भारतीय मीडिया में खोजी पत्रकारिता का दुखांत

कारवां

"बाईलाइन" शब्द का सबसे पहला इस्तेमाल एक सदी पूर्व अर्नेस्ट हेमिंग्वे के उपन्या द सन ऑल्सो राइजेज में हुआ था. समय के साथ हमारे बीच के आदर्शवादियों के लिए ‘बाईलाइन’ पत्रकारिता की शक्ति का प्रतीक बन गया. इस शब्द में वह बात थी कि साधारण पत्रकार शक्तिशाली लोगों को चुनौती दे पाता था. बतौर एक युवा पत्रकार मैं बाईलाइन के लिए मरता था. उसकी पवित्रता पर मुझे विश्वास था और संपादक भी अपनी पूरी ताकत से इसे संरक्षित करते थे. लेकिन मैंने अपने करियर में बाईलाइन की धीमी और क्रूर मौत को करीब से देखा है. इस हत्या में न सिर्फ सत्ता के भूखे नेताओं और उद्योगपतियों का, बल्कि मीडिया मालिक और संपादकों का भी हाथ था.

एक दशक से भी पहले मैंने अपने ईमेल में मॉर्ग यानी मुरदा घर नाम का एक फोल्डर बना लिया था. मैं इस फोल्डर में उन रिपोर्टों को रखने लगा जो स्तरीय होने के बावजूद छपी नहीं. मैंने कितनी ही नौकरियां बदलीं लेकिन उस फोल्डर का वजन बढ़ता गया. एक बड़े स्टार्ट-अप अखबार और एक विशाल मीडिया हाउस, जो अपने ऊंचे मुनाफे के प्रसिद्ध है, से लेकर नैतिक प्रतिष्ठा वाले मीडिया हाउस तक, इस फोल्डर में सबके नाम हैं. मेरे इस मॉर्ग में बड़े नेताओं और कारपोरेट दिग्गजों पर रपटें हैं जो किसी मजबूत मीडिया वाले देश में बहुत बड़ी मानी जातीं और कानून के राज वाले समाज में बड़ी आपराधिक जांचें करवातीं. लेकिन भारत में ऐसी खबरों को कोई लेनदार नहीं है. कई बार ऐसे संपादकों भी दिखे जो पत्रकारिता के साथ खड़े हुए लेकिन ऐसे लोग विरले थे. न्यूजरूम की संस्कृति धीरे-धीरे खराब हुई और खुद की सेंसरशिप करना युवा पत्रकारों की प्रकृति बन गया.

करियर शुरू करने के कुछ सालों के भीतर ही मैं न्यूजरूम की वास्तविकताओं से परिचित हो गया. लगभग एक दशक पहले एक शाम मुझे अपने समाचार पत्र के प्रमोटर का कॉल आया. मेरी टीम के एक सदस्य ने एक रहस्यमय आगजनी के बारे में एक सनसनीखेज रिपोर्ट पता लगाई थी. उस आगजनी में एक प्रमुख रियल एस्टेट कंपनी पर लगाए गए बड़े जुर्माने से संबंधित आयकर फाइलें नष्ट हो गई थीं. प्रमोटर ने मुझे कुछ दिनों तक उस रिपोर्ट को रोके रखने के लिए कहा क्योंकि “उस कंपनी से कोई अपना पक्ष रखना चाहता” था. दो दिन बाद अखबार के पहले पन्ने पर टैक्स चोरी करने वाली रियल एस्टेट कंपनी बड़ा विज्ञापन छपा. वह खबर फिर कभी अखबार में नहीं छप पाई.

