रिपब्लिक टीवी की बहसों का एजेंडा क्या है? 1179 बहसों की पड़ताल

इलसट्रेशन : सुकृति अनाह स्टेनली

हमेशा सुर्खियों में बने रहने वाला समाचार चैनल रिपब्लिक टीवी एक बार फिर तब सुर्खियों में आया जब नवंबर की शुरुआत में उसके मालिक और स्टार एंकर अर्नब गोस्वामी को महाराष्ट्र पुलिस ने गिरफ्तार किया. गोस्वामी को व्यवसायी अन्वय नाइक की आत्महत्या के मामले में गिरफ्तार किया गया.

नाइक ने अपने सुसाइड नोट में गोस्वामी का नाम लेकर कहा है कि उन्होंने बकाया नहीं चुकाया जिसकी वजह से उन्हें आत्महत्या करने के लिए मजबूर होना पड़ा है. गोस्वामी आठ दिनों तक हिरासत में रहे. सुप्रीम कोर्ट ने उनके मामले में रिकॉर्ड तेजी से सुनवाई की और अंतरिम जमानत देते हुए उन्हें रिहा करने का निर्देश दिया.

गोस्वामी की गिरफ्तारी ने राजनीतिक हलकों में हलचल मचा दी. सबसे हैरतअंगेज प्रतिक्रिया नरेन्द्र मोदी सरकार के मंत्रियों की रही कि इस पत्रकार को जेल भेजना अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला है. हालांकि ये नेता जेलों में बंद अन्य मीडिया कर्मियों पर उतना ध्यान नहीं देते. अन्य बहुत से पत्रकार हैं जो मानने को तैयार नहीं थे कि गोस्वामी पर हमला मीडिया पर हमला है क्योंकि वे गोस्वामी को प्रेस बिरादरी का मानते ही नहीं हैं.

अर्नब का एक खास अंदाज है जहां वह खुद को एक राष्ट्रवादी की तरह पेश करते हैं और पक्षपाती रिपोर्टिंग करते हैं. पत्रकारों का कहना है कि वह पत्रकारिता के नाम पर दर्शकों को गुमराह करते हैं. लोग इससे सहमत हों या न हों लेकिन रिपब्लिक टीवी पर पक्षपाती होने का आरोप खारिज नहीं किया जा सकता. हमने मई 2017 से अप्रैल 2020 तक इस चैनल पर प्रसारित होने वाले सभी प्राइम टाइम कार्यक्रमों का अध्ययन किया. इस तरह हमने कुल 1779 प्राइम टाइम प्रसारणों का अध्यन किया और हमारा निष्कर्ष एकदम स्पष्ट है कि रिपब्लिक टीवी मोदी सरकार और उसकी नीतियों के पक्ष में लगातार बहस आयोजित करता है. यहां तक कि बीजेपी की विचारधारा के पक्ष में भी वह ऐसा ही करता है. ज्यादा खराब बात यह है कि इन बहसों में बहुत कम ऐसे मुद्दों को शामिल किया जाता है जो भारत की जनता पर असर डालते हैं, जैसे अर्थतंत्र, शिक्षा और स्वास्थ्य. इन बहसों में अक्सर विपक्ष और उन लोगों, समूहों पर हमला किया जाता है जो सत्तारूढ़ सरकार की विचारधारा का विरोध करते हैं.

कई तथ्य तो चौंकाने वाले हैं. रिपब्लिक टीवी की राजनीतिक बहसों का लगभग 50 फीसदी विपक्ष की आलोचना में खर्च हुआ है और उसने एक भी ऐसी डिबेट नहीं की है जिसे हम विपक्ष का पक्ष लेने वाला कह सकें. रिपब्लिक टीवी ने हर 100 बहसों में केवल 8 बीजेपी की आलोचना में की हैं. इस समाचार चैनल ने विपक्ष विरोधी बहसों को 2019 के चुनाव आते-आते तेजी से बढ़ा दिया. 2019 के आखिर और 2020 के शुरू में इसने सीएए पर 54 बहसें आयोजित की जिसमें से कम से कम 30 फीसदी में शाहीन बाग में चल रहे आंदोलन की आलोचना थी. हर दूसरी बहस में उसने सत्तारूढ़ पार्टी का पक्ष लिया और सीएए विरोधी प्रदर्शनों की आलोचना की. कृषि, स्वास्थ्य, अर्थतंत्र जैसे विषयों पर केवल एक फीसदी प्राइम टाइम चर्चा हुई. निरंतर और आक्रमक रूप से रिपब्लिक टीवी ने मोदी सरकार के पक्ष में हैशटैग चलाए जिनमें “मोदी ने पाकिस्तान को रौंदा”, “G-7 मीटिंग में चलाया जादू” और मोदी का “भ्रष्टाचार पर हमला” तथा “धोखाधड़ी करने वालों को सजा” जैसे हैशटैग शामिल हैं. हमने रिपब्लिक टीवी की बहसों की तुलना एनडीटीवी की बहसों से की. आप पूछ सकते हैं कि क्यों इन दोनों की तुलना की गई? ऐसा इसलिए है कि हमारा अनुमान है कि हाल के मुख्यधारा के लोकप्रिय समाचार चैनलों में ये दो चैनल दो ध्रुवों का प्रतिनिधित्व करते हैं. हमने जो डेटा लिया है वह इन चैनलों ने अपनी-अपनी वेबसाइटों पर साझा किया है.

