अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष करती भोपाल की उर्दू लाइब्रेरी

संजना चौधरी

भोपाल में शाहजहांनाबाद के खचाखच भरे यातायात के बीच क्रिकेट खेलने वाले बच्चों से भरे इकबाल मैदान के पास एक दर्जन सीढ़िया नीचे उतरकर इकबाल लाइब्रेरी दिखाई देती है. अठारहवीं सदी में बने नाले के ऊपर बनी यह लाइब्रेरी एक समय में भोपाल में एक प्रतिष्ठित संस्थान हुआ करती थी, जो उर्दू साहित्य के केंद्र के रूप में शहर के इतिहास का प्रतीक थी. इसमें साहित्यिक कलाकृतियों और करीब 70,000 उर्दू और फारसी पांडुलिपियों, पहले संस्करणों, हस्ताक्षरित प्रतियों और ऐतिहासिक दस्तावेजों का एक व्यापक संग्रह है. लाइब्रेरी की संपत्तियों में प्रमुख उर्दू कवियों और लेखकों की रचनाएं उल्लेखनीय हैं, जिनके योगदान ने उर्दू साहित्य के पाठ्यक्रम को आकार दिया है. लाइब्रेरी भोपाल के शुरुआती इतिहास को भी संरक्षित करती है, जो साहित्यिक और सांस्कृतिक उपलब्धियों के ज़रिए शहर के विकास को दर्शाता है.

लेकिन जब मैंने इस साल की शुरुआत में पुस्तकालय का दौरा किया, तो मैंने पाया कि इसमें पहले जैसा अब कुछ नहीं था. जो शहर कभी उर्दू दैनिक समाचार पत्रों, पत्रिकाओं और किताबों के शौकीन पाठकों से भरा हुआ था, वह अब शांत और खाली है. उस भयानक सन्नाटे में कोई भी पिछले दशकों के सरसराते पन्नों की आवाज़ें लगभग सुन सकता था.

लाइब्रेरी और मैदान का नाम बीसवीं सदी के कवि, दार्शनिक मुहम्मद इकबाल के नाम पर रखा गया था, जिन्हें अक्सर अल्लामा या सिर्फ इकबाल, पूर्व (पूरब) के कवि के रूप में जाना जाता है. उन्होंने लोकप्रिय गीत, "सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान हमारा" लिखा और वे पाकिस्तान बनाने के आंदोलन के पीछे अग्रणी बुद्धिजीवियों में से एक थे. इकबाल ने 1930 के दशक में भोपाल का दौरा किया था और कहा जाता है कि वह इस शहर की शांति से बहुत प्रेरित हुए थे. यहां पर सबसे महत्वपूर्ण कलाकृति दीवान-ए-इकबाल है, जो इकबाल की कविता का पहला संस्करण संकलन है, जो उनके भोपाल प्रवास के दौरान लिखा गया था. ये कुल मिलाकर 14 रचनाएं भोपाल के नवाब के घर, शीश महल के शांतिपूर्ण वातावरण में लिखी गईं.

भोपाल की समृद्ध साहित्यिक परंपरा फ़ारसी रंग में रंगी हुई है जो दिल्ली के सुल्तानों और बाद में मुग़ल सम्राटों के अधीन विकसित हुई. लाइब्रेरियन और विद्वान उमर खालिदी ने 2011 के अपने एक पेपर में लिखा है कि ये शासक कविता और विद्वता के उत्साही संरक्षक थे और उन्होंने उपमहाद्वीप में प्रिंट संस्कृतियों के लिए जमीन तैयार की. मुग़ल राजाओं ने पांडुलिपियों का व्यापक संग्रह एकत्र किया, जिनमें से कई 1857 के विद्रोह के बाद बिखर गए या नष्ट हो गए. खालिदी लिखते हैं, "मुगलों की तरह बंगाल, दक्कन, गुजरात और मालवा के सुल्तान भी उल्लेखनीय पुस्तक संग्रहकर्ता थे, उनके उत्तराधिकारी अवध, अर्कोट, भोपाल, रामपुर और टोंक के नवाब और साथ ही हैदराबाद के निज़ाम भी उल्लेखनीय पुस्तक संग्रहकर्ता थे."