मता-ए-लौह-ओ-कलम

370 के बाद कश्मीर में कत्ल की जाती पत्रकारिता

कश्मीर प्रेस क्लब के सामने का दरवाजा. क्लब को 17 जनवरी को बंद करके सील कर दिया गया. अपने चार साल के छोटे से कालखंड में पत्रकारों, खासकर विदेशी अखबारों में लिखने वाले पत्रकारों, के लिए यह क्लब मरुस्थल में पानी के सोते के समान था. शाहिद तांत्रे
रिपोर्ट और फोटो Shahid Tantray
14 March, 2022

15 जनवरी को दोपहर 1.45 बजे कश्मीर प्रेस क्लब परिसर में एक बख्तरबंद काफिला दनदनाता हुआ घुसा. श्रीनगर के लाल चौक के पास पोलो व्यू पर स्थित प्रेस क्लब कश्मीर के पत्रकारों की नुमाइंदगी करता है. इससे एक दिन पहले से ही क्लब में पुलिस की मौजूदगी बढ़ा दी गई थी और बाहर सड़क पर गश्त थी. काफिला पहुंचने से पहले एक पुलिस अधिकारी ने गश्त के बारे में संवाददाताओं से कहा था, “एक बार साहब आ जाएं और अपना चार्ज संभाल लें तो हम चले जाएंगे.” अर्धसैनिक बल और जम्मू-कश्मीर पुलिस के जवानों से घिरे टाइम्स ऑफ इंडिया के सहायक संपादक सलीम पंडित काफिले के आगे की एंबेसडर कार से बाहर निकले और फुर्ती से पहली मंजिल पर एक सम्मेलन कक्ष में चले गए.

ग्यारह अन्य पत्रकार, जिनमें से कई जम्मू-कश्मीर के वर्तमान प्रशासन के करीबी माने जाते रहे हैं, सम्मेलन कक्ष में घुसे और दरवाजा बंद कर लिया. दरवाजे के बाहर असॉल्ट राइफलों से लैस तीन पुलिस वाले परेशान हाल कर्मचारियों और क्लब के सदस्यों को घूर रहे थे. पुलिस के अपराध जांच विभाग के सदस्य भी गलियारों में फिरते दिखे. फिलहाल अपराध जांच विभाग कश्मीर के बेबाक पत्रकारों के खिलाफ प्रशासन का सबसे उम्दा हथियार है. एक घंटे बाद 12 पत्रकार कमरे से बाहर निकले और घोषणा की कि (वे प्रेस क्लब को) “हाथ में ले रहे हैं”.

कोविड-19 लॉकडाउन के बावजूद क्लब के बाहर सदस्यों की भीड़ लग गई थी. तुरंत ही, लगभग एक साथ, हमारे फोन बज उठे. हम सभी को एक व्हाट्सएप मैसेज मिला जिसमें पंडित और दो अन्य लोगों के दस्तखत से एक बयान जारी किया गया था. “निर्वाचित निकाय ने दो साल का अपना कार्यकाल 14 जुलाई 2021 को पूरा हो गया है. आप सभी को पता है कि कि पिछली समिति ने अज्ञात कारणों से चुनावों में देरी की और लगभग छह महीने तक क्लब नेतृत्वहीन रहा तथा मीडिया बिरादरी को अवांछित परेशानी में डाल दिया गया. इसलिए 15 जनवरी 2022 को कश्मीर घाटी के विभिन्न पत्रकार संगठनों ने स्वतंत्र और निष्पक्ष तरीके से चुनाव होने तक सर्वसम्मति से एम सलीम पंडित की अध्यक्षता में क्लब का तीन सदस्यीय एक अंतरिम निकाय बनाने का फैसला किया है. डेक्कन हेराल्ड के ब्यूरो प्रमुख जुल्फकारो माजिद इसके महासचिव होंगे और डेली गडयाल के संपादक अर्शीदो रसूल कोषाध्यक्ष.”

बयान में इस बात को कोई जिक्र नहीं किया गया कि नए चुनावों की घोषणा दो दिन पहले हो चुकी थी और 29 दिसंबर 2021 तक क्लब को फिर से पंजीकृत करने से सरकार के इनकार के कारण यह देरी हुई थी. साथ ही, यह भी स्पष्ट नहीं था कि ये कौन से "विभिन्न पत्रकार संगठन" थे या कहां और कैसे उन्होंने अंतरिम निकाय बनाने के लिए "सर्वसम्मति से सहमति" दी थी. इस बारे में कारवां ने पंडित को सवाल ईमेल किए थे. एक पेज लंबे जवाब में भी पंडित यह नहीं बता पाए. कश्मीर प्रेस क्लब में पंजीकृत 13 पत्रकार संगठनों में से दस ने 20 जनवरी को एक बैठक कर “जबरन कब्जा ... और बाद में जम्मू-कश्मीर प्रशासन द्वारा कश्मीर प्रेस क्लब को बंद करने” की निंदा की. प्रेस क्लब ऑफ इंडिया, एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया, कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स और कई अन्य राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय प्रेस संगठनों ने भी कब्जे की निंदा की है. कश्मीर के नेताओं ने भी इस कदम की आलोचकना की. पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने ट्वीट किया कि “केपीसी में आज का राज्य प्रायोजित तख्तापलट बुरे से बुरे तानाशाहों को भी शर्मसार कर देगा. यहां राज्य एजेंसियां अपने वास्तविक कर्तव्यों का निर्वहन करने के बजाए निर्वाचित निकायों को उखाड़ फेंकने और सरकारी कर्मचारियों को बर्खास्त करने में लगी हैं. उन लोगों पर शर्म आती है जिन्होंने अपनी ही बिरादरी के खिलाफ इस तख्तापलट में मदद की.”

जिन पत्रकारों से मैंने बात की उनमें इस बात पर आम सहमति थी कि कब्जे का मास्टरमाइंड जम्मू-कश्मीर प्रशासन था. हालांकि पंडित ने इस बात से इनकार किया कि प्रशासन ने उनका साथ दिया फिर भी कई ऐसी बाते हैं जो इस ओर इशारा कर रही हैं. जैसे पंडित और जिन दूसरे लोगों ने कब्जे का समर्थन किया था उनके आसपास पुलिस और अर्धसैनिक बंदोबस्त होना संदेहास्पद है. पंडित को सरकारों के करीबी के रूप में भी जाना जाता है.

नवंबर 2019 में अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के तुरंत बाद पंडित ने कहा था कि एक प्रमुख अंग्रेजी दैनिक के संपादक के "आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा के साथ घनिष्ठ संबंध हैं और उसने अपने अखबार में लिखने के लिए जाने-माने 'जिहादी पत्रकारों' को काम पर रखा है." यह केंद्र सरकार द्वारा कश्मीर में पत्रकारों को बार-बार राष्ट्र-विरोधी और इस्लामपंथी दिखाए जाने से मिलता-जुलता बयान है. पंडित की कश्मीर प्रेस क्लब की सदस्यता को क्लब की "बदनामी" करने के लिए तुरंत रद्द कर दिया गया था और तब से वह क्लब के सदस्य नहीं रहे हैं.

जनवरी 2020 में जब भारत सरकार ने 16 विदेशी राजनयिकों को कश्मीर घाटी के दौरे पर आमंत्रित किया और यह दिखाने की कोशिश की कि हालात सामान्य है, तब पंडित उन चुनिंदा मीडियाकर्मियों में से थे जिनसे उन्हें मिलने की इजाजत दी गई थी. प्रेस क्लब पर कब्जे के बाद पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने पंडित का नाम लिए बिना ट्वीट किया कि "ऐसी कोई सरकार नहीं जिससे इस 'पत्रकार' ने वसूला न हो और ऐसी कोई सरकार नहीं है जिसकी ओर से इसने झूठ नहीं बोला हो. मुझे इसलिए पता है क्योंकि मैंने दोनों पक्षों को बहुत करीब से देखा है. अब उन्हें राज्य प्रायोजित तख्तापलट का फायदा मिला है.''

कारवां के सवालों के जवाब में, पंडित ने दावा किया कि वह प्रेस क्लब के संस्थापक रहे और क्लब के निर्वाचित निकाय ने "क्लब में मौजूद पाकिस्तानी तत्वों के इशारे पर सरकार का सामना करना चुना." उन्होंने दावा किया कि पिछले क्लब चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष नहीं थे, और यह झूठ था कि नए चुनावों की घोषणा पहले नहीं की गई थी. उन्होंने यह भी कहा कि क्लब का नेतृत्व मुफ्ती और अब्दुल्ला के आदेश पर काम कर रहा था. पंडित ने कहा कि "क्या कोई इस सवाल का जवाब दे सकता है कि कश्मीर के पत्रकारों के बीच आंतरिक संबंधों के कारण पाकिस्तानी राज्य और आतंकवादी क्यों भड़क गए? पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय को कश्मीर में पत्रकारों के आंतरिक मामलों में दखल क्यों देना पड़ा? उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि क्लब में बड़ी संख्या में सुरक्षा बल के फुटेज को फोटोशॉप किया गया था. हालांकि मैं भी उस वक्त वहीं था और बात इसके एकदम उलट थी.

कब्जे के बाद के दिनों की घटनाएं यह भी दर्शाती हैं कि इसके पीछे प्रशासन का हाथ था. 17 जनवरी को सरकार ने क्लब को बंद करने के साथ-साथ उस इमारत को भी कब्जे में लेने का फैसला किया जिसमें यह था. क्लब का पोलो व्यू परिसर जुलाई 2018 में मुफ्ती सरकार ने दिया था. उन्होंने पत्रकारों के हितों का प्रतिनिधित्व करने के लिए एक निर्वाचित, सरकार-पंजीकृत निकाय की दशकों पुरानी मांग को स्वीकार कर लिया था. चार साल बाद ही "कश्मीर प्रेस क्लब में दो प्रतिद्वंद्वी गुटों के चलते घटी अप्रिय घटनाओं" पर चिंताओं का हवाला देते हुए प्रेस क्लब को अपंजीकृत कर दिया गया और इसका कार्यालय बंद हो गया. कश्मीर प्रेस क्लब के पहले महासचिव इश्फाक तांत्रे मानते हैं कि कब्जे की घटना से सरकार और इस “अंतरिम निकाय” दोनों की बदनामी हुई है.

प्रेस क्लब पर कब्जे की घोषणा के बाद सलीम पंडित हथियारबंद अंगरक्षक और समर्थक पत्रकारों के साथ कश्मीर प्रेस क्लब परिसर से बाहर निकलते हुए . मैंने जिन पत्रकारों से बात की, उनमें आम सहमति थी कि तख्तापलट की साजिश जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने की थी. शाहिद तांत्रे

अपने चार साल के संक्षिप्त कार्यकाल में ही कश्मीर प्रेस क्लब पत्रकारों के लिए मरुस्थल में सोते की तरह था. भारत के अन्य प्रेस क्लबों के उलट, जहां पत्रकार आम तौर पर सस्ता खाना और सस्ती शराब के लिए जाते हैं, कश्मीर प्रेस क्लब दर्जनों स्वतंत्र पत्रकारों की ऐसी जरूरी जगह था जहां वे काम कर सकते थे. अनुच्छेद 370 को निरस्त करने और सेना द्वारा लागू किए गए लॉकडाउन और इसके बाद मीडिया ब्लैकआउट के दौरान इसका इस्तेमाल और बढ़ गया था.

“जब 2019 में महीनों तक संचार ठप रहा तो केपीसी सूचना के आदान प्रदान का केंद्र बन गया. यहां कश्मीर के विभिन्न क्षेत्रों के पत्रकार समाचार साझा करते थे," श्रीनगर के एक पत्रकार जावीद ने मुझे बताया. "उस दौरान रिपोर्ट करने का कोई और तरीका नहीं था." लेकिन ऐसा भी नहीं था कि क्लब में सरकारी हस्तक्षेप था ही नहीं. बीस साल के एक वीडियो पत्रकार ने मुझे बताया कि इसके बनने के बाद से ही साधे लिबास में सीआईडी के लोग यहां आते-जाते रहते थे. “हम आमतौर पर मजाक किया करते कि वे कोठी बाग टाइम्स के पत्रकार हैं,” उन्होंने कुख्यात कोठी बाग पुलिस थाने से जुड़ा एक मजाक किया.

