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सितंबर के शुरू में, जब मैंने कश्मीर नैरेटिव पत्रिका के सहायक संपादक आसिफ सुल्तान की गिरफ्तारी के बारे में पढ़ा, तो मेरे दिमाग में पहला विचार यह आया कि पुलिस अब पत्रकारों को खुलकर डरा रही है. इससे पहले पुलिस वाले पत्रकारों को गुपचुप तरीके से बुलाकर पूछताछ करते थे. मेरे साथ भी दो बार ऐसा हुआ है.
पिछले साल 22 अक्टूबर को मेरे साथ यह पहली बार तब हुआ था जब जम्मू-कश्मीर पुलिस के आपराधिक जांच विभाग के काउंटर-इंटेलिजेंस कश्मीर (सीआईके) विभाग के एक अधिकारी ने मेरे पिता और भाई को बार-बार फोन कर यह पूछा था कि मैं कहां हूं. मैं उस समय अपने घर पर था जो राजनीतिक रूप से उथलपुथल वाले उत्तरी कश्मीर के हंदवाड़ा शहर में है. हम लोग 19 वर्षीय मेरी भतीजी के गुजर जाने से शोक में थे. मेरा दिल्ली का नंबर कश्मीर में काम नहीं करता है इसलिए सीआईके ने मेरे परिवार को फोन कर मेरे बारे में जानने की कोशिश की थी.
‘‘जिनब, ऐसे उस मशवार रशा कारुन, तोहे एटोव श्रीनगर ताम’’ (जनाब, हमें कुछ मशविरा करना है, आपको श्रीनगर आना होगा), मेरे भाई के फोन के दूसरे छोर से एक कड़क आवाज ने मुझे हुक्म दिया.
अगली सुबह, मेरे बालों को सहलाते हुए मेरे अब्बू ने मुझे नींद से जगया. मुझे घर से 72 किलोमीटर दूर श्रीनगर की यात्रा करनी थी. अलविदा कहते हुए अब्बू ने कहा, ‘‘जरूर बताना कि वे लोग तुम्हें कौन सी जेल में डालने वाले हैं.’’ मैंने हां में सिर हिलाया और चल दिया.
मैं 23 अक्टूबर को सुबह 10.30 बजे हमहुमा स्थित सीआईके के मुख्यालय पहुंचा. यह श्रीनगर हवाई अड्डे के नजदीक है. जैसा कि कश्मीर की रवायत है, मैंने अपना पहचान पत्र दिखाया और पुलिसवाले से पूछा कि पत्रकारों को क्यों बुलाया जा रहा है. उसने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, ‘‘उन्हे सबक सिखाने के लिए.’’
दो रजिस्टरों में अपनी जानकारी दर्ज कराने के बाद, मैं अंदर जाकर आहते पर ठहर गया. एक खिड़की से किसी ने झांका और चिल्ला कर मेरा नाम पुकारा. कश्मीर में बेवकूफ होना भी एक रवायत है. वहां केवल मैं ही मौजूद था लेकिन मैंने अपना हाथ उठाकर अपनी मौजूदगी की सूचना दी.
खुद को ‘‘चर्चा’’ और ‘‘सबक’’ के लिए तैयार करते हुए मैं कमरे के अंदर दाखिल हो गया. अंदर चार अधिकारी बैठे थे. वरिष्ठतम अधिकारी ने तुरंत मुझसे पूछा ‘‘पैसे कहां से लेते हो?’’
इस सवाल ने मुझे कंफ्यूज कर दिया. ‘‘कैसे पैसे?’’
‘‘पैसा, पैसा ... अच्छा ठीक है, बैठ जाओ.’’ खाली कुर्सी में बैठते हुए मैंने चारों ओर नजर दौड़ाई. ऑफिस नया लग रहा था. कश्मीरी कलाकारों की लकड़ी पर सुंदर नक्काशी का बेहतरीन काम मेरे आस पास बैठे लोगों की करकश आवाज से बिलकुल उल्टा एहसास करा रहा था.
