प्रवासी श्रमिकों के कानूनी अधिकारों के संरक्षण का सवाल

अल्ताफ कादिरी/ एपी फोटो

जन सरोकार वाले प्रौद्योगिकीविद तेजेश जीएन की वेबसाइट पर संकलित मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, 9 अप्रैल तक कोविड-19 से संबंधित मामलों में भारत में 192 मौतें हो चुकी थीं.

इस जनहानि में बड़ी संख्या उन प्रवासियों की है जिनकी मौत केंद्र सरकार के लॉकडाउन के दौरान घर लौटने की कोशिश में हुई. लॉकडाउन की घोषणा के बाद रोज कमा कर खाने वाले मजदूरों को सिर्फ चार घंटे को मोहलत मिली. ये लोग बिना भोजन, परिवहन, दवाओं और यहां तक ​​कि सिर पर बिना छत के रहने को मजबूर कर दिए गए. हालांकि इन हालातों का ख्याल पहले ही रखा जा सकता था लेकिन इस संकट के प्रति सरकार को कदम उठाना जरूरी नहीं लगा.

लॉकडाउन के दूसरे दिन सरकार ने समाज के कमजोर वर्गों के लिए 1.7 लाख करोड़ रुपए के राहत पैकेज की घोषणा की. पांचवें दिन गृह मंत्रालय ने प्रवासियों की आवाजाही को प्रतिबंधित करने के लिए राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों को आपदा प्रबंधन अधिनियम के तहत आदेश जारी किया. मंत्रालय ने राज्यों को उन सभी प्रवासी कामगारों को मानक स्वास्थ्य प्रोटोकॉल के अनुसार 14 दिनों की न्यूनतम अवधि के लिए आश्रय में रोकने के लिए कहा जो घर जा रहे थे. उन्हें सार्वजनिक जगहों से दूर करने के लिए हरियाणा और चंडीगढ़ के प्रशासन ने इनडोर स्टेडियमों को अस्थायी जेलों में बदल डाला. इस बीच उत्तर प्रदेश में स्वास्थ्य अधिकारियों ने प्रवासियों श्रमिकों पर औद्योगिक कीटाणुनाशक का छिड़काव किया. 29 मार्च को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने रेडियो में इस विपदा को संवेदना भरे शब्दों में रखा. उन्होंने "सामाजिक रूप से पिछड़े भाइयों और बहनों" से माफी मांगी और कहा कि कोविड-19 का सामना करने के लिए देश में लॉकडाउन के अलावा "कोई दूसरा रास्ता नहीं" था.

गृह मंत्रालय के आदेश में प्रवासी श्रमिकों के घर वापस जाने को "लॉकडाउन के नियमों का उल्लंघन" कहा गया. इस आदेश ने नियोक्ताओं को वेतन में कटौती करने से रोका और लॉकडाउन की अवधि के दौरान किराए के मकान से बेदखली को दंडनीय अपराध घोषित किया. ये नियोक्ताओं और जमींदारों के लिए एक अनधिकृत सरकारी सलाह से अधिक कुछ नहीं है. लेकिन प्रवासी कामगारों के लिए उपलब्ध अधिकार पर आधारित प्रावधान लागू नहीं हुए.

ये घटनाएं उस परिपाटी को दर्शाती हैं जो प्रवासी मजदूरों के प्रति हमने पूर्व से अपनाई हुई है. प्रवासी कामगारों को राज्य की खैरात पर पलने वाले या कानून और व्यवस्था की ऐसी समस्या से अधिक कुछ नहीं समझा गया जिससे दृढ़ता से निपटने की आवश्यकता है. प्रवासी श्रमिकों को जो अधिकार प्राप्त हैं वे कानून के अनुसार शायद ही कभी सार्वजनिक प्रयोग में आते हैं. प्रवासी श्रमिकों को काम पर रखने के लिए कानूनी ढांचे की उपेक्षा कई बार भ्रम पैदा करती है कि सरकार उनके लिए कुछ कर रही है.

विकासशील देशों के अनुसंधान और सूचना प्रणाली के प्रोफेसर अमिताभ कुंडू के अनुमान के अनुसार भारत में लगभग 65 लाख अंतर्राज्यीय प्रवासी श्रमिक हैं. ये अपने मूल राज्य के बाहर रहने के कारण छुट्टी पर जाने या मतदान करने के लिए घर जाने में असमर्थ हैं इसलिए इनकी चिंताओं को उनकी संख्या की ताकत के अनुसार राजनीतिक महत्व नहीं मिलता है. उदाहरण के लिए सैनिक, सरकारी कर्मचारी, जो विदेश में तैनात हैं और यहां तक ​​कि भारत मे ना रहने वाले भारतीय भी डाक से मतदान करने के लिए पात्र हैं लेकिन इस तरह का कोई प्रावधान प्रवासियों के लिए नहीं रखा गया है.

