“सत्ता के हठ के आगे नहीं झुकेंगे”, कृषि कानूनों के खिलाफ पंजाब के किसानों का ऐलान

27 सितंबर को केंद्र सरकार के नए अधिनियमित कृषि बिल के खिलाफ, पंजाब के अमृतसर में किसान समुदाय की महिलाएं रैली में भाग लेते हुए. राज्य के 31 संगठनों ने एक साथ मिलकर एक दिवसीय रेल रोको और एक दिन की आम हड़ताल का आयोजन किया था जिसमें भारी संख्या में लोग शामिल हुए. किसानों की मांग है कि भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार इन बिलों को रद्द करे. नरिंदर नानू / एएफपी / गैटी इमेजिस

“केंद्र सरकार ने ये बिल धक्के (जोर जबर्दस्ती) से पास तो करवा लिए हैं पर इसे हम लागू नहीं होने देंगे.” पंजाब के मालवा क्षेत्र में सक्रिय किसान नेता हरिंदर कौर बिंदू ने 22 सितंबर को मुझसे बात करते हुए दावा किया. उन्होंने आगे कहा, “पंजाब के संघर्षशील संगठनों ने पहले भी सरकार द्वारा पारित बिल वापिस करवाए हैं और इस बार भी हम ऐसा करवाने के लिए जान की बाजी लगा देंगे.”

संसद में 20 और 22 सितंबर को पारित तीन कृषि विधेयकों : कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक 2020, कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार विधेयक 2020 और आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक 2020 के खिलाफ पिछले तीन महीने से चल रहा किसान आंदोलन चरम पर है. जून में केंद्र सरकार इन्हें अध्यादेश के रूप में लाई थी. पंजाब के किसान जून से ही इनका विरोध कर रहे हैं. राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की सहयोगी पार्टी अकाली दल समेत तमाम पार्टियों के इन बिलों के विरोध में आने से बीजेपी पंजाब में अकेली रह गई है. किसानों के आंदोलन को खेत मजदूरों, कर्मचारियों, आढ़तियों, डेयरी फार्मर्स, सांस्कृतिक कर्मियों आदि तमाम वर्गों का समर्थन हासिल होने के कारण इस आंदोलन ने एक जन आंदोलन की शक्ल अख्तियार कर लिया है.

अब तक पंजाब के 31 किसान संगठनों ने मिलकर 24 से 26 सितंबर के बीच रेल रोकने, 25 सितंबर को पंजाब बंद व 1 अक्टूबर से अनिश्चित काल तक रेल चक्का जाम करने का ऐलान किया है. आंदोलन से घबराई केंद्र सरकार किसानों को लगातार भरोसा दिलाने में लगी है कि ये कानून किसानों के हित में हैं और किसान अपनी मर्जी से कहीं भी अपनी फसल को बेच सकते हैं एवं न्यूनतम समर्थन मूल्य के साथ कोई छेड़खानी नहीं होगी. मोदी सरकार का कहना है कि कांग्रेस व अन्य विपक्षी दल किसानों को गुमराह कर रहे हैं. दूसरी तरफ किसान व कृषि विशेषज्ञ इन कानूनों को खेती पर निजी कंपनियों के कब्जे व संघीय ढांचे पर हमले के रूप में देख रहे हैं.

संघर्ष कर रहे किसान संगठनों में भारतीय किसान यूनियन (एकता-उगराहां), भारतीय किसान यूनियन एकता (डकौंदा), क्रांतिकारी किसान यूनियन, किसान मजदूर संघर्ष कमेटी, जमहूरी किसान सभा, पंजाब किसान यूनियन, आजाद किसान संघर्ष कमेटी, कुल हिंद किसान सभा, कुल हिंद किसान सभा पंजाब, जय किसान आंदोलन मुख्य तौर पर शामिल हैं. संघर्षरत संगठनों के नेताओं ने बताया कि आने वाले दिनों में वे बीजेपी नेताओं का पूर्ण बहिष्कार करेंगे.