वादा चर्चा का था लेकिन मुझे गैर जरूरी और हद दर्जे के मजाकिया सवालों का समाना करना पड़ा. ‘‘दक्षिणपंथ और वामपंथ में क्या फर्क है?’’ ‘‘आपकी राजनीति क्या है?’’ ‘‘तुम लोग आजादी का गलत फायदा क्यों लेते हो?’’ ‘‘यहां जो कुछ भी हो रहा है उस पर क्यों लिखते हो?’’ फिर अपनी वादाखिलाफी की भरपाई करते हुए मुझे कुछ सबक भी सिखाए गए. ‘‘कश्मीर में सिर्फ द्वंद्व नहीं है. आपको कश्मीर की एक अच्छी तस्वीर पेश करने की कोशिश करनी चाहिए.’’ मुझे और भी कीमती सबक सिखाए गए लेकिन खुद को और उन लोगों को भी शर्मिंदगी से बचाने के लिए मैं उनकी बात नहीं करना चाहता.
मुझे एक फेसबुक पोस्ट की वजह से इस अपमान का सामना करना पड़ा था. उस पोस्ट में मैंने द्वंद्व वाले इलाके में पक्षधरता और वफादारी के महत्व पर लिखा था. मैंने यह भी लिखा था कि अगर कोई कश्मीर की आजादी से हमदर्दी रखता है, तो वह इसके साथ साथ पुलिस या सेना से हमदर्दी रखने की बात नहीं कर सकता. और ऐसा की उनके लिए है जो पुलिस और सेना से हमदर्दी की बात करते हैं और साथ ही यह भी दावा करते हैं कि वह कश्मीरी की आजादी से भी इत्तेफाक रखते हैं.
मेरी एक और पोस्ट जिसमें ‘हाउस निग्रो’ और ‘सहयोगी’ की बात थी उस पर भी उन लोगों ने चर्चा की. सवाल था कि कश्मीर के डिस्कोर्स में ऐसे शब्दों का इस्तेमाल कितना ठीक है? मुझसे हाउस निग्रो शब्द की परिभाषा और शब्द के इतिहास के बारे में बताने को कहा गया और यह भी बताने को कहा गया कि कश्मीर में वो कौन से लोग हैं जिन पर यह शब्द फिट बैठता है. 1950 और 60 के दशक में अमेरिका में हुए नागरिक अधिकार आंदोलन पर चर्चा करने के बाद, मैंने मैल्कम एक्स के महत्व पर प्रकाश डाला, जिन्होंने हाउस निग्रो शब्द का इस्तेमाल उन काले लोगों के बारे में किया था जो अपने लोगों की तुलना में अपने उत्पीड़कों से ज्यादा हमदर्दी रखते थे.
मैं बोलता ही जा रहा था और जब हमारी चर्चा की अगुवाई कर रहा उपअधीक्षक मेरी लफ्फाजी से थक गया तो उसने मुझे चले जाने का हुक्म सुनाया. लगभग आठ घंटे बीत चुके थे. उनमें से एक अफसर मेरे साथ गेट तक आया. उसका अंदाज बाकियों से अलग था. उसने खुद को एक साथी कश्मीरी के रूप में पेश किया, जो जरूरत के वक्त अपने भाई के साथ खड़ा है. उसने समझाया कि द्वंद्व के सिवा मैं किसी भी चीज पर- घोटालों और भाईभतिजावाद पर- लिख सकता हूं.
इस साल जुलाई में, जब मैं दिल्ली में था तो मेरे भाई का फोन आया. वो सीआईके कार्यालय से बोल रहा था. मेरा भाई होने की वजह से उसे वहां बुलाया गया था. भाई बहुत डर हुआ था. उसने मुझे से कहा, ‘‘ये लोग आप की तलाश में हैं.’’
फिर फोन से वही परिचित कड़क आवाज आई, ‘‘भाई, अपको यहां आना पड़ेगा.’’
मैंने कहा, ‘‘लेकिन मुझे कुछ दिन दें.’’
सामने से आवाज आई, ‘‘नहीं! आपका भाई हमारे साथ है. आपको कल हमारे ऑफिस आना होगा.’’
