3 मई को पूर्वोत्तर भारत में सबसे अधिक पढ़े जाने वाले अंग्रेजी दैनिक अखबार, असम ट्रिब्यून में "कार्बी लड़की की हत्या : जाति को दोष देना कोई समाधान नहीं" शीर्षक से एक लेख छपा. यह लेख आदिवासी कार्बी समुदाय की एक 12 वर्षीय लड़की की निर्मम हत्या करने वाले तीन ब्राह्मणों की गिरफ्तारी पर की गई मीडिया कवरेज को लेकर लिखा गया था. 12 वर्षीय लड़की उनके घर में सहायिका के रूप में काम करती थी. ब्राह्मण लेखक ने लिखा, "आधुनिक युग में उच्च जाति को कोसना एक नया चलन बन गया है और इस दावे को सही ठहराने के लिए भाषा से लेकर सामाजिक स्थिति तक हर चीज का उपयोग किया जाता है." असमिया और अंग्रेजी मीडिया द्वारा उच्च जाति के हिंदू असमिया और असम के कई आदिवासी समुदायों के बीच हिंसा के अधिकांश मामलों और इस हत्या पर किस तरह से रिपोर्टिंग की गई, इसकी सच्चाई लेखक के दावों से अलग नहीं है.
12 वर्षीय लड़की के परिवार द्वारा बलात्कार का आरोप लगाने के बावजूद असम पुलिस ने 22 अप्रैल को तीन ब्राह्मणों- रीना, प्रकाश और नयनमोनी बोरठाकुर को सिर्फ हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया. मुख्यधारा की मीडिया द्वारा घटना की कवरेज किसी विशेष तरीके से नहीं की गई थी. इसने असम में उच्च जाति के अपराधियों और आदिवासी पीड़ितों के बीच हिंसा की पिछली कवरेज में चलाए गए समान पैटर्न, जिसमें अपराधी की पहचान और जाति छुपा ली जाती है, को ही दोहराया है. 24 अप्रैल की घटना पर की गई असम ट्रिब्यून की रिपोर्ट में भी अपराधी की जाति का उल्लेख नहीं किया गया, बल्कि इस बात पर जोर दिया गया कि आदिवासी समुदायों में बाल श्रम कैसे एक सामाजिक बीमारी बन गया है.
अंग्रेजी और असमिया दोनों मीडिया घराने बड़े पैमाने पर उच्च जाति के हिंदुओं के स्वामित्व-संपादन में हैं. इनकी सोच और विचार राज्य में हिंसा की किसी भी घटना को लोगों के सामने पेश करने के तरीके को बहुत प्रभावित करती है. हिंसा के उन मामलों में जहां पीड़ित आदिवासी होता है वहां जाति और जनजातीय पहचान को एक मुख्य कारक के रूप में नहीं देखा जाता, इसके बजाए आर्थिक और बाकी बातों पर ध्यान दिया जाता है. इसके उलट, जहां हिंसा के शिकार असम के उच्च जाति के लोग होते हैं और अपराधी या तो बंगाली मूल से जुड़े समुदाय के लोग हों या असमिया जनजाति के, अपराधियों की पहचान पूरी तरह से उजागर की जाती है. मीडिया द्वारा इस तरह की घटनाओं का ऐसा निरूपण असमिया पहचान को लेकर एक संकीर्ण सोच गढ़ता है जिसके कारण असम के कई आदिवासी समुदाय लगातार हाशिए पर खिसकते जा रहे हैं.
