15 अक्टूबर को जर्मनी की गैर-सरकारी संस्था वेल्थहंगरलाइफ और आयरलैंड की सहायता एजेंसी कंसर्न वर्ल्डवाइड ने संयुक्त रूप से 2019 की विश्व भूख सूचकांक (जीएचआई) रिपोर्ट जारी की. यह रिपोर्ट पहली बार साल 2000 में जारी की गई थी. जीएचआई का कहना है कि उसकी रिपोर्ट का उद्देश्य, "विश्व स्तर पर तथा क्षेत्रीय और देश के स्तर पर भुखमरी को मापना और चिन्हित करना है.” रिपोर्ट के अनुसार, 117 देशों में भारत 102वें स्थान पर है. भारत की स्थिति एशिया के उसके पड़ोसी बांग्लादेश और यहां तक कि मोजाम्बिक जैसे सबसे गरीब अफ्रीकी देशों से भी खराब है.
पहली नजर में रिपोर्ट को देखें तो भारत का प्रदर्शन बहुत ही खराब है, खासकर 2014 की जीएचआई रिपोर्ट से तुलना करने पर. 2014 की रिपोर्ट में भारत 55 वें स्थान पर था. हालांकि यह तुलना भ्रामक है क्योंकि जीएचआई ने तब से दो बार अपनी कार्यप्रणाली में बदलाव किया है. 2014 में रिपोर्ट के लिए किए गए सर्वेक्षण में शामिल देशों की संख्या अब 76 से बढ़कर 117 हो गई है. लेकिन 2019 की रिपोर्ट के विश्लेषण से पता चलता है कि नए मापदंडों को शामिल किए जाने के इस सतही कारक के बावजूद, भारत की स्थिति काफी चिंताजनक है. 2019 की रिपोर्ट "भुखमरी में कमी लाने के प्रयासों में मिली सफलताओं और अफलताओं पर प्रकाश डालती है तथा भूख और पोषण असुरक्षा के कारकों को समझने का नजरिया देती है." रिपोर्ट बताती है कि दुनिया भर में भूख और कुपोषण का स्तर "मध्यम और गंभीर श्रेणियों” में है. रिपोर्ट की मूल्यांकन प्रणाली के अनुसार, 20.0 के मान से ऊपर के देशों के प्रदर्शन को "अत्यंत गंभीर" माना गया है. जिन देशों का मान 20.0 से कम है, उन्हें कुपोषण और अल्पपोषण से निपटने के लिए मामूली रूप से अच्छा प्रदर्शन करने वाला बताया गया है. दूसरे शब्दों में, देश का मान जितना अधिक होगा, जीएचआई में उसका स्थान उतना ही खराब होगा. इस वर्ष भारत का मान 30.3 है, जो 1.3 अरब की बड़ी आबादी वाले देश में भूख के "गंभीर" स्तर को दर्शाता है.
पांच साल पहले, भारत का मान 17.8 था, जिसमें 2005 के 6.4 के मान से 26 प्रतिशत की भारी गिरावट आयी थी. "भारत के बेहतर जीएचआई मान को स्पष्ट करना" शीर्षक के एक संक्षिप्त नोट में लिखा है, "जब से कुपोषण से संबंधित पिछले आंकड़े उपलब्ध हुए हैं तब से भारत सरकार ने कई कार्यक्रम शुरू किए और उनका विस्तार किया है, जो कुपोषण के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष मिश्रित कारणों को लक्षित करते थे." 2014 की रिपोर्ट में दो प्रमुख कारकों की पहचान की गई थी जिनकी बदौलत भारत ने बेहतर प्रदर्शन किया था. ये कारक थे : बच्चों को भोजन, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने की सरकारी पहल, एकीकृत बाल विकास सेवा कार्यक्रम और ग्रामीण भारत में आवश्यक स्वास्थ्य सेवाएं पहुंचाने के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन. उस नोट में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार द्वारा शुरू की गई महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) को भारत के गरीबों तक भोजन की बेहतर पहुंच सुनिश्चित करने वाला "अप्रत्यक्ष कारक" बताया गया है.