मैंने फोन पर उस अफसर से और समय की मांग करता रहा क्योंकि इतनी जल्दी श्रीनगर की यात्रा करने के लिए मेरे पास पैसे नहीं थे. उस कड़क आवाज ने मेरी एक न सुनी. मुझे अपना पासपोर्ट, लैपटॉप, मोबाइल फोन और पहचान से जुड़े अन्य दस्तावेज लेकर पहुंचने का हुक्म दिया गया. मुझे एहसास था कि इस बार बात अलग है. उन लोगों ने मेरे भाई को फोन किया था जबकि इसकी कोई जरूरत नहीं थी क्योंकि मेरा नंबर उनके पास था. मेरे भाई को यह कह कर उस दिन जाने दिया गया कि दूसरे दिन 9 बजे आना है.
मैंने अपने भतीजे से कुछ पैसे उधार लिए और 12 बजके 45 मिनट पर श्रीनगर हवाई अड्डे पर उतरा और भाग कर सीआईके कार्यालय पहुंचा. वहां मैंने औपचारिकताओं को पूरा किया. जैसे ही मैं कमरे के अंदर गया, वहां मौजूद डिप्टी अधीक्षक ने मेरे भाई से कहा, ‘‘तुम अब जा सकते हो, क्योंकि असली अपराधी आ गया है.’’ मेरे दिमाग में ‘‘अपराधी’’ शब्द तेजी के घूमने लगा.
मुझसे दो बजे पूछताछ शुरू की गई. इस बार पूछताछ, मेरी वेबसाइट गुमनाम कश्मीरी इतिहास (लॉस्ट कश्मीरी हिस्ट्र)- की गई. मेरी वेवसाइट कश्मीर के रक्तरंजित इतिहास के बारे में क्यूरेटेड सामग्री का एक डिजिटल संग्रह है. इसमें सौ से अधिक किताबें हैं और प्राथमिक स्रोत के रूप में ऐतिहासिक घटनाक्रम को समाचार पत्रों और शोध पत्रों का इस्तेमाल कर विभिन्न मल्टीमीडिया उपकरणों के माध्यम से कालक्रम के अनुसार रखा गया है. इसके बने दो साल हुए हैं और अब तक इसे 20 लाख से अधिक लोग देख चुके हैं.
डीएसपी ने मुझसे पूछा, ‘‘यह वेबसाइट कौन चलाता है?’’
मैंने कहा, ‘‘मैं चलाता हूं.’’
उन्होंने पूछा, ‘‘इसके लिए पैसा कहां से आता है?’’
मैंने कहा, ‘‘इस छोटी सी वेबसाइट को चलाने के लिए मुझे बाहर से पैसे लेने की जरूरत नहीं पड़ती.’’
वे लोग मेरे जवाब से संतुष्ट नहीं हुए और मेरे लैपटॉप और पासपोर्ट की जांच करने लगे. उन लोगों ने मेरे निजी चैट को तेज आवाज में पढ़ा. मेरी तस्वीरों की बारीकी से जांच की गई. फिर अचानक, एक अधिकारी चिल्लाने लगा, ‘‘हाये इमिस हा चुइ उमर खालिदेस साथे ते कनेक्शन’’. (इसका उमर खालिद से कनेक्शन है. यही है वो) इन लोगों ने छात्र नेता उमर खालिद के साथ मेरी बातचीत ढूंढ निकाली ��िसके साथ मैंने पत्रकार की हैसियत से बात की थी.
उन लागों ने मुझे वेबसाइट बंद करने के लिए कहा. मैंने ऐसा करने से इनकार कर दिया और कहा कि वो लोग खुद इसे बंद करा दें. मैंने इसका कारण पूछा लेकिन उनके पास कोई जवाब नहीं था.
