भारतीय मीडिया को निगलने वाले बड़े कारपोरेट घराने

इलस्ट्रेशन : सुकृति आहान स्टैनली

इस साल अडानी समूह द्वारा एनडीटीवी के अधिग्रहण के प्रयास के चलते इस चैनल के भविष्य और भारतीय मीडिया पर अडानी के इस कदम के असर पर तीखी बहस शुरू हो गई. वैसे गौतम अडानी की बहुराष्ट्रीय कंपनी ने मीडिया में अपनी उपस्थिति पहले ही दर्ज करा रखी है. अडानी की कंपनी का क्विंटीलियन बिजनेस मीडिया प्राइवेट लिमिटेड, जो बीक्यू प्राइम (ब्लूमबर्गक्विंट) चलाती है, में निवेश है.

अधिग्रहण के बाद हालांकि बहस इस बात पर अधिकतर केंद्रित रही कि क्यों मुकेश अंबानी की मिल्कियत रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड ने, जो एनडीटीवी पर प्रॉक्सी नियंत्रण रखने के साथ ही भारतीय मीडिया क्षेत्र में शीर्ष वित्तीय निवेशकों में से एक है, वह अपने सबसे ताकतवर प्रतिस्पर्धी को चैनल सौंपने के लिए राजी हो गई.

इससे पहले कि हम इस सवाल का जवाब देना शुरू करें हमें पत्रकारिता और मीडिया के अंतर को समझ लेना चाहिए. पत्रकारिता का मतलब है समाचार इकट्ठा करने और विश्लेषण करने वाली गतिविधियां. इसके साथ कुछ जरूरी मान्यताएं और मूल्य जुड़े होते हैं. भारतीय मीडिया संस्थानों में आजकल ये मूल्य बहुत सीमित रूप से पालन किए जाते हैं लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि ये मूल्य अस्तित्व में नहीं हैं या इनकी जरूरत नहीं है. पत्रकारिता के विपरीत मीडिया एक मूल्य तटस्थ (मूल्य न्यूट्रल) शब्द है जो सिर्फ सूचना के कंटेंट और माध्यम तक सीमित नहीं है बल्कि इसमें इनको चलाने वाली उपसंरचनाएं भी शामिल हैं. मीडिया एक छाता शब्द है जिसमें समाचार पत्र, टेलीविजन चैनल, बॉलीवुड स्टूडियो, नेटवर्क प्रदाता, मनोरंजन, स्ट्रीमिंग शो और आईपीएल मैच आते हैं. सच है कि मीडिया का अर्थ एक इतनी बड़ी इंडस्ट्री है जिसने पत्रिका के विचार को ही डुबो दिया है जबकि इस शब्द को अक्सर पत्रकारिता के पर्यायवाची के रूप में इस्तेमाल किया जाता है.

भारत में हम पत्रकारिता में करियर शुरू कर रहे व्यक्ति की योग्यता को बड़ी सख्ती से जांचते हैं जबकि जो मीडिया संस्थान चलाते हैं उनके संस्कारों के प्रति उदासीन रहते हैं. ऐसा इसलिए है क्योंकि जब भारतीय गणराज्य की स्थापना हो रही थी तब पत्रकारिता की स्वतंत्रता की आवश्यकता को स्वीकार किए जाने के बावजूद प्रेस की भूमिका पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया.

यह दोहरेपन श्रमजीवी पत्रकार और अन्य समाचार पत्र कर्मचारी कानून, 1955 में झलकता है. यह कानून सभी तरह के पत्रकारों, मसलन पत्रकारों, उपसंपादकों या किसी संगठन के संपादक को विशेष सुरक्षा प्रदान करता है. इसमें उल्लेखित सुरक्षा उपाय अन्य किसी पेशे के प्रबंधकीय स्टाफ के लिए उपलब्ध नहीं हैं लेकिन कामकाजी पत्रकारों के तमाम स्तर लेबर कोर्ट जा सकते हैं.

