी सरकार बना ली थी. सुप्रीम कोर्ट ने पूल की सरकार को बर्खास्त कर दिया और व्यवस्था दी कि उनकी नियुक्ति अवैध थी और मुख्य न्यायाधीश बनने से पहले जस्टिस खेहर ने उस पीठ की अध्यक्षता की थी जिसने उक्त निर्णय दिया था. पूल के नाम से एक कथित सुसाइड नोट में आरोप लगाया गया था कि किसी खेहर के बेटे ने अपने पिता के निर्णय को प्रभावित करने के लिए राजनेता से रिश्वत के लिए सम्पर्क किया था. पीठ में खेहर के सहयोगी दीपक मिश्रा के एक सम्बंधी पर भी पत्र में वैसा ही करने के आरोप लगाए गए थे.

1990 के दशक में सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी थी कि कोई व्यक्ति मुख्य न्यायाधीश की पूर्व अनुमति के बिना सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश को नामजद करते हुए प्राथमिकी दर्ज नहीं करा सकता. पूल की विधवा डांगविमसाई ने उसी की अनुमति मांगते हुए खेहर को एक पत्र भेजा. खेहर ने पत्र को याचिका मानते हुए सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के लिए अपनी पसंद की पीठ के सामने मामला सूचीबद्ध कर दिया. डांगविमसाई ने इसका विरोध जताते हुए याचिका वापस ले ली. प्राथमिकी कभी दर्ज नहीं हुई. सुनवाई के दौरान उसके अधिवक्ता ने पीठ को बताया, “मुख्य न्यायाधीश की ओर से सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व न्यायाधीश ने उनसे मुलाकात की. मैं इससे अधिक कुछ नहीं कहना चाहता”.

45वें सीजेआई दीपक मिश्रा को एक मामले को प्रभावित करने के मकसद से रिश्वत मांगने के लिए एक पूर्व न्यायाधीश की मुद्रित बातचीत के मामले का सामना करना था, मिश्रा ने उच्चतम पद पर पहुंचने से पहले उसकी सुनवाई की थी. यह सब केद्रीय जांच ब्यूरो की जांच के भाग के तौर पर रिकॉर्ड किए गए थे. अधिवक्ताओं के एक समूह ने सुप्रीम कोर्ट से स्वतंत्र जांच की मांग करने के लिए सम्पर्क किया, खासकर उस पीठ से जिसका नेतृत्व न्यायालय के दूसरे वरिष्ठतम न्यायाधीश द्वारा किया जा रहा था. मिश्रा ने पीठ गठित करने की मुख्य न्यायाधीश की विशिष्ट शक्तियों का प्रयोग किया और समूह की याचिका को सुनवाई के लिए अपने नेतृत्व वाली चुनिंदा पीठ को सौंप दिया. पीठ ने याचिकाकर्ताओं की दलीलों को सुनने का कष्ट किए बिना ही मामले को खारिज कर दिया.

बाद में मिश्रा तब महाभियोग की कार्यवाही का सामना करने वाले पहले मुख्य न्यायाधीश बन गए जब विपक्ष ने संसद में उनके निष्काषन का प्रस्ताव रखा. इस प्रस्ताव को बीजेपी नेता और राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू द्वारा अवरुद्ध कर दिया गया. विपक्ष ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दाखिल की. जब मामले की सुनवाई करने वाली पीठ से याचिकाकर्ताओं ने पूछा कि इसे गठित करने का आदेश किसने पारित किया तो पीठ ने जवाब देने और याचिकाकर्ताओं ने आगे की बहस करने से इनकार कर दिया.

अब बारी थी 46वें सीजेआई गोगोई की. मैं खाली बरामदे से होता हुआ मुख्य न्यायाधीश की अदालत में दाखिल हुआ. किसी प्रकार से देखने के लिए भागकर पहुंच गए केवल अधिवक्ताओं से अधभरे न्यायकक्ष के सामने गोगोई एक मानोलॉग के बीच में थे. सॉलिसिटर जनरल मेहता और अटॉर्नी जनरल के.के. वेणुगोपाल सामने खड़े थे. केवल पीछे के आगंतुक कक्ष पत्रकारों से पूरी तरह भरे हुए थे. अधिकतर वही लोग थे जिनको गोगोई स्वयं संबोधित करते प्रतीत होते थे.

सर्वोच्च न्यायालय की मुहर के नीचे बैठे गणराज्य के सबसे बड़े न्यायाधीश ने शिकायतकर्ता के उद्देश्य पर सवाल किया. सॉलिसिटर जनरल ने शिकायतकर्ता को “अनैतिक महिला” बताया”. उसका बचाव करने के लिए उसके अधिवक्ता मौजूद नहीं थे.

गोगोई ने बताया कि शिकायतकर्ता को दो एफआईआर का सामना करना पड़ा था जिसमें एक वह भी शामिल था जो सुनवाई के लिए लंबित था और यह कि वह नहीं समझते थे कि उन्हें इस हद तक गिर जाना चाहिए कि उसका जवाब भी दें. उन्होंने मुख्य न्यायाधीश कार्यालय के खिलाफ साजिश का आरोप लगाया और कई बार कहा कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता खतरे में है. उन्होंने कहा, “मेरे चपरासी के पास मुझसे ज्यादा पैसा है” और दावा किया कि चूंकि मेरे ऊपर कोई भ्रष्टाचार का आरोप नहीं लगा सकता इसलिए “वे इसे ले आए हैं”.

करीब आधा घंटा तक बोलने और पूरी सुनवाई का संचालन करने के बाद गोगोई ने घोषणा की कि उस दिन पारित किए गए आदेश के वह पक्ष नहीं होंगे. बाद में वह केवल दो न्यायाधीशों के नाम से प्रकट हुआ. आदेश ने मीडया से “बेबुनियाद और निराधार आरोपों” को प्रकाशित करने में संयम बरतने को कहा. उसके बाद लगभग सभी खबरों के शीर्षकों में शिकायतकर्ता के आरोपों से गोगोई का खंडन शामिल था.

गोगोई के बचाव में सबसे पहले कूदने वालों में तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली थे. “यह न्यायपालिका के साथ खड़े होने का समय है” शीर्षक से एक ब्लॉग पोस्ट में उन्होंने आरोपों को “संस्था पर हमला” की संज्ञा दी और हर किसी को “1970 के दशक” की याद दिलाई जब “हमने न्यायाधीशों का दमन, न्यायालय को डराना-धमकाना और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का स्थानांतरण देखा”. उन्होंने अपनी बात समाप्त करते हुए कहा कि “इससे निपटने के लिए हमें इसको न्यायालय के विवेक पर छोड़ देना चाहिए”.

न्यायालय का विवेक आरोपों की छानबीन के लिए तीन न्यायाधीशों के पैनल के गठन के पक्ष में था. पैनल की आत्मस्वीकृत के मुताबिक इसको विभागीय तफतीश या घरेलू जांच या संभावित यौन उत्पीड़न की जांच करने का अधिकार प्राप्त नहीं था. यह अस्पष्ट था कि क्या पैनल को गोगोई के खिलाफ फैसला सुनाने का अधिकार भी है. इसने अपनाई जाने वाली प्रक्रिया से शिकायतकर्ता को अवगत नहीं कराया, यहां तक कि अपनी कार्यवाहियों का कोई रिकॉर्ड उसे नहीं दिया, जब वह इसके सामने पेश हुए तो उसे वकील रखने की भी अनुमति नहीं दी गई. विरोध स्वरूप उसने खुद को कार्यवाही से अलग कर लिया. इस दौरान सुप्रीम कोर्ट के सामने प्रक्रिया के इस उपहास के प्रति अपनी निराशा व्यक्त करने के लिए विरोध स्वरूप जो लोग जमा हो गए थे, वे पुलिस द्वारा हिरासत में ले लिए गए.

पैनल ने एकतरफा कार्यवाही जारी रखी और पाया कि “आरोप में कोई दम नहीं है”. न्यायालय ने यह पता लगाने के लिए भी आदेश पारित किया कि शिकायतकर्ता मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ किसी साजिश का हिस्सा तो नहीं है. वह तफतीश चल रही है.

एनजेएसी की किस्मत का फैसला खेहर के नेतृत्व वाली सुप्रीम कोर्ट की 5 न्यायाधीशों की पीठ ने चार–एक के बहुमत से कर दिया. अकेले असंतुष्ट जस्टिस चेलामेश्वर अपनी राय के पहले ही वाक्यखंड से मामले की गहराई तक पहुंच गए थे:

हम न्यायपालिका के सदस्य राज्य के दो अन्य अंगों से अपनी मुक्ति में बहुत प्रसन्न और आनंदित हैं. लेकिन क्या हमने शह–मात के सिद्धांत से अपनी मुक्ति के लिए कोई वैकल्पिक संवैधानिक नैतिकता विकसित की है जो ऐसी स्वतंत्रता के दुरुपयोग से नियंत्रित करने के लिए पर्याप्त सुदृढ़ हो? क्या हमने अधिक स्वतंत्रता प्राप्त कर ली है जिसे हमारी बुद्धिमत्ता, परिपक्वता और स्वभाव पचा सकता है? क्या हम वास्तव में निर्भरता के कुचक्र से बाहर निकल चुके हैं या केवल इसे राजनीतिक से न्यायिक पदानुक्रम में स्थानांतरित कर दिया है.

पीठ के अन्य सदस्यों की तरह चेलामेश्वर कार्यपालिका के प्रभुत्व के खतरों से पूरी तरह अवगत थे. और अन्यों की तरह वह स्वीकार भी करते थे कि कॉलेजियम प्रणाली सम्पूर्णता से बहुत परे थी. लेकिन जहां दूसरों का मानना था कि कॉलेजियम न्यायिक स्वतंत्रता को सुरक्षित रखने के लिए न्यूनतम अस्वीकार्य उपलब्ध विकल्प है, चेलामेश्वर उससे असहमत थे, सबसे अधिक, इसलिए कि प्रणाली पूर्ण रूप से अपारदर्शी थी. जब कॉलेजियम के विमर्शों और निर्णयों की बात आई तो, कभी-कभी छन कर आने वाली खबरों के अलावा, उन्होंने लिखा, “रिकॉर्ड किसी भी व्यक्ति की पहुंच से पूरी तरह बाहर हैं जिसमें न्यायालय के वह न्यायाधीश भी शामिल हैं जो इतने भाग्यशाली नहीं हैं कि भारत के मुख्य न्यायाधीश बन सकें”.

चेलामेश्वर ने एनजेएसी में न केवल न्यायपालिका और कार्यपालिका के सदस्यों के साथ बल्कि जैसा कि संशोधन में प्रस्तावित था, सभ्य समाज से आने वाले दो बाहरी प्रतिनिधियों के साथ भी गुण दोष देखे, कोई संवैधानिक तिरस्कार नहीं देखा. चेलामेश्वर की दलील थी कि यह प्रावधान “कॉलेजियम के भीतर अनैतिक दुविधाओं और न्यायिक एंव कार्यकारी शाखाओं के बीच अनाचारी समायोजनों के तौर पर” काम कर सकता है”.

यहां, चेलामेश्वर ने एक वर्जना को तोड़ा. विधिक और न्यायिक बंधुताओं की मौखिक संहिताओं में “अनैतिक दुविधाओं” और “अनाचारी समायोजनों” जैसी अलिखित संहिताओं में यद्यपि व्यक्तिगत रूप से फुसफुसाया जाता है लेकिन सार्वजनिक रूप से बोला नहीं जाता. सुप्रीम कोर्ट की पूर्व न्यायाधीश रूमा पॉल ने इस ओर पहले इशारा किया था और चेलामेश्वर ने उन्हें भी उद्धृत किया:

कॉलेजियम में कभी-कभी आम सहमति ‘कुछ लो कुछ दो’ के आधार पर बनती है जिसके नतीजे में संदिग्ध नियुक्तियां होती हैं, वादियों और न्यायिक प्रणाली की विश्वसनीयता पर विनाशकारी प्रभाव पड़ता है. इसके अतिरिक्त, बढ़ती हुई चाटुकारिता और व्यवस्था के भीतर “गोलबंदी” द्वारा सांस्थानिक स्वतंत्रता से भी समझौता किया गया है.

चेलामेश्वर ने सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा रिकार्डों से दो उदाहरण प्रस्तुत किए. एक में, चेलामेश्वर ने लिखा कि 2009 में मद्रास हाई कोर्ट में एक न्यायाधीश की पदोन्नति रोक दी गई थी. यह कॉलेजियम प्रणाली को नियंत्रित करने वाली “कार्यपालिका और न्यायपालिका द्वारा कानून के ध्वंस का संयुक्त उदगम” प्रतीत होती थी, ऐसा मामला “जिसे कोई भी पक्ष स्वीकार करने का इच्छुक नहीं था”. दूसरा मामला, लगभग उसी समय का है, कर्नाटक उच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश पी.डी. दिनाकरन को कॉलेजियम द्वारा सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नति के लिए नामांकित किया गया था. नामांकन की समीक्षा के समय दिनाकरन पर अपनी शक्तियों के दुरूपयोग और अपनी अधिकारिक आय से असंगत बड़े स्तर पर धन संग्रह का आरोप लगाया गया. जांच की सार्वजनिक मांग के बाद उनकी पदोन्नति स्थगित कर दी गई.