लेखक और पत्रकार गौहर गिलानी ने कहा कि सीआईडी की बारहमासी मौजूदगी के बावजूद संघर्ष और पुलिस हिंसा के बीच फंसे कश्मीरी पत्रकारों के लिए प्रेस क्लब बहुत महत्वपूर्ण था और मोदी सरकार द्वारा कश्मीर के नागरिक समाज पर बंदिश लगाने के बाद तो और जरूरी हो गया. गौहर ने कहा, "दिन दहाड़े प्रेस क्लब में कब्जा मीडिया की स्वतंत्रता और कश्मीर में इकट्ठा होने के लोगों के अधिकार पर बड़ा हमला है. यह 300 से ज्यादा पत्रकारों को बेघर करने के समान है. इसके अलावा, इस संस्थागत कब्जे का उद्देश्य कश्मीर की कहानी को कलर्कों और सरकार समर्थक लेखकों के जरिए मनमुताबिक रचना है. "

कश्मीर प्रेस क्लब पर कब्जा और उसे बंद करना जम्मू-कश्मीर प्रशासन द्वारा प्रेस की स्वतंत्रता के खिलाफ खुला हमला है. धारा 370 को निरस्त करने के बाद क्षेत्र की पुलिस ने पत्रकारों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई शुरू कर दी है. पुलिस ने कम से कम बारह के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज किए हैं. इनमें दमनकारी आतंकवाद विरोधी कानून भी शामिल हैं. सीआईडी और पुलिस ने 180 से अधिक पत्रकारों को पूछताछ के लिए बुलाया है. सरकार के दबाव में समाचार संगठनों ने कई ऐसे पत्रकारों को काम से निकाल दिया है जो सत्तारूढ़ शासन पर आलोचनात्मक रिपोर्ट करना जारी रखे हुए थे. चिंताजनक रूप से समाचार संगठनों ने भी अपनी आर्काइव से ऐसी रिपोर्टों को साफ करना शुरू कर दिया है जो सरकार को नाराज कर सकती हैं. अपनी रिपोर्टिंग के दौरान मैंने 25 से ज्यादा पत्रकारों और घाटी के एक दर्जन से अधिक पुलिस अधिकारियों से बात की.

एक प्रमुख उर्दू दैनिक अखबार के प्रधान संपादक ने नाम न छापने की शर्त पर मुझे बताया कि 1 सितंबर 2021 की शाम उनके दफ्तर में अफरा तफरी का आलम था. टीम अगली सुबह के संस्करण को अंतिम रूप दे रही थी जब खबर आई कि तहरीक-ए-हुर्रियत के संस्थापक और कश्मीर के सबसे वरिष्ठ अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी की मौत हो गई है. इस बात पर तुरंत बहस छिड़ गई कि समाचार को अखबार के पहले पन्ने पर जगह दी जाए या अंदर के पन्नों में. कश्मीर के सबसे प्रभावशाली व्यक्ति का जाना पहले पन्ने की पहली खबर होनी चाहिए थी लेकिन गिलानी का ऐसा कवरेज सेना, जम्मू और कश्मीर के लेफ्टिनेंट गवर्नर और दूर दिल्ली तक को नाराज कर देता.

कुछ मिनट बाद प्रधान संपादक का फोन बजा. फोन के दूसरी तरफ उपराज्यपाल के वरिष्ठ मीडिया सलाहकार यतीश यादव थे. यादव का कॉल आना कभी अच्छा संकेत नहीं माना जाता. मैंने जिन वरिष्ठ संपादकों से बात की उनमें से लगभग सभी की राय इस बात पर यही थी. यादव ने प्रधान संपादक को "कानून-व्यवस्था की स्थिति बिगड़ने" से रोकने के लिए "गिलानी की मौत को ज्यादा प्रचार या कवरेज न देने" का हुक्म दिया. मीडिया सलाहकार ने चेतावनी दी कि खबरों की कवरेज से स्थिति बिगड़ी तो ''आप के लिए मुश्किल होगी.”

प्रधान संपादक को अपनी टीम को यही हुक्म बजाना पड़ा. उन्होंने माना कि दूसरे अखबारों को भी इसी तरह के फोन आते होंगे. प्रधान संपादक खुद उदास लग रहे थे. उन्होंने मुझसे कहा, "गिलानी की मौत की खबर जम्मू-कश्मीर के लोगों के लिए एक झटका थी. और कश्मीर के मौजूदा हालात के मद्देनजर हम उनकी मौत को उतना कवरेज नहीं दे सके जितने के वह हकदार थे."

उस रात जब पत्रकारों ने गिलानी की मौत की कवरेज करने की सोची तो भी वे गिलानी घर तक नहीं जा सके क्योंकि प्रशासन ने शहर भर में सख्त प्रतिबंध लगा दिए थे. पुलिस ने आधी रात को आनन-फानन में गिलानी को दफना दिया. उनके परिवार तक को अंतिम संस्कार में शामिल नहीं होने दिया गया.

गिलानी को पहले पन्ने पर जगह दे पाने में नाकाम रहने के बावजूद प्रधान संपादक ने मुझसे कहा, “मुझे यकीन था कि यहां के स्थानीय लोग थोक में अखबार खरीदेंगे. छपाई का काम पूरा हो चुका था और अगले दिन अखबार स्टैंड पर पहुंचने के लिए तैयार थे.” लेकिन श्रीनगर से सैन्य हवाई अड्डे तक जाने वाले मार्ग पर बसे रंगरेट में, जहां कई दैनिक अखबारों की छपाई करने वाले तीन प्रेस थे, पुलिस और अर्धसैनिक बल, केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल ने पूरे इलाके में नाकाबंदी कर बैरिकेड्स लगा दिए थे. 25 अलग-अलग स्थानीय समाचार पत्रों को ले जा रही गाड़ी के ड्राइवर को अर्धसैनिक बल के जवानों ने रोका और कहा कि आज कोई भी अखबार नहीं बंटेगा.

श्रीनगर के सबसे बड़े अखबार वितरकों में से एक ने मुझे बताया, "हम लैम्बर्ट लेन मंडी में अखबारों के आने का इंतजार कर रहे थे लेकिन राइजिंग कश्मीर जैसे कुछ ही अखबार पहुंचे." यह वितरक आम तौर पर 43 अलग-अलग अखबार रखते हैं लेकिन “उस दिन ज्यादातर अखबार छपे ही नहीं थे.'' यहां तक कि जिनके पास अपना प्रिंटिंग प्रेस था, वह भी अपना अंक निकालने से पीछे हट गए. राइजिंग कश्मीर को छोड़कर जो कोई भी बड़ा अखबार मंडी पहुंचा, उसमें गिलानी की मौत की खबर नहीं छपी थी. राइजिंग कश्मीर के पहले पन्ने पर एक कॉलम में यह खबर छपी थी.

उन्होंने कहा कि मैंने उस दिन तय किया कि जिनके पास कोई दूसरा अखबार आता है उन्हें राइजिंग कश्मीर की एक प्रति मुफ्त बांटूंगा. “2016 से मैं दक्षिण कश्मीर के दूर-दराज के इलाकों में अपने एजेंटों और ग्राहकों को व्यक्तिगत रूप से अखबार बांटा करता था,” उन्होंने कहा. "लेकिन इस बार, हमें श्रीनगर शहर से बाहर निकलने की इजाजत नहीं थी."

कश्मीर ऑब्जर्वर के प्रधान संपादक सज्जाद हैदर ने मुझे बताया कि “गिलानी की मौत पर हमने जो रिपोर्ट की वह कुलमिलाकर उनके करियर और विचारधारा के बारे में दी थी. हमने उनकी जिंदगी और उनके बारे में यहां के लोगों के नजरिए को जानने की कोशिश की. हमने जानने की कोशिश की कि लोगों की नजरों में वह क्या थे.” हैदर के लिए इस खबर को न छापने का तो कोई सवाल ही नहीं था. "उनकी मौत की खबर को न फैलाना और इसे सिर्फ खबर बतौर खारिज कर देना कि किसी की मौत हो गई है, बेईमानी होगी." उन्होंने कहा, “हमने दोनों बातों पर सोचकर इस पर काम करने की कोशिश की. अगर वे असाधारण शख्सीयत न होते, तो उन्हें अंधेरी रात में दफनाया न जाता."

जिस रात सैयद अली शाह गिलानी की मौत हुई , उस रात अर्धसैनिक बल के जवानों ने सड़क को जाम कर दिया . पुलिस ने कश्मीर के सबसे वरिष्ठ आजादी-समर्थक नेता गिलानी को आधी रात आनन-फानन में दफना दिया और अखबारों पर उनकी मौत की खबर न देने का दबाव डाला. शाहिद तांत्रे

कश्मीर ऑब्जर्वर रंगरेट में भी छपता है. अगले दिन इसकी एक भी कॉपी नहीं बंटी थी. हैदर ने कहा, "हमें पता चला कि पुलिस प्रेस में आई थी, लेकिन हमें यकीन नहीं था कि वे अखबारों का बंटना ही बंद करा देंगे.जब अखबार नहीं बंटा हमें तब जाकर इसका पता चला. तब तक हम कुछ नहीं कर पाए, देर हो चुकी थी. अखबार बांटने से रोकने के कोई औपचारिक आदेश नहीं थे. वे हमारे पैसे बचाने के लिए हमें छपाई से रोक सकते थे. हमने जो प्रतियां छापी हैं, उसका तो हमें भुगतान करना ही होगा.”

हैदर ने इस तरफ इशारा भी किया कि जब भी पुलिस ने प्रेस के कामकाज में दखल दिया है पुलिस दोमुंही जुबान बोलती है. "जब पुलिस ने गिलानी के शव को बाहर निकाला, तो उन्होंने कहा कि वे 'दफ्न का इंतजाम' कर रहे हैं," उन्होंने कहा. "इसी तरह, उन्होंने कहा कि प्रतिबंध लगे थे और इसलिए वे रंगरेट में प्रेस में गश्त कर रहे थे . वह इसे नियमित गश्त बताते हैं, इसे छापेमारी नहीं कहते.”

हैदर ने कहा कि उन्होंने अधिकारियों और पुलिस से जवाब मांगने की कोशिश की कि उन्हें अखबार बांटने की इजाजत क्यों नहीं है लेकिन उन्हें कोई जवाब नहीं मिला. जब मैंने उनसे पूछा कि क्या वह किसी पत्रकार संगठन के साथ इस मुद्दे को उठा सकते हैं, तो उन्होंने हाथ खड़े कर दिए. उन्होंने कहा, “कश्मीर के हालात बहुत लाचार हैं, हम इस मुद्दे को किसी के सामने नहीं उठा सकते. यहां तो नफ्सा नफ्सी (अफरा तफरी) का आलम है जनाब, जब आपके वक्त के हुकुमरान और तुर्रम खान खामोश बैठे हैं तो सहाफी (पत्रकार) की क्या हैसियत है?”

गिलानी की मौत के बाद पुराने शहर के कुछ हिस्सों में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए. पुलिस ने अपनी पुरानी रणनीति के साथ जवाबी कार्रवाई की. छर्रे और आंसू गैस के गोले दागे. हमेशा की तरह फोटो जर्नलिस्टों ने विरोध प्रदर्शनों को कवर किया, लेकिन अगले दिन उनकी कोई भी तस्वीर अखबार में नहीं छपी. उर्दू डेली के प्रधान संपादक ने मुझे बताया कि मीडिया सलाहकार यादव ने उन्हें किसी घायल पैलेट पीड़ित की तस्वीरें नहीं लिए जाने का आदेश दिया था. "आप जिक्र तो कर सकते हैं कि पैलेट से चोट लगी है या विरोध प्रदर्शन हुआ लेकिन आप फोटो मत छापो," उन्होंने कहा. उन्होंने कहा, "डर और सरकारी प्रतिशोध के कारण, हमें नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के राजनीतिक बयानों को सेंसर करना पड़ा है. हमें ध्यान से देखना होता है और निगरानी करनी होती है कि बयान सरकार के खिलाफ तो नहीं जा रहा है. हुर्रियत के बयान छापने का तो कोई सवाल ही नहीं है क्योंकि वह ज्यादातर वक्त जम्मू-कश्मीर में भारतीय शासन और उनकी नीतियों के खिलाफ बोलती है.

गिलानी की मौत के बाद भी हुर्रियत की खबरों को सेंसर करने का सिलसिला जारी है. कश्मीर इमेजेज के प्रधान संपादक बशीर मंजर ने मुझे बताया कि उनका अखबार कश्मीर में रिपोर्टिंग के मानक से समझौता या किसी बड़ी घटना की अनदेखी नहीं कर रहा है. जब मैंने पूछा कि क्या उन्होंने हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के नए अध्यक्ष के रूप में मसरत आलम की नियुक्ति को कवर किया, तो उन्होंने कहा, "हमने खबर को मारा नहीं, यह हमसे छूट गई." घाटी के किसी भी प्रमुख दैनिक अखबार में यह खबर नहीं थी. ज्यादातर जिन भी संपादकों ने आन रिकॉर्ड मुझसे बात की, सभी की भाषा एक जैसी कूटनीतिक थी.