हमने 6 मई 2017 से 3 अप्रैल 2020 के बीच रिपब्लिक टीवी पर हुई बहसों का अध्ययन किया है. रिपब्लिक टीवी द डिबेट नाम से एकमात्र बहस कार्यक्रम चलाता है जिसे अक्सर गोस्वामी एंकर करते हैं. हमने 4 फरवरी 2001 से 8 अप्रैल 2020 के बीच एनडीटीवी पर आयोजित बहसों का अध्ययन किया. एनडीटीवी की वेबसाइट में 2002 से 2004 के बीच हुई बहसें उपलब्ध नहीं हैं, इसलिए हमारे अध्ययन में इन्हें शामिल नहीं किया गया है.

एनडीटीवी पर चार प्रमुख बहस कार्यक्रम आयोजित होते हैं- द बक स्टॉप हेयरवी द पीपुललेफ्ट, राइट एंड सेंटर और एनडीटीवी डायलॉग. लेफ्ट राइट एंड सेंटर और एनडीटीवी डायलॉग मिश्रित शो हैं जिसमें बहस और इंटरव्यू दोनों होते हैं. द बक स्टॉप हेयर और वी द पीपुल मुख्य रूप से बहस कार्यक्रम हैं लेकिन कभी-कबार इनमें इंटरव्यू भी होते हैं. अध्ययन को सहज बनाने के लिए हमने इन कार्यक्रमों को विशुद्ध बहस कार्यक्रम माना है. हमारे डेटा में एनडीटीवी के 1171 मिश्रित कार्यक्रम और 1582 बहस कार्यक्रम हैं.

इस अध्ययन के लिए हमने बहस की परिभाषा को विस्तार दिया है जिसमें हमने न केवल विपक्षी प्रवक्ताओं का अपना पक्ष रखने को शामिल किया है बल्कि एंकर और मेहमान के बीच के संवाद को शामिल किया है, जो जरूरी नहीं कि विरोधी रवैया ही हो. बहस की परिभाषा में विस्तार देना इसलिए जरूरी था ताकि दोनों चैनलों का तुलनात्मक अध्ययन किया जा सके. हमने बहस को चार श्रेणियों में विभाजित किया है जैसे राजनीति (तटस्थ), विपक्ष का विरोध, बीजेपी का विरोध, बीजेपी का समर्थन, विपक्ष का समर्थन, अर्थतंत्र, अपराध और न्याय, स्वास्थ्य तथा सुरक्षा आदि. तुलना में सहजता के लिए हमने 2014 के बाद का संदर्भ लिया है. अध्ययन के लिए यह अनुकूल भी है, इसके बावजूद कि 2004 से 2014 के बीच बीजेपी विपक्ष में रही, इस दौर में एनडीटीवी की राजनीतिक बहसें संख्या में सीमित रहीं जिन्हें व्यापक रूप से “राजनीति (तटस्थ)” की श्रेणी में डाला जा सकता है. हमने आगे विपक्ष शब्द का इस्तेमाल भारत के व्यापक विपक्ष के रूप में किया है जिसमें हमने विपक्षी पार्टियों, कार्यकर्ता, पत्रकार आदि को शामिल किया है, जिन्हें सत्तारूढ़ बीजेपी का विरोध करते हुए देखा जा सकता हैं. यह श्रेणी विभाजन बहस के शीर्षक की भाषा तथा अभिव्यक्त किए गए विचार के आधार पर किया है. रिपब्लिक टीवी के मामले में हमने हैशटैग को भी इसमें शामिल किया है. हमने बहसों के शीर्षक को प्रासंगिक माना है क्योंकि आमतौर पर ये बहस के मूल सार और इरादे को दर्शाते हैं.