अपने कार्यस्थल के चुनावी नतीजों को प्रभावित ना कर सकने वाले प्रवासियों पर उनके गृह राज्यों की राजनीतिक उठापटक का असर पड़ता है. फिर भी राज्य सरकारों को विधानसभा में अंतर्राज्यीय प्रवासियों की समस्याओं पर बहस करते नहीं सुना जाता. ऐसे में पुलिस भी नियोक्ताओं या स्थानीय निवासियों का ही साथ देती है. स्थानीय कारपोरेटर या पार्षद भी उनकी भलाई में कोई हिस्सेदारी नहीं रखते हैं और प्रमुख ट्रेड यूनियनें उन्हें संगठित करने में उदासीन नजर आती हैं. सामाजिक-आर्थिक पदानुक्रम में मेहनतकश लोगों को सोशल मीडिया जैसे अपने विचार प्रकट कर सकने के विकल्प से वंचित रखा जाता है. यह संसाधन भी धनी लोगों को ही उपलब्ध है. औपचारिक और मूल रूप से देश के अधिकांश निवासियों के मताधिकार को इस तरह अस्वीकार करना भारतीय संघवाद और लोकतंत्र की प्रकृति के बारे में कई सवाल खड़े करता है. प्रवासी कामगारों के लिए उपलब्ध एकमात्र कानूनी संरक्षण 1980 में लागू हुआ अंतर-राज्य प्रवासी कामगार (रोजगार और सेवा की शर्तें) अधिनियम है. यह अन्य सभी बातों के साथ न्यूनतम मजदूरी का भुगतान करने, प्रवासी श्रमिकों को आवास और यात्रा भत्ते का भुगतान करने के लिए बाध्य करता है. कानून में पांच या अधिक अंतर्राज्यीय प्रवासियों को रोजगार देने वाले सभी संस्थान शामिल हैं.

1983 में सर्वोच्च न्यायालय ने बंधुआ मुक्ति मोर्चा बनाम भारत संघ के मामले में इस कानून को "व्यापक और विस्तृत व्याख्या" दी. अदालत ने इस कदम की आवश्यकता पर जोर दिया क्योंकि प्रवासी श्रमिक "पूरी तरह से एक अजीब वातावरण में रहते हैं, जहां उनकी गरीबी, अज्ञानता और अशिक्षा के कारण वे पूरी तरह से असंगठित, असहाय होते हैं और शोषण के आसान शिकार बन रहे हैं." इसने यह स्पष्ट किया कि अधिनियम की धारा 30 द्वारा प्रदान की गई शक्तियों को अधिभावी करते समय इसका मतलब था कि इसने इससे उलट किसी भी कानून, अनुबंध या स्थायी आदेशों को रद्द कर दिया है. यह प्रवासी श्रमिकों को कर्मचारी राज्य बीमा, भविष्य निधि और मातृत्व लाभ से वंचित नहीं करता.

पहले से ही कानून में निहित प्राथमिक नियोक्ताओं, ठेकेदारों और राज्य सरकारों के दायित्वों के अलावा, न्यायाधीश पी. भगवती द्वारा लिखित इस फैसले ने इसके कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए केंद्र पर भी बोझ डाला. भगवती ने लिखा, "केंद्र सरकार संसद द्वारा राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों का अनुपालन करते हुए श्रमिकों को बुनियादी मानवीय गरिमा का जीवन प्रदान करने के लिए बनाए गए विभिन्न सामाजिक कल्याण और श्रम कानूनों के पालन को सुनिश्चित करने के लिए बाध्य है." 1982 में पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स बनाम भारत संघ के मामले में दिए गए एक अन्य फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने जोर दिया कि श्रम कानून का उल्लंघन करने से होने वाला लाभ ऐसे उल्लंघनों के लिए देय हर्जाने से अधिक नहीं होना चाहिए.