''कश्मीर में स्थिति अभूतपूर्व है और तीस साल से अधिक के अपने करियर में मैंने इस तरह की अजीब स्थिति कभी नहीं देखी. शासन द्वारा लगाए जा रहे मीडिया गैग के खिलाफ कोई जवाबदेही नहीं है और कोई भी मीडिया के सामने आने वाली समस्याओं को नहीं सुन रहा है." उन्होंने कहा कि क्या प्रिंट में जाएगा और क्या नहीं, इसका फैसला करना तलवार की धार पर चलने की तरह लगता है. "कश्मीर में पत्रकारिता को संतुलित करना कभी आसान नहीं था, लेकिन अब हमें लेफ्टिनेंट गवर्नर की खबरों या अन्य विकास समाचारों को पहले पेज पर जगह देने के लिए मजबूर किया जा रहा है."

प्रधान संपादक ने कहा कि लेफ्टिनेंट गवर्नर के दफ्तर, पुलिस और सीआईडी से कॉल आना बहुत आम हो गया है. उन्होंने कहा, "प्रशासन ने हमें विरोध और पथराव जैसी हिंसा संबंधी गतिविधियों को कोई जगह नहीं देने का निर्देश दिया है." कश्मीर की आधी खबरें न्यूजरूम तक पहुंचने से पहले ही मर जाती हैं.

श्रीनगर के एक अंग्रेजी दैनिक के संपादक ने मुझे बताया कि उन्हें भी इसी तरह के आदेश मिले हैं. उन्होंने कहा, "हमें स्पष्ट रूप से यह भी आदेश दिया गया है कि नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी जैसे मुख्यधारा के राजनीतिक दलों का कोई भी आलोचनात्मक बयान अखबार में प्रकाशित नहीं किया जाएगा. हमें उन राजनीतिक दलों के बयान नहीं लेने के लिए कहा गया है जो एलजी सिन्हा, अनुच्छेद 370 या मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार की नीतियों के खिलाफ हैं." विरोधों और पुलिस प्रतिशोध पर रिपोर्ट करने में असमर्थ या यहां तक कि राज्य के राजनीतिक दलों को उद्धृत करने में असमर्थ, अखबारों को अपने पहले पन्नों को बड़े पैमाने पर उपराज्यपाल मनोज सिन्हा द्वारा शुरू की गई विकास परियोजनाओं के बारे में बेहूदा खबरों के साथ कवर करने के लिए मजबूर किया गया है.

संपादक ने मुझे बताया कि सिन्हा को अपने हर काम को "ऐतिहासिक" बताकर प्रेस नोट भेजने की आदत है. इसके चलते उनको यहां "मन्ना इतिहास" पुकारा जाता है. (कश्मीरी नाम को छोटा कर पहले सिलेबलों का उच्चारण करते हैं.) संपादक ने आगे कहा, "आजकल, हमें मन्ना इतिहास को प्रमुख स्थान देना होता है. अखबार जिंदगी और मौत की लड़ाई लड़ रहे हैं और मालिकों को लगता है कि उनका कारोबार सिन्हा को कवरेज देने से ही टिकेगा. साथ ही प्रशासन को लगता है कि वह कश्मीर में पत्रकारिता को कुचलकर यहां की कहानी बदल देंगे.'' सिन्हा और उनके मीडिया सलाहकार, यतीश यादव ने उन्हें ईमेल से भेजे गए विस्तृत सवालों का जवाब नहीं दिया.

मंजर ने मुझे बताया कि सिन्हा का आत्मप्रचार कश्मीर में पिछली सरकार के मुखियाओं से बहुत अलग नहीं है. "पहले की सरकारें भी मनोज सिन्हा की तरह फ्रंट पेज पर छपा करती थीं" उन्होंने कहा. मंजर के अनुसार नया सिर्फ यह है कि कश्मीर की स्थानीय खबरें पूरी तरह से पाठकों की पहुंच से बाहर होती जा रही हैं. "मैं कहूंगा कि 5 अगस्त के फैसले (अनुच्छेद 370 को खत्म करने) की पहली क्षति स्थानीय मीडिया था. मीडिया को जनता और सत्ता में बैठे लोगों के बीच एक पुल माना जाता है. लेकिन सभी संचार चैनलों के बंद हो जाने के बाद कश्मीर का मीडिया रिपोर्ट करने में लाचार हो गया. पहले तीन महीनों तक हम अपने पत्रकारों से संपर्क नहीं कर सके. मैं टेलीविजन पर खबर देख रहा था और यह बहुत बेतुका लगा. मुझे न्यूयॉर्क जैसी दूर-दराज की जगहों पर होने वाली घटनाओं के बारे में पता चल जाता था लेकिन मैं यह नहीं जान सकता था कि मेरे दफ्तर से बमुश्किल 60 किलोमीटर दूर सोपोर में क्या हो रहा है.”

गिलानी की मौत के बाद श्रीनगर के पुराने इलाके में भारी विरोध प्रदर्शन हुआ. जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने मौखिक रूप से अखबरों को पैलेट गन से घायल हुए प्रदर्शनकारियों की तस्वीरें न छापने का आदेश दिया. शाहिद तांत्रे

घाटी में राजनीतिक नेताओं ​की चुप्पी के आलम ने कुछ भी महत्वपूर्ण घटने पर बयान जारी करने या टिप्पणी देने की उनकी संभावना कम कर दी है. हैदर ने कश्मीर के निर्वाचित नेतृत्व के बारे में शिकायती लहजे में कहा, “मुद्दों पर बोलने के लिए कोई सामने नहीं आ रहा है. यहां तक कि बड़े दलों के नेता भी चुप हैं. जब आप हमारे अखबार पढ़ते हैं, तो ऐसा लगता है कि केवल सरकारी गतिविधियां हो रही हैं और दूसरा पक्ष चुप है. हम उन नेताओं की बात छापने के लिए रेडी हैं लेकिन वे कुछ बोलें तो सही. आखिर में हमारे लिए राज्यपाल के प्रशासन और मशीनरी की गतिविधियों का कवर करना ही रह जाता है.” 

हैदर ने मुझे बताया कि इससे कश्मीर के नागरिकों का बड़ा नुकसान हो रहा है क्योंकि कश्मीर के ज्यादातर वरिष्ठ नौकरशाह और पुलिस नेतृत्व बाहरी हैं. वे स्थानीय समस्याओं को राजनीतिक पार्टियों के नेताओं की तरह नहीं समझ सकते. स्थानीय नौकरशाह जो राजनीति, भावनानात्मक, समस्याओं और स्थानीय लोगों के मुद्दों को समझने के लिए पर्याप्त अनुभवी और वरिष्ठ थे, उन्हें पदों से हटा दिया गया है. उन्हें यह समझना चाहिए कि यहां के लोग भारतीय झंडा खुद अपनी मर्जी से उठाएं, न कि उन्हें इसके लिए मजबूर किया जाए."

हैदर की यह बात सही लगती है. उदाहरण के लिए पुलिस ने अनुच्छेद 370 को निरस्त होने के बाद व्यापक फेरबदल किए हैं. बदलाव के बाद पुलिस में घाटी के बाहर के उन अधिकारियों को ठेल दिया गया है जो कश्मीर की राजनीतिक और सामाजिक बारीकियों को समझना तो दूर की बात, मुश्किल से स्थानीय भाषा बोलते हैं. कश्मीरी मूल के कई वरिष्ठ अधिकारी, जो आतंकवाद विरोधी अभियानों का नेतृत्व करने के लिए ख्यात थे, उन्हें दरकिनार कर दिया गया है. राजस्व विभाग में भी कमोबेश यही व्यवस्था नजर आ रही है. सिन्हा के दफ्तर के कई वरिष्ठ अधिकारी बाहरी हैं.

इन हालातों में पत्रकारों पर और अधिक आक्रामक कार्रवाई शुरू हो गई है. धारा 370 के निरस्त होने के बाद पुलिस मामले, अवैध निगरानी, पत्रकारों के घरों पर छापेमारी और यहां तक कि हिरासत में हिंसा भी सामान्य स्थिति बन गई है. 8 सितंबर 2020 की सुबह चार पत्रकारों के घरों पर एक साथ पुलिस ने छापेमारी की. इन लोगों में उर्दू दैनिक कश्मीर उजमा ऑनलाइन संपादक शाह अब्बास और प्रमुख अखबारों और पत्रिकाओं के संपादक रह चुके शौकत मोट्टा शामिल हैं. कश्मीर रीडर के पूर्व संपादक हिलाल मीर और पहले पीटीआई और दि ट्रिब्यून के साथ काम कर चुके अजहरी कादरी को भी हिरासत में लिया गया. पुलिस ने उनके फोन और लैपटॉप जब्त कर लिए. जब्त की गई सामग्री में कादरी का पुराना रोजगार अनुबंध और इंडियन एक्सप्रेस में काम करने के चलते मिला इंटर्नशिप प्रमाणपत्र भी शामिल है. जिन पत्रकारों के यहां छापेमारी हुई उनमें से एक ने मुझे बताया कि जब्त किए गए फोन अभी भी वापस नहीं किए गए हैं. तीन दिन बाद उन्हें कोठी बाग पुलिस स्टेशन में बुलाया गया और बताया गया कि उनकी जांच गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के तहत दर्ज एक मामले में की जा रही है. छापे के बाद पुलिस द्वारा प्रसारित एक प्रेस नोट में कहा गया है, "जांच के दौरान विश्वसनीय सबूत पाए गए जो निम्नलिखित व्यक्तियों को उस मास्टरमाइंड से जोड़ते हैं जो ब्लॉग [email protected] के पीछे है." यह एक आजादी-समर्थक ब्लॉग था जिसे अक्टूबर 2021 में जम्मू-कश्मीर पुलिस द्वारा वर्ड प्रेस को लिखे गए एक पत्र के बाद बंद कर दिया गया था. प्रेस नोट में कहा गया है कि चार पत्रकारों के फोन पर "पाकिस्तान, तुर्की, सऊदी के विभिन्न नंबर पाए गए हैं", जो नियमित रूप से विदेशी प्रकाशनों के लिए लिखते थे. नोट आखिर में कहता है, "ठोस सबूत इकट्ठा करने के बाद उन्हें मामले में गिरफ्तार किया जाएगा." अभी तक कोई सबूत सार्वजनिक नहीं किया गया है.

पत्रकारों के खिलाफ आतंकवाद विरोधी कानूनों का इस्तेमाल कश्मीर में खतरनाक रूप में होता है. 5 सितंबर 2017 को स्वतंत्र फोटो पत्रकार कामरान युसुफ को भारत की शीर्ष आतंकवाद-निरोध कार्य-बल राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने बिना किसी आरोप के हिरासत में ले लिया. यूसुफ पर देशद्रोह, आपराधिक साजिश और भारत के खिलाफ युद्ध छेड़ने का आरोप लगाया गया. 2018 में यूएपीए के तहत गिरफ्तार कश्मीरी पत्रकार आसिफ सुल्तान 1000 से ज्यादा दिनों से जेल में हैं. इस साल 5 जनवरी को दि कश्मीरवाला की 23 वर्षीय ट्रेनी रिपोर्टर सज्जाद गुल को पब्लिक सेफ्टी एक्ट के तहत गिरफ्तार किया गया. 2016 से पुलिस ने मीडियाकर्मियों के खिलाफ 49 मामले दर्ज किए हैं, जिनमें आपराधिक धमकी के 17 मामले, जबरन वसूली के 24 मामले और यूएपीए के तहत आठ मामले शामिल हैं.

हालांकि हिरासत में लिए गए पत्रकारों की संख्या सीआईडी और पुलिस द्वारा पूछताछ के लिए पुलिस थानों में बुलाए गए पत्रकारों की संख्या की तुलना में कम है फिर भी एक स्वतंत्र पत्रकार आकाश हसन ने मुझे बताया , "पिछले एक साल में मुझे सीआईडी अधिकारियों ने कम से कम तीन बार फोन किया है." हसन ने कहा कि उनसे उनकी आय के स्रोत, उनके परिवार और क्या उनका किसी उग्रवादी से संबंध था, के बारे में पूछा गया. "वे आपकी निजी जिंदगी पर हमला कर रहे हैं और इससे एक पत्रकार के रूप में आप असुरक्षित महसूस करते हैं," उन्होंने समझाया. “यह उत्पीड़न है और मुझे इससे असुरक्षा की भावना जागती है. ये चीजें मेरे मानसिक स्वास्थ्य पर भारी पड़ रही हैं और मेरे काम में बाधा डाल रही हैं.”

