भारत में आज पत्रकारिता एक छोटे, युद्धरत समूह के हिस्से है जो कम तनख्वाह पाता है लेकिन बहुत ज्यादा काम करता है और हमेशा तनाव में रहता है. यह तनाव डेडलाइन का नहीं है, बल्कि इस बात का है कि सरकारी एजेंसियां पत्रकारिता को राजद्रोह मानने लगी हैं. पत्रकार होने के खतरे यहां तक बढ़ चुके हैं कि लगता है कि "अर्बन नक्सल" या "एंटी नेशनल" जैसे कपोलकल्पित चस्पे असल हों क्योंकि कानूनी एजेंसियां पत्रकारिता करने को ऐसा ही समझती हैं.
मैंने पत्रकारिता को छोटा समूह इसलिए कहा है कि जो लोग आज अंग्रेजी और हिंदी मीडिया के मुख्यधारा के चैनलों और अधिकांश समाचारपत्रों और पत्रिकाओं में काम कर रहे हैं, उन सबको पत्रकार नहीं माना जा सकता. जो लोग सरकार के प्रचार में दिन-रात लगे हुए हैं, सरकार के झूठ के प्रचारक बने हुए हैं, और सच बोलने वालों के खिलाफ सरकारी दमन की वकालत करते हैं, उन्हें पत्रकार नहीं कहा जा सकता. ऐसे लोग इस पेशे के गद्दार हैं.
जनता के दिमाग से सरकार के मियां-मिट्ठू और सच्चे पत्रकारों के बीच का अंतर गायब कर दिया गया है. पत्रकार जिस माहौल में काम करते हैं, उसकी हवा जहरीली है. सरकार ने जी-हजूरी नहीं करने वालों की बदनामी की और उनके पीछे कानूनी एजेंसियां छोड़ दी. इसके साथ, ऐसे सच्चे पत्रकारों के खिलाफ जनता की भावना को भड़काने के काम पर अपने प्राइमटाइम एंकरों को लगा दिया. ऐसे एंकर जब टीवी चैनलों पर रात-दिन नफरत सीखते हैं, तो इनको देख कर जनता पत्रकारिता की सबसे बुरी तस्वीर को असली पत्रकारिता मानने लगी है.
इस माहौल में न्यूज़क्लिक के बहाने पचासों पत्रकारों के घरों पर छापेमारी, सरकारी घटियापन का उच्चतर स्तर है. बात को घुमा-फिरा कर नहीं बल्कि हमें साफ कहना चाहिए कि जब कोई नेविल रॉय सिंघम से पत्रकारिता के लिए पैसे लेता है तो वह एक बड़ी नैतिक गलती करता है. एक आदमी जो शिंजियांग में चीन की बर्बरता को नकारता है, या फिर चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के काम को बढ़ा-चढ़ा कर बताता है, ऐसा आदमी स्वतंत्र पत्रकारिता की मदद कभी नहीं कर सकता.
फिर भी यदि ऐसी फंडिंग मिली है-- फिलहाल कानूनन इसे साबित किया जाना बाकी है-- तो भी सरकार को यह बताना ही होगा कि क्या अपराध हुआ है और यूएपीए किन कारणों से लगाया गया है.
न्यूज़क्लिक का राजनीतिक झुकाव हम सभी को पता है और वह सिंघम की फंडिंग के बिना भी वही होता जो आज है. न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट में जिस वीडियो की बात कही गई है वह माओ की कम्युनिस्ट क्रांति के 70 साल पूरे होने पर बनाया गया वीडियो है जो कहता है कि "चीन का क्रांतिकारी इतिहास दुनिया भर में पूंजीवादी शोषण और साम्राज्यवादी दखलअंदाजी से संघर्षरत श्रमजीवी वर्ग और सर्वसाधारण को प्रेरणा देना जारी रखे हुए है." सच में न्यूयॉर्क टाइम्स को अगर इस संदर्भ में सबसे बेहतर उदाहरण यही मिला था तो उसे अपनी पत्रकारिता के स्तर के बारे में एक बार जरूर सोच लेना चाहिए.
न्यूयॉर्क टाइम की इस रिपोर्ट ने हमारी सरकार को उन पत्रकारों के पीछे पड़ जाने का मौका दे दिया है जो छोटे-बड़े, किसी भी रूप में न्यूज़क्लिक के साथ जुड़े हुए हैं. पुलिस ने परंजय गुहा ठाकुरता, जिन्होंने लगातार अडानी समूह का भंडाफोड़ किया है और राफेल समझौते पर गंभीर प्रक्रियाजनक सवाल खड़े किए हैं, से पुलिस स्टेशन ले जा कर सवाल किए. पुलिस ने उर्मिलेश और भाषा सिंह जैसे उन पत्रकारों से पूछताछ की जो अपने हिंदी कार्यक्रमों में सरकार के कामकाज की कमजोरियों पर सही सवाल उठाते हैं. मैंने तो कुल तीन नाम ही लिए हैं, लेकिन पूछताछ किए जाने वालों के नाम को देखने से ही पता चल जाता है कि इन लोगों को चीन के साथ न्यूज़क्लिक के तथाकथित संबंध के कारण नहीं, बल्कि इन्हें इनकी पत्रकारिता के चलते सताया जा रहा है. इनकी साफ-सुथरी और निष्पक्ष पत्रकारिता ने मोदी सरकार के अधिकारियों को इनके खिलाफ कर दिया है.
