मीडिया अंबानी की दुकान नहीं है : संदीप भूषण

सौजन्य : संदीप भूषण

वरिष्ठ पत्रकार संदीप भूषण की आने वाली किताब द इंडियन न्यूजरूम कारपोरेट मीडिया के एजेंडा वाली पत्रकारिता पर सवाल उठाती है. यह किताब सितारा पत्रकारों और ऊंची जाति के लोगों के नियंत्रण वाले भारतीय मीडिया के कामकाज के तरीकों की पड़ताल करती है. भूषण 20 साल से अधिक समय तक टीवी पत्रकार रहे और एनडीटीवी और हेडलाइंस टुडे जैसे समाचार चैनलों में काम किया. वह कारवां में नियमित तौर पर लिखते हैं.

आने वाली किताब और मीडिया से जुड़े अन्य मामलों पर ​अप्पू अजीत ने संदीप भूषण से बात की. भूषण बताते हैं कि भारतीय मीडिया ने राजनीति को बचकाना बना दिया है, इसे एक खेल में बदल दिया है.

अप्पू अजीत- जल्द प्रकाशित हो रही अपनी किताब में आप भारतीय समाचार चैनलों का असहज करने वाला पक्ष सामने ले कर आए हैं. अपने पहुंच वाली पत्रकारिता, पत्रकारों को हाशिए पर कर दिए जाने, न्यूजरूम की शक्ति संरचना और सितारा रिपोर्टर वाली परिपाटी पर आपने प्रकाश डाला है. उपरोक्त में सबसे चिंताजनक बात कौन सी है?

संदीप भूषण- चलिए सबसे पहले मैं आपको बता दूं कि मैंने यह किताब क्यों लिखी... पत्रकारिता के बारे में भारत में कोई नहीं लिखता. किसी को नहीं पता कि मीडिया की दुनिया में क्या चल रहा है. मैंने कुछ विश्वविद्यालय में अध्यापन किया है. मैंने वहां देखा है कि वहा एक समानांतर विमर्श चलता है जिसमें बताया जाता है कि कॉलेजों में पढ़ाई जाने वाली पत्रकारिता और मीडिया संस्थानों की वास्तविकता में क्या अंतर है. मीडिया की दुनिया आत्ममुग्ध और कुएं के मेंढ़क वाली दुनिया है. मैंने पत्रकार की तरह लिखने की कोशिश की है. इस दुनिया को मैंने जैसा देखा उसे संपूर्णता में समझने की कोशिश की. इस किताब को लिखने का मेरा दूसरा उद्देश आत्ममंथन करना था. दुनिया भर का मीडिया आत्ममंथन कर रहा है लेकिन भारत में, दुर्भाग्य से ऐसा होता नहीं दिखाई देता. भारत में लिबरल स्पेस और लिबरल मीडिया ने भारत में कैसा स्वरूप लिया है और आज उसके सामने कैसी चुनौतियां हैं इस पर केंद्रित होकर मैंने यह किताब लिखी है. इस बीच लिबरल मीडिया बदनाम हुआ है लेकिन फिर भी भीतर झांक कर देखने की जरूरत महसूस नहीं कर रहा है. साथ ही आज एक बहुत ताकतवर दक्षिणपंथी वैचारिक आंदोलन पत्रकारों के बीच चल रहा है.

मुझे लगता है कि जिन पत्रकारों को रखा गया और निकाला गया उसे रिकॉर्ड में लाना बहुत जरूरी है और यही मामले का केंद्रीय विषय है. हम लोग मोदी मीडिया की बात करते हैं जो सरकार से सवाल नहीं करता, सरकार चैनलों के प्रमोटरों को नियंत्रण में और संपादकों को अपनी जेब में रखती है और संपादक और प्रमोटर पत्रकारों पर दबाव डालते हैं. ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि इस तरह की शक्ति संरचना है. सबसे पहले रिपोर्टिंग को खत्म कर दिया गया. समाचार पूरी तरह से गायब हो चुके हैं. पहले समाचार चैनलों में विषयों के जानकार पत्रकार होते थे अब ऐसा नहीं होता.

