क्या पत्रकारों को सेना का समर्थक होना चाहिए?

युद्ध में अदम्य साहस दिखाने वाले लोग हीरो बन जाते हैं. लेकिन युद्ध ऐसे जोकर भी पैदा करता है जो देश भक्ति का चोला ओढ़े रहते हैं और मंच पर अकड़ और झल्लाहट वाला तमाशा दिखाते हैं. भारत-पाकिस्तान के बीच बढ़ रहे तनाव ने नियंत्रण रेखा की हमारी ओर ऐसे कई जोकरों को जन्म दिया है. 14 फरवरी को आदिल अहमद डार नाम के एक कश्मीरी युवा ने केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल के दस्ते में अपनी विस्फोटकों से भरी गाड़ी टकरा दी. पुलवामा में हुए इस हमले में कम से कम 40 जवानों की मौत हो गई और कई घायल हुए. उस वक्त से ही भारतीय पत्रकारों ने, खासकर टीवी पत्रकार, अपने काम और निष्पक्षता को ताक पर रख दिया है और तिरंगा ओढ़ लिया है. पुलवामा हमले के बाद से ही इन लोगों ने युद्धोन्माद भरी बातें फैलानी शुरू कर दी और पिछले दो दिनों में तो इसकी अति कर दी. ये उस समय और परवान चढ़ा गया जब भारत ने बालाकोट में हवाई हमला किया. बालाकोट पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा में है. इस हमले के बाद पाकिस्तान के साथ भारत का हवाई युद्ध भी हुआ.

इन पत्रकारों को उन पत्रकारों से अलग करके देखने की दरकार है जिन्होंने अपनी जानें गंवाने वाले सीआरपीएफ जवानों के प्रति संवेदना व्यक्त की. ये संवेदना करुणामय है क्योंकि किसी की जान उस तरह से नहीं जानी चाहिए जैसे इन जवानों की गई. ये बावजूद इसके है कि जवान जान के खतरों को भलीभांति समझते हैं. यह खतरा उनकी नौकरी का हिस्सा होता है. कुछ पत्रकार तो असल में अपनी संवेदना जाहिर कर रहे होते हैं. लेकिन बाकी रिपोर्टिंग भवनाओं से ओत-प्रोत होने लग जाती है जिसकी वजह से पेशेवर चीजों और निजी चीजों के बीच की लकीर धुंधली हो जाती है.

कुछ न्यूजरूमों में जिस तरह की व्यथा ने घर जमा लिया है वह सच में चौंकाने वाला था. नेटवर्क एंकरों में तो एक-दूसरे को देशभक्ति को मात देने की होड़ सी लग गई जिसके लिए धुंए में लिपटे भद्दे दृश्यों के अंबार का इस्तेमाल किया गया. ऐसे ग्राफिक्स का इस्तेमाल किया गया जो कि खतरनाक है और मिर्गी से जूझ रहे लोगों को हिलाकर रख सकते हैं. हैशटैग्स भी राष्ट्र-भक्ति से ओत-प्रोत हो गए. इससे ऐसा कोई भी अवरोध समाप्त हो गया जो राज्य के प्रचार में लगे किसी चैनल और विश्वसनीय समाचार चैनलों के बीच मौजूद होते हैं. 

