अंदाज-ए-बयां और

टीवी पत्रकारिता के सुपरस्टार कमाल खान

कमाल खान उत्तर प्रदेश से अपनी बेहतरीन रिपोर्टिंग के लिए जाने जाते थे. टेलीविजन पत्रकारिता में स्टूडियो एंकरों के स्टारडम के बावजूद खान ने अपनी खास जगह बनाई. उनकी मौत पर गंगा किनारे उनकी तस्वीर के पास दिये जलाए गए और आरती हुई.
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06 February, 2022

पिछल तीन दशकों से टेलीविजन पर एक रिपोर्टर, फिर एक समीक्षक और बाद में एक लेखक के बतौर मैंने शायद ही कभी किसी पत्रकार के लिए ऐसा राष्ट्रव्यापी सोग देखा होगा जैसा एनडीटीवी इंडिया के लखनऊ ब्यूरो चीफ, 61 साल के कमाल खान, के लिए देखा गया. उनका 14 जनवरी को दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया.

खान 1990 के दशक में एनडीटीवी से जुड़े. तब एनडीटीवी स्टार न्यूज के बैनर तले चला करता था. उन्होंने चैनल के लखनऊ के काम-काज को संभाला. नई सदी की शुरुआत में एनडीटीवी का हिंदी चैनल लॉन्च हुआ और तभी से उन्होंने अपने अगले तीन दशक इसी चैनल में बिताए. खान को उत्तर प्रदेश की जमीनी राजनीति की गहरी समझ के लिए जाना जाता था. अपनी रिपोर्टिंग में वह हिंदी और उर्दू साहित्य, हिंदू और मुस्लिम शास्त्रों, भारतीय इतिहास और समाजशास्त्र के ज्ञान का सुरुचिपूर्ण ढंग से प्रयोग किया करते थे. वह अपने कार्य के प्रति समर्पित थे और उन्होंने तेजी से बदलती टेलीविजन पत्रकारिता में भी अपनी रिपोर्टिंग के तौर-तरीके को बचाए रखा.

2014 में भारतीय जनता पार्टी और नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से, जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने राज्य को अपनी विभाजनकारी सांप्रदायिक राजनीति की प्रयोगशाला बना लिया है और खान की धारदार रिपोर्टिंग और भी महत्वपूर्ण हो गई, इसके बावजूद प्रचंड ध्रुवीकरण के इस दौर में भी कमाल के लिए क्या उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ, अखिलेश यादव, बसपा सुप्रीमो मायावती और क्या उत्तर प्रदेश कांग्रेस प्रभारी प्रियंका गांधी, सभी ने सहानुभूति और संवेदनाएं व्यक्त की हैं. यहां तक की टेलीविजन समाचार चैनल भी अपने बीच खिंची लकीरों से ऊपर उठे. एनडीटीवी इंडिया जैसे उदार चैनल से अलग विचार वाले हिंदी समाचार चैनल एबीपी ने खान को एक खास प्रसारण के जरिए श्रद्धांजलि दी और नेटवर्क 18उर्दू, इंडिया टीवी, टीवी9 सहित एशियानेट हिंदी जैसे कई छोटे न्यूज चैनलों ने भी इस शानदार रिपोर्टर को विनम्र श्रद्धांजलि दी.

खान को जिस शिद्दत से याद किया गया उसने मुझे 1997 में दूरदर्शन पर आधे घंटे तक चलने वाले हिंदी समाचार कार्यक्रम आजतक के पहले संपादक एसपी सिंह की ब्रेन हैमरेज से हुई मौत के बाद लोगों की श्रद्धांजलि और शोक की याद दिला दी. उस समय समाचार चैनलों की संख्या कम थी और सोशल मीडिया की अनुपस्थिति में सार्वजनिक प्रतिक्रियाएं कम सामने आती थीं, लेकिन मुझे याद है कि पत्रकारों में दुख की व्यापक लहर थी और नाजाने कितने लोग सिंह के दाह संस्कार में शामिल हुए.

