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दिल्ली में इस साल बारिश ने पिछले कई सालों के रिकॉर्ड तोड़े. शहर में पिछले 15 सालों में सबसे ज़्यादा बारिश हुई. भारत मौसम विज्ञान विभाग के तथ्यांकों के अनुसार दिल्ली में इस साल सामान्य से 60 प्रतिशत अघिक बारिश हुई, जिसकी वजह से यहां कई गांव डूब गए, फसलें ख़राब हुईं और हज़ारों शहर वासियों को शिविरों में आश्रय लेना पड़ा. बाढ़ प्रभावित लोगों की सहायता के लिए दिल्ली के छह ज़िलों में बाढ़ राहत कैंप लगाए गए थे, जिनमें 8,000 से ज़्यादा लोगों ने शरण ली.
दिल्ली के न्यू अशोक नगर इलाके के पास स्थित चिल्ला गांव में डीएनडी फ्लाइओवर के नीचे यमुना का जलस्तर बढ़ने से आई बाढ़ से पीड़ित लोगों को शरण देने के लिए कैंप लगाया गया था. 12 सितंबर को जब मैं इस कैंप के लोगों का हाल जानने पहुंची, तो पता चला कि यहां के लोग कई समस्याओं का सामना कर रहे हैं. लेकिन सबसे अधिक परेशानी महिलाओं को हो रही थी.
35 साल की मीरा देवी, जो इस कैंप में अपने तीन बच्चों और पति के साथ रह रही थीं, ने मुझे बताया कि इलाके में लगभग हर साल बाढ़ आती है और उनका परिवार हर बार कैंप में शरण लेता है. जब मैंने उनसे पूछा कि यह जानते हुए कि यहां हर साल बाढ़ आती है तो वे अपना पक्का मकान क्यों नहीं बनाते, तब मीरा देवी ने बताया कि आम दिनों में भी वे त्रिपाल के बने तंबुओं में ही रहते हैं. अगर वे घर बनाते हैं तो सरकार उन्हें तोड़ देती है, क्योंकि यह उनकी अपनी ज़मीन नहीं है. उनकी अपनी कोई ज़मीन नहीं है. मीरा आगे बताती हैं कि वह 23 अगस्त को इस कैंप में रहने आई थीं. यमुना के पास जिस जगह पर उनकी झुग्गी थी, वहां से अब यमुना का पानी गुज़र रहा है, लेकिन प्रशासन की तरफ से उन लोगों पर जल्द-से-जल्द अपने घरों में वापस लौटने का दबाव बनाया जा रहा है.
हालांकि, कैंप में रह रही 11 वर्षीय मुनसी ने बताया कि कैंप में पानी और दवाइयों की व्यवस्था है, लेकिन 30 साल की आशा देवी का कहना था कि एक कमरानुमा टैंट में तीन से चार परिवार रहते हैं, यानी 15-20 लोग. जगह कम होने की वजह से कैंप के लोग सड़क किनारे खटिया लगाकर सोते हैं. मैंने पाया कि ये कमरानुमा कैंप दो तरफ़ से सड़क से घिरे हैं. ऐसी व्यस्त सड़क के किनारे सोना ख़तरनाक हो सकता है. कैंप में पीछे का हिस्सा तो ढंका हुआ है, लेकिन आगे के हिस्से को ढंकने की कोई व्यवस्था नहीं है. कैंप में रहने वाले अधिकतर लोग साड़ियों और चादरों से उस हिस्से को ढंके हुए थे.
मीरा देवी ने बताया कि सरकार की तरफ़ से दोपहर 1 बजे खाना आता है, जबकि स्कूल जाने वाले बच्चे सुबह 7-8 बजे जाते हैं. उस खाने की भी हालत ऐसी होती है कि लोग उसे लेना पसंद नहीं करते. कैंप में ही रहने वाले 42 वर्षीय पप्पू ने बताया कि खाना सबको नहीं मिल पाता और जिनकों मिलता भी है तो पर्याप्त मात्रा में नहीं होता. खाना ऐसा आता है कि 100 में से एकाध लोग ही वह खाना लेते हैं.
