पिछल तीन दशकों से टेलीविजन पर एक रिपोर्टर, फिर एक समीक्षक और बाद में एक लेखक के बतौर मैंने शायद ही कभी किसी पत्रकार के लिए ऐसा राष्ट्रव्यापी सोग देखा होगा जैसा एनडीटीवी इंडिया के लखनऊ ब्यूरो चीफ, 61 साल के कमाल खान, के लिए देखा गया. उनका 14 जनवरी को दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया.
खान 1990 के दशक में एनडीटीवी से जुड़े. तब एनडीटीवी स्टार न्यूज के बैनर तले चला करता था. उन्होंने चैनल के लखनऊ के काम-काज को संभाला. नई सदी की शुरुआत में एनडीटीवी का हिंदी चैनल लॉन्च हुआ और तभी से उन्होंने अपने अगले तीन दशक इसी चैनल में बिताए. खान को उत्तर प्रदेश की जमीनी राजनीति की गहरी समझ के लिए जाना जाता था. अपनी रिपोर्टिंग में वह हिंदी और उर्दू साहित्य, हिंदू और मुस्लिम शास्त्रों, भारतीय इतिहास और समाजशास्त्र के ज्ञान का सुरुचिपूर्ण ढंग से प्रयोग किया करते थे. वह अपने कार्य के प्रति समर्पित थे और उन्होंने तेजी से बदलती टेलीविजन पत्रकारिता में भी अपनी रिपोर्टिंग के तौर-तरीके को बचाए रखा.
2014 में भारतीय जनता पार्टी और नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से, जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने राज्य को अपनी विभाजनकारी सांप्रदायिक राजनीति की प्रयोगशाला बना लिया है और खान की धारदार रिपोर्टिंग और भी महत्वपूर्ण हो गई, इसके बावजूद प्रचंड ध्रुवीकरण के इस दौर में भी कमाल के लिए क्या उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ, अखिलेश यादव, बसपा सुप्रीमो मायावती और क्या उत्तर प्रदेश कांग्रेस प्रभारी प्रियंका गांधी, सभी ने सहानुभूति और संवेदनाएं व्यक्त की हैं. यहां तक की टेलीविजन समाचार चैनल भी अपने बीच खिंची लकीरों से ऊपर उठे. एनडीटीवी इंडिया जैसे उदार चैनल से अलग विचार वाले हिंदी समाचार चैनल एबीपी ने खान को एक खास प्रसारण के जरिए श्रद्धांजलि दी और नेटवर्क 18उर्दू, इंडिया टीवी, टीवी9 सहित एशियानेट हिंदी जैसे कई छोटे न्यूज चैनलों ने भी इस शानदार रिपोर्टर को विनम्र श्रद्धांजलि दी.
खान को जिस शिद्दत से याद किया गया उसने मुझे 1997 में दूरदर्शन पर आधे घंटे तक चलने वाले हिंदी समाचार कार्यक्रम आजतक के पहले संपादक एसपी सिंह की ब्रेन हैमरेज से हुई मौत के बाद लोगों की श्रद्धांजलि और शोक की याद दिला दी. उस समय समाचार चैनलों की संख्या कम थी और सोशल मीडिया की अनुपस्थिति में सार्वजनिक प्रतिक्रियाएं कम सामने आती थीं, लेकिन मुझे याद है कि पत्रकारों में दुख की व्यापक लहर थी और नाजाने कितने लोग सिंह के दाह संस्कार में शामिल हुए.
लेकिन सिंह एक समाचार कार्यक्रम के संपादक थे और खान एक रिपोर्टर. उनके जैसे कुछ ही लोगों को ऐसी विदाई मिलती है. बेहद कम लोगों के पास खान जैसा व्यक्तित्व और रिपोर्टिंग करने का तजुर्बा था. पिछले दो दशकों से मुख्यधारा की पत्रकारिता को प्राइम-टाइम शो और स्टूडियो में होने वाली बहसों को पॉपुलर बनाने वाले कुछ चेहरों द्वारा ही परिभाषित किया जाता है. टेलीविजन पत्रकार आज मार्केटिंग के नाम पर एक जैसे ही काम कर रहे हैं और पत्रकारों को बाइट लेने और वायरल खबरों के पीछे भागने तक सीमित कर दिया गया है. हमारी नई पीढ़ी समाचार चैनलों में पत्रकारों की महत्वपूर्ण भूमिकाओं से लगभग अनजान हैं, अक्सर स्टूडियो एंकर को प्रमुख पत्रकार के रूप में देखा जाता है. जिस निजी विश्वविद्यालय में मैं पढ़ाता हूं वहां छात्रों के पसंदीदा पत्रकारों के बारे में पूछे गए सवाल अक्सर स्टार एंकरों के ईर्द-गिर्द ही घूमते हैं. स्टूडियो में चेहरों की चमक-धमक वाली शान के बावजूद खान अपनी खुद की एक अलग जगह बनाने में कामयाब रहे. उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा हासिल करने के लिए कड़ी मेहनत की. हालांकि उन्हें हिंदी और उर्दू में अपने कौशल के लिए जाना जाता था लेकिन पत्रकारिता के क्षेत्र में आने से पहले उन्होंने 1980 के दशक में हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड में रूसी शोध छात्र के रूप में अपना करियर शुरू किया था.
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