लेकिन सिंह एक समाचार कार्यक्रम के संपादक थे और खान एक रिपोर्टर. उनके जैसे कुछ ही लोगों को ऐसी विदाई मिलती है. बेहद कम लोगों के पास खान जैसा व्यक्तित्व और रिपोर्टिंग करने का तजुर्बा था. पिछले दो दशकों से मुख्यधारा की पत्रकारिता को प्राइम-टाइम शो और स्टूडियो में होने वाली बहसों को पॉपुलर बनाने वाले कुछ चेहरों द्वारा ही परिभाषित किया जाता है. टेलीविजन पत्रकार आज मार्केटिंग के नाम पर एक जैसे ही काम कर रहे हैं और पत्रकारों को बाइट लेने और वायरल खबरों के पीछे भागने तक सीमित कर दिया गया है. हमारी नई पीढ़ी समाचार चैनलों में पत्रकारों की महत्वपूर्ण भूमिकाओं से लगभग अनजान हैं, अक्सर स्टूडियो एंकर को प्रमुख पत्रकार के रूप में देखा जाता है. जिस निजी विश्वविद्यालय में मैं पढ़ाता हूं वहां छात्रों के पसंदीदा पत्रकारों के बारे में पूछे गए सवाल अक्सर स्टार एंकरों के ईर्द-गिर्द ही घूमते हैं. स्टूडियो में चेहरों की चमक-धमक वाली शान के बावजूद खान अपनी खुद की एक अलग जगह बनाने में कामयाब रहे. उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा हासिल करने के लिए कड़ी मेहनत की. हालांकि उन्हें हिंदी और उर्दू में अपने कौशल के लिए जाना जाता था लेकिन पत्रकारिता के क्षेत्र में आने से पहले उन्होंने 1980 के दशक में हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड में रूसी शोध छात्र के रूप में अपना करियर शुरू किया था.

एनडीटीवी में आने से पहले उन्होंने प्रिंट-मीडिया की नौकरी के लिए अपनी आरामदायक सरकारी नौकरी छोड़ दी. उनके लंबे समय के सहयोगियों ने ट्विटर और अन्य जगहों पर लिखते हुए खान को समाचार ढूंढ़ने के लिए हमेशा बेचैन रहने वाला बताया. उन्होंने ऐसे युग में काम करना शुरू किया जहां कुछ भी रेडीमेड नहीं मिलता था. पत्रकारों की मदद के लिए गूगल या सोशल मीडिया नहीं था, न तो ट्विटर के जरिए पॉपुलर होने का कोई रास्ता, न कोई फॉलोअर और न ही “बड़े पत्रकारों” की आमद की घोषणा करने वाला ब्लू टिक.

खान रिपोर्टरों के लिए एनडीटीवी के स्टूडियो की स्टार निधि कुलपति और नगमा सहर जैसे एंकरों का जवाब थे. अगर स्टार होने की परिभाषा यह है कि जो दर्शकों को खींचता है तो खान उस परिभाषा में फिट बैठते हैं. करियर में बेहद कम समय में ही उनके प्रशंसकों की संख्या बढ़नी शुरू हो गई.

अपनी भाषागत समरूपता और व्यवहारिकता के साथ खान ने हिंदी बेल्ट के दर्शकों की नब्ज को जल्दी से पकड़ लिया. जब एनडीटीवी इंडिया की शुरुआत हुई थी तब मैं अंग्रेजी चैनल के भोपाल ब्यूरो में काम कर रहा था. मध्य प्रदेश के दूर-दराज के इलाकों में अपनी रिपोर्टिंग के दौरान मैं अनगिनत लोगों से मिला जिन्होंने मुझे बताया कि उन्होंने खान के पीस-टू-कैमरा को देखने के लिए नया हिंदी चैनल देखना शुरू किया है. टेलीविजन पत्रकारिता की भाषा में पीस-टू-कैमरा या पीटीसी समाचार क्लिप के अंत में स्टूडियो भेजी जाने वाली एक मिनट से भी कम की उस संक्षिप्त विडियो को कहते हैं जिसमें रिपोर्टर कैमरे के सामने खुद खड़ा होता है और दर्शकों को अपनी आंखों देखी बताता है और कुछ पंक्तियों के भीतर ही उनसे निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ रहते हुए एक समाचार को विश्वसनीयता प्रदान करने वाली और इसके संदर्भ में स्थानिक और अस्थायी जानकारी देता है.

खान ने इसमें श्रेष्ठता हासिल कर ली थी. वह एक सौम्य तरीके से, लय के साथ अपनी बात रखते जिसमें दोहे के साथ विभिन्न शास्त्रों और ऐतिहासिक पंक्तियों का समावेश होता था. खान की मृत्यु के बाद ट्विटर पर उनकी पीटीसी की प्रशंसा की बाढ़ आ गई. हर दूसरे ट्वीट में उनके लेखन को काव्यात्मक और उनके पीटीसी को गहरी जानकारी से भरी और विद्तापूर्ण बताया गया.