पिछले कुछ दशकों में भारतीय मीडिया को सिर्फ मुनाफे से मतलब रहा है और सभी ने लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में अपनी भूमिका त्याग दी है. ऐसी स्थिति में सराहना तो दूर की बात है, उल्टे अच्छी रिपोर्टिंग को जानबूझ कर सेंसर कर दिया जाता है. व्यावसायिकता के लिबास को बनाए रखते हुए संपादक विभिन्न हितों को संतुलित करने की कोशिश कर रहे दलालों का काम करते हैं और मालिकों ने राजनीतिक और व्यावसायिक लाभ के लिए अपने ब्रांडों को प्यादे के रूप में इस्तेमाल किया है. सबसे तेज प्रमोशन और सबसे मोटा वेतन या पैकेज ज्यादातर दलालों के लिए आरक्षित हैं, जो पत्रकारों के भेष में सौदे फिक्स करते हैं और मीडियापतियों की परेशानियों को सुलझाने का काम करते हैं.

इसका सबसे बुरा प्रभाव रिपोर्टरों पर पड़ा है जो ऐसी विषम परिस्थितियों में इस पेशे में प्रवेश कर रहे हैं. आज के दौर में एक रिपोर्टर का काम पन्नों को भरने के लिए पर्याप्त सामग्री जुटाना है. हर कदम पर खुद को सेंसर करने का पाठ सीखे ये रिपोर्टर ऐसी कहानी पिच करने की हिम्मत भी नहीं करते जो एक प्रतिष्ठित न्यूजरूम के उसके सुरक्षित अस्तित्व को खतरे में डाल दे. ऐसे में अधिकांश रिपोर्टर केवल न्यूज वायर में आने वाली खबरों पर रिपोर्ट बनाते हैं. रिपोर्टर का काम इन कॉपियों सुधार कर अपना नाम डालना है. बदले में संपादक खुश होते हैं कि एडिट करने के लिए कोई मुश्किल कॉपी नहीं है और न किसी बड़े कारपोरेट का गुस्सा झेलना होगा, न सरकारी धमकी का सामना करना पड़ेगा.

नतीजतन, पढ़ने पर अधिकतर अखबार एक जैसे लगते हैं. ज्यादातर अखबारों के फ्रंट पेज सरकारी कार्यक्रमों का जश्न मनाने वाले संदेशों से भरे रहते हैं. जब बड़े और शक्तिशाली लोग लड़ रहे होते हैं-जैसा कि हाल के सीबीआई और आरबीआई के भीतर ताजा विवाद के मामलों में हुआ- समाचार पत्रों में लीक छपने लगती है. बाकी बचे पन्नों में कारपोरेट घोषणाएं, कुछ ऑफबीट मानवीय रुचि वाली कहानियां और कुछ डेटा आधारित लेख होते हैं. और खोजी पत्रकारिता गायब होती है.

हालांकि पत्रकारिता में गिरावट की प्रक्रिया लंबे समय से जारी है लेकिन लेकिन मौजूदा सरकार में मीडिया की अपमानजनक स्थिति अभूतपूर्व है. सोशल मीडिया में व्याप्त भारी संभावनाओं को पकड़ने वाले वाले नरेन्द्र मोदी पहले नेता थे. इन प्लेटफार्मों पर मोदी और उनकी सरकार ऐसी जानकारी देने के लिए स्वतंत्र हैं जो पत्रकारिता में खरी नहीं उतरतीं और जब उनसे सवाल पूछा जाता है तो ट्रोल आर्मी को खोल दिया जाता है.

असल में सरकार का सोशल मीडिया भी पत्रकारों के लिए सूचना का प्राथमिक स्रोत बन गया है. ज्यादातर दिनों में मोदी या सरकार के मंत्री का ट्वीट अखबारों के लिए प्रमुख खबर होता है. सरकार के आंतरिक कार्यों से काफी हद तक बाहर कर दिए गए पत्रकार अपना समय सोशल मीडिया पर खबर खोजने में बिताते हैं.

पारंपरिक मीडिया को भी मोदी अच्छे से मैनेज करना जानते हैं. 1990 के दशक की शुरुआत में उन्होंने टेलीविजन स्टूडियो में घूमना शुरू किया और फिर वह खूंटा गाढ़ कर विराजमान हो गए.