आदिवासी पीड़ितों के साथ घटने वाली घटनाओं में भी असम की मीडिया अक्सर अपराधियों द्वारा किए कृत्य के बजाए आदिवासी समुदाय की प्रथाओं पर ही अधिक ध्यान देती आई है. अपराधियों की जाति से जुड़ी पहचान उजागर न करने वाली असम ट्रिब्यून की एक रिपोर्ट में उल्लेख किया गया कि कार्बी छात्र संघ पिछले सात वर्षों से इस तरह की प्रथाओं के खिलाफ जागरूकता कार्यक्रम कर रहा था, लेकिन लोग अभी भी अपने बच्चों को लोगों के घरों में काम करने के लिए भेजते हैं. लेख में एक कार्बी छात्र नेता का उल्लेख किया, जिन्होंने "पश्चिम कार्बी आंगलोंग जिले जैसे विशाल क्षेत्र में उचित शैक्षिक बुनियादी ढांचा तैयार नहीं करने पर कार्बी आंगलोंग स्वायत्त परिषद को दोषी ठहराया." असम ट्रिब्यून के अनुसार एक कार्बी की मौत के लिए केवल एक कार्बी ही दोषी ठहराया जाता है.
अप्रैल में एक अन्य उच्च जाति के लेखक अनुपम चक्रवर्ती ने गुवाहाटी के एक समाचार पोर्टल ईस्ट मोजो में अपने लेख में इसी तरह अपराधियों की जातिगत पहचान के मुद्दे को छोड़ दिया था. चक्रवर्ती ने असम में समुदायों के बीच संरचनात्मक असमानताओं के बारे में अधिक विवरणात्मक तरीके से बताया, लेकिन उन्होंने इसे वर्ग के प्रश्न तक ही सीमित कर दिया. इसकी एक व्यक्ति के उद्धरण के जरिए व्याख्या करने की कोशिश की गई, जिसने कहा था, "अमीर और कुलीन परिवार छोटे बच्चों के माता-पिता से उनके बच्चों को पढ़ाने-लिखाने का वादा करके उन्हें घर में काम पर रख लेते हैं." लेख में बताया गया है कि कैसे नगांव जिले में लगभग 5,000 कार्बी बच्चे लोगों के घरों में काम कर रहे हैं और कैसे हर साल दस से बीस बच्चे मर जाते हैं. लेकिन इस व्यवस्था से फायदा उठाने वाले समुदायों का जिक्र नहीं किया गया. हत्या के एक दिन बाद एक प्रमुख असमिया टेलीविजन चैनल, प्राग न्यूज के डिजिटल डेस्क ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की जिसमें यह नहीं बताया गया कि बोरठाकुर ऊंची जाति के थे, लेकिन यह जरूर उल्लेख किया गया कि पीड़िता एक कार्बी थी. लेख में 12 वर्षीय पीड़िता का नाम उजागर किया गया, लेकिन गिरफ्तार किए गए उन दो अपराधियों में से किसी का भी नाम बताने की जहमत नहीं उठाई गई. भारत की अन्य मुख्यधारा की मीडिया में भी घटना की कवरेज में यही पूर्वाग्रह दिखाई देता है. टाइम्स ऑफ इंडिया ने उल्लेख किया कि पीड़िता एक कार्बी थी, लेकिन अपराधियों की बिना कोई अधिक जानकारी दिए केवल उसके मालिक के रूप में ही बताया गया. द हिंदू के गुवाहाटी के विशेष संवाददाता पीड़िता और उसके अपराधी दोनों के समुदायों का उल्लेख नहीं कर सके.
इस घटना की टेलीविजन कवरेज भी प्रिंट मीडिया से बहुत अलग नहीं थी. असमिया चैनल डीवाई 365 जैसे कुछ चैनल अपनी रिपोर्ट में केवल पीड़िता के परिवार को दिए गए मुआवजे और उसके गांव में पीड़िता की याद में बनाए जा रहे एक स्कूल से जुड़ी जानकारी को ही उजागर करते हैं. मीडिया द्वारा कि गई अधिकांश रिपोर्ट्स में केवल गरीबी और शिक्षा की कमी को हत्या का कारण बताया गया, न की सामाजिक असमानताओं को. असम और दक्षिण एशिया में इस तरह की कवरेज में बड़े तौर पर जाति, समुदाय और संरचनात्मक असमानताओं में मौजूद विकट संबंधों की अनदेखी की जाती है.
