जून 2016 को समाचार चैनल टाइम्स नाउ पर पत्रकार अर्णब गोस्वामी ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से पूछा, “इन दिनों आपकी दिनचर्या कैसी है. मेरे कहने का मतलब है कि तेज काम करते हैं. इतनी सारी मीटिंग करते हैं... लोग कहते हैं कि आपके साथ काम करने वाले आपके अधिकारियों के लिए बहुत मुश्किल हो जाता है”. गोस्वामी ने जिस लहजे में प्रधानमंत्री से बात की वह लहजा इसके बाद के मोदी के तमाम इंटरव्यूओं में जारी रहा. बहुत कम पत्रकारों ने सरकार की नीतियों और प्रशासन को लेकर मोदी से कड़े सवाल पूछे. 2019 के लोकसभा चुनावों के दौरान जी न्यूज, टाइम्स नाउ, एबीपी न्यूज, न्यूज 18, न्यूज नेशन और द इंडियन एक्सप्रेस एवं अन्य संस्थानों के पत्रकारों ने मोदी का इंटरव्यू किया लेकिन किसी ने भी मोदी से क्रॉस क्वेश्चन नहीं किया. इनमें से अधिकांश पत्रकारों ने भारतीय जनता पार्टी के शासनकाल में फ्रांस की कंपनी डसॉल्ट एविएशन से 36 राफेल विमान खरीद में भ्रष्टाचार के आरोपों से संबंधित कोई सवाल नहीं पूछा.
ऐतिहासिक तौर पर देखें तो भारतीय मीडिया ने सत्ता में विराजमान लोगों के प्रति हमेशा ही नरम रुख अख्तियार किया है. उनका यह रवैया पत्रकारिता के उन मूल्यों के खिलाफ है जिनका उल्लेख भारतीय संविधान के निर्माता बीआर आंबेडकर ने किया था. आजादी के पहले आंबेडकर ने मूकनायक, बहिष्कृत भारत और जनता जैसे प्रकाशनों की शुरुआत की और राजनीतिक नेताओं के प्रति मीडिया की भक्ति की निंदा की. 1943 में आंबेडकर ने कहा था कि भारतीय पत्रकारिता “अपने नायकों के स्तुति गान करने वाले लोगों द्वारा की जाती है”. नवंबर 1949 में संविधान सभा में अपने अंतिम भाषण में आंबेडकर ने घोषणा की थी, “भक्ति या नायक वंदना निश्चित तौर पर बर्बादी का रास्ता है जो तानाशाही की ओर ले जाता है”.
बावजूद इसके आने वाले दशकों में भारतीय मीडिया ने इस चेतावनी को नजरअंदाज किया और पूर्व की ही भांति सत्ता के शिखर पर विराजमान लोगों की वंदना जारी रखी. जून 1975 और मार्च 1977 के बीच जारी आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार की खिलाफत करने वाले सभी प्रकाशनों को बंद करवा दिया गया. द इंडियन एक्सप्रेस और दि स्टेट्समैन जैसे प्रकाशनों ने मीडिया के खिलाफ सरकार की नीतियों से लोहा लिया लेकिन हिंदुस्तान टाइम्स, टाइम्स ऑफ इंडिया और आनंद बाजार पत्रिका जैसे समाचार पत्रों ने इंदिरा गांधी सरकार के आगे घुटने टेक दिए और बेटे संजय गांधी को मजबूत नेता की तरह पेश करने वाली खबरें प्रकाशित कीं.
इमरजेंसी या आपातकाल खत्म हो जाने के सालों बाद भी भारतीय प्रेस प्रभुत्वशाली व्यक्तियों के महिमामंडन में पूर्व की तरह ही लगा रहा. बहुत से प्रकाशनों ने, 1999 से 2004 तक प्रधानमंत्री रहे दिवंगत नेता अटल बिहारी वाजपेयी का “महान राजनेता” कह कर महिमामंडन किया. लेकिन इसने वाजपेयी की सांप्रदायिक बयानबाजी पर बहुत कम सवाल उठाए. इसी प्रकार, भारतीय प्रेस ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को स्वच्छ और ईमानदार नेता के बतौर पेश किया जबकि उनकी सरकार पर कई भ्रष्टाचार के आरोप थे.
मीडिया ने हमेशा सुनिश्चित किया है कि कुछ नेताओं को हमेशा अधिक तवज्जो दी जाए. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने 2004 में राजनीति में प्रवेश किया था. 2014 के आम चुनावों में टाइम्स नाउ के पत्रकार अर्णब गोस्वामी ने राहुल गांधी से तीखे सवाल किए. उस बातचीत से साफ था कि प्रधानमंत्री पद के लिए गांधी एक कमजोर उम्मीदवार हैं. लेकिन प्रेस में गांधी और उनके साक्षात्कार की आलोचनाओं की बाढ़ ने सुनिश्चित किया कि गांधी लाइमलाइट में बने रहेंगे. इस साल के लोकसभा चुनावों के दौरान कई पत्रकारों ने “लाइव” और “अनस्क्रिप्टिड” इंटरव्यू देने के लिए ही गांधी की प्रशंसा की.