पंजाब के 31 किसान संगठनों के संयोजक डॉ दर्शन पाल ने बताया, “अभी तक हजारों गांवों में लोग नरेन्द्र मोदी व केंद्र सरकार के पुतले फूंक चुके हैं. इन किसान संगठनों में किसी राजनीतिक पार्टी की किसान शाखा शामिल नहीं हैं. राजनीतिक पार्टियां तो 15 दिन पहले अपनी राजनीति चमकाने के लिए तेज हुई हैं जबकि हमारा आंदोलन तीन महीने से भी ज्यादा समय से चल रहा है.”

संगठनों के इस कदम से मोदी सरकार व किसानों के बीच नया टकराव शुरू हो गया है. रेल रोकने के साथ ही गांवों में ग्राम सभाएं बुलाकर कृषि विधेयकों को रद्द करने के प्रस्ताव पास करके भारत सरकार व राष्ट्रपति को भेजे जाएंगे. पंजाब की कई ग्राम पंचायतों द्वारा पहले ही इन बिलों के विरोध में प्रस्ताव पास किए जा चुके हैं. किसान मजदूर संघर्ष समिति पंजाब के अध्यक्ष सतनाम सिंह पन्नू ने मुझे बताया कि पिछले एक ​महीने में एक हजार से ज्यादा ग्राम सभाओं ने इस तरह के प्रस्ताव पारित किए हैं, इसमें फिरोजपुर जिले के 175, तरन तारन जिले क 220, अमृतसर जिले के 150 और गुरदासपुर के 120 के अलावा अन्य गांव शामिल हैं. हजारों अन्य गांव भी इसी दिशा में आगे बढ़ रहे हैं. 

किसान संगठनों ने पूरे आठ दिन पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के पैतृक गांव बादल और मौजूदा मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के शहर पटियाला में पक्के मोर्चे लगाए थे. भारतीय किसान यूनियन उगराहां के प्रधान जोगिंदर सिंह उगराहां ने बताया, “तीन महीने से चले आ रहे किसान आंदोलन में लोग बढ़-चढ़ कर शिरकत कर रहे हैं. इन मोर्चों में महिलाओं और नौजवानों की गिनती लगातार बढ़ रही है.” उन्होंने बताया कि लोग अपने आप ट्रैक्टर ट्रालियां लेकर जलसों में शामिल हो रहे हैं. लोगों में भावना आ रही है कि अगर हमने अब कुछ नहीं किया तो बहुत देर हो जाएगी.

केंद्र सरकार दावा कर रही है कि राजनीतिक हितों को साधने के लिए किसानों का इस्तेमाल किया जा रहा है लेकिन पंजाब के किसान किसी भी राजनीतिक हस्तक्षेप से पूरी तरह दूर हैं. किसान नेता बिंदू ने कहा, “किसानों की मांगों के मामले में कैप्टन और बादल में कोई फर्क नहीं है.”

मानसा के किसान नेता राम सिंह बताते हैं कि नजदीकी गांवों के कई लोग राजनीतिक पार्टियों से टूटकर किसान संगठनों के सदस्य बन गए हैं. बठिंडा के मौड़ हलके का गांव चैके से पहले किसान आंदोलन में बहुत कम लोग शामिल होते थे इस बार वहां बादल के खिलाफ निकले मोर्चे में शामिल होने के लिए छह बसों में भरकर लोग गए. मुक्तसर जिले में प्रकाश सिंह बादल के विधान सभा क्षेत्र लंबी के करीब दो दर्जन गांवों ने स्वयं मोर्चों में शामिल होने की पेशकश कीं. आंदोलन में भाग लेने के लिए गांवों से महिलाएं केसरी दुपट्टे लेकर पहुंच रही हैं. गांव-गांव में लंगर चल रहे हैं. जिला पटियाला के गांव गज्जू माजरा के बुजुर्ग गुरदेव सिंह का रोष देखने वाला था, “हम केंद्र सरकार की हठ तोड़ कर हटेंगे. जब हुकूमत हठी हो जाए उस समय घरों में बैठना गलत है,” उन्होंने कहा.