इस बीच बड़े परिदृश्य में उन मूल्यों को देखने की जरूरत है जिनके बीच पत्रकारों का काम शुरू से ही पर्याप्त पहचान नहीं पा सका. शुरुआती दिनों में बिरला, जैन, गोयनका जैसे जूट उद्योगपतियों की मिल्कियत वाले प्राइवेट मीडिया की भूमिका पर संवैधानिक पड़ताल नहीं हुई. आज इस पर अंबानी और अडानी का कब्जा तेजी से होता जा रहा है. आज यह अधिकाधिक स्पष्ट होता जा रहा है कि किस तरह मीडिया को व्यवस्थित किया जाना चाहिए इस बारे में ठीक उसी तरह सोचा जाना चाहिए था जैसे न्यायपालिका, विधायिका और कार्यकारी के बारे में सोचा जाता है.

उद्योगपतियों के हाथों में मीडिया का संकेंद्रीकरण न केवल विचारों की विविधता पर अंकुश लगाता है बल्कि यह मीडिया की प्राथमिकता भी तय कर देता है जिसमें उद्योगपतियों के आर्थिक हितों की सुरक्षा सुनिश्चित होना जरूरी हो जाता है. वास्तव में मीडिया का काम उसके अपने घाटे या फायदे तक सीमित नहीं रह जाता बल्कि उसे मालिक के अन्य कारोबारों में फायदे और घाटे के बारे में सजग रहना पड़ता है. एक ऐसे देश में जहां उदारीकरण के बाद भी सरकार के हाथों में उद्योगपतियों का भविष्य जकड़ा हुआ है. ऐसी स्थिति में ऐसा मीडिया संस्थान जो सरकार की आलोचना करे उसके ऊपर उसके अन्य कारोबारी हितों में सरकार के हस्तक्षेप का खतरा, कानून ला कर, हमेशा मंडराता रहेगा.

यथार्थ यह है कि भारत में पत्रकारिता का तथाकथित स्वर्णिम युग कभी था ही नहीं. सत्ता और मीडिया के दोस्ताना संबंध का लंबा इतिहास रहा है और सरकार की आलोचना अक्सर मीडिया मालिक के सरकार के साथ बनते-बिगड़ते संबंधों से निर्धारित होती रही. सरकारी मीडिया और यथास्थितिवादी निजी प्रिंट मीडिया की पत्रकारिता में एकरूपता बनी रही. हां अगर ऐसा लगता रहा कि देश में स्वतंत्र मीडिया का अस्तित्व है तो वह सिर्फ इसलिए कि पिछली सरकारों ने भारतीय मीडिया की उन ढांचागत कमजोरियों का लाभ मोदी की तरह नहीं उठाया.

नरेन्द्र मोदी सरकार ने कोई अनोखा अविष्कार नहीं किया है. ये परिस्थितियां हमेशा से अस्तित्वमान थीं. पिछले सालों में कारवां ने कई रिपोर्टें और लेख प्रकाशित किए हैं जिसमें दस्तावेजी आधार पर बताया गया है कि कैसे मोदी सरकार ने व्यवस्थित रूप से यह सुनिश्चित किया है कि मुख्यधारा का मीडिया एक खास किस्म का नैरेटिव आगे बढ़ाए.

इस पृष्ठभूमि में अडानी जैसे किसी मीडिया समूह के क्षेत्र में पसरने से खासा फर्क नहीं पड़ता. लेकिन जो स्थिति फिलहाल अमेरिका की है वह संकेत देती है कि आने वाले भविष्य में क्या हो सकता है. जैसे 1983 में अमेरिकी मीडिया का 90 फीसदी 50 कंपनियों के मालिकाने में था. और 2011 आते-आते वही 90 फीसद हिस्सा केवल 6 कंपनियों के कब्जे में रह गया है. भारत में तो इस तरह का कंसोलिडेशन मीडिया में असल रूप की डाइवर्सिटी बनने से पहले ही शुरू हो गया है.