बाल श्रम और यौन शोषण छुपते-छुपाते नहीं होता है बल्कि यह पितृसत्तात्मक और जाति पर आधारित संरचनाओं द्वारा लगातार उत्पन्न किया जाता है और बार-बार इसे बढ़ावा दिया जाता है. असम में महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा की उच्च दर इस बात का सबूत देती है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के डेटा से पता चलता है कि 2005 से 2019 के बीच असम में महिलाओं की प्रति 100,000 आबादी पर बलात्कार के मामलों में 33 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. 2019 में भारत की कुल आबादी में तीन प्रतिशत हिस्सेदारी रखने वाला असम देश में होने वाले ऐसे अपराधों में अपनी लगभग दस प्रतिशत हिस्सेदारी रखता था. घरों में काम करने वाले बच्चे विशेष रूप से यौन शोषण के मामले में असुरक्षित महसूस करते हैं, भले ही वे किसी भी घर में काम करते हों. कुछ समुदायों के बच्चे बाल श्रम और बाल यौन शोषण के अधिक शिकार होते हैं.
वह 12 साल की बच्ची न केवल बाल मजदूर थी, बल्कि एक कार्बी भी थी. उसकी आदिवासी पहचान हमेशा उसके साथ ही रही. 2011 की जनगणना के अनुसार असम में 5 से 14 साल के करीब 347353 बच्चे हैं जो कोई न कोई काम कर रहे हैं या फिर काम की तलाश में हैं. राज्य में अधिकांश बाल मजदूर हाशिए के समुदायों, खासकर असमिया जनजातियों और निचली जाति के असमिया समुदायों से आते हैं. नागांव जिला असम में दूसरे स्थान पर है जहां सबसे अधिक बाल मजदूरी है. यहां पड़ोसी आदिवासी-बहुल कार्बी आंगलोंग जिले के कम से कम 5,000 बच्चे हैं, जिनमें से अधिकांश घरों में सहायक के रूप में काम करते हैं.
गरीबी की तरह बाल श्रम के भी सामाजिक कारण हैं. बाल श्रम का कारण गरीबी हो भी सकती है और नहीं भी, लेकिन बाल श्रम निश्चित रूप से गरीबी का कारण होता है. बाल श्रम के जाल में फंस कर बच्चे स्कूल नहीं जा पाते और नौकरी के बाजार में रोजगार हासिल करने के लिए जरूरी कौशलों को सीखने और स्वयं को विकसित करने के अवसरों से वंचित रह जाते हैं, जिस कारण वे अपने पूरे जीवन में कम वेतन और कम योग्यता वाली नौकरियों में फंस कर रह जाते हैं. इससे पैदा हुआ निंदनीय सिलसीला असम में हाशिए पर स्थित कई समुदायों की एक दुखद हकीकत बन गया है.
एक सच्चाई और है जिसे इस तथ्य से अलग नहीं किया जा सकता कि कार्बी आंगलोंग के अधिकांश आदिवासी बच्चे उच्च जाति के घरों में काम कर रहे हैं. बाल श्रम के कारणों पर चर्चा करते समय इन उच्च जाति समुदायों की जीवन शैली पर भी उसी तरह से समीक्षा की जाने की जरूरत है जितनी कार्बी आंगलोंग में गरीबी पर की जाती है. कार्बी आंगलोंग जिले और नागांव जिले के कस्बों के बीच परोपजीवी संबंध इस बात को उजागर करते हैं कि इनके सिर्फ आर्थिक पहलू की समझ हमारी रोजमर्रा से जुड़ी वास्तविकताओं को पूरी तरह से समझाने में विफल रही है.
