दैनिक भास्कर प्रकरण : अदना सी बहादुरी पर सरकार ने दबोचा

कोविड-19 की मौतों पर सरकार के झूठ को उजागर करने के लिए दैनिक भास्कर की खूब तारीफ हुई थी लेकिन इसके बाद इसे सरकारी छापे मारी का भी सामना करना पड़ा है.

भारत में कोविड-19 की दूसरी लहर के कहर के बीच दैनिक भास्कर समूह के गुजराती समाचार पत्र दिव्य भास्कर ने एक चौंका देने वाली खबर की. 14 मई को प्रकाशित उसकी रिपोर्ट के अनुसार, “गुजरात में 1 मार्च से 10 मई के बीच 1.23 लाख मृत्यु प्रमाण पत्र जारी किए गए जबकि पिछले साल इसी दौरान ऐसे 58000 प्रमाणपत्र जारी किए गए थे.” यानी गुजरात सरकार ने पिछले साल के मुकाबले इस बार 65000 मृत्यु प्रमाण पत्र अधिक जारी किए थे. हालांकि सरकारी आंकड़े बताते रहे कि “केवल 4218 रोगियों की मौत कोविड-19 से हुई है.” इस रिपोर्ट ने महामारी को लेकर सरकार का कुप्रबंधन और जिस तरह से इसे ढंकने की कोशिशें चल रही थीं, वह सब सामने ला दिया.

17 जून को अमेरिकी समाचार पत्र न्यूयॉर्क टाइम्स ने दैनिक भास्कर के राष्ट्रीय संपादक ओम गौड़ की एक रिपोर्ट छापी जिसका शीर्षक था : "दि गंगा इज रिटर्निंग द डेड. इट डजनॉट लाई”. गौड़ ने इसमें महामारी को कवर करने के लिए उनकी टीम द्वारा अपनाए गए तरीकों के बारे विस्तार से बताया कि कैसे उत्तर प्रदेश में तीस पत्रकारों को नदी के किनारे होने वाली हलचल को जानने के लिए भेजा गया था. उन्होंने लिखा, "हम इस त्रासदी के बारे में शायद कभी नहीं पता लगा पाते लेकिन मई की शुरूआत में हुई बारिश ने ऐसा कर दिया. बारिश के कारण बढ़े गंगा के जल स्तर ने लाशों को नदी की सतह और किनारे पर लाकर फेंक दिया. साथ ही बारिश ने ग्रामीण स्वास्थ्य ढांचे को मजबूत करने, पर्याप्त टीकों की आपूर्ति के वादे और खराब व्यवस्था की जिम्मेदारी लेने में सरकार की भारी विफलता को भी उजागर किया.” अगले महीने दैनिक भास्कर ने अपने कवरेज को बढ़ा कर राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात में भी इसी तरह की रिपोर्टिंग की और महामारी के कहर में विभिन्न राज्य सरकारों की विफलताओं को प्रकाशित किया.

भास्कर द्वारा कोविड​​​​-19 के कारण हुई मौतों पर इन रिपोर्टों की मीडिया में खूब सराहना हुई. लेकिन 22 जुलाई को आयकर विभाग ने दैनिक भास्कर समूह के मुंबई, दिल्ली, भोपाल, इंदौर, जयपुर, कोरबा, नोएडा और अहमदाबाद के आवासीय परिसर और व्यावसायिक कार्यालयों पर यह आरोप लगाते हुए छापा मारा कि समूह ने "पिछले छह वर्षों में 700 करोड़ रुपए के करों की चोरी की है, समूह 2200 करोड़ रुपए के चक्रीय ट्रेडिंग में लिप्त है, इसने शेयर बाजार के नियमों का उल्लंघन किया और फर्जी खर्च और फंड छिपाने के लिए कंपनियों की स्थापना की है.” कई लोगों ने छापेमारी को नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से अपनी नीतियों की आलोचना करने वाली मीडिया को दबाने के एक और उदाहरण के रूप में देखा. मोदी सरकार के राज में मीडिया समूहों पर छापेमारी, पुलिस शिकायतें, मानहानि के मामले और अन्य प्रकार की धमकियां आम बात हो गई हैं. 2014 के बाद से कारवां, द वायर, न्यूजक्लिक और एनडीटीवी सहित कई मीडिया घरानों को सरकार की पसंद से इतर मुद्दों की रिपोर्टिंग के लिए सरकारी कोपभाजन बनना पड़ा है.