अधिकांश अखबारों का राष्ट्रीय ब्यूरो ऐसे पत्रकारों से भरा है जो पत्रकारिता के बजाय पहुंच को अपना लक्ष्य मानते हैं. यहां तक कि कुछ साथी पत्रकार, जो 2014 के चुनाव से पहले अच्छी रिपोर्टों पर हमें बधाई देते थे और खोजी पत्रकारिता के बारे में जिनकी बातें काफी अच्छी लगती थीं, वे भी अब सरकार के सामने झुक रहे हैं ताकि उनकी नौकरी बनी रहे और अब वे बस दरबारी के साथ साथ प्रचारक बन कर रह गए हैं. देश में चल रहे घटनाक्रम पर सवाल उठाने वाले कुछ संपादकों ने नौकरी क्या गंवाई बड़े न्यूजरूम से विरोध के स्वर गायब हो गए.

आत्म-संरक्षण और भय का यह वातावरण मीडिया तक ही सीमित नहीं है. हमें एक गैर-उदार लोकतंत्र में बदलने के इस प्रयास में हर संस्थान पर हमला किया जा रहा है. ह्विसल-ब्लोअर हमेशा से अच्छी रिपोर्टिंग में एक महत्वपूर्ण घटक रहा है. लेकिन भारत में ये काम आपको जेल पहुंचा सकता है, आपकी हत्या हो सकती है और आपको विचारधारा के नशे में डूबी सोशल-मीडिया आर्मी के हमले का सामना करना पड़ सकता है. चतुर नौकरशाही सलाह के साथ बीते सालों में सरकारों ने ह्विसल-ब्लोअर को जो भी सुरक्षा उपलब्ध थी उसका गला घोंट दिया है. सरकार में उच्च स्तर पर भ्रष्टाचार की जांच करने के लिए बनाई गई संस्था केंद्रीय सतर्कता आयोग के ऑफिस की विश्वसनीयता खुद संदेह के घेरे में है. भ्रष्टाचार रोकथाम अधिनियम को इस साल की शुरुआत में संशोधित किया गया और "आपराधिक दुर्व्यवहार" की परिभाषा को कमजोर बना दिया गया. वहीं, सरकारी अधिकारियों पर मुकदमा चलाने के लिए नए प्रतिबंध लगाए गए. सरकार सूचना के अधिकार के कानून को लेकर शत्रुतापूर्ण रही है, सूचना आयुक्तों की नियुक्ति करने से इनकार कर रही है और यहां तक की कानून को कमजोर करने के तरीके तलाश रही है.

अब यूपीए सरकार के घोटालों के बारे में दस्तावेजों को लीक करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले अधिकारियों को ढूंढना मुश्किल है और उनसे बात करना तो और भी मुश्किल है. सरकार के कामकाज से जुड़ी हर नस में सत्ता के भय की सुई चुभो दी गई है. वर्तमान सरकार की डरावनी निगाहों का असर ऐसा है कि जब कोई पुराने संपर्कों से मिलता है तो उनका व्यवहार भी विचित्र लगता है. अपने ऑफिसों की दीवारों को वे ऐसे देखते हैं जैसे उनके कान हैं. चाय-कॉफी की दुकानों में वे अपने आस-पास ऐसे निगाहें फेरते हैं जैसे आसपास भूत हों. फोन पर वे एन्क्रिप्टेड मैसेजिंग सिस्टम को प्राथमिकता देते हैं. पब्लिक में वे सरकार की प्रशंसा करते हैं. वरिष्ठ अधिकारियों के साथ अब बातचीत, जो एक समय पर आसानी से जानकारी दे देते थे, बेतुकी हो जाती है. एक जनाब अपनी आवाज में कराओके गाने भेजते हैं, दूसरे को अंतरराष्ट्रीय किताबों पर चर्चा का शौक चर्राया है, जबकि तीसरा, जो पिछली सरकार के दौरान दिल्ली के खान मार्केट में पत्रकारों से चर्चा किया करता था अब कहीं दिखाई नहीं देता. जब वे इस बात को लेकर सुनिश्चित होते हैं कि उन्हें कोई नहीं सुन रहा है तब जाकर सरकार की कई असफलताओं के बारे में बातें करते हैं.