इस कैंप में रह रहे लोगों के लिए नहाने की भी समस्या है. कैंप के पास चलायमान शौचालय लगे हैं जिनमें से गंदा पानी लगातार बाहर गिरता रहता है. शौचालय की सफ़ाई नहीं होती, उससे बदबू आती रहती है. पीने और अन्य कामों के लिए पानी सुबह-शाम टैंकरों से आता है, लेकिन नहाने की व्यवस्था नहीं है. कैंप में ही रह रहीं 12 वर्षीय अंजली ने बताया कि लोग नहाने के लिए पानी पास के हैंडपंप से लाते हैं. जब मैं वहां गई तो पाया कि हैंडपंप चारों ओर से बाढ़ के गंदे पानी से घिरा था. अंजली ने बताया कि यह हैंडपंप बाढ़ में डूब गया था और उस दौरान कैंप के लोग बाढ़ के पानी से ही नहा रहे थे.
अंजली ने बताया कि कैंप के लोग कई बार इस बात की शिकायत कर चुके हैं कि कैंप में नहाने की व्यवस्था नहीं है, फिर भी इसका कुछ इंतज़ाम नहीं किया गया. हार कर लोग सड़क के किनारे साड़ियों और कपड़ों का घेरा बनाकर नहाते हैं.
पप्पू बताते हैं कि इस तरह सड़क के बीच खुलेआम रहना उन लोगों की मजबूरी है, इसलिए अधिकतर लोग पानी पूरी तरह सूखने से पहले ही कैंप छोड़ कर जाने लगे हैं. ‘मैं यहीं पैदा हुआ और यहीं रह रहा हूं. मैं खेती करने और सब्ज़ी बेचने का काम करता हूं. 2010 में भारत में जब कॉमनवेल्थ गेम्स हुए थे तब यहां के सभी लोगों को कैंप में दूर यह कह कर भेज दिया गया था कि इस रास्ते से बड़े-बड़े लोग गुजरेंगे, तो उन्हें देख कर अच्छा नहीं लगेगा.’ वह बताते है कि ‘बाढ़ तो हर साल ही आती है. केजरीवाल सरकार के समय बाढ़ से पीड़ित 40-50 फीसदी लोगों को 10,000 रुपए का मुआवजा मिला था. बाकी किसी को नहीं. कई बार पैसा आया, लेकिन बीच में ही गायब हो गया, इसलिए उन्हें इस साल मुआवज़े की भी कोई उम्मीद नहीं है.’ वह आगे बताते हैं कि जहां वे रहते हैं वह एक अस्थायी झुग्गी है, जो बाढ़ से पूरी तरह ख़त्म हो गई है. ‘बांस, पन्नियां, वगैरह लाकर घर बनाने में 8,000-10,000 रुपए का ख़र्च आएगा. इस तरह का घर बनाने में एक हफ़्ते का वक़्त लगता है. दिहाड़ी मज़दूरी का काम भी छोड़ कर इसको करना होता है.’
लोग बताते हैं कि यह डीडीए की ज़मीन डूब क्षेत्र में आती है. डीडीए का दावा है कि यह इलाक़ा उसने ख़रीद रखा है और सबको मुआवज़ा भी दिया जा चुका है, लेकिन पप्पू का कहना है कि उनके गांव में कई लोगों को मुआवज़ा नहीं मिला है. इसी विवाद के कारण इस इलाके में कोई निर्माण नहीं हो पा रहा है.
इस कैंप में रहने वाले अधिकतर लोग किसान और मज़दूर हैं. कुछ घरेलू कामगार हैं. कुछ ऐसे हैं जो यहीं पर जन्मे और बड़े हुए और कुछ लोग बिहार से यहां आए हैं. अधिकतर लोग डोम, चमार, दोसाद, मौर्या, तेली और अन्य जातियों से हैं.
16 सितंबर को जब मैं दोबारा कैंप के लोगों से मिलने गई, तो मैंने पाया कि अधिकतर कैंप हटाए जा चुके थे. जहां पहले कैंप लगे हुए थे, उस जगह से लोग अभी गए नहीं थे. कई परिवार थे जो अभी भी उसी जगह रह रहे थे. जब मैंने लोगों से बात की, तो पता चला कि उन्हें कहा गया था कि 20 सितंबर तक कैंप लगे रहेंगे, उसके बाद ही उन्हें हटाया जाएगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. हटाए गए कैंप वाली जगह पर रह रहीं 45 साल की कोसिला देवी ने बताया कि गांव के अंदर उनकी झुग्गी थी, जो बार-बार तोड़ दी जा रही थी. फ़िलहाल उनकी झुग्गी में पानी और दलदल है. इसलिए अभी वह अपने घर नहीं जा सकतीं. वह खुले में सोने को मजबूर हैं.