चेलामेश्वर ने उल्लेख किया कि तमाम संकेतों के अनुसार पहले कॉलेजियम दिनाकरन का पदोन्नति के लिए चयन करने में अपनी सामान्य प्रक्रियाओं से विचलित नहीं हुआ था. वास्तव में, सामान्य तौर तरीकों के एतबार से ऐसे न्यायाधीश प्रारंभिक चरण पार कर गए थे, इसने “इस न्यायालय द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत के उथलेपन को (कम से कम एक बार) उजागर कर दिया …कि सीजेआई और कॉलेजियम संवैधानिक अदालतों के न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए उम्मीदवारों की उपयुक्तता का आंकलन करने के सबसे उपयुक्त प्राधिकरण हैं”. चेलामेश्वर ने उल्लेख किया कि एनजेएसी की सुनवाई के दौरान दूसरे उदाहरणों का भी जिक्र “न केवल इस सिद्धांत के उथलेपन को प्रदर्शित करने बल्कि यह दिखाने के लिए भी किया गया था कि कॉलेजियम की सिफारिशें आवश्यक रूप से हमेशा संस्था और राष्ट्र के बेहतरीन हित में नहीं रही हैं”.

जिस समय यह लिखी गई थी उससे पहले तक यह भारी बात थी. तब से उनके बोझ में केवल बढ़ोतरी हुई है और बहुत अधिक अनुपात में हुई है. एनजेएसी केस में पीठ का नेतृत्व करने के 15 महीने बाद खेहर की मुख्य न्यायाधीश के पद पर पदोन्नति से संकटों की ऐसी श्रंखला शुरू हो गई जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट की प्रतिष्ठा को तार-तार कर दिया. मुख्य न्यायाधीशों द्वारा स्वयं अपने मामले में व्यवस्था देने का एक क्रम रहा है, और कार्यरत मुख्य न्यायाधीश पर महाभियोग चलाने का पहली बार प्रयास हुआ. एक अभूतपूर्व प्रेस वार्ता भी हुई, जिसमें वरिष्ठ न्यायाधीशों ने संस्था के अंदर की सड़ांध पर खतरे का संकेत देने के मकसद से मीडिया से बात करने के लिए न्यायिक प्रोटोकोल तोड़ा. इन सब के साथ ही न्यायपालिका और कार्यपालिका के सम्बंधों में ऐसी दिशा में उल्लेखनीय मोड़ आया जो सरकार के अन्य विभागों पर नियंत्रक के बतौर न्यायालय की क्षमता पर अनश्चितता को बढ़ाता है.

अपरिहार्य विडंबना यह है कि आपातकाल के बाद न्यायपालिका द्वारा स्वयं के कार्यपालिका से दूरी बनाने के सभी प्रयास के बावजूद वह अपनी स्वतंत्रता पर उन्हीं सवालों का सामना करने के लिए पूरा चक्र घूम चुकी है जिससे वह उस समय बाहर आयी थी. उसी के साथ कॉलेजियम प्रणाली बनाने का एक मात्र उद्देश्य मात खा गया. इंदिरा गांधी के जमाने में संकट को कार्यकारी अधिरोपण के रूप में देखा गया था. न्यायपालिका की सम्पूर्ण प्रतिक्रिया ने इसे पहले ही मान लिया था कि वही सब कुछ था. लेकिन अब न्यायिक प्रधानता के दशकों बाद न्यायाधीश विश्वास के साथ इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि गंदगी काफी हद तक उनकी अपनी बनाई हुई है.

खासकर कार्यपालिका अपने वर्तमान अवतार में दोष रहित नहीं है. शक्ति के केंद्रीकरण पर अपनी ग्रस्तता से मोदी सरकार विशेष रूप से न्यायिक स्वतंत्रता के लिए शक्तिशाली खतरा है और यह अदालतों की दयनीय स्थिति की सबसे बड़ी लाभार्थी भी रही है. लेकिन यदि इसने अदालतों से अधिकतम प्राप्त करने के लिए यथासंभव दबाव बनाया है तो यह पूर्व के अधिकारी वर्ग के और उनके भी सदृश है जो उनका अनुसरण करेंगे. कार्यकारी अधिकारियों के बारे में हमेशा यह माना जाता है, और सही भी है कि वे न्यायिक अधिकार क्षेत्र को रौंदना चाहते हैं. इस धारणा ने भारत समेत विश्व के सभी लोकतंत्रों में न्यायिक नियुक्ति प्रणालियों को हमेशा के लिए जीवंत बना दिया. लेकिन जहां प्रत्येक लोकतंत्र ने न्यायालय के संयोजन पर कार्यपालिका की अनावश्यक शक्ति के खिलाफ सुरक्षा के अपने रास्ते तो तलाश किए हैं लेकिन किसी अन्य लोकतंत्र ने कॉलेजियम प्रणाली जैसी कोई चीज नहीं बनाई है.

वर्तमान संकट के निर्माण का विस्तार पिछले 5 वर्षों से काफी पहले हो चुका था हालांकि इन वर्षों में यह अपने चरम पर पहुंच गया है. इसके कई कारण हैं और इसमें अदालतों की वह आदत शामिल है जिसमें किसी न्यायाधीश के खिलाफ दुर्व्यवहार के आरोपों को पूरी न्यायिक प्रणाली की अवमानना के रूप में मान लिया जाता है और इस तरह व्यापक खामोशी के लिए बाध्य कर दिया जाता है. यदि न्यायपालिका अभी उस बिंदु तक नहीं पहुंची है जहां से वापसी संभव नहीं है तो उस कगार से इसको वापसी की यात्रा के लिए कई रास्ते अपनाने होंगे. वे रास्ते क्या होंगे और किस तरफ ले जाएंगे अभी कहा नहीं जा सकता. लेकिन उस यात्रा को कॉलेजियम की समीक्षा से शुरू करना होगा.

चेलामेश्वर ने अपनी असहमति की राय में लिखा कि संविधान ने सजा या इनाम के बतौर पारिश्रमिक में बदलाव के खिलाफ या निष्काषन के लिए कठोर मानदंड निर्धारित करके और इसी तरह के अन्य सुरक्षा के माध्यम से “न्यायपालिका के सदस्यों के कार्यकाल और सेवा शर्तों की रक्षा के लिए असाधारण संरक्षण” प्रदान किया है. संविधान ने ऐसा इस आशा के साथ किया है कि “इस प्रकार से संरक्षित न्यायिक पदों पर बैठे लोग अपने कर्तव्यों का निर्वाह सम्पूर्ण स्वतंत्रता और दक्षता के साथ कर सकेंगे. लेकिन चेलामेश्वर ने स्वीकार किया, “ऐसे लोगों को किसी भी सीमा तक विधिक और सांस्थानिक सुरक्षा आवश्यक स्वतंत्रता और दक्षता नहीं प्रदान कर पाएगी जिनके अंदर इसकी स्वाभाविक कमी है”. इसने प्रणाली में उसकी सबसे बड़ी भेद्यता छोड़ दी है– “केवल एक रास्ता है जिससे सरकारें न्यायपालिका पर कुछ नियंत्रण हासिल करने के बारे में सोच सकती हैं और वह है सहजता के साथ अपने वश में कर लेने वाले व्यक्तियों की नियुक्ति का प्रयास”. किसी न्यायाधीश को वश में करने के कारकों में “व्यक्तिगत महत्वकांक्षा, राजनीतिक, धार्मिक या साम्प्रदायिक प्रतिफल, अक्षमता और ईमानदारी की कमी” शामिल है.

कॉलेजियम निचली अदालतों पर नजर रखने और इन खतरनाक कारकों की घुसपैठ से उच्च न्यायपालिका को बचाने की पूरी जिम्मेदारी स्वयं अपने ऊपर लेता है. लेकिन कॉलेजियम के वर्तमान तौर तरीके इस जिम्मेदारी को पूरा करने के लिए उचित उपाय नहीं करते. इस निकाय के एक पूर्व सदस्य ने मुझे बताया, “देखें, यह काम कैसे करता है, जहां कहीं भी वे मिलते हैं संभावित नामों की चर्चा करते हैं– कॉलेजियम की अधिकारिक बैठकें नहीं होतीं. मुख्य न्यायाधीश कॉलेजियम के सदस्यों से एक–एक करके बात करते हैं, पहले से कोई सूची तैयार नहीं होती, कागज पर कुछ नहीं होता, सम्भावित उम्मीदवारों द्वारा लिखे गए निर्णयों की कोई छानबीन नहीं होती. मेरा मतलब है, वे एक भी उदाहरण नहीं दिखा सकते जब किसी व्यक्ति की सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नति से पहले उस व्यकित के फैसलों की कॉलेजियम के सदस्यों द्वारा जांच की गई हो. ऐसा कभी नहीं किया जाता है”.

पूर्व कॉलेजियम सदस्य ने इसे “नियुक्तियों की वस्तु विनिमय प्रणाली– लो और दो” बताया. न्यायाधीश “बस यही बात करते हैं, आपको मालूम है– कोई कहता है अच्छा आदमी है- बस इतना. वे धारणाओं पर चलते हैं. जब कोई नाम लाया जाता है तो उस नाम के बारे में अपने स्मरण में सोचते हैं”. फिर एक सदस्य कह सकता है “ठीक है, मैं आपके नाम से सहमत हूं, लेकिन आप इस नाम विशेष को सूची में शामिल कर दें”. दूसरा कह सकता है, “अगर आप इस एक नाम को निकाल दें तो मैं अन्य नामों पर सहमति दे दूंगा”.

पूर्व कॉलेजियम सदस्य कुंठा में झटके से अपनी कुर्सी पर वापस बैठ गए. “मेरा मतलब है, कॉलेजियम का यह पूरा काम एक तमाशा है”.

(दो)

उच्च न्यायपालिका की नियुक्ति की प्रक्रिया भारत का संविधान लागू होने से पहले का विवाद और चिंता का केंद्र थी. 1944 में मोहनदास गांधी और मोहम्मद अली जिन्ना ने पृथक मुस्लिम मातृभूमि के सवाल पर कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच दरार को भरने के प्रयास में बातचीत शुरू की. अधिवक्ता तेजबहादुर सपरू को एक समिति की अध्यक्षता करने के लिए कहा गया जो स्वयं इसके अपने शब्दों में “पूरे साम्प्रदायिक और अल्पसंख्यकों के सवाल पर संवैधानिक और राजनीतिक नजरिए से गौर” करेगी. 1945 में सपरू समिति की रिपोर्ट प्रकाशित हुई जो कुछ हद तक न्यायपालिका को भी सम्बोधित करती थी. मोटे तौर पर, इसने भारत सरकर के 1935 के अधिनियम के उन्हीं प्रावधानों को दोहराया जिसके तहत सुप्रीम कोर्ट की अग्रवर्ती फेडरल कोर्ट ऑफ इंडिया की स्थापना की गई थी. राजनीतिक संस्थानों से न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बचाने के लिए समिति ने न्यायाधीशों के वेतन और कार्यकाल तय करने, केवल घोर कदाचार की स्थिति में पदच्युत करने और मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से राष्ट्रपति द्वारा नियुक्ति किए जाने का आह्वान किया था.

सुप्रीम कोर्ट के तीन वरिष्ठतम न्यायाधीशों को पीछे छोड़कर 1973 में इंदिरा गांधी का प्रधानमंत्री की हैसियत से ए०एन० रे को मुख्य न्यायाधीश पद पर आसीन करना वरिष्ठता के आधार पर पदोन्नति की उस बहुमूल्य परंपरा का उल्लंघन था.

जब 1946 में संविधान सभा बुलाई गई तो न्यायिक मामलों को देखने के लिए एक अनौपचारिक समिति बनाई थी. संवैधानिक इतिहासकर ग्रेनविले ऑस्टिन के अनुसार, यद्यपि समिति सपरू रिपोर्ट से प्रभावित थी लेकिन जब नियुक्तियों की बात आई तो इसे चिंता थी कि सपरू ने बहुत कुछ राष्ट्रपति की इच्छा पर छोड़ दिया था. अनौपचारिक समिति ने दो वैकल्पिक परियोजनाओं का प्रस्ताव रखा था. एक में, न्यायाधीशों को सीजेआई की सहमति से राष्ट्रपति द्वारा नामित किया जाएगा और हाईकोर्ट के न्यायाधीशों, सरकार के विधिक अधिकारियों और संसद सदस्यों के चुनिंदा निकाय द्वारा उनकी पुष्टि की जाएगी. वैकल्पिक तौर पर वही चुनिंदा निकाय प्रत्येक रिक्त न्यायिक पद के लिए तीन उम्मीदवारों को नामित करेगा जिसमें राष्ट्रपति और सीजेआई सहमति से एक का चुनाव करेंगे.

