पंजाब हाई कोर्ट में 6733 गुमशुदगी और अवैध दाह संस्कार की जांच याचिका दायर

27 फरवरी 2014 को पंजाब के होशियारपुर के एक गांव में अपने मृत पति कुलजीत सिंह दत्त की तस्वीर के साथ महिला. दत्त एक निर्वाचित शहर अधिकारी थे जब 1989 में स्थानीय पुलिस ने उनकी हत्या कर दी. रॉबर्ट निकेलसबर्ग / गैटी इमेजिज
27 July, 2021

31 अक्टूबर 1992 की घटनाओं ने जसविंदर सिंह के जीवन की दिशा बदल दी. तब वह पंजाब के अमृतसर जिले में बारहवीं कक्षा के छात्र थे. जसविंदर ने मुझे बताया कि उनके माता-पिता, दादा-दादी और उनके अस्सी साल के स्वतंत्रता सेनानी नाना सुलखान सिंह उस दिन घर पर ही थे कि शाम करीब पांच बजे सिरहाली थाने की पुलिस ने उनके दरवाजे पर दस्तक दी और कहा कि थाना प्रभारी सुरिंदरपाल सिंह ने पिता सुखदेव सिंह संधू को बुलाया है. सुखदेव एक सरकारी स्कूल में उपप्रधानाचार्य ​थे. जसविंदर ने मुझे बताया, “चूंकि मेरे दादा उजागर सिंह खुद एक सेवानिवृत्त पुलिस इंस्पेक्टर थे इसलिए उन्होंने पुलिस से पूछा कि पिता को क्यों बुलाया है. पुलिस वालों ने जवाब दिया कि नियमित पूछताछ के लिए बुलाया गया है. मेरे नाना सुलखान सिंह ने आगे आकर अपना परिचय दिया. पुलिस मेरे पिता और नाना को सबके सामने उठा ले गई.”

जसविंदर ने मुझे बताया कि परिवार को बाद में पता चला कि सुलखान और सुखदेव को प्रताड़ित किया गया और उनकी हत्या कर दी गई. "हमने उन्हें फिर कभी नहीं देखा," उन्होंने कहा. उनकी मां सुखवंत कौर ने यही बात बताई. मामले में परिवार के वकील सरबजीत सिंह वेरका ने मुझे बताया कि सुलखान और सुखदेव के शव परिवार को नहीं सौंपे गए, बल्कि एक नहर में फेंक दिए गए. वेरका ने बताया कि ऐसे हजारों मामले हैं जिनमें युवकों को उठाकर मार डाला गया और उनके शव गायब कर दिए गए. इन मामलों में मृत्यु प्रमाण पत्र भी जारी नहीं किए गए.”

1980 और 1990 के दशक में पंजाब में आतंकवाद विरोधी अभियान चलाए गए. इसमें हजारों लोगों के लापता होने की घटनाएं हुईं. 2008 में पंजाब डॉक्यूमेंटेशन एंड एडवोकेसी प्रोजेक्ट नामक एक नागरिक-समाज संगठन ने गायब हुए लोगों का दस्तावेजीकरण करना शुरू किया और एक रिपोर्ट तैयार की. रिपोर्ट के आधार पर पीडीएपी और 9 व्यक्तियों ने नवंबर 2019 में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की. याचिका में कहा गया है कि पंजाब में गायब कर दिए जाने, न्यायेतर हत्याओं और दाह संस्कार के 6733 मामले पाए गए हैं. याचिका के अनुसार यह भारत की किसी भी अदालत के समक्ष गुमशुदगी के संबंध में अब तक दायर सबसे बड़ी याचिका है.

19 अप्रैल 2021 को चंडीगढ़ पुलिस ने ब्रिटेन के वकील और पीडीएपी के प्रमुख सतनाम सिंह बैंस के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की. मैंने मई की अपनी रिपोर्ट में बताया है कि सतनाम के खिलाफ दायर की गई प्राथमिकी उसकी संस्था और याचिकाकर्ताओं के खिलाफ दबाव की कार्रवाई दिखाई पड़ती है.