एलस्ट्रेसन : वर्षा गाविल

जब स्वतंत्र पत्रकार अदनान भट दिल्ली में एक असाइनमेंट में काम कर रहे थे तो उन्हें एक अज्ञात नंबर से फोन आया. यह अगस्त 2021 की बात है. भट ने मुझे बताय, "उस आदमी ने खुद को कश्मीर का कोई सीआईडी अधिकारी बताया और मुझे बताया कि वह कश्मीर में काम कर रहे पत्रकारों के बारे में जानकारी इकट्ठा कर रहा है. मैं किस अखबार के साथ काम करता हूं, मेरी आमदनी कितनी है, मैं कहां रहता हूं और क्या मैं किसी खास विचारधारा का समर्थन करता हूं, और मेरे माता-पिता और बहन की व्यक्तिगत जानकारी भी मांगी गई.” भट ने मुझे बताया कि वह एक असहज करने वाली बातचीत थी.

अगली सुबह, उन्हें उसी अधिकारी का फोन आया. भट ने कहा, "इस बार अधिकारी ने मेरे माता-पिता के घर का विवरण देकर बात शुरू की और मुझसे पुष्टि करने के लिए कहा कि क्या मैं कश्मीर में रहता हूं. उसने मुझसे कहा, 'तुम्हारे घर की छत पर जंग लगी है और इसमें दो दरवाजे हैं.' इससे मैं सकते में आ गया और उसी दिन कश्मीर का टिकट बुक करा लिया. कश्मीरी पत्रकारों के लिए, पुलिस के कॉल आना सामान्य है, लेकिन यह अब सिर्फ मेरे बारे में नहीं था. मैं नहीं चाहता था कि मेरे बूढ़े माता-पिता को किसी भी तरह के उत्पीड़न का सामना करना पड़े, इसलिए मैं अगले हफ्ते घर पर ही रहा, इस उम्मीद में कि अगर कोई वास्तव में आता है, तो मैं व्यक्तिगत रूप से इससे निपटने के लिए वहां मौजूद रहूंगा.

भट ने कहा, “पत्रकार के रूप में हम अपना काम कर रहे हैं. जमीन पर कुछ गलत होने पर हम अधिकारियों को सूचित करने की को​शिश कर रहे हैं. उन्हें संज्ञान लेना चाहिए और इसे हल करने का प्रयास करना चाहिए.… पुलिस मेरे काम के बारे में इंटरनेट पर पता लगा सकती है, मेरा सारा काम वहां उपलब्ध है. लेकिन जब किसी पत्रकार को सीधा फोन किया जाता है, वह भी सीआईडी से, तो ऐसा हमें डराने और दबाव बनाने के लिए किया जाता है. इसका मतलब हमें यह बताना है कि वे हमारे पीछे हैं, कि वे हमेशा हम पर नजर रखे हुए हैं."

भट ने कहा कि अगर पूछताछ का मकसद पुलिस द्वारा उन्हें डराना था तो वह कुछ हद तक कामयाब भी हुई है. "मैं कुछ रिपोर्टों पर काम कर रहा था लेकिन डर आपके दिमाग में रहता है," उन्होंने मुझसे कहा. "मैंने उन रिपोर्टों को फाइल नहीं किया है. मामला अब हमारी अपनी निजी सुरक्षा भर का नहीं है, उन्होंने अब हमारे परिवारों को इसमें शामिल कर लिया है.”

19 अप्रैल 2020 को दि हिंदू के साथ काम करने वाले श्रीनगर के एक पत्रकार आशिक पीरजादा को श्रीनगर के साइबर पुलिस स्टेशन ने एक रिपोर्ट को लेकर बुलाया था. इस रिपोर्ट में शोपियां में विरोध प्रदर्शन के बाद मारे गए एक आतंकवादी के परिवार को शव की पहचान करने और उसे दफनाने की दिक्कतों बारे में बताया था. तीन घंटे की पूछताछ के बाद आशिक को छोड़ दिया गया. हालांकि आशिक ने मुझे बताया कि उसी शाम उन्हें अनंतनाग पुलिस स्टेशन पहुंचने के लिए कहा गया जहां अफवाह फैलाकर दुश्मनी भड़काने के संबंध में भारतीय दंड संहिता की धारा 505 के तहत उनकी रिपोर्ट के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गई थी. अनंतनाग थाने में उससे दो घंटे तक पूछताछ की गई .

जम्मू और कश्मीर पुलिस ने एक बयान में कहा कि रिपोर्ट में आशिक द्वारा उद्धृत विवरण "तथ्यात्मक रूप से गलत थे और जनता के मन में भय पैदा कर सकते थे." बयान में कहा गया है, "यह खबर जिला अधिकारियों की पुष्टि के बिना प्रकाशित की गई थी." लेकिन आशिक ने मुझे एसएमएस और व्हाट्सएप संदेश दिखाए जो उन्होंने डिप्टी कमिश्नर को भेजे थे, जिनमें से किसी का भी जवाब उन्हें नहीं मिला था.

एक अंतरराष्ट्रीय प्रकाशन के साथ काम करने वाले एक वरिष्ठ पत्रकार ने मुझे बताया कि यह एक ऐसी समस्या है जिसका घाटी में पत्रकार सामना कर रहे हैं. उन्होंने कहा, "कश्मीर के अधिकारी हमसे बात नहीं करना चाहते हैं और किसी तरह वे हमसे अपने पक्ष की उम्मीद करते हैं. पत्रकार अपना काम लगन से करते हैं लेकिन जब वे जवाब नहीं देते हैं तो हमें प्रतिक्रिया कैसे मिलेगी? बात नहीं करने का कारण यह है कि तब उन्हें हमें परेशान करने की छूट होगी. वे हमें अवैध बनाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं .”

अन्य लोगों से कहीं अधिक खतरनाक परिस्थितियों में पूछताछ की गई है. श्रीनगर स्थित रिपोर्टर आकिब जावेद को एनआईए की विशेष अदालत ने 17 नवंबर 2021 को तलब किया था. उन्हें एक अखिल महिला कश्मीर संगठन दुख्तारन-ए-मिल्लत या राष्ट्र की बेटियां की संस्थापक अंद्राबी आसिया के खिलाफ गवाही देने के लिए मजबूर किया गया था. जावेद कश्मीर इंक के लिए एक छोटा सा इंटरव्यू करने के लिए अंद्राबी से पहले एक बार मिले थे. उन्होंने घाटी में अन्य राजनीतिक नेताओं के भी इंटरव्यू किए थे. जावेद ने मुझे बताया कि एनआईए ने इस अनुमान के साथ कि वह "अभियोजन के लिए ठोस सबूत दे सकते हैं," उन्हें बिना किसी वकील के दो बार और समन भेजा. एनआईए के जनसंपर्क अधिकारी विजयंत आर्य ने ईमेल किए सवालों का जवाब नहीं दिया.

जब पूछताछ और धमकी किसी पत्रकार को चुप नहीं करा पाती है, खासकर किसी विदेशी प्रकाशन के रिपोर्टरों के मामलों में, तो रिपोर्ट करने वाले पत्रकारों के लिए यात्रा करना मुश्किल बना दिया जाता है. 1 अगस्त 2019 को जर्मन समाचार संगठन डॉयचे वेले के लिए स्वतंत्र रूप से काम करने वाले गौहर गिलानी डीडब्ल्यू के मुख्यालय बॉन शहर जाने के लिए दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर पहुंचे थे. जहाज उड़ने से कुछ समय पहले ही उन्हें बताया गया कि उन्हें विमान पर सवार होने की इजाजत नहीं दी जाएगी. हवाई अड्डे पर आव्रजन अधिकारियों ने उन्हें कोई खास कारण नहीं बताया. दि वायर ने बाद में बताया कि इंटेलिजेंस ब्यूरो के आदेश पर उन्हें रोका गया.

इसके बाद गौहर को लगातार उत्पीड़न का सामना करना पड़ा. 21 अप्रैल 2021 को साइबर पुलिस स्टेशन ने गौहर पर सोशल मीडिया पर कथित रूप से "गैरकानूनी गतिविधियों में लिप्त होने" का मामला दर्ज किया. कहा गया कि ये ऐसी गतिविधियां थीं जो "भारत की राष्ट्रीय अखंडता, संप्रभुता और सुरक्षा के लिए हानिकारक हैं." एक पुलिस प्रवक्ता ने दावा किया कि गौहर "कश्मीर घाटी में आतंकवाद का महिमामंडन कर रहा था." और जैसा कि रोजमर्रा की बात है इस आरोप के समर्थन में कोई सबूत पेश नहीं किया गया. गौहर पर यूएपीए के तहत आरोप लगाया गया, जिसे हाल ही में संशोधित किया गया था ताकि इसका इस्तेमाल न केवल उन संगठनों पर मुकदमा चलाने के लिए किया जा सके जिन्हें सरकार ने गैरकानूनी माना है, बल्कि व्यक्तियों पर भी. 24 घंटे के भीतर जम्मू-कश्मीर पुलिस ने गौहर सहित तीन पत्रकारों पर मामला दर्ज किया था.

एक साल बाद जाहिदी रफीक को भी ऐसी ही स्थिति का सामना करना पड़ा. रफीक ने 2018 में अपना पत्रकारिता करियर छोड़ दिया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में कॉर्नेल विश्वविद्यालय में एक फेलोशिप करने जाने वाले थे. 19 अगस्त 2021 को इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर आव्रजन अधिकारियों ने उन्हें हिरासत में लिया और उन्हें जम्मू-कश्मीर पुलिस को सौंप दिया. उन्हें अगले दिन कश्मीर ले जाया गया और पुलिस की काउंटर इंटेलिजेंस कश्मीर विंग ने श्रीनगर के हुम्हामा के आसपास के एक शिविर में उनसे पूछताछ की. एक नरम दिल पुलिस अधिकारी, जो अपना नाम सामने नहीं लाना चाहता, ने मुझे बताया कि रफीक को एक बॉन्ड पर दस्तखत करने के लिए कहा गया था जिसमें शपथ लेनी थी कि वह राज्य की आलोचना में कुछ भी नहीं लिखेंगे. अधिकारी ने बताया कि रफीक ने इससे इनकार कर दिया था.

सेना के अधिकारियों को सवाल करने वाले पत्रकारों से पूछताछ करने के लिए भी जाना जाता है. नवंबर 2021 में श्रीनगर के एक स्वतंत्र पत्रकार क़ुरतुलैन रहबर ने पुलवामा में किसानों की जमीन को केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल को दिए किए जाने की रिपोर्ट की. जल्द ही सेना ने रहबर और उनके परिवार को फोन करना शुरू कर दिया और उन्हें पुलवामा में सेना के शिविर में आने के लिए कहा. रहबर ने आने से इनकार कर दिया क्योंकि सेना को किसी को पूछताछ के लिए बुलाने का संवैधानिक अधिकार नहीं था. बाद के एक लेख में उन्होंने इस प्रकरण के बाद अपने परिवार को हुए तनाव और अपने मानसिक स्वास्थ्य के बिगड़ने का जिक्र किया.

कश्मीर और लद्दाख के सेना के जनसंपर्क अधिकारी एमरोन मुसावी ने इन मामलों पर मेरे सवालों का जवाब नहीं दिया. पुलिस की खुफिया शाखा के महानिदेशक और कश्मीर में सीआईडी के प्रमुख आरआर स्वैन ने कहा कि उनके पास इन सवालों के जवाब देने की इजाजत नहीं है और इसके बजाय कारवां को जम्मू-कश्मीर के पुलिस महानिदेशक दिलबाग सिंह से संपर्क करना चाहिए. न तो सिंह और न ही कश्मीर रीजन के पुलिस महानिरीक्षक विजय कुमार ने मेरे सवालों का जवाब दिया.

श्रीनगर में घुसते ही शहर के लाल चौक में बने प्रेस एन्क्लेव के गेट पर एक नवनिर्मित पुलिस बंकर है. सितंबर 1995 में पार्सल-बम हमले में मारे गए फोटो पत्रकार मुश्ताक अहमद की याद में पत्रकार इसे मुश्ताक एन्क्लेव के नाम से बुलाना पसंद करते हैं. इसमें एक दर्जन से अधिक अखबारों के दफ्तर और कई पत्रकारों के आवासीय क्वार्टर्स हैं. कुछ साल पहले तक यह चाय पीते रिपोर्ट साझा करते पत्रकारों से गुलजार हुआ करता था लेकिन हाल ही में जब मैं इसके पास से गुजरा तो आसपास केवल पुलिस और अर्धसैनिक बल के जवान ही दिखे. जम्मू-कश्मीर पुलिस की काउंटर-इंटेलिजेंस यूनिट ने दूर स्थित एक इमारत को अपने कब्जे में ले लिया है जो लगभग तीन दशक से कश्मीरी पत्रकार युसूफ जमील का दफ्तर हुआ करता था.