फिर सितारा पत्रकार एक अलग समस्या है. यह एक किस्म के पत्रकार होते हैं जो हर चर्चा में मौजूद रहते हैं और जिन्हें सभी विषयों का ज्ञान होता है, ये अन्य पत्रकारों को रिप्लेस करते हैं. सितारा पत्रकार समाचार के संसाधनों को खा जाते हैं क्योंकि न्यूज चैनल इन्हें महान बनाने में अपना संसाधन लगाते हैं. ये एंकर ब्रांड बन जाते हैं.

अप्पू अजीत- क्या लगता है कि पत्रकारों का काम यांत्रिक हो गया है?

संदीप भूषण- यदि पत्रकार दिनभर बाइट लेने में लगा रहेगा तो वह अपना संपादकीय कौशल कैसे विकसित करेगा? उस जैसा काम तो कोई भी नया पत्रकार कर सकता है और आप एक अच्छे रिपोर्टर के वेतन पर ऐसे पांच नए लड़के रख सकते हैं. स्टूडियो में बैठे लड़के तय करते हैं कि क्या प्रसारित होगा. वही तय करते हैं कि किस तरह की चर्चा होगी और शाम को किन मुद्दों पर बात होगी. शाम 6 बजे के बाद अक्सर रिपोर्टर का काम खत्म हो जाता है. पर यह सिर्फ अंग्रेजी समाचार चैनलों में नहीं हो रहा है बल्कि सभी जगह हो रहा है.

अप्पू अजीत- अर्णब गोस्वामी सरीखी पत्रकारिता का उदय हुआ है जिसमें एंकर हमेशा झगड़ालू और गुस्से की मुद्रा में होता है और इसकी नकल तमाम न्यूज चैनल कर रहे हैं. आपकी किताब में इस परिघटना पर काफी चिंता दिखाई देती है. इसका न्यूजरूम की संस्कृति और समाचारों पर कितना प्रभाव पड़ा है. क्या इससे न्यूज चैनल को देखने वाले दर्शकों की मनः स्थिति को समझा जा सकता है?

संदीप भूषण- भारत में कहीं भी दर्शक से संबंधित किसी भी तरह के डाटा का अध्ययन नहीं किया जाता. ट्विटर यूजर कौन लोग हैं? सोशल मीडिया यूजर कौन हैं? सभी राइट विंग समाचार चैनलों में दो तरफा ट्रैफिक चलता है. एक जो देखता है कि सोशल मीडिया में क्या आ रहा है और बीजेपी और सरकार का एजेंडा क्या है. समाचार का एक वर्ग है जिसके बारे में बीजेपी ने अच्छी खासी जानकारी तैयार कर ली है. एक नया वर्ग है जो अंग्रेजी नहीं बोलता, लेकिन वह चिढ़ाता रहता है. संभवतः यह वर्ग सोशल मीडिया पर है और टाइम्स नाउ देखता है. टाइम्स नाउ और रिपब्लिक अपने आप में बहुत प्रभाव रखते हैं.

लेकिन अर्णब के बारे में जो सबसे ज्यादा प्रभावकारी बात है वह यह कि उसने हिंदी समाचार चैनलों में अपने जैसे लोग तैयार कर दिए हैं जो उसकी नकल करते हैं. जैसे आज तक की अंजना ओम कश्यप, एबीपी न्यूज के अमीश देवगन (जो अब न्यूज एटिन में है). यह सारे लोग पागलों की तरह चीख-चीख कर एंकरिंग करने वाले लोग हैं जो बहुत पक्षपाती हैं.

अर्णब मंदी के बाद के एंकर हैं. जब संसाधनों की कमी होती है और 10 चैनल रेवेन्यू के लिए एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर रहे होते हैं तो ऐसे में अर्णब की तरह की पत्रकारिता कुछ लोगों को आकर्षित कर सकती है. इसलिए मेरे लिए पहुंच वाली पत्रकारिता बहुत जरूरी बात है.

अप्पू अजीत- क्या आप जिसे पहुंच वाली पत्रकारिता कहते हैं उसके बारे में विस्तार से बताएंगे?

