इंडिया टुडे ग्रुप : सत्ता पर बलिहारी

एलेस्ट्रेशन : राधिका दिनेश
एलेस्ट्रेशन : राधिका दिनेश

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इंडिया टुडे टीवी की संवाददाता तनुश्री पांडे ने 30 सितंबर 2020 को रात के 1.44 बजे ट्वीट किया, “गांव में बवाल मचा हुआ है. उत्तर प्रदेश पुलिस और अधिकारी करीबियों पर रात में ही दाह संस्कार करने का दबाव बना रहे हैं. परिवार की मांग है कि हमें कम से कम एक बार लड़की को घर ले जाने दें.”

पांडे उत्तर प्रदेश के हाथरस जिले के बूलगढ़ी गांव में थी. वहां दो हफ्ते पहले एक युवा दलित महिला के साथ प्रभावशाली ठाकुर जाति के चार पुरुषों ने बलात्कार किया था. इस घटना के बाद महिला लकवाग्रस्त हो गई थी और उसकी जीभ कट चुकी थी. उत्तर प्रदेश के अधिकारियों ने इस बर्बरता को नज़रअंदाज़ करने की कोशिश की, लेकिन जैसे-जैसे मामला सामने आया और लोगों में आक्रोश बढ़ता गया, उन्हें आरोपियों को गिरफ्तार करना पड़ा. जख्मी पीड़िता की 29 सितंबर को दिल्ली के एक अस्पताल में मौत हो गई थी. उसके शव को घर वापस लाया गया था.

उसी रात लगभग 3 बजे पांडे ने फिर ट्वीट किया, “बिल्कुल अविश्वसनीय. मेरे ठीक पीछे #HathrasCase पीड़िता की जलती हुई लाश है. पुलिस ने परिवार को उनके घर के अंदर बंद किया और बिना किसी को बताए शव को जला दिया.” ट्वीट के साथ लगी एक वीडियो में अंधेरे में एक अकेली चिता को जलते हुए देखा जा सकता है, जिसमें पुलिस पास खड़े कुछ लोगों को दूर रखे हुए है.

पांडे के ट्वीट जल्द ही वायरल हो गए, जिसने भारतीय जनता पार्टी के नेता अजय सिंह बिष्ट के नेतृत्व वाली उत्तर प्रदेश सरकार के संकट को और बढ़ा दिया. कई लोगों ने इस बात का पर्दाफ़ाश करने के लिए उनकी सराहना की. इस बीच बीजेपी इस अपराध की गंभीरता को हल्का करने में जुटी हुई थी. पार्टी के सूचना-प्रौद्योगिकी विभाग के प्रमुख अमित मालवीय ने पीड़िता का एक पुराना वीडियो, जिसमें वह हमले का वर्णन कर रही है, पोस्ट करते हुए सुझाव दिया कि उसका गला घोंटा गया था, लेकिन यह यौन हिंसा का मामला नहीं था. (ऐसा प्रतीत होता है कि मालवीय को परवाह नहीं थी कि बलात्कार पीड़िता की पहचान उजागर कर उनका वीडियो भारतीय कानून का उल्लंघन कर रहा है.) उत्तर प्रदेश पुलिस ने भी एक फोरेंसिक रिपोर्ट का हवाला देते हुए दावा किया कि पीड़िता के साथ बलात्कार नहीं हुआ था.

सरकार समर्थक ट्रोल्स और मीडिया आउटलेट्स ने पांडे के चरित्र और विश्वसनीयता पर हमले करने शुरू कर दिए. ऑपइंडिया ने उन पर आरोप लगाया कि उन्होंने पीड़िता के परिवार को यह कहने की सलाह दी थी कि वे उत्तर प्रदेश प्रशासन के दबाव में थे. यह आरोप पत्रकार और पीड़िता के भाई के बीच फोन पर हुई एक बातचीत की क्लिप पर आधारित था, जो लीक की गई थी. जल्द ही स्पष्ट हो गया कि इस बातचीत को संदर्भ से बाहर और गलत तरीके से पेश किया गया था.

पांडे के मीडिया हाउस ने सार्वजनिक रूप से उनका बचाव किया. संगठन ने अपने एक बयान में कहा, “इंडिया टुडे सबसे पहले यह पूछता है कि हाथरस हत्याकांड को कवर करने वाले हमारे रिपोर्टर का टेलीफोन क्यों टैप किया जा रहा था?” और अगर भाई के फोन से छेड़छाड़ की गई, तो “सरकार को यह जवाब देना होगा कि पीड़ित परिवार के सदस्यों के फोन उनकी निगरानी में क्यों हैं?” बयान में आगे कहा गया, “पीड़ित परिवार को सरकारी दबाव और धमकियों के खिलाफ बोलने के लिए राजी करना एक दृढ़ पत्रकार के दायित्व का हिस्सा है.”

लेकिन संगठन के भीतर कुछ और ही खिचड़ी पक रही थी. इंडिया टुडे समूह के एक पूर्व कर्मचारी ने मुझे बताया कि पांडे ने ट्विटर पर जबरन किए गए अंतिम संस्कार के बारे में पोस्ट करने से पहले एक साझा व्हाट्सएप समूह में अपने संपादकों को हाथरस की घटनाओं के बारे में सतर्क करने की कोशिश की थी. पूर्व कर्मचारी ने बताया, “लेकिन किसी ने तब तक उनका जवाब नहीं दिया,” जब तक कि इस कहानी से विस्फोट नहीं हुआ. चैनल को आखिरकार उनकी बात का संज्ञान लेना पड़ा, खासकर जब विपक्षी कांग्रेस पार्टी के राहुल गांधी ने पांडे के दाह संस्कार वाले वीडियो को साझा किया. 

इंडिया टुडे टीवी और उसके सहयोगी चैनल आज तक के समाचार निदेशक राहुल कंवल ने पांडे को निर्देशों के लिए सुबह तक इंतजार किए बिना ट्वीट पोस्ट करने के लिए फटकार लगाई. पांडे पर इस ख़बर को ब्रेकिंग न्यूज़ बनाकर इंडिया टुडे के चैनलों के लिए उच्च रेटिंग प्राप्त करने के अवसर को गंवाने का आरोप लगाया गया. पूर्व कर्मचारी कहते हैं, “संगठन ने उन्हें आड़े हाथों लिया. एक गैंगरेप पीड़िता का जबरन दाह-संस्कार किया जा रहा था और वे चाहते थे कि वो सुबह तक इंतज़ार करती, ताकि फुटेज पर चैनल का लोगो लगाया जा सके.” 

हाथरस से तनुश्री पांडे के खुलासे के बाद इंडिया टुडे ग्रुप ने सार्वजनिक रूप से अपने संवाददाता का बचाव किया. लेकिन संगठन के भीतर एक अलग कहानी चल रही थी.

पांडे को जल्द ही वापस दिल्ली बुलाया गया और उन्हें ऑफ-एयर कर दिया गया. उनसे कहा गया कि इतने मुश्किल हालातों से गुजरने के बाद उन्हें थोड़ा आराम करना चाहिए. पूर्व कर्मचारी ने बताया कि इसके बाद इंडिया टुडे ने पांडे की जगह श्वेता सिंह सहित आजतक के कई लोकप्रिय एंकरों को कहानी का “दूसरा पक्ष” प्रस्तुत करने के लिए हाथरस भेजा. श्वेता ने प्रभावशाली जाति के ग्रामीणों का साक्षात्कार लिया, जिन्होंने पीड़ित परिवार के बयान पर संदेह जताया और आरोप लगाया कि इस घटना को बीजेपी विरोधी दलित-अधिकार संगठन भीम आर्मी द्वारा गढ़ा गया था.

पूर्व कर्मचारी ने कहा कि लीक हुई फोन बातचीत के बाद पांडे के समर्थन में इंडिया टुडे का बयान महज एक पीआर रणनीति थी. “आम जनता तनुश्री के पक्ष में थी,” इसलिए “उन्हें एक अच्छा प्रभाव बनाने के लिए निर्णायक दिखना पड़ा. नहीं तो वे उसे बाहर निकाल देते.” इसके साथ ही पांडे को शहीद बना देने का जोखिम भी था, जिससे उन्हें अधिक जन-सहानुभूति और तवज्जो मिलती.

2021 के वसंत में जब पांडे को हाथरस में अपने काम के लिए पुरस्कार मिले, तो इंडिया टुडे ने गर्व से उनका समर्थन किया. उस दौरान उन्हें असम में राज्य चुनाव कवर करने के लिए भेजा गया. चैनल के संपादकों का मानना था कि दर्शकों का इस ओर ज़्यादा ध्यान नहीं जाएगा. लेकिन पांडे यहां से भी एक बड़ी ख़बर लाने में सफल हुई. उन्होंने एक हलफनामे पर रिपोर्ट करते हुए दिखाया कि चोरी की वोटिंग मशीनों के साथ पकड़ा गया वाहन एक बीजेपी उम्मीदवार का है. पूर्व कर्मचारी बताते हैं, “एक बार फिर से बीजेपी नाराज हो गई. और बीजेपी के नाराज होने का मतलब था कल्ली पुरी का नाराज होना.” कल्ली इंडिया टुडे ग्रुप की वाइस चेयरपर्सन हैं.

पांडे को असम कवरेज से हटा दिया गया. उन्हें एक हिंदी डिजिटल पोर्टल लल्लनटॉप में स्थानांतरित कर दिया गया. समाचार टेलीविजन के लिए खोजी पत्रकारिता करने वाले एक पत्रकार के लिए यह एक क़िस्म की पदावनति थी. उन्होंने जल्द ही इंडिया टुडे ग्रुप छोड़ दिया.

2019 और 2021 के बीच आज तक वेबसाइट में सब-एडिटर रहे श्याम मीरा सिंह ने याद किया कि हाथरस से पांडे के खुलासे से न्यूज़रूम में खलबली मच गई थी. उन्होंने बताया, “आजतक को ये कहानी चलाने पर मजबूर होना पड़ा. उन्हें लगा कि ये तो गड़बड़ हो गई है क्योंकि कहानी योगी जी के खिलाफ है. (उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बिष्ट, जो खुद को “योगी आदित्यनाथ” के रूप में पेश करते हैं) तो चैनल ने अपने लोगों को हाथरस भेजा, ताकि कहानी में ठाकुरों के पक्ष को भी दिखाया जाए.”

आरोपी पुरुषों के समर्थकों के बीच खड़े होकर श्वेता सिंह ने कहा, “यहाँ भी न्याय की लड़ाई लड़ी जा रही है. यह लड़ाई यह पूछने के लिए लड़ी जा रही है कि क्या आरोपी लड़के वास्तव में दोषी हैं?” जैसे-जैसे मामला तूल पकड़ता गया, बिष्ट (जो ख़ुद ठाकुर हैं और अपने समुदाय का विशाल जन-समर्थन साथ लेकर चलते हैं) के नेतृत्व वाली उत्तर प्रदेश सरकार विपक्षी नेताओं को पीड़ित के परिवार से मिलने से जबरन रोकने लगी. श्वेता, जो ग्रामीणों की भावनाओं को आवाज़ देने का दावा कर रही थी, ने घोषित किया, “इस पर राजनीति अब बंद होनी चाहिए. राजनीतिक नेताओं को यहां नहीं आना चाहिए. उन्हें ऐसा इसलिए नहीं करना चाहिए ताकि ग्रामीण एक साथ अपने जीवन में आगे बढ़ सकें.”

आजतक में आने से पहले श्याम ने लल्लनटॉप में इंटर्नशिप की थी. उन्होंने बताया, “लल्लनटॉप में सभी को यह स्पष्ट था कि अमित शाह और नरेंद्र मोदी का नाम कभी भी हेडलाइन में नहीं आना चाहिए.” वर्तमान गृहमंत्री शाह मोदी के करीबी और सबसे पुराने सेवारत वफ़ादार हैं. “एक संपादक ने मेरी उपस्थिति में कहा था कि उन्हें पीएमओ से फोन आते हैं.”

उन्होंने पाया कि बीजेपी के चहेते सपूतों के प्रति आजतक का दृष्टिकोण भी कुछ ज़्यादा अलग नहीं था. श्याम ने बताया, “अगर आप योगी जी पर कुछ लिखना चाहते हैं, तो आपको ऐसा लगेगा कि आपके हाथ कटे हुए हैं.” उन्होंने वर्णन किया कि कैसे उन्होंने एक बार उत्तर प्रदेश सरकार के कर्मचारियों द्वारा विलंबित वेतन का विरोध करने के बारे में एक लेख अपलोड किया था. उन्होंने कहा कि उन्होंने इसमें बिष्ट की एक तस्वीर शामिल की थी, लेकिन उन्हें इसे हटाने के लिए कहा गया. “इस तर्क के साथ कि योगी का इस मुद्दे से कोई लेना-देना नहीं है.”

जुलाई 2021 में श्याम ने ट्विटर पर पोस्ट किया, “मैं यह लिखने से पीछे नहीं हटूंगा कि मोदी एक बेशर्म प्रधानमंत्री हैं.” अगले ही दिन इंडिया टुडे ग्रुप ने उन्हें “पिछली चेतावनियों के बावजूद सोशल मीडिया के उल्लंघन जारी रखने” का हवाला देते हुए नौकरी से निकाल दिया. समूह ने एक आचार संहिता की ओर इशारा किया, जो कर्मचारियों को केवल इंडिया टुडे द्वारा प्रकाशित समाचारों को साझा करने के लिए सोशल मीडिया का उपयोग करने की सलाह देता है.

2019 में इंडिया टुडे ग्रुप के कर्मचारियों को कल्ली का एक ईमेल मिला, जिसमें सोशल मीडिया पर अपनी व्यक्तिगत राय व्यक्त करने से बचने की सलाह दी गई थी. कल्ली ने लिखा, “मैं इस बात की सराहना करती हूं कि हम सभी लोग ज्यादातर चीजों के बारे में दृढ़ राय रखते हैं. लेकिन कृपया याद रखें कि इस नौकरी में हमें कहानीकार बनना है. हम खुद अपनी कहानी का हिस्सा नहीं हो सकते.” कल्ली ने जोर देकर कहा कि इंडिया टुडे को एक कहानी के सभी पक्षों को प्रस्तुत करना चाहिए और किसी एक का पक्ष नहीं लेना चाहिए. “ये हमारी पहचान नहीं है.”

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1976 के अंत में इंडिया टुडे ने पूरे वर्ष की समीक्षा करते हुए एक विशेष अंक प्रकाशित किया था. इंदिरा गांधी सरकार का आपातकाल अपने उन्नीसवें महीने में प्रवेश कर चुका था: नागरिक स्वतंत्रता निलंबित थी, प्रेस पर रोक थी, प्रधानमंत्री के हजारों विरोधी जेल में थे, और गांधी और उनके बेटों संजय और राजीव सहित उनके खास लोगों के पास अत्यधिक शक्तियां केंद्रित थी. अपना एक वर्ष पूरा कर चुकी इस युवा पाक्षिक पत्रिका ने उस समय ऐसे गंभीर विषयों से दूरी रखना ही बेहतर समझा.

“द लाइटर साइड ऑफ 1976” नामक एक फीचर में पूरी दुनिया (भारत को छोड़कर) से मनोरंजक समाचारों के अंश संकलित किए गए; एक अन्य फीचर में 1977 के लिए बॉम्बे की एक फैशनिस्टा की भविष्यवाणियों को छापा गया (“ये साल होगा पसंद की आज़ादी का, स्टाइल की आज़ादी का.”) संपादक अरुण पुरी ने अपने एक नोट में “देश के नेताओं द्वारा की गई उस साहसिक और निर्णायक पहल” की सराहना की, जो “पुरातन दृष्टिकोणों और धार्मिक विश्वासों, स्थापित सत्ता अभिजात वर्ग, तस्करों, गैर जिम्मेदार प्रेस, पुराने संविधान, गलत प्राथमिकताओं और अन्य सभी अवरोधक तत्वों के पारम्परिक ढाँचों के बड़े तबके को नष्ट करने में सफल रही.”

इंडिया टुडे से संबंधित वरिष्ठ नाम अरुण पुरी के प्रयोगात्मक संपादकीय दृष्टिकोण, बारीकी पर ध्यान देने के कौशल और उनकी अपने कर्मचारियों के लिए आसानी से उपलब्ध रहने जैसी आदतों को याद करते हैं. रमेश मेनन कहते हैं, “वह एक प्रशिक्षित पत्रकार नहीं थे. लेकिन उन्होंने पत्रकारिता सीखी.” बीसीसीएल

अगर यह अरुण के नज़रिए से एक जिम्मेदार प्रेस का आदर्श था, तो वह जल्द ही इससे हटकर कुछ अलग करने वाले थे. मार्च 1977 में इंदिरा के प्रधानमंत्री पद से हटने के साथ ही आपातकाल समाप्त हो गया. वरिष्ठ पत्रकार परंजॉय गुहा ठाकुरता, जो बाद के वर्षों में इंडिया टुडे के संवाददाता थे, ने मुझे बताया, “यह कुछ ऐसा था जैसे बुलबुलों से भरी बोतल का कॉर्क निकाल दिया गया हो. अचानक से गुणवत्तापूर्ण पत्रकारिता का उफान आ गया था.” पत्रिका ने संजय गांधी की अध्यक्षता वाली मारुति मोटर्स लिमिटेड में वित्तीय अनियमितताओं का ब्यौरा देते हुए जांच की, कि कैसे कंपनी ने कई स्थापित वैश्विक ऑटोमोटिव फर्मों को दरकिनार करते हुए भारत में “लोगों की गाड़ी” बनाने का अनुबंध अपने नाम किया था. लेख में कहा गया, “यह कहानी है मारुति की. एक छोटी गाड़ी, जो बड़ी ख़बर बनी. उस बिगड़ैल बच्चे की कहानी, जो एक ऐसी गाड़ी बनाने की जिद पकड़कर बैठा है, जिसे वो बना नहीं सकता.”