कोई भी बहस जो राजनीतिक मुद्दे पर हो या जिसमें राजनीतिकरण करने की साफ गुंजाइश हो, लेकिन सीधे-सीधे बीजेपी या विपक्ष का न तो खास ढंग से समर्थन करती हो न ही विरोध इसे राजनीति (तटस्थ) के रूप में वर्गीकृत किया गया है. राजनीति (तटस्थ) के तहत बिना किसी व्यापक थीम वाले रोजमर्रे के राजनीतिक विकास को भी वर्गीकृत किया गया. जो शीर्षक सीधे-सीधे किसी खास विषय से जुड़े होते हैं जैसे साफ तौर पर स्वास्थ्य या कृषि से संबंधित होते हैं उन्हें वैसे ही वर्गीकृत किया गया है. बहस के जो शीर्षक साफ-साफ बीजेपी या विपक्ष का समर्थन या विरोध करने वाले होते हैं उन्हें समर्थन और विरोध में वर्गीकृत किया गया है. जिन शीर्षकों में कृषि या अर्थव्यवस्था जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को राजनीति के साथ जोड़ा गया था,  हमने उन्हें या तो राजनीति –पक्ष या एकतरफा पक्ष- या संबंधित विषय के तहत रखा है, यहां हमें यह भी ध्यान रखा है कि शीर्षक का जोर किस तरफ है. जैसे हमने कुछ श्रेणियों के शीर्षक- कश्मीर, सीएए और राम मंदिर के तहत रखे हैं. जहां साफ राजनीतिकरण हुआ है यानी एक राजनीतिक पक्ष पर आरोप लगाया गया था, उस पर चर्चा की गई थी या उसका तिरस्कार किया गया था, इन बहस को समर्थक या विरोधी पक्ष के रूप में वर्गीकृत किया गया है. कुछ दुहराव संभव है हुआ हो लेकिन जितना संभव हो, हमने एक व्यापक राजनीतिक श्रेणी में इनका वर्गीकरण किया.

रिपब्लिक टीवी ने वर्ष 2017 से 2020 के बीच 28 अलग-अलग मुद्दों पर बहस आयोजित की. इनकी बहस की पांच मुख्य श्रेणियों में क्रमशः विपक्ष विरोध पर 595 बार बहस कराई गई. इसके बाद राजनीतिक (तटस्थ) मुद्दों पर 288 और बीजेपी के समर्थन में 204 बार बहस की गई. वहीं राष्ट्रवाद के मुद्दे पर हुई बहसों की संख्या 179 थी, तो अपराध और न्याय पर 154 बार बहसें हुईं.

ये कुल 1420 बहस मई 2017 के बाद से रिपब्लिक टीवी पर हुईं सभी बहसों का 79.8 प्रतिशत हैं. रिपब्लिक टीवी पर दिखाई जाने वाली सामग्री मुख्य तौर पर राजनीतिक मुद्दों पर केंद्रित होती है. जब हम इस विषय पर अध्ययन कर रहे थे, तब तक चैनल ने कुल 1136 राजनीतिक बहसें प्रसारित की थीं जो इसकी कुल बहसों का 63.8 प्रतिशत थीं. 33.4 प्रतिशत बहसें विपक्ष विरोधी थीं. राजनीतिक (तटस्थ) बहसें 16.2 प्रतिशत थीं. बीजेपी के समर्थन में 11.5 प्रतिशत और बीजेपी के विरोध में रही बहसों का प्रतिशत 2.8 रहा. रिपब्लिक टीवी की सभी बहसों में एक भी बहस ऐसी नहीं थी जो विपक्ष का समर्थन करती हो. इसका मतलब है कि किसी भी बहस का शीर्षक विपक्ष का इतना जोरदार तरीके से समर्थन करता नहीं दिखता था, जितना बीजेपी का करता था.

ज्यादा गहराई से देखने पर पता चलता है कि रिपब्लिक की बीजेपी विरोधी बहसों में सीधे तौर पर मोदी की आलोचना नहीं की गई, बल्कि उनकी जगह पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ, पूर्व केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी, एमजे अकबर और आतंकवादी हमलों की आरोपी सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर की आलोचना की गई. गांधी परिवार और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की आलोचना करती विपक्ष विरोधी बहसों की संख्या बाकियों के मुकाबले काफी अधिक थीं.