जवाहरलाल नेहरू की अगुवाई वाली केंद्रीय संविधान समिति इन दोनों योजनाओं से संतुष्ट नहीं थी. इसने सपरू समिति के प्रस्तावों को अपनाने का आग्रह किया. जवाब में फेडरल कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एच०जे० कानिया ने नेहरू को एक पत्र लिखा जिसमें नियुक्तियों को कार्यपालिका या राजनीतिक प्रभाव से अलग रखने पर बल दिया था. कानिया ने लिखा कि हाई कोर्ट के लिए नामांकित व्यक्तियों का चयन करते समय सभी मध्यस्थों और स्थानीय राज्य सरकार की तरफ से किसी संभावित हस्तक्षेप को दरकिनार करते हुए उस न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और राज्य के राज्यपाल को सीधे सम्पर्क में रहना चाहिए.

1949 की गर्मियों में न्यायिक प्रावधानों के मसौदे पर चर्चा करने के लिए संविधान सभा की बैठक हुई. नेहरू ने सभा से कहा कि देश के न्यायाधीश ऐसी “उच्चतम शुद्धता” वाले व्यक्ति होने चाहिए जो “कार्यकारी सरकार और जो कोई भी उनके रास्ते में आए उसके विरूद्ध खड़े हो सकें”. लेकिन ऐसा किस तरह हो इस पर अलग-अलग सदस्यों के अलग-अलग सुझाव थे.

शिब्बन लाल सक्सेना ने संशोधन प्रस्ताव रखा कि नियुक्तियों की पुष्टि संसद के दो तिहाई बहुमत से की जाए. के०टी० शाह का विचार था कि न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा राज्य के परिषदों के परामर्श के बाद ही की जाए. बी० पोकर साहिब की मांग थी राष्ट्रपति केवल मुख्य न्यायाधीश की सहमति से नियुक्तियां करें.

मसौदा तैयार करने वाली समिति के प्रभारी बी. आर. आंबेडकर ने तीनों प्रस्तावों को खारिज कर दिया. उन्होंने कहा “सदन में इस बात पर मतभेद नहीं हो सकता कि हमारी न्यायपालिका दोनों चीजें अवश्य होनी चाहिए, उसे कार्यपालिका से आजाद होना चाहिए और अपने आप में सक्षम भी होना चाहिए. मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि जिन परिस्थितियों में आज हम रहते हैं, जहां दायित्वों की समझ उस हद तक विकसित नहीं हो पाई है जितनी हम संयुक्त राज्य (अमेरिका) में पाते हैं, किसी प्रकार की कैद या सीमा के बिना मात्र उस समय के कार्यकारी अधिकारी के परामर्श से राष्ट्रपति को नियुक्तियां करने का उत्तरदायित्व सौंप देना खतरनाक होगा. उसी तरह मुझे लगता है कि कार्यकारी अधिकारी की इच्छा से की गई प्रत्येक नियुक्ति को विधायिका की सहमति के अधीन कर देना भी बहुत उपयुक्त प्रावधान नहीं है. इसकी व्यवहारिक दिक्कतों के अलावा नियुक्ति में राजनीतिक दबाव और राजनीतिक प्रतिफल की संभावना भी शामिल हो जाती है. इसलिए मसौदा लेख बीच का रास्ता अपनाता है. यह राष्ट्रपति को नियुक्तियों के मामले में सर्वोच्च नहीं बनाता और संपूर्ण अधिकार नहीं देता है. यह विधायिका के दबाव को भी आमंत्रित नहीं करता है.”

जहां तक राष्ट्रपति को सीजेआई की सहमति की आवश्यकता की बात है, आंबेडकर ने कहा, “मुझे लगता है कि जो लोग इस प्रस्ताव की वकालत करते हैं वे मुख्य न्यायाधीश की निष्पक्षता और उसके फैसलों की तार्किकता पर दृढ़ता से विश्वास करते हैं. मैं व्यक्तिगत रूप से महसूस करता हूं कि निःसंदेह मुख्य न्यायाधीश बहुत प्रतिष्ठित व्यक्ति है. लेकिन सबके बावजूद मुख्य न्यायाधीश हर तरह की कमजोरियों, भावनाओं और पूर्वाग्रहों वाला इंसान होता है जो आम आदमी की तरह हम सभी में होती हैं; और मैं सोचता हूं न्यायाधीशों की नियुक्तियों में व्यवहारिक रूप से मुख्य न्यायाधीश को वीटो की अनुमति देना वास्तव में मुख्य न्यायाधीश को वही अधिकार हस्तांतरित करना है जिसे हम राष्ट्रपति या उस समय की सरकार को देने के लिए तैयार नहीं हैं. इसलिए मैं सोचता हूं कि वह भी एक खतरनाक प्रस्ताव है”.

अभिपुष्ट संविधान में कहा गया, “सुप्रीम कोर्ट के प्रत्येक न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा अपने अधिकार के अंतर्गत हस्ताक्षर और मुहर से सुप्रीम कोर्ट और राज्यों की उच्च न्यायालयों के ऐसे न्यायाधीशों के परमार्श से किया जाएगा जैसा कि राष्ट्रपति उस उद्देश्य के लिए आवश्यक समझता है” शर्त यह है कि “मुख्य न्यायाधीश के अलावा किसी न्यायाधीश की नियुक्ति के मामले में भारत के मुख्य न्यायाधीश से हमेशा परामर्श किया जाएगा”.

सुप्रीम कोर्ट पर विद्वता में व्यापक रूप से माना जाता है कि आजादी के बाद नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल तक कार्यपालिका और न्यायपालिका ने संविधान के संरक्षक की भावना को बनाए रखा. 1964 में नेहरू की मृत्यु के बाद के दशकों में नेहरू काल के विवादों की चमक में सब कुछ आसानी से भुला दिया गया है हालांकि मुश्किल से ही उनका कोई नुकसान था.

औपचारिक रूप से 1950 में संविधान ग्रहण करने से तीन दिन पहले नेहरू ने गृह मंत्री वल्ल्भभाई पटेल को एक निजी पत्र भेजा. पत्र में उन्होंने देश के सर्वोच्च न्यायिक अधिकारी एच०जे० कानिया के पहले मुख्य न्यायाधीश बनने पर अपना पूर्वरक्षण व्यक्त किया. बशीर अहमद की मद्रास हाई कोर्ट में स्थाई नियुक्ति रोकने के कानिया के प्रयासों में नेहरू ने साम्प्रदायिकता की गंध महसूस की थी. पटेल ने जवाब में लिखा कि उन्होंने पहले ही अहमद की नियुक्ति का रास्ता साफ कर दिया था और कानिया को उनके खिलाफ कार्यवाही न करने की चेतावनी दी थी.

1951 में कानिया की मृत्यु के बाद नेहरू की इच्छा नहीं थी कि उनके बाद सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश पतंजलि शास्त्री उनका पद संभालें. अटॉर्नी जनरल एम.सी. सीतलवाड़ को पहले उस पद का प्रस्ताव किया गया लेकिन 65 साल से अधिक आयु होने के कारण वह न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की उम्र पार कर चुके थे. इसके बजाए सीतलवाड़ ने नियुक्ति के लिए मुंबई उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एम०सी० छागला के नाम का सुझाव दिया. जब सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों ने इन योजनाओं के बारे में सुना तो उन सभी ने वरिष्ठता का सम्मान न करने पर त्यागपत्र देने की धमकी दी. सरकार ने समर्पण कर दिया. यही बिंदु था जहां से न्यायिक नियुक्ति में वरिष्ठता का सिद्धान्त अलिखित कानून बन गया.

भारत का पहला बड़े भ्रष्टाचार का कलंक 1957 में तब सामने आया जब पता चला कि लाइफ इंशोरेन्स कारपोरेशन ने एक निजी उद्यम में लाखों रुपए के स्टॉक खरीदे थे. वित्त मंत्रालय पर सार्वजनिक धन को निजी हाथों में सौंपने का आरोप लगाया गया था. छागला ने मामले की जांच के लिए बने एकल न्यायाधिकरण का नेतृत्व किया. अभी बहु चर्चित जांच चल ही रही थी कि नेहरू ने वित्त मंत्री के पक्ष में सार्वजनिक बयान दे दिया, छागला बहुत नाराज हुए. जांच के बाद मंत्री को त्याग पत्र देने पर विवश होना पड़ा. छागला ने बाद में अपनी आत्मकथा में लिखा, “मैंने अपना काम ईमानदारी से किया था और प्रधानमंत्री या कोई अन्य खुश हो या नाराज इसकी परवाह किए बिना मैं अपने निष्कर्ष पर पहुंचा था”.

नेहरू की वारिस और उत्तराधिकारी इंदिरा गांधी उस आचरण पर खरी नहीं उतरीं जैसा कि ए.एन.रे की बतौर मुख्य न्यायाधीश नियुक्ति ने स्पष्ट कर दिया था. उनकी पदोन्नति पर सुप्रीम कोर्ट में वैसा कोई विद्रोह नहीं किया जैसा कि शास्त्री के मामले में नेहरू के समय हुआ था. आपातकाल के बीच जब रे सेवानिवृत्त हुए तो वरिष्ठता के क्रम में अगले न्यायाधीश हंस राज खन्ना थे. वह अकेले न्यायाधीश थे जिन्होंने हैबियस कार्पस केस में आपातकाल की सरकार के खिलाफ वोट देने का साहस किया था. गांधी ने खन्ना को ऐसे न्यायाधीश के पीछे ढकेल दिया जिसने उस केस में सरकार के पक्ष में वोट किया था.

आपातकाल के दौरान सरकार ने बड़ी संख्या में उच्च न्यायालयों के उन न्यायाधीशों का भी स्थानांतरण कर दिया था जिन्होंने इसके विरोधियों के खिलाफ तानाशाही शक्तियों के प्रयोग को खारिज किया था. न्यायाधीशों की तरक्की पर अंकुश लगाते हुए अदालतों में उनकी पोस्टिंग को सजा के तौर पर देखा गया या उन स्थानों पर भेजा गया जहां उन्होंने वरिष्ठता की तुलना में कम हैसियत वाले पद ग्रहण किए. संविधान सम्मत जाहिर करने के लिए स्थानांतरणों को मुख्य न्यायाधीश के परामर्श के बाद राष्ट्रपति के आदेश द्वारा प्रभावी बनाया गया था. इससे पहले इस प्रकार के स्थानांतरण से पूर्व स्थनांतरित किए जाने वाले की सहमति की आवश्यकता होती थी लेकिन गांधी की सरकार ने इस परम्परा पर कोई ध्यान नहीं दिया.

आपातकाल खत्म होने के बाद जनता पार्टी ने कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर दिया. लेकिन आंतरिक कलह से खोखली हो गई नई सरकार ज्यादा दिनों तक नहीं टिकी. 1980 में कांग्रेस अपनी कुलमाता के नेतृत्व में चुनकर फिर से सत्ता में आ गई. मुख्य न्यायाधीश की कुर्सी पर वाई.वी. चंद्रचूण थे जिन्होंने हैबियस कार्पस केस में बहुमत का पक्ष लिया था. सुप्रीम कोर्ट के दूसरे सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश पी.एन. भागवती ने गांधी को “चुनावों में जबरदस्त जीत” और उनकी “भारत की प्रधानमंत्री के रूप में विजय वापसी” पर “हार्दिक बधाई” संदेश भेजा था”.

न्यायालय से बोरिया-बिस्तर फिर से बंधना शुरू हो गया. संविधान हाईकोर्ट के अतिरिक्त न्यायाधीशों को दो साल के कार्यकाल तक सेवा देने की आज्ञा देता है लेकिन गांधी की सरकार उनकी नियुक्ति एक बार में केवल कुछ महीनों के लिए करती थी और अंतिम क्षण तक उनको सेवा विस्तार नहीं देती थी. इसने न्यायाधीशों को लगातार सरकार की मनमर्जी पर छोड़ दिया. आपातकाल के दौरान भी इसी तरह की रणनीति अपनाई गई थी जब सरकार के खिलाफ व्यवस्था देने के बाद दो अतिरिक्त न्यायाधीशों के कार्यकाल के विस्तार को नामंजूर कर दिया गया था.

गांधी सरकार ने प्रत्येक उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों में से एक तिहाई को न्यायालय के अधिकार क्षेत्र से बाहर से लाने का प्रस्ताव रखा. यह ऐसा कदम था जिसके लिए अभूतपूर्व स्तर पर बड़ी संख्या में स्थानांतरण की आवश्यकता थी. दिखावे के लिए ही सही, इसने इस बार स्थानांतरण से पहले सहमति की परंपरा का सम्मान करने की आवश्यकता महसूस की. कानून मंत्री पी० शिव शंकर ने राज्यों के मुख्यमंत्रियों को सर्कुलर जारी किए जिनमें उनके अपने कार्यक्षेत्र में अतिरिक्त न्यायाधीशों की देश में किसी अन्य स्थान पर स्थाई न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के लिए सहमति प्राप्त करने के निर्देश दिए गए थे.