स्वतंत्र मीडिया घरानों और पत्रकारों के प्रति सरकार की जानी-पहचानी दुश्मनी को देखते हुए उपरोक्त मीडिया समूहों के खिलाफ इस तरह डराने-धमकाने की घटनाएं उतनी हैरान नहीं करती जितनी कि दैनिक भास्कर समूह पर हुई छापेमारी करती है क्योंकि भास्कर समूह उस संस्थानों में से एक है जिन्हें “मिलाकर चलने वाला” कहा जा सकता है. कोविड-19 मौतों पर इसकी रिपोर्टिंग वास्तव में महत्वपूर्ण और कड़वी सच्चाई सामने लाने वाली हैं. लेकिन महामारी से जुड़े अन्य पहलुओं पर इस समूह ने केंद्र सरकार की इच्छा के अनुसार ही काम किया. उदाहरण के लिए पहली लहर के दौरान तबलीगी जमात पर इसकी रिपोर्ट स्पष्ट रूप से इस्लामोफोबिक थी. भास्कर के रांची संस्करण ने सफाई कर्मचारियों पर मुसलमानों द्वारा थूकने की एक असत्यापित रिपोर्ट प्रकाशित की थी. बताया गया सफाई अधिकारी राजेश गुप्ता को कॉलोनी बिना सैनिटाइज किए छोड़नी पड़ी. लेकिन कारवां के साथ एक साक्षात्कार में गुप्ता ने दैनिक भास्कर के रिपोर्टर के साथ किसी भी तरह की बातचीत होने से भी इनकार किया. इसी तरह अनुच्छेद 370 को निरस्त करने और अयोध्या फैसले के मुद्दों पर भी समूह के अखबारों ने हिंदू-राष्ट्रवादी रुख अपनाया. लेकिन इन छापों ने समूह को सत्ता-विरोधी होने का तमगा पहना दिया. समूह ने एक बयान में कहा, "कोरोना की दूसरी लहर के दौरान सरकार की विफलता को उजागर करने के लिए सरकार ने दैनिक भास्कर पर छापा मारा है. चाहे गंगा में तैरते शवों की बात हो या कोरोना से हुई मौतों के आंकड़ो की सच्चाई, भास्कर ने निष्पक्ष पत्रकारिता की है और लोगों को सच्चाई दिखाई है." दूसरी ओर सरकार ने दावा किया कि पूरे मामले में उसकी कोई भूमिका नहीं थी. सूचना और प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने कहा, "एजेंसियां ​​अपना काम कर रही हैं और उनके काम में कोई हस्तक्षेप नहीं किया गया है."

