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यह पालग्रेव मैकिमलन और आकार बुक्स से प्रकाशित अंग्रेज़ी भाषा में छपी ‘रिज़िस्टिंग डिस्पोज़ेशन— दि ओडशा स्टोरी’ बड़े बांधों, खनन और औद्योगिक परियोजनाओं से उड़ीसा में जन्मी विस्थापना और बेदखली का आम किसानों, आदिवासियों, मछुआरों और भूमिहीन दिहाड़ी मज़दूरों पर हुए असर के बारे में है. लेखक ने 1950 के दशक में हीराकु़ंड बांध के निर्माण से लेकर राज्य में पॉस्को और वेदांता जैसे निगमों के प्रभाव की पड़ताल की है.
आकार बुक्स, मूल्य 695, पेज 336
तुग़लक़, हयवदना और नागा-मंडला जैसे सफल नाटकों के लेखक गिरीश कर्नाड की दिस लाइफ एट प्ले का यह हिंदी अनुवाद उनके जीवन के पहले भाग के बारे में है- सिरसी में उनके बचपन से लेकर स्थानीय थिएटर के साथ उनके शुरुआती जुड़ाव और बॉम्बे और ऑक्सफोर्ड में उनकी शिक्षा तक. इसमें प्रकाशन में कैरियर, फिल्म उद्योग में उनकी सफलताएं और कठिनाइयां एवं उनका व्यक्तिगत और लेखकीय जीवन के संस्मरण हैं.
हार्पर हिंदी, मूल्य 399, पेज 300
भारतीय राष्ट्रवाद: एक अनिवार्य पाठ इतिहासकार एस. इरफ़ान हबीब द्वारा संपादित अंग्रेज़ी किताब "इंडियन नेशनलिज़्म: द एसेंशियल राइटिंग्स" का हिंदी अनुवाद है. इस किताब में भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के प्रमुख नेताओं और चिंतकों के भारतीय राष्ट्रवाद से संबंधित लेख और भाषण-अंश संकलित हैं. किताब बताती है कि आज़ादी के संघर्ष और उसके बाद भी सक्रिय रहे नेताओं की नज़र में राष्ट्रवाद क्या था और वे किस तरह के राष्ट्र और राष्ट्रवाद का सपना देखते थे.
राजकमल, मूल्य 399, पेज 344
रूमी लस्कर बोरा के असमिया भाषा के इस उपन्यास का हिंदी में अनुवाद विजय कुमार यादव ने किया है. यह उपन्यास नेपाली युवक नर बहादुर की जीवन यात्रा के माध्यम से विस्थापन की पीड़ा, युद्ध की विभीषिका, नेपाल और भारत के जनजीवन और मानवीय मन की विविध संवेदना की कहानी है. उपन्यास द्वितीय विश्व युद्ध की पृष्ठभूमि में लिखा गया है.
प्रतिश्रुति कोलकाता, मूल्य 450, पेज 240
1951 में पहली बार कन्नड़ में प्रकाशित बसवराज कट्टीमनी का यह उपन्यास का हिंदी भाषा में अनुवाद धरणेंद्र कुरकुरी ने किया है. आज़ादी के ठीक बाद के तीन-चार साल का समयकाल जाति-धर्म के द्वंद्व, राजनीतिक दलों की स्पर्धा, पूंजीपति और मज़दूर वर्ग की टकराहट का दौर है. उपन्यास की थीम समतामूलक समाज का निर्माण और शोषण चक्र से मुक्ति है. इस उपन्यास को कन्नड़ भाषा का पहला प्रगतिशील उपन्यास भी माना जाता है. 1968 में इस उपन्यास को सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार मिला था.
प्रतिश्रुति कोलकाता, मूल्य 660, पेज 280
अरूण कुमार त्रिपाठी द्वारा संपादित यह किताब किसान नेताओं, कृषि अर्थशास्त्रियों और पत्रकारों के भारतीय कृषि संकट पर लेखों-विचारों का संग्रह है. देश में साल भर चले किसान आंदोलन ने साबित कर दिया है कि भारतीय कृषि गंभीर संकट के दौर में है. खेती में सुधार की ज़रूरत है, लेकिन वह सुधार किसानों को नज़रअंदाज़ कर नहीं किया जा सकता. खेती के संकट को मिटाने के लिए सरकार और किसानों के बीच निरंतर संवाद होना ज़रूरी है और नए विकल्पों पर सोचना भी.
वाणी प्रकाशन, मूल्य 325, पेज 240
यह किताब भारत में बाघों के संरक्षण और संरक्षण से जुड़े तथ्यों के साथ टाइगर रिजर्वों की प्राकृतिक और सांस्कृतिक विरासत के महत्व के बारे में है दुनिया में क़रीब दो-तिहाई से अधिक जंगली बाघ भारत में पाए जाते हैं और इसलिए इनके संरक्षण की सार्वजनिक ज़िम्मेदारी इसी देश के कंधे पर है.
वाणी प्रकाशन, मूल्य 399, पेज 172
भारत विभाजन के बाद पूर्वी बंगाल के बंगाली विस्थापित पश्चिम बंगाल और देश के बाकी 22 राज्यों के अलावा दिल्ली, मुंबई और अन्य शहरों में आकर बसे. पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में इनकी संख्या सबसे ज्यादा है और अब तक पुनर्वास नहीं हुआ. महानगरों की मजदूर मंडियों के ये दिहाड़ी मज़दूर हैं. पूर्वी बंगाल के सवर्ण विस्थापित विभाजन से पहले और विभाजन के दौरान पश्चिम बंगाल में बस गए और ये जीवन के हर क्षेत्र, कारोबार, राजनीति, साहित्य और संस्कृति में आगे हैं. बंगाल और बंगाल से बाहर 22 राज्यों और महानगरों में बसे बंगाली विस्थापितों में से 99 फीसदी दलित हैं. उत्तराखंड के पत्रकार रूपेश कुमार सिंह ने कोविड-19 के चलते लगे लॉकडाउन के दौरान उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के इलाकों में जाकर इनकी आपबीती दर्ज की.
समय साक्ष्य, मूल्य 120, पेज 152
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