मेरी वेबसाइट यादों को समर्पित हैं. वो समर्पित है 1990 के गांव कादल और हंदवाड़ा नरसंहार को, 1931 के भूला दिए गए अनंतनाग नरसंहार को, उसमें औलादों और शौहरों को गुमाने वाली औरतों की बाते हैं और साहसी औरतों के किस्से हैं. मुझे घंटो तक अपमानित किया गया और इन घटनाओं की प्रमाणिकता के बारे में पूछा गया. मुझे कश्मीर के बारे में कुछ ‘‘अच्छी किताबें’’ पढ़ने के लिए कहा गया था. लेकिन जब मैंने उनसे उन किताबों का नाम पूछा तो वो धीमे से मुस्कुराने लगे. मेरी भाषा के प्रयोग पर सवाल उठाते हुए उन लोगों ने घोषणा की कि लेखों में देशद्रोह की गहरी छाप है और पूछा कि मैं किस आतंकी संगठन के लिए काम करता हूं. जब उनकी नहीं चली तो मुझे ‘गुप्त राष्ट्र द्रोही’ कहने लगे.
उन लोगों ने मेरे चेहरे में गुस्से वाला भाव पढ़ लिया होगा शायद इसलिए उनमें से एक ने मुझसे कहा, ’’हमें इस बात की कोई परवाह नहीं कि तुम क्या लिखते हो और तुम दुनिया को क्या बताना चाहते हो.’’
मेरा जवाब था, ‘‘अगर पत्रकार के शब्दों का कोई असर राज्य पर नहीं पड़ता है तो मुझसे इस तरह से सवाल क्यों पूछा जा रहा है?’’
लगभग शाम साढे छह बजे, मुझे अपने माता-पिता को सूचित करने के लिए कहा गया कि मुझे हिरासत में लिया गया है. मैंने अपना सामान पैक किया और उस कमरे की ओर रुख किया जहां मुझे रात बितानी थी. मैंने खुद को इस बात के लिए मानसिक रूप से तैयार कर लिया था कि मुझ पर सार्वजनिक सुरक्षा कानून के अंतर्गत आरोप लगाए जाएंगे क्योंकि अधिकारियों ने बिना यह बताए कि मुझ पर क्या आरोप है किसी फाइल की बात की थी.
रात के अंधेरे में एक अजीब तरह का सम्मोहन था. मैंने उसे सलाम कहा. सुबह का सूरज जब हक के साथ कमरे में दाखिल हुआ तो मुझे उसकी यह हरकत पसंद नहीं आई. ठीक उस सुबह के सूरज की तरह, वो कड़क आवाज भी बिन बुलाए कमरे में जब दिल चाहा घुस आती और मुझ पर दवाब डालती कि मैं जो कर रहा हूं उसे न करूं. वो आवाज मुझे यह नहीं बताती कि मैं ऐसा क्या कर रहा हूं जो राज्य को इस हद तक अस्वीकार्य है. जैसा कि मैंने ऊपर कहा ही है कि कश्मीर में बेवकूफी की एक लंबी रिवायत है.
पूछताछ के दूसरे चरण में पता चला कि यह रिवायत कितनी अच्छी तरह स्थापित हो चुकी है. मुझसे मेरे कपड़ों के ब्रांड, धूम्रपान की मेरी आदत और बचपन में मेरा व्यवहार कैसा था पूछा गया. मुझसे पूछा गया कि जब मुझे चारों तरफ सिर्फ मायाजाल ही दिखाई देता है तो मैं यह कैसे मानता हूं कि इतिहास की किताबें सही हैं. उन लोगों ने मुझसे कहा कि मेरे लिखने से जमीन में कुछ नहीं बदलने वाला.
सत्र के अंत में मुझसे पूछा गया, ‘‘राजनीतिक उथलपुथल कैसे खत्म हो सकती है और कश्मीर के हालात में कैसे सुधार लाया जा सकता है?’’ मैंने देखा कि उन कड़क आवाजों में से एक आवाज तेजी से नोट ले रही है. मैंने अपनी कुर्सी पर सीधा होकर बैठ गया. ‘‘कश्मीर और कश्मीरी आजादी चाहते हैं’’, मैंने कहा. ‘‘क्या आपको यह नहीं पता?’’ फिर मैंने कहा, ‘‘जब तक कश्मीर से जुड़ा राजनीतिक विवाद का हल नहीं हो जाता तब तक हालात नहीं सुधर सकते क्योंकि यहां के लोग समाधान की मांग करते रहेंगे.’’