संदीप भूषण- 2008-09 की तरह की मंदी दुनिया भर में जहां भी आई वहां चीजें यथास्थिति में नहीं रही. मीडिया बंद हो गए. लेकिन यदि आप भारत में देखें तो पाएंगे कि मीडिया उद्योग, जो विज्ञापन पर निर्भर होता है, वह इस मंदी के दौर में भी फला-फूला, चैनलों की संख्या बढ़ी. उस वक्त यदि समाचार 250 थे तो आज 380 हैं. हम रोजाना सुन रहे हैं कि बाजार में पैसा नहीं है लेकिन इसके बावजूद 130 नए चैनल बाजार में आ गए हैं. मुझे लगता है कि यह पहुंच वाली पत्रकारिता वास्तविक परिघटना है.

मतलब यह कि समाचार चैनल पैसा नहीं बना रहे लेकिन इससे ताकत मिलती है जो मुझे संभ्रांत-एलिट लोगों में घुसने के लिए मददगार है. आप मीडिया मालिक बन जाते हैं और आपका स्टेटस बदल जाता है. जी के मालिक सुभाष चंद्रा को देखें. किसी भी तरह के नियामक ढांचे के अभाव में पहुंच होना और जरूरी हो गया है. कपिल सिब्बल के तिरंगा टीवी को देखिए. उसने सरकार के साथ झगड़ा मोल लिया और अब कोई नहीं जानता कि इस नई सरकार में वह बच भी पाएगा. पहुंच का होना बहुत जरूरी हो गया है लेकिन यहां उदयीमान मीडिया अर्थतंत्र जुड़ा है.

अप्पू अजीत- जब पहुंच की बात आती है तो आपने उल्लेख किया है कि बोर्डरूम और न्यूजरूम का अंतर मिट गया है. आपने राजीव चंद्रशेखर का उदाहरण दिया और एशिया नेट के बारे में न्यूजलॉन्ड्री की पड़ताल का भी हवाला दिया है. क्या आपको लगता है कि इससे आम चुनावों के कवरेज पर असर पड़ा था?

संदीप भूषण- यदि मैं एक प्रमोटर हूं और नेटवर्क स्थापित करता हूं तो उसके कामकाज में मेरी भूमिका बड़ी होगी. मुकेश अंबानी अपनी दुकान को कैसे चलाएंगे वे खुद तय करेंगे. लेकिन मीडिया से सार्वजनिक हित जुड़ा है इसलिए उसे एक निजी दुकान की तरह नहीं चलाया जा सकता. मीडिया और गैर-मीडिया संपत्ति के बीच के इस भेद को किसी सरकार ने संबोधन नहीं किया फिर चाहे वह कांग्रेस हो या बीजेपी. परिणाम स्वरूप इस पर नजर रखने वाले विशेष तरह के नियामक की व्यवस्था नहीं है.

भारत में आप जो चाहते हैं, वह करते हैं. आप मीडिया का जैसा चाहे इस्तेमाल कर सकते हैं. इन चुनावों में मीडिया ने राजनीति को बच्चों की चीज बना दी, इसे खेल का रूप दे दिया. हर चीज को सार में क्षुद्र कर दिया.

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की केदारनाथ यात्रा को फुल कवरेज दिया गया जबकि मीडिया को निर्वाचन आयोग से सवाल करना चाहिए था. टीवी सीरियल की आड़ में स्वच्छ भारत अभियान का प्रचार हो रहा है. सिनेमा को मोदी के प्रचार के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है. मोदी ने सिर्फ राजनीति नहीं की बल्कि प्रत्येक उपलब्ध सांस्कृतिक स्पेस को अपने कब्जे में कर लिया और मीडिया, जिसे इस पर सवाल उठाना चाहिए था, इस राजनीतिक व्यभिचार को प्रोत्साहन दे रही थी.

अप्पू अजीत- मीडिया ने जिस प्रकार से बालाकोट हवाई हमले और पुलवामा हमले को कवर किया वह अंधराष्ट्रवादी शैली थी जबकि कई खबरों से पता चल रहा था कि हवाई हमले में बहुत ज्यादा उपलब्धि हासिल नहीं हुई है. क्या आपको लगता है कि इससे चुनावों में जनता के मनोविज्ञान पर असर पड़ा?