साल 2001 से 2020 के बीच एनडीटीवी ने कम से कम 54 अलग-अलग श्रेणियों में बहस कराई. चैनल पर चलाई गई बहसों के पांच मुख्य विषयों में राजनीतिक (तटस्थ), समाज, अपराध और न्याय, स्वास्थ्य और सुरक्षा और बीजेपी विरोध के तहत हैं. राजनीतिक (तटस्थ) रूप 334 बहसें बहस कार्यक्रम के अंतर्गत और  293 बहसें मिश्रित कार्यक्रम के तहत कराई गईं. अपराध और न्याय पर इसी तरह क्रमशः 181 और 89 बहसें हुईं, समाज पर इसी तरह 159 और 60 बहसें हुईं, स्वास्थ्य और सुरक्षा पर 79 और 21 तथा बीजेपी विरोध पर बहस कार्यक्रम के अंतर्गत 65 और मिश्रित कार्यक्रम के तहत 84 बहसें हुईं.

बहस कार्यक्रम के अंतर्गत कुल मिलाकर 818 बहसें हुई, जो कुल बहसों का 51.7 प्रतिशत है. मिश्रित कार्यक्रम के तहत हुई कुल 547 बहसे हुईं यानी 46.7 प्रतिशत. एनडीटीवी के सबसे प्रसिद्ध बहस कार्यक्रमों में, जिसमें लेफ्ट, राइट एंड सेंटर और एनडीटीवी डायलॉग शामिल है, राजनीति पर 293 बहसें, अपराध और न्याय के मुद्दों पर 89, बीजेपी विरोध पर 84, अर्थव्यवस्था पर 67 और समाज पर 60 बहसें आयोजित की गईं. लेफ्ट, राइट एंड सेंटर और एनडीटीवी डायलॉग पर आयोजित की गई कुल बहसों में 593 बहसें इन श्रेणियों के तहत हुईं जो कुल का 50.6 प्रतिशत है.

आंकड़े दर्शाते हैं कि एनडीटीवी पर प्रसारित सामग्री राजनीति और विस्तृत सामाजिक मुद्दों पर केंद्रित रहती है. चैनल ने 481 राजनीतिक बहसें और 439 मिश्रित कार्यक्रम प्रसारित किए. जो कि बाकी सभी बहसों का 30.4 से 37.5 प्रतिशत तक है.

बीजेपी विरोधी बहसों में सीधे तौर पर मोदी और अन्य सरकारी पदाधिकारियों की आलोचना की गई. विपक्ष विरोधी बहसों में गांधी परिवार और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की प्रत्यक्ष रूप से कई संदर्भों में आलोचना की गई.

2017 के मध्य में अपनी स्थापना से ही रिपब्लिक टीवी ने विपक्ष के खिलाफ अधिक संख्या में बहसें आयोजित की हैं. चैनल के राजनीतिक बहस से जुड़े कार्यक्रमों में विपक्ष विरोधी बहसों की संख्या 50 प्रतिशत तक है. विपक्ष विरोधी बहसों के बाद अगले स्थान पर राजनीतिक रूप से तटस्थ बहसें और उसके बाद बीजेपी के समर्थन में हुई बहसों की संख्या आती है. बीजेपी का विरोध दर्शाती बहसों की संख्या बेहद कम रही है. चैनल ने विपक्ष का समर्थन करने वाली कोई बहस नहीं की.

रिपब्लिक टीवी की बहस के शीर्षकों में भी विपक्ष विरोधी रवैया साफ तौर से दिखता रहा है. फिर यह पहले से ही निर्धारित निष्कर्ष तक पहुंचते दिखने वाले हैशटैग के माध्यम से अपनी बहस के विषय की पुष्टि करता है. उदाहरण के तौर पर, जनवरी 2020 की एक बहस कश्मीर के सैन्यीकरण पर “लिबरल” के विरोध के बारे में था. इसका शीर्ष था “प्रोवोकिंग टू ग्रैब अटेंशन नाऊ?” (क्या अब ध्यान खींचने के लिए भड़का रहे हैं?).

