पत्रकार और गिद्ध

सुप्रीम कोर्ट में मीडिया पर बरसने वाले सॉलिसिटर जनरल मेहता क्या जानते भी हैं पत्रकारिता

नवंबर 2019 में श्रीनगर की एक दरगाह के पास आंसू गैस से बचने की कोशिश करते फोटो पत्रकार. 28 मई को सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट में पत्रकारों की तुलना गिद्धों से की थी. सकीब माजिद/सोपा इमेजिस/लाइटरॉकेट/गैटी इमेजिस

28 मई को राष्ट्र व्यापी लॉकडाउन के कारण उत्पन्न पलायन संकट पर सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई में सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने पीठ को फोटो पत्रकार केविन कार्टर की “दि वल्चर एंड द लिटिल गर्ल” नाम से मशहूर उस तस्वीर की कहानी सुनाई जिसके लिए 1994 में उन्हें पुलित्जर पुरस्कार मिला था. पुलित्जर पाने के कुछ महीने बाद कार्टर ने इस आंखों देखी से मायूस होकर अपनी जान दे दी. मेहता यह कहानी सुना कर प्रवासी मजदूरों की मौत और उनके संघर्ष की त्रासद तस्वीरों को फ्रंट पेज पर छापने का आरोप मीडिया पर लगा रहे थे. उनके कहने का तात्पर्य था कि ऐसा करने वाला मीडिया उसी गिद्ध की तरह है. मेहता ने कार्टर की कहानी को संदर्भ से काटकर पेश किया और ऐसा करते हुए भी उन्होंने बहुत सी तथ्यात्मक गलतियां कीं.

पिछले सप्ताह, उससे पहले के सप्ताहों की तरह ही, भारतीय जब अपनी नींद से जागे तो उनके सामने मानवीय संकट की तस्वीरें थीं. एक तस्वीर में एक भूखा प्रवासी मजदूर मरे हुए कुत्ते को खा रहा था और दूसरी में नन्हीं बच्ची अपनी मरी मां को कपड़े से ढक रही थी. 23 साल की उसकी मां ने गर्मी, भूख और प्यास से मुजफ्फरपुर रेलवे स्टेशन में दम तोड़ दिया था. पलायन संकट की इन त्रासद तस्वीरों ने सुप्रीम कोर्ट को होश में ला दिया. 26 मई को अदालत ने संज्ञान लेते हुए सभी सरकारों को नोटिस जारी किया. उसने केंद्र और राज्य सरकारों को मजदूरों को निशुल्क यातायात, भोजन और शेल्टर उपलब्ध कराने का आदेश दिया. लेकिन तुषार मेहता ने प्रवासी श्रमिक संकट को कवर करने पर मीडिया पर यह कह कर सवाल उठाए कि संकट को छापने वाले पत्रकार यह बताएं कि वे इस संकट की घड़ी में क्या मदद कर रहे हैं.

इससे पहले कि मैं कार्टर की कहानी को विस्तार से बताऊं, मैं यह बताना चाहती हूं कि बहुत से मेरे सहकर्मी प्रवासियों के लिए राहत प्रयासों में चंदे और अन्य छोटे-बड़े सहयोग, जो वे कर सकते हैं, कर रहे हैं लेकिन वे अपने इस काम को गाते नहीं फिर रहे. ऐसा करना उनका व्यक्तिगत फैसला है ना कि पत्रकारिता की मांग. पत्रकारिता के भी, अन्य पेशों की तरह ही, अपने नियम हैं, मूल्य हैं और काम करने का तरीका है और उसमें इस तरह के हस्तक्षेप को सही नहीं माना जाता.

केविन कार्टर पत्रकारिता के धर्मसंकट की दिलचस्प कहानी हैं. उनके काम को पत्रकारिता के स्कूलों में पढ़ाया जाता है और खासतौर पर पुलित्जर पुरस्कार जिताने वाली उनकी फोटो मीडिया के पेशे में नैतिकता की लक्ष्मण रेखा को परिभाषित करने वाली मानी जाती है. वह तस्वीर फोटो पत्रकारिता के इतिहास की एक विवादास्पद फोटो है.