न्यायिक सुधार के लिए सिफारिश करने की जिम्मेदार विधि आयोग ने प्रांतवाद पर अंकुश लगाने और “राष्ट्रीय एकता” को बढ़ावा देने के उद्देश्य से उच्च न्यायालयों की प्रस्तावित संरचना पर इससे पहले ही बहस छेड़ दी थी. लेकिन आयोग ने इस लक्ष्य को न्यायाधीशों के प्रारंभिक कार्यभार वितरण के माध्यम से हासिल करने का सुझाव दिया था, स्थानांतरण के माध्यम से नहीं. गांधी की सरकार “राष्ट्रीय एकता” के हित में काम करने का दावा करती थी लेकिन न्यायिक इतिहास का बोध रखने वाला कोई भी इसे आसानी से समझ सकता था.

एस०पी० गुप्त और अन्य बनाम राष्ट्रपति भारत सरकार केस में सुप्रीम कोर्ट की सात न्यायाधीशों की पीठ ने अन्य चीजों के अलावा कानून मंत्री के सर्कुलर की वैधता पर भी विचार किया था. यह ‘फर्स्ट जजेज केस’ के नाम से मशहूर हुआ. न्यायाधीशों के बहुमत ने व्यवस्था दी कि चूंकि दूसरे राज्य में न्यायाधीशों की पुनर्नियुक्ति केवल तभी हो सकती है जब उनका वर्तमान कार्यकाल समाप्त हो जाए इसलिए सर्कुलर (परिपत्र) स्थानांतरण को सम्बोधित नहीं करता. (न्यायविद नानाभोय पालकीवाला ने बहुमत की राय पर बाद में कहा कि यह तकनीकी रूप से उसी तरह सही है जैसे ‘गॉडफादर’ में मुख्य पात्र ने विरोधी की हत्यारों से हत्या करवाने के बाद अपनी पत्नी से कहा, “मैंने उसे नहीं मारा”.) सरकार अपनी इच्छानुसार स्थानांतरण जारी रखने के लिए मुक्त कर दी गई.

‘फर्स्ट जजेज केस’ के निर्णय में उच्च न्यायिक स्थानांतरण की प्रक्रिया में सीजेआई की समुचित भूमिका पर भी विचार किया. आपातकाल के दौरान दंड स्वरूप स्थानांतरित किए गए उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों में से एक ने अपने हटाए जाने के सरकार के फैसले को चुनौती दी थी. सुप्रीम कोर्ट का निष्कर्ष था कि संविधान के अनुसार स्थानांतरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने से पहले सरकार को सीजेआई की राय लेनी थी लेकिन इसका पालन करने के लिए बाध्य नहीं किया गया. लेकिन न्यायालय ने एक संशोधन में आगे कहा कि सीजआई से परामर्श “वास्तविक, पर्याप्त और प्रभावी होना चाहिए था और न्यायालय अगर यह समझता है कि स्थानांतरण “विषयेत्तर कारण” द्वारा प्रेरित था तो उस पर पुनर्विचार कर सकता था. उस निर्णय पर फिर से विचार करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने संशोधन को खत्म कर दिया. मुख्य न्यायाधीश की राय बाध्यकारी नहीं थी और राष्ट्रपति के स्थानांतरण आदेश पूरी तरह से न्यायिक समीक्षा से उन्मुक्त थे.

‘फर्स्ट जजेज का सम्बंध खासकर उच्च न्यायालय स्तर पर स्थानांतरण से था लेकिन चूंकि फैसले की जड़ें संवैधानिक भाषा की व्याख्या में निहित थीं जो न्यायिक नियुक्तियों को भी नियंत्रित करता है इसलिए इसके निहितार्थ उस बड़े सवाल के लिए भी थे और राष्ट्पति को निर्बाध शक्ति देकर इसने उच्च न्यायालयों के भीतर पद के व्यापक जोड़-तोड़ को आमंत्रित किया.

1985 में इलाहाबाद हाई कोर्ट से एक न्यायाधीश के स्थानांतरण के मामले की सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई की जिसने उसे चुनौती दी थी. इंडिया टुडे की रिपोर्ट के मुताबिक इस केस की पीठ ने उन दलीलों को सुना जिसमें आरोप लगाया गया था “कि कुछ उच्च न्यायालयों में किसी कनिष्ठ के मुख्य न्यायाधीश बनाने या उसे अपनी ही हाईकोर्ट में स्थाई मुख्य न्यायाधीश के रूप में कार्यभार ग्रहण करने के लिए वरिष्ठ न्यायाधीशों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया”. इस प्रवृत्ति के उदाहरणों की बाढ़ आ गई. अपनी पसंद के मुख्य न्यायाधीशों के पदासीन होने से सरकार उच्च न्यायालयों की नई नियुक्तियों को प्रभावित कर सकती थी; 1985 में केस की सुनवाई कर रही पीठ ने सरकार पर न्यायालयों को “चापलूस न्यायाधीशों” से भर देने का आरोप लगाया. इंडिया टुडे ने दर्ज किया कि कैसे एक न्यायाधीश ने “देखा कि मध्यप्रदेश के मुख्य न्यायाधीश की सेवानिवृत्ति के बाद वरिष्ठता क्रम में उसके बाद के न्यायाधीश को किस तरह कार्यकारी न्यायाधीश बनाए रखा गया ताकि सरकार द्वारा न्यायपालिका में नियुक्ति के लिए दिए गए उसके दस सिफारिशी नामों को मंजूरी दे दे. संदेश साफ था, न्यायाधीश को कार्यकारी पद पर रखिए ताकि अपनी नियुक्ति पक्की होने की आशा में वह पीठ में नियुक्तियों के लिए सरकार की सिफारिशों पर सहमत हो जाए”.

बाद के दशक में, क्रमशः आने वाले उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों और सीजेआई की अनुशंसा के बाद भी मध्य प्रदेश के एक अतिरिक्त न्यायाधीश की स्थाई नियुक्ति रोक दी गई. इंडिया टुडे की एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार ऐसा न्यायाधीश द्वारा उस नीति को खारिज करने के प्रतिशोध के लिए किया गया था जिसमें सात उद्योगपतियों को राज्य में शराब बनाने और वितरित करने के विशेष अधिकार दिए गए थे. वह नीति तब आरंभ की गई थी जब कांग्रेस के नेता अर्जुन सिंह मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री थे.

1990 दशक के आरंभ में एक सरकारी ऑडिट रिपोर्ट में सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधीश वी० रामास्वामी पर उच्च न्यायालय में सार्वजनिक निधि के दुरूपयोग का आरोप लगाया गया. यह मामला 1989 में राजीव गांधी की हार और दो साल बाद नरसिम्हा राव की अल्पमत सरकार के बीच के अंतराल में आया था. रामास्वामी को हटाने का देश के इतिहास में अपनी तरह का पहला प्रस्ताव संसद के सामने 1993 में आया. उस समय तक नरसिम्हा राव सत्ता में आ चुके थे. कांग्रेस के संसद सदस्यों ने मत विभाजन में भाग नहीं लिया और प्रस्ताव कभी पारित नहीं हुआ.

ठीक उसी समय जब रामास्वामी घोटाला सामने आया, देश भर के उच्च न्यायालयों को स्वयं अपने संकट का सामना करना था. बिहार में, संदेह था कि मुख्यमंत्री अपनी इच्छानुसार न्यायाधीशों का स्थानांतरण कर रहे हैं. मुम्बई उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों ने अपने ही पीठ के साथियों पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया और बार एसोसिएशन ने चार उन न्यायाधीशों के बहिष्कार की धमकी दी जिनमें वे विश्वास खो चुके थे. चीजों को काबू करने के लिए सीजेआई सब्यासाची मुखर्जी ने दुराचार के आरोपों को संभालने का मार्ग ढूंढने के लिए उच्च न्यायाधीश के मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन का प्रस्ताव रखा. इंडिया टुडे ने उस समय रिपोर्ट में कहा कि उस समय ऐसे मामलों की निगरानी के लिए हर न्यायालय में अस्थाई कॉलेजियम बनाने और किसी कीमत पर मामले में कार्यपालिका की घुसपैठ से बचने पर आम सहमति बनी. बाद वाली इच्छा खासतौर से इस वास्तविकता के परिपेक्ष्य में बहुत मजबूत थी कि राजीव गांधी के बाद सत्ता में आए वी.पी. सिंह ने न्यापालिका की ओर से विरोध के स्वरों के बीच न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए एक राष्ट्रीय न्यायिक आयोग बनाने का प्रस्ताव किया था.

इस वातावरण में सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ ने कई जनहित याचिकाओं की सुनवाई की जिसमें देश भर में लंबित न्यायिक रिक्तियों को भरने की मांग की गई थी. इस पीठ ने फर्स्ट जजेज केस में अपनी ही व्यवस्था की समीक्षा की आवश्यकता को महसूस किया और इस पर विचार करने के लिए बड़ी पीठ का आहवान किया. केंद्रीय सवाल यह था कि न्यायिक नियुक्ति करने से पहले राष्ट्रपति को सीजेआई से “परामर्श” करने की बात लिखने से संविधान निर्माताओं का वास्तव में तात्पर्य क्या था.

इस दूसरे जजेज केस में सुप्रीम कोर्ट की 9 जजों की पीठ ने कॉलेजियम प्रणाली का निर्माण किया. 1993 में व्यवस्था दी कि राष्ट्रपति के लिए सीजेआई के परामर्श से काम करने का संवैधानिक अधिकार सीजेआई की सहमति की आवश्यकता के बराबर है. इस निर्णय के बाद, सरकार के पूर्वरक्षण व्यक्त करने के बावजूद, कॉलेजियम द्वारा पुनः पुष्ट की गई किसी उम्मीदवारी को मंजूरी करने के अलावा राष्ट्रपति के पास कोई विकल्प नहीं है, पीठ ने सीजेआई को कॉलेजियम का प्रमुख और नियुक्ति प्रक्रिया में प्रधान प्राधिकरण बना दिया.

दूसरे जजेज केस में बहुमत की राय जे.एस. वर्मा द्वारा लिखी गई थी. उन्होंने लिखा, “वरिष्ठ न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया में शामिल संवैधानिक पदाधिकारियों का सामूहिक विवेक यह सुनिश्चित करने की अपेक्षा करता है कि इन उच्च पदों पर केवल बेदाग ईमानदारी वालों की नियुक्ति हो और किसी संदिग्ध व्यक्ति को प्रवेश न मिल पाए. यह असंभव नहीं है कि उनसे सभी मामलों में इस दायित्व के निर्वाह में अपेक्षित ध्यान और सावधानी की आशा नहीं है”.

वर्मा ने टिप्पणी की कि संविधान सभा इस पर सहमत थी कि उच्च न्यायिक नियुक्तियों को “कार्यपालिका के पूर्ण विवेक पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए. उन्होंने दलील दी कि सीजेआई से परामर्श के लिए प्रावधान “इस वास्तविकता बोध के कारण परिचित कराया गया था की मुख्य न्यायाधीश यह जानने और आकलन करने के लिए सबसे अधिक समर्थ व्यक्ति होता है” कि उम्मीदवार न्यायाधीश पद के लिए उपयुक्त है. लेकिन उन्होंने संविधान सभा में अम्बेडकर की स्पष्ट चेतावनी को छुपा लिया जिसमें उन्होंने कहा था कि “जिस अधिकार को हम राष्ट्रपति या समय की सरकार में निहित करने को तैयार नहीं हैं वह अधिकार मुख्य न्यायाधीश को” हस्तानांतरित नहीं किया जा सकता.

दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ए.पी. शाह ने मेरा ध्यान सेकेंड जजेज निर्णय की न्यायविद रॉबिन कूके द्वारा की गई समीक्षा की तरफ दिलाया जो 1994 में न्यूजीलैंड लॉ जर्नल में प्रकाशित हुई थी. कूके का विश्लेषण अत्यंत कटु होने के बावजूद विनोद प्रिय हाजिर जवाबी के पक्ष में कानूनी समीक्षाओं की आदर्श गंभीरता का त्याग करता था. उसने लिखा, “माना कि संविधान का अर्थ समय के साथ विकसित किया जा सकता है. फिर भी यह समझ पाना आसान नहीं है कि सम्भवतः संविधान सभा द्वारा अवश्य समझे गए शब्द ‘परामर्श’ का स्वरूप आधी शताब्दी से कम समय में बदल कर ‘सहमति’ कर दिया गया. बहुमत के फैसलों में असुविधा के समाधान के लिए विश्वसनीय तर्कों को ढूंढ पाना आसान नहीं होता.