दैनिक भास्कर समूह उन मीडिया घरानों में से एक रहा है जो सत्ताधारी पार्टियों और उनके करीबी कारपोरेट घरानों के आर्थिक और राजनीतिक वरदहस्त से फूले-फले हैं. कई अनुमानों के अनुसार दैनिक भास्कर कारपोरेट लिमिटेड अब 6000 करोड़ से अधिक की कंपनी है जो मीडिया, रियल एस्टेट, कपड़ा और बिजली जैसे क्षेत्रों में फैली हुई है. छापेमारी के बाद मीडिया में आई खबरों ने आयकर विभाग के इस दावे को हवा दी कि समूह के पास सौ से अधिक कंपनियां हैं. समूह द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार इसके समाचार पत्र दैनिक भास्कर के 11 राज्यों में 45 संस्करण निकलते हैं, 2 राज्यों में दिव्य भास्कर के 9 संस्करण और 1 राज्य में दिव्य मराठी के 6 संस्करण मौजूद हैं. 2019 में दायर सूचना के अधिकार से पता चलता है कि 2014-15 और 2018-19 के बीच मोदी सरकार ने हिंदी अखबारों में विज्ञापन पर 890 करोड़ रुपए और इसी अवधि में अंग्रेजी अखबारों में 790 करोड़ रुपए खर्च किए. सरकारी विज्ञापनों से हिंदी अखबार दैनिक भास्कर को 56.62 करोड़ और दैनिक जागरण को 100 करोड़ रुपए से अधिक प्राप्त हुए थे. वित्तीय वर्ष 2021-22 की दूसरी तिमाही में जब अन्य मीडिया घरानों को महामारी से उपजे आर्थिक संकट के कारण संघर्ष करना पड़ रहा है तब भास्कर की विज्ञापन से होने वाली आमदनी 302.9 करोड़ रुपए रही जो पिछले वर्ष इसी अवधि में 226.3 करोड़ रुपए थी. इसी तिमाही में इसका बिक्री राजस्व 115.9 करोड़ रुपए था. इसने अपने महामारी से पहले हुई बिक्री का 90 प्रतिशत से अधिक भी बहाल कर लिया था.

मास मीडिया और जन मीडिया के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया ने मुझे बताया, "दैनिक भास्कर अन्य अखबारों से अलग नहीं है. इसके भी अपने सामाजिक और राजनीतिक हित हैं." उनके अनुसार मीडिया के स्वामित्व से जुड़ी पेचीदगियां एक बड़ा कारण है जिससे सरकार के लिए दैनिक भास्कर जैसे समाचार पत्रों पर दबाव बनाना आसान हो जाता है. उन्होंने कहा, "अन्य उद्योगों को चलाने के लिए एक समाचार पत्र प्रकाशित करना और एक समाचार पत्र प्रकाशित करने के लिए अन्य उद्योग चलाना, दो अलग-अलग बातें हैं." उनके अनुसार, हमारे देश में सभी मीडिया हाउस अन्य उद्योग चलाने के लिए मीडिया का सहारा ले रहे हैं.

दैनिक भास्कर के मालिकों ने रियल एस्टेट, खनन, भवन निर्माण और खाद्य-प्रसंस्करण सहित कई उद्योगों में निवेश किया है. समूह का जमीन हथियाने, अवैध निर्माण और पट्टा समझौतों के उल्लंघन जैसे विभिन्न मामलों में नाम सामने आया है. यह समूह पत्रकारों और अन्य कर्मचारियों के लिए सरकार द्वारा निर्धारित वेतन-बोर्ड पालन नहीं करने के लिए अदालती मामलों से भी निपट रहा है. एक वरिष्ठ पत्रकार और दैनिक भास्कर के पूर्व संपादक ने नाम न छापने की शर्त पर मुझे बताया, “भास्कर के कर्मचारी बेहद उत्पीड़न सह कर काम करते हैं. वेतन-बोर्ड की सिफारिशों को लागू न करने के एवज में अपने कर्मचारियों को पदोन्नति और उच्च वेतन देने वाले अन्य समाचार पत्रों के विपरीत, भास्कर ऐसा कुछ भी नहीं करता.” उन्होंने दिल्ली के एक होटल में संपादकों की हुई एक बैठक को याद करते हुए बताया कि एक संपादक ने सीईओ, एचआर प्रमुखों और अपने संपादकीय सहयोगियों से कहा था, “हम इंतजाम कर लेंगे. यह कोई मुद्दा नहीं है और आपको चिंता करने की जरूरत नहीं है." संपादक ने बताया उसके बाद एक पेपर दिया गया जिस पर सभी उपस्थित लोगों को हस्ताक्षर करने के लिए कहा गया. उसी बैठक में मौजूद दो अन्य संपादकों ने मुझसे इस घटना की पुष्टि की.