25 अप्रैल को प्रतिदिन टाइम्स ने हत्या पर एक घंटे का कार्यक्रम चलाया. प्रतिदीन टाइम्स के प्रधान संपादक और एंकर नितुमोनी सैकिया ने कार्यक्रम में तर्क दिया कि "यहां सभी प्रकार के लोग हैं, कुछ अच्छे हैं जो उन्हें अपने बेटे और बेटियों की तरह मानते हैं, पढ़ाते-लिखाते हैं और उनकी शादी करवाते हैं. वहीं दूसरी तरफ बोरठाकुर जैसे बेहद दुष्ट लोग भी हैं." उनकी इन्ही पंक्ति को बाद में असमिया लेखिका और कवियत्री मैत्रेयी पातर ने दोहराते हुए कहा कि वह "कुछ ऐसे लोगों को जानती हैं जो वास्तव में पहाड़ों से बच्चों को लेकर आए और उन्हें पढ़ाया-लिखाया, लेकिन उनमें से कुछ बुरे लोग भी हैं जैसा आपने बताया." हालांकि उन्होंने स्वीकार किया कि कार्बी लड़की की बेरहमी से की गई हत्या इस तरह की हिंसा का पहला मामला नहीं था, जो इसकी संरचनात्मक खाई को दर्शाता है. इसके समाधानों पर बात करते हुए उन्होंने पीड़ित लड़की के क्षेत्र में शैक्षिक सुविधाओं में सुधार और ऐसे अपराधों को कम करने के उपाय के तौर पर वित्तीय सुधार जैसे बिंदू भी रखे.
जिस भाषा में पीड़िता और उसके परिवार के बारे में बात की जाती है, वह बहुत ही व्यक्तिगत होती है. उनके लिए "गरीब छोटी लड़की," "बदकिस्मत परिवार" और "दुखद" जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है, जो संरचनात्मक असमानताओं की बजाए दया पर आधारित कहानी पर केंद्रित होती है और जहां हत्या के मुद्दे को अलग-थलग छोड़ दिया जाता है. कार्यक्रम में कई वक्ताओं ने स्वीकार किया कि राहा के अधिकांश परिवार, जिस शहर में 12 वर्षीय की हत्या की गई थी, कार्बी बच्चों को घरों में काम करने के लिए रखते हैं. फिर भी, एक भी वक्ता ने इसपर बात नहीं की कि यह एक संरचनात्मक मुद्दा था. घंटे भर चली चर्चा में जाति शब्द का केवल दो बार उल्लेख किया गया और दोनों बार अपराध में इसकी भूमिका को नकारने के लिए.
पैनल में कार्बी समुदाय के वक्ता भी शामिल थे, लेकिन किसी भी बिंदू पर उनसे अपराध में जाति की भूमिका को लेकर कोई सवाल नहीं किया गया. यह उल्लेखनीय है क्योंकि कार्बी छात्र संघ के पदाधिकारियों ने अन्य समाचार संगठनों को बताया कि यह एक जातिगत अपराध था और उनका मुख्य उद्देश्य चार्जशीट में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत मामला दर्ज करवाना था. पूरी चर्चा के दौरान किसी भी वक्ता ने, जिसमें एक वकील भी शामिल था, अत्याचार निवारण अधिनियम के बारे में बात नहीं की थी. कार्यक्रम के अंत में स्थानीय पुलिस अधिकारी ने उन अपराधों को सूचीबद्ध करने के बाद इसका एक बार उल्लेख किया था, जिनके तहत अपराधियों को गिरफ्तार किया गया है.
मेरा मानना है कि जानबूझकर अत्याचार निवारण अधिनियम के बारे में बात नहीं की गई, क्योंकि फिर इसका मतलब अपराध को जातिगत अपराध के रूप में स्वीकार कर लेना होता. और यह असमिया समाज में मौजूद जाति और संरचनात्मक असमानताओं पर बात करने को मजबूर कर देता, जिसे मीडिया अक्सर अनदेखा करता रहा है. मामले को लेकर दर्ज की गई प्रथम सूचना रिपोर्ट में अत्याचार निवारण अधिनियम का उल्लेख नहीं किया गया है, हालांकि 25 मई को गुवाहाटी उच्च न्यायालय द्वारा दिए एक आदेश में राज्य सरकार को दो सप्ताह के भीतर अधिनियम को लागू करने का निर्देश दिया गया है.