हाल के वर्षों में रिपोर्टिंग शुरू करने वालों ने भी रिपोर्टिंग के इस पक्ष को ही जाना है- नौकरशाह जो नहीं मिलेंगे, स्रोत जो अनुपलब्ध हैं और एकतरफा जानकारी का प्रवाह. पत्रकारों की एक पीढ़ी को यह जानने का मौका भी नहीं मिला कि सरकार और कारपोरेट रिपोर्टिंग कैसे काम करती है. चुपचाप सब सहन कर रहे पीड़ितों की सूची अंतहीन है- इसमें फ्रीलांसर हैं जिनके पास मामलों से लड़ने के लिए कानूनी मदद नहीं है, स्थानीय माफिया से लोहा लेने वाले छोटे-छोटे पत्रकार हैं जिनकी हत्या हो जाती है, महानगरों के वरिष्ठ पत्रकार हैं जिन्होंने मासिक वेतन के लिए अपने आदर्शों का समर्पण कर दिया है.

ऐसा नहीं है कि मेरे "मुरदाघर" फोल्डर की किसी कहानी को नहीं पढ़ा गया. बहुत सी ताजा रिपोर्टिंग के अलावा मेरे उस फोल्डर की कई रिपोर्टों ने 2016 में लिखी गई मेरी किताब ए फीस्ट ऑफ वल्चर: द हिडन बिजनेस ऑफ डेमोक्रेसी इन इंडिया में जगह पाई है. एक बड़ा मीडिया हाउस इसके हिस्से छापना चाहता था. एक महीने तक मेरी किताब अपने पास रखने के बाद उन्होंने मेरे प्रकाशकों से कहा कि वे इसमें शामिल किसी भी कारपोरेट घराने का नाम नहीं लेना चाहते. मुख्यधारा मीडिया ने तो लगभग इसे अनदेखा कर दिया.

जून 2016 में एक प्रमुख अंग्रेजी मैगजीन ने मेरी किताब का एक हिस्सा छापा जिसमें जेट एयरवेज प्रमोटर नरेश गोयल के कथित आपराधिक संबंधों का उल्लेख किया गया था. जेट एयरवेज ने मैगजीन और मेरे खिलाफ एक मानहानि का मामला जड़ दिया जिसमें 1000 करोड़ रुपए की क्षति की मांग की गई थी. मामला दर्ज हो जाने के तुरंत बाद मैगजीन के संपादक को बर्खास्त कर दिया. नए संपादक ने अदालत में पत्रिका की प्रतिक्रिया दायर की और मामले को वापस लेने पर जेट द्वारा दिए गए किसी भी रिजॉन्डर को प्रकाशित करने की पेशकश कर रहा है. नए संपादक ने मेरे साथ प्रतिक्रिया साझा करने की भी परवाह नहीं की और अपने सहयोगियों को आदेश दिया कि वे मेरे साथ बात न करें. मुकदमा अभी शुरू नहीं हुआ है.

पत्रकारिता के नाम पर बनाए जा रहे चमचागिरी और प्रॉपगैंड के कॉकटेल से पत्रकारों की नई पीढ़ी में काफी गुस्सा है. उन्हें पत्रकारिता में गहरे तक समाई ईमानदारी और असहमति की समझ के बिना न्यूजरूम में लाया गया है. जब इन पत्रकारों का गुस्सा अपने चरम पर पहुंच जाएगा तो एक नई बाईलाइन का जन्म होगा.