आंबेडकर की मीडिया को चेतावनी, नेताओं की भक्ति से तानाशाही का खतरा

03 जून 2019
ऐतिहासिक तौर पर देखें तो भारतीय मीडिया ने सत्ता में विराजमान लोगों के प्रति हमेशा ही नरम रुख अख्तियार किया है. उनका यह रवैया पत्रकारिता के उन मूल्यों के खिलाफ है जिनका उल्लेख भारतीय संविधान के निर्माता बीआर आंबेडकर ने किया था.
ऐतिहासिक तौर पर देखें तो भारतीय मीडिया ने सत्ता में विराजमान लोगों के प्रति हमेशा ही नरम रुख अख्तियार किया है. उनका यह रवैया पत्रकारिता के उन मूल्यों के खिलाफ है जिनका उल्लेख भारतीय संविधान के निर्माता बीआर आंबेडकर ने किया था.

जून 2016 को समाचार चैनल टाइम्स नाउ पर पत्रकार अर्णब गोस्वामी ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से पूछा, “इन दिनों आपकी दिनचर्या कैसी है. मेरे कहने का मतलब है कि तेज काम करते हैं. इतनी सारी मीटिंग करते हैं... लोग कहते हैं कि आपके साथ काम करने वाले आपके अधिकारियों के लिए बहुत मुश्किल हो जाता है”. गोस्वामी ने जिस लहजे में प्रधानमंत्री से बात की वह लहजा इसके बाद के मोदी के तमाम इंटरव्यूओं में जारी रहा. बहुत कम पत्रकारों ने सरकार की नीतियों और प्रशासन को लेकर मोदी से कड़े सवाल पूछे. 2019 के लोकसभा चुनावों के दौरान जी न्यूज, टाइम्स नाउ, एबीपी न्यूज, न्यूज 18, न्यूज नेशन और द इंडियन एक्सप्रेस एवं अन्य संस्थानों के पत्रकारों ने मोदी का इंटरव्यू किया लेकिन किसी ने भी मोदी से क्रॉस क्वेश्चन नहीं किया. इनमें से अधिकांश पत्रकारों ने भारतीय जनता पार्टी के शासनकाल में फ्रांस की कंपनी डसॉल्ट एविएशन से 36 राफेल विमान खरीद में भ्रष्टाचार के आरोपों से संबंधित कोई सवाल नहीं पूछा.

ऐतिहासिक तौर पर देखें तो भारतीय मीडिया ने सत्ता में विराजमान लोगों के प्रति हमेशा ही नरम रुख अख्तियार किया है. उनका यह रवैया पत्रकारिता के उन मूल्यों के खिलाफ है जिनका उल्लेख भारतीय संविधान के निर्माता बीआर आंबेडकर ने किया था. आजादी के पहले आंबेडकर ने मूकनायक, बहिष्कृत भारत और जनता जैसे प्रकाशनों की शुरुआत की और राजनीतिक नेताओं के प्रति मीडिया की भक्ति की निंदा की. 1943 में आंबेडकर ने कहा था कि भारतीय पत्रकारिता “अपने नायकों के स्तुति गान करने वाले लोगों द्वारा की जाती है”. नवंबर 1949 में संविधान सभा में अपने अंतिम भाषण में आंबेडकर ने घोषणा की थी, “भक्ति या नायक वंदना निश्चित तौर पर बर्बादी का रास्ता है जो तानाशाही की ओर ले जाता है”.

बावजूद इसके आने वाले दशकों में भारतीय मीडिया ने इस चेतावनी को नजरअंदाज किया और पूर्व की ही भांति सत्ता के शिखर पर विराजमान लोगों की वंदना जारी रखी. जून 1975 और मार्च 1977 के बीच जारी आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार की खिलाफत करने वाले सभी प्रकाशनों को बंद करवा दिया गया. द इंडियन एक्सप्रेस और दि स्टेट्समैन जैसे प्रकाशनों ने मीडिया के खिलाफ सरकार की नीतियों से लोहा लिया लेकिन हिंदुस्तान टाइम्स, टाइम्स ऑफ इंडिया और आनंद बाजार पत्रिका जैसे समाचार पत्रों ने इंदिरा गांधी सरकार के आगे घुटने टेक दिए और बेटे संजय गांधी को मजबूत नेता की तरह पेश करने वाली खबरें प्रकाशित कीं.

आंबेडकर का मानना था, “पूर्व में कभी भी नायक वंदना के लिए देश के हितों का बलिदान उस तरह नहीं किया गया जैसा अब किया जाता है. इससे पहले कभी भी अंधभक्ति इतनी विकराल नहीं थी जितनी आज के भारत में है”.

इमरजेंसी या आपातकाल खत्म हो जाने के सालों बाद भी भारतीय प्रेस प्रभुत्वशाली व्यक्तियों के महिमामंडन में पूर्व की तरह ही लगा रहा. बहुत से प्रकाशनों ने, 1999 से 2004 तक प्रधानमंत्री रहे दिवंगत नेता अटल बिहारी वाजपेयी का “महान राजनेता” कह कर महिमामंडन किया. लेकिन इसने वाजपेयी की सांप्रदायिक बयानबाजी पर बहुत कम सवाल उठाए. इसी प्रकार, भारतीय प्रेस ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को स्वच्छ और ईमानदार नेता के बतौर पेश किया जबकि उनकी सरकार पर कई भ्रष्टाचार के आरोप थे.

दिवाकर जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में शोध छात्र हैं.

Keywords: BR Ambedkar media ethics media Narendra Modi Rahul Gandhi Mohandas Gandhi Muhammad Ali Jinnah
कमेंट