कैप्टन अमरिंदर सिंह के पैतृक गांव महराज में नौजवानों ने किसान विंग बनाने शुरु कर दिए हैं. अमृतसर के गांव चब्बा में दिन-रात किसानी लहर के झंडे बन रहे हैं, किसान-मजदूर संघर्ष कमेटी के कार्यालय सचिव गुरबचन सिंह चब्बा का पूरा परिवार 15 दिनों से किसानी झंडे बनाने में जुटा हुआ है. गुरबचन चब्बा बताते हैं कि गांवों में झंडों की मांग तेजी से बढ़ी है जिस कारण चार औरतें दिन-रात झंडे बना रही हैं. मुक्तसर के गांव दोदा के एक नौजवान किसान जगमीत सिंह बताते हैं, “खेती बिलों ने सोए किसानों को जगा दिया है और अब तो आढ़ती भी कहने लगे हैं कि किसानों के बिना गुजारा नहीं है.” भारतीय किसान यूनियन उगराहां के सीनियर नेता झंडा सिंह जेठूके ने बताया कि कृषि बिलों के पास होने के बाद वे 24 हजार झंडे, 48 हजार जेबी बैज बांट चुके हैं. गांव बादल के किसान भी संघर्ष में कूदे हैं. बुजुर्ग अपनी बुढ़ापा पेंशन के जमा किए गए पैसे किसान संगठनों को चंदे के रूप में देते हुए दिखे हैं. रिक्शा वाले व गरीब मजदूर अपनी मेहनत की कमाई से 10-10 रुपए चंदा देते हुए कहते हैं कि अगर देश का किसान खतरे में है तो हम भी सुरक्षित नहीं हैं.

किसान यूनियनों ने फैसला लिया है कि इस बार 28 सितंबर को शहीद भगत सिंह का जन्म दिवस किसान संघर्ष के दौरान बड़े स्तर पर मनाया जाएगा. वे 28 से 30 सितंबर तक गांव-गांव जाकर नौजवानों के बीच भगत सिंह के विचारों का प्रचार करेंगे और किसान रैलियों में भगत सिंह की तस्वीरों को ले जाया जाएगा.

किसान आंदोलन को लेखकों, बुद्धिजीवियों व कलाकारों द्वारा खुलकर समर्थन मिल रहा है. पंजाबी के कई प्रसिद्ध गायकों ने इन दिनों में किसान आंदोलन के हक में गीत गाए हैं. गांवों की महफिलों में लोक मुद्दों पर गीत गाने वाले कलाकार किसानों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आंदोलनों में शामिल हो रहे हैं. वे इन आंदोलनों में जोशीले गीतों के माध्यम से लोगों को संघर्ष में कूदने के लिए प्रेरित कर रहे हैं. किसान जलसों में जहां एक तरफ जोशीले नारे हैं तो दूसरी तरफ तुंबी और ढोलक भी बजता सुनाई दे रहा है. जिला बरनाला के गांव हमीदी के कौर मोहम्मद का ढोलक रुकने का नाम नहीं ले रहा है. ऐसा लगता है कि जैसे वह डंका ढोल पर नहीं बल्कि केंद्र सरकार के सीने पर बजा रहा हो. दर्जनों ढोलची गांवों में किसान आंदोलन की तैयारी कर रहे हैं. मानसा जिला के गांवों में जसवीर खारा की तुंबी खड़क रही है. जिला संगरूर के गांव उगराहां की महिलाएं केंद्र सरकार का सियापा पा रही हैं. जिला लुधियाना के रंगकर्मी सुरेंद्र शर्मा नाटकों के माध्यम से लोगों में जोश भर रहे हैं. मालवा क्षेत्र के गांवों में लोगों को किसानों पर बनी दस्तावेजी फिल्में दिखलाई जा रही हैं. लोकगायक जगसीर जीदा किसान आंदोलनों को लगातार समर्थन देते रहे हैं. पंजाब लोक सभ्याचारिक मंच के प्रधान अमोलक सिंह का कहना है कि किसान आंदोलन दौरान ही गांवों के साधारण किसान घरों के नौजवानों ने नाटक लिखने व खेलने शुरु कर दिए हैं.