याचिकाकर्ताओं द्वारा एकत्र किए गए डेटा से पता चलता है कि पंजाब पुलिस और सुरक्षा बल जबरन गायब कर दिए जाने और न्यायेतर हत्याओं के लिए जिम्मेदार हैं. याचिका के अनुसार नगर पालिकाओं और पुलिस रिकॉर्ड से पता चलता है कि पुलिस ने "लावारिस" और "अनपचती" बता कर गुप्त रूप से कई पीड़ितों का अवैध अंतिम संस्कार किया और शवों को उनके परिजनों को नहीं सौंपा. याचिकाकर्ताओं ने इन मामलों की स्वतंत्र जांच, दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई और पीड़ित परिवारों के लिए उचित मुआवजे की मांग की है.

मानवाधिकार कार्यकर्ता जसवंत सिंह खालरा ऐसे मामलों का दस्तावेजीकरण करने वाले पहले व्यक्ति थे. उन्होंने तीन जिलों के तीन श्मशान घाटों से 2000 से अधिक अवैध दाह संस्कार के साक्ष्य एकत्र किए और 16 जनवरी 1995 को एक प्रेस नोट में अपने निष्कर्षों का खुलासा किया. उस वर्ष पंजाब पुलिस ने उनका अपहरण कर हत्या कर दी.

दस साल से अधिक समय बाद पीडीएपी की टीम के लगभग पांच लोगों ने इसी तरह की प्रक्रिया शुरू की. याचिकाकर्ताओं ने कहा कि ये आंकड़े उन्होंने पंजाब के 1600 गांवों में 3500 से अधिक घरों और 26 जिलों और उप-जिलों में दर्ज एफआईआर से एकत्र किए हैं. उन्होंने मुठभेड़ों की रिपोर्ट का पता लगाने के लिए गवाहों के बयानों, पोस्टमार्टम रिकॉर्ड, प्राथमिकी और अन्य रिकॉर्डों के साथ ही एनकाउंटरों की रिपोर्टों का पता लगाने के लिए अजीत, जगबानी और द ट्रिब्यून जैसे समाचार पत्रों की नकल जमा की. याचिकाकर्ताओं ने उल्लेख किया कि उन्होंने अपने काम के लिए जिन दस्तावेजों का इस्तेमाल किया है उनमें शामिल हैं खरीदी गई जलाऊ लकड़ी की रसीदें, व्यय रजिस्टर, पुलिस अधिकारियों द्वारा दाह संस्कार के आवेदन, जिम्नी या पुलिस-डायरी रिपोर्ट और 27 नगरपालिका श्मशान घाटों से अन्य रिकॉर्ड.

याचिका में उल्लेखित डेटा में लगभग 20 जिलों और उप-जिलों में "लावारिस" और "अज्ञात" शवों के अंतिम संस्कार के बारे में बताया गया है. उन्होंने लिखा कि उन्होंने यह डेटा सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के तहत आवेदनों के माध्यम से और सीधे संबंधित नगरपालिका समितियों से प्राप्त किया. पीडीएपी की याचिका में कहा गया है कि दस्तावेजों से पता चलता है कि "शवों को न तो अस्पताल ले जाया गया और न ही किसी मुर्दाघर में."

याचिका में कहा गया है कि 1991-1993 के बीच जब "एक क्रूर उग्रवाद विरोधी ऑपरेशन 'ऑपरेशन रक्षक' अपने चरम पर था तब दाह संस्कार की संख्या भी सबसे अधिक थी." 1995 तक "आतंकवादी आंदोलन को कुचल दिया गया था और ...अज्ञात दाह संस्कार की संख्या काफी कम हो गई थी जिससे साबित होता है कि ये दाह संस्कार गायब होने से किसी तरह जुड़े हुए हैं.” उदाहरण के लिए, रिकॉर्ड से पता चलता है कि 1984 और 1995 के बीच जालंधर जिले में 1105 लोगों का लावारिस और अज्ञात के रूप में अंतिम संस्कार किया गया था. 1995 में दाह संस्कारों में 90 प्रतिशत की कमी देखी गई. इसमें उल्लेख किया गया कि दाह संस्कार की तारीखें अपहरण की तारीख सहित अन्य डेटा के साथ मेल खाती हैं.