मोहम्मद सईद मलिक शायद आज कश्मीर में अंग्रेजी में लिखने वाले सबसे उम्रदराज पत्रकार हैं. 1960 के दशक में वह कश्मीर के पहले मुसलमान पत्रकारों में से थे. इस पेशे में तब तक कश्मीरी पंडितों के प्रभुत्व था. उन्होंने कहा, "कश्मीर में न तो राजनीति और न ही पत्रकारिता कभी देश के बाकी हिस्सों की तरह आजाद थी. चरण-दर-चरण, युग-दर-युग, शासन-दर-शासन और हालात-दर-हालात, हमने अलग अलग तरह की पाबंदियों का हमने सामना किया है.” उन्होंने मुझे बताया कि 1948 में जब शेख अब्दुल्ला जम्मू और कश्मीर के पहले प्रधानमंत्री बने और कश्मीर ने निरंकुशता से लोकतंत्र की ओर कदम बढ़ाया लेकिन प्रेस ने कोई बड़ा बदलाव नहीं देखा. मलिक ने कहा, "आपको बस सत्ताधारी पार्टी के लिए लिखना होता या फिर भगा दिया जाता. यही नियम था."

उनके मुताबिक, कश्मीर में प्रेस की मौजूदा जुबान गुलाम मोहम्मद बख्शी के कार्यकाल के दौरान तैयार हुई. 1953 में शेख अब्दुल्ला के खिलाफ भारत समर्थित तख्तापलट करने के बाद मोहम्मद जम्मू और कश्मीर के प्रधान मंत्री बने. मलिक ने कहा, "एक परिघटना सामने आई, जहां कुछ स्थानीय पत्रकारों को छोड़कर, जिन्होंने हुक्म और धमकियों की नाफरमानी करते हुए रिपोर्ट करना जारी रखा, प्रेस के ज्यादातर लोगों को दिल्ली जो देखना चाहती थी, वही दिखाने के लिए मजबूर किया जाने लगा. सरकार बाहर से संवाददाताओं को लाती और उन्हें बताती कि कश्मीर स्वर्ग है और चल रही अशांति के बारे में सच्चाई को छिपा देती." उन्होंने कहा कि यह वह क्षण था जब मुख्य भूमि भारत और कश्मीर के बीच एक लोहे का पर्दा डाला गया.

कश्मीर प्रेस क्लब में तख्तापलट पर चर्चा के लिए श्रीनगर में पत्रकारों की बैठक. कश्मीर में पत्रकारों को राज्य की निगरानी, पुलिस जांच और गिरफ्तारी का सामना करना पड़ता है. अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के बाद कई लोगों ने गंभीर तनाव और मानसिक-स्वास्थ्य के मुद्दों की सूचना दी. शाहिद तांत्रे

1980 के दशक के अंत में भारतीय शासन के खिलाफ एक उग्र विद्रोह शुरू हुआ. मलिक ने कहा कि शुरुआत में “भारतीय शासन से कश्मीर की आजादी के लिए लड़ने वाले उग्रवादी समूहों ने स्थानीय मीडिया पर दबाव बनाना शुरू कर दिया. उग्रवादियों ने अखबार के दफ्तरों का दौरा किया और उन्हें बताया कि क्या लिखना है. सरकार भी पीछे नहीं रही. उसके बाद से कश्मीर को हमेशा खबरों से ब्लैक आउट करने की कोशिश की जाती रही है. दोनों पक्षों से आने वाली धमकियों के साथ दोहरे दबाव ने भी मीडिया को पेशेवर बनाने में मदद की. पत्रकारों को केवल तटस्थ भाषा में सावधानी और तीखी रिपोर्टिंग के रास्ते पर चलना पड़ा. मलिक ने कहा कि 11 सितंबर 2001 को संयुक्त राज्य अमेरिका में हुए आतंकवादी हमलों के बाद, दुनिया भर की सरकारें आतंकवाद विरोधी कानूनों का मनमाना इस्तेमाल करने लगीं. इसके पहले शिकार कश्मीरी पत्रकार हुए.

मीडिया शोधकर्ता राशिद मकबूल भट ने मुझे बताया कि जहां गिरफ्तारी और पत्रकारों के खिलाफ मामले सबसे अधिक ध्यान खींचते हैं, वहीं कश्मीर में मीडिया सेंसरशिप अक्सर चुपचाप प्रेस संगठनों द्वारा धन की भूख से संचालित की जाती है. उन्होंने कहा, "कश्मीर एक छोटी सी जगह है और यहां का मीडिया उद्योग वैश्विक हित का क्षेत्र होने के बावजूद बहुत छोटा उद्योग रहा है. हमारे पास अच्छी तरह से विकसित टेलीविजन या ऑनलाइन मीडिया हाउस नहीं है. खबरें बड़े पैमाने पर अकेले प्रिंट में होती हैं और अखबार अपनी आमदनी के प्राथमिक स्रोत बतौर विज्ञापन पर निर्भर करते हैं. विज्ञापनों का सबसे बड़ा जरिया सरकार है. "1990 के दशक से काबू में करने के एक साधन के रूप में इसका इस्तेमाल किया जारा रहा है," भट ने कहा. “विज्ञापन सरकार के सूचना विभाग से मिलते हैं लेकिन कुछ शर्तों के साथ. अगर आप कुछ खास तरह की पत्रकारिता नहीं करते या अगर आप कुछ खास तरह की जुबान का इस्तेमाल नहीं करते हैं, तो ही आप पर कृपा हो पाएगी.”

स्थानीय मीडिया ​को धमकियों और सरकारी मदद ने कैसे प्रभावित किया है इसका एक उदाहरण ग्रेटर कश्मीर का मामला है. 1987 में उग्रवाद के चरम दिनों के दौरान शुरू हुआ यह अखबार कश्मीरी के कुछ आजाद संस्थानों में से एक बन गया. यह किसी कश्मीरी मुस्लिम के मालिकाने वाला पहला अंग्रेजी अखबार था जिसमें स्थानीय कश्मीरी ही रिपोर्ट कर रहे थे. इन सालों में जम्मू क्षेत्र से भी प्रकाशित होने वाला यह अखबार घर-घर में जाना जाने लगा जिसने फेसबुक पर दो मिलियन से ज्यादा लाइक्स बटोरे और वैश्विक दायरे में फैल रहा था.

अपनी बुलंदी के दिनों में ग्रेटर कश्मीर में तीन सौ से ज्यादा कर्मचारी थे. लेकिन सरकारी दबाव- विज्ञापन बंद कर देने और 2019 में एनआईए द्वारा इसके प्रधान संपादक फयाजी कुल्लू और प्रकाशक रशीद मखदूमी के खिलाफ जारी सम्मन- ने इसे गंभीर रूस से प्रभावित किया. फिलहाल इसमें 100 से भी कम कर्मचारी हैं. कई पहले की तुलना में कम वेतन पर हैं. मखदूमी और कुल्लू को जारी हुए सम्मन और छह दिन की पूछताछ की खबर ग्रेटर कश्मीर ने भी नहीं छापी थी. कुल्लू ने जल्द ही कश्मीर के एडिटर्स गिल्ड में अपने पद से इस्तीफा दे दिया और उनके अखबार ने उन खबरों को कम करना शुरू कर दिया जो पहले इसमें चला करती थीं. शाह अब्बास और तीन और लोगों पर छापे के बाद, किसी के लिए भी कोई हैरानी की बात नहीं रह गई थी कि ग्रेटर कश्मीर का उर्दू प्रकाशन कश्मीर उजमा, अपने खिलाफ जांच पूरी होने से पहले ही अखबार बंद कर देने की जल्दी में था. ग्रेटर कश्मीर ने भी यूसुफ की गिरफ्तारी के बाद उसका सारा काम अपनी वेबसाइट से हटा दिया.

इन हालातों में कश्मीर ने अच्छे पत्रकारों की कमी पैदा की है. भट ने कहा, "स्थानीय मीडिया इसी वजह से छोटा है और वह अच्छा पैसा भी नहीं दे सकता. स्थानीय पत्रकार और संपादक गुजारे भर का भी नहीं पाते. यह व्यवहारिक पेशा नहीं है.” उन्होंने कहा कि पत्रकारों के लिए घाटी में गरीबी से बाहर निकलने का एकमात्र तरीका अंतरराष्ट्रीय मीडिया संगठनों और साथ ही मुख्य भूमि भारत के कुछ आजाद पोर्टलों के लिए काम करना रह गया है, जो अच्छी तनख्वाह देते हैं और सरकार के लिए जिन्हें सेंसर करना इतना आसान नहीं है. उन्होंने कहा कि इससे उत्साही पत्रकारों की एक नई पीढ़ी पैदा हुई है, जिसका तेवर राज्य के प्रति आलोचनात्क है. ये वही पत्रकार हैं जिन्हें सरकार फिलहाल कई मामलों, छापों और गिरफ्तारियों में शिकार बना रही है. “अब खौफ को रगों में बैठाया जा रहा है. भयानक निगरानी हो रही है और खौफ ​दिमागों में पसर रहा है,” भट ने कहा. “कश्मीरी मीडिया सदमे की हालत में है. कई रिपोर्टें मर रही हैं. मुझे नहीं लगता कि पिछले 30 सालों में मैंने मीडिया के लिए इससे ज्यादा गंभीर दौर देखा है.”

राइजिंग कश्मीर के संस्थापक संपादक शुजातो बुखारी की तस्वीर के साथ विभिन्न अखबारों का विज्ञापन करती श्रीनगर की एक दीवार. शाहिद तांत्रे

झेलम के किनारे स्थित भारत के सरकारी चैनल दूरदर्शन के सामने जम्मू और कश्मीर का सीआईडी मुख्यालय स्थित है. इसे एक सफेद रंग से रंगा गया है, शायद यह सीआईडी के आधिकारिक तौर पर घाटी में शांति लाने के घोषित उद्देश्य का प्रतीक है, और इसे अक्सर "व्हाइट हाउस" कहा जाता है. अनुच्छेद 370 को खत्म किए जाने के बाद से ही पुलिस को पत्रकारों से पूछताछ करने का आदेश देने वाले कई फोन कॉल आ रहे हैं. एक पत्रकार ने एक बार मुझसे मजाक करते हुए कहा था कि कश्मीर सीआईडी मुख्यालय बनने के बाद से सफेद रंग शांति का न होकर निगरानी का प्रतीक बन गया है.

सीआईडी दफ्तर से सटी एक हैरिटेज भवन की चारदीवारी अब हस्तशिल्प विभाग का एम्पोरियम है. 370 हटाए जाने से पहले यह दीवार रंग-बिरंगे चित्रों से ढकी र​हती थी, जो घाटी की रोजमर्रा की तकलीफों को बयां करती थीं. इसमें कुनान पोशपोरा के बारे में नारे लिखे होते. उत्तर-पश्चिमी कश्मीर के इस गांव में 1991 में भारतीय सेना के जवानों ने सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम के तहत लगभग पूरी कानूनी छूट का फायदा उठाते हुए 23 औरतों के साथ कथित तौर पर सामूहिक बलात्कार किया. इसके आलवा "रिसता कश्मीर" या "आजादी" के नारे भी पढ़े जा सकते थे. इसके अलावा यहां आजादी-समर्थक उग्रवादी संगठन जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के सह-संस्थापक मकबूल भट की एक रंगीन तस्वीर भी हुआ करती थी.

जब मैंने सीआईडी दफ्तर का दौरा किया, तो दीवारों पर से सब हटा-मिटा दिया गया था. यह एक तरह से ठीक भी लग रहा था. सीआईडी दफ्तर से निकलते वक्त एक दर्जन से ज्यादा सीसीटीवी कैमरों की निगाहों के नीचे मैंने कश्मीर के इतिहास को मिटाए जाने के सबूतों को देखा जो कश्मीर की आवाज को सैन्यीकरण से खामोश कर रहे थे. लेकिन एक कोने में, कुछ रह गया था जिसे अभी भी पढ़ सकता था : "तुम हमें मार सकते हैं लेकिन हमारे हौसले को नहीं."