1983 की गर्मियों में राजस्थान में जोधपुर के पास एक गांव सोलंकिया तला में भूख से सात लोगों की मौत की खबर आई. रमेश मेनन, जो तब इंडिया टुडे के एक युवा संवाददाता थे, ने खुद इस क्षेत्र की यात्रा की. मेनन ने याद करते हुए बताया, “मुझे लगा कि एक गांव में बीस से अधिक लोग मारे गए हैं, इसलिए यह एक बड़ी स्टोरी है.” उन्हें इस स्टोरी को अगले अंक में फाइल करने के लिए दिल्ली में पत्रिका के कार्यालय लौटने के लिए कहा गया. मेनन बताते हैं कि उनकी स्टोरी को देखने वाले हर संपादक ने उन्हें अपनी रज़ामंदी दी. लेकिन स्टोरी के प्रेस में जाने से पहले उसे अरूण की मंजूरी मिलना अनिवार्य था. 

मेनन बताते हैं, “उन्होंने मुझे बुलाया और कहा, ‘देखो, मुझे स्टोरी समझ में नहीं आई.’” अरुण ने कहा कि मेनन ने सोलंकिया तला के आसपास के गांवों पर कोई रिपोर्टिंग नहीं की थी. संपादक ने रिपोर्टर को चुनौती दी: “आप किस तरह के पत्रकार हैं?”

मेनन वापस गए और अन्य गांवों का दौरा किया. वह बताते हैं, “मैंने गिनना बंद कर दिया कि कितने लोगों की मौत हुई थी.” वह समूचे क्षेत्र में भूख से हुई सैकड़ों मौतों की कहानी लेकर लौटे. इंदिरा गांधी, जो तब तक प्रधानमंत्री कार्यालय में वापस आ चुकी थी, ने सूखा प्रभावित क्षेत्रों का निरीक्षण करने के लिए राजस्थान का दौरा किया था. अरुण ने मेनन के लेख की प्रस्तावना में लिखा, “सूखा प्रभावित ग्रामीणों के लिए श्रीमती गांधी की सहानुभूति और अधिक होती, अगर राज्य के अधिकारी उन्हें दूरदराज के उन इलाकों में ले जाते, जहां हाल ही में इंडिया टुडे के संवाददाता रमेश मेनन गए थे.”

1985 में इंडिया टुडे की दसवीं वर्षगांठ तक अरुण सरकार की ख़िलाफत से संतुष्ट नज़र आ रहे थे. उन्होंने लिखा कि पत्रिका की शुरुआत से “हमें राष्ट्र-विरोधी (श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा), सत्ता-समर्थक (राजीव गांधी के संबंध में), सरसरी पत्रकारिता (मुद्दों की सतह पर रहना), बहुत गंभीर और अत्यधिक राजनीतिक आदि कई नामों से बुलाया गया है.” लेकिन “बहुत से फूल भी हमारे नाम आए हैं, क्योंकि इंडिया टुडे ने पाठकों की बढ़ती स्वीकार्यता हासिल की है.” अरुण ने बताया कि पांच हजार पाठकों से शुरू हुई पत्रिका अब सैकड़ों हजारों की संख्या तक बढ़ चुकी थी. इस सफर में इंडिया टुडे ने अपने कवर पर टाइम पत्रिका के प्रतिष्ठित लाल फ्रेम से मिलता-जुलता प्रतीकात्मक लाल बॉर्डर भी चस्पा कर दिया था.

इंडिया टुडे ने आपातकाल के बाद इंदिरा गांधी (बीच में) और मारुति मोटर्स लिमिटेड सहित कई विषयों पर प्रभावी स्टोरी प्रकाशित की. पत्रकार परंजॉय गुहा ठाकुरता कहते हैं, “यह कुछ ऐसा था जैसे बुलबुलों से भरी बोतल का कॉर्क निकाल दिया गया हो. अचानक से गुणवत्तापूर्ण पत्रकारिता का उफान आ गया था.” रघु राय / इंडिया टुडे ग्रुप / गेटी इमेजेज़

इंडिया टुडे अपने सुनहरे दौर की ओर बढ़ रहा था. पत्रिका में दशकों बिताने वाले संपादक दिलीप बॉब ने मुझे बताया, “समाचार पत्रिका के क्षेत्र में वास्तव में हमारे लिए कहीं कोई प्रतिस्पर्धा नहीं थी. इलस्ट्रेटेड वीकली और सेमिनार पत्रिकाएं अधिक फीचर-उन्मुख थी. वहीं इंडिया टुडे प्रारूप, लेखन शैली और पत्रकारिता में समकालीन था.” उन्होंने कहा कि इसका मतलब केवल समाचारों की रिपोर्टिंग करना नहीं, बल्कि ऐसी सामग्री पर ज़ोर देना था जिसमें “गहराई, विश्लेषण और कड़ी मेहनत हो. और भारतीय मीडिया में पहले कभी ऐसा कुछ नहीं देखा गया था.” शुरू में संपन्न अनिवासी भारतीयों तक सीमित इंडिया टुडे जल्द ही घरेलू पैसे वाले अभिजात वर्ग की पसंदीदा पत्रिका बन गई. इसमें पत्रिका के कर्मियों की भी बड़ी भूमिका थी, जो बड़े पैमाने पर एक ही वर्ग से थे और उस वर्ग के पाठकों की अच्छी समझ रखते थे. (उदाहरण के लिए, यहां फैशनपरस्त लेखकों के लिए हमेशा पर्याप्त जगह रही.) लेकिन इंडिया टुडे के लिए समय भी अनुकूल रहा.

1980 के दशक में सत्ता की सीढ़ियां चढ़ रहे राजीव गांधी ने एक युवा भारत के विचार को आगे बढ़ाया, जो पुराने तौर-तरीकों से बाहर निकल रहा था. इंडिया टुडे ने यकीनन उस समय के किसी भी अन्य मीडिया संगठन की तुलना में इस भावना को बेहतर ढंग से मूर्त रूप दिया और पाठकों और विज्ञापनदाताओं को अपनी ओर आकर्षित किया. 1990 के दशक और आर्थिक उदारीकरण तक यह पत्रिका आदर्श रूप से एक ऐसे बाजार के लिए तैयार हो चुकी थी, जो पहले से कहीं अधिक जानकारी, चुनाव और उपभोग की लालसा रखता था. इंडिया टुडे ने किसी भी भाषा में देश की सबसे अधिक पढ़ी जाने वाली पत्रिका के रूप में अपना प्रभुत्व स्थापित किया और आज तक उस सिंहासन पर काबिज है. इसकी वर्तमान पाठक संख्या की गणना 10 मिलियन तक आंकी जाती है. इसके बाद दूसरा स्थान भी इसी नाम से प्रकाशित होने वाली हिंदी की साथी पत्रिका का है.

इस सहस्राब्दी की शुरुआत में आज तक के माध्यम से इंडिया टुडे ग्रुप ने निजी टेलीविज़न समाचार में भी प्रवेश किया. ये अवसर भी उदारीकरण की ही एक देन था. आज तक ने जल्द ही लाभप्रदता और प्रभाव में इंडिया टुडे को पीछे छोड़ दिया. इसने इंडिया टुडे ग्रुप को उस विशालकाय मीडिया में तब्दील किया, जिसे आज हम जानते हैं.

लेकिन इंडिया टुडे की पत्रकारिता में यह सब अरुण पुरी के नेतृत्व के बिना संभव नहीं होता. मेनन ने मुझे बताया, “वह प्रशिक्षित पत्रकार नहीं थे. लेकिन उन्होंने पत्रकारिता सीखी. किसी स्टोरी पर उनके सवाल दिलचस्प होते थे. वो एक कामकाजी संपादक थे.” 1990 के दशक के अंत में इंडिया टुडे में संवाददाता रहे सलिल त्रिपाठी अरुण को एक फोरेंसिक एकाउंटेंट के रूप में याद करते हैं. त्रिपाठी ने बताया, “हर अंक के छपने से पहले वह देर रात तक कार्यालय में ही रहते थे. वो हर पन्ने को पलटते और उस बिंदू को ढूँढते जिसे ढूँढने में रिपोर्टर ने कोताही बरती होती.” (सूचना: त्रिपाठी कारवां में योगदान देने वाले संपादक हैं.) अगर अरुण प्रेस में जाने वाले किसी भी आलेख से संतुष्ट नहीं होते थे, तो उसे रोक दिया जाता था. त्रिपाठी बताते हैं कि किसी भी स्टोरी की प्रासंगिकता सर्वोपरि होती थी. अरुण हमेशा किसी भी पिच के जवाब में पूछते थे, “इस समय क्यों?”

पत्रिका में काम करने वाले कई अन्य लोगों ने मुझे अरुण के व्यावहारिक संपादकीय दृष्टिकोण, बारीकी पर ध्यान देने के कौशल और अपने कर्मचारियों के लिए आसानी से  उपलब्ध रहने की आदत के बारे में बताया. उन्होंने बताया कि पत्रिका में उन्हें किसी भी अच्छी स्टोरी की पड़ताल करने की आज़ादी थी, यात्रा और आवास के लिए उदार प्रावधान थे और समाचार के क्षेत्र में किसी से भी उपहार या सिफ़ारिश स्वीकार करने पर सख्त प्रतिबंध था. इंडिया टुडे ने कई प्रतिभाओं को जन्म दिया, जिन्होंने आगे चलकर राष्ट्रीय समाचार पत्रों और चैनलों का नेतृत्व किया. यहां के पूर्व सदस्य भारतीय मीडिया परिदृश्य में प्रमुखता से मौजूद हैं. जैसा कि इंडिया टुडे के एक पूर्व संवाददाता ने मुझसे कहा, “अगर आप वहां काम करते थे, तो पत्रकारों के पदानुक्रम में आपका दर्जा ब्राह्मण का था.”

पत्रकारिता की गुणवत्ता पर अरूण का जोर जितना उल्लेखनीय था, उतनी ही सावधानी से वो देश की परिवर्तनशील राजनीति को भांपते थे. एक पूर्व पत्रिका संवाददाता ने अरुण के राजनीतिक झुकाव को लचीला बताया. उन्होंने कहा, “वह प्रेयरी घास की तरह हैं- जहां हवा चलती है, घास वहीं चली जाती है." कई अन्य पूर्व कर्मचारियों का मानना है कि इंडिया टुडे कभी भी एक प्रतिष्ठान-विरोधी प्रकाशन न होते हुए ज़्यादा से ज़्यादा बस एक मध्यवर्ती मत वाला संगठन था. 

हिंदी पत्रिका के एक पूर्व संपादक ने मुझे बताया कि इंडिया टुडे की स्थापना से ही “सभी राज्यों की राजधानियों, यहां तक कि दिल्ली ब्यूरो के पत्रकारों को भी, सरकार के साथ किसी न किसी तरह के मधुर संबंध रखने पड़ते थे.” अरूण ने विभिन्न वैचारिक झुकावों और राजनीतिक संबंधों वाले प्रतिस्पर्धी संपादकों और पत्रकारों का एक समूह बनाया, जिससे उन्हें विविध दिशाओं की ओर रूख करने में सुविधा मिलती थी. पूर्व संपादक ने मुझे बताया कि अरुण बदलती सरकारों के साथ तालमेल बिठाने के लिए प्रकाशन के समीकरण बदलते रहते थे. उन्होंने कहा, “उन्हें जैसे ही बाज़ी पलटने की भनक लगती, वो नई उभरती हुई शक्ति के हिसाब से बदलाव करने लगते. यही इस पत्रिका की मूलभूत विचारधारा है.”

यही विचारधारा इंडिया टुडे समूह की पत्रिकाओं और ऑनलाइन उद्यमों से लेकर टेलीविजन चैनलों तक में व्याप्त है. इसका एक स्पष्ट उदाहरण है समूह द्वारा नरेंद्र मोदी के गुजरात कार्यकाल से लेकर वर्तमान तक उनकी कवरेज. अप्रैल 2002 में गुजरात में बड़े पैमाने पर मुस्लिम विरोधी हिंसा के तुरंत बाद इंडिया टुडे ने अपने कवर पेज पर मोदी को “घृणा के नायक” के रूप में चित्रित किया. अगले ही साल मोदी इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में एक सम्मानित अतिथि थे. यह कॉन्क्लेव मीडिया हाउस के अमीर और शक्तिशाली लोगों की कमाऊ वार्षिक वार्ता है. 

2014 के आम चुनाव की पूर्व संध्या पर, जिसमें मोदी राष्ट्रीय सत्ता में आए, इंडिया टुडे ने तत्कालीन प्रधानमंत्री कांग्रेस के मनमोहन सिंह के कार्यकाल पर एक आलोचनात्मक स्टोरी  छापी, जिसके साथ पत्रकार और पूर्व मनमोहन सहयोगी संजय बारू की एक चोट करने वाली किताब के कुछ अंश भी थे. पत्रिका के कवर पर लिखा था, “मनमोहन सिंह क्यों फेल हुए.” लेकिन जब बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की बात आई, तो पत्रिका की ओर से इस तरह की आलोचनात्मक कुशाग्रता नदारद दिखी. इसी अंक में इंडिया टुडे के उदय माहुरकर की उस किताब के अंश भी शामिल थे, जिसमें वे मोदी की खुशामदी करते नजर आते हैं. लंबे समय तक गुजरात में पत्रिका के संवाददाता रहे माहुरकर, जिन्होंने अक्सर ऐसे मौक़ों पर मोदी का साक्षात्कार लिया है जब कई अन्य पत्रकार इसके लिए संघर्षरत थे, को 2020 में स्वयं प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाले एक पैनल द्वारा सूचना आयुक्त नियुक्त किया गया था.

माहुरकर ने इंडिया टुडे में 2002 की हिंसा के विषय में लिखते हुए गुजरात पुलिस और मोदी प्रशासन को मामले की जिम्मेदारी से अलग रखा था. उन्होंने लिखा, “यह स्पष्ट है कि पुलिस अप्रभावी थी. लेकिन क्या यह जानबूझकर किया गया था?” माहुरकर ने यह भी लिखा कि एक “धर्मनिरपेक्ष लॉबी” गोधरा ट्रेन आगजनी, “जो वास्तव में हिंसा का कारण थी”, को कमतर बताते हुए मुस्लिम विरोधी हिंसा को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रही थी. उसी अंक में प्रकाशित माहुरकर के साथ एक साक्षात्कार में मोदी भी यही राय ज़ाहिर करते हैं.

इंडिया टुडे ने 2002 में गुजरात हिंसा के बाद नरेंद्र मोदी को "घृणा का नायक" कहा. अगले ही साल मोदी इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में एक सम्मानित अतिथि थे.

मोदी इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में कुल छह बार उपस्थित रहे हैं, जिसमें वे दो बार प्रधानमंत्री के रूप में इसमें शामिल हुए. अन्य मीडिया घरानों द्वारा इसी तरह के आयोजनों में आमंत्रित किए जाने पर उन्होंने कम से कम दो मौकों पर उन्हें अनुशासित किया है. मोदी ने 2017 में इकोनॉमिक टाइम्स के ग्लोबल बिजनेस समिट में अंतिम पलों में शामिल न होने का निर्णय लिया, जिससे सभा अपने मुख्य अथिति से वंचित रह गई. इसके बाद अख़बार ने सरकार की आलोचना करने वाले एक पत्रकार को काम से निकाल दिया और टाइम्स समूह के तहत एक रेडियो स्टेशन ने प्रधानमंत्री की तर्ज पर बने एक स्पूफ को हटा लिया. उसी वर्ष हिंदुस्तान टाइम्स ने अपने संपादक बॉबी घोष के संस्थान छोड़ने की घोषणा की और देश भर में घृणा-अपराधों का आंकड़ा तैयार कर रही एक परियोजना को बंद कर दिया. हिंदुस्तान टाइम्स लीडरशिप समिट में प्रधानमंत्री की भागीदारी पर चर्चा करने के लिए मोदी और एचटी मीडिया की चेयरपर्सन शोभना भारतीय के बीच एक बैठक हुई. लेकिन मोदी और इंडिया टुडे ग्रुप के बीच इस तरह के टकराव के कोई संकेत नहीं मिलते हैं.

आज तक, जिसे कभी हिंदी टेलीविजन पत्रकारिता का स्वर्ण मानक माना जाता था, आज सर्वव्यापी हिंदुत्व और बीजेपी समर्थक हिंदी चैनलों से अलग नजर नहीं आता. इस वर्ष गर्मियों में आजतक ने जोरों-शोरों से एंकर सुधीर चौधरी का स्वागत किया, जो प्रतिद्वंद्वी ज़ी न्यूज़ चैनल के प्रभारी के रूप में मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने और फर्जी वीडियो प्रसारित करने के लिए कुख्यात रहे हैं. हेडलाइंस टुडे, जो बाद में इंडिया टुडे टीवी बना, ने 2012 में बताया था कि चौधरी एक स्टोरी दबाने के लिए उद्योगपति नवीन जिंदल से पैसे की मांग करते हुए पकड़े गए थे.

चौधरी की नियुक्ति की घोषणा करते हुए कल्ली अपने कर्मचारियों को एक ई-मेल में लिखती हैं कि एंकर को “हर प्रतिष्ठित संस्थान से पुरस्कार” मिले हैं और आजतक “समाचारों के एक घरेलू नाम के लिए सहज घर” की तरह है. इसके साथ ही चौधरी इंडिया टुडे टीवी के उस व्यापक रोस्टर का हिस्सा बन गए, जिसमें कंवल, श्वेता सिंह, गौरव सावंत, शिव अरूर और अंजना ओम कश्यप सहित बीजेपी की जय-जयकार करने वाले तमाम प्रशंसक पहले ही मौजूद थे.

इंडिया टुडे टीवी खुद को आज तक या अंग्रेजी भाषा के अपने सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वियों, कट्टर दक्षिणपंथी टाइम्स नाओ और रिपब्लिक टीवी की तुलना में अधिक संतुलित चैनल के रूप में पेश करने की कोशिश करता है. इंडिया टुडे की मिश्रित राजनीतिक स्टाफिंग के पुराने ढर्रे पर चलते हुए यहाँ भी प्राइम-टाइम शो में अपेक्षाकृत उदार और खुले रूप से दक्षिणपंथी प्रस्तुतकर्ताओं का एक मिश्रण तैयार किया गया है. इंडिया टुडे ग्रुप के एक संपादक कहते हैं, “कल्ली के पास हर गौरव सावंत के बर-'अक्स एक उदार एंकर मौजूद है. आपको उनके पास हर शिव अरूर के समकक्ष कोई उदार एंकर मिल जाएगा.”