उस दिन जितने भी लोगों से मैंने बात की, सबने लगभग यही बात कही कि उनके घर अभी भी सूखे नहीं हैं. घरों में अभी भी कीचड़ और पानी है. उन्होंने कैंप प्रशासन से कैंप न हटाने की मांग की पर कोई सुनवाई नहीं हुई. ऐसा लगता है कि कैंप लोगों की सहायता करने के लिए नहीं, बल्कि महज़ औपचारिकता के लिए लगाए गए थे और अब जब तमाम मीडिया द्वारा इन्हें कवर किया जा चुका है, इन बाढ़ पीड़ित लोगों को भाग्य भरोसे छोड़ दिया गया है.
इस बारे में जब मैंने कैंप हटा रहे मज़दूरों से बात की, तो उन्होंने इस बात की पुष्टि की कि पहले 20 सितंबर तक कैंप लगाने की ही बात की गई थी, लेकिन अब पांच दिन पहले ही हटाने का ऑर्डर दे दिया गया है. इस बारे में मैंने जब कैंप के वेंडर विपिन मिश्रा से बात की तो उन्होंने बताया कि उन्हें 15 सितंबर तक ही कैंप लगाए रखने का आदेश था. अब बाढ़ ख़त्म हो गई है और लोग ख़ुद लौटने लगे हैं, इसलिए कैंप हटाने को कहा गया है. जबकि मीरा देवी, कोसिला देवी और पप्पू समेत तमाम लोगों का कहना था कि उन्हें जबरन वहां से हटाया जा रहा है. आरती देवी ने बताया कि कैंप हटाने वालों ने उनको धमकी दी थी कि अगर वे यहां से नहीं हटेंगे, तो उनका समान उठा कर ले जाएंगे. विपिन मिश्रा का कहना है कि इस वक़्त जो लोग डीएनडी फ्लाईओवर के नीचे कैंप के अवशेषों में रह रहे हैं वे बाढ़ पीड़ित लोग नहीं हैं, बल्कि सड़क किनारे रहने वाले लोग हैं. जबकि जितने भी लोगों से मैं मिली उनका कहना था कि झुग्गी में उनके भी घर हैं और पानी की वजह से वे फ्लाईओवर के नीचे रहने को मजबूर हैं. ये लोग मौसम और व्यवस्था की दोहरी मार झेल रहे हैं.
इस बारे में जब मैंने इलाके के एसडीएम संजय कुमार अंबस्ता से बात की, तो उन्होंने कहा कि लोगों के जाने से 50 के क़रीब टेंट खाली हो गए थे इसलिए फ्लाईओवर के नीचे बने टेंट को हटा दिया गया और लोगों को 500 मीटर आगे जाकर कुछ दूरी पर लगे टेंट में रहने को बोला गया. जबकि फ्लाईओवर के नीचे रहने वाले लोगों का कहना ठीक इसका उलट था. 20 वर्षीय पायल ने बताया कि टेंट हट जाने के बाद से वह खाना और पीने का पानी भी बंद कर दिया गया है ताकि जितनी जल्दी हो सके लोग वहां से निकल जाएं.
इस बारे में बात करने के लिए जब मैंने पटपड़गंज के विधायक रविंदर सिंह नेगी को फ़ोन मिलाया तो कई बार कॉल करने के बावजूद उन्होंने फ़ोन नहीं उठाया. जब मैंने उनका सोशल मीडिया पेज़ देखा, तो उन पर डाले गए वीडियो में वह पूजा करते, प्रधानमंत्री मोदी को उनके जन्मदिन की बधाई देते और कई कार्यक्रमों में शामिल होते दिखे. एक अन्य वीडियो में उन्हें अपने क्षेत्र के बाढ़ राहत शिविर में जाकर वहां का खाना चखते और उसी तारीफ़ करते देखा जा सकता है.
11 सितंबर को डाले गए एक वीडियो में नेगी एक कैंप के आगे खड़े होकर साइकिल से उसमें मच्छरनाशक धुएं की फॉगिंग करते देखे जा सकते हैं. आश्चर्य की बात है कि इस कैंप में आगे की तरफ़ दरवाजे के स्थान पर परदे भी लगे हुए थे, यह कैंप बहुत साफ़-सुथरा और व्यवस्थित भी नज़र आ रहा था. जबकि 12 सितंबर को ही मैंने जितने भी कैंप देखे, सभी एक तरफ़ से बिल्कुल खुले, गंदगी वाले और गंदे पानी से भरे हुए मिले.
