पेरुमाल मुरुगन तमिल साहित्य की खास अभिव्यक्ति हैं. अब तक उनके 11 उपन्यास, चार कहानी संग्रह और पांच कविता संकलन प्रकाशित हो चुके हैं. 53 वर्षीय मुरुगन तमिलनाडु के कंगू नाडु क्षेत्र में पैदा हुए और फिलहाल अतुर के सरकारी कॉलेज में तमिल के प्रोफेसर हैं.
2014 में तमिल उपन्यास माधोरुबागन (2010) का अंग्रेजी अनुवाद वन पार्ट वुमन के नाम से छपने के साथ ही विवाद खड़ा हो गया. हिंदूवादी संगठन भावनाएं आहत होने का आरोप लगाते हुए किताब पर प्रतिबंध की मांग करने लगे. 2015 में मुरुगन ने घोषणा कर दी कि वह अब किताब नहीं लिखेंगे. उन्होंने लिखा : “लेखक पेरुमाल मुरुगन मर गया है. वह भगवान भी नहीं है कि दुबारा जन्म ले ले. पुनर्जन्म में उसका विश्वास नहीं है. अब वह एक सामान्य जीवन जिएगा. पी. मुरुगन के नाम से. उसे अकेला छोड़ दो.”
हाल में उनकी किताब अम्मा प्रकाशित हुई है. कारवां की एडिटोरियल इंटर्न मेघना प्रकाश ने किताब और उनके जीवन के बारे में मुरुगन से बात की.
मेघना प्रकाश : “अम्मा” एक नितांत निजी अनुभव है. यह आपकी “पूनाची” जैसी बाकी किताबों से काफी अलग है, जो जाति और पहचान की राजनीति के सवालों पर केंद्रित थीं. किस घटना ने आपको “अम्मा” लिख देने को प्रेरित किया? क्या यह आपकी मां की कहानी है?
पेरुमाल मुरुगन : मेरी मां का देहांत 2012 में हुआ. उस समय मैंने दो निबंध लिखे. एक निबंध साहित्यिक पत्रिका कलछुवडु में प्रकाशित हुआ और दूसरा उइरेतु नामक पत्रिका में. तमिल पाठकों ने इन दोनों निबंधों को बहुत सराहा. दोनों का अंबाई (लेखक सीएस लक्ष्मी का उपनाम) ने अंग्रेजी में अनुवाद किया. इन निबंधों ने सभी का ध्यान आकर्षित किया. 2007 के बाद जब मैंने मेरे प्रकाशक कन्नन के साथ विभिन्न साहित्यिक समारोह में जाना शुरू किया, तब मैं अपनी मां के बारे में बहुत बातें करता था. कन्नन ने मुझे मां पर किताब लिखने का सुझाव दिया और इस तरह मां पर किताब लिखने का विचार बना. जब भी हम मिलते थे, वह मुझे किताब लिख लेने का जोर डालते. मैं अपनी मां के इतिहास को लेकर अनिश्चित था क्योंकि ऐसा करने में मेहनत लगती है और मैं नहीं जानता था कि मैं उनके बारे में अधिक जानकारी हासिल कर पाऊंगा या नहीं. ऐसा इसलिए कि हम एक ऐसे समाज में रहते हैं, जो अपने परिवार के इतिहास पर अधिक ध्यान नहीं देता, यहां तक कि मुझे अपनी मां के जन्म का साल तक पता नहीं चला. इसलिए मैं काफी संशय में था. तब मैंने फैसला किया कि मैं मां के जीवन के बारे में न लिखकर, उनके व्यक्तित्व का वर्णन करते हुए, उनके प्रभाव पर लिखूं जो उनका मेरे दिल पर पड़ा था. किताब में मां के बारे में मेरे विचार और मेरे जीवन के विभिन्न स्तरों पर उनके प्रभावों को अभिलिखित किया गया है, फिर भी मुझसे बहुत कुछ छूट गया. यह एक पूर्ण वर्णन नहीं है. मैं उनके बारे में एक उपन्यास लिखने पर विचार कर रहा हूं.
मेघना प्रकाश : किताब में लिखे निबंध कालक्रम के अनुसार हैं, अपनी मां की बचपन की यादों से शुरुआत करते हुए पार्किंसंस से पीड़ित होने तक. क्या आप पाठकों को अपनी मां और अपने संबंध को किसी विशिष्ट रूप से अनुभूत कराना चाहते थे?