इनके उत्साह को रिकॉर्ड में दर्ज किया जाना चाहिए. ये काम इंडियन जर्नलिज्म रिव्यू नाम के मीडिया ब्लॉग ने अपनी वेबसाइट पर किया. जी न्यूज के सुधीर चौधरी और नेटवर्क 18 के आनंद नरसिम्हा जैसे कुछ एंकरों ने इसके लिए ट्विटर का सहारा लिया है. वहां उन्होंने बॉलीवुड फिल्म उरी के मशहूर नारे का इस्तेमाल किया. इस डायलॉग को तब से भारतीय जनता पार्टी के नेताओं द्वारा इस्तेमाल किया जा रहा है. डायलॉग है- “हाउ इज द जोश?” टाइम्स नाउ चैनल के आधिकारिक हैंडल से एक ट्वीट में लिखा था, “मजबूत भारत” “नए पाकिस्तान” पर भारी है. इसे चैनल के एडिटर-इन-चीफ राहुल शिवशंकर ने रीट्वीट किया. अपने प्राइम टाइम डिबेट में उन्होंने अपनी इस भावना को और चरम पर पहुंचा दिया. इस दौरान “इंडिया स्ट्राइक्स” और “पाक फेक क्लमेस” जैसे हैशटैग्स का इस्तेमाल किया गया. उनकी सहकर्मी नविका कुमार ने पाकिस्तानी गायक-अदाकार अली जफर के ट्वीट के जवाब में भारत के हवाई हमले पर अपना उल्लास जताया. अपने ट्वीट में जफर ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान के एक भाषण की तारीफ की थी. कुमार ने पूछा था कि क्या बालाकोट हवाई हमले के बाद जफर की “बोलती बंद हो गई.” अपने इस ट्वीट को उन्होंने भारतीय झंडे की 10 इमोजियों से सजाया था. उन्होंने इसमें भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और इंडियान एयर फोर्स को भी टैग किया था. अपनी देशभक्ति को वे अनदेखा कैसे होने दे सकती थीं. सुमित अवस्थी ने अपने ट्विटर पर लिखा कि भारत बेहद लंबे समय से खामोश था और यह समय शौर्य दिखाने का है.

इस फूहड़पन में शामिल होते हुए आज तक की अंजना ओम कश्यप ने एक दोहे के सहारे लिखा, “दुश्मन अच्छे से समझ लो, जब जब हमसे लोहा लोगे हार जाओगे.” राहुल कंवल ने कुछ ही महीने पहले छत्तीसगढ़ में माओवादी विद्रोहियों के खिलाफ एक काल्पनिक ऑपरेशन के “नाट्य रूपांतरण” में हिस्सा लिया था. उन्होंने उत्सुकता के साथ ट्वीट किया “जय हो” जिसके बाद उन्होंने लिखा “पाकिस्तान को यकीन नहीं हो रहा.” सीएनएन-न्यूज 18 की मारिया शकील ने तो इससे भी हद कर दी. उन्होंने विपक्ष को इस बात की झाड़ लगाई कि वे सिर्फ भारतीय एयरफोर्स की तारीफ कर रहा है, शकील ने कहा कि मोदी की राजनीतिक इच्छा को भी श्रेय मिलना चाहिए. इंडिया टुडे समूह के कार्यकारी संपादक गौरव सावंत ने तो भारतीय फौज से अपील की उन्हें पहले हमले के बाद नहीं रुकना चाहिए, बल्कि उन्हें “जोरदार और गहरे” तक और “बार बार हमला” करना चाहिए. हालांकि, अनुभवी एंकर राजदीप सरदेसाई ने तुल्नातमक रूप से संयम दिखाया. लेकिन वे भी एयरफोर्स के गुणगान करने वाली भीड़ का हिस्सा बन गए. उन्होंने भारतीय हवाई हमले को एक “शानदार अभियान” बताया जिसे शाबाशी मिलनी चाहिए. सीएनएन-न्यूज 18 के ही भूपेंद्र चौबे ने भारत के “बहादुर योद्धाओं” को सलाम किया और आज तक के रोहित सरदाना ने कहा कि भारत के हवाई हमले की कोई दरकार नहीं है क्योंकि पाकिस्तान ने इसकी पुष्टि कर दी है.