प्रतिदिन टाइम्स की रिपोर्ट और डीवाई 365 में बोरठाकुरों को कड़ी सजा देने की मांग करने वाले लोगों का हवाला दिया गया. इसके साथ ही सोशल मीडिया पर बोरठाकुरों को उम्रकैद या मौत की सजा दिए जाने की मांग करने वालों की बाढ़ आ गई थी. इस तरह की कवरेज भी अपराध को व्यक्ति पर केंद्रित कर देती है और इसे सिर्फ एक बार घटी घटना के रूप में पेश किया जाता है. यह हमें बाल श्रम और बाल यौन शोषण का कारण बनने वाले सामाजिक कारकों को जानने से रोकता है. जहां उत्पीड़न और इस तरह के अपराध की जड़े हों वहां आपराधिक न्याय असमानता की सामाजिक संरचना को बदलने में कम प्रभावी होता है. यह ऐसे अपराधों से बच्चों को बचाने में अच्छा काम कर सकता है, भले ही उसके लिए सबूत अधूरे ही हो.
इन घटनाओं को लेकर मीडिया के नैरेटिव को बारीकी से तैयार किया गया है कि कैसे राज्य के उच्च जाति के बुद्धिजीवियों, पत्रकारों और राजनेताओं द्वारा असमिया राष्ट्रवाद और असमिया स्वदेशी पहचान को पेश किया जाता है. राज्य में बंगाली भाषी मुसलमानों पर चर्चा करते समय असमिया आदिवासी समुदायों को विशुद्ध असमिया लोगों के प्रतीक के रूप में चित्रित किया जाता है. लेकिन जब आदिवासी समुदाय अपनी संप्रभुता का मुद्दा उठाते हैं या उनके साथ हिंसा के मामले सामने आते हैं, तब उनकी असमिया पहचान पर तुरंत सवाल खड़े हो जाते हैं. राज्य का उच्च जाति से जुड़ा मीडिया केवल असम के उच्च जाति के राजनीतिक लोगों के हितों की चाकरी करने के लिए असमिया पहचान और राष्ट्रवाद को मनमाने तरीके से उपयोग करता रहता है.
यह हिंसा के उन मामलों से जुड़ी रिपोर्टों में सबसे अधिक दिखाई देता है जहां अपराधी राज्य के हाशिए पर रहने वाले समुदायों से हो. 27 अगस्त 2020 को एक सेवानिवृत्त चिकित्सक सिद्धि प्रसाद देवरी ने उनके घर में काम करने वाले एक नाबालिग लड़के पर उबलता हुआ गर्म पानी डाल दिया था. देवरी आदिवासी समुदाय से आते हैं. इस घटना के तुरंत बाद देवरी और उनकी पत्नी मिताली कोंवर गिरफ्तारी के डर से घर से भाग गए थे, लेकिन कुछ दिनों बाद उन्हें पकड़ लिया गया. प्रिंट मीडिया ने इस घटना को व्यापक रूप से पेश किया और अनेक पत्रकारों द्वारा सोशल मीडिया पर भी इससे जुड़ी कई पोस्ट की गईं. उच्च जाति के एक वरिष्ठ पत्रकार मृणाल तालुकदार ने इस मामले पर जोर देते हुए पीड़ित के कई वीडियो लगातार पोस्ट किए. उन्होंने उस दंपत्ति की तस्वीरों के साथ उनके कार्यस्थल की जानकारी और दफ्तर का पता भी सार्वजनिक किया. भले ही देवरी इस मामले में मुख्य आरोपी था, लेकिन उनकी पत्नी के दफ्तर का पता भी कई लेखों में छापा गया था. द हिंदू के विशेष संवाददाता ने हत्या पर लिखी गई पहली रिपोर्ट में बोरठाकुरों के बारे में कोई भी जानकारी न देते हुए देवरी और कोंवर दोनों के कार्यस्थलों का उल्लेख किया. विभिन्न सोशल मीडिया अकाउंटों पर इस बात का भी उल्लेख किया गया कि उनकी पत्नी ने अपने छात्रों के साथ किस तरह दुर्व्वहार किया था. दंपत्ति द्वारा अतीत में किया गया व्यवहार इस मामले पर मीडिया द्वारा किए जा रहे विश्लेषण में एक महत्वपूर्ण सबूत बन गया. टेलीविजन कवरेज में बार-बार भावनात्मक एकालाप और अपील की गई कि कैसे दंपति शिक्षित होकर भी अशिक्षित ही रही.