पेरुमाल मुरुगन : हालांकि मैंने निबंधों को कालक्रम के अनुसार व्यवस्थित किया है लेकिन यह उस तरह लिखे नहीं गए थे. किताब के आखिरी दो निबंध वास्तव में पहले दो निबंध थे जो मैंने मां के देहांत के समय लिखे थे. तब मैंने एक घटना को याद किया और उसके बारे में लिखा. निर्णय लेते समय मेरे दिमाग में पाठक वर्ग नहीं था, यह सिर्फ सहूलियत की बात है.
मेघना प्रकाश : यह किताब लिखने की प्रक्रिया क्या थी? पांच वर्ष के स्व-घोषित निर्वासन और पूनाची और अम्मा के प्रकाशन के बाद, लिखने के अनुभूव में क्या बदलाव आया?
पेरुमाल मुरुगन : एक बदलाव आया है. विवाद से पहले जो मेरे विचार थे, वे किताब में प्रकट नहीं हो सके. मैंने अपनी मनोदशा खो दी थी. जो किताबें मैंने विवाद के बाद लिखीं वे एक नए और अलग व्यक्ति द्वारा लिखी जा रही हैं. मैंने ये शब्द 2015 से पहले नहीं लिखे होते.
मेघना प्रकाश : तो नए पेरुमाल मुरुगन कौन हैं?
पेरुमाल मुरुगन : मैं एक निश्चित तस्वीर नहीं दिखा सकता. मैं बस उसे लिख रहा हूं जो भी मेरे दिमाग में आता है. हो सकता है भविष्य में मैं ऐसा कर सकूं. लेकिन मैं यकीन के साथ नहीं कह सकता. नए पेरुमाल मुरुगन को अब जाति के बारे में लिखने पर एक प्रकार का संकोच होता है. जो मैं लिखता हूं और जैसे मैं लिखता हूं उसमें 2015 में हुए विवाद के बाद एक बदलाव आया है. जाति से संबंधित विचार अब शब्दों की शक्ल नहीं ले पाते और अब सवाल उठता है कि और भी कई मुद्दे हैं, जिन पर मैं लिख सकता हूं. अब मेरे भीतर एक नियंत्रक है जो मुझे बताता है कि क्या लिखना सुरक्षित रहेगा और क्या नहीं. यह मेरी विषयों और बाकी चीजों के चुनाव को प्रभावित करता है. विवाद के बाद मेरी पहली किताब “पूनाची” थी जो एक बकरी के बारे में थी. फिलहाल मैं तमिल भाषा में कड़िमुगम नाम की एक किताब लिख रहा हूं. यह एक मध्यमवर्गीय परिवार पर आधारित है. यह परिवार पर मेरा पहली किताब है क्योंकि मैंने हमेशा ग्रामीण और कृषिक परिवारों पर ही लिखा है. मैं इंसानों पर नहीं, असुरों पर लिख रहा हूं. यह एक सचेत चुनाव है और इसमें अभिवेचन एक अहम भूमिका निभाता है. मैं अब और जागरूक हो गया हूं कि मुझे क्या और कैसे लिखना चाहिए.
मेघना प्रकाश : “वाईट सारी” शीर्षक वाले आपके निबंध में आपने अपनी मां के साथ एक विधवा की तरह व्यवहार किए जाने का उल्लेख किया है. इस निबंध में आपने वर्णन किया है कि किस तरह मां को आपके पिता के निधन के बाद गहने, कपड़े पहनने और सामाजिक अवसरों पर जाने व मेल-जोल बढ़ाने से पृथक कर दिया गया था. क्या आपको लगता है कि आपके जैसे अनुभव रखने वाले अन्य लोगों के लिए यह निबंध प्रासंगिक होगा?
पेरुमाल मुरुगन : निश्चित रूप से, लेकिन प्रथाओं ने पहले से ही मेरे गृहनगर को बदलना शुरू कर दिया है. जब मेरे पिता का देहांत हुआ तब मैं छोटा था और तब मेरे विचार ऐसे नहीं थे. यह सब बाद में हुआ, जब मैंने पढ़ना और नए विचारों को जानना शुरू किया. मैंने मां से पूछा और उन्होंने कहा कि इतने सालों बाद वह कोई बदलाव नहीं देखतीं. कुछ सालों बाद वहां कई बदलाव देखे जा सकते थे. प्रथा बिना किसी नियम के अपने आप बदल गई. विधवाएं सफेद साड़ी की जगह नारंगी रंग पहनने लगीं, खासकर जवान विधवाएं.