स्टूडियो में रहने वालों के विपरीत, रिपोर्टर समाचार को खोज लाने की कठिनाई और उसकी व्याख्या करने के तरीके से अपनी एक अलग पहचान बनाता है. बीबीसी में लंबे समय तक पत्रकारिता करने वाले एंड्रयू मार ने टेलीविजन समाचार को "थिएटर का सौतेले भाई" बताया है क्योंकि यह पूरी तरह से एंकरों की परसनालटी पर टिका होता है. अपनी पुस्तक माई ट्रेड में बीबीसी के खोजी कार्यक्रम पैनोरमा के साथ अपने शुरुआती वर्षों का वर्णन करते हुए मार ने बताया है कि जैसे ही वह पहली बार न्यूजरूम में घुसे उन्होंने पाया कि वहां पत्रकार रेगिस्तानी इलाकों में पहने जाने वाले जूते और फ्लाइंग जैकेट पहने हुए हैं गोया वे “633 स्क्वाड्रन के जवान हों.” वह लिखते हैं कि चार्ल्स बर्ड एक छोटे पक्षी जैसे थे और सैंडी गैल मानो गुस्साई ब्रिटिश शालीनता का अवतार. मार ने केटी एडी को राष्ट्र की बहादुर नेता जैसा और ओर्ला गुएरिन को एक ऐसी युवती जिसे आप इजराइली की किसी भी रक्तरंजित गली में सुस्ते हुए देख सकते हैं.” मार यदि खान को देखते तो शायद वह उन्हें “हिंदी बेल्ट का एक कवि और लेखक” बताते.

अपने आखिरी समय तक खान ने अपनी कैमरा रिपोर्टिंग उस नाटकबाजी और शोर से दूर रखी जो आजकल टेलीविजन समाचारों की पहचान बन गई है. उन्होंने टेलीविजन पत्रकारिता में खुद को बनाए रखने के लिए दृश्य सामग्री को प्राथमिकता देने और विज्ञापनों की जरूरत के विचार को चुनौती दी. उनका मानना ​​​​था कि समाचारों को, यहां तक की बाबरी मस्जिद के विध्वंस और उत्तर प्रदेश में प्राथमिक शिक्षा जैसे संवेदनशील राजनीतिक मुद्दों से जुड़ी खबरों को भी, काव्यात्मक और साहित्यिक रूप से पेश किया जा सकता है. शायद उनकी सबसे यादगार पीटीसी वह है जिसे उन्होंने बाबरी मस्जिद के विध्वंस के कई साल बाद किया था. खान एक मुस्लिम परिवार में पैदा हुए थे लेकिन उनकी शादी एक हिंदू पत्रकार से हुई थी. कभी-कभी वह अपने घर और लखनऊ की उस संस्कृति का उल्लेख करते थे जिसमें वे पले-बढ़े थे. उन्होंने अपने बचपन की दंतकथाओं में भगवान राम की भूमिका के बारे में विस्तार से बताते हुए एक आत्मकथात्मक पीटीसी की. उन्होंने वर्णन किया कि कैसे पिछले कुछ वर्षों में दक्षिणपंथी समूहों ने विविध पृष्ठभूमि से जुड़े भारतीयों के पूजनीय और असंख्य दक्षिण एशियाई पौराणिक कथाओं के केंद्र राम को मर्यादापुरुषोत्तम व्यक्ति से एक शक्तिशाली क्षत्रिय योद्धा के रूप में बदल दिया है.

खान को शर्मीला और अक्सर कम बोलने वाला व्यक्ति समझा जाता था. 2007 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के लिए मैंने एनडीटीवी के दिल्ली के अन्य पत्रकारों के साथ राज्य की यात्रा की. एक बार हम सब लखनऊ कार्यालय में कवरेज के बारे में डिसकस कर रहे थे. खान राज्य की जटिल राजनीति के बारे में सबसे अधिक जानते थे और शांत और सचेत थे और सिर्फ पूछने पर ही कुछ बोलते थे. आज के ट्विटर पत्रकारों की तरह वह क्रूरता से भरे हुए अंहकारी नहीं थे.