बिना किसी आश्चर्य के रिपब्लिक टीवी के प्रमुख अर्णब गोस्वामी ने कोरस में बेहद तेज आवाज मिला दी. ऊंचे स्वर-संगीत वाली बहसों में अर्णब ने घोषणा की कि पाकिस्तान हिल कर रह गया है और जैश-ए-मोहम्मद की “हालत खराब” है. उनके चैनल ने जवानों के लिए संदेश प्राप्त करने शुरू किए. इसके लिए “#SaluteOurForces” का इस्तेमाल किया गया. कई ने इस मौके का इस्तेमाल उस बचपन के सपने को साकार करने के लिए किया जिसमें वे फौजी बनना चाहते थे. उदाहरण के लिए तेलगु चैनल टीवी 9 ने पाकिस्तान की सीमा से लगे राज्यों में हाई अलर्ट की घोषणा कर दी. इस दौरान रिपोर्टर ने फौज की वर्दी पहन रखी थी और हाथ में खिलौने वाली पिस्तौल थामें हुए था. अगर सच कहें तो पाकिस्तानी मीडिया ने भी इसी तरह से सारी हदें पार कर दीं. पाकिस्तान के दो एंकरों ने मिलिट्री और नेवी का ड्रेस पहन कर खबर दी. हालांकि, उनका मेकअप टस से मस नहीं हुआ. यहां उस पाकिस्तानी एंकर को सम्मानजनक रूप से जगह मिलनी चाहिए जिसने 151 सेकेंड में 22 बार “तौबा-तौबा” का इस्तेमाल किया. एंकर महोदय इस दौरान दर्शकों को वह खबर बता रहे थे जिसमें भारतीय किसानों ने पाकिस्तान को टमाटर देने से मना कर दिया था. इस एंकर ने निश्चित रूप से कर्तव्य की पुकार से परे अपनी एक विशिष्ट सेवा दी.

अपने शब्दों से धमाका कर रहे किसी एंकर ने वह निर्णायकता नहीं दिखाई जिसकी उम्मीद उनका पेशा उनसे करता है. उनकी हरकतों का हास्यास्पद होना तो एक बात है ही, इन्होंने जो किया उससे थोड़ी-बहुत विश्वसनीयता भी चली गई जो इसके पहले बची हुई थी.

अनुभवी पत्रकार बरखा दत्त भी टीवी पत्रकारों के इस कोरस में शामिल हो गईं और बालाकोट में हुए हवाई हमले का जश्न मनाने लगीं. एंड्रयू लंदन में द इंडिपेंडेंट के पूर्व एशिया संवाददाता रहे हैं. उन्होंने बरखा दत्त से पूछा कि क्या ये सही है कि “एक बेहद प्रभावशाली, स्वतंत्र सोच रखने वाली पत्रकार मिलिट्री एक्शन का जश्न मना रही हैं.” दत्त ने जवाब दिया, “मैं एक भारतीय पत्रकार हूं जिसने जंग के दौरान सीमा से रिपोर्टिंग करके अपना शुरुआती अनुभव प्राप्त किया है. मेरे भीतर पाकिस्तान समर्थित आतंकी समूह द्वारा मेरे देश के खिलाफ़ छेड़े गए एक दशक पुराने लो इंटेनसिटी युद्ध को लेकर कोई फर्जी तटस्थता नहीं है.” उन्होंने भारतीय एयरफोर्स को अपना पुरजोर समर्थन दिया और कहा, “ये युद्धोन्माद नहीं है. ये न्याय है.”

27 फरवरी को एक जानकारी सामने आने लगी कि पाकिस्तान ने भारतीय विंग कमांडर अभिनंदन वर्धमान को पकड़ लिया है और उसके गिरफ्त में होने की वीडियो सोशल मीडिया पर तैरने लगी. दत्त ने कहा कि अभिनंदन ने जिस तरह के धैर्य और संतुलन का परिचय दिया है उससे वे अभिभूत हैं. इसके बाद उन्होंने “टीवी स्टूडियो में बैठकर मुंह से झाग निकाल रहे हैशटैग योद्धाओं” की आलोचना की. एक तरफ तो दत्त धौंस जमा रहे टीवी वाले जो खुद को पत्रकार कहते हैं उनकी आलोचना करने के मामले में सही थीं. मैंने ट्विटर पर इस ओर इशारा किया कि उन्होंने भी खुद का झुकाव सेना की ओर दिखाया है. ऐसा ही धमका रहे टीवी एंकर भी कर रहे हैं. दत्त ने भी खुद को तिरंगे में लपेट लिया है. ऐसे में उन्होंने वह रेखा धुंधली कर दी है जो रिपोर्टरों और नैतिक साहस बढ़ाने वालों के बीच होती है.