मेघना प्रकाश : इन निबंधो में आपने कई और सामाजिक कलंकों का भी उल्लेख किया. उदाहरण के लिए, आपने “पोमबालासत्ती” बुलाए जाने के बारे में बताया और किन्नर औरत और ऐसी घटनाओं के बारे में, जहां आपका सिल्क शर्ट पहनने पर तिरस्कार किया जाता था, लिखा है. क्या आप इन घटनाओं को विस्तार से बताएंगे?
पेरुमाल मुरुगन : अब मैं पुरुष, महिला, ट्रांस-महिला या लिंग के प्रति जागरूक हूं, मैंने महसूस किया कि मुझे उस तरह बर्ताव करने की आवश्यकता नहीं है. (किताब में मुरुगन को चिढ़ाए जाने पर अपमानित और आक्रोशित महसूस करने को याद करते हैं.) जब भी कोई मुझे छेड़ना या भड़काने चाहता था, वह मुझे उस नाम से बुलाते और भाग जाते. वह शब्द तब भी और आज भी सामाजिक विचार से अपमानजनक और निंदापूर्ण माने जाते हैं. कुछ बदलाव हो रहे हैं लेकिन बदलाव पूरी तरह से नहीं आया है. अब ट्रांस मुद्दों को लेकर अधिक संवेदनशीलता है और यह तुलनात्मक रूप से पहले के मुकाबले बेहतर है. वहां निश्चित रूप से एक बड़ा बदलाव होना चाहिए. पहला, परिवार को ट्रांस लोगों को पहचानना और स्वीकारना होगा. मैंने हाल ही में पढ़ा कि परिवार द्वारा स्वीकार न किया जाना, उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती होती है क्योंकि उन्हें अपना परिवार छोड़ने और जीवन के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए नए संबंध बनाने के लिए मजबूर किया जाता है. हाल ही में थूटुकुड़ि में एक ट्रांस महिला सरकारी अस्पताल में नर्स बनी. उसने बताया कि किस तरह सपनों को पूरा करने में उसका परिवार सहायक रहा. लेकिन यह एक दुर्लभ उदाहरण है. हमको और बदलावों की जरूरत है ताकि लोगों को परिवार छोड़ने पर मजबूर न किया जाए.
मेघना प्रकाश : अपने कहा कि अपने खेतीहर परिवार में पढ़ाई करने वाले आप पहले सदस्य थे और आपके परिवार का साहित्य से कोई वास्ता नहीं था. यह पहलू किस तरह आपके लेखन को प्रभावित करता है?
पेरुमाल मुरुगन : कृषि से जुड़ी मेरे बचपन की यादें जरूरी थी. जब मैंने किताबें पढ़नी शुरू की तो मैंने महसूस किया कि मेरे जीवन में किताबों में लिखी चीजों से अधिक और भी कई आवश्यक चीजें थी. इसके बाद मैंने उन चीजों पर लिखने का फैसला किया. मेरे अनुभव मेरे शब्दों को ताकत देते हैं. जो उपन्यास मैंने लिखे हैं, उनके अनोखे मतलब हैं और उन्हें एक विशेष रूप से कहा जाता है. वे बहुत सी लोककथाओं से प्रेरित हैं और उनमें मैं मौखिक आख्यान का उपयोग करता हूं.
मेघना प्रकाश : आपके लेखन में आपकी मां का कितना योगदान रहा? क्या आपने कभी उन्हें अपनी कविताएं सुनाईं?
पेरुमाल मुरुगन : मेरी मां एक ऐसी महिला थी जो लोक संगीत और ओपरीज (अंत्येष्टि में गाए जाने वाले गीत) गाया करती थीं. वह लिखना-पढ़ना नहीं जानती थीं. वास्तव में, शुरुआती दिनों में उन्हें पढ़ने-लिखने से घृणा थी. एक न्यूनतम आय वाले परिवार में किताबें खरीदना एक अनाश्यक खर्चा था. वह इसका विरोध किया करती थीं. मेरे पढ़ने और सरकारी नौकरी हासिल कर लेने के बाद उन्होंने शिक्षा और किताबों में विश्वास करना शुरू किया. जब उन्हें पता चला कि मैं लिखता हूं, तब उन्होंने मेरी बीवी और भाई के बच्चों को मेरे लिखे को पढ़कर सुनाने के लिए कहा. जब वह मेरी कहानियां पढ़तीं और उसमें कुछ वास्तविक जीवन के बारे में पातीं तब वह चिल्लातीं, “अच्छा! इसने इस बारे में भी लिखा है,” और वास्तविक घटना के बारे में बताना शुरू कर देतीं.
अनुवाद : अंकिता