चैनल ने हाल ही में “किसी भी एजेंडे से रहित” “डेमोक्रेटिक न्यूज़रूम” नामक एक चर्चा शो का प्रीमियर किया. मीडिया हाउस के वर्णन के अनुसार इसमें मिले-जुले चेहरे “सप्ताह के शीर्ष विषयों पर चर्चा व बहस करते हैं और एक-दूसरे को चुनौती देते हैं.” वरिष्ठ संपादक आगाह करते हुए कहते हैं, “डेमोक्रेटिक न्यूज़रूम पूरी तरह से मार्केटिंग से प्रेरित अभ्यास है, जहां ऐसी धारणा बनाई जा रही है कि इंडिया टुडे एक तटस्थ समूह है.” इसमें चुने गए विषय अक्सर अहानिकर होते हैं. वास्तव में, “प्रबंधन द्वारा पहले से तय किया गया एजेंडा एकदम दक्षिणपंथी होता है.”

कई तबके मोदी के शासन- सत्ता के एकतरफा केंद्रीकरण, न्यायालयों के चरमराने, असंतोष और लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमले आदि को एक अघोषित आपातकाल के रूप में देखते हैं. ऐसे दौर में इंडिया टुडे समूह आपातकाल के वर्षों में पत्रिका द्वारा स्थापित उदाहरण से उल्टी दिशा में कदमताल कर रहा है. समय के इन दो महत्वपूर्ण बिंदुओं के बीच भले ही इंडिया टुडे की पत्रकारिता का ब्रांड सत्ता का नजदीक रहा हो, लेकिन उसे फिर भी भारतीय मीडिया के एक सकारात्मक उदाहरण के रूप में देखा जाता था. यह विरासत अब खोखली हो चुकी है.

2017 में चार दशक से भी अधिक समय तक इंडिया टुडे ग्रुप की बागडोर संभालने के बाद अरूण ने कल्ली को संगठन का वाइस-चेयरपर्सन नियुक्त करते हुए उन्हें प्रभावी नियंत्रण सौंप दिया. इंडिया टुडे के वरिष्ठ नाम, जिन्होंने पिता और बेटी दोनों के साथ काम किया है, दोनों की तुलना से यह समझाने की कोशिश करते हैं कि संगठन की वर्तमान दशा के प्रमुख कारण क्या हैं. इस बात पर आम सहमति है कि अपने पिता की तरह कल्ली भी अच्छी व्यावसायिक समझ रखती हैं और संगठन के हितलाभों को साधने में सक्षम हैं. उन्हें अपने पिता के विपरीत मन मुताबिक चलने और आसानी से उपलब्ध रहने के लिए नहीं जाना जाता. ऐसा नहीं है कि अरुण का मिजाज हमेशा एक जैसा रहता था. लेकिन, जैसा कि एक पूर्व कर्मचारी बताते हैं, लोग अरुण के प्रति अधिक नरम रहते थे क्योंकि वो भले ही “एक व्यवसायी थे, लेकिन एक पत्रकार भी थे.” कल्ली पत्रकार नहीं है और बहुत से लोग इस तथ्य को प्रमुखता देते हैं. एक पूर्व कर्मचारी मानते हैं कि वो ज्यादा से ज्यादा बस “यह जानती हैं कि समाचार को मनोरंजन के रूप में कैसे बेचना है.”

लेकिन इसके लिए सिर्फ कल्ली जिम्मेदार नहीं हैं. इंडिया टुडे ग्रुप की गुणवत्ता में गिरावट कल्ली को नियंत्रण सौंपे जाने से बहुत पहले की बात है. मूल रूप से यह आज भी अरुण द्वारा बनाया गया मीडिया हाउस है. वरिष्ठ पुरी, जिन्होंने आपातकाल के दौरान तानाशाही के गुणगान गाए थे, आज 45 साल बाद वर्तमान प्रधानमंत्री पर अपनी राय स्पष्ट कर चुके हैं. 2019 इंडिया टुडे कॉन्क्लेव, जिसकी अध्यक्षता मोदी ने की थी, में अरूण ने अपने स्वागत भाषण में कहा, “वह एक दूरदर्शी हैं. वह एक कर्ता हैं. वह एक निपुण वक्ता हैं. पत्रकारिता के अपने 44 साल के कार्यकाल में मैंने उनके जैसा नेता नहीं देखा.”

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इंडिया टुडे ग्रुप के एक शीर्ष अधिकारी राहुल कुमार शॉ पत्रकार पुष्प शर्मा से कहते हैं, “मैं आपको बता दूँ कि मैं सरकार का बहुत बड़ा समर्थक हूं.” दोनों दिल्ली के एक लक्ज़री होटल में मिल रहे थे और शॉ अनौपचारिक मूड में थे. वो इस बात से अनजान थे कि उन्हें कैमरे पर रिकॉर्ड किया जा रहा है. शर्मा आचार्य छत्रपाल अटल नामक चरित्र में थे- एक हिंदू धर्मगुरु, जो 2019 के आम चुनावों को प्रभावित करने का प्रयास कर रहा है. इन चुनावों में मोदी की बीजेपी सरकार अपना पहला कार्यकाल पूरा कर पुनः चुनाव की तैयारी में थी. यह रिकॉर्डिंग, जिसे बाद में ऑनलाइन पोर्टल कोबरापोस्ट द्वारा जारी किया गया, इंडिया टुडे और अन्य प्रमुख मीडिया घरानों पर स्टिंग की एक श्रृंखला का हिस्सा थी.

शर्मा ने आचार्य अटल के रूप में इंडिया टुडे ग्रुप से एक लुभावने व्यावसायिक प्रस्ताव के लिए संपर्क किया था. 275 करोड़ रुपए- लगभग 40 मिलियन डॉलर, या उस समय समूह के राजस्व के पांचवे हिस्से- के बदले में उनके सभी चैनलों और प्रकाशनों में आचार्य की इच्छा के अनुरूप एक विज्ञापन अभियान चलाया जाएगा. अटल ने अपने राजनीतिक पक्ष को नहीं छिपाया: इंडिया टुडे समूह के कर्मचारियों के साथ पहले की एक बैठक में उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत को “देव वाणी” कहा था. आचार्य ने एक अधिकारी को बताया, “मैं 'देव वाणी' शब्द का उपयोग करता हूं, जिसका अर्थ है 'ईश्वर के शब्द'. हम इसका उपयोग उस व्यक्ति को संबोधित करने के लिए करते हैं जो हमारे आरएसएस में सर्वोच्च है.” हिंदुत्व के मुख्य स्रोत और बीजेपी के मूल संगठन आरएसएस पर अक्सर हिंदू वोटों के लिए मुसलमानों और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ हिंसा भड़काने के आरोप लगते रहे हैं.

यह अभियान, जैसा कि अटल ने इंडिया टुडे के अधिकारियों को बताया, तीन चरणों में आगे बढ़ेगा. सबसे पहले समूह “हिंदुत्व वाइब्स” बनाने के लिए भगवद गीता के सीधे-सादे कुछ अंश चलाएगा. इसके बाद वे विपक्ष के राहुल गांधी, मायावती और अखिलेश यादव पर “पप्पू, बुआ और बबुआ” जैसे अपमानजनक उपनामों से हमला करते हुए ऐसे विज्ञापन चलाएंगे, जिसमें वोटर्स को बीजेपी के विरोधियों के खिलाफ हतोत्साहित किया जाएगा. अंतिम चरण, जो 2019 के मतदान के समय होगा, “हमारी इन-फील्ड गतिविधियों से जुड़ा  होगा.”

एक बैठक के बाद, जिसमें कल्ली पुरी शामिल थी, इंडिया टुडे ग्रुप ने 2019 के चुनाव को प्रभावित करने के लिए एक हिंदुत्व प्रेरित शख्स के विज्ञापन अभियान के लिए अपनी सहमति व्यक्त की. यह पत्रकार पुष्प शर्मा और कोबरापोस्ट के एक स्टिंग का हिस्सा था.

अटल ने इंडिया टुडे के कई स्तर के अधिकारियों के सामने अपना पक्ष रखा. एक अधिकारी ने उनसे कहा, “देखिए मेरा एकमात्र मकसद, मेरा एकमात्र ध्येय, मेरा एकमात्र उद्देश्य है कि बीजेपी सत्ता में आनी चाहिए. आपने हमसे हाथ मिलाया है. अब हम आपको जाने नहीं देंगे.” जब अटल ने एक अन्य अधिकारी जयकुमार मिस्त्री को अपनी योजना सुनाई, तो मिस्त्री का पहला सवाल था कि भुगतान चेक में होगा या नक़द में. उस बातचीत ने अटल के लिए राहुल कुमार शॉ का दरवाज़ा खोला, और शॉ के ज़रिए वो कल्ली तक पहुंचे. शॉ ने अटल से कहा, “कल्ली ही सब चलाती हैं. सारा नियंत्रण उनके ही पास है.”

कल्ली और अटल इंडिया टुडे ग्रुप के मुख्यालय में मिले, जो राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के पूर्वी किनारे पर नोएडा में स्टूडियो और कार्यालयों का एक परिसर है. उन्होंने अभियान के पहले चरण में गीता को उद्धृत करने की योजना पर अपनी सहमति व्यक्त की: “मुझे लगता है कि लोग भटक गए हैं, विशेष रूप से युवा लोग, क्योंकि कोई ढांचा नहीं है ... कोई संस्कार नहीं हैं.” दूसरा चरण, जिसमें विपक्षी नेताओं को निशाना बनाया जाना था, के बारे में उन्होंने कमरे में मौजूद शॉ से कहा, “किसी भी तरह के विज्ञापन के लिए सामग्री वैसे भी हमारे द्वारा तय नहीं की जाती है.” बस इसमें सरोगेट विज्ञापन के खिलाफ आधिकारिक दिशानिर्देशों का पालन होना चाहिए. लेकिन, कल्ली ने कहा, वह संपादकीय निर्णयों में किसी भी तरह का हस्तक्षेप स्वीकार नहीं करेंगी.

अटल ने अपने सहयोगियों को “प्रचारक” कहा. आरएसएस के पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं को प्रचारक कहा जाता है. उन्होंने कल्ली से कहा कि जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आएंगे, उनके जैसे प्रचारक माहौल का ध्रुवीकरण करने के लिए “इन-फील्ड गतिविधियों” का सहारा लेंगे और “कुछ बुरे काम करेंगे.” यह सुनकर कल्ली ने भौहें चढ़ाईं और उन्हें धीरे से झिड़कते हुए कहा, “ऐसा मत कीजिए.”

अटल ने कहा कि इंडिया टुडे को विज्ञापन बनाने की पूरी रचनात्मक स्वतंत्रता होगी, जब तक कि वे उनके द्वारा बताए गए एजेंडे के अनुरूप हो. उन्होंने कहा कि अगर उनके विज्ञापनों को प्रचारकों द्वारा चुनाव को प्रभावित करने के लिए इस्तेमाल किया गया, तो मीडिया समूह इसका विरोध नहीं करेगा. “सहमत,” कल्ली ने उत्तर दिया. “लेकिन साथ ही, यदि आप कुछ इन-फील्ड गतिविधियां कर रहे हैं जिससे हम संपादकीय रूप से सहमत नहीं हैं, तो हम आपकी आलोचना भी करेंगे.”

अटल के जाने से पहले कल्ली ने उनसे शिकायत की कि मोहन भागवत इंडिया टुडे के कार्यक्रमों में शामिल होने के निमंत्रण का जवाब नहीं दे रहे हैं. उन्होंने हाथ जोड़ते हुए कहा, “मैं कम से कम दस साल से मोहन भागवत जी को आमंत्रित करने की कोशिश कर रही हूं. हर साल उन्हें हमारा पत्र जाता है.” कल्ली ने कहा कि उनके पिता “मोहन भागवत जी से व्यक्तिगत रूप से भी मिले हैं.”

शॉ ने इस मुलाकात के बाद इंडिया टुडे ग्रुप की अभियान में दिलचस्पी की पुष्टि करने के लिए अटल को ईमेल किया. समूह को समझौते पर हस्ताक्षर करने पर 100 करोड़ रुपए के भुगतान के साथ कुल 275 करोड़ रुपए मिलने की उम्मीद थी.

कोबरापोस्ट ने कुछ महीने बाद मई 2018 में पुष्प शर्मा के स्टिंग वीडियो प्रकाशित किए. कुल मिलाकर दो दर्जन से अधिक मीडिया घरानों ने उनके प्रस्तावित अभियान पर सहमति जताई थी. इंडिया टुडे ने कोबरापोस्ट और शर्मा पर “झूठी छवि गढ़ने” के लिए वीडियो में हेरफेर करने का आरोप लगाते हुए उन्हें कानूनी नोटिस जारी किया और मांग की कि उन्हें हटा दिया जाए. अपने बचाव में उनका मुख्य तर्क यह था कि इंडिया टुडे समूह में संपादकीय और विज्ञापन संचालन अलग-अलग रखे जाते हैं, जैसा कि कल्ली ने बैठक में कहा था. इंडिया टुडे ने कोबरापोस्ट पर एक “पूर्व असंतुष्ट कर्मचारी” का गलत इस्तेमाल करने का आरोप भी लगाया. मीडिया हाउस ने कहा कि शर्मा पहले उनके लिए काम किया करते थे, लेकिन उन्हें “झूठा प्रतिनिधित्व करने और नौकरी के आवेदन के समय भौतिक तथ्यों को छुपाने” के चलते निकाल दिया गया था.

एसपी सिंह ने आजतक बुलेटिन को अच्छी पत्रकारिता की प्रतिष्ठा दिलाने के लिए बहुत कुछ किया. लेकिन वह भी फूहड़ सामग्री के आकर्षण से अछूते नहीं रह सके- और एक चैनल के रूप में आजतक इसी मार्ग पर प्रशस्त हुआ.

शर्मा ने इससे इनकार किया. “मैं वहां विशेष जांच दल का हिस्सा था,” उन्होंने मुझे बताया. और इंडिया टुडे ने कभी भी उनकी साख या विश्वसनीयता पर संदेह नहीं किया, जब वह उन कहानियों को प्रसारित कर रहे थे जिन पर उन्होंने काम किया था. स्टिंग वीडियो के ख़ुलासे के बावजूद शर्मा मानते हैं कि इंडिया टुडे समूह में अन्य मीडिया घरानों की तुलना में ईमानदारी का एक लेशमात्र अंश बाकी है. अन्य घरानों ने संपादकीय स्वतंत्रता के बारे में उनका मामूली विरोध तक नहीं किया. शर्मा कहते हैं, “उन्हें हिंदुत्व के एजेंडा से दिक़्क़त नहीं थी, लेकिन वो संपादकीय रूप से वे स्वतंत्रता चाहते थे.” वह इशारा करते हैं कि कल्ली ने “इन-फील्ड गतिविधियों” की आलोचना करने का अधिकार सुरक्षित रखा था. उनके अनुसार अन्य जगहों की तुलना में “इंडिया टुडे अभी भी एक उम्मीद है.”

आजतक पर सुधीर चौधरी के नए शो “ब्लैक एंड व्हाइट” के शुरू होने के कुछ महीने बाद नवरात्रि का त्योहार था. हिंदू देवी दुर्गा का उत्सव होने के बावजूद इस त्योहार में देश के कई हिस्सों में सभी धर्मों के मौज-मस्ती करने वाले लोग हिस्सा लेते हैं. हिंदुत्व समूहों ने हाल के दिनों में इस स्थिति को बदलने की भरसक कोशिश की है. इस साल बजरंग दल ने घोषणा की कि उसके स्वयंसेवक “लव जिहाद” के खिलाफ सुरक्षा के लिए “गैर-मजहबियों” को गरबा नृत्य से दूर रखेंगे. “लव जिहाद” को मुस्लिम पुरुषों द्वारा हिंदू महिलाओं को बहकाने और धर्मांतरित करने की कथित साजिश के रूप में पेश किया जाता है.

नवरात्रि के दौरान प्रसारित एक एपिसोड में चौधरी ने आग को हवा देने का काम किया. उन्होंने पूछा, “कृपया सोचें - एक ऐसे धर्म के लोग, जो नृत्य और संगीत को वर्जित मानते हैं, इन कार्यक्रमों में शामिल होने की इच्छा क्यों रखते हैं? ये लड़के हिंदू नामों का इस्तेमाल करते हैं और पंडालों में जाते हैं, ताकि हिंदू समुदाय की लड़कियों से दोस्ती कर सकें.” इस एपिसोड में बजरंग दल के नेताओं को यह कहते हुए दिखाया गया कि मुस्लिम पुरुष 'लव जिहाद' करने के लिए नृत्य में भाग लेते हैं. फिर एक महिला नृत्य आयोजकों की प्रशंसा करती है, जो वहाँ आने वाले पुरुषों की आईडी की जांच कर रहे थे.

सुधीर चौधरी के आज तक में शामिल होने के कुछ महीनों बाद बजरंग दल ने घोषणा की कि वह “लव जिहाद” के खिलाफ सुरक्षा के लिए “गैर-मजहबियों” को गरबा नृत्य से दूर रखेंगे. नवरात्रि के दौरान प्रसारित अपने शो के एक एपिसोड में चौधरी ने इस आग को हवा देने का काम किया.

इंडिया टुडे ग्रुप के संपादक ने मुझे बताया, “उनके शो के पास सांप्रदायिक होने का अधिकार है. उन्हें आदेश है कि आप जो सब ज़ी में करते थे, वो यहां भी करें.”

आने वाले दिनों में गुजरात और मध्य प्रदेश, जो बीजेपी सरकारों द्वारा शासित हैं, में गरबा स्थलों पर या उसके आस-पास मुस्लिम पुरुषों पर कई स्वयंभू रक्षकों के हमले हुए. पुलिस ने शांति भंग करने का आरोप लगाते हुए बजरंग दल द्वारा उन्हें सौंपे गए मुस्लिम पुरुषों पर शिकायत भी दर्ज की.