कैंप का आगे से ढंका हुआ न होना और कैंप के आस-पास नहाने की व्यवस्था न होना वहां शरण लेने वाली महिलाओं के लिए डर और परेशानी का सबब बना हुआ है. 18 वर्षीय पायल ने मुझे बताया शौचालय अधिकतर गंदे होने की वजह से महिलाएं कैंप से दूर सुनसान दलदल इलाके में जाती हैं. वे दिन भर में कम-से-कम 10 बाल्टी पानी सड़क के पार, दूर लगे हैंडपंप से लाती हैं जो ख़ुद आधा गंदे पानी में डूबा हुआ है. ये महिलाएं खाट और साड़ियों की आड़ बना कर सड़क के किनारे ही कपड़े पहन कर नहाने को मजबूर हैं. सड़क से आते जाते लोग उनकी तरफ ताका-झांकी करते रहते हैं.
माहवारी के दौरान महिलाओं को और भी समस्या का सामना करना पड़ता है. यहां तक कि साबुन की सुविधा भी उपलब्ध नहीं है. 23 वर्षीय रूबी ने बताया कि माहवारी के दौरान वह सुनसान इलाके में जाती थीं और उसके बाद भी एकांत के लिए उन्हें 12-14 घंटे इंतज़ार करना पड़ता था. दलदल में कीड़े-मकौड़े और सांप का भी ख़तरा होता है. स्तनपान कराने वाली महिलाओं के लिए यह सब और भी कठीन है क्योंकि उन्हें दो तरफ़ से व्यस्त सड़क से घिरी इस जगह पर किसी तरह छिप कर स्तनपान कराना पड़ रहा है. इन महिलाओं का कहना है कि राहत सामग्री बांटने के बहाने भी लोग असमय आकर महिलाओं की तरफ़ ताका-झांकी करते हैं. इसकी वजह से कैंप की महिलाओं में डर का माहौल है. आरती देवी ने बताया कि कैंप में औरतें रात को सोती नहीं हैं. कैंप के पुरुष भी बारी-बारी से रात को जाग कर पहरा देते हैं क्योंकि कैंप में चोरी की वारदातें भी हुई हैं.
मैंने कैंप के बाहर दो-तीन चौकीदारों को गश्त लगाते हुए देखा था. जब मैंने पायल से पूछा कि क्या गार्ड उनकी रखवाली नहीं करते, तो उन्होंने बताया कि गार्ड्स को उनकी सुरक्षा के लिए नहीं, बल्कि यह देखने के लिए लगाया गया है कि कैंप छोड़ कर जाने वाला कोई व्यक्ति अपने साथ कैंप का कोई सामान और बांस-बल्ली लेकर न चला जाए. रात होने पर भी यहां पुलिस द्वारा कोई सुरक्षा प्रदान नहीं की जाती है. जब मैंने वहां मौजूद राहुल नाम के एक गार्ड से इस बारे में पूछताछ की, तो उन्होंने भी इस बात की पुष्टि की. इस कैंप में होने वाली चोरी, छेड़खानी एवं अन्य अपराधों के प्रति उनकी कोई जवाबदेही नहीं है.
एक अन्य महिला सुशीला कुमारी ने बताया कि जैसे-जैसे कैंप हटाए जा रहे है, वहां लगी लाइटें भी हटाई जा रही हैं, जिससे रात को अंधेरा भी बढ़ गया है और महिलाओं में अनहोनी का डर भी. सुशीला ने यह भी कहा कि सरकार की तरफ़ से जो भी व्यवस्था यहां थी वह पिछले तीन दिनों से बंद है और पिछले एक महीने, जब से वे यहां हैं, कोई नेता भी उनकी सुध लेने नहीं आया.
डीनडी फ्लाईओवर के नीचे बने कैंपों से थोड़ा आगे बढ़ने पर सड़क के किनारे मुझे प्लास्टिक तान कर रह रहे कुछ परिवार दिखे. पूछताछ करने पर मुझे पता चला कि ये वे लोग हैं जो बाढ़ से प्रभावित तो हैं, लेकिन उन्हें कैंपों के पास जगह नहीं मिल पाई. कैंपों से महज़ 200-250 मीटर की दूरी पर ये परिवार सड़क के किनारे ख़ुद प्लास्टिक तान कर रह रहे हैं. इन्हीं तंबुओं में से एक में रह रही 60 वर्षीय फूलवती ने बताया कि कैंप प्रशासन ने उनको आश्वासन दिया था कि और कैंप लगा दिए जाएंगे पर ऐसा किया नहीं गया. इन तंबुओं के पास रौशनी की व्यवस्था भी नहीं है.