संदीप भूषण- मीडिया ने यह खबर नहीं दिखाई की भारत की सेना ने अपने ही हेलीकॉप्टर को नष्ट कर दिया था. (27 फरवरी को एमआई-17 हेलीकॉप्टर में सवार 6 अधिकारी मारे गए थे.) इस बात के लिए कोई प्रेस मीटिंग नहीं हुई जिसमें इस बात की चर्चा की गई हो कि सेना ने खुद अपने ही हेलीकॉप्टर को कैसे मार गिराया? यह कोई युद्ध के समय में होने वाली कार्रवाई नहीं थी. क्या यह बताने की जरूरत है कि मोदी की जीत में मीडिया की बड़ी भूमिका थी. मीडिया मोदी की जीत का एकमात्र कारण नहीं था इसके लिए बहुत से कारण जिम्मेदार हैं. लेकिन मीडिया में सिर्फ मोदी ही मोदी दिखाई दे रहे थे. मैं कोई आज का पत्रकार नहीं हूं कि मैंने पहली बार चुनाव देखा है. लेकिन मैंने ऐसा चुनाव कभी नहीं देखा था और यदि आप वरिष्ठ पत्रकारों से बात करेंगे तो वे भी यही गवाही देंगे.

हर जगह पत्रकार डर कर काम कर रहे हैं. अभी 3 दिन पहले मैं एक हिंदी पत्रकार से बात कर रहा था जो आज तक के दिनों में मेरा सहयोगी था. उसने मुझसे बताया कि उसकी नौकरी बची हुई है क्योंकि वह मोदी को अच्छी तरह से जानता है. मोदी का काम करने का तरीका यह है कि उन्होंने दिल्ली की सितारा पत्रकारों वाली व्यवस्था को दरकिनार कर दिया है. वे दिल्ली के बड़े संपादकों से दूर रहते हैं. इनमें से कोई उनसे बात नहीं कर पाता. वे सिर्फ बीट रिपोर्टर से मिलते हैं जो लोकतांत्रिक तो दिखता है लेकिन यह व्यवस्था को तोड़-मरोड़ देने का डिजाइन है.

अप्पू अजीत- चुनावों से पहले मोदी ने बहुत सारे इंटरव्यू दिए थे लेकिन उन्होंने किसी गंभीर सवाल का जवाब नहीं दिया. उन्होंने अक्षय कुमार से बात की. वे मुद्दों को दरकिनार कर देते हैं. आप मोदी की मीडिया के साथ बातचीत को कैसे देखते हैं?

संदीप भूषण- ऐसे इंटरव्यू का कोई मतलब नहीं. हमने ऐसे इंटरव्यू 2014 में भी देखे थे. यह सब बनावटी इंटरव्यू होते हैं. मोदी की मीडिया नीति जैसी दिखाई देती है उससे कहीं अधिक जटिल है. अक्षय कुमार के साथ उनका इंटरव्यू एक नाटकीय प्रस्तुति थी. इंटरव्यू के जरिए वे पहली बार वोट देने वाले 20 साल के युवाओं को संबोधित कर रहे थे. यह बहुआयामी दिखने का खेल था. सब व्यवस्थित था. उनकी मीडिया नीति ऐसी है कि वे आपके लिए एक तरह की छवि पेश करते हैं और दूसरे के लिए दूसरी तरह की. उन्हें पता है कि असर कैसे करना है.

यहीं मुझे लगता है कि उदारवादी मीडिया गलत साबित हुआ. उन्हें लग रहा था कि वह मोदी को किनारा लगा देगा. लेकिन मोदी को वह कला आती है जिसमें वे अपने खिलाफ लगने वाले एजेंडे को अपने पक्ष में कर फायदा उठा ले जाते हैं. अगर मैं राजनीति में होता तो शायद मुझे पता नहीं होता कि मोदी का मुकाबला कैसे करना है.

अप्पू अजीत- इस संदर्भ में आपका लिबरल मीडिया के बारे में क्या कहना है?