इंडिया टुडे ग्रुप से जुड़े एक वरिष्ठ पत्रकार ने कहा, '”मौजूदा सरकार में चौधरी का काफी वजन है. वह उनके बहुत करीब है.” एंकर ने 17 सितंबर को मोदी के 72वें जन्मदिन पर एक एपिसोड में इस धारणा को स्पष्ट किया. उन्होंने दर्शकों से कहा, “मैं पिछले 25 वर्षों से प्रधानमंत्री मोदी को व्यक्तिगत रूप से जानता हूं. मैंने उन्हें तब से देखा है, जब वे एक कार्यकर्ता थे और स्कूटर पर चलते थे.” चौधरी ने शो में मोदी और पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के साथ अपनी एक “बहुत खास सेल्फी” भी दिखाई, जब ट्रम्प ने भारत का दौरा किया था. चौधरी ने तस्वीर की कहानी बताते हुए कहा कि पहले उन्होंने सिर्फ ट्रंप के साथ सेल्फी ली थी, लेकिन फिर उन्होंने मोदी से कहा, “अगर आप भी फ़्रेम में आ जाएं तो यह दुनिया की सबसे ताकतवर सेल्फी बन जाएगी.”

चैनल के कई पूर्व और वर्तमान कर्मचारियों ने मुझसे बातचीत में चौधरी को लाए जाने पर अपनी नाराज़गी जताई. एक वरिष्ठ पत्रकार ने कहा, “मुझे बिलकुल समझ नहीं आया कि वो उन्हें क्यों लेकर आए. एक कारण यह हो सकता है कि आज तक की रेटिंग गिर रही थी, जिससे वह काफी परेशान थे.”

इंडिया टुडे ग्रुप के संपादक ने बताया, “उन्होंने फैसला किया कि अगर सुधीर चौधरी यहाँ आए, तो हमारे साथ आज तक के दर्शकों के साथ-साथ उनके वफादार अनुयायी भी जुड़ जाएंगे और इससे इससे हमें फ़ायदा होगा. अपेक्षा यह थी कि आज तक पहले पायदान पर आ जाएगा और फिर से महान बन जाएगा.” लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. वर्तमान में चैनल हिंदी समाचार रैंकिंग में तीसरे स्थान पर है. न्यूज़ 18 इंडिया शीर्ष स्थान पर काबिज़ है.

कभी हिंदी टेलीविजन समाचार की दुनिया में वर्चस्व के आदी रहे आज तक के लिए यह असुविधाजनक स्थिति है. आज तक की शुरुआत सरकारी प्रसारक दूरदर्शन के तहत चैनल डीडी मेट्रो पर इसी नाम के एक समाचार बुलेटिन से हुई थी, जिसे अरुण और उनकी टीम को 1990 के मध्य में निर्मित करने के लिए कमीशन किया गया था. हिंदी की तुलना में अंग्रेजी में अधिक सहज अरुण ने अनुभवी हिंदी संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह की ओर रुख किया. एसपी के मार्गदर्शन में बुलेटिन में जमीनी रिपोर्ट और ब्रेकिंग न्यूज को प्राथमिकता दी जाने लगी. उस समय के प्रतिद्वंद्वी कार्यक्रमों की तुलना में यहां बोलचाल की हिंदी का अधिक इस्तेमाल होता था. बुलेटिन को अपनी दृढ़ता के लिए जाना जाता था: जब 1995 में दूध पीने वाली गणेश की मूर्ति की अफवाह फैली, तो एसपी ने इस धारणा को तार-तार कर दिया था.

1997 में अपनी असामयिक मृत्यु तक एसपी सिंह ने बुलेटिन को अच्छी पत्रकारिता की प्रतिष्ठा दिलाने के लिए बहुत कुछ किया. लेकिन वह भी फूहड़ सामग्री के आकर्षण से अछूते नहीं रह सके- उदाहरण के लिए, बिहार के मुख्यमंत्री तंबाकू छोड़ देंगे या नहीं जैसी स्टोरी दिखाना. आगे चलकर आज तक और अन्य हिंदी समाचार चैनल इसी लीक पर चले. 

इस सफल बुलेटिन को वर्ष 2000 के अंतिम दिन एक निजी चैनल के रूप में प्रसारित किया गया. इसका शुभारंभ अरुण जेटली द्वारा किया गया था, जो उस समय की बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार में और बाद में मोदी सरकार में कैबिनेट मंत्री थे. जेटली को दिल्ली मीडिया के संचालक के रूप में भी जाना जाता था. उदय शंकर, जो अब एक उच्चस्तरीय वैश्विक मीडिया अधिकारी हैं, के समाचार निदेशक रहते हुए आज तक प्रतिद्वंद्वी ज़ी न्यूज़ को पछाड़कर अग्रणी हिंदी समाचार चैनल बन गया था.

2000 के दशक में आज तक के निर्माता रहे संजय कुमार बताते हैं, “टीम में सभी का ध्यान इस बात पर था कि भारत में लाइव टेलीविज़न कैसे सफल हो सकता है. हम ऐसे टीवी का निर्माण कैसे कर सकते हैं, जो अंतर्राष्ट्रीय गुणवत्ता का हो.” प्रारंभिक टीम को सीएनएन के कर्मचारियों द्वारा प्रशिक्षित किया गया था. अरूण आजतक को अमेरिकी चैनल के साथ एक संयुक्त उद्यम बनाना चाहते थे, लेकिन यह मुमकिन नहीं हुआ.

कुमार याद करते हैं कि चैनल की रोजी-रोटी अपने कई राज्य ब्यूरो की रिपोर्ट पर चलती थी. तब आज की तरह प्राइम-टाइम “डिबेट” शो में चीख़ने-चिल्लाने की प्रतियोगिताएं नहीं होती थी. वह कहते हैं, “मैंने कभी किसी ऐसे दबाव का सामना नहीं किया, कि इस कहानी को चलाओ या उस कहानी को मत चलाओ.”

आज तक ने 2002 की हिंसा के दौरान उस दौर के कई अन्य उभरते निजी चैनलों की तरह गुजरात से सीधा प्रसारण किया. सामूहिक हिंसा से पहले हुई गोधरा ट्रेन आगजनी को कवर करते समय चैनल ने हिंदू पीड़ितों की धार्मिक पहचान का ख़ुलासा किया, जिसने सांप्रदायिक तनाव की आग में घी डालने का काम किया. चैनल ने बाद में हुई हिंसा के मुस्लिम पीड़ितों की पहचान उजागर नहीं की, जिससे हिंसा को एकतरफा रूप से पेश किया गया. ज़ी ने भी इसी तर्ज पर चलते हुए रिपोर्टिंग की. आज तक और इंडिया टुडे ग्रुप ने कभी भी अपने इस निर्णय के बारे में अपना पक्ष सामने नहीं रखा है.

कुमार ने कहा, “2006 के आसपास गुणवत्ता में तेजी से गिरावट शुरू हुई. स्टार न्यूज़ और ज़ी के आने से प्रतिस्पर्धा बढ़ गई थी.” इसके साथ ही आज तक के पास अपनी पत्रकारिता को आगे बढ़ाने की पूर्ण स्वायत्तता नहीं रह गई थी. प्रतियोगिता ने विज्ञापन दरों को नीचे गिरा दिया था, और इसके साथ ही अच्छी रिपोर्टिंग के बजट को भी. “गैर-समाचार” को हिंदी समाचारों में प्रमुखता मिलने लगी: गुड़िया नाम की एक महिला अपने दो पतियों में से किसके साथ रहना पसंद करेगी या बोरवेल में गिरे एक छोटे लड़के के बचाव जैसे विषयों पर व्यापक कवरेज की जाने लगी. कुमार ने बताया कि उन्हें एक समाचार बुलेटिन छोड़ने के लिए कहा गया था, क्योंकि वरिष्ठ संपादकों के लिए एक घोड़े को नाले से बाहर निकाले जाने के फुटेज को प्रसारित करना पहली प्राथमिकता थी. ऐसी घटनाएं लोगों का ध्यान खींच रही थी और चैनल समझ चुके थे कि इन्हें और अधिक परोसने में उनका फ़ायदा था. आजतक ने भी जल्द ही ज्योतिष, हिंदू बाबाओं के विचार, काले जादू की कहानियां और देर रात अपराध आधारित शो प्रसारित करने शुरू कर दिए.

रिपोर्टिंग की उपेक्षा के साथ-साथ एक और बदलाव आया. स्टूडियो एंकर अब चैनल के सितारों के रूप में उभरने लगे थे. यह तंत्र तब से लगातार मजबूत हुआ है. चौधरी और उनके जैसे बहुत से नाम इसी व्यवस्था की देन हैं.

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विद्या विलास पुरी बंटवारे के बाद लाहौर से आकर बंबई में बस गए. उन्होंने बॉलीवुड में एक फाइनेंसर के रूप में ख्याति अर्जित की. उन्होंने सुपरस्टार राज कपूर की कई फिल्मों के वित्तीय पहलू को संभाला और भारतीय सिनेमा को विदेशों में, विशेष रूप से पश्चिम एशिया में, वितरित करने में अग्रणी रहे. उनके पुत्र अरुण बॉम्बे में पले-बढ़े, देहरादून के नामी-गिरामी दून स्कूल में शिक्षा प्राप्त की और फिर चार्टर्ड एकाउंटेंट बनने के लिए लंदन चले गए. दिवंगत कथाकार और लेखक खुशवंत सिंह ने अपने एक लेख में लिखा था कि परिवार के उपनाम में “ई” जोड़ने का विचार अरुण का ही था.

1960 के दशक में रॉय हर्बर्ट थॉमसन नामक एक ब्रिटिश समाचार पत्र बैरन भारत में एक प्रिंटिंग प्रेस स्थापित करना चाहते थे. चूंकि उन्हें उस समय के निवेश नियमों के अनुसार एक स्थानीय भागीदार की आवश्यकता थी, इसलिए उन्होंने अपने मित्र वीवी पुरी से संपर्क किया. 1967 में दिल्ली के बाहरी इलाके में थॉमसन प्रेस इंडिया की स्थापना हुई.

अरुण तब लंदन में ऑडिटर के तौर पर काम कर रहे थे. उनके पिता ने उन्हें प्रेस से परिचित करवाया. तीस वर्ष की उम्र से पहले अरुण राजधानी में आ चुके थे और उन्हें प्रेस का पूरा प्रभार दे दिया गया था. उद्यम की स्थिति संघर्षपूर्ण थी और लागत के हिसाब से पर्याप्त काम नहीं था. अरुण ने इससे निपटने के लिए खुद प्रकाशन में क़दम रखा और शुरुआत की बच्चों की किताबों से. इसके बाद आई पत्रिकाएं. प्रकाशक के रूप में अरुण और संस्थापक संपादक के रूप में उनकी बहन मधु ने इंडिया टुडे की शुरुआत की. अरुण ने जल्द ही संपादक की भूमिका में भी प्रवेश किया. मधु ने एक साल बाद पत्रिका को छोड़ने का निर्णय किया. 

इंडिया टुडे ने लीक से हटकर प्रभाव डालने के लिए फोटो पत्रकारिता का इस्तेमाल किया. रघु राय की भोपाल गैस रिसाव के पीड़ितों की दर्दनाक तस्वीरों ने विश्व का ध्यान इस त्रासदी की ओर मोड़ा. सौजन्य रघु राय.

अरुण ने वर्षों बाद एक साक्षात्कार में कहा, “हमने पाया कि अगर हम एक पत्रिका को वितरित करना चाहते हैं, तो हमें ऐसा करने के लिए अपनी खुद की वितरण प्रणाली स्थापित करनी होगी.” केवल एक पत्रिका के लिए ऐसा करना अच्छा व्यवसाय नहीं होता. इसलिए समूह ने विविध पत्रिकाओं की शुरुआत की. आज उनके संग्रह में व्यापार, ब्राइडल और ऑटोमोटिव शीर्षकों के साथ-साथ रीडर्स डाइजेस्ट, हार्पर बाजार और कॉस्मोपॉलिटन के भारत-विशिष्ट संस्करण शामिल हैं.

दिलीप बॉब, जो इंडिया टुडे के शुरुआती कर्मचारियों में से थे, आपातकाल के दौरान पत्रिका निकालने वाली छोटी, युवा टीम की “निडरता और उत्साह” को याद करते हैं. उन्होंने बताया, “हम सेंसर के साथ चूहे-बिल्ली का खेल खेलकर काफी खुश थे और कभी-कभी सतर्क आलोचना करने के बाद बाल-बाल बच जाते थे.” ठाकुरता इस दौर को अलग तरह से याद करते हैं. वो कहते हैं, “आपातकाल के दौरान केवल कुछ ही ऐसे प्रकाशन थे, जो सरकार के खिलाफ बोलते या संपादकीय रूख अपनाते थे. इंडिया टुडे निश्चित रूप से उनमें से एक नहीं था.”

इंडिया टुडे के कर्मचारियों की प्रभावशाली लोगों से जान-पहचान थी. पत्रिका के पहले संपादकों में से एक उमा वासुदेव इंदिरा गांधी की बेहद क़रीबी थी और बाद में उनकी जीवनी की लेखक भी बनी. 1984 में राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद एक अन्य संपादक, सुमन दुबे, उनके प्रेस सलाहकार बने. (राजीव और अरूण दून स्कूल में सहपाठी थे, लेकिन उनके बीच कभी दोस्ती नहीं थी.)

दुबे ने मुझे बताया कि उस समय दिल्ली का अंग्रेजी बोलने वाला अभिजात वर्ग बहुत छोटा था, और “यदि आप थोड़े बहुत लोगों को जानते थे, तो आपको बहुत कुछ मिल जाता था.” लेकिन वह जोर देकर कहते हैं कि प्रसिद्ध और शक्तिशाली लोगों तक पहुंच होना इंडिया टुडे में काम पाने का मानदंड नहीं था.

पत्रिका के संग्रहों से यहां काम करने वाले पत्रकारों की पहुंच का साफ़ अंदाज़ा मिलता है. इनमें उद्योगपति धीरूभाई अंबानी, संगीतकार जॉर्ज हैरिसन और अभिनेता राज कपूर जैसी कई शख्सियतों के ऐसे साक्षात्कार मौजूद हैं, जिनकी प्रतिद्वंद्वी प्रकाशन केवल कल्पना ही कर सकते थे. वीर सांघवी, जो बाद में हिंदुस्तान टाइम्स के संपादक रहे, ने अपने संस्मरण में वर्णन किया है कि कैसे उन्होंने वीवी पुरी के माध्यम से मुश्किल से मिलने वाले बॉलीवुड स्टार का साक्षात्कार किया था. वो लिखते हैं, “मैंने तर्क दिया कि राज कपूर पुरी परिवार को न नहीं कहेंगे. अरुण को इस पर संदेह था, लेकिन उन्होंने मेरी बात समझी.”

1984 की भयानक घटनाओं को कवर करने के लिए यह पत्रिका विशिष्ट रूप से तैयार थी, जिसमें उनकी पत्रकारिता की परीक्षा भी हुई. जून में इंदिरा गांधी ने सिख अलगाववादी नेता जरनैल सिंह भिंडरावाले और उनके समर्थकों को मंदिर परिसर से बाहर निकालने के लिए सेना को अमृतसर में स्वर्ण मंदिर पर धावा बोलने का आदेश दिया. साधारण अनुमान के हिसाब से भी सेना के हमले में कम से कम सात सौ लोग मारे गए थे, जिसमें आधे नागरिक थे. पंजाब में मौजूद एक युवा इंडिया टुडे संवाददाता शेखर गुप्ता असाधारण रूप से बेहद नज़दीकी से इस कार्रवाई की रिपोर्ट करने में कामयाब रहे. अरुण ने गर्व से अपनी पत्रिका के पाठकों को यह बात बताई. इस हमले में भिंडरावाले का विरोध करने वाले आम सिखों को भी मंदिर पर हुए आघात से गहरा सदमा लगा था, और कई लोगों ने इसके लिए इंदिरा के फैसले पर सवाल उठाए. लेकिन गुप्ता, जो जल्द ही सुरक्षा प्रतिष्ठान के भीतर अपने स्रोतों के लिए नाम अर्जित करने वाले थे और बाद में इंडियन एक्सप्रेस के संपादक भी बने, उनमें से नहीं थे. उन्होंने लिखा, “इसमें निश्चित रूप से कुछ गलत नहीं है कि सेना ने अपने ऑपरेशन को अंजाम दिया और सरकार ने आखिरकार पंजाब पर निर्णायक कार्रवाई करने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति जुटाई." उन्होंने सवाल किया कि इंदिरा प्रशासन पूर्व में पंजाब में अलगाववाद के खिलाफ कड़े कदम उठाने से क्यों हिचकिचाता रहा था.

इस घटना के बाद इंदिरा की उनके सिख अंगरक्षकों द्वारा हत्या कर दी गई थी. राजीव ने प्रधानमंत्री और कांग्रेस के प्रमुख के रूप में पदभार संभाला और पूरी दिल्ली में सिख-विरोधी दंगे भड़क उठे. इंडिया टुडे ने इस खून-खराबे का विस्तार से वर्णन किया और कुछ तत्काल रिपोर्टों में कांग्रेस नेताओं की मिलीभगत की ओर भी इशारा किया. लेकिन एक अन्य स्टोरी, जिसे स्रोतों के बिना प्रकाशित किया गया, में अंजान “अपराधी नेतृत्व वाले गुंडों” को दोषी ठहराया गया और प्रधानमंत्री का पूर्ण बचाव करते हुए यह लिखा गया कि वह “पहली शाम को ही सेना को बुलाना चाहते थे, लेकिन उन्हें सलाह दी गई थी” (गृहमंत्री नरसिम्हा राव द्वारा) कि वे थोड़ा इंतजार करें. वर्षों तक कई न्यायिक आयोगों और व्यापक तथ्य-खोज के प्रयासों के बावजूद इंडिया टुडे ने कभी भी पूरे उत्साह के साथ कांग्रेस के अपराध की कहानी की पड़ताल नहीं की. इस जनसंहार के कुछ ही महीनों बाद राजीव के साथ एक विशेष साक्षात्कार में पुरी और उनके सहयोगी टीएन निनान ने इस विषय के संदर्भ में प्रधानमंत्री से कोई ख़ास सवाल नहीं पूछे.

1984 की आखिरी बड़ी त्रासदी भोपाल में हुई, जहां यूनियन कार्बाइड प्लांट से जहरीली गैस के रिसाव ने हजारों सोते हुए लोगों की जान ले ली और उन्हें विकलांग बना दिया. इंडिया टुडे ने पत्रिका में फोटोग्राफी के प्रमुख रघु राय द्वारा खींची गई पीड़ितों की दर्दनाक तस्वीरें प्रकाशित की, जिसने विश्व का ध्यान इस त्रासदी की ओर मोड़ा. विशेष रूप से एक छोटे बच्चे को दफनाने की जानी-पहचानी तस्वीर आज भी इस घटना की सशक्त गवाही देती है.