इसके उलट राहा हत्याकांड में पीड़ित को पूरी कवरेज के केंद्र में रखा गया था न की हत्यारे को. और देवरी मामले के अधिकांश लेखों में बिना किसी जरूरत के सभी तथ्यों को सामने रख दिया गया. कई रिपोर्टों में अपराधियों के नाम तक उजागर नहीं किए गए थे. हम केवल उनके नाम जानते हैं. उनकी नौकरी और पृष्ठभूमि के बारे में कुछ भी ऐसा नहीं बताया गया जैसा कि देवरी दंपति के मामले में बताया गया था. असम के आदिवासी समुदायों के कई लोगों का मानना है कि यह थोड़ी कवरेज भी कार्बी समूहों के लगातार विरोध करने के बाद की गई है.
कार्बी के एक वरिष्ठ नेता और लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी के राज्य अध्यक्ष होलीराम तेरांग ने मुझे बताया, "12 साल की बच्चे की खौफनाक मौत की खबर असमिया मीडिया ने तब दिखानी शुरू की जब सोशल मीडिया पर मुख्य रूप से कार्बी लोगों ने दबाव बनाना शुरू किया. जरूर कुछ ऐसे विवेकशील गैर-कार्बी और गैर-आदिवासी लोग भी थे जिन्होंने सोशल मीडिया में इस मामले को जोरदार तरीके से उठाया. लोगों के समूहों द्वारा घटना स्थल और व्यस्त रहने वाले गुवाहाटी-नागांव राष्ट्रीय राजमार्ग के पास मौजूद पुलिस स्टेशन पर प्रदर्शन शुरू करने के बाद मुख्यधारा की मीडिया इस मुद्दे को नजरअंदाज नहीं कर सकी. ”
अपने पूरे इतिहास में असमिया राष्ट्रवाद बड़े पैमाने पर केवल एक अन्य वर्ग के कल्पित संदर्भ के रूप में ही अस्तित्व में रहा है. इस अन्य वर्ग की प्रकृति पूरी तरह से प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर रहती है और यही असमिया राष्ट्रवाद को आकार भी देती है. उच्च जाति के असमिया को जिनसे सबसे ज्यादा खतरा है, वही समुदाय स्वदेशी होने के दावों पर खरे उतरते हैं. 1950 के दशक तक असमिया पहचान का निर्माण करते समय जनजातियों को, विशेष रूप से मैदानी इलाकों में रहने वाले लोगों को, असमिया पहचान के एक अभिन्न अंग के रूप में माना जाता था. ऐसा करना बाहरी लोगों के राज्य में आकर बस जाने को कम करने और असमिया बहुमत के निर्माण के लिए जरूरी था.
1960 के दशक में भाषा के आधार पर असमिया पहचान को दोबारा परिभाषित करने के लिए एक बदलाव किया गया, जिस कारण असम विधानसभा में राजभाषा विधेयक पेश किया गया था. कई असमिया जनजातियों ने राज्य में सभी की एक जैसी पहचान बनाने के इस प्रयास का विरोध किया और जल्द ही अपनी विशिष्ट भाषाई और सांस्कृतिक पहचान का दावा करने के लिए अपने स्वयं का आंदोलन शुरू कर दिए. इन आंदोलनों का प्रमुख उदाहरण क्षेत्रीय स्वायत्तता और भाषाई अधिकारों के लिए किया गया बोडो आंदोलन था. बीते कुछ वर्षों में यह जनजातियां असमिया जाति के संबंध में अपने स्थान को लेकर लगातार समझोते करती रही हैं. हालांकि उन्होंने असम में हिंदी और बंगाली को थोपने के खिलाफ चले असमिया आंदोलन का समर्थन किया है, जिससे असमिया पहचान बनाने की प्रक्रिया में मदद मिली, लेकिन उनकी अपनी भाषा और सांस्कृतिक विरासत लगातार उदासीनता और उपेक्षा के कारण हाशिए पर पहुंच गई है.