इसके जवाब में उन्होंने कहा, “मैं आतंकवाद के खिलाफ सेना का समर्थन करती हूं. माफ कीजिएगा सलील, लेकिन ये युद्धोन्मादी होना नहीं है. मैं स्टूडियों में बैठकर सांस फुलाने वाली स्टड नहीं हूं और आपको पता रहे कि मुझे अक्सर भीड़ द्वारा मार दिए जाने की धमकियां मिलती रहती हैं. लेकिन मैं न्याय के साथ खड़ी हूं. और इस मामले में अपनी सेना के साथ भी.”

दत्त की राय संघर्ष के दौर में पत्रकारों की भूमिका को लेकर गहरे सवालों के जन्म देता है. सवाल ये कि इनके लिए देश और इसके सशस्त्र बलों के लिए निष्ठा या समर्थन की घोषणा करने का क्या मतलब है? युद्ध और संघर्ष के समय सरकार को झूठ बोलने से कई फायदे मिलते हैं और चारों ओर फैला उन्मादी माहौल अक्सर लोगों को पक्ष लेने के लिए मजबूर करता है. युद्ध के धुंध में सच की तलाश मुश्किल होती है और कई बार इसमें अंतर होता है कि “हमारा” अपना पक्ष क्या दावा करता है और “हम” किस बात के सच होने की कामना करते हैं. यहां तक कि अधिकार-संबंधी सर्वनामों का इस्तेमाल भी अलग अर्थ ले लेता है. ऐसे में एक पत्रकार की भूमिका संदेहवादी होनी चाहिए और “हमारे” और “उनके” हर दावे पर सवाल उठाने का प्रयास होना चाहिए. पत्रकारों को पता होता है कि जब कोई व्यक्ति कोई कहानी कह रहा होता है तो इसके पीछे उसका कोई उद्देश्य होता है. इसकी वजह से वह अपने दावों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर सकता है, सच को दबा सकता है और कुछ मौकों पर तो साफ झूठ बोल सकता है. ऐसे में पत्रकारों का सफर वहीं तक का होना चाहिए जहां तक सच उन्हें ले जाता हो. उन तथ्यों की जांच भी करने होती है जो उन्हें पता चला है या उन्हें बताया गया है. वहीं लिखना होता है जिस सच का पता वो खुद लगा पाए हों. इसके बाद बिना किसी का पक्ष लिए और बिना किसी के डर के उन्हें उसे छापना होता है जो उन्होंने पता लगाया है. इसमें सरकार को नाराज करने का काम भी शामिल है. ऐसे में ये भी हो सकता है कि आधिकारिक प्रवक्ता रिपोर्टर का फोन उठाना बंद कर दे. उन्हें पीने के लिए साथ बुलाना बंद कर दे. ऐसी बातें बताना भी बंद कर दे जो रिपोर्टरों की एक्सक्लूसिव स्टोरी में तब्दील हो जाती थी.