मुझे पांच दिनों की पूछताछ बाद रिहा कर दिया गया. इस बार जो अफसर मुझे बाहर छोड़ने आया उसने मुझे अपना करियर बनाने, पैसा कमाने और गैर जरूरी चीजें न करने की सलाह दी. जैसे ही मैं जाने को हुआ उसने मुझसे कहा, ‘‘तुम पर नजर है.’’
मैंने जिन बातों का जिक्र ऊपर किया है उनमें बस नाम, तारीख और कुछ खास घटनाओं को बदलने की जरूरत है और यह कहानी आज कश्मीर के बहुत से पत्रकारों की कहानी बन जाएगी. महज अपना काम करने और सोशल मीडिया पर पोस्ट लिखने जैसे कामों के लिए यहां के पत्रकारों को बार बार सेंसरशिप लगाकर, पूछताछ कर और कुछ मामलों में हिरास्त में लेकर परेशान किया जा रहा है. लगता है कि भारतीय राज्य स्थानीय आवाजों को दबाना और रोकना चाहता है. इस तरह का संस्थागत दमन केवल यही दर्शाता है कि वह नहीं चाहता कि कश्मीर के लोगों को अपनी सामाजिक-राजनीतिक स्थिति का पता चले. सिर्फ उन दृष्टिकोणों के लिए जगह है जो राज्य की विचारधारा का गुणगान करती हैं.
हाल में आसिफ सुल्तान की अवैध हिरासत ऐसी ही एक घटना है. 27 और 28 अगस्त की मध्यरात्रि को, श्रीनगर के पड़ोस में बटमालू में सुल्तान के घर पर पुलिस ने छापा मारा. पुलिस ने किताबों के साथ उसके सामान की तोड़फोड़ की. बाद में उसका लैपटॉप और मोबाइल फोन जब्त कर लिया. उसके पिता के अनुसार, पुलिस के पास तलाशी का वारंट नहीं था.
सुल्तान को बटमालू पुलिस स्टेशन ले जाया गया. कश्मीर नैरेटिव के मुख्य संपादक शौकत अली मोट्टा ने बाद में लिखा कि सुल्तान से पूछा गया कि वह इस क्षेत्र में विकास के बजाय द्वंद्व पर क्यों लिख रहा है. मोट्टा ने मुझे बताया कि सुल्तान ने राजनीति और अर्थशास्त्र पर लिखा था लेकिन साथ ही उसने अपने संपदकीय कामों के हिस्से के तहत कार्यकर्ताओं, राजनेताओं और पत्रकारों से मुलाकात भी की थी. उन्होंने कहा कि उनका मानना है कि सुल्तान को जुलाई 2018 के अंक में प्रकाशित मारे गए हिजबुल मुजाहिदीन कमांडर बुरहान वानी पर उनकी कवर स्टोरी के सूत्रों को बताने के लिए परेशान किया जा रहा था. ‘‘पुलिस उस पर इनफॉर्मर बनने का दवाब भी डाल रही है.’’
‘‘द राइज ऑफ बुरहान’’ नामक आलेख में दो सूत्रों का हवाला दिया गया था, जिनके बारे में कहा गया था कि वो बुरहान के खुले कार्यकर्ता थे और उसकी मौत के बाद उन लोगों ने आतंकी संगठन के साथ संपर्क तोड़ लिया था. सोशल मीडिया में अपनी पोस्टों में कुछ कश्मीरी पत्रकारों ने इन खुले कार्यकर्ता वाले स्रोतों पर शक जाहिर किया था और अन्य पत्रकार वानी की विचारधारा के बारे में सुल्तान की बातों से सहमत नहीं थे. इसके बावजूद भी सभी लोग इस बात पर सहमत थे कि इस तरह की स्टोरी के लिए एक पत्रकार को गिरफ्तार करना हास्यास्पद है.