चंडीगढ़ में दर्ज एक अजीबोगरीब मामला सामने आया जहां वेतन बोर्डों की सिफारिशों को लागू करने की मांग कर रहे एक कर्मचारी का ईमेल अकाउंट हैक करके उसका इस्तीफा भेज दिया गया. कर्मचारी ने प्रबंधन के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई है. वरिष्ठ पत्रकार ने मुझे बताया कि "इस तरह के कई और मामले अब तक लंबित हैं और लोग न्याय के लिए दर-दर भटक रहे हैं." मैंने इन आरोपों पर प्रतिक्रिया लेने के लिए दैनिक भास्कर प्रबंधन से बात करने की कोशिश की लेकिन कोई जवाब नहीं मिला. चमड़िया का कहना था कि जबकि समूह का सांप्रदायिकता और उच्च-जाति की तरफ झुकाव साफ है फिर भी "यह अवसर मिलने पर खुद को बहादुर दिखाने में पीछे नहीं रहा.” उन्होंने आगे कहा कि छापेमारी का समय दर्शाता है कि मोदी सरकार "मीडिया की एक छोटी सी बहादुरी को भी बर्दाश्त नहीं करेगी." दैनिक भास्कर के पूर्व संपादक ने सहमति व्यक्त करते हुए समूह की कोविड-19 पर की गई कवरेज की प्रशंसा की लेकिन उन्होंने यह भी तर्क दिया कि इस तरह की कवरेज "उनके डीएनए में नहीं है." उन्होंने कहा कि समूह ने कभी भी व्यवस्था विरोधी लाइन नहीं ली और पत्रकारिता के बजाय अपने व्यवसायिक हितों को पूरा करने वाले निर्णय लेते गए. उनके अनुसार आलोचनात्मक रिपोर्टिंग इस कारण की गई थी कि बहुत कोशिश के बाद भी मोदी ने उन्हें कभी साक्षात्कार नहीं दिया. इसके बजाय मोदी ने उनके प्रतिद्वंद्वी दैनिक जागरण को साक्षात्कार दिया, "तो, वे उसी बात से नाखुश थे."

नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर में सहायक प्रोफेसर और पॉलिटिकल कम्युनिकेशन एंड मोबिलाइजेशन: दि हिंदी मीडिया इन इंडिया किताब के लेखक तबरेज अहमद नियाजी के अनुसार दैनिक भास्कर का ऐतिहासिक रूप से ही सरकारों के साथ संबंध जटिल रहा है. उन्होंने भास्कर के 1984 की भोपाल गैस त्रासदी के साथ-साथ 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के कवरेज का उल्लेख किया. जहां दोनों ही मामलों में कांग्रेस सरकार थी. उन्होंने कहा, "उन्होंने भोपाल त्रासदी पर बहुत आलोचनात्मक रिपोर्टिंग की थी. हर सुबह लोग दैनिक भास्कर का इंतजार करते थे कि उसने क्या बताया होगा.” नियाजी ने आगे कहा, “इसी तरह 1992 में अधिकांश हिंदी समाचार पत्र अत्यधिक सांप्रदायिक थे और उनमें से कई पर उस समय भारतीय प्रेस परिषद द्वारा जुर्माना तक लगाया गया था. लेकिन दैनिक भास्कर पर जुर्माना नहीं लगा. यह समूह मुसलमानों और हिंदुओं के बीच शांति और सद्भाव की वकालत कर रहा था.” नियाजी ने कहा कि पूरी तरह से बीजेपी द्वारा संचालित दैनिक जागरण जैसे समाचार पत्रों के उलट “दैनिक भास्कर में अभी भी पत्रकारिता के मूल्यों पर काम करने की इच्छा बरकरार है. जिन्हें वह अवसर मिलन पर प्रकट करने में पीछे नहीं रहता.”