यहां रहने वाली मोनिका, जो नौ महीने के बच्चे की मां हैं, ने बताया कि इस प्लास्टिक के नीचे बरसात और धूप में छोटे बच्चों को बहुत परेशानी हो रही है. जिस दिन वे अपने घर से सड़क पर आकर रहने की जगह का इंतज़ाम कर रही थीं उस दिन उनका बच्चा दो घंटे तक बारिश में भीगता रहा था.
मोनिका ने आगे बताया कि दो दिन पहले शाम को 5 बजे राशन का समान बांटने कुछ लोग आए थे. रात को 9 बजे ये लोग दोबारा आए और एक-डेढ़ घंटे तक यहां के लोगों से उनकी तकलीफ़ों के बारे में बात करते रहे. रात 10 बजे के आस-पास उन्होंने फ़ोन करके कुछ अन्य लोगों को बुलाया. वे लोग मोटरसाइकिल पर आए और तंबुओं के अंदर सोती हुई महिलाओं को देखने लगे. जब उनके पिता ने इसका विरोध किया, तो मोटरसाइकिल सवार उनके साथ रह रहीं दो जुड़वा बहनों के बारे में बात करने लगे और उनके कपड़ों पर टिप्पणी करते हुए पूछने लगे कि उनकी शादी के बारे में क्या ख़याल है. जब इन लड़कियों के पिता ने मोबाइल का टॉर्च जलाया और लाठी लेकर उनकी तरफ बढ़े तो मोटरसाइकिल सवार तेज़ी से वहां से निकल गए. मोनिका ने बताया कि इस घटना से उनका परिवार इतना डर गया कि उन्होंने रात को ही दोनों लड़कियों को अपने एक रिश्तेदार के घर भेज दिया.
इस बारे में जब मैंने दोनों बहनों, राखी और राधा, से बात की तो उन्होंने बताया कि इस घटना से वे काफ़ी डर गई हैं. उन्होंने बताया कि सड़क के किनारे कई लोग अपनी बाइक रोक कर ताक-झांक करते हैं और महिलाओं को घूरते हैं. वहां रह रही महिलाएं इससे काफ़ी डरी हुई हैं.
राखी बताती हैं कि उनका परिवार अभी डरा हुआ है. यहां कोई सुरक्षा भी नहीं है. इसी वजह से लोगों की हिम्मत बढ़ जाती है. राखी बताती हैं कि उन्हें कैंप के पास से पानी भी नहीं मिल पाता क्योंकि लोग पानी के लिए झगड़ने लगते हैं.
छेड़खानी वाली वारदात के बारे में एसडीएम संजय कुमार अंबस्ता से पूछने पर उन्होंने कहा कि 'दिल्ली में एक नंबर होता है 100. अगर ऐसी कोई घटना हुई थी, तो महिलाओं को इस नंबर पर कॉल करना चाहिए था.' जबकि राखी कहती हैं कि खुले में रहने की वजह से उन्हें डर है कि कोई भी आकर उन लोगों को नुकसान पहुंचा सकता है. इसी डर से उन्होंने घटना की शिकायत नहीं की.
कैंप वाली जगह पर पुलिस सुरक्षा नहीं होने के सवाल पर एसडीएम अंबस्ता ने कहा कि 'अभी ये लोग सड़क पर रह रहे हैं, लेकिन जब दो किलोमीटर अंदर खादर में अनऑर्थराइज्ड तरीके से रहते है और तब कोई घटना होती है, तो उसकी ज़िम्मेदारी कौन उठाता है.' उनका कहना था कि हर समय पेट्रोलिंग संभव नहीं है. जब कैंप लगाया गया था तब पुलिस की मौजूदगी होती थी. अब नहीं है. जबकि 12 सितंबर को जब मैं कैंप में गई तब भी वहां कोई पुलिस मौजूद नहीं थी.
16 सितंबर को मुझसे बात करते हुए महिलाओं ने बताया कि कैंप में दो-तीन दिन से खाना भी नहीं आ रहा है. उन्होंने मुझे बताया कि अब उन्हें झुग्गियों में लौटने भी नहीं दिया जा रहा है. सुशीला कुमारी ने कहा, ‘अंदर भी नहीं जाने दे रहे हैं. कह रहे हैं झुग्गी तोड़ेंगे. हमें समझ नहीं आ रहा कहां जाएं.’
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