सुल्तान के खिलाफ पहली एफआईआर में कहा गया है कि उसे गैरकानूनी गतिविधियों (रोकथाम) कानून के तहत बुक किया गया है. पुलिस ने उस पर ‘‘ज्ञात आतंकवादियों की मदद‘‘ करने का आरोप लगाया और बटमालू में आतंकियों द्वारा हाल में मारे एक एक पुलिसकर्मी की हत्या के मामले में संदिग्ध के रूप दिखाया. बाद में पुलिस ने दावा किया कि उसके पास ‘‘साबित करने वाली सामग्री’’ है, लेकिन पुलिस अपने दावों को साबित करने के लिए कोई सबूत पेश नहीं कर पाई. श्रीनगर साउथ के पुलिस अधीक्षक जी.वी. संदीप चक्रवर्ती ने कहा है कि सुल्तान ‘‘सुरक्षाबलों के खिलाफ लिख रहा था और आतंकवाद का समर्थन कर रहा था.’’ इस बात के लिए पुलिस अलग से आरोप दायर करने पर विचार कर रही थी.
पुलिस के मुताबिक, बटमालू में हुई हत्या में कथित भागीदारी के कारण सुल्तान हिरासत में था. हालांकि, मोट्टा ने मुझे बताया कि सुल्तान को लगातार उसके लेखन और राजनीतिक विचारधारा के बारे में पूछताछ की जा रही थी. मोट्टा पहली बार 28 अगस्त को पुलिस स्टेशन गए. ‘‘मुझे बताया गया था कि वे लोग उसे रात भर वहां रखेंगे. मैं अगले दिन फिर पुलिस स्टेशन गया और मैंने एसएचओ- स्टेशन हाउस ऑफिसर- से सुल्तान को छोड़ने के लिए कहा लेकिन उसने बताया कि अब यह उसके बस में नहीं है.’’
सुल्तान की गिरफ्तारी की व्यापक निंदा हुई. 1 सितंबर को जारी एक संयुक्त वक्तव्य में कश्मीर वर्किंग जर्नलिस्ट एसोसिएशन और कश्मीर पत्रकार संघ ने इसे अवैध हिरासत बताया और सुल्तान की तत्काल रिहाई की मांग की. कमिटि फॉर प्रोटेक्शन ऑफ जर्नलिस्ट (सीपीजे), इंटरनेशनल फेडरेशन फौर जर्नलिस्ट और रिपोर्टर विदाउट बॉर्डर ने पुलिस से सुल्तान को रिहा करने की मांग की. समिति के बयान में सीपीजे के एशिया कार्यक्रम के कनवीनर स्टीवन बटलर ने कहा, ‘‘आतंकवादी गतिविधियों पर रिपोर्ट करके, सुल्तान कोई अपराध नहीं बल्कि एक महत्वपूर्ण जन सेवा कर रहे हैं.’’ एमनेस्टी इंटरनेशनल ने एक आधिकारिक बयान में कहा कि ‘‘राज्य द्वारा जम्मू-कश्मीर में पत्रकारों को धमकी, उत्पीड़न और हिरासत में रखने जैसे कामों ने अभिव्यक्ति की आजादी के मूल मानदंडों पर खतरा खड़ा कर दिया है.’’ हालांकि कश्मीर के बाहर सोशल मीडिया में बाहर से कश्मीर में आने वाले प्रवासी श्रमिकों के खिलाफ सुल्तान की टिप्पणी के लिए आलोचना भी हुई. सुल्तान ने एक गैर-स्थानीय रेहड़ी लगाने वाले की तस्वीर अपलोड करते हुए लिखा था, ‘‘इन चेहरों को याद रखो.... इन्हें बाहर निकालो.’’ ये रेहड़ी लगाने वाला कश्मीर के कुपवाड़ा जिले में 3 साल की एक लड़की का अपहरण करने की कोशिश करते हुए पकड़ा गया था.
