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छायावादी काव्य में अतीत की तलाश

तूलिका वर्मा इलस्ट्रेशन Mohith O
01 October, 2024

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आधुनिक हिंदी के लिए खड़ी बोली नाम भी प्रचलित है. खड़ी बोली में कविता का जन्म अतीत से प्रस्थान और पुनरारंभ, दोनों के रूप में हुआ. 19वीं सदी में शुरू हुए एक लंबे संघर्ष के बाद हिंदी पट्टी में पसंदीदा साहित्यिक भाषा के रूप में इसने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के वैष्णव केंद्रों की भाषा, ब्रज, की जगह ले ली जो 400 सालों तक हिंदी पट्टी की भाषा थी.

'हिंदी' और 'उर्दू' के बीच संघर्ष के बारे में बहुत लिखा गया है और लिखा जा भी रहा है. दोनों के बीच दूरियों के नकलीपन पर काफ़ी चर्चाएं आयोजित होती हैं. लेकिन गौरतलब है कि आधुनिक हिंदी का जन्म और विकास ब्रज और खड़ी बोली के बीच तीखे संघर्ष से बराबर आकार लेता रहा. खड़ी बोली मेरठ और उसके आसपास की इलाकाई भाषा थी, जिसे बाज़ार की भाषा और अग्रवाल समुदाय की मातृभाषा का दर्जा प्राप्त था. महावीर प्रसाद द्विवेदी और भारतेंदु हरिश्चंद्र की अगुवाई में आधुनिक हिंदी कवियों की पहली पीढ़ी का इस नई साहित्यिक भाषा के साथ एक अजीब रिश्ता था. उन्होंने कठोर, संस्कृतनिष्ठ शैली में और कभी-कभी संस्कृत छंद में भी लिखा. हिंदी साहित्य कोश के 1963 के संस्करण में इन कविताओं का वर्णन करते हुए कहा गया है कि, "ये बेस्वादी, उपदेशात्मक, जैसा को तैसा कहने वाली और बेसुरी हैं."

लेकिन उनके बाद की पीढ़ी ने, जिसे छायावदी पीढ़ी के नाम से जाना जाता है, खड़ी बोली कविता को भावनात्मक और ऐतिहासिक प्रतिध्वनि देने का प्रयास किया. फिर भी, समस्या यह थी कि खड़ी बोली किसी भी साहित्यिक परंपरा से सीधे जुड़ने में बाधक थी. भाषा की यह बाधा उनके काव्य संसार में भी बार-बार प्रकट होती है. उनकी रचनाओं में परंपरा की एक विरोधाभासी, जो एक हद तक हताशा से ग्रस्त है, खोज सामने आती है. यह एकसाथ एक ऐसे अतीत की खोज है जो संसार में उनका स्थान निर्धारित कर सके और उन्हें आधुनिक भविष्य की ओर भी ले जा सके.

1918 से 1938 के बीच छायावादी काल के चार प्रमुख कवियों को — जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और महादेवी वर्मा — आलोचकों ने 'छायावादी' नाम दिया है. आलोचकों ने इन कवियों की कविताओं की अस्पष्टता, रचनाओं में अलग-अलग संदर्भ, खुले वाक्य विन्यास, सहायक क्रियाओं की कमी और समग्र दार्शनिक झुकाव की एकरूपता को इंगित करते हुए मध्ययुगीन आध्यात्मिकता की नकल माना है. ख़ासतौर पर निराला को साहित्यिक और सामाजिक रूढ़िवादियों की कठोर आलोचना का दंश सहना पड़ा. कुछ ने उनके काम को 'साहित्य का वध' तक कह डाला. द्विवेदी और हरिश्चंद्र युग के कवियों के उलट, छायावादी कवियों को पुराने साहित्यिक संस्थानों का कड़ा प्रतिरोध झेलना पड़ा. उन्हें बहुत कट्टरपंथी और बहुत कामुक माना गया. आलोचक उनकी रचनाओं में व्याकरण का उल्लंघन और छंदशास्त्र की कमी देखते तथा उन्हें उपयुक्त काव्य विषयों में नासमझ मानते थे.