इंडिया टुडे ने फोटो पत्रकारिता की शक्ति का भरपूर उपयोग करते हुए एक अद्वितीय छाप छोड़ी. इसका एक और उदाहरण है 1983 में नेल्ली में हजारों बंगाली मुस्लिम किसानों के नरसंहार की कवरेज, जिसमें वध के बाद की चौंकाने वाली तस्वीरें शामिल थी. पत्रिका ने अरुण शौरी, जो बाद में इंडियन एक्सप्रेस के कार्यकारी संपादक रहे, द्वारा की गई एक पर्दाफाश रिपोर्ट को भी प्रकाशित किया, कि कैसे असम में कांग्रेस के नेतृत्व वाला प्रशासन हिंसा की पूर्व चेतावनी पर कार्रवाई करने में विफल रहा और बाद में इसे ढकने का प्रयास करता रहा.

1980 के दशक के मध्य में इंडिया टुडे में फोटोग्राफर रहे प्रशांत पंजियार ने मुझे बताया कि एक फोटो जर्नलिस्ट के रूप में राय के कद के कारण पत्रिका में “तस्वीरों को अधिक स्थान और महत्व दिया जाता था.” इसका मतलब था कि पत्रिका में तस्वीरों के विशेष संस्करण निकाले जाते थे और कई पन्नों के फोटो-स्प्रेड छपा करते थे. “उस समय इंडिया टुडे भारत में फोटोजर्नलिज्म के क्षेत्र का पहला नाम था.”

पत्रिका की एक अन्य विशेषता थी इसकी भाषा. इंडिया टुडे के पूर्व संवाददाता कहते हैं कि अक्सर गद्य की कलात्मकता रिपोर्टिंग पर भारी पड़ जाती थी. वो इंडिया टुडे की शैली को “लॉकर-रूम अंडरटोन के साथ सैसी अंग्रेजी” के रूप में याद करते हैं. जनता पार्टी को आरएसएस में विलय करने के विवादास्पद प्रस्ताव पर 1977 की एक स्टोरी की शुरूआत कुछ यूं होती है- “आरएसएस जनता पार्टी के लिए वही है, जो जी-स्ट्रिंग मर्लिन मुनरो के लिए था. दोस्तों, प्रशंसकों और दुश्मनों की बस एक ही मांग है: इसे उतार फेंको.”

दुबे ने “सम नोट्स ऑन हाउ टू राइट ए स्टोरी फॉर इंडिया टुडे” नामक एक दस्तावेज तैयार किया था. ये एक क़िस्म की स्टाइल गाइड, एथिकल प्राइमर और प्रोडक्शन हैंडबुक था, जो आगे चलकर एक प्रकार की पवित्र किताब बन गया. इसमें लिखा है कि “किसी भी पूर्व शर्त पर जानकारी स्वीकार न करें. कभी भी इसके लिए कोई भुगतान न करें…दावों को बार-बार जांचें, सच को पूरी तरह देखे बिना सबसे बड़े, सबसे चमकदार और सबसे अच्छे के बारे में न लिखें. उपहार और आतिथ्य स्वीकार न करें.”

इंडिया टुडे अपने संवाददाताओं को असाइनमेंट के लिए (विदेश दौरों पर भी) राशि देने में उदार था. मेनन कहते हैं कि उस समय “भारत में किसी अन्य पत्रकार के पास उस तरह का बजट नहीं था, जैसा इंडिया टुडे का था. अरूण पुरी कहते थे कि आप चाहे यात्रा करिए या जो मन आए वो करिए, लेकिन मुझे एक अच्छी स्टोरी चाहिए.”

पत्रिका ने आपातकाल के बाद जनता पार्टी और उसकी अल्पकालिक सरकार के विघटन को कवर किया. इंदिरा गांधी सरकार को तब ख़ासी शर्मिंदगी झेलनी पड़ी, जब पत्रिका द्वारा यह ख़ुलासा किया गया कि भारतीय खुफिया अधिकारियों को तमिल टाइगर कैडर के प्रशिक्षण के बारे में जानकारी थी. बाद में इसने टाइगर्स और श्रीलंकाई सरकार के बीच गृह युद्ध की सूचना दी. राजीव का प्रशासन घोटालों से घिरता जा रहा था. विशेष रूप से एक स्वीडिश हथियार फर्म से हॉवित्जर फील्ड बंदूक खरीदने के सौदे में रिश्वत के इल्ज़ाम पर पत्रिका ने उन पर अपरिपक्वता और सलाहकारों को चुनने में खराब निर्णय लेने का आरोप लगाया. 1988 में प्रकाशित एक विस्तृत प्रोफ़ाइल में लिखा गया कि वे कैसे “जादुई परिवर्तन, चकाचौंध और उत्साह के वादों पर खरा उतरने में विफल रहे थे- वह तड़क-भड़क, जिसने मध्यम वर्ग में तरंगे पैदा कर दी थी."

संवाददाता खाड़ी युद्ध के दौरान पश्चिम एशिया में, तालिबान के राज में अफ़ग़ानिस्तान में, और तियानमेन चौक नरसंहार के बाद बीजिंग में थे. 1997 में इंडिया टुडे ने राजीव गांधी की हत्या पर जैन आयोग की रिपोर्ट को साझा कर आईके गुजराल सरकार के पतन की शुरुआत की थी.

1989 में तेहरान में 'द सैटेनिक वर्सेज' के खिलाफ विरोध प्रदर्शन. इंडिया टुडे में किताब के अंशों के साथ छपी पुस्तक समीक्षा में लिखा गया था कि इस किताब से “विरोधों का सैलाब उमड़ पड़ेगा.” सलमान रुश्दी ने बाद में इस समीक्षा को “आग जलाने वाली तीली” कहा. कवेह काज़ेमी / गेटी इमेज

इन सबसे इतर इंडिया टुडे पत्रिका को हमेशा से समाज के अभिजात वर्ग में सनसनी पैदा करने के लिए भी जाना जाता था. 1980 के दशक में इंडिया टुडे के लिए फ्रीलांस करने वाली तवलीन सिंह राजीव की पत्नी सोनिया गांधी की करीबी थी. 1986 में प्रधानमंत्री के रूप में राजीव पर हुए एक असफल जानलेवा हमले के बाद तवलीन ने सोनिया का साक्षात्कार किया और इसे एक आलेख में बदल दिया. अपने संस्मरण 'दरबार' में तवलीन याद करती हैं कि ये आलेख इतना हल्का था, कि अरुण पुरी ने दिलीप बॉब को उसमें कुछ “बाइट” जोड़ने के लिए कहा. प्रकाशित स्टोरी, जो एक प्रोफ़ाइल थी, में छापा गया, “अपने ख़ुशमिज़ाज पति के सहज स्वभाव की तुलना में वह अजीबोग़रीब और पथरीली सी दिखती हैं.” इसमें सोनिया पर “विरोधियों के पतन की साजिश रचने” का आरोप भी लगाया गया. शब्द भले बॉब के थे, लेकिन तवलीन को तत्काल ही गांधी परिवार के आंतरिक घेरे से बाहर कर दिया गया.

दोस्तों के बीच मनमुटाव पैदा करने वाली यह इंडिया टुडे की अकेली स्टोरी नहीं थी. इंडिया टुडे की संवाददाता और सलमान रुश्दी की दोस्त मधु जैन को 1988 में उपन्यासकार से 'द सैटेनिक वर्सेज' की एक पूर्व-प्रकाशन प्रति प्राप्त हुई थी. उन्होंने किताब के अंशों के साथ अपनी पुस्तक समीक्षा छापी, जिसका शीर्षक था “धार्मिक कट्टरवाद पर एक खुला हमला.” इसके समापन वाक्य में कहा गया कि इस किताब से “विरोधों का सैलाब उमड़ पड़ेगा.”

और ऐसा ही हुआ. कुछ मुस्लिम नेताओं ने पुस्तक को ईशनिंदा बताते हुए इसकी भर्त्सना की और विरोध प्रदर्शन किए. रूढ़िवादी मुस्लिम मतदाताओं को लुभाते हुए राजीव ने इस पुस्तक को भारत में प्रतिबंधित कर दिया. कई मुस्लिम देशों ने भी ऐसा ही किया और ईरानी नेता अयातुल्ला खुमैनी ने रुश्दी की हत्या का ऐलान किया. इस अगस्त में रुश्दी को संयुक्त राज्य अमेरिका में एक मुस्लिम युवक द्वारा छुरा घोंपा गया. युवक का मानना था कि रुश्दी ने इस्लाम का अपमान किया है.

अपनी आत्मकथात्मक पुस्तक जोसेफ एंटोन में रुश्दी ने इंडिया टुडे की समीक्षा को गलत विवरण से भरा बताते हुए कहा कि यह “आग लगाने वाली तीली” थी. जैन ने मुझे बताया कि विवाद के लिए वो अंश जिम्मेदार थे, जिनका चुनाव पत्रिका के पुस्तक संपादक, यानी शेखर गुप्ता ने किया था. रुश्दी ने जोसफ एंटन में स्वीकार किया कि बाद के वर्षों में उन्हें लगा कि पुस्तक समीक्षा “अपने अंतिम वाक्य से अधिक संतुलित थी. जो नाराज होना चाहते थे, वे किसी भी हालात में नाराज ही होते.”

ठाकुरता ने मुझे बताया, “अरुण पुरी को अपने शीर्ष संपादकीय कर्मचारियों का लगातार बहस करना पसंद था- वो तीखी लड़ाईयों को प्रोत्साहित करते थे. उनका मानना था कि यह कर्मचारियों को अपना श्रेष्ठ प्रदर्शन करने के लिए प्रेरित करता है.” पूर्व संवाददाता ने एक प्रकार के गलाकाट प्रतियोगिता के माहौल का वर्णन किया, जिसने इंडिया टुडे के कर्मचारियों को भविष्य में अन्य न्यूज़रूम में काम करने और फलने-फूलने के लिए परिपक्व किया.

पत्रिका के कर्मियों के बीच संपादकीय मामलों के साथ-साथ राजनीति पर भी असहमतियां होती थी. ठाकुरता ने बताया, “संघी बनाम गैर-संघी, बीजेपी समर्थक, कांग्रेस समर्थक- स्पष्ट शब्दों में परिभाषित करना मुश्किल है.” इंडिया टुडे न्यूज़रूम के एक प्रमुख संपादक प्रभु चावला आरएसएस से अपने संबंधों के लिए जाने जाते थे. चावला पत्रकारिता करने से पहले आरएसएस के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के नेता थे.

त्रिपाठी बताते हैं कि चावला बहुत से विचारों को “झोलावाला” (वामपंथियों के लिए उपयोग किए जाने वाला अपमानजनक शब्द) कहकर खारिज कर देते थे. त्रिपाठी गुजरात में नर्मदा नदी पर बने विवादास्पद सरदार सरोवर बांध पर काम करना चाहते थे, जिससे आदिवासी समुदायों के विस्थापन और बड़े पैमाने पर पर्यावरण के नुकसान का खतरा था. परियोजना के विरोध में एक आंदोलन खड़ा हो चुका था. “जब मैं नर्मदा बांध पर एक स्टोरी करना चाहता था, तो उन्होंने कहा, 'इसमें क्या ख़ास बात है? ये तो बस झोलेवालों की चिंता है. भारत को बिजली की जरूरत है. भारत को पावर चाहिए.'”

चावला की राजनीतिक हलकों में विशेष रूप से अच्छी जान-पहचान थी. जब त्रिपाठी को गुजरात भेजा गया, तो चावला ने उन्हें सुझाव दिया कि वह स्थानीय रूप से लोकप्रिय कढ़ी खाने के लिए कांग्रेस नेता अहमद पटेल के घर जाएं. त्रिपाठी ने बताया, “बेशक वह जेटली और अन्य लोगों को जानते थे. लेकिन वह वीपी सिंह को भी बहुत अच्छी तरह से जानते थे. वो और वीपी सिंह हर समय बात करते थे.” कभी कांग्रेस के दिग्गज रहे वीपी सिंह 1989 के चुनाव में अपनी पूर्व पार्टी को हराकर प्रधानमंत्री बने थे.

टेलीविजन में इंडिया टुडे ग्रुप की शुरुआत न्यूज़ट्रैक से हुई थी. इसमें मधु त्रेहन एंकर की भूमिका में थी और इसे वीडियो कैसेट पर वितरित किया गया था. जल्द ही इसने दर्शकों और विज्ञापनदाताओं का ध्यान खींचा. सौजन्य इशिता तिवारी.

जब संवाददाता राजनीतिक सूचनाएं लेकर आते थे, तो चावला अक्सर अपने संपर्कों के माध्यम से उनकी तस्दीक करते थे. एक बार बंबई में बीजेपी नेता प्रमोद महाजन ने त्रिपाठी को बताया कि उनकी पार्टी ने शिवसेना के साथ गठबंधन करने की योजना बनाई है. चावला ने तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी को फोन किया, जिन्होंने इसका खंडन किया. त्रिपाठी, जिनके पास महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री शरद पवार से भी पुष्टि थी, असमंजस में थे. अंत में उनकी स्टोरी को राज्यों के समाचार वाले खंड के भीतर एक छोटी सी जगह में छापा गया. त्रिपाठी ने बताया, “कोई सेंसरशिप नहीं थी. कहानी में छेड़छाड़ नहीं हुई. बस इसे महत्व नहीं दिया गया. आप कह सकते हैं कि यह एक बड़ा राजनीतिक स्कूप था.” महाजन की बात सही साबित हुई. बीजेपी और शिवसेना का गठबंधन आने वाले 25 साल तक चला.

जहां एक ओर अंतिम निर्णय लेने का अधिकार हमेशा अरूण के पास रहा है, वहीं उनके कई शागिर्दों ने संपादक के रूप में काम किया- जिनमें सुमन दुबे, इंद्रजीत बधवार और टीएन निनान शामिल हैं. चावला 2010 तक चौदह साल तक इस पद पर रहे. उनकी नियुक्ति पीवी नरसिम्हा राव के तहत कांग्रेस सरकार के अंत और अटल बिहारी वाजपेयी के तहत बीजेपी के संक्षिप्त शासन की शुरुआत के आसपास हुई थी. चावला ने 1999 से 2004 तक वाजपेयी के दूसरे लंबे कार्यकाल के दौरान पत्रिका का नेतृत्व किया. इसी दौरान मोदी के नेतृत्व वाले गुजरात में मुस्लिम विरोधी हिंसा हुई. लेकिन कांग्रेस के सत्ता में लौटने और वाजपेयी की जगह मनमोहन सिंह के आने के बाद चावला की स्थिति निश्चित रूप से पहले जैसी नहीं रह गई थी. वेबसाइट इंडियन जर्नलिज्म रिव्यू में लिखा गया कि चावला के नेतृत्व में “इंडिया टुडे का झुकाव बीजेपी की ओर रहा और कांग्रेस-विरोधी रूख के कारण पत्रिका को कथित तौर पर सत्तारूढ़ व्यवस्था की नाराजगी झेलनी पड़ी.” चावला ने मेरे साक्षात्कार अनुरोधों या उन्हें ईमेल किए गए सवालों का जवाब नहीं दिया.

चावला की विदाई के साथ संपादकीय निदेशक के रूप में एमजे अकबर का आगमन हुआ. वो इंडिया टुडे के पुराने कर्मचारी नहीं थे, बल्कि एक दौर में प्रतिद्वंद्वी संडे पत्रिका के पूर्व संपादक रहे थे. उनका कार्यकाल करीब दो साल का रहा. (अकबर पर बाद में अपने करियर के दौरान यौन उत्पीड़न के कई मामलों के आरोप लगे, जिसमें एक दर्जन से अधिक आरोप महिला पत्रकारों के थे.) शेखर गुप्ता, जिनकी इंडिया टुडे न्यूज़रूम में चावला के साथ प्रतिद्वंद्विता थी, 2014 में पत्रिका के प्रधान संपादक के रूप में लौटे, लेकिन महीनों के भीतर फिर से बाहर हो गए. अरुण आज भी प्रधान संपादक हैं.

1990 के दशक के मध्य में इंडिया टुडे में काम कर चुके समर हलारंकर ने स्वीकार किया कि तब “संपादकों के साथ तीखी लड़ाईयां और असहमतियां" और "बहुत सा चीख़ना-चिल्लाना" आम था. वो खुद अपने संपादक, राज चेंगप्पा, जो अब इंडिया टुडे ग्रुप के प्रकाशनों के संपादकीय निदेशक हैं, से जमकर लड़ते थे. लेकिन, हलारंकर ने मुझसे कहा, “हमने जिस  पत्रकारिता का अनुभव किया, वह पूरी तरह से खुली और स्वतंत्र थी. अगर कोई दबाव था भी, तो उसे कभी हमारे ऊपर नहीं डाला गया.”

वैचारिक मतभेद होने के बावजूद लोग बातचीत के माध्यम से अपनी स्टोरी का पक्ष सामने रख सकते थे. हलारंकर ने बताया, “एक तरह से देखें तो हमारी संपादकीय बैठकें नायाब होती थी. वो हमेशा अरुण पुरी के कमरे में होती थी.” लंबी बहसों के बीच स्टोरी के पक्ष और विपक्ष में बोलने वाले लोगों को अपने तर्कों का बचाव करना होता था. “उद्देश्य यह था कि हम वह सब कुछ करेंगे, जो उचित और सही है.” उदाहरण के लिए, नर्मदा बांध पर त्रिपाठी की कहानी अंततः चावला के विरोध के बावजूद प्रकाशित हुई, क्योंकि अरुण पुरी को उसकी योग्यता में विश्वास था.

इंडिया टुडे में आने से पहले हलारंकर ने टाइम्स ऑफ इंडिया में काम किया था. वो बताते हैं कि अपने पूरे कार्यकाल में उन्होंने कभी टाइम्स ग्रुप के वाइस चेयरमैन और प्रबंध निदेशक समीर जैन को देखा तक नहीं. “अरूण पुरी ऐसे थे, कि आप सीधा चलकर उनके कमरे में जा सकते थे."