याचिका में उल्लेख किया गया है कि 1989-1993 में पठानकोट में 64 "लावारिस" और "अज्ञात" लोगों का अंतिम संस्कार किया गया, 1989-1993 में दसूया में 65, 1985 से 1995 में नंगल में 55, 1991-1995 में आनंदपुर साहिब में 29, 1987-1992 में सुल्तानपुर लोधी में 15, 1989-1994 में मुक्तसर साहिब में 87, 1985-1995 में जगराओं में 93, 1985-1994 में संगरूर में 240, जनवरी 1988 से सितंबर 1992 में कपूरथला में 114, 1990-1993 में जीरा उपजिला में 139, 1986-1996 में मनसा में 196 और 1991-1994 में गुरदासपुर नगर निगम के अधिकार क्षेत्र में 83 शवों का अंतिम संस्कार किया गया.

डेटा न केवल दाह संस्कार के पैमाने के बारे में जानकारी देते हैं बल्कि यह भी बताते हैं कि उन्हें कैसे अंजाम दिया गया. उदाहरण के लिए, याचिकाकर्ताओं ने लिखा कि 1989 और 1994 के बीच गुरदासपुर जिले की एक छोटी तहसील बटाला नगर निगम के अधिकार क्षेत्र में 469 अज्ञात और लावारिस शवों का दाह संस्कार हुआ. उन्होंने कहा कि ये मामले पहले "पूरी तरह से अज्ञात" थे. याचिका में उल्लेख किया गया है कि “कुछ आरटीआई रिकॉर्ड में 2, 3, 4 या अधिक शवों के एक साथ दाह संस्कार के लिए जलाऊ लकड़ी के लिए दावे दिखाए गए हैं. एक ही चिता में कई शवों का अंतिम संस्कार किया गया है.”

बटाला से जुटाए गए आंकड़ों का हवाला देते हुए याचिकाकर्ताओं ने लिखा, "खर्च रजिस्टर की कुछ प्रविष्टियों में पीड़ित का नाम वास्तव में दिया गया है लेकिन आरटीआई में गलत तरीके से इन्हें लावारिस और अज्ञात के रूप में दर्ज किया गया है." याचिका में गुरदासपुर शहर के भी उदाहरण दिए गए हैं. याचिका में कहा गया है कि शहर के रिकॉर्ड "कुछ पीड़ितों के क्रमांक, नाम, पिता के नाम और पते दिखाते हैं फिर भी शव परिजनों को नहीं सौंपे गए."

याचिकाकर्ताओं ने लिखा है कि अज्ञात और लावारिस का लेबल "पंजाब पुलिस द्वारा किए गए गैरकानूनी कामों को छिपाने के लिए जानबूझकर" लगाए गए. "इन लापता व्यक्तियों की पहचान आरोपियों को अच्छी तरह से पता है और पिछले दो दशकों से जानबूझकर परिवारों से छुपाए जा रहे हैं."

यह ध्यान देने योग्य है कि सभी जिलों ने याचिकाकर्ताओं के साथ डेटा साझा नहीं किया. उदाहरण के लिए, फगवाड़ा शहर में अधिकारियों ने कहा कि 1988 से 1992 तक के रिकॉर्ड नष्ट कर दिए गए हैं क्योंकि वे "बहुत पुराने" थे. हालांकि अधिकारियों ने खुलासा किया कि 24 सितंबर 1993 को 9 लावारिस और अज्ञात शवों का अंतिम संस्कार किया गया.

याचिकाकर्ताओं के अनुसार, कम से कम एक नगर निगम ने जानबूझकर अपने दाह संस्कार के रिकॉर्ड को छुपाया. रोपड़ नगर निगम ने 1986 और 1995 के बीच अंतिम संस्कार किए गए कुल लावारिस और अज्ञात शवों की आरटीआई का जवाब नहीं दिया. हालांकि, फरवरी 2019 में केंद्रीय जांच ब्यूरो की एक विशेष अदालत ने सीबीआई बनाम जसपाल सिंह और अन्य के मामले में 1993 में रोपड़ में एक पूर्वनियोजित मुठभेड़ में दो लोगों की हत्या के लिए तीन पुलिसकर्मियों को दोषी ठहराया. पुलिस ने पुरुषों को "अज्ञात" करार देकर उनका अंतिम संस्कार किया था. याचिकाकर्ताओं के अनुसार मामले में रोपड़ श्मशान भूमि रिकॉर्ड प्रस्तुत किया गया था और यह दर्शाता है कि जानकारी उपलब्ध थी.