संदीप भूषण- उदारवादी भारतीय मीडिया अपने अंदर झांक कर देखना ही नहीं चाहता. एक नजर चुनावों के बाद उसके विश्लेषण पर डालिए. वह मोदी पर ही आरोप लगाए जा रही है जैसे कि उनकी जीत में उनका कसूर है. उदारवादी मीडिया ने क्या किया? डिजिटाइजेशन या डिजिटलीकरण के जरिए मीडिया में कम खर्च पर कार्यक्रम बनाने की भेड़ चाल शुरू हो गई. मेरठ में बैठा कोई लड़का देखता है कि मुस्लिम होने के कारण किसी को पीटा जा रहा है. वह झट से वीडियो बनाकर सोशल मीडिया में लगा देता है और यदि वह लड़का स्ट्रिंगर है तो वहां इसे न्यूज चैनल को दे देता है. उसके बाद सभी चैनल इस पर चर्चा करने लगते हैं. संबित पात्रा, कांग्रेस का एक नेता, आरएसएस का एक प्रचारक और एक आम आदमी टीवी स्टूडियो में बैठ जाते हैं और डिबेट होने लगती है. मुझे लगता है ऐसा मानना कि डिजिटल मीडिया से सही तस्वीर सामने आएगी सिर्फ एक छलावा है. फिलहाल डिजिटल मीडिया का कोई भविष्य दिखाई नहीं देता क्योंकि एडवरटाइजिंग का मॉडल तैयार नहीं हो पाया है.

मेरा विचार है कि किसी तरह का नियामक होना चाहिए जो यह तय करे कि समाचार चैनलों का मालिक कौन हो सकता है और कौन नहीं. मुकेश अंबानी की जेब में आधा देश है तो आप उन्हें ही समाचार चैनलों का मालिक नहीं बना सकते.

अप्पू अजीत- यहां मीडिया के शक्ति-शक्ति संरचना का सवाल आता है. आपने अपनी किताब में पब्लिक स्कूल के पढ़े ऊंची जाति के एलिट के कब्जे में अधिकांश मीडिया के होने की बात कही है. क्या आपको लगता है कि मीडिया की इस संरचना का असर उसमें उठाए जाने वाले मुद्दे पर पड़ता है?

संदीप भूषण- बिल्कुल. यहां में एनडीटीवी की बात करना चाहूंगा. यह समझना बहुत जरूरी है कि वह कोई लोकतांत्रिक नेटवर्क नहीं है. उसका संचालन एक खास किस्म का गुट करता है. यदि मैं एक प्रमोटर हूं तो मेरी, मेरी बीवी की और मेरे दोस्तों की पहचान इसे चलाने के काम आएगी. अगर आप दून स्कूल या सेंट स्टीफन में पढ़े हैं तो आपकी संस्थानिक लॉयल्टी को एनडीटीवी सम्मान देता है. यह विशेष तरह का होने के साथ अपर कास्ट भी होता है.

अंग्रेजी माध्यम का जो स्पेस यहां है उसमें सभी जगह कमोबेश ऐसा ही है. इसका मतलब यह है कि वहां कुछ चुनिंदा लोग संपादकीय निर्णय लेते हैं तो इसलिए न्यूजरूम गैर-बराबर और एजेंडा ड्रिवन बन जाता है. कुछ विशेष मामलों में एनडीटीवी इसका उदाहरण है. कई बार इसका संपादकीय चुनाव अलग-थलग पड़ जाता है क्योंकि इसमें ऐसे लोग हैं जो हकीकत से दूर हैं. आप ही बताइए क्या मीडिया संस्था को ऐसा होना चाहिए?