कश्मीर एडिटर्स गिल्ड के सचिव बशीर मंजर ने मुझे बताया, ‘‘ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था. इससे पहले इस या उस तरफ से कोई आकर मार देता था लेकिन अब यह व्यवस्थित ढंग से किया जा रहा है. पिछले साल कामरान के साथ ये हुआ था और इस साल यह असिफ के साथ हुआ है.’’ कामरान यूसुफ एक फोटोजर्नलिस्ट हैं जिन पर राज्य के खिलाफ जंग करने का आरोप लगा था और छह महीने तक जेल में बंद रहना पड़ा था. मंजर कहते हैं, ‘‘हमारे पास यह रिपोर्ट है कि कुछ प्रमुख संपादकों से उनकी कहानियों के लिए औपचारिक और अनौपचारिक रूप से पूछताछ की गई है.’’ एक दूसरे युवा पत्रकार ने बताया, ‘‘पहले, भारत को लगता था कि यहां के नागरिक प्रदर्शनकारियों को आतंकियों के खुले समर्थक हैं. उनका नया टार्गेट मीडिया है और अब पत्रकारों को आतंकियों का समर्थक बताया जा रहा है.’’
13 दिनों के हिरासत के बाद सुल्तान को 8 सितंबर को श्रीनगर अदालत के सामने पेश किया गया. वह तब से न्यायिक रिमांड में है. अपनी पहली पेशी में सुल्तान ने एक टी-शर्ट पहन कर पोज दिया था जिस पर लिखा था ‘‘पत्रकारिता कोई जुर्म नहीं है.’’ उसके पिता ने मुझे बताया कि इस बगावत के लिए सुल्तान को हिरासत में पीटा गया और पुलिस वालों ने उसकी टी-शर्ट को जब्त कर लिया गया.
इस साल जुलाई में, दैनिक अखबार कश्मीर ऑब्जर्वर के पत्रकार अकीब जावेद को श्रीनगर के कोठी बाग पुलिस स्टेशन से एक कॉल आई. वहां पहुंचने पर, एसएचओ ने जावेद को एक आदमी ने मिलवाया जिसके बारे में बताया गया कि वह राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) से हैं. जावेद को सदमा देते हुए उस आदमी ने जावेद को दिल्ली चलने को कहा.
जावेद ने अपने संपादक सज्जद हैदर को सूचित किया, जिसके बाद कश्मीर एडिटर्स गिल्ड की आपातकालीन बैठक की गई. तय हुआ कि जावेद को समन का जवाब देना चाहिए. जवेद को 15 जुलाई को दिल्ली पहुंचना था, लेकिन अपनी कशमकश के चलते जावेद एक दिन पहले दिल्ली आ गया. हैरान करने वाली बात थी कि दिल्ली हवाई अड्डे पर उतरते ही उसे एनआईए का कॉल आ गया और उसे उसी दिन हेड ऑफिस आने को कहा गया. जावेद अपने वकील और एक सहयोगी के साथ तुरंत वहां पहुंचे.
एनआईए मुख्यालय में पुलिस के वरिष्ठ अधीक्षक ने जावेद को बताया कि उन्हें वहां इसलिए बुलाया गया है क्योंकि उन्होंने दुख्तरान-ए-मिल्लत (देश की बेटियां) की संस्थापक असिया अंद्राबी का इंटरव्यू किया था. महिलाओं का यह संगठन जम्मू कश्मीर का विलय पाकिस्तान में करने की वकालत करता है. एसएसपी ने आगे बताया कि अंद्राबी ने भारत के खिलाफ बातें की हैं और उस वक्त जावेद वहां मौजूद थे इसलिए उनके खिलाफ मामले दायर किए जाएंगे.
जावेद ने तर्क दिया कि वो एक पत्रकार के रूप में अपना काम कर रहे थे और उन्होंने कोई जुर्म नहीं किया है, लेकिन उसकी बात का कोई असर नहीं हुआ. उन्होंने मुझे बताया, ‘‘मैंने जितना मुझसे हो सकता था उनके साथ सहयोग किया. यहां तक कि उनके साथ इस बात तक को साझा किया कि मुझे असिया अंद्राबी का फोन नंबर कैसे मिला और उन स्रोतों का उल्लेख भी किया जिनका हवाला मैंने अपनी रिपोर्ट में दिया है. उन लोगों ने मुझसे पूछा कि ‘‘पत्रकार के रूप में मुझे कितना पैसा मिलता है.’’ 1 अगस्त को घाटी में सबसे बड़े अंग्रेजी दैनिक समाचार पत्र ग्रेटर कश्मीर के प्रबंधन ने कश्मीर इंक पत्रिका के कार्यकारी संपादक माजिद मकबूल को बिना कोई कारण बताए इस्तीफा देने को कहा. यह पत्रिका ग्रेटर कश्मीर के प्रकाशक छापते हैं.