मैं सीआईडी अधिकारियों से बात करने आया था कि वे पत्रकारों पर चल रही कार्रवाई के बारे में क्या सोचते हैं. रिपोर्टिंग के दौरान एक दर्जन अधिकारी मुझसे बात करने के लिए राजी तो हुए लेकिन ऑफ द रिकॉर्ड. उन्होंने मुझे कश्मीरी पत्रकारों के सिर पर लटके निगरानी के जाल के विराट आकार को समझाने में मदद की.

“उनके फोन निगरानी में हैं. जो लोग फोन टैप कर रहे हैं वे सभी बाहरी हैं,” एक वरिष्ठ कश्मीरी पुलिस अधिकारी ने मुझे बताया. “स्थानीय पत्रकारों की गतिविधियों और लिखी गईं रिपोर्टों की निगरानी के लिए एक अलग मीडिया मॉनिटरिंग सेल बनाया गया था. फ्रीलांसर और वे पत्रकार जो अंतरराष्ट्रीय प्रकाशनों के लिए रिपोर्ट करते हैं, वास्तव में हमारे लिए एक समस्या हैं.”

अधिकारी ने कहा कि जो पत्रकार विदेशी पोर्टलों, खासकर तुर्की, पाकिस्तान, मलेशिया और संयुक्त राज्य अमेरिका स्थित समाचार संगठन के लिए लिखते हैं, सीआईडी उनमें खास रुचि दिखाती है और उन पर कड़ी नजर रखी जाती थी. उन्होंने कहा कि वे देश की छवि खराब कर रहे हैं. “अल जजीरा , टीआरटी वर्ल्ड, गार्डियन और इसी तरह के दूसरे अंतर्राष्ट्रीय प्रकाशन जिनके लिए कश्मीरी पत्रकार लिखते हैं, उनके वैश्विक दर्शक-पाठक हैं. सीआईडी विभाग का काम यह तय करना है कि कश्मीरी पत्रकार अलगाववाद, आतंकवाद, मानवाधिकार, कश्मीर समर्थक, अनुच्छेद 370 और रक्षा मुद्दों पर कोई रिपोर्टिंग न करें.

लगभग चालीस साल के एक दूसरे वरिष्ठ अधिकारी ने यह भी कहा कि घाटी के बाहर के अखबारों के लिए लिखने वाले पहली नजर में थे. उन्होंने कहा, “जो लोग उनके लिए और भारत के कुछ अन्य मीडिया घरानों के लिए कश्मीर पर रिपोर्ट करते हैं, वे हमारे रडार पर हैं. यह जांच की एक प्रक्रिया है और हम हर एक पत्रकार पर नजर रखेंगे जो हमारे रडार पर है. पत्रकार की आलोचनात्मक रिपोर्टिंग हमारे काम के लिए एक स्व-निर्मित डोजियर है. सीआईडी विभाग में हर पत्रकार की एक फाइल होती है और लुक आउट सर्कुलर सूची में किसी को भी डाला जा सकता है. "लुक आउट सर्कुलर" संदिग्ध व्यक्ति-व्यक्तियों को देश से बाहर यात्रा करने से रोकता है. अधिकारी ने मुझे बताया कि कश्मीर में कम से कम 200 लोग इस सूची में हैं, जिनमें स्थानीय पत्रकार, वकील, शिक्षाविद, व्यवसायी और प्रतिरोध करने वाले नेताओं के परिवार शामिल हैं.

उन्होंने बार-बार समझाने की कोशिश की कि यह ऑपरेशन राष्ट्र की रक्षा के लिए जरूरी है. उन्होंने कहा, “कश्मीर में आतंकवाद देश का प्रमुख मुद्दा है और इसके बाहरी आयाम भी हैं. देश जिन चुनौतियों का सामना कर रहा है, उनमें कश्मीर मुद्दे का वैश्विक प्रभाव भी है." जब मैंने सुझाव दिया कि सीआईडी की ऐसी कार्रवाई अधिकारों का उल्लंघन करना है, तो उन्होंने मुझसे कहा, “आजादी और मुक्ति जैसी बातें पश्चिमी विचार हैं और वहीं उनका पालन भी होता है. अगर हम उन विचारों पर चलते हैं तो थर्ड-डिग्री का इस्तेमाल नहीं कर पाएंगे जो जांच के दौरान ज्यादातर कथित अपराधियों के साथ कश्मीर में की जाती है.” अपनी उंगलियों पर गिनती करते हुए, अधिकारी ने मुझसे कहा, "आतंकवादी तीन तरह के होते हैं- एक जो हथियार रखते हैं, सफेदपोश आतंकवादी जो व्यापारिक समुदाय से हैं, और पत्रकार और अकादमिक जो इसके लिए तर्क बनाते हैं." उन्होंने यह कहकर अपनी बात खत्म की कि "देश दलील सुनने के लिए तैयार नहीं है.”

इनकी तरह मैंने जिन कई अन्य कश्मीरी अधिकारियों से बात की, वे अनुच्छेद 370 के खत्म होने के बाद से कटु हो गए थे. जबकि नए शासन ने उन्हें अपने साथी नागरिकों के साथ व्यवहार करने की लगभग खुली छूट दी है, वे इस बात से चिंतित थे कि यह कैसे हुआ कि घाटी के बाहर से पुलिस नेतृत्व अचानक आ पड़ा. सीआईडी में भी यही सच था, जहां दस सबसे वरिष्ठ अधिकारियों में से सात बाहरी थे. ऐसा लग रहा था कि आतंकवाद विरोधी अभियानों सहित कश्मीरी अधिकारियों ने जितने सालों की सेवा की थी, उसका कोई खास महत्व नहीं था. दिल्ली के शासकों के लिए और श्रीनगर के शासकों के लिए भी ऐसा लगता है कि आपकी पैदाइश मायने रखती है, चाहे आपने कितनी भी सेवा की हो.

कश्मीरी लचीलेपन के प्रतीक चिनार के पेड़ के नीचे बैठे एक अधिकारी ने मुझे कश्मीर में पत्रकारों के डेटाबेस के बारे में बताया. उन्होंने कहा, उन्होंने पहले ही 180 से ज्यादा पत्रकारों का ब्योरा दर्ज कर लिया है और इसी के चलते हाल ही में पत्रकारों को पूछताछ के लिए बुलाया गया था. उन्होंने कहा, "पत्रकारों से जो सवाल पूछे जा रहे हैं उनमें आवासीय मकान, वाहन और परिवार की संपत्ति के बारे में विवरण शामिल हैं. इन सवालों के अलावा, हम उनकी राजनीतिक निष्ठा, पाकिस्तान में रहने वाले दोस्तों और रिश्तेदारों के बारे में पूछते हैं. पत्रकारों को अपने सोशल मीडिया अकाउटों, आय के स्रोतों और बैंक क्रेडेंशियल्स की जानकारी देने के लिए भी कहा गया है.” एक तीसरे पुलिस अधिकारी ने मुझे बताया कि, अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद से लगभग 180 पत्रकारों को इसी तरह की पूछताछ के लिए बुलाया गया है.

एक चौथे अधिकारी ने मुझे एक पत्रकार की पूछताछ के बाद सीआईडी द्वारा भरी जाने वाली प्रश्नावली की एक प्रति दिखाई. यह न केवल पत्रकार के बारे में बल्कि उनके माता-पिता, भाई-बहन, बच्चों और जीवनसाथी के बारे में भी पूछती है. नीचे एक विशेष खंड उनके करीबी दोस्तों और अगर सेना या पुलिस में उनके परिवार से कोई रहा हो तो उसका विवरण मांगा जाता है और "अपना एक संक्षिप्त इतिहास" लिखने को कहा जाता है. एक अधिकारी ने कहा कि मीडिया मॉनिटरिंग सेल "कश्मीरी खबरों की टोन सेट करने के काबिल है.”

श्रीनगर में अपराध जांच विभाग का मुख्यालय जिसे स्थानीय रूप से "व्हाइट हाउस" कहा जाता है. हाल ही में सीआईडी को मुखर कश्मीरी पत्रकारों के खिलाफ प्रशासन के सबसे कुशल उपकरण में बदल दिया गया है. शाहिद तांत्रे

अधिकारी ने कहा कि प्रश्नावली के साथ ही उनके काम में कश्मीर के सभी जिलों से दर्ज की गई रिपोर्टों का विश्लेषण करना भी शामिल है. उन्होंने यह भी दावा किया कि अगर उन्हें लगता है कि कोई रिपोर्ट उनके हितों के खिलाफ जा रही है, चाहे वह स्थानीय या राष्ट्रीय मीडिया में हो, तो रिपोर्ट को हटाने के लिए केवल एक फोन कॉल की जरूरत होती है. उन्होंने कहा, "अगर हमें लगता है कि कोई खबर राज्य के खिलाफ है," तो हम उच्च अधिकारियों को ऐसे पत्रकारों को फोन की सलाह देते हैं ताकि हम उसे अपना यह संदेश दे सकें कि इसके क्या नतीजे हो सकते हैं.

जब मैंने उनसे पूछा कि निगरानी करने के लिए उन्हें किस चीज ने प्रेरित किया, तो उन्होंने कहा, "हम उनकी निगरानी कर रहे हैं क्योंकि हमारा मानना है कि उनका एक खास वैचारिक झुकाव है. वे पत्रकारिता की आड़ में अपनी राजनीति का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं. नैरेटिव की लड़ाई में हम उन्हें उनकी जगह दिखा रहे हैं.” उन्होंने मुझे बताया कि प्रशासन स्थानीय मीडिया के स्टाइल शीट पर भी नजर रखता है, उनके द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले शब्दों की सावधानीपूर्वक जांच करता है. "उदाहरण के लिए, निरस्त करने से पहले वे सभी 'लड़ाके' शब्द का इस्तेमाल करते थे. अब हमने उन्हें साफतौर पर 'आतंकवादी' शब्द का इस्तेमाल करने के लिए कहा है."

छह साल से भी ज्यादा समय तक राइजिंग कश्मीर के लिए काम करने वाले एक पत्रकार ने मुझे बताया कि संघर्ष क्षेत्र में "आतंकवादी" शब्द का इस्तेमाल करना अक्सर आसान नहीं होता है. "कश्मीर में, हमें दो बंदूकें घेरे हैं," उन्होंने कहा. “एक सरकारी बलों के हाथ में है और दूसरी हथियारबंद लड़ाकों के. 1990 के दशक की शुरुआत में कश्मीर में बड़े पैमाने पर विद्रोह शुरू होने पर 'आतंकवादी' शब्द का इस्तेमाल किया जाने लगा था. उस वक्त दोनों तरफ से दबाव था, एक पक्ष मुजाहिद बताए जाने की बात कह रहा था और दूसरा पक्ष उन्हें आतंकवादी कहलाने के लिए कह रहा था. उन्होंने कहा कि कश्मीर में अखबारों से आम राय से "लड़ाका," एक तटस्थ शब्द चुना. हम पिछले तीस साल से इस शब्द को लिख रहे थे और दोनों पक्ष इससे राजी थे. अब प्रशासन हमें आतंकवादी लिखने के लिए मजबूर कर रहा है."

राइजिंग कश्मीर के संस्थापक संपादक शुजातो बुखारी, जिनकी 2018 में अज्ञात हमलावरों ने दिनदहाड़े हत्या कर दी थी, का जिक्र करते हुए अखबार के पूर्व कर्मचारी ने कहा कि पत्रकार हमेशा खतरे में थे. "हमारी जिंदगी की कोई गारंटी नहीं है," उन्होंने मुझसे कहा. “नई शब्दावली हमें खतरे में डाल रही है और यह शब्द यहां के कई लोगों की आकांक्षाओं के खिलाफ भी है. जैसा कि वे कहते हैं, एक आदमी के लिए आतंकवादी दूसरे आदमी के लिए आजादी का परवाना है, और हमें उस शब्द का इस्तेमाल करने के लिए सामाजिक बहिष्कार का भी सामना करना पड़ेगा. पत्रकारों के रूप में, हमें संतुलन बनाने की जरूरत है. हम कहानी के दूसरे पहलू को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते."