पुरी ने अपने नाम से पाठकों को पत्र प्रकाशित करते हुए इंडिया टुडे के दर्शकों के साथ जुड़ाव की भावना भी बनाए रखी. वास्तव में, ये आमतौर पर किसी और के द्वारा लिखे जाते थे. यह तथ्य 2010 में सार्वजनिक रूप से सामने आया, जब पत्रिका के दक्षिणी संस्करण में तमिल फिल्म स्टार रजनीकांत पर एक स्टोरी प्रकाशित हुई. इस अंक में पुरी का पत्र शैलीगत अतिशयोक्ति से भरा था: “यदि एक बाघ एक बवंडर के साथ यौन संबंध बनाता है और फिर उनके बाघ-बवंडर बच्चे की शादी भूकंप से होती है, तो उनकी संतान रजनीकांत होगी.” यह वाक्य और लेख के अन्य दो पूरे भाग अमेरिकी पत्रिका स्लेट में रजनीकांत पर प्रकाशित एक पुरानी स्टोरी से शब्दशः उठाए गए थे.

काफी हंगामे के बाद अरुण ने पाठकों से माफी मांगी. उन्होंने जेट लैग और नींद की कमी की दलील देते हुए लिखा, “मैं भव्य दक्षिणी सुपरस्टार के बारे में विशेषज्ञ नहीं हूं, इसलिए मैंने दिल्ली से कुछ इनपुट मांगे थे. दुर्भाग्य से दूसरे लेख से उठाए गए कुछ वाक्य मुझे भेज दिए गए."

बॉब, जो उस समय प्रबंध संपादक थे, ने मुझे बताया कि अरुण की ओर से वह पत्र उन्होंने लिखा था और आपत्तिजनक अंश किसी गड़बड़ी के कारण उसमें मिल गए थे. उन्होंने वाकए की जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दे दिया था.

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विज्ञापन की दुनिया के जाने-पहचाने नाम सैम बलसारा ने इस अक्टूबर में विज्ञापन उद्योग की एक सभा को संबोधित करते हुए कहा, “मुझे याद है कि जब मैं सत्तर के दशक के मध्य में कैडबरी में था, तब आपको किसी भी तरीके से इंडिया टुडे का पिछला कवर नहीं मिल सकता था, क्योंकि यह बजाज द्वारा कई वर्षों के लिए पहले से ही बुक होता था.” बलसारा ने भाषण देने से पहले अरुण का परिचय देते हुए इंडिया टुडे समूह के चेयरमैन की जमकर तारीफ की. उन्होंने कहा कि इंडिया टुडे की सफलता के बाद “हमारे सम्मानित वक्ता अपनी ख्याति पर बैठे नहीं रहे,” बल्कि उन्होंने टेलीविजन में साहसपूर्वक कदम रखा. देखते ही देखते विज्ञापनदाताओं में आज तक को लेकर भी होड़ मच गई. 

बलसारा ने इंडिया टुडे समूह की वर्तमान फ़ेहरिस्त की गिनती की: इंडिया टुडे टीवी, आज तक और कई प्रायोजित टेलीविजन चैनलों के अलावा दस पत्रिकाएं, तीन रेडियो स्टेशन और डिजिटल-फर्स्ट उद्यमों का एक पूरा जत्था लाखों लोगों तक पहुंच रहा है. अरुण जब मंच पर आए, तो उन्होंने इसे केवल “संयोग, दुर्घटनाओं, अवसरों और भाग्य की एक श्रृंखला” करार दिया. लेकिन इस साम्राज्य को खड़ा करने में अरूण को विरासत में मिले विशेषाधिकारों और निर्विवाद सौभाग्य के अलावा एक व्यवसायी के रूप में उनकी चतुरता की भी अहम भूमिका रही.

अरुण ने माना कि उनके उदय में मोहिनी भुल्लर का अहम योगदान रहा है. एक लंबे समय से पुरी परिवार की सहयोगी रही भुल्लर पहले थॉमसन प्रेस का हिस्सा थी. इसके बाद उन्होंने इंडिया टुडे के शुरुआती दौर में पत्रिका के लिए विज्ञापन बिक्री की अगुवाई की और फिर समूह की मार्केटिंग को संभाला, जिसमें कॉन्क्लेव जैसे आयोजन शामिल हैं. चार दशक से अधिक काम करने के बाद जब भुल्लर सेवानिवृत्त हुई, तब अरुण ने लिखा कि उन्होंने “अकेले ही इंडिया टुडे को ब्रांड बनाने में अपना सहयोग दिया, जिससे मैं और  संस्थापक संपादन टीम विभिन्न संपादकीय चुनौतियों पर अपना ध्यान केंद्रित करने में सक्षम हो पाए.”

लेकिन अरुण की भागीदारी सिर्फ संपादकीय नहीं थी. व्यापार संबंधी रणनीति पर अंतिम निर्णय हमेशा उनका होता था. अब यह भूमिका कल्ली निभा रही हैं. इन समीकरणों को बनाए रखने के लिए बहुत सावधानी बरती गई है.

इंडिया टुडे समूह में बहुत सारे सरकारी विज्ञापन होते हैं. आज तक वेबसाइट के पूर्व सब-एडिटर श्याम मीरा सिंह कहते हैं, "यही विज्ञापन हमारी सीमाएं तय करते हैं."

इंडिया टुडे समूह की सबसे परिवर्तनकारी अवधि शायद नई सहस्राब्दी का पहला दशक था. समूह की आरंभिक सफलता मुख्य तौर पर अपनी अंग्रेजी भाषा की पत्रिका पर टिकी थी, जिसके बहुत से समृद्ध लेकिन सीमित पाठक थे. आज तक के साथ अरुण ने हिंदी के बाजार पर बड़ा दांव लगाया. लेकिन एक चैनल खड़ा करने का मतलब था बेशुमार खर्च. हिंदी समाचार क्षेत्र में कड़ी प्रतिस्पर्धा के चलते विज्ञापन राजस्व घट रहा था. आज तक को भी अपने प्रतिद्वंद्वियों के साथ बने रहने के लिए अपना विस्तार करना पड़ा. वहीं पत्रिका के समक्ष भी नई चुनौतियां थी, जिसमें एक प्रमुख नाम 1990 के दशक के मध्य में स्थापित साप्ताहिक आउटलुक का था. इसके जवाब में इंडिया टुडे ने भी ख़ुद को साप्ताहिक बना लिया, लेकिन अब वह पहले जितनी प्रभावी नहीं रह गई थी. इंडिया टुडे समूह ने 2002 में टुडे के लॉन्च के साथ अखबार प्रकाशन में भी अपना हाथ आजमाया.

आज तक के बुलेटिन से एक पूरा चैनल बनने के साथ ही समूह ने अपने टेलीविजन हितों को एक नई इकाई, टीवी टुडे नेटवर्क के तहत संगठित किया. अपने कोष को भरने के लिए टीवी टुडे जल्द ही सार्वजनिक हो गया, जिसका नियंत्रण इंडिया टुडे के पास ही रहा. दशक के अंत से पहले समूह को फिर से मदद की दरकार थी. कंपनी के 2009 के एक बयान में शिकायत की गई कि घटते विज्ञापनों, 2008 के वित्तीय संकट से उपजी वैश्विक मंदी, और नए प्रकाशनों से अब तक फ़ायदा न होने के कारण लाभप्रदता प्रभावित हुई थी. इंडिया टुडे समूह ने बड़े पैमाने पर बैंक से कर्ज लिया.

2012 में समूह को राहत मिली. आदित्य बिड़ला समूह के निदेशक अरबपति कुमार मंगलम बिड़ला एक बड़ी स्वामित्व हिस्सेदारी के बदले में इंडिया टुडे समूह में एक बड़े निवेश के लिए सहमत हुए. इस सौदे में कंपनी का एक प्रभावशाली मूल्यांकन किया गया. अनुमान है कि यह राशि 2,400 करोड़ रुपए या 450 मिलियन डॉलर से अधिक थी.  

तब से समूह के मालिकाना अधिकारों में कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ है, और इसके प्रकाशन और टेलीविजन चैनलों का प्रदर्शन भी संतोषजनक रहा है. इस कड़ी में अखबार एक अपवाद था. प्रिंट पाठकों की कम होती संख्या के बीच इंडिया टुडे समूह ने अंग्रेजी भाषा के अखबारों की दुनिया में काफी देर से कदम रखा. गौरतलब है कि इस क्षेत्र में आज़ादी से पहले के कई सम्मानित अखबारों का वर्चस्व था. जल्द ही समूह द्वारा टुडे की जगह यूके के डेली मेल के प्रकाशक के साथ एक संयुक्त उद्यम में मेल टुडे नामक अखबार को लाया गया. विदेशी भागीदार ने इस प्रयास में उदारता से निवेश किया, लेकिन भारी नुकसान और कुछ निराशाजनक वर्षों के बाद उन्होंने अपने हाथ खींच लिए. 2020 में मेल टुडे की छपाई बंद कर दी गई.

अरुण पुरी, उनकी पत्नी और बच्चों के पास सामूहिक रूप से इंडिया टुडे ग्रुप का नियंत्रण है, जो आधिकारिक तौर पर लिविंग मीडिया इंडिया लिमिटेड के रूप में पंजीकृत है. बिड़ला ग्रुप की आईजीएच होल्डिंग्स के पास इसका अल्प स्वामित्व है, जो चालीस प्रतिशत से थोड़ा अधिक है. बदले में लिविंग मीडिया टीवी टुडे में नियंत्रण हिस्सेदारी रखता है, जबकि इसका 41.5 प्रतिशत सार्वजनिक शेयरधारकों के हाथों में है. कुल मिलाकर सामूहिक रूप से टीवी टुडे के एक तिहाई हिस्से के मालिकाना अधिकारों के अलावा लिविंग मीडिया पर नियंत्रण के माध्यम से इसके निर्णायक अधिकार भी पुरी परिवार के पास सुरक्षित हैं.

लिविंग मीडिया के अन्य हित भी हैं. इनमें थॉमसन प्रेस के अलावा टुडे मर्चेंडाइज और टुडे रिटेल नेटवर्क हैं, जो टेलीशॉपिंग में शामिल हैं, और यूनिवर्सल लर्न टुडे है, जो वसंत वैली विद्यालयों के प्रमोटर हैं. मूल विद्यालय को 1990 में दिल्ली में अरुण और उनकी पत्नी रेखा द्वारा स्थापित किया गया था.

इंडिया टुडे समूह का मिश्रित पत्रकारिता पोर्टफोलियो इसे देश के सबसे विविध मीडिया संस्थानों में से एक बनाता है. पिछले वित्तीय वर्ष में टीवी टुडे का पूर्व-कर लाभ 244 करोड़ रुपए था- विगत वित्तीय वर्ष की तुलना में 25 प्रतिशत अधिक.

विज्ञापन उद्योग के कार्यक्रम में बोलते हुए अरूण ने कहा कि मीडिया का अस्तित्व विज्ञापन राजस्व पर निर्भर करता है, क्योंकि भारतीय जनता समाचार के लिए भुगतान नहीं करती है. उनकी शिकायत थी कि उपभोक्ताओं को समाचार पत्र लगबघ मुफ्त में दिए जाते हैं, जिसे वो रद्दी वालों को बेचकर उसके मूल दाम से अधिक राशि कमा लेते हैं. टेलीविज़न में केबल कनेक्शन का मूल्य बहुत कम होता है. उन्होंने कहा,  “ऐसा लगता है कि आज की सरकारें सोचती हैं कि सस्ते केबल कनेक्शन हमारे नागरिकों का संवैधानिक अधिकार है. यह सिर्फ राजनीतिक लोकलुभावन व्यवहार है.” इंडिया टुडे समूह भी इसी माहौल में काम करता है. टीवी टुडे की अंतिम वार्षिक रिपोर्ट बताती है कि सब्सक्रिप्शन से होने वाली आय की तुलना में उनका विज्ञापन राजस्व तेरह गुना अधिक था.

अरुण ने तर्क दिया कि सरकारों और विज्ञापनदाताओं के दबावों का सामना करने के लिए मीडिया को वित्तीय ताकत की जरूरत होती है. लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि केंद्र और राज्य सरकारें स्वयं प्रमुख विज्ञापनदाता हैं. जहां वह विनम्र मीडिया घरानों पर अपने विज्ञापन लुटाती हैं, वहीं कठिन सवाल पूछने वाले संस्थानों को इससे महरूम रखा जाता है. यह भारतीय मीडिया की एक विशिष्ट समस्या है.

मीडिया-समीक्षा वेबसाइट न्यूज़लॉन्ड्री की रिपोर्ट के अनुसार 2020-21 वित्तीय वर्ष में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा टेलीविज़न विज्ञापनों पर खर्च किए गए 160 करोड़ रुपए में से 10 करोड़ रुपए से अधिक इंडिया टुडे ग्रुप के हिस्से में आए. 2021 में आज तक से निष्कासित श्याम मीरा सिंह ने मुझे बताया, “आज तक में हर कोई जानता है कि हम जो कुछ भी लिखते हैं, जो कुछ भी बोलते हैं, उससे विज्ञापनों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए. यह विज्ञापन हमारी सीमाएं तय करते हैं.” श्याम ने कहा कि आज तक की वेबसाइट ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पर इतना अधिक ध्यान दिया है कि “जब आप इसे खोलते हैं, तो आपको उनके लोगो से पहले योगी जी की तस्वीर नजर आती है.”

इंडिया टुडे विज्ञापन फीचर्स सहित ढेर सारे सरकारी विज्ञापन प्रकाशित करता है. उदाहरण के लिए, अगस्त 2021 के एक अंक में इसने बिष्ट सरकार द्वारा घोषित उपलब्धियों पर 24 पृष्ठ का एक पैकेज छापा. इस विज्ञापन को संपादकीय सामग्री से अलग करने के लिए ऊपरी कोने में केवल एक साधारण सा लेबल चस्पा था.

समूह द्वारा आयोजित अन्य आयोजनों की तरह 2002 में शुरू हुआ कॉन्क्लेव भी सरकारी संरक्षण पर बहुत अधिक निर्भर रहता है. टीवी टुडे के एक पूर्व कर्मचारी ने बताया, “राज्य सरकारें इस कॉन्क्लेव के लिए करोड़ों रुपए देती हैं. यह पूरी तरह से राजस्व की एक अलग धारा है.” पूर्व कर्मचारी ने कहा कि संपादकों और पत्रकारों को अक्सर राजनीतिक नेताओं और अन्य प्रमुख हस्तियों को इन कार्यक्रमों में शिरकत करने के लिए राज़ी करने के लिए कहा जाता है.  

पूर्व कर्मचारी कहते हैं, “कॉर्पोरेट मीडिया इसी को कहते है. यह शुद्ध व्यवसाय है. उन्हें हर चार माह में मुनाफा कमाना होता है. कार्यक्रमों में पैसा बनाने के लिए आपके सरकार और कॉर्पोरेट घरानों से अच्छे संबंध होने चाहिए.”

कल्ली भले ही कहें कि इंडिया टुडे समूह अपने व्यवसाय और संपादकीय निर्णयों को एक-दूसरे से अलग रखता है, लेकिन असल में यह बात सच से कोसो दूर है. पुरी परिवार- पहले अरूण और फिर कल्ली- हमेशा से सारे अंतिम निर्णय लेते आए हैं. पूर्व कर्मचारी आश्चर्य जताते हुए कहते हैं, “हितों के टकराव को कौन देखता है?”

“क्या आप इस देश के प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं या नहीं?” अरुण पुरी ने 2013 में इंडिया टुडे कॉन्क्लेव के मंच पर नरेंद्र मोदी से यह सवाल पूछा था. उस समय यह एक पेचीदा सवाल था. 2014 के आम चुनाव में मोदी के भाजपा से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार होने की घोषणा होने में अभी कुछ महीने बाकी थे, और वह खुद पार्टी के भीतर आंतरिक विपक्षियों से जूझ रहे थे. सार्वजनिक रूप से वह संभलकर आगे बढ़ रहे थे. 

गुजरात के मुख्यमंत्री मुस्कुराए और गोलमोल जवाब देते हुए कहा, “जीवन का एक मंत्र है, जिसे मैंने हमेशा अपनी ज़िंदगी में लागू किया है.” उन्होंने कहा कि वे अक्सर इसे युवा लोगों के साथ साझा करते हैं. “मैं उनसे कहता हूं कि जीवन में कभी कुछ बनने का सपना नहीं देखना चाहिए. कुछ करने का सपना देखना चाहिए.”

2013 में इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में अरुण पुरी ने मोदी से कुछ असहज सवाल भी पूछे थे. लेकिन जब मोदी 2019 में लौटकर आए, तो अरुण केवल इतना ही पूछ पाए, "हम सभी आपसे आपकी असीम ऊर्जा का रहस्य जानना चाहेंगे." पंकज नांगिया / इंडिया टुडे समूह  गेटी इमेजिस के माध्यम से

अरुण ने जहां मोदी का गर्मजोशी से स्वागत किया, वहीं राहुल कंवल ने उनसे अधिक असहज सवाल पूछे. कंवल ने पूछा, “गुजरात मानव विकास सूचकांक में पिछड़ क्यों रहा है? यह अच्छा प्रदर्शन क्यों नहीं कर रहा है?” मोदी ने तनी हुई मुस्कान के साथ जवाब दिया, “यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मीडिया देश को अपनी मनचाही दिशा में घसीटने की कोशिश करता है. मैं भी इसका शिकार रहा हूं.” उन्होंने सभ्रांत परिवारों में खराब आहार की आदतों के कारण कुपोषण के पनपने और दूध पीने से मना करने वाले अवज्ञाकारी बच्चों की ओर इशारा किया.

जैसे-जैसे इंटरव्यू आगे बढ़ा, मोदी ने बमुश्किल ही अपनी झुंझलाहट को छुपाया. सत्र समाप्ति के करीब इंडिया टुडे के पत्रकार जावेद एम अंसारी ने दर्शक दीर्घा से सवाल पूछा, “मोदी जी, यह पहली बार नहीं है कि आपसे यह सवाल पूछा जा रहा है. आप अक्सर इसका उत्तर देने से बचते रहे हैं…आपने कहा कि 2002 में जो हुआ, वह दुर्भाग्यपूर्ण था. क्या आपको कम से कम इस बात का पछतावा है कि ये सब आपकी निगरानी में हुआ था?”

मोदी ने उत्तर दिया कि वह इस सवाल का जवाब कई बार दे चुके हैं. अंसारी ने दबाव बनाते हुए कहा, “एक बार और कह दीजिए.”