इसमें कोई शक नहीं है कि सोशल मीडिया पर दत्त को ट्रोल्स के जैसे हमले का सामना करना पड़ा है वह घिनौना है और उनके खिलाफ हमला करने और उन्हें प्रताड़ित करने के लिए हिंसक धमकियां देने वालों को सजा दी जानी चाहिए. इस मामले में मैं उनके साथ खड़ा हूं. लेकिन इसका कश्मीर में हुई ताजा हिंसा के संबंध में उनके सार्वजनिक बयानों से कोई लेना-देना नहीं है. ऐसा मानना दो मुद्दों को एक करने जैसा होगा. सशस्त्र बलों को बिना शर्त दिए जा रहे उनके और उन जैसे पत्रकारों के समर्थन से कई सवाल खड़े होते हैं. इससे भविष्य के रक्षा भ्रष्टाचार घोटाले की रिपोर्ट करने के लिए उनकी निष्पक्षता पर सवाल उठाता है, यही सवाल आदिवासियों, पिछड़ी जातियों, और महिलाओं पर होने वाले सशस्त्र बलों के अत्याचार को लेकर भी है या नागरिकों के खिलाफ जरूरत से ज्यादा बल के इस्तेमाल को लेकर भी यही सवाल है. भारतीय सशस्त्र बलों का कई संघर्षों से जुड़ा रिकॉर्ड बेहद शानदार रहा है. लेकिन ये उत्तम होने की सीमा से दूर है. इनके उदाहरणों में आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट का भारत के कई हिस्सों में अभी भी लागू होना है, इसमें उन सशस्त्र बलों का आचरण भी शामिल है जिनकी वजह से इरोम शर्मिला का जीवन भूख हड़ताल में बीत गया, जम्मू-कश्मीर में आर्मी अधिकारी लीतुल गांगुली ने जो किया वह भी इसी का हिस्सा है. ये सब एक गैर-पेशेवर सेना के व्यवहार के उदाहरण हैं. सशस्त्र बलों को आतंकवादियों के खिलाफ खड़े करके दत्त एक गलत बाइनरी को जन्म दे रही हैं. नागरिकों के खिलाफ आतंकवादियों का हमला हमेशा गलत होता है, लेकिन, सशस्त्र बलों का अचरण भी हमेशा सही नहीं होता है.

अपने जवाबों में और बाकी जगहों पर दत्त ने इस बात पर जोर दिया है कि एयरफोर्स का समर्थन करना युद्धोन्माद फैलाना नहीं है. इस पर बहस की जा सकती है. जिस पर पर बहस नहीं हो सकती वह यह है कि एक पत्रकार का काम सेना का समर्थन करना नहीं है.

यूनाइटेट स्टेट्स ऑफ अमेरिका में इस बात को एक समय इतना पवित्र माना जाता था कि इसका उल्लंघन करने पर पूरा देश अशांत हो उठता था. 1968 में वियतनाम युद्ध के समय पत्रकार और न्यूजकास्टर वॉल्टर क्रॉन्काइट ने सरकार की जिम्मेदारी तय करने की भूमिका में अपनी सीमा का उल्लंघन कर दिया. उन्होंने ऐसा तब किया जब उन्हें पता चला कि उनकी सरकार ने जनता से झूठ बोला है. क्रॉन्काइट ने इस युद्ध को एक “गतिरोध” बता दिया. पत्रकार के इस स्पेशल शो को देखने के बाद तब के अमेरिका ने राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने कथित तौर पर ऐसा कहा था, “अगर मैंने क्रॉन्काइट को खो दिया है, मैंने मध्य अमेरिका को खो दिया है.”

इसके थोड़ी ही दिनों बाद राष्ट्रपति ने वियतनाम में “शांति की ओर” बढ़ने की बात की और घोषणा की कि वे इसके बाद के राष्ट्रपति चुनाव में हिस्सा नहीं लेंगे. इस प्रसारण के कुछ दिनों बाद माई लाई जनसंहार हो गया जिसमें अमेरिकी फौज ने 500 वियतनामी नागरिकों को मौत के घाट उतार दिया. इस खबर को लगभग एक साल तक दबाकर रखा गया. जब लोगों को ये पता चला तो उनमें भयानक गुस्सा था. क्रॉन्कनाइट की वजह से सरकार को लेकर सोच में जिस गिरावट की शुरुआत हुई थी वह और नीचे चली गई. समाचार पत्रों ने अदालतों के आदेश तक का उल्लंघन कर दिया. उन्होंने पेंटागन पेपर्स के हिस्सों को छाप दिया जिससे वियतनाम में फौज के किए पर सवाल खड़े हुए. जेम फोंडा जैसे फिल्मी सितारे ने वियतनाम युद्ध के खिलाफ अभियान चलाया, छात्रों ने भी मोर्चा संभाल लिया. फौज के प्रवक्ताओं की विश्वसनीयता को गहरा धक्का लगा. सैगॉन से पांच बजे शाम में होने वाले न्यूज कॉन्फ्रेंस को पत्रकार “पांच बजे की मूर्खता” बुलाने लगे.