बहुत कम लोंगो ने उनके व्यक्तित्व के एक अन्य पहलू : उनकी ईमानदारी और उनमें ईमानदारी की भावना की बात की है. ओडिशा को कवर करने वाले एनडीटीवी के दिग्गज संपद महापात्रा ने अपनी फेसबुक पोस्ट में खान को श्रद्धांजलि देते हुए में एक वाकया लिखा है कि 1999 में ओडिशा के विनाशकारी सुपर-साइक्लोन के तुरंत बाद खान ने महापात्र को फोन करके मुख्यमंत्री राहत कोष में उनके 60000 रुपए जमा करा देने को कहा. थोड़ा संकोच करते हुए खान ने महापात्रा को बताया कि वह इतनी बड़ी राशि इसलिए भेज रहे हैं क्योंकि उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती उनके बेटे के जन्मदिन के मौके पर उनके घर आई थीं और बेटे को तोहफे में एक लिफाफा थमा गई थीं. महापात्रा ने लिखा है, “उस रात बाद में कमल जी पैकेट के अंदर 60000 रुपए नकद देखकर बहुत शर्मिंदा हुए. मायावती जी से पैसे वापस लेने के कई अनुरोधों के बावजूद उन्होंने यह कहते हुए पैसे लेने से इनकार कर दिया कि यह उनकी ओर से जन्मदिन का उपहार है और उपहार कभी वापस नहीं किए जाते. फिर आखिरकार उन्होंने ओडिशा सीएमआरएफ को पूरी राशि दान कर देने का फैसला किया. उन्होंने मुझसे तत्कालीन सीएम श्री गिरिधर गमांग के अलावा किसी और को यह नहीं बताने के लिए कहा था.

एनडीटीवी के संस्थापकों द्वारा तैयार की गई संपादकीय नीति से खान खास तौर पर जुड़े हुए थे. चैनल के साथ लंबे समय से जुड़ा होने के कारण मैं जानता हूं कि एनडीटीवी में निष्पक्षता एक जरूरी शर्त है और वहां नफरत को बढ़ावा देने की हमेशा से सख्त मनाही है. मेरे समय में इस लाइन से थोड़ा भी डगमगाने पर संपादकों और यहां तक ​​कि संस्थापको की फटकार मिला करती थी. मैंने देखा है कि रॉय विभाजनकारी सामाचार को चलाने के बजाय पैसे का नुकसान उठाना पसंद करते हैं. इस संपादकीय नीति में खान एकदम फिट बैठते थे और उन्होंने बिना होहल्ला किए इस संपादकीय अनिवार्यता को पत्रकारिता की नैतिकता का त्याग किए बिना आगे बढ़ाया. अपने आखिरी समय तक खान खुद एक ब्रांड बन चुके थे.

अगर उनमें कोई दोष था भी तो वही था जो मुख्यधारा के चैनलों के कई पत्रकारों में है. भारतीय टेलीविजन समाचार काफी हद तक सत्ता को चुनौती देने में असमर्थ साबित हुए हैं और अक्सर वे “निष्पक्षता” का हवाला देखर परेशानियों से दूर रहना चाहते हैं. और शायद इसी कारण खोजी पत्रकारिता को नाम मात्र का भी बढ़ावा नहीं दिया गया है. मुख्यधारा के चैनल अपनी खबरों को भारत की उच्च जातियों और वर्गों तक ही सीमित रखते हैं जो समाचार के विषय और विज्ञापनदाता के उत्पादों, दोनों के सबसे बड़े उपभोक्ता हैं. प्रत्येक चैनल का संपादकीय झुकाव और उसके पत्रकारों को दी जाने वाली स्वतंत्रता, बाजार की मांगों और सरकार के दबावों को चतुराई से संतुलित करके प्राप्त की जाती है. एनडीटीवी इससे अलग नहीं रहा है और न ही खान थे.

जैसे-जैसे सोशल मीडिया से खान की यादें फिकी पड़ती जाएंगी मेरे जहन में एक अलग भारत के रूप में खान बसे रहेंगे. उनकी मृत्यु के तुरंत बाद वाराणसी में गंगा के किनारे उनकी एक तस्वीर लगाई गई और उसके पास दिये जलाए गए और उनके नाम पर गंगा आरती की गई. जिस वक्त भारत के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने पर शक्तिशाली सांप्रदायिक ताकतों का हमला लगातार हो रहा हो, ऐसे में एक मुस्लिम रिपोर्टर के नाम पर हिंदू अनुष्ठान करना भारत की एक सुंदर तस्वीर पेश करता है. उम्मीद है कि इस तस्वीर की रोशनी भारतीय राजनीति के मौजूदा अंधकार को दूर करेगी.
 

(भूल सुधार : यहां प्रियंका गांधी को उत्तर प्रदेश कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष बताया गया था जो गलत जानकारी है. वह प्रदेश प्रभारी हैं. इस गलती को सुधार लिया गया है. कारवां को भूल पर खेद है.)