उस फोटो और उसके बाद की कहानी कुछ इस प्रकार है : कार्टर का जन्म दक्षिण अफ्रीका में 1960 में हुआ था. वह रंगभेदी सरकार के अत्याचारों के बीच पले-बढ़े और जिंदगी की राहों से होते हुए फोटो पत्रकारिता में पहुंचे. शुरुआत में उन्होंने सेना में नौकरी की क्योंकि दक्षिण अफ्रीका में रंगभेदी सरकार के शासन में अनिवार्य सैन्य सेवा का कानून था. उनकी याद में टाइम मैगजीन में प्रकाशित एक शोक समाचार में लिखा है कि कार्टर रंगभेदी व्यवस्था को घृणत मानते थे. शोक समाचार में तफसील से तो नहीं, लेकिन बताया गया है कि जब कार्टर सेना में थे तो मैस के अश्वेत वेटर का बचाव करने के लिए अफ्रीकांस बोलने वाले सिपाहियों ने उनकी पिटाई की थी. कार्टर 1983 में सेना से निकले और पत्रकारिता करने लगे. शुरुआत में वह जोहानिसबर्ग संडे एक्सप्रेस में खेल फोटोग्राफर हुए और उसके बाद वह कनफ्लिक्ट (द्वंद्व) पत्रकार बन गए. इस तरह वह दक्षिण अफ्रीका के अश्वेत इलाकों में होने वाली हिंसा को कवर करने लगे.

जब दंगे शुरू हुए तो कार्टर ने अपने कैमरे से रंगभेदी सरकार की क्रूरता को एक्सपोज किया. जल्द ही कार्टर साहसी पत्रकारों के एक छोटे समूह का हिस्सा बन गए जिसे स्थानीय अखबार "धाएं-धाएं क्लब" के नाम से बुलाते थे. कार्टर के अलावा क्लब के अन्य सदस्यों में शामिल थे ग्रेग मैरिनकोव, केन उस्टरबरोक और जोओ सिल्वा. ये सभी पत्रकार 1990 और 1994 के बीच दक्षिण अफ्रीका में सक्रिय थे. इसी वक्त वह देश रंगभेदी शासन से मुक्त होकर लोकतंत्र की ओर अग्रसर हो रहा था. “धाएं-धाएं” का मतलब था जो गोलियों की आवाज के बीच काम करते हैं.

मार्च 1993 में रूह कंपा देने वाले इस काम से छुट्टी लेकर कार्टर अकालग्रस्त सूडान में एक असाइनमेंट कवर करने चले गए. आज तक सूडान के उस अकाल को, जो गृहयुद्ध, बीमारी, बेघर होने और भूख, की उपज था, दुनिया के एक सबसे घिनौने मानवीय संकट के रूप में याद किया जाता है. लॉस एंजेलिस टाइम ने खबर दी थी कि अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों के अनुसार 9 साल के गृहयुद्ध में 17 लाख सूडानी नागरिक विस्थापित हुए थे और करीब 8 लाख लोग भुखमरी के कगार पर थे. अमेरिकी अधिकारी उस अकाल को खामोश अकाल कहते थे क्योंकि हजारों-हजार लोग मर रहे थे लेकिन बहुत कम लोग उस पर बात कर रहे थे क्योंकि बहुत कम अंतरराष्ट्रीय पत्रकार या एजेंसियां उस क्षेत्र की रिपोर्ट कर रही थी.

अयोड गांव में कार्टर ने एक नन्हीं बच्ची की तस्वीर ली जो संयुक्त राष्ट्र के खाद्य केंद्र तक घिसट-घिसट कर पहुंचने की कोशिश में थक कर सुस्ता रही थी और एक गिद्ध उसे ताड़ रहा था. कार्टर ने बाद में बताया कि 20 मिनट तक उस गिद्ध के पर खोलने का इंतजार करते रहे लेकिन जब उसने पर नहीं खोले तो कार्टर ने तस्वीर खींची और गिद्ध को भगाकर वहां से चले आए. वह तस्वीर न्यू यॉर्क टाइम्स ने खरीदी और 26 मार्च 1993 को प्रकाशित की.

रातों-रात वह फोटो सूडान के अकाल का प्रतीक बन गई और इस तस्वीर को अन्य संस्थाओं ने भी प्रकाशित किया. न्यू यॉर्क टाइम्स को लोगों के फोन आए जिनमें फोटोग्राफर की आलोचना थी और उस नन्हीं बच्ची के प्रति चिंता. लोगों ने आरोप लगाया कि कार्टर की फोटो ने उन्हें हिला कर रख दिया है. उन्हें इस बात का गुस्सा था कि पत्रकार फोटो लेने के लिए देर तक इंतजार करता रहा और उसने गिद्ध को भगाने में देर लगाई. लोग इस बात से नाराज थे कि बच्ची को मदद नहीं मिली और कार्टर उसे खाद्य केंद्र पहुंचाए बिना वहां से चले आए.