चैनल ने साथ में "फ्रस्ट्रेटेडलिबरल्स" (बेसुध उदारवादी) हैशटैग शुरू किया. गोस्वामी बहस में सीएए विरोधी प्रदर्शन और दिल्ली विश्वविद्यालय में “मुक्त कश्मीर” की मांग करते पोस्टरों और दीवार पर लिखे नारों का जिक्र करते हैं. उन्होंने कहा कि “फर्जी” उदारवादियों ने बेवजह अनुच्छेद 370 और अनुच्छेद 35ए जैसे “दुर्भाग्यपूर्ण प्रावधानों” का विरोध किया लेकिन भारत की जनता ने उन्हें उनकी जगह दिखा दी.

गोस्वामी बहस में शामिल कई अन्य मेहमानों की तरह ही भारतीय सशस्त्र बलों द्वारा की गई किसी भी कार्रवाई की आलोचना करने पर उदारवादियों पर खूब बरसते दिखाई दिए. इस तरह एक अन्य बहस का शीर्षक था, "सूडो चिअरिंग अनार्की" (अराजकता का जश्न मनाते फर्जी लोग). इसमें अर्नब ने दावा किया कि जेएनयू से जामिया तक और गया से सीलमपुर तक के सीएए का विरोध करने वाले फर्जी लोग दंगे भड़काने के लिए झूठ फैला रहे थे. इसके लिए “सूडोबैकवाइलेंस" (हिंसा के पीछे फर्जी उदारवादियों का हाथ) हैशटैग चलाया गया था. कुछ अन्य बहसों में दो प्रमुख बीजेपी विरोधी विपक्षी पार्टियों, कांग्रेस और शिवसेना की आलोचना करने के लिए एक ही तरीका अपनाया गया था. रिपब्लिक टीवी की 595 विपक्ष विरोधी बहसों में से 342 बहसें सीधे कांग्रेस, उसके सदस्यों, गांधी और वाड्रा परिवार और लुटियन दिल्ली पर केंद्रित थीं. अधिकतर आलोचनात्मक संदर्भ राहुल गांधी, सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी के लिए थे. बाकी बहसें "टुकडे टुकडे़ गिरोह", असदुद्दीन ओवैसी, अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी की आलोचना पर केंद्रित थीं. बीजेपी अपने विरोधियों-आलोचकों को अक्सर "टुकडे टुकडे़ गिरोह" कहती है  और दावा करती है कि ये लोग देश के टुकड़े करवाना चाहते हैं.

अनिर्धारित उदारवादियों के समूह और यूपीए सरकार के लिए गोस्वामी अक्सर “लॉबी” शब्द इस्तेमाल करते रहे हैं. इसी तरह से रिपब्लिक टीवी का बीजेपी के प्रति झुकाव बीजेपी के समर्थन में हुई बहसों में बहुत स्पष्ट रूप से सामने आया है. बहस में मोदी के विकास कार्यों और सरकार की नीतियों की खुले तौर पर प्रशंसा की गई, जिसमें “मोदीमीन्सबिजनिस” (मोदी माने बिजनिस) और "मोदीG7मैजिक" (मोदी का G7 में जादू)  जैसे हैशटैग भी शामिल हैं.

दोनों चैनलों के बीच सीधी तुलना करने के लिए हमने जनवरी 2018 से अप्रैल 2020 तक के परस्पर व्यापक समय को चुना. इस दौरान रिपब्लिक टीवी ने नागरिक बुनियादी ढांचा, भेदभाव और समानता, पर्यावरण, न्यायपालिका या खराब प्रशासन जैसे प्रमुख मुद्दों पर बहस नहीं की. चैनल पर अर्थव्यवस्था, शिक्षा, समाज, स्वास्थ्य और सुरक्षा जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर सीमित बहस ही प्रसारित की गईं. और ये बहस कुल चर्चाओं का सिर्फ एक प्रतिशत ही थीं. इसकी अधिकांश प्रसारित बहसें रोजमर्रे की राजनीति पर केंद्रित हैं और इस पूरे समय में हुई बहसों का यह 64.2 प्रतिशत हिस्सा थीं. वहीं एनडीटीवी पर बहस में विभिन्न विषयों पर चर्चा की गई. ऐसे 28 से ज्यादा विषयों पर आयोजित बहसों को देखने पर जो समान रूप से रिपब्लिक टीवी पर हुईं, रिपब्लिक पर राजनीतिक बहस 16.6 प्रतिशत हुई और एनडीटीवी पर बहस और मिश्रित कार्यक्रमों पर 45.6 प्रतिशत हुई. जाति, अर्थव्यवस्था, शिक्षा, समाज और स्वास्थ्य और सुरक्षा का हिस्सा क्रमशः 48 प्रतिशत और 12.5 प्रतिशत रहा. रिपब्लिक टीवी ने 479 विपक्ष विरोधी बहसें और केवल 37 बीजेपी विरोधी बहसें प्रसारित की. यह 0.0772 का अनुपात है. इसका मतलब होता है कि रिपब्लिक टीवी ने 7.72 या लगभग हर 100 विपक्ष विरोधी बहसों के मुकाबले केवल 8 बीजेपी विरोधी बहस प्रसारित की हैं. इसके उलट एनडीटीवी के मिश्रित कार्यक्रमों के अनुपात से पता चलता है कि इस पर 2.6 या लगभग हर विपक्ष विरोधी बहस के मुकाबले तीन बीजेपी विरोधी बहस प्रसारित हुईं.

