रिपोर्टिंग का अंत

आउटलुक के पतन की दास्तान

विनोद मेहता के बाद आउटलुक में चार प्रधान संपादक रहे हैं : कृष्णा प्रसाद, राजेश रामचंद्रन, रूबेन बनर्जी और अब चिंकी सिन्हा. इलस्ट्रैशन : अनन्या गुप्ता
विनोद मेहता के बाद आउटलुक में चार प्रधान संपादक रहे हैं : कृष्णा प्रसाद, राजेश रामचंद्रन, रूबेन बनर्जी और अब चिंकी सिन्हा. इलस्ट्रैशन : अनन्या गुप्ता

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21 जनवरी, 2024 को, आउटलुक पत्रिका ने 'पोएट्री ऐज़ एविडेंस' शीर्षक से एक अंक प्रकाशित किया. यह चिंकी सिन्हा के लिए एकदम मुफ़ीद अंक था. दो साल पहले उन्होंने पत्रिका की कमान संभाली थी. इस अंक को एक तरह की साहित्यिक असहमति के स्वर के रूप में पेश किया गया था, जो सिन्हा की एडिटरशिप में पत्रिका के सांस्कृतिक मोड़ का उदाहरण था. ‘आउटलुक का यह अंक अभिव्यक्ति को ख़तारनाक स्तर तक दबाए जाने का जवाब है,’ सिन्हा ने अंक के बारे में अपनी बात कही. आउटलुक को पढ़ने वालों के लिए पत्रिका का यह रुझान खटकने वाला था क्योंकि इस पत्रिका की पहचान और प्रतिष्ठा कठोर जांच-पड़ताल वाली पत्रकारिता से थी.

फ़िल्मकार अमर कंवर उस साहित्यिक अंक के अतिथि संपादक थे. प्रतिरोध की कविता और गीतों पर उन्होंने एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म ए नाइट ऑफ़ प्रोफेसी बनाई थी. आउटलुक के इस अंक में मराठी कवि वामनदादा की एक कविता का अंश भी छपा था:

खेतों में बहता हमारा पसीना,

चोर चुरा कर भागता, जो उसका है नहीं

इन लुटेरों के भागने का रास्ता कहां है?

कानून हमेशा खूंटी पर लटका सूखता रहा है

संपत्ति बढ़ी है किसकी, मेरी या उनकी

अब करो फ़ैसला, न्याय का तराज़ू लाओ

लेकिन उसका कांटा कहां है?

राजनीतिक रूप से कविता की सबसे तीखी शुरूआती लाइन गायब थीं : 'बताओ बिड़ला, बाटा, टाटा कहां है? बताओ अपनी संपत्ति के ढेर में हमारा हिस्सा कहां है?'

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