नेताओं पर की जाने वाली खबरों में उनके व्यक्तिगत जीवन को अधिक महत्व दिया जाता है और उन्हें महामानव की तरह दिखाया जाता है. गांधी के 15 साल के राजनीतिक जीवन में कई ऐसी रिपोर्ट देखने को मिलती हैं जिनमें गांधी की आदतों और उनके दोस्तों के बारे में बातें की गई हैं. 2018 में दि प्रिंट ने एक खबर प्रकाशित की थी कि कैसे सूत्रों ने उसे बताया है कि बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने अपना 20 किलोग्राम वजन घटा लिया है. चुनावों के दौरान न्यूज नेशन समाचार चैनल के पत्रकारों ने मोदी से उनके खाने के शौक के बारे में जब पूछा तो प्रधानमंत्री ने “सात्विक” भोजन पसंद करने का खुलासा किया.
भारतीय लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मीडिया, सार्वजनिक व्यक्तियों को मसीहा बना कर पेश करने का दोषी है. 2011 में सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे और उनके सहयोगी अरविंद केजरीवाल, जो हाल में दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं, को मीडिया ने नागरिक समाज के साथ मिल कर भ्रष्टाचार विरोधी बिल लाने के लिए बड़ा आंदोलन करने का श्रेय दिया. प्रेस ने दोनों को भ्रष्टाचार के खिलाफ योद्धा के रूप में पेश किया. इसके अगले साल केजरीवाल ने आंदोलन को बाय-बाय कर भ्रष्टाचार रोधी बिल पास होने से पहले ही आम आदमी पार्टी बना ली. इसके बाद मीडिया ने केजरीवाल को मूल्यों वाला नेता बताकर पेश किया और 2015 में वह दिल्ली के मुख्यमंत्री बन गए. बाद में आम आदमी पार्टी में केजरीवाल के करीबी रहे योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण ने पार्टी पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया और केजरीवाल को तानाशाहों की तरह बर्ताव करने वाला व्यक्ति बताया. इस पर पार्टी ने दोनों को बाहर कर दिया.
1943 में समाज सुधारक एमजी रानाडे की जन्म जयंती के अवसर पर पुणे में दिए एक भाषण में आंबेडकर ने कहा था कि प्रेस, नेताओं की “सर्वश्रेष्ठ होने और देवता” जैसी छवि को मजबूत बनाती है. आंबेडकर ने कहा था, “बिना लाग लपेट के समाचार देना, समुदाय के हित को ध्यान में रखकर सार्वजनिक नीतियों पर टीका करना, बिना किसी भय के बड़ी से बड़ी शख्सियत की आलोचना करना और उन्हें सही रास्ता दिखाना जिन्होंने गलत और बेकार रास्ता चुना है, इन बातों को भारत में पत्रकारिता अथवा पत्रकारिता का मूल कर्तव्य नहीं माना जाता है. भारतीय पत्रकारिता का मुख्य काम किसी को नायक बना कर उसका स्तुति गान करना है.”
आंबेडकर ने अपने उस भाषण में मोहनदास करमचंद गांधी और पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की प्रेस में होने वाली जय जयकार के बारे में आगाह किया था. आंबेडकर की उपरोक्त बात आज के संदर्भों में भी लागू होती है. आंबेडकर कहते हैं, “प्रेस की गोद में बैठकर इन दोनों लोगों ने जिस तरह से प्रभुत्व का प्रदर्शन किया है उसने सभी हद पार कर ली है. अपने प्रभुत्व से इन दोनों ही लोगों ने अपने आधे अनुयायियों को मूर्ख और आधों को ढोंगी बना दिया है”.
मीडिया में ताकतवर लोगों के प्रभुत्व के चलते कमजोर लोगों की बात नहीं हो पाती है. कई कार्यकर्ताओं के अनुसार, दलित समुदाय पर होने वाले अत्याचारों को मीडिया में यथोचित स्थान नहीं मिलता. इस संबंध में आंबेडकर ने कहा था, “हर दिन भारत में हमारे लोगों को निरंकुशता का सामना करना पड़ता है और उन पर होने वाले अत्याचारों को समाचार पत्र कवर नहीं करते”. दलितों को नजरअंदाज किए जाने का कारण देश के न्यूज रूम में उनके प्रतिनिधित्व की कमी है. इसके विपरीत, आंबेडकर का मराठी साप्ताहिक जनता जो मुख्य रूप से दलित समुदाय से संबंधित मामलों को प्रकाशित करता था, उसके संपादकीय बोर्ड में उच्च जाति के प्रतिनिधियों को जगह दी गई थी. उनके समाचार पत्र में एक शक्तिशाली वाक्य अक्सर प्रकाशित होता था कि, “गुलाम को गुलामी का एहसास करा दो, वह बगावत कर देगा”.
पुणे के अपने भाषण में आंबेडकर ने भारतीय पत्रकारिता को “व्यवसाय” बताया था और कहा था, “इसका कोई नैतिक काम नहीं है. यह सिर्फ कहानियां बनाती है. यह स्वयं को जनता का जिम्मेदार सलाहकार नहीं मानती”. ऐसा लगता है कि मीडिया की नैतिकता में अभी भी कोई बदलाव नहीं आया है. लेकिन यह संकट अब अधिक विकराल है क्योंकि आजादी के बाद के सालों में इसका विस्तार व्यापक हो गया है. आंबेडकर का मानना था, “पूर्व में कभी भी नायक वंदना के लिए देश के हितों का बलिदान इस तरह नहीं किया गया जैसा अब किया जाता है. इससे पहले कभी भी अंधभक्ति इतनी विकराल नहीं थी जितनी आज के भारत में है. लेकिन मुझे खुशी है कि कुछ सम्मानित अपवाद मौजूद हैं. तो भी ये इतने कम हैं कि इनकी आवाज कभी सुनी नहीं जाती”.