एक सप्ताह बाद समाचार पत्र ने स्पष्टीकरण दिया है कि उसे लगता है कि वह बच्ची गिद्ध से खुद का बचाव करने में सक्षम थी लेकिन वह यह नहीं कह सकता कि वह खाद्य केंद्र पहुंच पाई या नहीं. आलोचक ने कार्टर को लाशों का कारोबारी कहा और एक ने तो कार्टर को वहां मौजूद दूसरा गिद्ध तक बता दिया. कई लोगों का मानना था कि कार्टर को वह तस्वीर नहीं लेनी चाहिए थी बल्कि उसे गिद्ध को भगाना चाहिए था और उस बच्ची की मदद करनी चाहिए थी.

रिकॉर्ड के लिए बता दें कि कार्टर ने गिद्ध को भगाया था. इस कहानी के अगले हिस्से को यानी बच्ची की सहायता करने की बात को गहराई से समझने की जरूरत है. जब मैं लोगों से संवाद करती हूं तब मैं लोक स्वास्थ्य पेशेवरों, अकादमिक जगत के लोगों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को बार-बार बताती हूं कि हस्तक्षेप करना पत्रकार का काम नहीं है.

अधिकतर पत्रकार मदद करने की नैतिक जिम्मेदारी और साक्षी रहने की पेशेवर मांग के बीच खुद को फंसा पाते हैं. कार्टर भी इस दर्दनाक सच्चाई को समझते थे. टाइम ने गिद्ध को भगाने की बात पर कार्टर की सफाई को यूं बयान किया है, "आपको विजुअल (दृश्य) में सोचना होता है. मैं एक मरे हुए आदमी और उसके बहते खून पर जूम कर रहा हूं और क्रमशः खून में सनी उसकी खाकी वर्दी की फोटो ले रहा हूं. उस मरे हुए आदमी का चेहरा फीका पड़ चुका है. चित्र लेते हुए मेरे अंदर से आवाज आ रही है, “हे भगवान”. लेकिन इसके बावजूद मैं खुद को याद दिला रहा हूं कि यह काम करने का वक्त है. बाकी की बातें बाद में सोचना. अगर तुम यह नहीं कर सकते तो यह काम छोड़ ही दो.”

महामारी की रिपोर्टिंग करने वाले सभी पत्रकार जो कुछ अपने आसपास देख रहे हैं और रिपोर्ट कर रहे हैं उससे वे ट्रॉमटाइज (अभिघात) हो रहे हैं. यह पेशा कोई नैतिक लाइसेंस लेकर अच्छा महसूस करने के लिए नहीं कर रहा है. इन पत्रकारों पर इस काम का उल्टा असर पड़ रहा है. इस तरह की रिपोर्टिंग आपको हमेशा के लिए बदल कर रख देती है. सामाजिक कार्यकर्ता, फिल्म निर्माता और लेखक सूजन सॉन्टेग ने पत्रकारिता की कशमकश को इस तरह लिखा है, “जो आदमी हस्तक्षेप करता है वह घटना को रिकॉर्ड नहीं कर सकता और जो रिकॉर्ड कर रहा है वह हस्तक्षेप नहीं कर सकता.”

इसके अलावा और भी चीजें हैं जिनका ध्यान रखना पड़ता है. जब मैं रोहिंग्या संकट को कवर करने बांग्लादेश गई थी तो मेरे सबसे महत्वपूर्ण साक्षात्कार रिफ्यूजी कैंपों में घुसने के पहले हुआ करते थे. उसमें मुझे बांग्लादेशी अधिकारी बताते थे कि मुझे क्या करना है और क्या नहीं करना है. यदि उनका बताया हुआ हम नहीं करते हैं तो हमारा पत्रकारिता वीजा रद्द हो सकता है. मैंने एक मीडिया स्टोरी में इस पर विस्तार से लिखा है. उसमें मैंने बताया है कि मानवीय संकट की घड़ी में पत्रकारिता कैसे और जटिल हो सकती है. हम जहां कवर करने जाते हैं वहां की सरकारें जो बंदिशें लगाती हैं वह हमारी सुरक्षा चिंताओं और जटिल और विवादास्पद नस्ल, वर्ग और शक्ति से संबंधित कारण भी हो सकते हैं. पत्रकारों को कहा जाता है कि घरेलू मामलों में दखलअंदाजी ना करें. खासतौर पर सूडान जैसे युद्धग्रस्त देशों में जहां 1993 में कार्टर पत्रकारिता कर रहे थे. उन्हें भी यह सलाह दी गई थी कि किसी को छुए नहीं क्योंकि संक्रमित बीमारियों का डर था.