वर्मा ने फैसले में शेक्सपियर के मशहूर वाक्यांश मेजर फॉर मेजर से उद्धृत किया था कि “उत्तम है/ विशाल शक्ति रखना; लेकिन निरंकुश है/ इसे दानव की तरह प्रयोग करना”. कार्यपालिका पर सीजेआई की श्रेष्ठता पर बहस शुरू करने से पहले उन्होंने यह चेतावनी टिप्पणी प्रस्तुत की. कूके ने देखा कि उसी नाटक में वर्मा द्वारा चयनित पंक्तियों से थोड़ा नीचे शेक्सपियर ने कुछ और लिखा था जो उतना ही मशहूर था :

लेकिन आदमी, अहंकारी आदमी,

थोड़े से अस्थाई ज्ञान के अहंकार में,

अत्यंत आश्वस्त है वह अपनी अति अज्ञानता पर,

उसका भावहीन तत्व, एक गुस्साए लंगूर की तरह,

चलता है ऐसी अद्भुत चाल ऊंचे गगन के सामने,

जैसे फरिश्तों को रुलाता हो; जो, हमारी झुंझलाहटों से,

स्वयं हसेंगे सभी मरणशील हंसी.

21वें सीजेआई रंगनाथ मिश्रा और 22वें सीजेआई के. एन. सिंह को छोड़कर देश के सर्वोच्च न्यायिक पद पर आसीन होने वाले किसी भी न्यायाधीश को, 1993 में कॉलेजियम प्रणाली प्रारंभ होने से पहले तक, भ्रष्टाचार या घोटाले के आरोपों का सामना नहीं करना पड़ा. 25वें सीजेआई वेंकटचलैया के अक्टूबर 1994 में अवकाश प्राप्त करने के बाद से ऐसे घोटाले सामान्य बात बन गए.

26वें सीजेआई ए. एम. अहमदी ने भोपाल गैस त्रासदी से जुड़े एक मुकदमे में यूनियन कार्बाइड के खिलाफ कल्पबल होमोसाइड (आपराधिक मानव वध) के आरोप को खारिज कर दिया था. मेलमिलाप का भाव प्रदर्शन करने के लिए उन्होंने संस्था को शहर में एक अस्पताल कायम करने का आदेश दिया. सेवानिवृत्ति के बाद अस्पताल का प्रबंध देखने वाले ट्रस्ट के वह आजीवन चेयरमैन नियुक्त कर दिए गए. 2010 में सुप्रीम कोर्ट में अहमदी के खिलाफ अस्पताल के कथित कुप्रबंधन की जांच और ट्रस्ट के वित्तीय रिकॉर्ड जारी करने के लिए बाध्य करने का आदेश देने की याचिका दाखिल की गई. उस याचिका पर आदेश कभी नहीं आया लेकिन न्यायालय ने अहमदी के पद से त्यागपत्र को स्वीकार कर लिया. न्यायालय अस्पताल को दी गई उनकी अच्छी सेवाओं की प्रशंसा भी की.

28वें सीजेआई एम.एम. पुंछी को कार्यभार ग्रहण करने से पहले ही बर्खास्तगी के खतरे का सामना करना पड़ा था. कदाचार की बहुलता के आरोपों पर उनके खिलाफ महाभियोग चलाने के लिए राज्य सभा में प्रस्ताव पेश किया गया था. विश्वास भंग के दोषी व्यापारी को कानून के प्रावधानों से परे जाते हुए उन्होंने दोषमुक्त करार दिया था. हरियाणा के कांग्रेसी नेता और मुख्यमंत्री भजन लाल के खिलाफ दुराचार के आरोप के एक मुकदमे को पुंछी ने जिस दिन खारिज किया था उसी दिन उनकी पुत्रियों को मुख्यमंत्री के विवेकाधिकार पर जमीन के प्लाट प्राप्त हुए थे. पुंछी ने केस गलत तरीके से जिताया था और उस मामले की सुनवाई करने का प्रयास किया था जिसमें वह स्वयं एक पक्ष थे. पुंछी के शपथ ग्रहण करने से पहले प्रस्ताव को राज्य सभा में आवश्यक समर्थन नहीं मिल पाया. 27वें सीजेआई जे.एस. वर्मा ने पदोन्नति के लिए उनके नाम की अनुशंसा की थी.

29वें सीजेआई ए.एस. आनंद पर भाई–भतीजावाद और रियल एस्टेट के भ्रष्ट सौदों में संलिप्त होने का आरोप लगा था. पदोन्नति के बाद आरोप पत्र सामने आया और उन्होंने महाभियोग की कार्यवाही का सामना नहीं किया.

आनंद के सीजेआई बनने के तुरंत बाद कॉलेजियम प्रणाली के काम–काज का स्पष्टीकरण मांगने वाले राष्ट्रपति के एक औपचारिक सवाल का सुप्रीम कोर्ट ने जवाब दिया. थर्ड जजेज केस के रूप में याद किए जाने वाले इस मामले में न्यायालय के जवाब में कहा गया, “हमने हमारे सामने पेश होने वाले कुछ अधिवक्ताओं द्वारा व्यक्त की गई भीषण आशंकाओं को निराशा के साथ सुना है”. स्पष्ट रूप से, प्रणाली ने न्यायिक सत्यनिष्ठा में विश्वास बहाल नहीं किया था. न्यायालय ने आग्रहपूर्वक कहा कि वह आशंकाओं को साझा नहीं करता, आगे कहा फिर भी, “हम आशावादी दृष्टिकोण रखते हैं कि बाद में आने वाले भारत के मुख्य न्यायाधीश भविष्य में दूसरे जजेज केस और इस राय के अनुरूप काम करेंगे”.

एनजेएसी पर अपनी राय में चेलामेश्वर ने लिखा :

इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि ऐसे मामलों में अफवाह और अटकलें गति और लोकप्रियता प्राप्त कर लेती हैं. अगर 9 न्यायाधीशों की पीठ आशावादी दृष्टिकोण रखती है कि बाद में आने वाले भारत के मुख्य न्यायाधीश भविष्य में सेकंड जजेज केस के अनुरूप काम करेंगे तो इससे तार्किक निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि बाद के मुख्य न्यायाधीशों द्वारा निष्ठापूर्वक इसका पालन नहीं किया था, यदि सभी नहीं तो कम से कम कुछ मामलों में इसकी आलोचना हुई. मंत्रियों के बजाय न्यायाधीशों को संरक्षण दिया गया.

36वें सीजेआई वाई. के. सभरवाल ने अवैध रूप से निर्मित व्यवसायिक भवन–समूहों को ध्वस्त करने के कई आदेश पारित किए. इसके कारण शॉपिंग मॉल जैसी वैध व्यसायिक सम्पत्तियों की कीमतें तेजी से बढ़ गईं. सभरवाल की सेवानिवृत्ति के बाद बताया गया कि ध्वस्तीकरण अभियान के चरम पर उनके बेटे के व्यापार को राजधानी और आसपास के मॉल मालिकों से लाखों रुपए के फंड प्राप्त हुए. सभरवाल ने इन “अंधाधुंध सांकेतिक आरोपों” को खारिज करने और अपनी चिंता जाहिर करते हुए सार्वजनिक जवाब लिखा कि “मेरी व्यक्तिगत तकलीफ और व्यथा उतनी नहीं जितनी ऐसे निराधार सार्वजनिक फैसलों से न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर पड़ने वाले विपरीत प्रभाव की है”. जिन पत्रकारों ने इस कहानी का पर्दाफाश किया था वह दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा अवमानना के मुजरिम पाए गए. एक दशक बाद सुप्रीम कोर्ट ने फैसले को रद कर दिया.

37वें सीजेआई के. जी. बालाकृष्णन के कार्यकाल में उनके परिवार के नसीब में नाटकीय ढंग से उछाल आया. उनके एक दामाद ने दस करोड़ रुपए से अधिक की सम्पत्ति जमा कर ली. केरल उच्च न्यायालय में अधिकारी और बालाकृष्णन के भाई ने तमिलनाडु में एक फार्महाउस का स्वामित्व प्राप्त कर लिया, उन्होंने भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद त्यागपत्र दे दिया. न्यायाधीश के भतीजे ने बड़े व्यापारिक उपक्रम आरंभ किए. एक पूर्व संसद सदस्य ने आरोप लगाया कि बालाकृष्णन के दामाद और भाई ने अनुकूल फैसलों और न्यायिक नियुक्तियों के लिए सौदेबाजियां की थीं. केरल उच्च न्यायालय के एक पूर्व न्यायाधीश ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट में एक मुकदमे को प्रभावित करने का प्रयास कर रहे एक व्यक्ति द्वारा उससे बालाकृष्णन के रिश्तेदारों से परिचय कराने के लिए कहा गया था. सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व न्यायाधीश ने बालाकृष्णन पर मद्रास उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश को प्रभावित करने के लिए पूर्व दूर संचार मंत्री ए. राजा के प्रयासों को छुपाने का आरोप लगाया. 2010 में जब बालाकृष्णन रिटायर हुए तो कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार ने उन्हें राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का चेयरमैन बना दिया.

न्यायिक सत्यनिष्ठा के मजबूत योद्धा अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने 2009 में तहलका पत्रिका को बताया कि उनके विचार से भारत के विगत सोलह या सत्रह मुख्य न्यायाधीश भ्रष्ट रहे हैं. उन्हें तुरंत ही न्यायालय की अवमानना के आरोपों का सामना करना पड़ा. मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने महसूस किया कि पी. शिव शंकर और बाल ठाकरे के खिलाफ इससे पूर्व के अवमानना के मामलों की तुलना में वर्तमान मामला इसकी विश्वसनीयता के लिए अधिक जटिलता से भरा है. 1980 के दशक में आखिर में काबीना मंत्री रहते हुए शिव शंकर ने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट “राष्ट्र विरोधी तत्वों” का घर है जिसमें विदेशी मुद्रा विनियमों के उल्लंघन करने वालों, “दुल्हन जलाने वालों और प्रतिक्रियावादियों की पूरी भीड़” शामिल है. शिवसेना के प्रमुख बाल ठाकरे ने कहा था वह न्यायालयों के फैसलों पर पेशाब करते हैं और उन्होंने न्यायाधीशों की तुलना प्लेग पीड़ित चूहों से की थी.

सुप्रीम कोर्ट ने भूषण को अपने आरोप साबित करने की चुनौती दी. मजबूत साक्ष्य की कमी के लिए उन्होंने न्यायिक आचरण की जांच समेत कई बाधाओं की ओर संकेत किया जिसमें वह चीजें भी शामिल थीं जो स्वयं न्यायालय द्वारा निर्मित की गई थीं. आपातकाल के बाद कानून मंत्री रह चुके उनके पिता शांति भूषण ने भी इसमें खुद को पक्षकार बनाया और कथित रूप से भारत के भ्रष्ट मुख्य न्यायाधीशों के नाम की सीलबंद सूची पेश कर दी.

सुप्रीम कोर्ट ने इस केस को प्राथमिकता में पीछे डाल दिया, लेकिन तब से इसकी छवि में कोई सुधार नहीं हुआ. 39वें सीजेआई अल्तमस कबीर, जिन्होंने भूषण के खिलाफ केस की सुनवाई की थी, उन पर बाद में कोलकाता उच्च न्यायालय में अपनी बहन की नियुक्ति का प्रबंध करने और एक न्यायाधीश को दंडित करने का आरोप लगा जिसने उस पर आपत्ति की थी. जे.एस. शेखर, दीपक मिश्रा और रंजन गोगोई उनके पीछे इस पर आसीन हुए.

सुप्रीम कोर्ट ने इस केस को प्राथमिकता में पीछे डाल दिया, लेकिन तब से इसकी छवि में कोई सुधार नहीं हुआ. 39वें सीजेआई अल्तमस कबीर, जिन्होंने भूषण के खिलाफ केस की सुनवाई की थी, पर बाद में कोलकाता उच्च न्यायालय में अपनी बहन की नियुक्ति का प्रबंध करने और एक न्यायाधीश को दंडित करने का आरोप लगा जिसने उस पर आपत्ति की थी. जे.एस. शेखर, दीपक मिश्रा और रंजन गोगोई उनके पीछे आने वाले थे.

सब कुछ के बावजूद कॉलेजियम के समर्थक कह सकते थे कि सेकंड जजेज केस ने न्यायपालिका पर कार्यपालिका के प्रभाव को कम कर दिया. कमोबेश यह सही है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं होता कि न्यायाधीशों को प्रभावित करने के सभी मार्ग सरकार के लिए बंद कर दिए गए थे.

शिक्षाविद माधव एस. अनय, शुभंकर डैम और जियोवानी ने 1999 से 2014 तक के सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों का एक डाटाबेस संकलित किया है. यह उन मुकदमों को अलग करता है जिसमें भारत संघ एक पक्ष था, जिसमें स्पष्ट रूप से फैसला सरकार के पक्ष या विरोध में था और जिनमें फैसले दो न्यायाधीशों की पीठ ने दिए थे, चूंकि केवल ऐसी पीठों को ही इस तरह के मामले अक्रमश: सौंपे जाते हैं. दूसरे डाटाबेस में उन्होंने संबद्ध न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की तारीखें, और तीसरे में, उन्हें सरकार की तरफ से सेवानिवृत्ति के बाद मिलने वाली नौकरियों का उल्लेख किया– मिसाल के तौर पर, राज्य के राज्यपाल के रूप में या राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, कंपटीशन अपीलेट ट्रिब्यूनल, विधि आयोग और अन्य अधिकारिक निकायों की सदस्या या चेयरमैन के रूप में.