दूसरी तरफ रिपब्लिक टीवी ने बीजेपी के पक्ष में हर दस के उलट केवल दो बहसें बीजेपी के विरोध में प्रसारित कीं, जबकि एनडीटीवी ने अपने मिश्रित कार्यक्रम में बीजेपी के समर्थन में हुई हर बहस के बदले बीजेपी के विरोध में 4 बहसें प्रसारित कीं. मोटे तौर पर रिपब्लिक टीवी ने बीजेपी के पक्ष में भारी बहस की.

उसी दौरान एनडीटीवी ने राजनीति (तटस्थ), अंतर्राष्ट्रीय मसलों, अर्थव्यवस्था, स्वास्थ्य और सुरक्षा तथा समाज विषयों के तहत रिपब्लिक टीवी की तुलना में अधिक बहसें प्रसारित कीं. इस बीच रिपब्लिक टीवी ने एनडीटीवी की तुलना में राष्ट्रवाद, राम मंदिर, अपराध और न्याय पर अधिक बहसों के साथ-साथ बीजेपी के पक्ष और विपक्ष-विरोधी बहस को हवा दी.

2019 के लोक सभा चुनावों के दौरान भी चैनलों ने इसी पैटर्न को जारी रखा. नीचे दिए गए चार्ट 2019 के चुनावी वर्ष के दौरान रिपब्लिक टीवी और एनडीटीवी, दोनों द्वारा आयोजित बहस के कार्यक्रमों में राजनीतिक बहसों की संख्या दर्शाते हैं. एनडीटीवी के बहस के कार्यक्रम में राजनीति (तटस्थ) पर कुल 5 बहसें हुईं.

चार्ट चुनावी साल के दौरान रिपब्लिक टीवी के चुनाव का सामना कर रही सरकार की ओर झुकाव को साफ दिखाते हैं. चुनावों के दौरान रिपब्लिक टीवी की बहसों के शीर्षक थे, "मोदी ब्रिंगिंग ऑल नेशन्स टुगेदर" (पूरे देश को साथ लाते मोदी) इसके साथ ही उसने हैशटैग चलाया “मोदीक्रशपाक” (मोदी ने पाक को रौंदा). एक बहस का शीर्षक था, "पीएम मोदी प्रोवाइड्स ब्लंट आंसर टू एवरी अपोजिशन अटैक” (पीएम मोदी ने दिया विपक्ष के हमलों का दो टूक जवाब) हैशटैग था “मोदीपार्लियामेंटस्पीच” (मोदी का पार्लियामेंट में भाषण).

दूसरी तरफ एनडीटीवी ने लगभग साल भर मुख्य रूप से राजनीति (तटस्थ) पर बहस की और सरकार या विपक्ष के बारे में बहस के बीच संतुलन बनाए रखा, रिपब्लिक टीवी ने तटस्थ राजनीतिक बहस को दबाए रखा. अप्रैल में रिपब्लिक टीवी की विपक्ष-विरोधी बहसें चरम पर थीं. उस महीने लोक सभा चुनाव शुरू होने वाले थे. 33 बहसें विपक्ष विरोधी थीं यानी लगभग हर रोज विपक्ष विरोधी एक बहस हुई. मई 2019 में जहां विपक्ष विरोधी बहस की संख्या घटकर 28 हो गई, वहीं अब बीजेपी के पक्ष में बहसों ने इसकी भरपाई कर दी.