याचिकाकर्ताओं ने दावा किया कि पुलिस और सुरक्षा बल अज्ञात और लावारिस शवों के दाह संस्कार और पोस्टमार्टम के संबंध में उन प्रक्रियाओं की धज्जियां उड़ाते हुए दिखाई दिए जो 1934 के पंजाब पुलिस नियम और आपराधिक प्रक्रिया संहिता में बताए गए हैं. याचिकाकर्ताओं ने कहा कि पता चलता है कि "एक पूरी तरह से अवैध, असंवैधानिक और मनमानी प्रक्रिया का बेशर्म और व्यापक पैमाने पर व्यवस्थित उपयोग ने परिजनों और प्रियजनों को अंतिम धार्मिक संस्कार करने या यहां तक ​​कि शव को देखने के अधिकार से वंचित कर दिया."

याचिकाकर्ताओं ने लिखा, 1986 से 1995 की कई प्राथमिकियों, जिन्हें आरटीआई के माध्यम से प्राप्त किया गया, ने "पूर्वनियोजित हत्याओं को अंजाम देने वालों के तौर-तरीकों" को दिखाया. उन्होंने उल्लेख किया कि ज्यादातर प्राथमिकी अज्ञात व्यक्तियों के खिलाफ दर्ज की गई थी जो पुलिस मुठभेड़ में मारे गए थे. कई मामलों में पुलिस ने प्राथमिकी और अन्य दस्तावेजों में मारे गए व्यक्ति का नाम, उनके पिता का नाम, पता और व्यक्तिगत विवरण दर्ज तो किया "फिर भी शव का निबटान अज्ञात / लावारिस के रूप में किया." याचिकाकर्ताओं ने लिखा, "एफआईआर स्वयं हत्या, अवैधता और इन हत्याओं को अंजाम देने वाले अपराधियों को छिपाने के सबूत हैं."

पीडीएपी की याचिका में कहा गया है कि इन प्राथमिकियों में पीड़ितों की "'कॉपी पेस्ट कहानियां' थीं." यहां तक ​​​​कि प्राथमिकी को ही एक सरसरी नजर से देखने से पता चलता है कि पुलिस ने "बिना कोई खास ध्यान दिए एक जांची-परखी मनगढ़ंत कहानी" प्रस्तुत की. याचिकाकर्ताओं ने कहा कि जिन मामलों में सीबीआई ने पहले मुकदमा चलाया था, वे दर्शाते हैं कि "कैसे इसी तरह की प्राथमिकी न्यायिक रूप से झूठी साबित हुई हैं और इन मुठभेड़ों और न्यायेतर हत्याओं को अंजाम देने वालों को दोषी ठहराती है​."

याचिका के अनुसार, "पुलिस अधिकारी और सुरक्षा बल पीड़ितों के साथ मुठभेड़ करते हैं लेकिन पुलिस अधिकारी मारे या घायल नहीं हुए और न ही उनके वाहन क्षतिग्रस्त हुए.” याचिकाकर्ताओं के अनुसार, मामलों से पता चलता है कि पुलिस ने झूठे दस्तावेज तैयार किए. उन्होंने लिखा कि उनके पास कथित मुठभेड़ों की लगभग 1200 प्राथमिकी ऐसी हैं जिसमें दावा किया गया है कि बंदी या तो "क्रॉस-फायरिंग" में मारे गए या "भाग निकले."

कुछ मामलों में प्राथमिकी में "आश्चर्यजनक रूप से एक समान शब्दों" में कहा गया है कि पुलिस दल गश्त कर रहा था जब उन्होंने कुछ अज्ञात लोगों को देखा. पुलिस को देखते ही उन्होंने गोलीबारी शुरू कर दी जो 25 मिनट से लेकर दो घंटे तक चली.