मोदी ने जवाब दिया कि वह कुछ सवालों को अगली बार के लिए बचा कर रखना चाहेंगे. “आप मुझे फिर से तो बुलाएंगे न?” भीड़ को हंसाते हुए उन्होंने पुरी की चुटकी ली. बदले में पुरी ने उनसे सीधा जवाब मांगने की कोशिश की, लेकिन मोदी हर बार बात को टालते रहे. 

श्रोताओं में से किसी ने चुटकी ली कि मोदी सवाल का जवाब देने से डर रहे हैं. मोदी ने मुस्कराते हुए जवाब दिया, “मैं कभी डरा नहीं. अगर मैं डरता, तो कभी इंडिया टुडे के कार्यक्रम में नहीं आता. मैं कम से कम पाँच हज़ार बार आप लोगों के करतब देख चुका हूं, लेकिन फिर भी हर बार यहां आता हूं.” कमरा तालियों से गूंज उठा.

2019 तक कठिन प्रश्नों के लिए कोई जगह नहीं रह गई थी. जब प्रधानमंत्री कॉन्क्लेव के मंच पर विराजमान हुए, तो अरुण ने स्वयं प्रमुख चीयरलीडर का काम किया. उन्होंने कहा, “आप एबीसीडी प्रधानमंत्री हैं. आधिकारिक के लिए ए, बोल्ड के लिए बी, करिश्माई के लिए सी और विकास के लिए डी।” दर्शकों से तालियों की नियमित पुकार के साथ अरूण ने मोदी की हर बड़ी नीति और पहल की प्रशंसा की, जिसमें पाकिस्तान के खिलाफ असफल एयरस्ट्राइक और नोटबंदी शामिल थे. उन्होंने मोदी से पूछा, “हम सभी आपसे आपकी असीम ऊर्जा का रहस्य जानना चाहेंगे.”

चूंकि मोदी एक बार फिर से आम चुनाव में उतरने वाले थे, अरुण ने अपने मेहमान को याद दिलाया कि 2013 के कॉन्क्लेव में आने के बाद ही उन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में अपना पहला कार्यकाल जीता था. इंडिया टुडे समूह के चेयरमैन ने मजाक में कहा, “आप कह सकते हैं कि हम आपके लकी चार्म हैं.”

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इंडिया टुडे समूह ने न्यूज़ट्रैक  के साथ टेलीविज़न की दुनिया में प्रवेश किया. उस दौर में टेलीविज़न मीडिया में आज जैसी गहमागहमी और प्रतिस्पर्धा नदारद थी और दूरदर्शन का एकक्षत्र बोलबाला था. लेकिन संपन्न घरों में वीसीआर के आने के साथ नए अवसर खुलने लगे थे.

अरुण की बहन मधु त्रेहन उनके नए उद्यम की कुंजी थी. पत्रकारिता में स्नातक और लंबे समय तक विदेश में रहने के बाद भारत लौटी त्रेहन को इंडिया टुडे के दफ्तर के एक स्टूडियो में जगह मिली. उन्होंने वीडियो-रेंटल सेवाओं के बढ़ते नेटवर्क के माध्यम से कैसेट पर वितरित किए जाने वाले मासिक शो की एंकरिंग शुरू की, जिसमें देश भर से जमीनी रिपोर्ट आती थी. न्यूज़ट्रैक ने जल्द ही उड़ान भरी. इसने बाबरी मस्जिद के विध्वंस को कवर किया और 1993 के बॉम्बे बम धमाकों के आरोपी याकूब मेमन का एकमात्र साक्षात्कार प्राप्त किया. इसने दर्शकों के साथ-साथ विज्ञापनदाताओं का भी ध्यान खींचा, जिन्होंने शो में विज्ञापन स्लॉट खरीदे.

समूह के लिए टेलीविज़न में पूरी तरह उतरने का मौका तब आया, जब सरकार ने निजी खिलाड़ियों को दूरदर्शन पर प्रसारण स्लॉट खरीदने की अनुमति दी. इंडिया टुडे ने न्यूज़ट्रैक की फुटेज में हिंदी वॉयस ओवर को जोड़कर 20 मिनट के एक बुलेटिन के लिए बोली लगाई. चूंकि राज्य प्रसारक उनके काम से प्रभावित थे, इसलिए 1995 में शुरू हुए डीडी मेट्रो पर समूह को एक स्लॉट मिलने में कोई परेशानी नहीं हुई. जब सरकार ने निजी चैनलों के लिए दरवाजा खोला, तो इंडिया टुडे मैदान में सबसे आगे था.

आज तक के प्रोड्यूसर संजय कुमार कहते हैं, “अरुण पुरी कहानी को ग्राफिक तरीके से दिखाने में काफी मेहनत करते थे. वो हमेशा कहते थे कि अच्छा टीवी वह होता है, जहां आप आवाज़ न होने पर भी कहानी को समझ सकते हैं.” इसका मतलब था कि अरूण अपना “ज्यादातर समय ग्राफिक्स रूम में बिताते थे.” उन्होंने विशेषज्ञों और चैनल के लिए आवश्यक तकनीक में काफी निवेश किया, जो उस समय एक महंगा सौदा था.

एक सफल हिंदी चैनल और अंग्रेजी भाषा की पत्रिका वाले इंडिया टुडे समूह के लिए अंग्रेजी भाषा में समाचार चैनल शुरू करना स्वाभाविक था. 2003 में आज तक के कुछ साल बाद हेडलाइंस टुडे का जन्म हुआ. जैसा कि नाम से जाहिर है, इस चैनल में पूरे दिन समाचारों की मुख्य सुर्खियां दिखाई जाती थी. बाद में, यानि चैनल के संघर्ष के दौर में, हेडलाइंस टुडे को एक पूर्ण चैनल बना दिया गया, जिसका अपना स्टाफ था. लेकिन फिर भी यह कभी हिंदी चैनल या अपने प्रमुख अंग्रेजी-भाषी प्रतिद्वंद्वियों जैसी लोकप्रियता हासिल नहीं कर पाया. 2015 में इसे इंडिया टुडे टीवी के रूप में रीब्रांड किया गया.

हेडलाइंस टुडे के अनुभवी संदीप भूषण ने भारतीय समाचार टेलीविजन के विषय में अपनी पुस्तक में लिखा है, “मुझे कई मौकों पर आज तक के जाने-माने पत्रकारों से मदद लेनी पड़ती थी, ताकि लोग हमसे बात करने के लिए राज़ी हो पाएं.” चैनल का प्रमुख शो, जिसे राहुल कंवल खुद होस्ट करते थे, भी संघर्षपूर्ण रहा. अधिकांश बड़े चेहरे लोकप्रिय प्रतिद्वंद्वी चैनलों, जैसे टाइम्स नाओ और एनडीटीवी पर दिखना पसंद करते थे. भूषण लिखते हैं, “हेडलाइंस टुडे में जेटली को ला पाना बेहद मुश्किल होता था, हालांकि वह नियमित रूप से आज तक के साथ अपने इनपुट साझा करते थे.”

कुछ वर्षों में ही शुरू से संघर्षरत रहे चैनल के प्रमुख एस श्रीनिवासन को हटाकर कंवल को उनकी जगह नियुक्त कर दिया गया. कंवल की उम्र और अनुभवहीनता को देखते हुए यह एक आश्चर्यपूर्ण निर्णय था. टीवी टुडे के पूर्व कर्मचारी ने मुझे बताया, “वह हमेशा से व्यवहार-कुशल थे. उनके पास अहम लोगों का ख़ास बन जाने की कला थी.” फिर भी, “यह एक किस्म का तख्तापलट था.”

पूर्व कर्मचारी ने बताया कि कुछ ही समय में “आज तक जैसी संस्कृति”- यानि पत्रकारिता के मानकों की गिरावट और स्टूडियो एंकर का उदय- “को यहां भी लागू किया जाने लगा. जब तक श्रीनिवासन थे, तब तक इसे एक अंग्रेजी चैनल की तरह चलाया जाता था.” लेकिन पूरी परिवार को “कंवल पर पूरा भरोसा” था.

उत्तर प्रदेश में 2017 के चुनाव के दौरान कंवल ने समाजवादी पार्टी के चुनाव चिन्ह साइकिल पर अखिलेश यादव का इंटरव्यू लिया. एक पूर्व कर्मचारी ने बताया कि यह कल्ली पुरी का आईडिया था. सौजन्य ट्विटर

पूर्व कर्मचारी ने याद किया कि उस समय “अरुण पुरी का व्यवहार अंगारों पर चलने वाले व्यक्ति जैसा होता था. वह सभी संपादकीय बैठकों में शामिल होते थे. उन्हें पता रहता था कि क्या-क्या काम सूचीबद्ध हैं.” अक्सर अरुण कंवल को अपने दफ़्तर में बुलाते और उन्हें किसी गलती के लिए फटकारते.  पूर्व कर्मचारी ने बताया कि कंवल इसे चुपचाप सुनते और फिर बाहर आकर अधीनस्थों पर अपना गुस्सा निकालते. “यह एक बेहद अपमानजनक और विद्वेषपूर्ण माहौल था. बहुत सारे लोगों ने काम छोड़ दिया था.”

यह बात केवल कंवल तक ही सीमित नहीं थी. सुप्रिय प्रसाद, जो वर्तमान में आज तक और इंडिया टुडे टीवी में समाचार निदेशक हैं, तब हेडलाइंस टुडे के आउटपुट सेक्शन के प्रमुख थे, जो प्रसारण के लिए जिम्मेदार था. पूर्व कर्मचारी ने बताया, “ये वो आदमी है जो तय करता है कि क्या दिखाया जाएगा. यदि आप एक रिपोर्टर हैं जिसकी उनसे अनबन हुई है, तो आपकी ख़ैर नहीं. क्योंकि आप स्टोरी फाइल करते रहेंगे और ये आदमी उन्हें कभी प्रसारित नहीं करेगा.”

प्रासंगिक बीट पर समाचार योग्य घटनाओं को कवर करने के लिए प्रसाद अक्सर पत्रकारों की जगह स्टूडियो एंकरों को भेजते थे. पूर्व कर्मचारी बताते हैं कि एक बार उन्होंने प्रसाद को एक पत्रकार से यह कहते हुए सुना, “तेरे चेहरे पर हमें रेटिंग नहीं मिलेगी.”

प्रसाद के एक पूर्व सहयोगी ने मुझे बताया कि प्रसाद ने एक बार एक महिला सहकर्मी से कहा था कि वह स्टूडियो एंकर बनने के लिए उपयुक्त हैं, क्योंकि उनकी जॉलाइन (जबड़े की रेखा) अच्छी है. पूर्व संवाददाता ने मुझे बताया, “हमारा एक आंतरिक मज़ाक था कि इंडिया टुडे में शामिल होने के लिए आपका ओछा होना ही बहुत है.” इंडिया टुडे समूह के संपादक ने मुझे बताया कि प्रसाद अक्सर महिला सहयोगियों के साथ अनुचित यौन बातचीत में लिप्त रहते थे.

प्रसाद को कार्यस्थल पर कदाचार की शिकायत का सामना करना पड़ा और उन्होंने 2007 में इस्तीफा दे दिया. उन्होंने अपना खुद का चैनल भी लॉन्च किया, लेकिन कुछ साल बाद पुरी उन्हें वापस ले आए. प्रसाद ने उन सवालों की सूची का जवाब नहीं दिया, जो मैंने उन्हें ईमेल किए थे.

इंडिया टुडे की पूर्व कर्मचारी रुक्मिणी सेन ने 2018 में प्रसाद पर "निहायती खराब मौखिक सेक्सिज़म (लैंगिक भेदभाव)" का आरोप लगाया. सेन ने फेसबुक पर लिखा कि 2012 में उनकी शिकायत का संज्ञान लेने के लिए समिति बनाने में संगठन को पूरा एक साल लग गया था. लेकिन इस समिति में कानून के तहत जरूरी कोई प्रतिष्ठित बाहरी सदस्य शामिल नहीं था. इसलिए उन्होंने इस “बेईमान” समिति के सामने पेश होने से इनकार कर दिया था. बाद में उन्हें सूचित किया गया कि समिति ने प्रसाद को निर्दोष पाया है.

गौरव सावंत, जो अब टीवी टुडे नेटवर्क के प्रबंध संपादक हैं, को भी यौन दुराचार के आरोप का सामना करना पड़ा है. पत्रकार विद्या कृष्णन ने सावंत पर अपने वर्तमान चैनल में शामिल होने से कुछ साल पहले 2003 में यौन उत्पीड़न और प्रताड़ना का आरोप लगाया था.

टीवी टुडे के पूर्व कर्मचारी ने मुझे बताया कि प्रसाद “बौद्धिक रूप से कमतर” व्यक्ति हैं, लेकिन अरुण पुरी उन्हें अपने चैनलों की रेटिंग का अभिन्न अंग मानते हैं. पूर्व कर्मचारी ने याद किया, “एक समय था जब वह उन्हें छोड़कर दूसरे चैनल पर गए थे और आज तक डूबने लगा था. इंडिया टीवी नंबर वन बन गया था.” यह वो दौर था जब टेलीविजन समाचार काले जादू, घोटालों और अन्य सनसनीखेज सामग्री पर अधिक से अधिक ध्यान केंद्रित कर रहे थे. पूर्व कर्मचारी ने बताया कि पुरी को लगा कि आज तक को इस दौड़ में आगे रखने के लिए प्रसाद ही सही व्यक्ति थे.

इंडिया टुडे समूह के संपादक ने मुझे बताया, “वह जो कुछ भी करते हैं, दर्शकों की दिलचस्पी बढ़ाकर टीआरपी खींचने के लिए करते हैं. सुप्रिय प्रसाद इंफोटेनमेंट (इन्फोर्मेशन और एंटरटेनमेंट को मिलाकर बना शब्द) के बादशाह हैं.” इस सबके बीच जिन पत्रकारों को “उनकी ईमानदारी और स्पष्टवादिता के लिए सम्मान दिया जाना चाहिए, उन्हें काम से निकाल दिया जाता है या दरकिनार कर दिया जाता है. और जिन्हें जहर उगलने लिए काम से निकाल दिया जाना चाहिए, उन्हें कोहिनूर हीरे की तरह रखा जाता है.”

मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल के दौरान टेलीविजन समाचार की पहुंच के दायरे का असली खुलासा हुआ. इंडिया टुडे समूह में यह वो समय था, जब उनके चैनल उनकी पत्रिकाओं से आगे निकल गए थे. अब संपादकीय सामग्री पन्नों के बजाय स्क्रीन पर अधिक मायने रखती थी. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार के पहले कार्यकाल में पत्रिकाओं और चैनलों का आलोचनात्मक स्वभाव बहुत तीखा नहीं था. लेकिन यूपीए के दूसरे कार्यकाल में भ्रष्टाचार के घोटालों में फंसी सरकार और सिंह की मूक प्रधानमंत्री छवि के विरुद्ध मीडिया ने अपना पलड़ा भारी करना शुरू कर दिया था.

2010 में पत्रिका ने यूपीए के नाम पर चुटकी लेते हुए इसे ‘अंडर परफॉर्मिंग एलायंस’ बुलाते हुए इसी शीर्षक के साथ एक कवर प्रकाशित किया. इसके तुरंत बाद सत्तारूढ़ पार्टी के साथ दिखते हुए पत्रिका ने एक सर्वेक्षण प्रकाशित किया, जिसमें राहुल गांधी को अगले प्रधानमंत्री के लिए सबसे लोकप्रिय पसंद दिखाया गया. साथ ही एक ख़ुशामदी लेख भी छपा, जिसमें राहुल की नेहरू-गांधी वंश के वंशज होने के बावजूद धैर्यपूर्ण और सौम्य व्यवहार रखने के लिए प्रशंसा की गई. लेकिन जल्द ही पत्रिका ने सरकार के खिलाफ बहुत से कवर प्रकाशित किए और टेलीविजन चैनलों ने भी पत्रिका का अनुसरण किया.

सरकार और टेलीविजन मीडिया के लिए 2012 का अंत एक ऐतिहासिक क्षण बनकर आया. राजधानी में एक चलती बस में एक युवती के साथ बर्बर सामूहिक बलात्कार की घटना घटी. टेलीविजन कवरेज ने बड़े पैमाने पर इसके खिलाफ हुए विरोध प्रदर्शनों को हवा दी और देखते ही देखते जनमानस में एक असफल सरकार की सार्वजनिक धारणा व्याप्त होती गई. आज तक और हेडलाइंस टुडे ने अपने प्रतिद्वन्दी चैनलों की तरह अपने कैमरों से पल-पल के घटनाक्रम का प्रसारण किया.

पुरी से लेकर प्रसाद और कंवल तक समान संपादकीय नेतृत्व के बावजूद इंडिया टुडे समूह के चैनलों ने कभी भी मोदी के सत्ता में आने के बाद से किसी भी सरकार विरोधी आंदोलन या भ्रष्टाचार के आरोपों को इतनी प्रमुखता नहीं दी है, जबकि दोनों के बहुधा उदाहरण मौजूद हैं.

पुरी और कंवल ने मेरे साक्षात्कार अनुरोधों या ईमेल किए गए प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया.

इंडिया टुडे टीवी की शुरुआत एक नए परिसर के साथ हुई- नोएडा में समूह का वर्तमान मुख्यालय. इंडिया टुडे समूह की सभी प्रमुख शाखाएं अब एक ही छत के नीचे आ गई थी. अरुण पुरी ने इस अवसर पर घोषणा की कि इससे उनका सभी “ऑन स्टैंड्स, ऑनलाइन और ऑन एयर” शाखाओं में “तालमेल” स्थापित करने का लक्ष्य पूरा हो गया है.

एक पूर्व संपादक ने मुझे बताया, “हर दिन, हर स्तर के सभी संपादक- जैसे आज तक, इंडिया टुडे टीवी, इंडिया टुडे  पत्रिका, डॉट कॉम- सेमिनार कक्ष में मिलकर चर्चा करते कि देश में क्या चल रहा है.” अरुण और कल्ली भी इन बैठकों में मौजूद रहते थे.