एक पीढ़ी के बाद जब अमेरिकी सरकार देश के बाहर लिए जाने वाले अपने एक्शन के मामले में लोगों का भरोसा जीतने की ओर थी तो देश के नेताओं ने इराक पर हमला करने का फैसला किया. ऐसा लगा जैसे मीडिया वियतनाम युद्ध से सीखा गया पाठ भूल गई. माइकल मैसिंग ने 2004 में नाउ दे टेल अस (वे हमें अब बता रहे हैं) नाम से एक किताब लिखी है. इसमें वे अमेरिकी मीडिया को सवाल करने और जांच करने में असफल रहने को लेकर फटकार लगाते हैं. वे इस बात को लेकर भी फटकार लगाते हैं कि वे सरकार के इस झूठ को पकड़ने में भी नाकाम रहे कि इराक में जनसंहार करने लायक हथियार हैं जो अमेरिका के खिलाफ इस्तेमाल किए जा सकते हैं.

भारतीय पत्रकारों को अपने व्यवहार, बयानों और ट्वीट्स के बारे में सोचने की जरूरत है. इसे बारे में भी कि जब बंदूकें शांत हो जाएंगी तो वे किस ओर नजर आना चाहेंगे. देश की मनोदशा को इतना बदसूरत बनाने का काम किसने किया? क्या वो क्रॉन्काइट सा बनना चाहेंगे जिसने राष्ट्रपति को फिर से विचार करने को मजबूर किया या ऐसे रिकॉर्ड शोज में जिनमें उन्होंने अपने सरकार से बेहद कम सवाल करते हुए युद्ध की मांग की?

विचार लिखने वालों के पास इसकी सहूलियत होती है कि वे अपने विचार को आगे रख सकें और इसमें चाहे देश-भक्ति हो या पूर्वाग्रह, वो इसे खुलकर दिखा सकते है लेकिन बाकी के पत्रकार-खास तौर से रिपोर्टर, एंकर और संवाददाता को ऐसे किसी लालच से दूर रहना चाहिए ताकि उनकी विश्वसनीयता बनी रहे. ऐसा नहीं है कि इनके विचार नहीं होते लेकिन ये अहम हैं कि इन्हें किनारे रखा जाए और विश्वनीय सूत्रों के हवाले से मिली तथ्य आधारित रिपोर्टिंग की जाए. ऐसा नहीं करने का ही नतीजा है जिसकी वजह से इस पेशे का आज यह हाल है कि कुछ पत्रकार ऐसी खबरों या विचार का जरिया बन जाते हैं जिन खबरों को सरकार करावाना चाहती है.

बीते कुछ दिन इसके पर्याप्त सबूत हैं. हमने सरकारी अधिकारियों की संयमित प्रेस ब्रीफिंग के बीच एक शानदार विरोधाभास देखा है जिनमें तथ्य अक्सर बेहद कम होते हैं और ऐसी खबरों की भरमार लग जाती है जो अनाम “सूत्रों” के हवाले से दी जाती है जिससे पब्लिक के मिजाज पर भारी असर पड़ता है. 28 फरवरी को जब इमरान खान ने घोषणा की कि वर्धमान को पाकिस्तान की कस्टडी से जल्दी ही छोड़ दिया जाएगा. इसके बाद भारतीय टीवी नेटवर्क बवाले हो गए. उन्होंने खान के फैसले को मोदी की जीत बता दिया. अपने स्टूडियो से गरजते हुए बिना किसी सोर्स का हवाला दिए कई एंकरों ने दावा किया कि खान ने यह फैसला भारतीय कूटनीतिक दबाव की वजह से लिया है. दत्त ने इस बवालेपन को “बेवकूफाना और गैरजरूरी बताकर” इस पर ठंडा पानी डालने की कोशिश की लेकिन अपनी आदत से मजबूर टीवी नेटवर्क वाले एंकर ऐसा कुछ सुनने की मूड में नजर नहीं आ रहे.