इन लोगों पर यूएपीए लगा दिए जाने के बाद क्या स्थिति होगी इसके बारे में जानने के लिए हमें दिल्ली दंगों के मामलों में दिल्ली पुलिस ने क्या किया बस उसे समझना काफी है. दिल्ली दंगों के बाद दंगे करवाने वाले और उनमें शामिल लोग आज खुले घूम रहे हैं और कई लोग तो बड़े ओहदों पर पहुंच गए हैं, लेकिन दंगों के पीड़ित लोगों को पुलिस अपना निशाना बना रही है. दिल्ली पुलिस की पक्षपाती जांच कार्रवाइयों पर सरकार खामोश है जबकि अहिंसक संघर्ष की बात करने वाला उमर खालिद तीन साल से अधिक से जेल में है.
न्यूज़क्लिक वाले मामले में भी यही होने जा रहा है और मेरे ऐसा कहने के कारण हैं. दिल्ली पुलिस या प्रवर्तन निदेशालय जैसे संगठन चुन-चुन कर लोगों को टारगेट कर रहे हैं. लगभग हमेशा उनके निशाने पर आने वाले लोग वे होते हैं जो सरकार की चापलूसी नहीं करते. इनके खिलाफ निराधार मामले बनाए जाते हैं और ऐसे कानूनों के तहत जिनमें अदालत भी राहत नहीं दे सकती. यहां हम देख रहे हैं कि कानूनी प्रक्रिया का इस्तेमाल सजा के रूप में किया जाता है.
हमें राजनीतिक दलों के नेताओं के साथ जैसा होता है उसे भी समझना होगा. जैसे ही कोई नेता बीजेपी में शामिल हो जाता है उसके खिलाफ लगे मुकदमे गायब हो जाते हैं. इस जगह राणा अय्यूब और मोहम्मद जुबेर जैसे चंद पत्रकारों की तारीफ बहुत जरूरी है क्योंकि पिछले सालों में उन पर न जाने कितने हमले हुए लेकिन उन्होंने राजनीतिक दलों के नेताओं जैसा आसान रास्ता नहीं चुना और वे आज भी वह कहने का माद्दा रखते हैं जो कहा जाना होता है.
आज हम एक ऐसे मोड़ पर पहुंच गए हैं जब पत्रकार के रूप में हमारे पास सिर्फ दो ही विकल्प मौजूद हैं: या तो हम इस सरकार के बारे में सच कहें या चुप हो जाएं. हमारा सच यह है कि हम एक निर्वाचित निरंकुशता की तरफ बढ़ रहे हैं जिसमें मुसलमान को निशाना बनाया जाता है, उन्हें हाशिए पर डाला जा रहा है और सरकार के वैचारिक विरोधियों को चुप करा दिया जाता है. और यह सब उस झीने परदे के पीछे होता है जिसे प्रक्रिया कहते हैं, कि लगे पुलिस अपना काम कर रही है, कार्यकारी अपने कर्तव्य का पालन कर रही है जबकि यह प्रक्रिया न्याय देने के लिए नहीं है बल्कि न्याय का दमन करने के लिए है.
मेरी मुलाकात देश के ऐसे लोगों से होती है जो मोटी तनख्वाह पाते हैं, सरकारी घरों में रहते हैं, सरकारी गाड़ियों से चलते हैं, पेंशन पाते हैं और उनकी शिकायतें सुनी भी जाती हैं. निजी बातचीत में वे सरकार की बुराइयां करेंगे लेकिन फिर भी, यह जानते हुए कि जो हो रहा है वह गलत है, वही करेंगे जो सरकार कहेगी. फिर ऐसा करने के बाद ये भोले-भाले लोग देश में पत्रकारिता की हालत पर आपको प्रवचन भी सुनाने लगेंगे.
हां, यह सही है कि मीडिया के बारे में जो वे कहते हैं वह एक हद तक सही भी है लेकिन उनको भी, जो सच में पत्रकारिता कर रहे हैं, एक ही चक्की में पीस देना ठीक बात नहीं है. इन्हें मोटी सैलेरी नहीं मिलती और न इनके पास सरकारी आवास हैं. ये सरकारी गाड़ियों में नहीं चलते और इनकी शिकायत सुनने वाला कोई नहीं है. बल्की उल्टे ये लोग सताए जाने और गिरफ्तार कर लिए जाने के डर में जीने के लिए मजबूर हैं. ये लोग पत्रकारिता के खतरे इसलिए नहीं उठा रहे कि चीन पैसा दे रहा है, बल्कि ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि इन्हें बहुत गहराई से एहसास है कि इस दौर में पत्रकारिता सबसे जरूरी चीज है.
आज जो भारत हम देख रहे हैं या जैसी हमारी सरकार है वह गणतंत्र भारत के जन्म और संविधान लागू किए जाने के वक्त देखे गए सपने के विपरीत है. आज जो सरकार है वह स्वतंत्र भारत के निर्माण के वक्त की गई प्रतिबद्धता का उल्लंघन है. यह तानाशाह हो जाने से बस कुछ कदम पीछे है. हमें ऐसा इसलिए कहना पड़ रहा है क्योंकि जो लोग संवैधानिक पदों पर आसीन हैं, वे ही शायद भूल गए हैं कि संविधान उनसे क्या मांग करता है.