2017 में अरुण ने धीरे-धीरे कल्ली को अधिक प्रभार देना शुरू किया और फिर दिन-प्रतिदिन के कार्यों की बागडोर पूरी तरह उन्हें थमा दी. पुरी ने एक साक्षात्कारकर्ता से कहा, “वह 20 वर्षों से कंपनी में काम कर रही है. अगर मुझे नहीं लगता कि मेरी बेटी सक्षम है, तो मैं उसे ये दायित्व नहीं सौंपता. मेरे दो और बच्चे हैं. लेकिन उन्हें इस व्यवसाय में कोई दिलचस्पी नहीं है.” पुरी के बेटे अंकुर थॉमसन प्रेस के प्रबंध निदेशक हैं. एक और बेटी, कोयल, एक फिल्म अभिनेता और निर्माता है, और कुछ समय के लिए हेडलाइंस टुडे पर एक सेलिब्रिटी टॉक शो किया करती थी.

विदेश में डिग्री प्राप्त करने और कुछ समय विज्ञापन जगत में काम करने के बाद 1990 के मध्य में कल्ली इंडिया टुडे में शामिल हो गई. उन्होंने हेडलाइंस टुडे में जाने से पहले एक रिपोर्टर और एक मार्केटिंग एक्जीक्यूटिव की भूमिकाएं निभाई, जहां वह मनोरंजन विभाग में थी. 2011 से वह इंडिया टुडे ग्रुप की प्रमुख क्रिएटिव अधिकारी थी. उनके अपने शब्दों में, उनका काम यह सुनिश्चित करना था कि समाचारों को यथासंभव रचनात्मक रूप से दिखाया जाए और टेलीविजन, वेब, प्रिंट और मोबाइल उपकरणों पर “अलग-अलग तरीकों से चलाया जाए.” इंडिया टुडे टीवी के लॉन्च के साथ उन्हें प्रसारण और नए मीडिया के लिए समूह संपादकीय निदेशक के रूप में नामित किया गया और उन्होंने टेलीविजन और डिजिटल प्लेटफॉर्म के साथ-साथ कार्यक्रमों का भी प्रभार संभाला. वह 2011 से ही कॉन्क्लेव का नेतृत्व कर रही थी.

टीवी टुडे के पूर्व कर्मचारी कहते हैं, “यह एक प्रकार का बॉलीवुडकरण है, जहां आप समाचार व्यवसाय को शो व्यवसाय में बदल देते हैं.” इंडिया टुडे के टेलीविजन पत्रकारों के गोल्डन माइक्रोफोन के पीछे कल्ली का ही हाथ है. 2017 में उत्तर प्रदेश में चुनाव के दौरान कंवल ने राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का लखनऊ में नदी किनारे साइकिल पर साक्षात्कार लिया. यादव की समाजवादी पार्टी का चुनाव चिन्ह साइकिल है. पूर्व कर्मचारी ने बताया कि यह भी कल्ली का आइडिया था.

न्यूज़ रूम में कल्ली के पसंदीदा चेहरे बदलते रहते हैं. पूर्व कर्मचारी ने बताया, “जब कल्ली की बात आती है, तो हर मौसम में उनकी पसंद बदलती है. अचानक से कोई एक एंकर, संपादक या रिपोर्टर उनका पसंदीदा बन जाता है."- और फिर अचानक से नजरों से नीचे भी उतर जाता है. कल्ली ने सुधीर चौधरी और आजतक के एक साथ आने को एक "धमाकेदार जोड़ी" के रूप में प्रस्तुत किया था. लेकिन चौधरी का चैनल की रैंकिंग पर कोई नाटकीय प्रभाव नहीं पड़ा है, हालांकि यह दावा किया जा रहा है कि उनका शो रात 9 बजे के स्लॉट में सबसे ज्यादा देखा गया है.

कल्ली पुरी ने 2011 से इंडिया टुडे कॉन्क्लेव का नेतृत्व किया है. उनका करियर समाचारों की सामग्री के बजाय प्रस्तुतिकरण पर अधिक केंद्रित रहा है. एक पूर्व कर्मचारी ने कहा, “वह जानती हैं कि समाचारों को मनोरंजन के रूप में कैसे बेचा जाता है.” सुबीर हल्दर / द इंडिया टुडे ग्रुप वाया गेटी इमेजिज

2020 में कल्ली को भारतीय टेलीविजन के रेटिंग निकाय, ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल के बोर्ड में नियुक्त किया गया. एक महीने के भीतर ही बीएआरसी घोटाले में घिर गया, जिसमें इंडिया टुडे का नाम भी शामिल था. बीएआरसी चुनिंदा घरों के आंकड़ों के आधार पर दर्शकों के आंकड़े तैयार करता है. मुंबई के पुलिस आयुक्त ने कई मीडिया घरानों पर टीआरपी बढ़ाने के लिए अपने चैनलों को चालू रखने के लिए कुछ परिवारों को भुगतान करने का आरोप लगते हुए एक प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित की. रिपब्लिक टीवी को इसमें सबसे बड़ा अपराधी बताया गया.

रिपब्लिक टीवी के प्रमुख अर्नब गोस्वामी ने अपने प्राइम टाइम शो पर इन आरोपों पर पलटवार किया. पुलिस ने दर्शकों के आंकड़े मापने के लिए बीएआरसी द्वारा नियुक्त एजेंसी हंसा रिसर्च की शिकायत के आधार पर प्राथमिक सूचना रिपोर्ट दर्ज की थी. गोस्वामी ने प्राथमिकी से हंसा के एक पूर्व कर्मचारी का बयान पढ़ा, जिसमें कहा गया था कि उसने कई परिवारों को इंडिया टुडे टेलीविजन देखने के लिए रिश्वत दी थी.

गोस्वामी ने इंडिया टुडे पर मुंबई पुलिस के साथ मिलीभगत का आरोप लगाया. तब मुंबई पुलिस शिवसेना के नेतृत्व वाली महाराष्ट्र सरकार के अधीन थी और शिवसेना और बीजेपी एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी बन चुके थे. इंडिया टुडे ने अपनी प्रतिक्रिया में जवाबी आरोप लगाए. दोनों पक्षों ने रेटिंग में किसी भी हेरफेर से इनकार किया. भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के तहत प्रवर्तन निदेशालय ने जल्द ही जांच को अपने हाथ में ले लिया. लगभग दो साल बाद ईडी ने रिपब्लिक टीवी को बरी कर दिया. इंडिया टुडे अभी भी जांच के घेरे में है.

टीवी टुडे के पूर्व कर्मचारी ने न्यूज़रूम में “टॉप-हैवी” पदानुक्रम का वर्णन किया. उन्होंने बताया, “कल्ली पुरी हर दिन दो घंटे की एक संपादकीय बैठक करती हैं.” इसमें प्रसाद भी उपस्थित रहते हैं. “बहुत से वरिष्ठ पत्रकार और संपादक 'मैम, मैम, यस मैम' करते रह जाते हैं. यहां तक कि अगर उनकी बात में योग्यता है, तो भी वे कल्ली की बात को ही स्वीकार करते हैं. असहमती के लिए यहां बहुत कम जगह है.”

इंडिया टुडे ग्रुप के संपादक ने बताया कि किस तरह सरकार की सकारात्मक छवि गढ़ने वाली घटनाओं को लेकर कल्ली और प्रसाद नियमित रूप से कर्मचारियों को “माहौल बनाओ” की ब्रीफ देते हैं. चैनल का एजेंडा सोशल मीडिया के रुझानों और प्रधानमंत्री के कार्यक्रम से काफी प्रभावित रहता है. “हम दूरदर्शन कमेंट्री चैनल बन गए हैं,” संपादक ने कहा- संक्षेप में कहें तो एक सरकारी मुखपत्र. “चाहे मोदी मन की बात (उनका रेडियो शो) में बोल रहे हों या बगीचे में टहल रहे हों, हम उन्हें लाइव दिखाने लगते हैं.”

जब मोदी सरकार द्वारा कोविड-19 महामारी की शुरुआत में अचानक देशव्यापी तालाबंदी की घोषणा हुई, तो लाखों प्रवासियों को आश्रय देने या घर लौटने के लिए परिवहन के बुनियादी इंतज़ामों के बगैर बेसहारा छोड़ दिया गया. ऐसे मानवीय आपातकाल के दौरान कंवल की पत्रकारिता की प्राथमिकता थी "मदरसा हॉटस्पॉट" नामक जगहों का खुलासा करना. उनके शो में राजधानी के तीन मदरसों के स्टिंग वीडियो प्रसारित किए गए, जिसमें उन्होंने कहा कि बिना सामाजिक दूरी बनाए बच्चों को छोटे कमरों में ठूंस-ठूंस कर लॉकडाउन के नियमों का उल्लंघन किया जा रहा है और कुछ मामलों में पुलिस को रिश्वत दी जा रही है. जब न्यूज़लॉन्ड्री ने इन मदरसों की देखभाल करने वाले दो लोगों का साक्षात्कार किया, तो पाया कि मदरसों में बच्चों (जिनमें से अधिकांश दिल्ली से बाहर के थे) के रहने और खाने-पीने का बंदोबस्त किया गया था, क्योंकि उन्हें घर नहीं भेजा जा सकता था. प्रतिद्वंद्वी हिंदी चैनल इंडिया टीवी की एक रिपोर्ट ने दिखाया कि इन मदरसों में से एक में वास्तव में दूरी रखने के बेहतरीन दिशा-निर्देशों का पालन हो रहा था. इंडिया टुडे समूह का यह एपिसोड चैनलों पर सरकार समर्थक कार्यक्रमों की एक लहर का हिस्सा था, जिसमें मुसलमानों को कोविड -19 के संक्रमण के लिए बलि का बकरा बनाया जा रहा था.

इंडिया टुडे समूह ने कभी-कभी ऐसी खबरें भी चलाई हैं, जो सरकार और बीजेपी के खिलाफ जाती हैं. समूह ने 2018 में हिंदुत्ववादी सनातन संस्था, जिसके ऊपर कई आतंकी हमलों और हत्याओं के आरोप हैं, के सदस्यों पर एक स्टिंग किया जिसमें उन्होंने महाराष्ट्र में हुए बम विस्फोटों की एक श्रृंखला में हाथ होने की बात कबूल की. कंवल ने फुटेज दिखाते हुए पूछा कि सनातन संस्था को अभी तक प्रतिबंधित क्यों नहीं किया गया है? 2020 की शुरुआत में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में एक नकाबपोश भीड़ द्वारा छात्रों और शिक्षकों पर हमले के बाद इंडिया टुडे की एक जांच में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ताओं का पर्दाफाश हुआ, जिसमें एक व्यक्ति ने हमले की साजिश रचने की बात कबूल की. लेकिन इंडिया टुडे ने इनमें से किसी भी मामले में आरएसएस या बीजेपी के बड़े नेताओं की भूमिका पर कोई सवाल नहीं उठाया.

कुल मिलाकर आज तक और इंडिया टुडे टीवी की पत्रकारिता का पतन जारी है. 2017 में शिव अरूर ने दक्षिण कर्नाटक में परेश मेस्ता नाम के एक युवक की मौत की घटना पर एक शो किया. उन्होंने आरोप लगाया कि युवक को भीषण यातना दी गई थी. उनका पक्ष भाजपा के एक सांसद के आरोपों पर आधारित था, जिन्होंने पहले राज्य की कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार पर जिहादी ताकतों की रक्षा करने का आरोप लगाया और फिर टीवी पर निर्विरोध रूप से अपनी बातों को जमकर हवा दी. बदले में हिंदुत्व कार्यकर्ताओं ने इस क्षेत्र में हिंसक विरोध प्रदर्शन किए और मुस्लिम व्यवसायों और धार्मिक स्थलों को निशाना बनाया. पुलिस ने अपनी पड़ताल में पाया कि मौत आकस्मिक थी. पुलिस के इस निष्कर्ष को बाद में केंद्रीय जांच ब्यूरो द्वारा भी पुष्ट किया गया. सार्वजनिक आलोचना का सामना कर रहे अरूर ने लिखा कि उनके शो में कुछ गलत नहीं था, क्योंकि यह मामला एक निर्वाचित प्रतिनिधि द्वारा उठाया गया था और उन्होंने भाजपा सांसद के साथ पुलिस को भी अपना पक्ष रखने का मौका दिया था.

इस सितंबर में इंडिया टुडे के अरूर, सुधीर चौधरी और चित्रा त्रिपाठी ने नौसेना के औपनिवेशिक पताका चिन्ह के लिए मनमोहन सिंह सरकार को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा कि मोदी ने राष्ट्रवाद की मजबूती के लिए इसे हटा दिया है. तथ्य-जांच करने वाली वेबसाइट ऑल्टन्यूज़ ने खुलासा किया कि इस पताका को वास्तव में भाजपा के अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा पुनः इस्तेमाल में लाया गया था. अरूर ने शो में अपनी गलती कबूल करते हुए कहा, “तथ्य जांच में मेरी त्रुटि को भाजपा के प्रचार के रूप में पेश किया जा रहा है. लेकिन अगर यह सच होता, तो आप इस स्पष्टीकरण को नहीं देख रहे होते. मैं चाहता तो ये न करता. मुझे क्यों परवाह करनी चाहिए?”

ऐसी गलतियां करने वाले अरूर और उनके साथियों को इंडिया टुडे समूह की ओर से किसी भी दंड का सामना नहीं करना पड़ा है. हाल के दिनों में राजदीप सरदेसाई ऐसे एकमात्र एंकर हैं, जिन्हें समूह द्वारा दंडित किया गया है.  राजदीप ने प्रतिद्वंद्वी चैनल एनडीटीवी में अपनी पहचान बनाई और वर्तमान में उन्हें इंडिया टुडे के उदार चेहरों में गिना जाता है. जनवरी 2021 में सरदेसाई ने ट्वीट किया कि मोदी सरकार के नए कृषि कानूनों का विरोध कर रहे किसानों के राष्ट्रीय राजधानी आने के रास्ते में पुलिस ने ट्रैक्टर चला रहे एक प्रदर्शनकारी को गोली मार दी, जिससे उसकी मौत हो गई. कई चश्मदीद गवाहों और चिकित्सा साक्ष्यों द्वारा इस बात की पुष्टि की गई थी. लेकिन पुलिस ने दावा किया कि ट्रैक्टर के दुर्घटनावश पलटने से प्रदर्शनकारी की मौत हो गई थी. अपने कहे पर खेद जताने और सार्वजनिक माफी मांगने के बावजूद सरदेसाई को ऑफ एयर कर दिया गया और उनका एक महीने का वेतन रोक दिया गया.

न्यूज़लॉन्ड्री ने सवाल किया कि अन्य कर्मचारियों को कभी सरदेसाई की तरह सज़ा क्यों नहीं मिली है? यह सवाल इंडिया टुडे समूह की व्यापक आलोचना का एक हिस्सा था, जिसमें समूह के चैनलों द्वारा दुष्प्रचार फैलाने के कई मामले उजागर किए गए थे. (संयोग से मधु त्रेहन ने इंडिया टुडे ग्रुप छोड़ने के बाद न्यूज़लॉन्ड्री की सह-स्थापना की. उन्होंने 2019 में इसे छोड़ दिया था.) 2021 में टीवी टुडे नेटवर्क ने अदालत में न्यूज़लॉन्ड्री  से 2 करोड़ रुपए का हर्जाना मांगा. समूह का आरोप था कि न्यूज़लॉन्ड्री के टीवी टुडे कवरेज की आलोचना करने वाले वीडियो ने उसके चैनलों से लिए गए फुटेज को दिखाकर कॉपीराइट का उल्लंघन किया है. समूह ने न्यूज़लॉन्ड्री के उन दावों पर भी आपत्ति जताई, जिसमें गौरव सावंत और श्वेता सिंह जैसे एंकरों को रिपोर्टिंग के लिए अयोग्य करार दिया गया था. उन्होंने इन्हें “झूठा, मानहानिकारक और अपमानजनक” बताया. दिल्ली उच्च न्यायालय ने टीवी टुडे की इस याचिका को खारिज कर दिया कि न्यूज़लॉन्ड्री के वीडियो तुरंत हटा दिए जाएं. मामले का फैसला होना बाकी है.

राजनीतिक ओपिनियन पोर्टल डेलीओ की संपादक अंगशुकांता चक्रवर्ती ने 2018 में ट्वीट किया,”नफरत और फर्ज़ी खबरें फैलाने वाले समाचार एंकरों, संपादकों, पत्रकारों और लेखकों पर आंखें मूंदने वाले प्रमोटरों, या उन्हें काम पर रखने वालों को नफरत के कारोबार के मुनाफाखोर के रूप में अदालत में पेश किया जाना चाहिए. धर्मनिरपेक्ष राजनेताओं और उद्योगपतियों को उनका सामाजिक रूप से बहिष्कार करना चाहिए.” चक्रवर्ती ने अपने ट्वीट में डेलीओ के मालिक इंडिया टुडे समूह सहित किसी भी प्रमोटर या मीडिया हाउस का नाम नहीं लिया था.

चक्रवर्ती के कार्यालय ने उनसे बार-बार ट्वीट हटाने के लिए कहा, और उन्होंने हर बार ऐसा करने से इनकार कर दिया. उन्होंने तर्क दिया कि यह पोस्ट भारतीय मीडिया की स्थिति पर एक सामान्य टिप्पणी थी. उन्हें जल्द ही एक निष्कासन नोटिस थमा दिया गया.

इंडिया टुडे ने एक बयान जारी कर कहा कि चक्रवर्ती को “संपादकीय आचरण के उल्लंघन” के लिए काम से निकाला गया और एक आंतरिक पैनल द्वारा इस “उल्लंघन” की जांच की गई थी. चक्रवर्ती ने जवाब दिया कि उन्हें कभी सूचित भी नहीं किया गया कि ऐसा कोई पैनल वजूद में है. उन्होंने एक खुले पत्र में पूछा, “क्या इंडिया टुडे स्पष्ट रूप से बता सकता है कि फर्जी खबरों और अभद्र भाषा को लेकर मीडिया संगठनों से जवाबदेही की मांग करने में क्या आपत्तिजनक था? क्या इसका कोई और अर्थ निकलता है? यदि नहीं, तो मुझे काम से क्यों निकाला गया? क्या यह मौलिक रूप से इंडिया टुडे की ओर से एक आत्म-विरोधाभासी निर्णय नहीं है, जो दावा करता है कि वो अपने 'लोकतांत्रिक न्यूज़ रूम' के कारण पत्रकारिता का 'स्वर्ण मानक' है?

अनुवाद : कुमार उन्नयन