भारत में यह एक बड़ा मामला है कि न्यूजरूम में एक ही तरह के लोग यानी उच्च जाति के लोग होते हैं. यहां कोई लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व नहीं होता. एनडीटीवी के लिए मैंने एक रिपोर्ट की है जिसमें सवाल उठाया है कि क्या दलितों को संगठित होना चाहिए? क्या प्राइवेट सेक्टर में दलितों के लिए आरक्षण होना चाहिए? मैंने एनडीटीवी में इस बारे में स्टोरी की लेकिन क्या एनडीटीवी किसी अच्छा न दिखने वाले लड़के से एंकरिंग कराएगा, जो अच्छा अंग्रेजी नहीं बोलता हो. मेरा मतलब है जिसे वे लोग पिछड़ी जाति का मानते हों. क्या वह ऐसे लोगों को चांस देगा. यह सिर्फ समाचार डिलीवरी और संगठन का मामला नहीं है बल्कि यह एक मीडिया की जिम्मेदारी का सवाल है. क्या आप जनता की भलाई चाहते हैं? क्या जनता की भलाई हमेशा एक ही तरह के लोगों को मौका दे कर हो सकती है?

अप्पू अजीत- तो आप मानते हैं कि मीडिया को खुद से सवाल करना चाहिए?

संदीप भूषण- भारत की मीडिया कभी खुद पर सवाल नहीं उठाती. अगर जेट एयरवेज या किंगफिशर एयरलाइंस से लोगों को निकाला जाता है तो मीडिया इसे खबर बनाती है लेकिन आए दिन लोगों को मीडिया से निकाला जाना खबर क्यों नहीं बनता. न्यूज लॉन्ड्री जैसी वेबसाइट के अलावा आप ऐसी खबर और कहीं नहीं पाते.

अप्पू अजीत- मीडिया की हालत निराशाजनक है लेकिन कहीं कोई आशा दिखाई पड़ती है?

संदीप भूषण- मुझे ऐसी कोई चीज दिखाई नहीं देती. यहां तक कि न्यूज वेबसाइट भी सरकार की भाषा बोलने लगे हैं. गंभीर समाचार वेबसाइट का भी राजनीतिक ध्रुवीकरण हो रहा है. आप डिजिटल मीडिया के बारे में मानते हैं कि तुलनात्मक रूप से स्वतंत्र मीडिया है जहां आप कमेंट कर सकते हैं, जहां रिपोर्टिंग भी तुलनात्मक रूप से स्वतंत्र है. लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है. जन पक्षधर न्यूज पोर्टल वित्तीय रूप से कमजोर हैं या चंदे पर आश्रित हैं. इस वक्त ऐसा कोई रेव्नयू मॉडल नहीं है जो टिकाऊ दिखता हो.

प्रिंट में रिपोर्टर के पास कुछ करने की स्वतंत्रता नहीं है. इस वक्त आशावादी होना बहुत कठिन है.

मेरी किताब को ही लीजिए. इस किताब को दबाया जा रहा है. इसकी समीक्षाओं को दबाया जा रहा है. आप मेरी किताब की आलोचना कर सकते हैं लेकिन इस पर एक प्रकार की खामोशी है. लगता है कोई इस पर बात करना ही नहीं चाहता.

टीवी की मौत हो चुकी है. भारत में पत्रकारिता मर रही है. मैं ऐसे बहुत सारे लोगों को जानता हूं जो अच्छी खासी नौकरी कर रहे थे लेकिन अब फ्री-लांसर हो गए हैं. क्योंकि उनको लगता है कि एजेंडा वाली पत्रकारिता सही नहीं है. द हिंदू में एन. राम की राफेल वाली स्टोरी का क्या हुआ? किसी और वक्त में सारा मीडिया इस स्टोरी को फॉलो करता. वायर की जय शाह वाली स्टोरी देख लीजिए और कारवां की जज लोया वाली स्टोरी को ले लीजिए. इन सारी खबरों का फॉलोअप होना चाहिए था. सच तो यह है कि उपलब्ध साक्ष्यों से यह समझ में आता है कि टेलीविजन के लोग इन कहानियों को दबा देना चाहते हैं. पत्रकार का काम मजदूरी करना रह गया है. बजट कम हो रहा है. घाटा हो रहा है इसलिए कंपनियों को रिपोर्टर नहीं चाहिए. यहां मैं राघव बहल की एक लाइन उद्धृत करना चाहता हूं जिसका मैंने इस्तेमाल किया है और जो आज के हालात को दर्शाती है. वह कहते हैं, “हमें रिपोर्टरों की जरूरत ही नहीं है.”