इसके अलावा कार्टर लड़ाई को कवर करने में मंझे हुए रिपोर्टर थे और उन्हें अच्छी तरह पता था कि वह वहां लोगों की मदद करने नहीं गए हैं. मदद करने का काम तो संयुक्त राष्ट्र संघ का है. वह तो वहां अकाल कवर करने आए हैं ताकि वह अंतरराष्ट्रीय समुदाय को हस्तक्षेप करने के लिए विवश कर सकें. यह ध्यान देने वाली बात है कि उन्होंने एक ऐसी तस्वीर ली जिसने बिना किसी चालाकी और नाटकीयता के उनका मकसद पूरा कर दिया.

भारत के सॉलिसिटर जनरल मेहता ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि कार्टर जैसा काम करने वाले कयामत के “पैगंबर” की तरह हैं. लेकिन पत्रकारिता के सभी मानकों में, यहां तक कि पुलित्जर समिति के मानकों में भी, कार्टर की तस्वीर खरी उतरती है. उस तस्वीर ने सूडान के अकाल की ऐसी छाप हमारे जहन में छोड़ दी है जिसे कभी मिटाया नहीं जा सकेगा. आज भी वह तस्वीर टाइम की 100 सबसे ज्यादा असरदार तस्वीरों में आती है. उस तस्वीर ने उस खामोश अकाल को अंतरराष्ट्रीय सुर्खी बना दिया और जरूरी सहायता और ध्यान उसकी ओर आकर्षित किया. मेहता ने उस फोटो पर जो करुणाहीनता का आरोप लगाया है उसकी वही कमजोरी- ठंडा, कड़वा सच- उसकी ताकत है.

कार्टर की मौत को लगभग 26 साल हो चुके हैं और इस बीच उनके काम से परिचय रखने वाले लोग इस बात को यकीन के साथ कह सकते हैं कि उन्होंने देखा था उसने उन्हें परेशान कर दिया था और वह ड्रग्स, डिप्रेशन, आत्महत्या पर मंथन और मौत के कुछ महीने पहले वित्तीय असुरक्षा से भी जूझ रहे थे. पुलित्जर पुरस्कार जीतने के 6 दिन बाद 18 अप्रैल को उन्हें पता चला कि उनके साथी पत्रकार उस्टरबरोक की असाइनमेंट के दौरान हत्या हो गई है और मैरिनकोव भी गंभीर रूप से घायल हो गए हैं.

कार्टर ने जो सुसाइड नोट पीछे छोड़ा उसमें उनके उस दर्द को समझा जा सकता है जिसका बोझ लिए वह जी रहे थे. उन्होंने अपने सुसाइड नोट में लिखा है कि वह तनावग्रस्त हैं और उनके पास अपने बच्चे की मदद करने और अपना कर्ज चुकाने के भी पैसे नहीं हैं. वह लिखते हैं, “मुझे हत्या और लाशें और गुस्से और दर्द और भूखे या घायल बच्चे और गोली चलाने वाले पागल आदमी जो अक्सर पुलिस या हत्यारे होते हैं,की तस्वीरें डराती हैं."

जो बेचैनी और गुस्सा कार्टर के भीतर था वह उस पेशे की कीमत थी जिसकी मांग है कि इससे जुड़े लोग तकलीफों के सामने भी होशोहवास में रहें. इस गुस्से को भारतीय पत्रकार ढो रहे हैं जब वे परत दर परत खुलते देखते हैं कोरोनावायरस महामारी और उस प्रवासी संकट को जिसके सामने नरेन्द्र मोदी प्रशासन धृतराष्ट्र बना बैठा है. इन पत्रकारों ने वह देखा है जिसे मेहता बिना देखे ही 31 मार्च को सुप्रीम कोर्ट में दावा करते हैं कि सड़क में चलने वाला ऐसा कोई आदमी घर पहुंचने के लिए बेचैन नहीं है.

मेहता का यह तर्क कि अच्छा होगा कि पत्रकार इस संकट को रिकॉर्ड ना कर लोगों की मदद करें, बहस को गलत दिशा देने का प्रयास है. यह हमारे काम से सामने आने वाले बुनियादी सवालों को पूछने से लोगों को रोकने का प्रयास है यानी यह कि सरकार अपना काम करने में क्यों असफल रही है? क्यों इतने सारे प्रवासी परिवार अनजान लोगों की दया पर जिंदा रहने को मजबूर हैं? कार्टर की तरह मेरे साथी भी अपने काम से और अपनी जान को दांव पर लगा कर लोगों के सामने यह सवाल ला रहे हैं. वे लोग प्रलयंकारी घटनाओं के गवाह हैं क्योंकि यही तो हमारा काम है.