किसान आंदोलन को तीखा होते देख अब राजनीतिक पार्टियां भी अपनी सियासत चमकाने के लिए आगे आने लगी हैं. जो अकाली दल पहले इन विधेयकों के हक में दलीलें देता था अब किसान आंदोलन के सामने झुककर सबसे पहले केंद्र सरकार से बाहर निकला है और इन विधेयकों के खिलाफ रैली निकालने लगा है. दल के प्रधान सुखबीर सिंह बादल ने राष्ट्रपति से विनती की है कि वे इन बिलों पर मोहर न लगाएं. कांग्रेस पार्टी शुरु से ही इन बिलों का विरोध कर रही है. पंजाब सरकार ने इन बिलों के खिलाफ विधान सभा में प्रस्ताव भी पास किया है. अब राज्य भर में कांग्रेस पार्टी रैलियां निकाल रही है. लम्बी चुप्पी के बाद कांग्रेस नेता नवजोत सिंह सिद्धू भी इन बिलों के विरुद्ध मैदान में कूदे हैं. आम आदमी पार्टी के भगवंत मान का कहना है कि मोदी सरकार ने इन बिलों को गैर-लोकतांत्रिक तरीके से पास किया है. इसी तरह लोक इंसाफ पार्टी समेत पंजाब की अन्य पार्टियां भी किसानों के हक में आवाज उठा रही हैं. इस हालात में बीजेपी अलग-थलग पड़ गई है.

बीजेपी के स्थानीय व केंद्रीय नेता बिलों के हक में अनेकों दलीलें दे रहे हैं पर किसानों को ये दलीलें रास नहीं आ रही हैं. आढ़ती ऐसोसिएशन के विजय कालड़ा ने तो बीजेपी के बहिष्कार का भी ऐलान कर दिया है. उनका कहना है, ''अगर किसान संकट में है तो आढ़ती भी आराम से नहीं बैठ सकता. सरकार बहुराष्ट्रीय कंपनियों का रास्ता खोलने लगी है जिससे आढ़तियों को बड़ी मार पड़ेगी. इसलिए हम पूरी तरह किसानों के साथ खड़े हैं.''

पंजाब के अर्थशास्त्री भी केंद्र सरकार के तीनों बिलों के विरोध में दलीलें दे रहे हैं. प्रसिद्ध अर्थशास्त्री रणजीत सिंह घुम्मन का कहना है, “इन बिलों से जहां फसलों की खरीद के लिए प्राईवेट कम्पनियों के लिए राह खुलेगा वहीं राज्यों के अधिकारों पर भी चोट पहुंचेगी.” पंजाब के नामवर अर्थशास्त्री डॉ ज्ञान सिंह इन बिलों के बारे में बताते हैं, “असल में 90 के दशक की शुरुआत में जो नीतियां अपनाई गईं थीं हम उसी का फल भुगत रहे हैं. तीनों बिल फसलों की खरीद-बेच के लिए खुली मंडी, खेती-बाड़ी की कीमतों की गारंटी और 1955 के जरूरी वस्तुओं के कानून को बहुत अधिक कमजोर करने की राह खोलते हैं.'' उन्होंने कहा, ''1965 से लेकर अब तक राज्यों में किसानों की गेहूं व चावल की फसलों को केंद्र सरकार द्वारा तय न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकारी एजेंसियां खरीदती रही हैं. केंद्र सरकार द्वारा बेशक खेती जिंसों का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने की कुछ राजनीतिक पार्टियों, किसान संगठनों और विद्वानों द्वारा आलोचना होती रही है इसके बावजूद इन कीमतों के कारण किसान खुली मंडी की लूट से कुछ राहत महसूस करते हैं. अब खुली मंडी को मंजूरी मिलने से राज्य खेती-बाड़ी मंडीकरण बोर्डों वाली मंडियों को बड़ा नुकसान होगा. इससे इन बोर्डों द्वारा किए जाने वाले ग्रामीण विकास को धक्का पहुंचेगा. इस कार्यवाही से सिर्फ किसानों का ही नहीं बल्कि मंडियों में रोजगार प्राप्त करने वाले कर्मचारियों, पल्लेदारों और आढ़तियों को भी नुकसान होगा. खुली मंडी द्वारा किसानों की आमदन बढ़ाने के बारे जो चर्चा हो रही है इस तथ्य के बारे यह समझना जरूरी है कि खुली मंडी का उद्देश्य पूंजीपति जगत का मुनाफा बढ़ाना होता है.”