चुनावों में मोदी के शानदार जीत हासिल करने के बाद रिपब्लिक ने अपनी सरकार का अनुमोदन करना जारी रखा. इसमें हुई बहसों के शीर्षक रहे, "पीएम मोदी सेट्स ग्लोबल एजेंडा" (पीएम मोदी के राज्य का वैश्विक एजेंडा) (#मोदीक्रिएटहिस्ट्री, मोदी ने रचा इतिहास), "द रोड टू 5 ट्रिलियन यूएस डॉलर इकोनॉमी" (5 ट्रिलियन अमरीकी डॉलर वाली अर्थव्यवस्था बनने की राह) (#मोदीमीन्सबिजनिस, मोदी माने व्यापार) और "अमित शाह स्मैश एनपीआर लाइ" (अमित शाह ने उड़ाई एनपीआर पर फैलाए झूठ की धज्जियां) (#एनपीआरफॉरइंडिया या भारत को चाहिए एनपीआर).

तो क्या रिपब्लिक टीवी अपने मालिक की जुबान बोलता है? चैनल की बहसों के विषय साफ तौफ पर इस तरह से तैयार किए गए हैं जो सरकार की विचारधारा, राजनीति और प्राथमिकताओं से मेल खाते हैं. इसके चोटी के पांच विषय हैं – विपक्ष विरोध, राजनीति, बीजेपी का पक्षपोषण, राष्ट्रवाद तथा अपराध और न्याय. इसके बाद अयोध्या में राम मंदिर और सीएए के मुद्दे पर तीखी बहसें आती हैं. दोनों पर 54 बहसें हुईं. रिपब्लिक टीवी पर होने वाली कुल बहसों का 58 प्रतिशत हिस्सा विपक्ष-विरोध, बीजेपी का पक्ष पोषण, राष्ट्रवाद और राम मंदिर पर हुई बहसों पर ने घेरे रखा.

2018 और 2019 में, जब बाबरी मस्जिद स्थल का विवाद उच्चतम न्यायालय में अपने अंतिम चरण में पहुंच रहा था, तब राम मंदिर पर रिपब्लिक ने 28 बहसें कीं. 2019 के अंत में पारित हुए सीएए पर रिपब्लिक टीवी ने साल खत्म होने से पहले 26 बहसें कीं. अप्रैल 2020 तक चैनल ने इस मुद्दे पर 28 और बहसें कीं.

सीएए पर हुईं 54 बहसों में से 16 यानी 29.6 प्रतिशत में दिल्ली के शाहीन बाग में चल रहे धरने को नकारात्मक रूप से चित्रित किया गया. रिपब्लिक चैनल ने इसके लिए जो हैशटैग चलाए थे, उनमें एक "शाहीनबागस्कैम" (शाहीन बाग घोटाला) भी था, जिसमें दावा किया गया था कि यह विरोध प्रदर्शन खुद एक घोटाला है. "प्रोटेस्टऑनहायर" (भाड़े का प्रदर्शन) में दावा किया गया था कि प्रदर्शनकारियों को प्रदर्शन के लिए पैसा दिया गया है. "शरजीलशाहीनप्लाट", (शरजील शाहीन की चाल) में शोधार्थी और एक्टिविस्ट शरजील इमाम के एक भाषण में से कुछ बातें चुनकर उन्हें भारत विरोधी बताया. रिपब्लिक के कुछ हैशटैगों का चिट्ठा नीचे दिया गया है.

बाकी बहसें सीएए के समर्थन और विपक्ष विरोध की थीं और फरवरी 2020 में दिल्ली में हुई हिंसा पर केंद्रित थीं. बीते सालों की तरह अब भी रिपब्लिक टीवी का सुर लगातार सरकार के पक्ष में और उसकी नीतियों की प्रशंसा में लगा हुआ है.