याचिकाकर्ताओं ने लिखा है कि एफआईआर में वर्णित एक अन्य परिदृश्य में, एक बंदी को हथियारों के साथ गिरफ्तार किया गया जिसने हिरासत में गुनाह कबूल कर लिया. याचिकाकर्ताओं के अनुसार, प्राथमिकी में उल्लेख किया गया है कि पुलिस तब बंदी को छिपाए हुए हथियार बरामद करने के लिए ले गई जहां पहुंचने पर, एक अज्ञात व्यक्ति ने पुलिस पार्टी पर फायरिंग शुरू कर दी. पुलिस ने पोजीशन ली और 25 मिनट से दो घंटे तक फायरिंग की. प्राथमिकी में उल्लेख किया गया है कि गोलीबारी के बाद पुलिस ने बंदी को ढूंढा लेकिन वह "हथियारों, गोला-बारूद और कई मामलों में विस्फोटकों के साथ जाने कैसे खून से लथपथ मृत पड़ा था." याचिकाकर्ताओं ने कहा, "पुलिस दल कभी घायल नहीं होता (यहां तक ​​​​कि हथकड़ी लगाने वाले अधिकारी भी) भले ही बंदी उनकी हिरासत में हो और उसकी गोली मारकर हत्या कर दी गई हो."

सुखदेव सिंह संधू और उनके ससुर सुलखान सिंह की तस्वीरें. संधू के बेटे जसविंदर सिंह ने कहा कि सरहली पुलिस स्टेशन से एक पुलिस दल 31 अक्टूबर 1992 की शाम को उनके घर आया और उनके पिता और नाना को उठा ले गया. जसविंदर, जो उस समय बारहवीं कक्षा के छात्र थे, के अनुसार बाद में दोनें की हत्या कर दी गई.

याचिकाकर्ताओं ने लिखा है कि प्रभावित लोगों में से अधिकतर "गरीब और अनपढ़ ग्रामीण हैं." याचिकाकर्ताओं ने उस आघात का भी वर्णन किया जिसका पीड़ित परिवारों ने सामना किया. उन्होंने कहा कि कई परिवारों को अभी भी यह नहीं पता है कि उनके परिजन मर चुके हैं या जीवित हैं. याचिकाकर्ताओं ने लिखा, "माता-पिता ने अपने छोटे बेटे, बेटियों को खो दिया ... उनके बच्चों का अपहरण, अत्याचार और उनके सामने हत्या कर दी गई. माता-पिता सदमे की स्थिति में चले गए और वर्षों से अस्वस्थ हैं और इस तरह की घटनाओं को देखकर शेष परिवार को आरोपियों द्वारा मारे जाने का भी डर है. आरोपी पंजाब पुलिस के अधिकारी अक्सर पीड़ितों के परिवारों को धमकाते थे. याचिका के अनुसार, सुरक्षा बलों ने "इनाम पाने और आउट-ऑफ-टर्न प्रमोशन " के लिए ऐसा किया.

याचिका में कहा गया है कि दस्तावेजीकरण प्रक्रिया के दौरान पीडीएपी को जिन बाधाओं का सामना करना पड़ा, उनमें से एक यह थी कि पीड़ितों के परिवार पंजाब पुलिस और सुरक्षा बलों से डरे हुए थे भले ही लापता हुए कई साल बीत चुके थे. याचिकाकर्ताओं ने लिखा है कि मानवाधिकार मामलों को आगे बढ़ाने वालों के कई जाने-माने लोगों के गायब होने, जिनमें अधिवक्ता सुखविंदर भट्टी और कुलवंत सिंह और पत्रकार राम सिंह बिलिंग शामिल हैं, ने इस डर को बढ़ा दिया.

याचिका में कहा गया है, "परिवार के सदस्यों का जबरन अपहरण, अधिकांश मामलों में परिवार को उस व्यक्ति को सौंपने के लिए मजबूर करने का एक सामान्य तरीका था, जिस पर उन्हें संदेह था. पंजाब पुलिस के दबाव और भय में परिवार उस व्यक्ति को इस उम्मीद में पुलिस को सौंप देता कि पुलिस पूछताछ के बाद उसे छोड़ देगी. ये लोग फिर कभी नहीं देखे गए." याचिकाकर्ताओं के वकीलों में से एक राजविंदर सिंह बैंस ने कहा कि "इतनी बड़ी संख्या में जबरन गायब होने और न्यायेतर हत्याओं जैसे अपराधों को कानूनी रूप से 'मानवता के खिलाफ अपराध' के रूप में परिभाषित किया जाता है."