“जॉब्स फॉर जस्टिस: करप्शन इन द सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया” (इंसाफ के लिए नौकरियां: भारत के उच्चतम न्यायालय में भ्रष्टाचार) शीर्षक से एक शोधपत्र में शोधकर्ता ने “सुप्रीम कोर्ट के बाद नौकरी पाने की संभावना को बढ़ाने के लिए प्रमुख मामलों में सरकार के पक्ष में फैसलों में हेरफेर करने वाले न्यायाधीशों” पर ध्यान केंद्रित किया है. वे मानते हैं कि न्यायाधीशों के “दलाली करने का प्रोत्साहन” दो कारकों द्वारा निर्धारित होते हैं. पहला है- केस की प्रमुखता जिसका संकेत इससे मिलता है कि उसमें सरकार का प्रतिनिधित्व कौन करता है. मिसाल के तौर पर कोई मामला जिसमें अटॉर्नी जनरल पेश होते हैं उसे प्रमुख महत्व का माना जाता है. दूसरा यह- कि क्या न्यायाधीश अगले आम चुनाव से कम से कम 16 महीने पहले अवकाश प्राप्त करने वाले हैं. मान्यता यह है कि अगर निर्णय नहीं लिया जाता है तो सम्भवतः सरकार के चुनाव हार जाने से पहले उन्हें पसंद के पद पर बैठाने का पर्याप्त समय इसके पास नहीं हो सकता है.

शोध से पता चलता है कि “न्यायाधीश सरकार का पक्ष लेते हुए भ्रष्टाचार में तभी लिप्त होते हैं जब केस महत्वपूर्ण होता है और न्यायाधीश चुनाव से काफी पहले रिटायर होते हैं” और यह कि जो न्यायाधीश महत्वपूर्ण मामलों में सरकार के पक्ष में फैसले लिखते हैं उनकी प्रतिष्ठित सरकारी नौकरियां पाने की संभावना अधिक होती है. शोधकर्ता लिखते हैं कि परिणाम “सड़े हुए सेबों” अर्थात न्यायाधीशों की निष्ठा में अंतर से नहीं, बल्कि कैरियर चिंताओं के रूप में संस्थागत प्रोत्साहनों के लिए तर्कसंगत व्यवहारिक प्रतिक्रिया द्वारा प्रेरित होते हैं”. भ्रष्टाचार का अस्तित्व “सबसे अधिक किफायती और प्रभावशाली व्याख्या है जो डाटा में समग्र स्तर पर फिट बैठती है”.

ये निष्कर्ष उनके साथ स्पष्ट रूप से फिट बैठते हैं जिनका संदेह लंबे समय से किया जाता रहा है. विधि आयोग बहुत पहले 1958 में ही “सुप्रीम कोर्ट के तदर्थ न्यायाधीशों के अलावा अन्य नौकरियों पर कानून बनाकर रोक लगाने को सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए” आवश्यक मानता था. एम.सी. सीतलवाड़ ने अपनी आत्मकथा में उस दृष्टिकोण का समर्थन किया था और सिफारिश की थी कि “नियंत्रक एंव महालेखापरीक्षक और लोक सेवा आयोगों के सदस्यों के प्रतिबंध की तरह संघ या राज्य सरकारों के अंतर्गत पद स्वीकार करने वाले न्यायाधीशों पर संवैधानिक प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए”.

के.जी. बालाकृष्णन की राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के चेयरमैन के बतौर 2010 में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार द्वारा नियुक्ति अवकाश प्राप्त न्यायाधीशों के ऐसे पद ग्रहण करने का केवल एक उदाहरण है. ए.एस आनंद को इससे पहले अटल बिहारी वाजपयी की बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार ने उसी पद पर बैठाया था और रंगनाथ मिश्रा को कांग्रेस शासन द्वारा नौकरी दी गई थी. कांग्रेस ने मिश्रा का चयन राज्यसभा के एक कार्यकाल के लिए भी किया था.

सुप्रीम कोर्ट में रहते हुए 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद होने वाली सिख विरोधी सामूहिक हत्या की जांच करने वाले आयोग का नेतृत्व मिश्रा ने किया था और सत्ताधारी कांग्रेस को दोषमुक्त किया था.

सत्ता में आने के तुरंत बाद मोदी सरकार ने 40वें सीजेआई पी. सदाशिवम का केरल के राज्यपाल के रूप में चयन किया. सदाशिवम सुप्रीम कोर्ट की उस पीठ में थे जिसने गुजरात में मोदी शासनकाल में हुए मुस्लिम कत्लेआम की जांच करने की केंद्रीय अंवेषण ब्यूरो की याचिका को खारिज किया था. उन्होंने उस पीठ का भी नेतृत्व किया था जिसने सोहराबुद्दीन के सहयोगी तुलसी राम प्रजापति की मुठभेड़ में हत्या के सम्बंध में अमित शाह को नामजद करने वाली प्राथमिकी को खारिज किया था. उसी पीठ ने प्रजापति केस को शेख की हत्या से सम्बंधित केस के साथ जोड़ा था जिसमें शाह पहले से ही परीक्षण का सामना कर रहे थे. 2015 में सदाशिवम अमित शाह के बेटे के विवाह स्वागत समारोह में अतिथि थे.

अभी हाल ही में, 2018 में मोदी सरकार ने ए.के. गोयल को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल का प्रमुख नियुक्त कर दिया.

(तीन)

जे.एस. खेहर को सीजेआई के रूप में आगमन पर न्यायपालिका और कार्यपालिका के सम्बंध खुले संघर्ष की हालत में विरासत में मिले. उनके पूर्ववर्ती टी.एस. ठाकुर ने एनजेएसी के निर्णय के छह महीने बाद मोदी के साथ मंच साझा किया और नई न्यायिक नियुक्तियों पर सरकार को आगे बढ़ने के लिए अनुरोध करते हुए आंसू बहाए. ऐसा प्रतीत होता था कि एनजेएसी की असफलता से चिढ़ी हुई कार्यपालिका कॉलेजियम के नामांकन पर आगे बढ़ने या फाइल वापस भेजने से इनकार करते हुए असहयोग पर आमादा थी. 29 नवंबर 2016 को संविधान दिवस के अवसर पर कानून मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने एक सभा में कहा कि “न्यायालय, सरकार के आदेश को रद्द कर सकते हैं, न्यायालय किसी कानून को खारिज कर सकते हैं, लेकिन शासन उन्हीं लोगों के हाथों में रहना चाहिए जो शासन करने के लिए चुने गए हैं. उसी अवसर पर अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने कहा कि “न्यायपालिका को अवश्य समझना चाहिए कि इसकी भी एक लक्षमण रेखा है– एक रेखा जिसे इसको पार नहीं करना चाहिए. खेहर ने भी भाषण दिया और टकराव की स्थिति की समाप्ति का कोई संकेत नहीं दिया, तब उनके शपथ ग्रहण में करीब एक महीना बाकी था. उन्होंने कहा कि न्यायपालिका ने कुछ संवैधानिक संशोधनों को रद्द किया था जो “अनैतिक, स्वयं सेवी और निंदनीय” थे और यह कि सुप्रीम कोर्ट ने “न्यायिक दर्शन के मूल चरित्र को बनाए रखने के लिए लगातार प्रयास” किए थे. उन्होंने अटॉर्नी जनरल की ओर इशारा करते हुए कहा था कि यही “लक्ष्मण रेखा है जिसकी आपको तलाश है”.

फरवरी 2017 तक एक अलग राग चल पड़ा. एक जन सभा में मोदी ने खेहर के “त्वरित निर्णयों” की सराहना की और कहा कि वह चाहते हैं कि खेहर अपने अवकाश प्राप्ति के बचे हुए छह महीनों के बाद भी सीजेआई बने रहें. खेहर ने प्रधानमंत्री को आश्वासन दिया कि “हम अपनी सीमाओं के अंदर बने रहेंगे”. खेहर के पद पर रहते हुए सरकार ने न्यायिक नियुक्तियों को मंजूरी देना शुरू कर दिया.

अंतरिम अवधि में, सुप्रीम कोर्ट ने इन आरोपों के साथ कलिखो पूल मामले को निपटा दिया कि खेहर के बेटे ने रिश्वत की मांग की थी और सहारा–बिरला दस्तावेजों की जांच के लिए याचिका पर सुनवाई की. याचिका में आरोप लगाया गया था कि छापेमारी के दौरान दो कारपोरेट संस्थाओं से बरामद दस्तावेजों पर आयकर अधिकारी कार्यवाही करने में नाकाम रहे हैं जिसकी सूची में साफ तौर पर दूसरों के साथ “मोदी जी” और “गुजरात के सीएम” को भुगतान सूचीबद्ध था. मामले को खारिज कर दिया गया था.

वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने एक साक्षात्कारकर्ता से कहा, “अफसोस की बात है कि ऐसी धारणा बनती है कि एक तरफ आत्महत्या की चिट्ठी पर राज्य और केंद्र सरकारें कोई कार्यवाही नहीं कर रही हैं और दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट सहारा–बिरला मामले में सभी राजनीतिक विस्तार के कथित प्राप्तकर्ताओं को क्लीन चिट देते हुए फैसला सुना रही है”.

सीजेआई बनने से पहले दीपक मिश्रा ने सिनेमा हॉलों में हर फिल्म के दिखाए जाने से पहले राष्ट्र गान बजाने को अनिवार्य बनाते हुए एक आदेश पारित किया था जो मोदी सरकार के राष्ट्रवादी एजेंडा से मेल खाता था. न्यायपालिका के प्रमुख के रूप में उनके आगमन पर सुप्रीम कोर्ट और सरकार के बीच मैत्री जारी रही जो लोया मामले के निर्णय के बाद चरम पर पहुंच गई.

महाराष्ट्र विशेष न्यायालय के न्यायाधीश बी.एच. लोया की 2014 के अंत में अचानक मौत हो गई. उस समय वह सोहराबुद्दीन शेख की हत्या के मामले की सुनवाई कर रहे थे. सोहराबुद्दीन की हत्या के मुख्य अभियुक्त अमित शाह उस समय तक बीजेपी के अध्यक्ष बन चुके थे. 2017 में लोया के परिवार ने कहा कि उनकी मौत स्वभाविक नहीं थी जैसा की आधिकारिक रूप से दावा किया जाता है और यह कि उन्हें अपने फैसले को प्रभावित करने के लिए रिश्वत का प्रस्ताव किया गया था. सुप्रीम कोर्ट ने स्वतंत्र जांच की मांग करने वाली कई याचिकाओं की सुनवाई की. इतने संवेदनशील मामले की सुनवाई आदर्श रूप से न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीशों द्वारा की जानी चाहिए थी लेकिन आरएसएस और बीजेपी से ज्ञात रिश्तों के बावजूद मिश्रा ने अपेक्षाकृत पदानुसार कम श्रेणी वाले अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ को सौंप दिया.

जिस दिन मिश्रा की पीठ याचिकाओं की सुनवाई करने वाली थी, जस्टिस रंजन गोगोई और जस्टिस चेलामेश्वर समेत सीजेआई के बाद के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों ने प्रेस कांन्फ्रेंस बुलाई. यह सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में पहली चौंका देने वाली घटना थी. चारों न्यायाधीशों ने कहा कि संस्था में कई आपत्तिजनक घटनाएं हो रही थीं और यह कि अगर इसे रोका नहीं किया गया तो लोकतंत्र नहीं बचेगा. एक खास अनुरोध के साथ वे सुबह में सीजेआई के पास गए थे लेकिन उन्होंने विचार करने से मना कर दिया. कोई दूसरा आश्रय नहीं था इसलिए न्यायाधीश मीडिया के सामने आए. यह पूछे जाने पर कि क्या अनुरोध का सम्बंध लोया मामले से था तो गोगोई ने जवाब दिया, “हां”.

मिश्रा ने स्वयं को इस मामले से बचा लिया. मामले की सुनवाई के लिए सीजेआई ने अपनी अध्यक्षता वाली एक अन्य पीठ का गठन किया लेकिन उसमें उन न्यायाधीशों में से कोई नहीं था जिन्होंने प्रेस कांन्फ्रेंस बुलाई थी. इस पीठ ने याचिकाओं को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि लोया की मौत के समय मौजूद न्यायिक अधिकारियों ने बताया था कि उसमें कोई घृणित खेल नहीं हुआ था.

इसके तुरंत बाद दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ए.पी. शाह ने लोया मामले के निर्णय को “कई एतबार से नितांत गलत और विधिशास्त्रीय रूप से अशुद्ध” बताया. उनके वर्णनों में असंगतियों के बावजूद न्यायालय ने न्यायिक अधिकारियों के बयानों पर भरोसा किया. इस बात की भी अनदेखी की गई कि बयान शपथपूर्वक नहीं दिए गए थे और अधिकारियों को जिरह किए जाने के लिए नहीं बुलाया गया. फैसले में कहा गया कि बयान विश्वसनीय थे क्योंकि उनके पास “सच्चाई का छल्ला” था.

