28 मई को राष्ट्र व्यापी लॉकडाउन के कारण उत्पन्न पलायन संकट पर सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई में सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने पीठ को फोटो पत्रकार केविन कार्टर की “दि वल्चर एंड द लिटिल गर्ल” नाम से मशहूर उस तस्वीर की कहानी सुनाई जिसके लिए 1994 में उन्हें पुलित्जर पुरस्कार मिला था. पुलित्जर पाने के कुछ महीने बाद कार्टर ने इस आंखों देखी से मायूस होकर अपनी जान दे दी. मेहता यह कहानी सुना कर प्रवासी मजदूरों की मौत और उनके संघर्ष की त्रासद तस्वीरों को फ्रंट पेज पर छापने का आरोप मीडिया पर लगा रहे थे. उनके कहने का तात्पर्य था कि ऐसा करने वाला मीडिया उसी गिद्ध की तरह है. मेहता ने कार्टर की कहानी को संदर्भ से काटकर पेश किया और ऐसा करते हुए भी उन्होंने बहुत सी तथ्यात्मक गलतियां कीं.
पिछले सप्ताह, उससे पहले के सप्ताहों की तरह ही, भारतीय जब अपनी नींद से जागे तो उनके सामने मानवीय संकट की तस्वीरें थीं. एक तस्वीर में एक भूखा प्रवासी मजदूर मरे हुए कुत्ते को खा रहा था और दूसरी में नन्हीं बच्ची अपनी मरी मां को कपड़े से ढक रही थी. 23 साल की उसकी मां ने गर्मी, भूख और प्यास से मुजफ्फरपुर रेलवे स्टेशन में दम तोड़ दिया था. पलायन संकट की इन त्रासद तस्वीरों ने सुप्रीम कोर्ट को होश में ला दिया. 26 मई को अदालत ने संज्ञान लेते हुए सभी सरकारों को नोटिस जारी किया. उसने केंद्र और राज्य सरकारों को मजदूरों को निशुल्क यातायात, भोजन और शेल्टर उपलब्ध कराने का आदेश दिया. लेकिन तुषार मेहता ने प्रवासी श्रमिक संकट को कवर करने पर मीडिया पर यह कह कर सवाल उठाए कि संकट को छापने वाले पत्रकार यह बताएं कि वे इस संकट की घड़ी में क्या मदद कर रहे हैं.
इससे पहले कि मैं कार्टर की कहानी को विस्तार से बताऊं, मैं यह बताना चाहती हूं कि बहुत से मेरे सहकर्मी प्रवासियों के लिए राहत प्रयासों में चंदे और अन्य छोटे-बड़े सहयोग, जो वे कर सकते हैं, कर रहे हैं लेकिन वे अपने इस काम को गाते नहीं फिर रहे. ऐसा करना उनका व्यक्तिगत फैसला है ना कि पत्रकारिता की मांग. पत्रकारिता के भी, अन्य पेशों की तरह ही, अपने नियम हैं, मूल्य हैं और काम करने का तरीका है और उसमें इस तरह के हस्तक्षेप को सही नहीं माना जाता.
केविन कार्टर पत्रकारिता के धर्मसंकट की दिलचस्प कहानी हैं. उनके काम को पत्रकारिता के स्कूलों में पढ़ाया जाता है और खासतौर पर पुलित्जर पुरस्कार जिताने वाली उनकी फोटो मीडिया के पेशे में नैतिकता की लक्ष्मण रेखा को परिभाषित करने वाली मानी जाती है. वह तस्वीर फोटो पत्रकारिता के इतिहास की एक विवादास्पद फोटो है.
उस फोटो और उसके बाद की कहानी कुछ इस प्रकार है : कार्टर का जन्म दक्षिण अफ्रीका में 1960 में हुआ था. वह रंगभेदी सरकार के अत्याचारों के बीच पले-बढ़े और जिंदगी की राहों से होते हुए फोटो पत्रकारिता में पहुंचे. शुरुआत में उन्होंने सेना में नौकरी की क्योंकि दक्षिण अफ्रीका में रंगभेदी सरकार के शासन में अनिवार्य सैन्य सेवा का कानून था. उनकी याद में टाइम मैगजीन में प्रकाशित एक शोक समाचार में लिखा है कि कार्टर रंगभेदी व्यवस्था को घृणत मानते थे. शोक समाचार में तफसील से तो नहीं, लेकिन बताया गया है कि जब कार्टर सेना में थे तो मैस के अश्वेत वेटर का बचाव करने के लिए अफ्रीकांस बोलने वाले सिपाहियों ने उनकी पिटाई की थी. कार्टर 1983 में सेना से निकले और पत्रकारिता करने लगे. शुरुआत में वह जोहानिसबर्ग संडे एक्सप्रेस में खेल फोटोग्राफर हुए और उसके बाद वह कनफ्लिक्ट (द्वंद्व) पत्रकार बन गए. इस तरह वह दक्षिण अफ्रीका के अश्वेत इलाकों में होने वाली हिंसा को कवर करने लगे.
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