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पूर्व सलाहकार और पूर्व नौकरशाह टी के ए नायर ने बताया कि मनरेगा ने भारत में भुखमरी के स्तर को कम करने में सीधे योगदान दिया है. "मुझे लगता है कि मनरेगा को उतना महत्व नहीं मिल रहा है और इस पर उतना ध्यान नहीं दिया जा रहा है जिनता दिया जाना चाहिए. नरेगा को मजबूत करना और इसे मांग-आधारित बनाना लोगों की खरीद क्षमता को बेहतर बनाता,” उन्होंने मुझे बताया. हालांकि, 2014 से सत्ता में काबिज नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार का मनरेगा के प्रति विरोधाभासी रुख रहा है. 2015 में, मोदी ने इस कार्यक्रम को यूपीए की विफलता का "जीता-जागता स्मारक" बताया था. लेकिन न तो उनकी सरकार ने इस कार्यक्रम को बंद किया और न ही इसके लिए आवंटित बजट में कटौती की, बल्कि 2017 के बजट में मनरेगा को अब तक का सबसे ज्यादा परिव्यय आवंटित किया गया था.
लेकिन पूर्व कृषि सचिव सिराज हुसैन ने नायर से असहमति जताई. उन्होंने मुझे बताया कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के तहत कल्याण कार्यक्रमों की स्थिति में कोई बदलाव नहीं हुआ है. "भूख सूचकांक में कई सारी चीजें शामिल होती हैं जिसमें स्वच्छता की खराब हालत, जो कुछ भी आप खा रहे हैं, उसका खराब पाचन और असंतुलित भोजन कुपोषण के परिणाम के रूप में सम्मिलित है." उन्होंने कहा, "इसलिए एनडीए ने यूपीए सरकार द्वारा शुरू किए गए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून में हस्तक्षेप करने के लिए कुछ भी नहीं किया." 2013 में, यूपीए सरकार ने खाद्य अधिकार अधिनियम कानून पारित किया था, जो सभी मौजूदा खाद्य सुरक्षा कार्यक्रमों को कानूनी अधिकारों में बदल देता है.
हालिया जीएसआई रिपोर्ट, स्वच्छता को बच्चों में पोषक तत्वों के सर्वोत्तम अवशोषण स्तर को बनाए रखने का महत्वपूर्ण कारक बताती है. रिपोर्ट में कहा गया है कि जनसंख्या विषयों पर अध्ययन करने वाली मुंबई की अनुसंधान और प्रशिक्षण संस्थान, इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पॉपुलेशन साइंसेज, के आंकड़ों के अनुसार, "2014 में, प्रधानमंत्री ने खुले में शौच को समाप्त करने और यह सुनिश्चित करने के लिए कि सभी घरों में शौचालय हो 'स्वच्छ भारत अभियान' की शुरुआत की. नए शौचालयों के निर्माण के बावजूद, खुले में शौच अभी भी जारी है. यह स्थिति लोगों के स्वास्थ्य को खतरे में डालती है और इसके परिणामस्वरूप बच्चों की वृद्धि और विकास के लिए पोषक तत्वों को अवशोषित करने की उनकी क्षमता से समझौता होता है.” विडंबना यह है कि लगभग दो हफ्ते पहले, मोदी ने घोषणा की कि 99 प्रतिशत ग्रामीण भारत खुले में शौच मुक्त हो गया है. लेकिन कई स्वतंत्र सर्वेक्षणों ने उनके दावों को गलत ठहराया है.
संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन में स्थाई प्रतिनिधि के रूप में कार्य कर चुके पूर्व राजनयिक के पी फेबियन ने मोदी के दावे को खोखला बताया. उन्होंने कहा, “सरकार का ध्यान सिर्फ इस पर है कि उसे किस बात से प्रचार मिलेगा. आपने महिलाओं के लिए कोई घोषणा की और प्रधानमंत्री किसी महिला के साथ फोटो खिंचाते हैं और आप करोड़ों का एक आंकड़ा बताने लगते हैं.” उन्होंने मुझसे बताया कि खुले में शौच से निपटने के लिए स्वच्छ भारत अभियान जैसे एनडीए के कार्यक्रम दिखावा भर हैं. उन्होंने कहा, “यह चिंता की बात है कि सरकार का ध्यान काम की बजाय प्रचार करने पर ज्यादा है.” फेबियन गरीबों के बीच भूख के स्तर में वृद्धि के लिए सीधे मोदी सरकार को दोषी ठहराते हैं. उन्होंने इस हालत में बढ़ोतरी के एक कारण के रूप में नोटबंदी का जिक्र किया. “नोटबंदी के चलते हजारों लोगों का काम छिन गया. वे अपने घरों को लौट गए. उन्होंने अपनी आजीविका खो दी, जिसका खाद्यान्न खरीदने की उनकी क्षमता पर सीधा प्रभाव पड़ा," उन्होंने मुझे बताया.
फेबियन ने जीएचआई रैंकिंग की गलत व्याख्याओं के खिलाफ भी चेतावनी दी. "उन्होंने (जीएचआई) 2016 में अधिक देशों को शामिल किया है. इसलिए रैंकिंग बदल गई है," उन्होंने कहा. "यह रैंकिंग को देखने का गलत तरीका है." हालांकि, उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि भारत को उन देशों ने पछाड़ दिया है जो 2014 में उससे पीछे थे. वह इसे चिंता का विषय मानते हैं. एक और मुद्दा भारत में सुधार की धीमी गति का है. उदाहरण के लिए, 2014 में चीन अपनी पिछली रैंकिंग से 20 स्थान ऊपर चला गया. जहां भारत के सूचकांक में प्रति वर्ष केवल 0.1 से 0.2 अंकों के बीच सुधार हुआ, वहीं चीन 3.0 से 4.0 अंकों की छलांग लगा चुका है.
जिन भी नौकरशाहों से मैंने बात की सभी ने मुझे बताया कि मोदी सरकार की राजनीतिक असुरक्षा और वैचारिक उद्देश्य उन सरकारी कार्यक्रमों के कार्यान्वयन पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं जो आबादी के पोषण, स्वास्थ्य में सुधार की दिशा में काम करते हैं. फैबियन ने कहा, "शुरू में, वे मनरेगा को बढ़ावा देने के लिए उत्सुक नहीं थे क्योंकि इसे पिछली सरकार ने शुरू किया था. आखिरकार उन्होंने इसमें कुछ रुचि ली. लेकिन उस शुरुआती उपेक्षा से निश्चित रूप से नुकसान हुआ है.”
सत्तारूढ़ पार्टी की हिंदुत्व के प्रति वैचारिक प्रतिबद्धता और धार्मिक प्रथाओं और अनुष्ठानों को सार्विक करने के प्रयास भी पोषण कार्यक्रमों को कमजोर बनाते हैं. कई समाचार रिपोर्टों के अनुसार, स्कूली बच्चों को दोपहर का भोजन उपलब्ध कराने वाले मिड-डे मील योजना के लाभार्थी बच्चों को भारतीय जनता पार्टी शासित राज्यों में अंडे से वंचित किया जा रहा है जबकि अंडा बच्चों की विकास के लिए आवश्यक पोषण का एक स्थापित स्रोत है. बीजेपी की राजनीति ने आहार संबंधी प्राथमिकताओं का राजनीतिकरण किया है, जिसे राज्य द्वारा बहुसंख्यकवादी भावनाओं को शांत करने के लिए किया जाता है. हुसैन ने मुझे बताया कि “पिछले पांच वर्षों में, कुछ राज्यों में उन्होंने कहा है कि वे अंडे नहीं परोसेंगे. यह एक अच्छी नीति नहीं है. जो भी अंडे देना चाहता है उसे अंडे देने की अनुमति दी जानी चाहिए. सरकारों को अपनी तथाकथित उच्च जाति की आहार संबंधी आदतों को सभी पर लागू नहीं करना चाहिए.”
केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय, महिला और बाल विकास मंत्रालय और उपभोक्ता मामलों, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय ने जीएचआई रिपोर्ट, इसके निहितार्थ और सरकार की भविष्य की योजनाओं के बारे में पूछे गए सवालों का कोई जवाब नहीं दिया है.