सब कुछ मिश्रा के व्यक्तिगत भ्रष्टाचार के आरोपों के बीच हुआ. प्रशांत भूषण ने एक साक्षातकर्ता को बताया, “कार्यपालिका मुख्य न्यायाधीश को ब्लैकमेल कर रही है. स्पष्ट रूप से मुख्य न्यायाधीश सरकार के दबाव में काम कर रहे हैं”.

सीजेआई के रूप में गोगोई के कार्यकाल को कुछ लोगो द्वारा “सील्ड कवर” (मुहबंद लिफाफा) न्यायशास्त्र तौर पर परिभाषित किया गया है. सत्तारूढ़ सरकार के भारी महत्व के कई मुकदमों में सुप्रीम कोर्ट की गोगोई के नेतृत्व वाली पीठों ने सरकार से सभी महत्वपूर्ण जानकारियां बंद लिफाफे में प्रस्तुत करने को कहा है. इनमें राफेल जेट लड़ाकू विमान की विवादास्पद खरीद, केंद्रीय अंवेषण ब्यूरो के निदेशक को हटाए जाने, राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर और अन्य की जांच शामिल हैं. इनके बारे में सार्वजनिक जानकारी के बिना गोगोई के फैसलों के विश्लेषण का कोई रास्ता नहीं है. इनमें से अधिकांश सरकार के पक्ष में गए हैं.

2018 के शुरू में मोदी सरकार ने चुनावी बंधपत्र प्रारंभ किया जो राजनीतिक दलों को गुमनाम दान की अनुमति देता है. सुप्रीम कोर्ट से योजना की संवैधानिक वैधता पर विचार करने की मांग की गई लेकिन मामले को लंबित रख दिया गया. इस दौरान राजनीतिक पार्टियों को धन जुटाने की अनुमति दे दी गई क्योंकि वे 2019 के आम चुनाव की तैयारी में लग गई थीं. इस साल के आरंभ में लगभग चुनाव के समय मामले को सुनवाई के लिए लाया गया और गोगोई ने बंधपत्र योजना पर स्थगन न देने का अंतरिम आदेश पारित कर दिया. पारदर्शिता के लिए उन्होंने राजनीतिक दलों को चुनाव पश्चात चुनाव आयोग के समक्ष अपने दानदाताओं के विवरण प्रस्तुत करने को कहा. पिछले वर्ष तक बंधपत्र योजना के माध्यम से दान में दिए गए कुल धन का नब्बे प्रतिशत बीजेपी को गया था.

इसी जनवरी में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने फेसबुक पर पोस्ट के माध्यम से गोगोई से “सफाई देने” का आवाहन किया. काटजू ने लिखा कि 2016 में जब ठाकुर सीजेआई थे तब कॉलेजियम ने दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश वाल्मीकि मेहता को “उनके खिलाफ कुछ बहुत गंभीर आरोपों” के कारण स्थानांतरण की अनुशंसा की. सरकार ने खेहर के कार्यभार संभालने तक कोई कार्यवाही नहीं की और उसके बाद कॉलेजियम ने अपने दृष्टिकोण को रद्द कर दिया. गोगोई की बेटी की मेहता के बेटे से शादी हुई है. काटजू ने लिखा, “जो कुछ मैंने सुना है कि जस्टिस गोगोई जब सुप्रीम कोर्ट में कम पद वाले न्यायाधीश थे, मोदी या मोदी मंत्रीमंडल के किसी उच्च पद के मंत्री के पास गए थे और अपने सम्बंधी के स्थानांतरित न किए जाने की विनती की थी”. अगर यह बात सही थी तो काटजू का तर्क था “फिर गोगोई ने साफ तौर से बीजेपी सरकार से एक दायित्व लिया है जिसे उन्हें वापस करना है”.

जब सुप्रीम कोर्ट की पूर्व कर्मचारी ने गोगोई के खिलाफ अपने आरोपों को सार्वजनिक कर दिया तो यह बात उभर कर सामने आई कि दिल्ली पुलिस के प्रमुख और गृह मंत्री को कम से कम पिछली जनवरी से सीजेआई के यौन उत्पीड़न के आरोप के बारे में जानकारी थी. सुप्रीम कोर्ट के जिस पैनल ने आरोपों की छानबीन की और निष्कर्ष दिया कि गोगोई आरोपमुक्त थे उसने अपनी रिपोर्ट शिकायतकर्ता या आम जन को उपलब्ध नहीं कराई, यद्यपि उसकी एक प्रति गोगोई को पेश की गई. अंत में रिपोर्ट बंद लिफाफे में पड़ी है.

2008 में अपने एक भाषण में जे.एस. वर्मा ने सेकंड जजेज केस में अपनी ही राय से खुद को अलग कर लिया. उन्होंने कहा कि न्यायिक नियुक्तियां “न्यायिक निराशा” बन गई थीं. उसी साल एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि फैसले में उनके शब्दों को “बहुत गलत समझा गया और गलत इस्तेमाल किया गया” था. इसमें कहा गया था, “उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया मूल रूप से संयुक्त या सहभागिता का अनुष्ठान है”, उन्होंने व्याख्या की “दोनों इसमें भाग लेते हैं”. लेकिन यह उस शक्ति की बराबरी नहीं करता जो कॉलेजियम को उस निर्णय ने दिया था कि नामांकित व्यक्ति के लिए इसकी दोबारा अनुशंसा द्वारा राष्ट्रपति को नियुक्ति का परवाना जारी करने पर विवश किया जाए.

जब पूछा गया कि क्या वह सोचते हैं कि न्यायिक आयोग “नियुक्ति प्रक्रिया में पतन” को सम्बोधित कर सकता है, वर्मा किसी व्यवस्थित समाधान पर हार मानते दिखे. उन्होंने जवाब दिया, “जो भी प्रणाली हो, यह उद्देश्य और व्यक्तियों की ईमानदारी पर है जो उस प्रणाली और उन मामलों पर काम करने के प्रभारी हैं”.

दृश्य से ओझल, वह लोग खास तरह का पक्षपात करने में लिप्त रहने में स्वतंत्र रहे हैं. नियुक्ति प्रक्रिया के “निरीक्षण और लोकतांत्रीकरण” का आग्रह करने के लिए 2002 में लिखते हुए सुप्रीम कोर्ट में 1970 के बहुत अशान्त दौर में सेवा दे चुके वी.आर. कृष्णा अय्यर ने कहा था कि कॉलेजियम प्रणाली ने “पक्षपात, मनमानी, दीर्घसूत्रीयता और महिलाओं व अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और उन जैसे समुदायों के साथ अन्याय की बीमारी को और बिगाड़ दिया”. ऊपर के न्यायालयों में इन समूहों के प्रतिनिधित्व की हालत बहुत खराब बनी हुई है. सुप्रीम कोर्ट के एक विद्वान जॉर्ज गडबोइस ने पाया कि 1990 तक सुप्रीम कोर्ट के सभी न्यायाधीशों में नब्बे प्रतिशत से अधिक या तो ब्राहम्ण थे या जिसे हम “अगड़ी जातियां कहते हैं” उससे थे.

सुप्रीम कोर्ट में कुल 243 न्यायाधीशों की नियुक्ति हुई है. पहले 39 सालों में कोई भी महिला न्यायाधीश नहीं थी. अब तक केवल 8 हुई हैं जिनमें से दो की नियुक्ति पिछले साल हुई है. कभी कोई महिला सीजेआई नहीं बनी. रूमा पाल जिन्होंने न्यायालय में 2000 से 2006 तक सेवाएं दीं वह पहली सीजेआई बन सकती थीं लेकिन उनकी नियुक्ति के समय कुछ उत्सुक करने वाली घटना पेश आई. उन्हें वाई.के. सभरवाल और दोराइस्वामी के साथ शपथ ग्रहण करनी थी. एक साथ होने वाली नियुक्तियों में जो भी पहले शपथ लेता है उसे वरिष्ठता प्राप्त होती है जैसा कि जस्ती चेलमेश्वर और दीपक मिश्रा के मामले में हुआ जिन्हें एक ही दिन शपथ दिलाई गई थी. लेकिन जिस शपथ ग्रहण समारोह में पाल भाग लेने वाली थीं वह अंतिम समय में केवल एक दिन के लिए आगे बढ़ा दी गई ताकि सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की 50वीं वर्षगांठ एक साथ पड़े. जब तक पाल दिल्ली पहुंचतीं सभरवाल पहले ही शपथ ले चुके थे. वह 36वें सीजेआई बन गए.

दूसरी तरह के पक्षपात दाखिल हो गए जिन्हें “चाचा न्यायाधीशों” के नाम से जाना गया– न्यायपालिका के वह सदस्य जिनके सगे–सम्बंधी अदालतों में अधिवक्ता के रूप में प्रैक्टिस करते हैं. अक्सर न्यायालय की ओर से उन्हें वरीयता प्राप्त होती है खासकर न्यायिक नियुक्ति के लिए विचार के लिए भूमिका के तौर पर. विधि आयोग ने चाचा न्यायाधीशों के अस्तित्व को 2009 में स्वीकार किया. जब मैंने खेहर के सीजेआई कार्यकाल के दौरान की एक प्रोफाइल की रपट पेश की तो कई अधिवक्ताओं ने मुझे उनके बेटे की पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में बढ़ती हुई प्रोफाइल के बारे में बताया, धन्य हैं वह न्यायाधीश जो ऐसे व्यक्ति के बेटे को नाराज नहीं करना चाहते थे जो यह निर्णय करने के लिए अधिकृत था कि क्या वे, और अक्सर उनके रिश्तेदार और सहयोगी भी, पदोन्नति के पात्र हैं. दीपक मिश्रा 21वें सीजेआई रंगनाथ मिश्रा के भतीजे हैं. उड़ीसा उच्च न्यायालय में अधिवक्ता के रूप में उनका उत्थान सुप्रीम कोर्ट में उनके चाचा के कैरियर के साथ हुआ. न्यायाधीश पद के लिए 1996 में उनकी उन्नति कॉलेजियम ने उनके जमीन की धोखाधड़ी की ओर संकेत करने वाले पूर्व न्यायिक आदेश की अनदेखी की, ऐसा “बेदाग ईमानदारी वाले व्यक्ति” की इसकी तलाश के मुश्किल से तीन साल के अंदर हुआ.

इसके अलावा कॉलेजियम व्यक्तिगत प्रतिशोध की अनुमति देता है. अल्तमश कबीर की बहन की कोलकाता उच्च न्यायालय में 2010 में नियुक्ति हुई जबकि उनका भाई सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीश था और सीजेआई बनने की कतार में था. उच्च न्यायपालिका के एक पूर्व सदस्य ने मुझे बताया कि कोलकाता उच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीशों के कॉलेजियम ने उनकी नियुक्ति की अनुशंसा दो–एक के बहुमत से की थी. पूर्व न्यायाधीश ने कहा, “जो व्यक्ति असहमत था उसने बतौर अधिवक्ता उनकी प्रैक्टिस के बारे में कुछ बहुत कठोर बात लिखी थीं, जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं था”. 2012 में अल्तमश कबीर के सीजेआई बनने के बाद असहमत न्यायाधीश का नाम सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम के सामने आया. पूर्व न्यायाधीश के अनुसार असहमत न्यायाधीश की पदोन्नति कबीर ने अवरुद्ध कर दी.

कम से कम जब तक न्यायिक नियुक्ति आयोग एक सैद्धान्तिक संभावना थी तब तक समय-समय पर न्यायालयों के सुधार के सम्बंध में चर्चा होती थी कि ऐसे निकाय के लिए सबसे अच्छी रचना क्या हो सकती है. 1987 में विधि आयोग ने ऐसा ही एक सुझाव दिया था जिसमें सीजेआई के अलावा उसके चोटी के सहयोगी, उच्च न्यायालयों के कई वरिष्ठ मुख्य न्यायाधीश, कानून मंत्री, अटार्नी जनरल, एक प्रतिष्ठित कानूनी शिक्षाविद और सीजेआई का निकटतम पूर्ववर्ती शामिल थे. कृष्णा अय्यर ने एक बार गैर–न्यायिक प्रतिभागियों को प्रस्तावित किया था जिसमें शिक्षाविद, राजनेता “जो देश के राजनीतिक विवादों में शामिल न हों”, बार काउंसिल के प्रतिनिधि और कानून व गृह मंत्री शामिल थे.