असमिया राष्ट्रवाद को लेकर बने एकीकरण के विचारों के कारण असमिया जनजातियां आज भी हाशिए पर ही मौजूद हैं. 2021 के राज्य विधानसभा चुनाव के पहले चरण से केवल दस दिन पहले, 17 मार्च को असम शिक्षा बोर्ड ने एक अधिसूचना जारी की जिसमें दसवीं कक्षा तक छात्रों के लिए असमिया भाषा को अनिवार्य कर दिया. कई मीडिया संगठनों ने इसे 2019 के नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ व्यापक गुस्से को शांत करने के प्रयास के तौर पर पेश किया. जिससे असम के राष्ट्रवादियों को डर था कि इससे असम की जनसांख्यिकी और भाषाई प्रभुत्व हाशिए पर आ जाएगा. अधिसूचना में बराक घाटी, जहां बंगाली बोली जाती है, बोडो प्रादेशिक परिषद के तहत आने वाले क्षेत्रों और संविधान की छठी अनुसूची के तहत क्षेत्रों को छूट दी गई है, लेकिन कई अन्य क्षेत्र बड़े पैमाने पर असमिया जनजातीय आबादी वाले नहीं हैं.
एसईबीए के नाम से पहचाने जाने वाले असम के माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने 12 अप्रैल को एक परिपत्र जारी किया जिसमें स्पष्ट किया गया कि हाई स्कूल के छात्रों के पास विकल्प के तौर पर पढ़ने और आवश्यक आधुनिक भारतीय भाषा के विषय के रूप में असमिया का अध्ययन करने का विकल्प होगा. यह काफी हद तक एक लीपा-पोती वाला बदलाव है, जबकि असमिया भाषा की परीक्षा के अंक बच्चों के साल के आखिर में आए परिणाम में नहीं जोड़े जाएंगे. फिर भी बच्चों के लिए परीक्षा और पाठ्यक्रम अनिवार्य है.
इस घोषणा के बाद असम उच्च माध्यमिक शिक्षा परिषद के अध्यक्ष दयानंद बोरगोहेन की प्रतिक्रिया को समाचार चैनल असम लाइव 24 ने विस्तार से बताया था, जिसमें उन्होंने कहा कि इस फैसले का विरोध मुख्य रूप से बंगाली भाषा बोलने वालों की तरफ से ही किया जा रहा था. उन्होंने कहा, “अगर सिलचर में रहने वाले बंगाली असमिया भाषा से प्यार नहीं करते हैं, तो उन्हें यहां से चले जाना चाहिए और एक अलग राज्य बनाना चाहिए. वे बंगाल जा सकते हैं. जो लोग मेरी आलोचना करेंगे, उन्हें करने दें. मुझे इसकी कोई परवाह नहीं है. एसईबीए के अध्यक्ष आरसी जैन का जिक्र करते हुए बोरगोहेन ने कहा, “अध्यक्ष अपना उपनाम जैन लिखते हैं. उन्हें यह साबित करना होगा कि वह असम और उसकी भाषा से प्यार करते हैं. अगर वह असम के राष्ट्रवादी कवि और मारवाड़ी समुदाय से आने वाले फिल्म निर्माता, ज्योति प्रसाद अग्रवाल के वंश से हैं, तो यह ठीक है. लेकिन अगर वह केवल जैन हैं तो उन्हें अपनी वफादारी साबित करनी होगी." असम के आदिवासी समुदायों से जुड़ी चिंताएं असमिया राष्ट्रवाद, बंगाली पहचान और शुद्ध भारतीय होने के बीच के संघर्ष में दब कर रह जाती हैं.