लेखक और मीडिया कॉमेंटेटर अभिषेक श्रीवास्तव के अनुसार एक समाचार पत्र को न केवल उन्माद के समय में उसकी रिपोर्टिंग से बल्कि इस बात से भी आंका जाना चाहिए कि जब उन्माद शांत हो जाता है वह कैसी रिपोर्टिंग करता है. अभिषेक ने 2002 में अक्षरधाम पर हुए हमले का उदाहरण दिया जिसमें छह मुसलमानों को दोषी पाया गया था. दैनिक भास्कर सहित पूरे मीडिया ने इस खबर को व्यापक रूप से कवर किया था. लेकिन फिर इन लोगों को 2014 में बरी कर दिया गया. और तब कुछ ही अखबारों ने अपने पहले पन्नों पर इस खबर को प्रकाशित किया. अभिषेक के अनुसार, ऐसे अवसरों में भास्कर जैसे अखबार अपनी जिम्मेदारी पूरी करने में फेल रहे हैं.

सरकारों द्वारा मीडिया को नियंत्रिण में रखने की कोशिश कोई नई घटना नहीं है. 2006 में मनमोहन सिंह ने मुख्यमंत्रियों के एक सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा था कि “आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में... मीडिया को सहयोगी बनाना और उनके द्वारा अधिक सकारात्मक भूमिका निभाना उपयोगी साबित होगा और यह एक संपूर्ण मीडिया प्रबंधन रणनीति का हिस्सा होना चाहिए. हालांकि ऐसा आपके निर्देशन और भागीदारी के बिना नहीं संभव नहीं होगा.” उनसे पहले आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी ने मीडिया को आसानी से अपने नियंत्रण में कर लिया था.

2000 के दशक की शुरुआत में गठबंधन सरकार के युग में भी मीडिया घरानों पर छापे मारे गए. 29 मई 2001 को आउटलुक द्वारा बड़े व्यापारिक घरानों द्वार सरकार के नीतिगत फैसलों को प्रभावित करने को लेकर रिपोर्ट प्रकाशित किए जाने के बाद पत्रिका के मालिक राजन रहेजा के कार्यालयों और अन्य दफ्तरों पर छापे मारे गए. मोदी सरकार ने इस प्रवृत्ति को ओर बड़े स्तर पर ला दिया है. इसने भारतीय मीडिया के स्वतंत्र होने के पाखंड पर से पर्दा हटा दिया है.

राष्ट्रीय स्तर पर अपने पैर जमाने और अन्य तरह के कारोबार में फैलने से पहले दैनिक भास्कर 1948 में भोपाल में सुबह सवेरे नाम का एक क्षेत्रीय अखबार हुआ करता था. एक तरह इस इसकी अन्य बड़े मीडिया घरानों की तुलना में सफलता की अलग राह रही है. हालांकि अब इसकी नियती काफी हद तक उनके जैसी ही नजर आ रही है. विभिन्न व्यवसायों में समूह के विस्तार ने इसे अच्छी पत्रकारिता के अपने मूल लक्ष्यों से समझौता करने के लिए मजबूर किया है. मध्य प्रदेश के सूचना आयुक्त और दैनिक भास्कर के पूर्व कर्मचारी विजय मनोहर तिवारी ने आयकर छापे के बाद समूह को "अपने अखबारों को कारपोरेटी चमक-धमक से मुक्त करने" की सलाह दी थी. पत्रकारिता के अलावा अन्य व्यावसायिक हित होना दोधारी तलवार जैसा है. यह ईनाम के तौर पर राजनीतिक संरक्षण, बड़े पैमाने पर लाभ और अपने प्रभाव का एक भ्रम पैदा करता है लेकिन यह तानाशाही सरकारों के हाथों में एक फंदा भी बन जाता है.

(कारवां अंग्रेजी के दिसंबर 2021 के मीडिया विशेषांक में प्रकाशित इस आलेख का हिंदी में अनुवाद अंकिता चौहान ने किया है. मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)