एनजेएसी के फैसले ने ऐसे सभी विचार–विमर्श को पूरी तरह व्यर्थ कर दिया. लेकिन फिर भी एनजेएसी पीठ के एक सदस्य कुरियन जोसेफ ने, जो मानते थे कि 99वां संशोधन असंवैधानिक था, लिखा कि “सब कुछ ठीक नहीं था और न है”. अपनी राय में वह चेलामेश्वर से सहमत थे “कि वर्तमान कॉलेजियम प्रणाली में पारदर्शिता, जवाबदेही और वस्तुनिष्ठा का अभाव है”. जोसेफ इस बात के विवरण में नहीं गए कि ऐसा क्यों था लेकिन वह महसूस करते थे “कि न्यासिता असफल नहीं हुई है बल्कि न्यासियों और सहयोगियों की कमजोरियां थीं जिसने प्रणाली को नाकाम बना दिया. उन्हें अब भी विश्वास था कि प्रणाली को सुधारा जा सकता है और सोवियत यूनियन की शब्दावली में “ग्लासनोस्ट” और “पेरित्रोइका” – खुलापन और सुधार का आहवान किया, जिस तरह उसने 1980 के दशक के पूर्वार्ध मिखाइल गोर्बाचेव के नेतृत्व में अपने आपको उबारने का प्रयास किया था.

खेहर ने एनजेएसी केस में बहुमत की ओर से कहते हुए लिखा कि कॉलेजियम प्रणाली की कारकरदगी “हो सकता है उतनी बुरी न हो जितनी यह दिखाई जाती है”. लेकिन वह भी प्रक्रिया के तौर तरीकों को नियंत्रित करने के लिए कार्यवाही के नए ज्ञापन के लिए तैयार थे और उसका मसौदा तैयार करने का काम सरकार को सौंपा था. अगर उसे समाधान कार्य के रूप में माना जाता तो वह मूर्खता का काम भी था. अगर एनजेएसी को आगे बढ़ाने के कार्यपालिका के इरादे संदिग्ध थे जैसा कि खेहर स्वयं अपने निर्णय में सुझाते हुए प्रतीत होते थे तब यह निश्चित था कि उसके द्वारा प्रस्तावित किसी नई प्रक्रिया को वही इरादे प्रभावित करते.

इस घटना में सरकार ज्ञापन के एक खंड पर अड़ गई जो उसे “राष्ट्रीय सुरक्षा” के आधार पर नियुक्ति को अवरुद्ध करने की अनुमति देता– एक प्रिय शब्द जो इंदिरा गांधी के दिनों के “राष्ट्रीय अखंडता” से बहुत दूर नहीं था. ज्ञापन को अब तक अंतिम रूप नहीं दिया गया है. एनजेएसी प्रणाली के आने के बाद से मात्र एक बदलाव 2017 में तब आया जब कॉलेजियम ने अपने संकल्पों को सार्वजनिक करना शुरू किया. इसके विमर्श पूरी तरह से निजी बने रहे.

वह न्यायपालिका को दलदल के उसी बिंदु पर छोड़ देती है जहां वह 1993 में आपातकाल के दौरान शुरू हुई तूफानी यात्रा के बाद पहुंची थी– जैसा कि वर्मा कहते हैं “उद्देश्य के प्रति प्रभारी व्यक्तियों की ईमानदारी” की दया पर.

न्यायाधीशों की प्रेस कांफ्रेंस में गोगोई की मौजूदगी ने आशा पैदा कर दी थी कि उनके आसन्न प्रबंधन में न्यायपालिका अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा फिर से प्राप्त करेगी. लेकिन जब से उन्होंने पदभार संभाला है वाल्मीकि मेहता के रुके हुए स्थानांतरण और उनके यौन दुराचार के आरोपों के आसपास बट्टा लगाने वाले सवाल, उनके प्रभार के अंतर्गत कॉलेजियम द्वारा सुप्रीम कोर्ट के लिए पदोन्नत न्यायाधीशों की सूची ने हतोत्साहित होने वाली कहानी सुना दी है.

जनवरी के महीने में पहले दिनेश महेश्वरी और संजीव खन्ना आए. पिछले साल जब महेश्वरी कर्नाटका उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश थे तो चेलामेश्वर ने महेश्वरी के चरित्र पर चर्चा करने के लिए सुप्रीम कोर्ट की पूरी बैठक बुलाई थी. एक बार फिर मुद्दा न्यायपालिका में कार्यपालिका के हस्तक्षेप का था. तत्कालीन सीजेआई दीपक मिश्रा को चेलामेश्वर ने एक पत्र लिखा कि महेश्वरी ने सरकार के इशारे पर एक न्यायाधीश की नियुक्ति को अवरुद्ध करने के प्रयास में अपने आपको “राजा से अधिक वफादार” दिखाया है. कोई फुल कोर्ट मीटिंग नहीं बुलाई गई. सुप्रीम कोर्ट में अपनी पदोन्नति होने तक महेश्वरी कर्नाटका उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश बने रहे.

पहले दिल्ली उच्च न्यायालय में रहे संजीव खन्ना हैबियस कार्पस केस के ऐतिहासिक असंतुष्ट हंसराज खन्ना के भतीजे हैं. सुप्रीम कोर्ट में उनकी नियुक्ति “एक बड़ा आश्चर्य” था जैसा कि अपने पैतृक न्यायालय से छुट्टी लेते समय खन्ना ने खुद एक भाषण में कहा था.

सुप्रीम कोर्ट में खन्ना की नियुक्ति से करीब एक महीना पहले 12 दिसम्बर 2018 को गोगोई की अध्यक्षता वाले कॉलेजियम ने वास्तव में दो पदोन्नतियों के लिए दो भिन्न उम्मीदवारों की सिफारिश की थी जिनके नाम प्रदीप नंद्राजोग और राजेंद्र मेनन हैं. खन्ना की तरह नंद्राजोग भी दिल्ली उच्च न्यायालय के थे और वह और मेनन दोनों खन्ना से कई साल सीनियर थे. लेकिन दोनों के नामांकन के कॉलेजियम के निर्णय को सरकार को कभी अग्रसित नहीं किया गया. वास्तव में, खन्ना के माध्यम से दोनों अधिक अनुभवी न्यायाधीशों को पीछे छुड़वा दिया गया.

दिसम्बर के अंत में सुप्रीम कोर्ट से अवकाश प्राप्त करने वाले और 12 दिसम्बर की कॉलेजियम की बैठक का भाग रहे मदन लोकुर ने बाद में एक सार्वजनिक साक्षात्कार में इसके तर्क पर सवाल उठाया लेकिन कोई स्पष्ट जवाब नहीं आया. लोकुर की सेवानिवृत्ति के बाद खन्ना की नियुक्ति को मंजूरी दे दी गई जिसने कॉलेजियम की संरचना को बदल दिया.

उच्च न्यापालिका के एक पूर्व सदस्य ने मेरे सामने एक सम्भावित व्याख्या पेश की. पूर्व न्यायाधीश ने कहा कि कॉलेजियम ने पहले ही मुंबई उच्च न्यायालय के न्यायाधीश भूषण गवई को पदोन्नत करने का निर्णय ले लिया था. 2017 में बी.एच. लोया के परिवार ने उनकी अचानक मौत पर संदेह जाहिर किया, गोगोई ने चुनिंदा प्रकाशनों के पत्रकारों को सीधे अपने चैम्बर में आमंत्रित कर के मीडिया से सम्पर्क के न्यायिक प्रतिबंध को तोड़ दिया. उन्होंने परिवार के भय की उपेक्षा की और जांच की मांग को खारिज किया. जैसा कि चीजें थीं, अगर गवई की पदोन्नति होती तो आयु और वरिष्ठता के देखते हुए वह डी.वाई. चंद्रचूण के बाद नवम्बर 2024 में सीजेआई होते. पूर्व न्यायाधीश ने बताया कि समस्या यह थी कि चंद्रचूड़ और गवई दोनों मुम्बई उच्च न्यायालय से आते हैं और लगातार एक ही उच्च न्यायालय से दो सीजेआई अच्छे नहीं लगते.

उन्होंने विस्तार से बताया, “इसलिए दोनों के बीच उन्हें एक प्रतिरोधक उम्मीदवार की जरूरत थी”. मेनन और नंद्रजोग उस मकसद को पूरा नहीं करते थे. उम्र के हिसाब से दोनों चंद्रचूड़ की अवकाश प्राप्ति से पहले सेवानिवृत्त हो जाएंगे. दूसरी ओर खन्ना को मई 2025 में उनकी सेवानिवृत्ति से पहले नवंबर 2024 में चंद्रचूड़ से सीजेआई के रूप में पदभार ग्रहण करने के लिए बिल्कुल ठीक स्थान दिया गया था. इस तरह से गोगोई के पास, जिन्हें सुप्रीम कोर्ट में इसी मई में पदासीन किया गया था, पद का आनंद छह महीने से कुछ अधिक समय तक शेष रहता है.

मैंने पूर्व न्यायाधीश से पूछा, “क्या आप यह कह रहे हैं कि कॉलेजियम वास्तव में कोष्ठक में फिट करने के लिए एक खास जन्म तिथि के उम्मीदवार की तलाश में था”? उन्होंने एक सौम्य मुस्कान के साथ जवाब दिया, “देखो, यह ऐसी चीजें हैं जिन पर विचार किया जाता है. उनकी जन्म तिथि क्या है”? वह कब रिटायर होंगे? क्या वे सीजेआई बन पाएंगे”?

मैंने सु्प्रीम कोर्ट के एक अन्य न्यायाधीश से पूछा जो कॉलेजियम में भी सेवा दे चुके थे कि क्या इस व्याख्या को विश्वसनीय समझते हैं. उन्होंने सहमति में सिर हिलाया. उन्होंने कहा “मैं बहुत दुखी हूं. मैं वहां बैठे हुए समूह से बहुत निराश हूं”.

गवई की पदोन्नति सूर्यकांत के साथ हुई थी. कांत पर रियल स्टेट के काले सौदों में संलिप्तता का आरोप लगा, जिसका शपथपत्र 2012 से सुप्रीम कोर्ट में लंबित है. कुछ साल पहले पंजाब में एक कैदी ने भी आरोप लगाया था कि कई मामलों में जमानत देने के लिए कांत ने रिश्वत ली थी. पिछले साल जब कांत हिमाचल उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश बने थे उस समय सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधीश ए.के. गोयल ने विरोध में सीजेआई मिश्रा को एक शिकायती पत्र लिखा था कि उन आरोपों की जांच नहीं की गई. उस समय या उसके बाद कुछ नहीं हुआ. गोगोई के करीबी माने जाने वाले कांत 15 महीने के लिए सीजेआई बनने की कतार में हैं जो 2025 में शुरू होता है.

सेकंड जजेज केस में वर्मा को अपने फैसले में समस्या होने की बात स्वीकार करने में 15 साल लग गए. अभी एनजेएसी फैसले को 4 साल भी नहीं हुए थे कि अपने हालिया सार्वजनिक बयान में कुरियन जोसेफ ने जो दृष्टिकोण अपनाया था उस पर पहले ही पछतावा जाहिर कर दिया. सुप्रीम कोर्ट की हालत देखते हुए उन्होंने कहा, “इससे बेहतर दूसरा रास्ता था”. न्यायिक खुलापन और सुधार जिसकी उन्होंने आशा की थी मायावी सपना बनकर रह गया.

जोसेफ की शब्दावलियों के चयन में रूपक पढ़ने के आकर्षण जैसा है. सोवियत यूनियन में सत्ता तंत्र के खिलाफ किसी आलोचना को पूरी साम्यवादी परियोजना पर हमले के समान माना जाता था. किसी नीति पर सवाल करना स्टालिन, लेनिन और स्वयं क्रांति पर सवाल करना था. स्मृति लोप के सात दशक बाद अपने अभिलेखागार के कुछ भागों को गोर्बाचेव के ग्लासनोस्त और पेरेस्त्रोइका के रूप में खोला तो इतिहास में बाढ़ आ गई. गोर्बाचेव ने बाद में स्वीकार किया कि शायद वही नीतियां सोवियत साम्राज्य के धाराशायी होने का सबसे महत्वपूर्ण कारक थीं.

सुप्रीम कोर्ट ऐसे बाढ़ द्वार खोलने के मूड में नहीं है जिसका मतलब भूलने के रोग, जवाबदेही से फरार, असहमति के दमन को स्थाई बनाना है. गोगोई ने अप्रैल में इसी प्रवृत्ति का बचाव किया. एक अधिवक्ता ने दलील देते हुए कहा कि सीजेआई कार्यालय सूचना अधिकार अधिनियम के अंतर्गत नियुक्ति प्रक्रिया की सूचना देने के लिए बाध्य है. सीजेआई न्यायकक्ष में बैठे गोगोई ने जवाब दिया कि कोई “अपारदर्शिता की प्रणाली” या “अंधकार में रहना” नहीं चाहता लेकिन खुलापन न्यायिक स्वतंत्रता की कीमत पर नहीं आ सकता और वह निश्चित नहीं थे कि रेखा कहां खींची जाए, चुभती हुई स्पष्टता वाली मुस्कान के साथ उन्होंने आगे कहा, “पारदर्शिता के नाम पर हम संस्था को तबाह नहीं कर सकते”.

अनुवाद : मसीउद्दीन संजरी