याचिका के अनुसार राज्य ने इनमें से कई अपराधों को स्वीकार भी नहीं किया है. कई नगर निगमों ने परिवार के सदस्यों को मृत्यु प्रमाण पत्र देने से इनकार कर दिया है क्योंकि उनके पास मौत का सबूत नहीं है इससे पेंशन, विरासत और सरकारी सब्सिडी मिलने में समस्याएं पैदा हुई हैं. याचिकाकर्ताओं के अनुसार, उनके निष्कर्षों की जांच "इन हजारों अज्ञात व्यक्तियों की पहचान उजागर करेगी और इस तरह इन शोक संतप्त परिवारों के लिए न्याय की उम्मीद जगाएगी."

दो महिलाओं ने मुझे बताया कि उनके मामले का कोई निपटान नहीं हुआ है. पठानकोट की रहने वाली एक बुजुर्ग महिला कुलविंदर कौर तुग्गलवाल ने मुझे बताया कि सुरक्षा बलों ने उसके पति परमजीत सिंह पम्मा उर्फ ​​बाबा नंद को उसकी आंखों के सामने उठाया. कुलविंदर ने बताया कि 1985 में उनकी परमजीत से शादी हुई थी. “वह उससे पहले पंजाब पुलिस के अधिकारी थे. लेकिन एक सिख होने और अपने कर्तव्य के प्रति वफादार होने के बावजूद उन्हें हमेशा संदेह की नजर से देखा जाता था और अपने ही विभाग में उन्हें निशाना बनाया जाता था. इस तरह उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी. कुलविंदर ने कहा कि पुलिस अक्सर उनके घर पर छापेमारी करती थी. “7 अप्रैल 1991 को एक ट्रेन से हम दोनों पठानकोट से तुगलवाल, गुरदासपुर लौट रहे थे. पहले, पुलिस और सीआरपीएफ चेकिंग के लिए आए और चले गए. फिर, जैसे ही ट्रेन गुरदासपुर रेलवे स्टेशन पर रुकी मेरे पति को सीआरपीएफ और पंजाब पुलिस ने सुबह छह बजे गिरफ्तार कर लिया. उन्होंने स्टेशन का घेराव किया था. मैं गर्भवती थी. घटना के ढाई महीने बाद मेरी बेटी पैदा हुई.” 

कुलविंदर ने कहा कि दो दिन बाद "9 अप्रैल 1991 को उनकी मौत हो गई लेकिन अखबारों में उन्हें एक मुठभेड़ में मारा गया दिखाया. सिविल अस्पतालों की सुरक्षा के लिए भारी पुलिस बल तैनात किया गया था लेकिन हमारे रिश्तेदारों ने किसी तरह झांक कर देखा और पहचान लिया कि शव वास्तव में परमजीत का था.” कुलविंदर के मुताबिक, “न तो हमें पुलिस ने आधिकारिक तौर पर मुठभेड़ की सूचना दी और न ही हमें शव सौंपा गया.”

30 साल की हरप्रीत कौर ने मुझे बताया कि उनके जन्म के 17 दिन बाद ही उनके पिता की हत्या कर दी गई थी. हरप्रीत ने कहा कि 21 अप्रैल 1991 को काला अफगाना गांव में एक मुठभेड़ में उनके पिता रंजीत सिंह, जो बीस साल के थे, एक मारे गए. हरप्रीत ने कहा, "मुझे बताया गया कि पुलिस हमारे यहां अक्सर आती-जाती रहती थी. मेरे पिता के एक दोस्त ने मेरे पिता के एनकाउंटर की अखबारी खबरों को हमें दिखाया. मेरी मां उस समय वडाला ग्रंथियां गांव में मेरे नाना-नानी के यहां थीं. पुलिस ने उन्हें राख इकट्ठा करने के लिए कहा लेकिन हमें कभी शव नहीं दिया. रोते हुए हरप्रीत ने कहा, "मैं उनके जीवन और मृत्यु के बारे में बहुत कुछ जानना चाहती हूं." उन्होंने मुझे बताया कि परिवार को उनका मृत्यु प्रमाण पत्र नहीं मिला है. उन्होंने कहा, "मैंने उनके मृत्यु प्रमाण पत्र के लिए आवेदन किया था और तीन साल और कई तारीखों के बीत जाने के बावजूद मुझे अभी तक यह नहीं मिला है."