प्रभावशाली ढंग से उच्च न्यायपालिका के हस्तक्षेप के बिना इस कानून को शायद ही कभी लागू किया गया हो. मार्च के आखिर से मैं माइग्रेंट वर्कर्स सोलिडेरिटी का एक हिस्सा हूं. यह प्रवासियों के अधिकारों के लिए काम करने वाला एक राष्ट्रीय नेटवर्क है जो फंसे श्रमिकों के लिए राहत हेल्पलाइन का संचालन कर रहा है. कई कानूनी विद्वानों और प्रवासी श्रमिकों के साथ मेरी बातचीत से मैंने सीखा कि भले ही संगठित क्षेत्र को ऊपर बताई गई कुछ बुनियादी सुरक्षा का लाभ मिलता हो लेकिन इस कानून ने प्रवासी कामगारों के अधिकारों के मामलों में ठीक प्रदर्शन नहीं किया है. चार दशक पुराना कानून निरर्थक प्रतीत होता है. मैंने जिन प्रवासी कामगार और श्रम संगठकों ने बात की उनमें से किसी ने भी इसके बारे में कभी सुना ही नहीं था.

1980 के दशक के मध्य से शुरू हुए नवउदार सुधारों के बाद 1991-2001 में आव्रजन में 35.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई और अगले दशक में यह बढ़ कर 44.2 प्रतिशत हो गया. इसी बीच देश की नीति विदेशी निवेश आकर्षित करने पर केंद्रित रही. श्रम कानूनों रहित विशेष आर्थिक जोन अथवा सेज स्थापित हुए. प्रत्यक्ष विदेशी निवेश वाली नीति के परिणामस्वरूप अस्सी के दशक के मध्य में विनिर्माण क्षेत्र का जो सीमित विकास हुआ, वह निर्यात वाले कपड़ा और गार्मेंट क्षेत्रों में हुआ. इन क्षेत्रों में रोजगार का अस्तित्व बांग्लादेश, इंडोनिशिया या थाईलैंड जैसे प्रतिस्पर्धी देशों से मजदूरी को कम रख कर हो सकता है. नतीजतन इन क्षेत्रों में बहुत अधिक उत्पीड़न होता है.

इन सुधारों को अपनाने से जो लोग अपने कार्यक्षेत्रों से बाहर कर दिए गए उन्हें मुख्य शहरीकरण परियोजनाओं में समेट लिया गया. निर्माण क्षेत्र अल्पकालिक आव्रजन से भर गया जिससे वह रिटेल के बाद दूसरा सबसे बड़ा प्रवासी श्रमिकों को समेटने वाला बन गया. घरों में काम करने के लिए भी अंतर्राज्यीय पलायन मुख्य रूप से हुआ. इस काम में मुख्य तौर पर औरतें शामिल होती हैं. पलायन पर जोर ने पारंपरिक जातिगत और भाषाई नेटवर्क को, जिसका श्रम सप्लाई चेन से संबंध है, को मजबूत किया है.

इन तीन दशकों में हुए आव्रजन की कहानी बताती है कि आर्थिक विकास के इस मार्ग पर बने रहने की शर्त श्रमिकों के जीवन और कार्य की परिस्थिति का बेहद निम्न स्तर पर बने रहना है. इन श्रमिकों को नागरिकों और कार्यस्थल के अधिकारों से वंचित कर उन्हें अपने मालिकों के साथ समझौता करने के लिए मजबूर किया गया जो स्थानीय मजदूरों के साथ करना संभव नहीं होता. संगठित क्षेत्रों के अध्ययन से पता चलता है कि दिल्ली-मुंबई औद्योगिक कॉरिडोर जैसे विनिर्माण केंद्रों की कंपनियां प्रवासी मजदूरों को काम में रखना ज्यादा पसंद करती हैं. संभवतः मजदूरों के संभावित विरोध को कुंद करने के लिए.

इस महामारी में मजदूरों के प्रति सरकार का दुर्व्यवहार साफ है. लगता है कि सरकार को प्रवासी मजदूरों को काम पर भेजने में कोई खासा डर नहीं है. 15 अप्रैल के एक आदेश में गृह मंत्रालय ने कुछ शर्तों के साथ, कुछेक गतिविधियों की इजाजत दी. इसके चार दिन मंत्रालय ने राज्य के भीतर प्रवासियों को काम की जगह लौट जाने की इजाजत दे दी.

लॉकडाउन के आरंभिक दिनों में बहुत से विशेषज्ञों ने सुझाव दिया कि असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों को प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण के जरिए आर्थिक सहायता दी जाए. असंगठित कामगार सुरक्षा कानून, 2008 को बने 12 साल हो गए हैं लेकिन मजदूरों का कोई केंद्रीकृत डेटाबेस नहीं है. अप्रैल के मध्य में कर्नाटक के श्रम मंत्री ए. शिवराम हेब्बर ने कहा था, “सरकार के पास वाहन चालक, किसान, घरेलू कामगारों जैसे असंगठित क्षत्रों में काम करने वाले लोगों का कोई डेटा नहीं है. हमें उनके अकाउंट में पैसा जमा करने के लिए उनका डेटा भी चाहिए.”