हालांकि, इस तरह के नामकरण में बदलाव ने जम्मू-कश्मीर प्रशासन को उन पत्रकारों को संस्थान से बाहर निकालने में मदद की है जो लीक पर नहीं चलते हैं. 15 जुलाई को राइजिंग कश्मीर के पहले पन्ने के संपादक सज्जाद क्राल्यारी ने "आरके लेआउट एंड एडिटर" शीर्षक वाले दफ्तर के व्हाट्सएप ग्रुप में लिखा, "@अजमेर सिंह मैं संस्थान के लिए समस्याग्रस्त नहीं होना चाहता, हमें आतंकवादी लिखने के लिए मजबूर किया गया ... मैं संस्थान के हित बारे में सोचते हुए सौहार्दपूर्ण नोट पर इस्तीफा दे रहा हूं ... शुक्रिया." अजमेर सिंह एक पूर्व सेना अधिकारी और राइजिंग कश्मीर के सलाहकार संपादक हैं. संदेश पोस्ट करने के बाद, क्राल्यारी ने ग्रुप भी छोड़ दिया. अगले दिन राइजिंग कश्मीर के प्रबंधन ने एक बैठक आयोजित की और क्राल्यारी को न छोड़ने के लिए राजी करा गया. दो हफ्ते बाद, "नई शब्दावली नीति" का पालन नहीं करने के लिए क्राल्यारी और स्टाफ के दो और लोगों को संस्थान से निकाल दिया गया.

बाकियों ने भी मुझे बताया कि कैसे उन्हें इसी तरह के नाजुक मसले पर निकाल दिया गया था. कश्मीर में अखबार जगत असंगठित है. पत्रकारों को अक्सर औपचारिक ज्वाइनिंग लेटर नहीं मिलते हैं और उन्हें रिलीविंग लेटर मिलने की संभावना भी कम ही होती है. उन्हें मौखिक रूप से भर्ती किया जाता है और मौखिक रूप से इस आधार पर निकाल दिया जाता है कि अधिकारियों ने उनके संस्थानों के संपादकों को जो अबूझ आदेश दिए हैं उनका कितनी मुस्तैदी से पालन करते हैं.

संपादकीय नीति में हाल के बदलावों और उन बदलावों को स्वीकार नहीं करने वाले पत्रकारों के शिकार के मामले में राइजिंग कश्मीर अब सबसे खराब अपराधियों में से एक है. 2021 में संगठन ने सात पत्रकारों को बर्खास्त कर दिया जिनमें से कइयों ने मुझे बताया क्योंकि उन्होंने अखबार की संपादकीय नीति में बदलाव को स्वीकार नहीं किया.

अगस्त 2021 में राइजिंग कश्मीर के ऑनलाइन संपादक के रूप में काम कर रहे इरफान अमीन मलिक ने जम्मू-कश्मीर के लिए नई फिल्म नीति की आलोचना करते हुए एक ट्वीट लिखा, जिसके अनुसार फिल्म निर्माताओं को शूटिंग के लिए मंजूरी लेने के लिए सरकार को अपनी स्क्रिप्ट दिखानी होगी. ट्वीट के अंजाम से परेशान होकर उन्होंने दो मिनट बाद ही उसे हटा दिया. इसके तुरंत बाद, उन्हें दक्षिणी कश्मीर के त्राल शहर के स्थानीय पुलिस स्टेशन में बुलाया गया, जहां उनसे पांच घंटे तक पूछताछ की गई. उसी दिन राइजिंग कश्मीर ने मलिक को ​नौकरी से निकालने का फैसला किया.

राइजिंग कश्मीर के राजनीतिक पेज को प्रबंधित करने वाले उप-संपादक मोहम्मद रफी को 7 फरवरी 2021 की आधी रात को निकाल दिया गया था. रफी ने मुझे बताया, "हमारे न्यूज रूम में कई मौकों पर गरमागरम बहस हुई थी. मालिक, अयाज हाफिज गनी और परामर्श संपादक अजमेर सिंह चाहते थे कि स्थानीय मुख्यधारा की राजनीति, एनसी और पीडीपी को अखबार से मिटा दिया जाए. राइजिंग कश्मीर एक स्थानीय अखबार है और यह जरूरी है कि स्थानीय राजनीति अखबार में आए. लेकिन, इसके बजाय, मुझे दिल्ली बीजेपी के प्रवक्ताओं के बयान लेने के लिए कहा गया.” गनी जनवरी 2020 में विदेशी राजनयिकों से मिलने वाले मीडियाकर्मियों के प्रतिनिधिमंडल का भी हिस्सा थे.

रफी को निकाल दिए जाने से चार दिन पहले केंद्रीय गृह राज्य मंत्री जी किशन रेड्डी ने संसद को बताया था कि अनुच्छेद 370 को खत्म करने के बाद से, “अलगाववादियों, उनके ओपन कार्यकर्ताओं, पथराव करने वालों आदि सहित 613 लोगों को विभिन्न स्थानों से अलग-अलग मौकों पर हिरासत में लिया गया है.” रेड्डी ने कहा कि हिरासत में लिए गए लोगों में से अब तक 430 लोगों को रिहा किया जा चुका है. उन्होंने यह भी दावा किया कि "जम्मू और कश्मीर सरकार ने बताया है कि कोई भी व्यक्ति जम्मू और कश्मीर के केंद्र शासित प्रदेश में नजरबंद नहीं है." 4 फरवरी को हुर्रियत नेता मीरवाइज फारूक ने रेड्डी के बयान को भ्रामक बताया. मीरवाइज ने कहा कि अगस्त 2019 से एक पुलिस की गाड़ी उनके घर के बाहर स्थायी रूप से तैनात रहती है और “मुझे बाहर निकलने से रोक दिया गया है. यह कदम हाउस अरेस्ट नहीं तो और क्या है? अगर मुझे नजरबंद नहीं किया गया है, तो मुझे अपने घर से बाहर क्यों नहीं आने दिया जा रहा?” राइजिंग कश्मीर के 4 फरवरी के संस्करण ने रेड्डी के बयान को दूसरे पृष्ठ पर मुख्य रिपोर्ट के रूप में प्रकाशित किया, जिसमें मीरवाइज के बयान का उल्लेख नहीं था. रफी ने मुझे बताया कि उन्होंने मीरवाइज के बयान के साथ अंतिम रूप से दूसरा पेज बनाया था लेकिन बाद में उसे हटाने के लिए कहा गया था. उन्होने इनकार कर दिया.

रफी ने कहा कि 7 फरवरी की रात को 'मुझसे महबूबा मुफ्ती और उमर अब्दुल्ला के बयान को हटाने और दिल्ली बीजेपी प्रवक्ता के बयान को आगे रखने को कहा गया. मैं नहीं माना और वे जिद करने लगे. मैं झुका नहीं और आखिरकार उन्होंने पन्ना बदल दिया. मुझे बाद में एक एसएमएस मिला कि मुझे नौकरी से निकाल दिया गया है.

राइजिंग कश्मीर के पूर्व कर्मचारी, जिन्होंने छह साल तक अखबार में काम किया था, ने मुझे बताया कि पिछले कुछ सालों में यह अखबार बदल गया है. "मैं 2018 से राइजिंग कश्मीर से जुड़ा था," उन्होंने कहा. "लड़ाका" के बजाए "आतंकवादी" शब्द का इस्तेमाल करने के अलावा, उन्होंने कहा, "दूसरे बदलाव भी किए हैं - जैसे हमें पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर की जगह पाकिस्तान के कब्जे वाला कश्मीर करना पड़ा. यह कर्मचारियों ठीक नहीं लगा और हमने संपादक और मालिक से कहा कि अगर हम इसे लिखते हैं तो इससे हमारी जिंदगी को खतरा हो सकता है. हमारे यह कहने के बाद प्रबंधन और संपादकीय टीम में कड़वाहट आ गई और पंद्रह या बीस दिन बाद चार लोगों को बिना किसी सेवा अवधि या किसी अग्रिम वेतन के अखबार से निकाल दिया गया.” पूर्व कर्मचारी ने कहा कि अखबार ने इसका एक ही कारण बताया कि पत्रकारों की विचारधारा अखबार की नीति से फिट नहीं बैठती.

पूर्व कर्मचारी ने कहा कि अधिकारियों के हुक्म पर काम कर रहे संपादक कवरेज में जो बदलाव चाहते हैं उसका कोई अंत नहीं है. उन्होंने मुझे बताया, "हमें सोशल मीडिया के इस्तेमाल के बारे में मौखिक चेतावनी दी गई थी कि हमें ऐसा कुछ भी नहीं डालना चाहिए जो संपादकीय लाइन के अनुकूल न हो. अगर कोई बदलाव होता तो सरकार केवल मौखिक आदेशों का उपयोग करती है ताकि कुछ भी रिकॉर्ड में न जाए. कागजों पर जो कुछ भी होता है वह एक एक जगह इकट्ठा होगा और देर-सबेर यह सामने आएगा ही और इसलिए वे सुनिश्चित करते हैं कि कोई निशान या सबूत न रहे. हमें बस इतना ही कहा गया था, 'आदेश ऊपर से आए हैं,' और हमसे बिना किसी सवाल के इसे मानने की उम्मीद की गई थी."

"उन्होंने हमें झुकने के लिए कहा और हम रेंगने लगे," उन्होंने मुझसे कहा. “कश्मीर के अखबारों में यही हो रहा है, वे रेंगने लगे और अब खुद अपनी कब्र खोद रहे हैं.”

जहां एक ओर संपादकीय बदलावों को फुसफुसाते हुए और मौखिक आदेशों के रूप में पहुंचाया जाता है, वहीं जम्मू-कश्मीर सरकार की मीडिया नीति अपारदर्शी ही है. 15 मई 2020 को जम्मू और कश्मीर सूचना और जनसंपर्क निदेशालय ने 53-पेज की मीडिया नीति जारी की, जिसमें यह बताया गया कि कश्मीर में पत्रकारिता से क्या उम्मीद की जाती है. यह नीति सरकार की "उपलब्धियों" के साथ-साथ सोशल मीडिया सहित विभिन्न प्लेटफार्मों को बाढ़ने की योजना का विवरण देती है, समाचार संगठनों को न केवल सरकार की "विकास" उपलब्धियों को फोकस बनाने के लिए मजबूर करती है, बल्कि बड़े पैमाने पर उनके कवरेज को केवल उसी तक सीमित कर देती है.

2021 की गर्मियों में श्रीनगर के बाहर सरकारी सुरक्षा बलों और अलगाववादी लड़कों के बीच हथियारबंद संघर्ष को कवर कर रहे पत्रकार. राज्य की हिंसा और उग्रवाद के बीच फंस कर इस क्षेत्र के कई पत्रकार मारे गए हैं. शाहिद तांत्रे

इस मीडिया नीति में उन तरीकों पर भी चर्चा की गई है जिनसे प्रशासन मीडिया संगठनों को घुटनों पर ला सकता है. दस्तावेज में कहा गया है, "किसी भी ऐसी मीडिया को विज्ञापन जारी नहीं किए जाएंगे जो हिंसा भड़काए या भड़काने का इरादा रखती हो, भारत की संप्रभुता और अखंडता पर सवाल उठाती हो या सार्वजनिक शालीनता और व्यवहार के स्वीकृत मानदंडों का उल्लंघन करती हो." इसके अलावा, यह सुझाव देती है कि अगर मीडिया "दिशानिर्देशों" का पालन नहीं करती है, तो डीआईपीआर "उल्लंघन करने वालों" को निलंबित करने के लिए एक आंतरिक तंत्र स्थापित कर सकता है. हालांकि विभाग के प्रशासनिक सचिव और गृह विभाग के अतिरिक्त सचिव की अध्यक्षता वाली समीक्षा समिति में अपील की जा सकती है, विज्ञापनों और पैनलिंग का अंतिम अधिकार डीआईपीआर के पास होगा.

नीति आगे पारंपरिक प्रिंट मीडिया से आगे बढ़ कर ऑनलाइन मीडिया आउटलेट्स और टेलीविजन और रेडियो स्टेशनों पर नजर रखने का प्रस्ताव करती है और आगे के लिए विज्ञापन बजट का कम से कम 40 प्रतिशत इसके लिए तय करती है. ऑनलाइन समाचार प्लेटफॉर्म और सोशल मीडिया को "खास ध्यान देने योग्य क्षेत्रों" के रूप में बताया गया है और नीति के "प्रमुख घटकों" में "सूचना के प्रसार और गलत सूचना की निगरानी के लिए डीआईपीआर द्वारा एक सोशल मीडिया सेल का निर्माण करना शामिल है." कश्मीर में कोई बड़ा टेलीविजन या रेडियो चैनल नहीं है और ऐसे प्रिंट मीडिया का विज्ञापन कम करना, जहां अधिकांश कश्मीरी पत्रकार काम करते हैं, प्रेस पर नकेल कसने की कोशिश लगती है.