बेशक रिपब्लिक टीवी एक लोकप्रिय चैनल है और मुमकिन है कि गोस्वामी की गिरफ्तारी और रिहाई के बाद अब और भी अधिक देखा जा सकता है. लेकिन निश्चित रूप से चैनल और इसके जुझारू संपादक, कृतघ्न राष्ट्रवादिता और आक्रामक समाचार एंकरों की एक नई पीढ़ी का हिस्सा हैं. रोजमर्रा के मसलों पर बेतरतीब कांट-छांट करने वाले ये एंकर खुद ही गर्मागर्म मुद्दों के जज, जूरी और जल्लाद बन गए हैं. सत्तारूढ़ सरकार की साफ छवि पेश करने या विपक्ष के स्याह पहलू को उजागर करने में टीवी बहसों में साफ दिखाई देने वाला पक्षपात अब आम बात है. एक बनी-बनाई कहानी के इर्द-गिर्द मुख्यधारा की चर्चा की बाढ़ और ज्यादा महत्व के मुद्दों से ध्यान हटाकर बेवजह के मुद्दों में उलझा कर समाचार चैनल तेजी से उनमाद के राजनीतिक उपकरण के रूप में काम करते हैं. अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की जून में मौत और इसके बाद उस पर हुई भारी रिपोर्टिंग इसका एक सटीक उदाहरण है : राजपूत की मौत पर जिस हद की रिपोर्टिंग रिपब्लिक टीवी ने की वह बेजोड़ थी. इस मुद्दे पर चैनलों पर हुई एकतरफा रिपोर्टिंग ने बड़े पैमाने पर भारत में कोविड के बढ़ते मामलों और अर्थव्यवस्था में गिरावट से जनता का ध्यान हटा दिया. हमारे गुणात्मक और मात्रात्मक सर्वेक्षण ने इस डिजाइन को उजागर किया जो यह दिखाता है कि किस तरह रिपब्लिक टीवी जैसे चैनल, जो सूचना-प्रधान होने का दिखावा करते हैं, लेकिन वास्तव में सरकार समर्थक हैं, राष्ट्रीय एजेंडा गढ़ने में शासकों की मदद कर सकते हैं.

भारत जैसे देश में यह खास तौर पर खतरनाक है, जहां सालों से मध्यम वर्ग का मतदाता दिन भर काम करता है और रात को तनाव के साथ घर लौटता है और टीवी के सामने बैठ जाता है. अब दर्शक इन चैनलों को अपने मोबाइल फोन पर भी देख सकते हैं. मानिए दंडवत हो जाने की हद तक गिर जाना ही काफी नहीं था, "समाचार" चैनलों ने पत्रकारिता की जगह को मनोरंजन से भरना शुरू कर दिया है. क्या पाकिस्तान भारत में कबूतरों के जरिए कर रहा है जासूसी? यकीनन ही ऐसे विषय पर अंधाधुंध भाषणबाजों को सुनने में किसे मजा नहीं आएगा. लेकिन थका देने वाले दिन के बाद जब लोग एक बिल्ली का वीडियो देखें, तो यह वह नहीं है जिसे समाचार चैनलों को दिन के बड़े मुद्दे के तौर पर रिपोर्ट करना चाहिए.

मीडिया की अपने दर्शकों के प्रति एक नैतिक जिम्मेदारी है कि वह सूचित राय उन मुद्दों की रिपोर्टिंग करे जो वास्तव में मायने रखते हैं, उन्हें संभावित परिणामों से सावधान करते हैं और उन्हें सवाल पूछने की हिम्मत दें. खास मुद्दों पर भारी संख्या में लोगों का ध्यान खींचने की क्षमता होने से ये मीडिया चैनल निर्धारित करते हैं कि क्या बात करनी है, किस पर निशाना साधना है और किस के बारे में चिंता करनी है. जब यह राजनीति से प्रेरित होता है, तो राज्य के लोकतंत्र पर नकारात्मक प्रभाव डालता है. सत्ता में बैठे लोग जनता को जो दिखाना और सोचवाना चाहते हैं और अक्सर जिसे वह चाहते हैं की जनता भूल जाए उस तरफ जनता का ध्यान मोड़ दिया जाता है.

कुछ मुद्दे इस खतरे को 10 साल से गिर रही अर्थव्यवस्था के खतरे से ज्यादा बड़ा खतरा बताते हैं. अर्थव्यवस्था में जारी गिरावट के चलते लाखों भारतीयों को अपनी नौकरी और आमदनी गंवानी पड़ी है. रिपब्लिक टीवी ने अप्रैल 2020 तक इस पर केवल सात बहसें की थीं.

 


Christophe Jaffrelot is a contributing editor at The Caravan. He has authored several books including The Hindu Nationalist Movement and Indian Politics and Modi’s India: Hindu Nationalism and the rise of Ethnic Democracy. He is a senior research fellow at CERI-Sciences Po/CNRS, Paris; a professor of Indian Politics and Sociology at King’s India Institute, London; and a non-resident scholar at the Carnegie Endowment for International Peace.
Vihang Jumle is an IT engineer. Twitter: @vihangjumle