याचिकाकर्ताओं ने हाईकोर्ट से पंजाब के बाहर से विशेष जांच दल गठित करने या मामलों की जांच के लिए केंद्र सरकार के अधीन किसी स्वतंत्र एजेंसी का गठन करने का निर्देश देने को कहा है. उन्होंने जांच करने के लिए एक सेवानिवृत्त सुप्रीम कोर्ट या उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक समिति गठित करने और सीबीआई को मामलों की जांच करने का निर्देश देने के लिए भी कहा है. इन जांचों के परिणाम के आधार पर दोषी अधिकारियों को उचित रूप से दंडित करने की मांग भी की है. इसके अलावा, दालत से राज्य और केंद्र सरकार को पीड़ितों के परिवारों के पुनर्वास और क्षतिपूर्ति के लिए अपराधों की "गंभीरता और महत्व को दर्शाती राशि" के लिए निर्देश देने का अनुरोध किया है. याचिकाकर्ताओं ने राज्य को मृतक के लिए मृत्यु प्रमाण पत्र जारी करने और सभी प्रासंगिक रिकॉर्ड को संरक्षित करने के निर्देश देने के लिए भी कहा है.

याचिका में उल्लेख किया गया है कि पंजाब पुलिस के अधिकारियों और सुरक्षा बलों को पहले भी "निर्दोष व्यक्तियों की हत्या और दाह संस्कार" के लिए दोषी ठहराया जा चुका है. लापता होने के मामलों में सीबीआई बनाम रघुबीर सिंह और अन्य, सीबीआई बनाम जसपाल सिंह और अन्य और सीबीआई बनाम नरिंदर सिंह मल्ही और अन्य के मामले शामिल हैं.

भारत में मानवाधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र के तत्कालीन विशेष दूत क्रिस्टोफ हेंस की अप्रैल 2013 की एक रिपोर्ट में सुरक्षा बलों के सदस्यों सहित लोक सेवकों को जवाबदेह ठहराने में आने वाली बाधाओं का उल्लेख किया गया था. उनकी रिपोर्ट में कहा गया है, "हालत इस तथ्य से और विकराल हो जाती है कि मानवाधिकारों का उल्लंघन करने वाले सुरक्षा अधिकारियों को कटघरे में खड़ा करने के बजाय अक्सर उन्हें पदोन्नत किया जाता है. विशेष दूत को श्री सुमेध सिंह सैनी के मामले की जानकारी है जो 1990 के दशक में पंजाब में किए गए मानवाधिकारों के उल्लंघन के आरोपी थे, जिन्हें मार्च 2012 में पंजाब में पुलिस महानिदेशक के रूप में पदोन्नत किया गया था."

अप्रैल 2017 में पीडीएपी ने अमृतसर में एक स्वतंत्र पीपुल्स ट्रिब्यूनल का गठन किया था, जहां सुप्रीम कोर्ट के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश एके गांगुली पैनलिस्ट थे. पीडीएपी की याचिका में कहा गया है कि उन्होंने इस बात पर भी हैरानी और निराशा व्यक्त की है कि पंजाब में लापता लोगों की व्यापक जांच का आदेश नहीं दिया गया. आईपीटी के दौरान पीड़ितों के परिवार के कई सदस्यों ने आपबीती सुनाई थी.

जसविंदर ने मुझे बताया कि उसकी मां सुखवंत ने उसके पिता और दादा की मौत का मामला दर्ज कराया था. उन्होंने कहा कि यह मामला फिलहाल सीबीआई की विशेष अदालत में विचाराधीन है. जसविंदर ने कहा कि इतने सालों में सिरहाली पुलिस स्टेशन के अधिकारियों ने हम पर समझौता करने का दबाव डाला.

उनके वकील वेरका ने कहा कि यह "दुर्भाग्यपूर्ण" और "घृणित" है कि मामला लगभग तीस वर्षों से अनसुलझा है. उन्होंने कहा, "न्याय में देरी के परिणामस्वरूप सरहली तत्कालीन थाना प्रभारी सुरिंदरपाल सिंह को छोड़कर सभी आरोपियों की प्राकृतिक मौत हो चुकी है. मुकदमा अंत की तरफ है लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि यह न्याय का अंत होगा भले ही आरोपी को दोषी ठहराया जाए." वेरका ने बताया कि मामले में अगली सुनवाई 28 जुलाई को है.

अस्सी साल के सुखवंत ने मुझसे कहा, “मैंने पूरी जान लगाकर यह लड़ाई लड़ी है. मैं मरने से पहले न्याय होते देखना चाहता हूं."