पंजाब के ही अर्थशास्त्री डॉ सुखपाल सिंह का कहना है, “इन बिलों से राज्यों को बड़ा नुकसान होगा. राज्य मंडी बोर्डों को होने वाली आमदन घटने से लिंक सड़कें, कृषि शोध और समूचे ग्रामीण विकास पर गहरी चोट पहुंचेगी.”

किसानी मसलों के जानकार प्रोफेसर बावा सिंह का कहना है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य के बीजेपी के बहकावे में किसान आने वाले नहीं हैं. न्यूनतम समर्थन मूल्य का ऐलान करना अलग बात है और उस पर खरीद करना बिल्कुल अलग विषय है. उदाहरण के लिए केंद्र सरकार ने मक्के का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1850 रुपए प्रति क्विंटल घोषित किया हुआ है जबकि इस वक्त यह फसल पंजाब में 650 रुपए से 915 रुपए प्रति क्विंटल तक बिक रही है. केंद्र सरकार 23 फसलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य का ऐलान करती है लेकिन पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गेहूं व चावल को छोड़कर कहीं पर भी किसानों की फसलें उचित भाव पर नहीं बिकती. इस तरह केंद्र सरकार का दावा बिल्कुल झूठा है कि खेती मंडियों में कारपोरेट व निजी व्यापारियों के आने से फसलों के भाव बढ़ेगें और किसानों को फायदा होगा.

पंजाब में नरमे की फसल (अमेरिकी कपास) भी न्यूनतम समर्थन मूल्य पर नहीं बिकी. खेती विशेषज्ञों का कहना है कि नए कृषि विधेयक पंजाब के 11.25 लाख किसानों के गले की हड्डी बनेंगे. अगर कृषि विधेयक फसलों के सरकारी भाव में रोड़ा बनते हैं तो देश के सवा करोड़ किसानों के लिए नया संकट खड़ा हो जाएगा. देश में पंजाब मध्य प्रदेश के बाद दूसरा राज्य है जहां सबसे अधिक 10.49 लाख किसान सरकारी भाव पर गेहूं बेचते हैं. पंजाब में खेती के और भी अनेक संकट हैं जैसे कि खेती करने वाली जमीन के सिर्फ 27 फीसदी हिस्से की सिंचाई नहर के पानी से होती है जबकि बाकि हिस्सा जमीन से लिए जाने वाले पानी पर निर्भर है. पंजाब के 138 ब्लाक में से 109 ब्लॉक में भूजल का स्तर बहुत नीचे चला गया है. कृषि विशेषज्ञ पंजाब की धरती के बंजर होने की भविष्यवाणियां कर रहे हैं. पंजाब में किसानों और मज़दूरों की आत्महत्या का मुद्दा भी अहम है. राज्य में साल 2000 से 2015 तक पंजाब की तीन यूनिवर्सिटियों के साझे सर्वेक्षण से पता चलता है कि इन सालों में 16606 आत्महत्याएं हुई हैं यानी पंजाब में प्रतिदिन 2 से 3 किसान व मजदूर खुदकुशी करते हैं.

किसानों के कर्जे का मुद्दा भी काफी अहम है. कांग्रेस ने किसानों के लिए कर्ज माफी का वादा किया था. पंजाब के किसानों के सिर पर मार्च 2017 तक बैकों का 73771 करोड़ रुपए का कर्जा था जिसमें से लगभग 4700 करोड़ रुपए का कर्जा माफ किया जा चुका है. इस संबंध मजदूरों व गरीब किसानों की हालत और भी खराब है क्योंकि वे कर्जा बैकों से नहीं बल्कि साहूकारों और आढ़तियों से लेते हैं जिनकी माफी सरकारी नीतियों के अनुसार नहीं की जा सकती. इन तमाम मुसीबतों को झेल रहा पंजाब का किसान नए कृषि कानूनों को अपने ऊपर आई आफत के रूप में देख रहा है. जिससे मुक्ति पाने का उसे एक मात्र रास्ता संघर्ष का दिखाई दे रहा है.