वरिष्ठ पत्रकार हिलाल मीर ने मुझे बताया, ‘‘ मेरे जानने वाले ऐसे कई लोग हैं जिन्हें राज्य की एजेंसियों ने बुलाया है, लेकिन वो अपना नाम उजागर करना नहीं चाहते हैं.’’ ‘‘हालांकि, जिस तरह से वे अब लोगों को अपना पासपोर्ट लेकर आने को कहा जा रहा है वह एकदम नई बात है. ऐसा कभी नहीं हुआ कि पत्रकार को बुलाया जा रहा है और हिरासत में लिया जा रहा है और यहां कोई भी इसके बारे में बात नहीं करना चाहता. यह दिखाता है कि कैसे अधिकारियों ने मीडिया को नियंत्रित और डरा रखा है.’’
एक अन्य वरिष्ठ पत्रकार यूसुफ जमील मीर की बात से सहमति जताते हैं. ‘‘यह नई बात है कि पत्रकारों को अब अपने सूत्रों को बताने के लिए दवाब दिया जा रहा है. यह प्रत्यक्ष उत्पीड़न है. यह महज कुछ उदाहरण नहीं है, बल्कि रोज का काम हो गया है.’’ जमील ने इसे अप्रत्यक्ष सेंसरशिप कहा. वो कहते है कि कश्मीर में प्रेस स्वतंत्र है, लेकिन कर्फ्यू के दौरान हम पत्रकारों को कर्फ्यू पास देने से इनकार कर दिया जाता है और जब दिया भी जाता है तो तैनात सुरक्षा बल इसे स्वीकार करने से इनकार कर देते हैं. ध्यान देने योग्य एक और बात यह है कि बार बार इंटरनेट सेवाओं पर रोक लगा दी जाती है जिससे पत्रकारों के लिए ढंग से काम करना लगभग नामुमकिन है.’’
14 अक्टूबर को कश्मीर जर्नलिस्ट एसोसिएशन ने एक वक्तव्य जारी करते हुए पत्रकारों के आंदोलन पर पुलिस की रोक की निंदा की. बयान में विशेष रूप से दो घटनाओं का जिक्र किया गया था- पंचायत चुनावों के दौरान मतदान केंद्रों में पत्रकारों के प्रवेश और मारे गए आतंकवादी मनन वानी के अंतिम संस्कार पर रिपोर्ट करने से जम्मू-कश्मीर पुलिस ने पत्रकारों रोका. कश्मीर जर्नलिस्ट एसोसिएशन ने यह भी नोट किया कि उसने ‘‘राज्यपाल सत्य पाल मलिक और शीर्ष पुलिस और नागरिक प्रशासन को प्रेस की परेशानी रोकने के लिए अपील की थी.’’
14 जून 2018 को राइजिंग कश्मीर के संपादक शुजात बुखारी की हत्या के बाद पत्रकारों को समन भेजने की घटना बढ़ी हैं. उनकी हत्या की जांच के बहाने बहुत से पत्रकारों से पूछताछ की गई और पुलिस ने उन्हें धमकी दी. जिनको गिरफ्तार किया जा रहा है वे छोटे और कम परिचित पत्रकार हैं. एक राष्ट्रीय समाचार पत्र के पत्रकार ने मुझे नाम न छापने की शर्त पर बताया, ‘‘उनमें से अधिकतर स्थानीय पत्रकार स्थानीय प्रकाशनों के लिए काम कर रहे हैं और दिल्ली में नहीं रहते.’’ ‘‘ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि यहां छपने वाले समाचार अधिक परेशान करते हैं. सुरक्षा एजेंसियां उन्हें गैर-व्यावसायिक रूप में दिखाती है और उनकी विश्वसनीयता पर हमला करती हैं. चूंकि इनके पास बहुत अधिक राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय समर्थन नहीं है इसलिए उनको लगता है कि कोई भी इन पत्रकारों का बचाव नहीं करेगा.’’
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