इस तरह के प्रयासों से जनजातीय समुदायों की संस्कृति और पहचान पर पड़ने वाले प्रभावों पर मीडिया में चर्चा बहुत कम होती है. मीडिया की मौजूदा व्यवस्था ने एक ऐसे चलन को बनाए रखा है, जहां जनजातियों को असमिया संस्कृति के विस्तार या सिर्फ किसी भाग से पहचाना जाता है और जो उनकी विशिष्ट पहचान और संस्कृति पर कोई प्रकाश नहीं डालती. अपनी मातृभाषाओं को भाषाई मान्यता दिलाने और शिक्षा के लिए जनजातीय संघर्षों को न ही उचित मीडिया कवरेज मिलता है और न ही असमिया पहचान पर एकाधिकार का दावा करने वाले सांस्कृतिक और राजनीतिक समूहों की तरफ से कोई समर्थन.
मिसिंग आदिवासी समुदाय के लंबे संघर्ष के बाद 1985 में असम सरकार ने मिसिंग बहुसंख्यक क्षेत्रों में तीसरी और चौथी कक्षा के छात्रों के लिए मिसिंग भाषा को एक अतिरिक्त विषय के रूप में पढ़ाने के लिए एक गजट अधिसूचना जारी की. साथ ही इसे प्राथमिक शिक्षा के लिए शिक्षण का माध्यम भी बनाया गया था. इसके बाद राज्य सरकार को मिसिंग भाषा के शिक्षकों की नियुक्ति, किताबों का मिसिंग भाषा में अनुवाद कराना और मिसिंग पाठ्यपुस्तकों को जारी करने जैसे अनेक कार्यों को करना था. हालांकि, 1994 तक केवल 230 शिक्षकों की ही नियुक्ति की गई थी जिसके बाद पूरी प्रक्रिया ठप पड़ गई. मिसिंग भाषा को शिक्षण के माध्यम के रूप में पेश करने पर सहमती जताने वाले खंड को कभी गंभीरता से नहीं लिया गया.
जनगणना के आंकड़ों से पता चलता है कि यदि राज्य सरकार अपनी वर्तमान नीति पर इसी तरह चलती रही तो असम की आदिवासी भाषाओं का तेजी से विलुप्त होना जारी रहेगा. उदाहरण के लिए, 2001 की जनगणना में मिसिंग जनजाति की भाषा बोलने वालों की संख्या में 41.13 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई थी. 2011 की जनगणना तक यह सिर्फ 14.28 प्रतिशत थी. इसी तरह देवरी भाषा भी 56.19 प्रतिशत से गिरकर 15.79 प्रतिशत तक आ गई. इन दो जनगणनाओं के बीच राभा भाषा बोलने वालों की संख्या खतरनाक रूप से गिरकर 18.23 प्रतिशत के मुकाबले नकारात्मक 15.04 प्रतिशत तक रह गई. सोनोवाल-कचरी और तिवास जैसी अन्य जनजातियां लगभग पूरी तरह से अपनी भाषा खो चुकी हैं.
असम में हिंसा की घटनाओं और उच्च जाति द्वारा नियंत्रित मीडिया ने जिन संदर्भों में उन्हें गढ़ा है वहीं से असमिया पहचान को लेकर लकीरें खिंचनी शुरू हो जाती हैं. यह सब मोटे तौर पर बस कुछ अल्पसंख्यक लोगों के राजनीति लक्ष्यों के साधने के लिए किया जाता है. जिन्हें अंग्रेजी और स्थानीय मीडिया दोनों में बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किया जाता है. मुख्यधारा की मीडिया असमिया पहचान को परिभाषित करते समय जनजातियों को असमिया समाज के साथ लगातार समझोते में बने रहने की एक अनोखी स्थिति में रखती है. असम के पूर्ण एकीकरण का अर्थ होगा वहां के अद्वितीय इतिहास और पहचान का गुम हो जाना. जबकि अलग-थलग करने का अर्थ होगा कि हम असमिया पहचान की सीमाओं में फंस गए हैं, जो वंचित समाज के और अधिक वंचित होने और हाशिए पर चले जाने का कारण बनेगा.