चार राज्यों ने लॉकडाउन में अर्थतंत्र को सुचारू करने के लिए फैक्ट्रियों में 12 घंटे की शिफ्ट की अधिसूचना जारी की है. आठ घंटे कार्य दिवस का अधिकार मजदूरों के एक सदी के रक्तरंजित संघर्ष का परिणाम है. इसे मई दिवस के रूप में मनाया भी जाता है. 1919 में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने इसे अनुमोदित किया था. फैक्ट्री कानून, 1948 के अनुसार, कोई भी व्यस्क कामगार एक सप्ताह में 48 घंटे से अधिक काम नहीं कर सकता और इस फ्रेमवर्क में कोई भी मजदूर 9 घंटे प्रति दिन से अधिक काम नहीं कर सकता. कानून के मुताबिक ओवरटाईम के घंटों के लिए मजदूरों को सामान्य दर से डबल की मजदूरी चुकानी होगी. गुजरात सरकार के नोटिफिकेशन के मुताबक बढ़े हुए काम के घंटों के लिए दिए जाने वाली मजदूरी वर्तमान मजदूरी के अनुपात में होगी. नोटिफिकेशन कहता है कि यदि आठ घंटे की मजदूरी 80 रुपए है तो इस अनुपात में 12 घंटे की मजदूरी 120 रुपए होगी.

प्रवासियों को बुनियादी जरूरतें और समाज कल्याण के कवरेज के भीतर लाने के लिए और नागरिकों और श्रमिकों के रूप में उनके लोकतांत्रिक अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए सबसे पहले तो उन्हें प्रवासी मजदूर मानना जरूरी है. प्रवासियों का पहचान दस्तावेजों के साथ डिजिटल प्रोफाइल तैयार करना इस दिशा में किया जाने वाला पहला कदम होगा. ऐसा करते हुए यह भी जरूरी है कि ऐसे डेटाबेस का मजदूरों पर निगरानी रखने या उनके आने-जाने को नियंत्रित करने के लिए ना हो.

सरकार को प्रवासियों के साथ होने वाले भेदभाव और उनके उत्पीड़न की हकीकत को स्वीकार करना होगा. स्थानीय अधिकार संपन्न संस्थानों से दूरी और सांस्कृतिक अलगाव के चलते उनको विशेष सुरक्षा की जरूरत होती है. ऐसे अधिकारों में शामिल हैं मनामाने ढंग से काम से निकाले जाने से सुरक्षा, स्थायी कर्मचारियों के जैसा व्यवहार, आवास या रोजगार में होने वाले भेदभाव का अंत और यूनियन बनाने का अधिकार. सांस्कृतिक अलगाव की भावना से उन्हें सुरक्षित रखने के लिए जहां भी प्रवासी मजदूर रहते हैं वहां राज्य को बुनियादी शिक्षा उनकी स्थानीय भाषा में देनी चाहिए.

सरकार को चाहिए कि सभी प्रवासी परिवारों के सुरक्षा के अधिकारों के तहत वह सार्वजनिक यातायात, आवास, शिक्षा और पीडीएस समेत सभी सार्वजनिक निवेशों को मजबूत करे. रहने की परिस्थिति और रोजगार के उपलब्ध विकल्पों में स्थानीय और प्रवासियों के बीच की गैरबराबरी को कम करने के लिए ना सिर्फ ऐसा करना जरूरी है बल्कि क्षेत्रीय अहंकारवाद को हावी ना होने देने के लिए भी ऐसा करना आवश्यक है.

आव्रजन मानव विकासक्रम का हिस्सा है. हमारा संविधान देश के भीतर किसी भी हिस्से में रहने और बसने का बुनियादी अधिकार देता है. आज प्रगतिशील लोगों को इस अधिकार को अर्थ देने की मांग करनी चाहिए. और यह तब तक मुमकिन नहीं है जब तक कि राज्यों में औद्योगिकीकरण और रोजगार निर्माण के अनुपात में असामानता रहेगी जो करोड़ो भारतीयों को पलायन करने के लिए मजबूर करता है. जब यह सुनिश्चित होगा तभी जाने-आने की आजादी अधिकार बन पाएगी और मजबूरी नहीं रहेगी. लेकिन इसके लिए सार्वजनिक हित, राज्य और जनता के बीच संबंध और संकट के बाद वित्तीय वैश्विक उत्पादन चेन के पुनर्गठन की हमारी सोच में बड़े बदलाव की जरूरत होगी. यह पिछले तीन दशकों से नवउदारवाद के आर्थिक विकास के पाठ को रैडिकल रूप से परिभाषित करने जितना बड़ा काम होगा.

अनुवाद : अंकिता