एनडीटीवी का अधिग्रहण इस कंसोलिडेशन की सटीक मिसाल है क्योंकि अपनी सीमाओं में ही सही लेकिन मोदी की जय-जयकार करने वाले चैनलों की बहुलता के बीच यह चैनल एक अपवाद की तरह था. और तो और जैसे-जैसे मीडिया क्षेत्र में अडानी समूह अपनी स्थिति मजबूत करता जाएगा वैसे-वैसे इसका सामना पहले से ही मजबूत अंबानी ग्रुप से होगा.

मीडिया में रिलायंस के हित नेटवर्क18 तक सीमित नहीं है. इस समूह का प्रत्येक भारतीय नागरिक के जीवन पर जो असर है वह किसी एक समाचारपत्र या किसी एक चैनल के असर से कहीं अधिक है. रिलायंस जिओ नेटवर्क से इसे समझा जा सकता है, जो इस समूह की टेलीकॉम कंपनी है और देश का सबसे बड़ा मोबाइल नेटवर्क भी. जब हम रिलायंस समूह की महत्वाकांक्षा को उसके पूरे स्तर में समझते हैं तब जा कर हम समझ पाते हैं कि यह समूह भारत का सबसे महत्वपूर्ण मीडिया बन चुका है. अडानी को इसी प्रभाव क्षेत्र से प्रतिस्पर्धा करनी है.

राजनीति की तुलना में मीडिया में मालिकाना का पैटर्न लंबे समय तक कायम रहता है. हिंदुस्तान टाइम्स समूह में बिरला का मालिकाना 90 साल से ऊपर तक कायम रहा है. इन 90 सालों में अंग्रेज भारत से चले गए, कांग्रेस कमजोर हुई और भारतीय जनता पार्टी का उत्थान हुआ. मोदी या बीजेपी का देश पर जो नियंत्रण है उससे छुटकारा पाना अडानी या किसी अंबानी का हमारी सूचना पर हो रहे कब्जे से छुटकारा पाने से ज्यादा सरल होगा.

पहले से ही टाइम्सग्रुप या भास्कर समूह जैसे पारंपरिक मीडिया घराने रिलायंस के आकार और उसके प्रभाव के आगे दबे जा रहे हैं. जैसे-जैसे अडानी समूह मीडिया में अपनी उपस्थिति बढ़ाएगा वैसे-वैसे इंडिया टुडे ग्रुप जैसे अन्य ग्रुप भी कमतर होते जाएंगे.

इस खतरे के रहते हुए भी ऐसा नहीं लगता कि हमारे लोकतंत्र के भीतर मीडिया व्यवस्था के पुनर्निर्माण की राजनीतिक इच्छा शक्ति देखी जाएगी. यह खराब परिदृश्य, जो स्वतंत्रता के बाद से ही बना हुआ है, उदारीकरण के सालों में और खराब हुआ है. खासकर, संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के जमाने में. बीजेपी के बाद आने वाली नई सरकार मोदी के ही नक्शे कदम पर चलेगी ना कि स्थिति में सुधार का प्रयास करेगी.

इसलिए बड़े मीडिया की नजरों से बचे हुए छोटे संस्थानों में पत्रकारिता को बढ़ावा देने के फायदे हैं. छोटे संस्थानों को गलाकाट प्रतिस्पर्धा में नहीं पड़ना होता और ये उस तरह की फंडिंग की आवश्यकता से भी अछूते रहते हैं जिसके कारण खराबी आ जाना स्वाभाविक होता है. साथ ही ये संस्थान ऐसे पत्रकारों को भी आकर्षित करते हैं जो इस पेशे में मूल्यों के चलते जुड़ते हैं. फिर भी ऑपइंडिया जैसे संस्थान भी हैं जो पत्रकारिता तो शायद ही करते हैं.

जो कुछ बचे हुए संस्थान हैं उनको प्रोत्साहन देना जरूरी है. हालांकि ये छोटे-छोटे विकल्प तेजी से बिगढ़ते परिदृश्य पर कम ही असर डाल सकेंगे लेकिन फिर भी यह उस स्थिति से तो बेहतर ही है जिसमें हर मिनट कोई कारपोरेट मीडिया घराना अडानी या अंबानी समूह के हाथों बिकने को तैयार हो.