मीडिया नीति प्रशासन को यह भी तय करने देती है कि किसे बतौर पत्रकार कानूनी संरक्षण मिल सकता है और किसे नहीं. इसमें कहा गया है कि डीआईपीआर कश्मीर में पत्रकारों की मान्यता को मंजूरी देने में "प्रासंगिक अधिकारियों" को शामिल करेगा. "इसी तरह, मान्यता को अंतिम रूप देते समय संबंधित अधिकारियों की सहायता से हर पत्रकार के पहले के काम सहित पूरी पृष्ठभूमि की गंभीर जांच की जाएगी."

मैंने जिन कई पत्रकारों से बात की, उन्होंने कहा कि उन्हें डर है कि इस प्रक्रिया का मतलब है कि अगर उनके लिखे से डीआईपीआर को लगे कि यह प्रशासन की आलोचना है तो उनकी प्रेस आईडी चली जाएगी. उत्पीड़न के पिछले मामलों में, जैसे कि यूसुफ के खिलाफ यूएपीए का मामला रहा, कानून को लागू करने वाले अधिकारियों ने जो पहला कदम उठाया वह था किसी व्यक्ति के पत्रकार होने पर ही सवाल उठा देना.

मीडिया नीति भी स्पष्ट रूप से उन पत्रकारों को चुप कराने के लिए आपराधिक जांच के उपयोग की रूपरेखा तैयार करती है जिन्हें प्रशासन "फर्जी खबर" फैलाने वाला बता रहा है. नीति में कहा गया है, "फर्जी समाचार, अनैतिक या राष्ट्र विरोधी गतिविधियों या साहित्यिक चोरी में लिप्त किसी भी व्यक्ति या समूह को कानून के तहत कार्रवाई के अलावा, पैनल से भी हटा दिया जाएगा." ऐसे मामलों में यह भारतीय दंड संहिता और साइबर कानूनों के तहत पत्रकारों के खिलाफ मुकदमा चलाने की भी बात करती है. हालांकि, नीति यह तय करने के लिए किसी प्रक्रिया का ​ब्योरा नहीं देती है कि फर्जी समाचार क्या है? मैंने जिन पत्रकारों से बात की उन्हें डराने-धमकाने सहित, नीति के ही शब्दों में "सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काने के लिए मीडिया का उपयोग करने के प्रयास ... और भारत की संप्रभुता और अखंडता के लिए हानिकारक किसी भी खबर का प्रचार करने" से ज्यादा खबरनाक आंशका थी. जम्मू और कश्मीर डीआईपीआर ने ईमेल किए गए सवालों का जवाब नहीं दिया.

प्रेस की स्वतंत्रता के लिए काम कर रहे एक अंतरराष्ट्रीय संगठन रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स ने नीति की आलोचना करते हुए इसे "ऑरवेलियन" कहा है. यह कहता है कि मीडिया नीति "प्रेस की स्वतंत्रता के लिए एक गंभीर खतरा" है और कश्मीर में सभी प्रकार के असंतोष को नियंत्रित करने के लिए अधिकारियों को बेलगाम शक्तियां देती है. कश्मीर में मीडिया सेंसरशिप पर व्यापक रूप से रिपोर्ट करने वाले एक स्वतंत्र पत्रकार रायन नकश ने जांच की है कि कैसे मीडिया नीति के लागू होने ने दिल्ली द्वारा संचालित प्रशासन को कश्मीर के प्रिंट मीडिया पर हावी कर दिया है, खबरों को सरकारी जनसंपर्क सामग्री में बदल दिया है. उन्होंने न्यूजलॉन्ड्री में लिखा, "ऐसा लगता है कि ख्याल यह था कि सरकारी पहलों के ब्योरों से अखबार के पन्ने भरकर लोगों के असंतोष को शांत किया जाए.”

नकश ने मुझसे कहा, "नीति का यह मार्गदर्शक सिद्धांत मानता है कि जनता शासन की प्रक्रिया को समझना नहीं चाहती या समझ नहीं पा रही है. पत्रकारों से प्रचार करने की अपेक्षा की जाती है और जनता से अपेक्षा की जाती है कि वह बिना सवाल किए सरकारी दावों को माने.”

चालीस वर्षीय उस​ अधिकारी ने मुझे बताया कि राज्य की कानून-प्रवर्तन एजेंसियों के नेतृत्व की तरह नैरेटिव भी मुख्य भूमि भारत से आयात किया जाएगा. "राज्य किसी विचारधारा को नहीं मानता और अपनी बनावट में राज्य नैतिकता में विश्वास नहीं करता है," उन्होंने कहा. "कश्मीर में हमारे पास विवेकानंद फाउंडेशन जैसे थिंक-टैंक हैं, जहां हम बुद्धिजीवियों और अन्य पत्रकारों की सेवाएं लेते हैं." श्रीनगर की सड़कों पर "नया कश्मीर" आया हो या नहीं, जैसा कि मोदी ने अनुच्छेद 370 को खत्म करने के बाद एक भाषण में घोषणा की थी, कश्मीर के अखबारों में आ गया है.

अनुच्छेद 370 खत्म होने के बाद के महीने में राइजिंग कश्मीर के एक पूर्व प्रिंसीपल रिपोर्टर जुनैद काट्जू ने वेबसाइट में अपनी पहले की रिपोर्ट खोजनी चाही. उन्हें हैरानी हुई जब अखबार की वेबसाइट पर उन्हें वह नहीं मिली. उन्होंने दूसरी रिपोर्टें खोजनी चाहीं जो उन्होंने सालों से अखबार के लिए की थी लेकिन उन्हें कोई नहीं मिली. पूछे जाने पर राइजिंग कश्मीर के एक वरिष्ठ कर्मचारी ने उन्हें बताया कि अखबार वेबसाइट अपग्रेड कर रहा है और रिपोर्टों को अपलोड किया जाना बाकी है. "उन्होंने कहा कि इसमें कुछ समय लगेगा और मुझे उनकी बात पर भरोसा था," काट्जू ने मुझे बताया. उनकी रिपार्ट फिर कभी सामने नहीं आईं.

काट्जू ने कहा, "हमें बाद में ही एहसास हुआ कि यह सरकार के खिलाफ या ऐसी किसी भी चीज को मिटाने की योजना थी जो अधिकारियों को खराब रोशनी में दिखाती है. एक रिपोर्टर के लिए, बाईलाइन मायने रखती है. अगर मुझे कहीं नौकरी के लिए आवेदन करना है, तो मुझे अपने काम दिखाना होगा. अब मैं क्या दिखाऊँगा?”

काट्जू अकेले नहीं हैं. ऐसा लगता है कि राइजिंग कश्मीर के संस्थापक संपादक स्वर्गीय शुजातो बुखारी की कई रिपोर्टें भी वेबसाइट से गायब हो गई हैं. स्थापना के बाद से राइजिंग कश्मीर ने सैकड़ों पत्रकार तैयार किए और तेजी से इस क्षेत्र में सबसे अधिक पढ़े जाने वाले अखबारों में से एक बना गया. कई पत्रकार जिन्हें बुखारी ने सिखाया वे अब प्रमुख राष्ट्रीय अखबारों और पत्रिकाओं के लिए काम करते हैं या अंतरराष्ट्रीय संगठनों के लिए लिखते हैं. उनके काम का एक संग्रह फ्रंटलाइन नाम से एक किताब में प्रकाशित हुआ था. इसका कोई भी लेख अब अखबार की वेबसाइट पर उपलब्ध नहीं है.

श्रीनगर के बाहरी इलाके रंगरेट की एक प्रेस में एक अखबार की छपाई. इस इलाके के अखबार बड़े पैमाने पर केवल उपराज्यपाल मनोज सिन्हा की प्रेस विज्ञप्ति और बीजपी प्रवक्ताओं के बयान को कवर करने लगे हैं. कई पत्रकारों ने शिकायत की कि उन्हें नेशनल कॉन्फ्रेंस या पीडीपी के बयानों औप क्षेत्र में हुई हिंसक झड़पों को कवर करने की इजाजत नहीं है. शाहिद तांत्रे

ऐसा नहीं है कि सिर्फ राइजिंग कश्मीर ही अपना आर्काइव मिटा रहा है. घाटी के सबसे अधिक प्रसारित अखबार ग्रेटर कश्मीर के एक पूर्व दक्षिण-कश्मीर संवाददाता इरफान अमीन मलिक का सारा पिछला लेखन भी वेबसाइट ठीक होते होते खो गया. उन्होंने मुझे बताया, "जब मुझे ग्रेटर कश्मीर की वेबसाइट पर मेरी रिपोर्टें नहीं मिलीं, तो मैं हैरान और गुस्से में था. यह दर्दनाक है कि मेरा सालों का काम सिर्फ इसलिए मौजूद नहीं है क्योंकि ग्रेटर कश्मीर प्रबंधन झुक गया. मुझे हैरानी होती है कि डेटाबेस से काम को हटाने से पहले उन्होंने संबंधित पत्रकार से इजाजत क्यों नहीं ली. मैंने कई सारी रिपोर्टें की थीं, और वे मेरी संपत्ति थीं. मैंने उन्हें कड़ी मेहनत और संघर्ष से जमा किया है. अभी के लिए तो मैं अपना काम एक स्टोरेज डिवाइस में वापस पाने की कोशिश करूंगा ताकि कल मेरे पास ऑफलाइन आर्काइव उपलब्ध हो." मलिक के कुछ पूर्व सहयोगियों ने भी अपना काम गायब पाया. उन्होंने कहा, "शायद सरकार ने ग्रेटर कश्मीर पर पहले से प्रकाशित उन सभी रिपोर्टों को हटाने के लिए दबाव डाला हो, जो सरकार को पसंद नहीं है."

ग्रेटर कश्मीर और राइजिंग कश्मीर सहित तीन प्रमुख समाचार पत्रों के साथ काम कर चुके एक अन्य पत्रकार ने कहा कि उनका सारा काम तीनों अखबारों की वेबसाइटों से हटा दिया गया है. नाम न छापने की शर्त पर रिपोर्टर ने कहा, "यह जानबूझकर किया गया है. उन्हें अधिकारियों ने मौखिक रूप से ऐसा करने को कहा है या इसे हटाने का कोई साफ आदेश है या नहीं यह स्पष्ट नहीं है. खैर, केवल मालिक या प्रबंधक ही जानते हैं कि हमारा काम कैसे और क्यों मिटाया गया.” रिपोर्टर ने कहा कि उनका काम अनुच्छेद 370 खत्म करने तक उपलब्ध था लेकिन उन्होंने देखा कि कुछ ही समय बाद यह गायब हो गया. लेखक और पत्रकार गौहर ने मुझे बताया, "यह स्पष्ट है कि यह शासन व्यक्तिगत और सामूहिक यादों को मिटाने, इतिहास को विकृत करने और एक नए इतिहास का निर्माण करने के मिशन पर है जो ऐसा हो कि कश्मीर में उनकी सभ्यता और वैचारिक परियोजना के लिए उपयुक्त हो."

ग्रेटर कश्मीर ने अपने इस बारे में पूछे गए सवालों का जवाब नहीं दिया. राइजिंग कश्मीर के कर्मचारियों की बर्खास्तगी और उनकी रिपोर्टों के गायब होने के बारे में पूछे गए सवालों के जवाब में अखबार के प्रधान संपादक हाफिज अयाज गनी ने लिखा, “सबसे पहले तो हम आपके इन सवालों का मकसद ही नहीं समझ पा रहे हैं. हम आपको अखबार के आंतरिक मामलों का खुलासा करने के लिए बाध्य नहीं हैं. हम इस बातचीत में भाग नहीं लेना चाहते हैं.”

जम्मू-कश्मीर प्रशासन द्वारा क्षेत्र के इतिहास को मिटाने और उसके मीडिया में हेराफेरी का शायद सबसे अच्छा उदाहरण 22 अक्टूबर 2020 को सामने आया. लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज सिन्हा "22 अक्टूबर 1947 की यादों पर राष्ट्रीय संगोष्ठी और प्रदर्शनी" का उद्घाटन कर रहे थे. सिन्हा ने अपने ट्विटर हैंडल पर प्रदर्शनी की जो तस्वीरें डालीं वे उस दिन (22 अक्टूबर 1947) के अखबारों में छपी थीं. हिंदुस्तान टाइम्स के पहले पर "भारत में विलय हुआ कश्मीर" शीर्षक के साथ सिन्हा की खिलखिलाती तस्वीर लगी थी. हिंदुस्तान टाइम्स के उसी पेज पर एक दूसरी खबर का शीर्षक था "राजा के निर्णय पर शीघ्र ही जनमत संग्रह." लेकिन प्रदर्शनी में लगाई गई इस तस्वीर से दूसरी खबर को ब्लर कर दिया गया था.