आईआईटी गुवाहाटी परिसर के अंदर बने भगवान शिव के एक मंदिर को लेकर यहां के शिक्षकों और छात्रों के बीच विवाद चल रहा है. इस साल 6 मई को इलेक्ट्रॉनिक्स एंड इलेक्ट्रिकल इंजिनियरिंग के असिस्टेंट प्रोफेसर बृजेश राय और उसी विभाग के पीएचडी के छात्र विक्रांत सिंह ने गुवाहाटी हाई कोर्ट में जनहित याचिका (पीआईएल) दायर कर परिसर में स्थित मंदिर को गिराए जाने की मांग की है. याचिकाकर्ताओं ने आरोप लगाया कि “मंदिर अवैध निर्माण है और यह एक धर्म विशेष के लोगों के साथ विशेष व्यवहार करने का षडयंत्र हो सकता है और इससे संस्थान का माहौल सांप्रदायिक बन जाने का खतरा है.” याचिका का जवाब देते हुए आईआईटी प्रशासन ने अदालत को कहा है कि मंदिर को तोड़े जाने की मांग याचिकाकर्ताओं की “दुराग्रही मानसिकता को दर्शाती है.”
याचिकाकर्ताओं का कहना है कि मंदिर को पिछले पांच साल में अवैध तरीके से चंद उच्च अधिकारियों की मिलीभगत से बनाया गया है और सार्वजनिक शिक्षा संस्थान के परिसर में इसका निर्माण उसकी धर्मनिरपेक्ष प्रकृति का उल्लंघन है. मंदिर को तोड़े जाने के अलावा याचिकाकर्ताओं ने अदालत की निगरानी में मंदिर के निर्माण की जांच और उसमें शामिल अधिकारियों के खिलाफ कार्यवाही करने की मांग भी की है. दूसरी ओर, आईआईटी प्रशासन ने अदालत से कहा है कि यह मंदिर कैंपस निर्माण होने के पहले से ही अस्तित्व में था और इसकी मरम्मत और निर्माण में संस्थान के धन का इस्तेमाल नहीं हुआ है. प्रशासन ने धर्मनिरपेक्षता पर खतरे की चिंता को खारिज करते हुए अदालत से कहा कि मंदिर के होने से परिसर का धर्मनिरपेक्ष माहौल खतरे में नहीं पड़ता. इसके अलावा प्रशासन ने यह भी कहा है कि दायर याचिका को छात्रों का समर्थन नहीं है और कोर्ट को याचिकाकर्ताओं को अदालत का समय खराब करने के लिए दंडित किया जाना चाहिए.
मैंने कोर्ट के समक्ष पेश किए गए सभी सबूतों का अध्ययन किया और याचिकाकर्ताओं और संस्थान के उन निदेशकों से भी बात की जिनके कार्यकाल में मंदिर का कथित निर्माण हुआ था. इस पूरे घटनाक्रम का सबसे रोचक पक्ष यह है कि प्रशासन खुले तौर पर एक धार्मिक ढांचे का समर्थन कर रहा है जबकि उसके अपने शिक्षक और छात्र विरोध कर रहे हैं. अदालत को प्रशासन ने बताया था कि याचिका का समर्थन छात्र नहीं कर रहे लेकिन याचिकाकर्ताओं ने कम से कम छह छात्रों के हस्ताक्षर वाला शपथपत्र अदालत में जमा किया है जिसमें छात्रों ने कहा है कि उन्हें नहीं लगता कि सार्वजनिक परिसर के भीतर मंदिर का निर्माण सही बात है, खासकर आईआईटी गुवाहाटी जैसे राष्ट्रीय महत्व के संस्थान के अंदर.”
अपनी पीआईएल में राय और सिंह ने चार पार्टियों को प्रतिवादी बनाया है जो - मानव संसाधन विकास मंत्रालय के उच्च शिक्षा विभाग के सचिव, आईआईटी गुवाहाटी के निदेशक, आईआईटी का बोर्ड ऑफ गवर्नर्स और संस्था के पूर्व अध्यक्ष राजीव मोदी हैं. हाईकोर्ट ने राजीव मोदी को फिलहाल छूट दी है, मंत्रालय ने अब तक अपना जवाब नहीं दिया है. हालांकि मानव संसाधन विकास मंत्रालय का संयुक्त सचिव बोर्ड का सदस्य भी होता है. बोर्ड के वर्तमान अध्यक्ष टीजी सीताराम हैं जो स्वामी विवेकानंद योग शोध न्यास से भी जुड़े हैं. यह न्यास नरेन्द्र मोदी के निजी योग शिक्षक नागेंद्र गुरुजी चलाते हैं. 1 अगस्त को याचिका के जवाब में आईआईटी गुवाहाटी के रजिस्ट्रार जनरल एमजीपी प्रसाद ने अदालत के समक्ष शपथपत्र दायर किया है.
अपने जवाब में प्रसाद ने राय और सिंह पर निजी हमले किए हैं. प्रसाद ने याचिका को इस आधार पर खारिज किए जाने की मांग की है कि केवल राय और सिंह को ही मंदिर से दिक्कत है. शपथपत्र में लिखा है, “आईआईटी गुवाहाटी में 10000 लोग रहते हैं और यहां रहने वाले अधिकांश लोग मंदिर जाते हैं. लेकिन किसी ने भी मंदिर को चुनौती नहीं दी. राय और सिंह ने गलत इरादों से याचिका दायर की है.” साथ ही, सिंह को राय का “आज्ञाकारी छात्र” बताते हुए कहा गया कि उन्होंने अपने रिसर्च गाइड को खुश करने के लिए ऐसा किया है.
वहीं, यह कहकर कि राय के खिलाफ दो-दो आपराधिक मामले चल रहे हैं और आईआईटी में तीन विभागीय अनुशासनात्मक कार्यवाही चल रही हैं, उनका चरित्रहरण करने की कोशिश की गई. राय को दिसंबर 2017 में 12 महीनों के लिए निलंबित किया गया था. इस साल 17 नवंबर को 1000 से अधिक आईआईटी छात्रों ने राय के समर्थन में मोमबत्ती जलाकर प्रदर्शन किया था. इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक छात्रों का कहना था कि राय न केवल भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ते हैं बल्कि छात्रों के अधिकार के लिए भी खड़े होते हैं. कोर्ट में आईआईटी के जवाब के प्रत्युत्तर में राय ने अपने ऊपर चल रहे सभी मामलों के बारे में कोर्ट को जानकारी दी. उन्होंने कोर्ट से कहा है कि मंदिर मामले को उनके मामलों के साथ मिलाकर देखना गलत है क्योंकि उनके मामले की सुनवाई हाईकोर्ट में पहले से ही चल रही है. राय ने मुझे बताया कि उनके खिलाफ विभागीय कार्यवाही बदले की भावना से प्रेरित थी क्योंकि वह आरटीआई कार्यकर्ता भी हैं जिन्होंने 2015 से आईआईटी में अवैध भर्ती, भाई-भतीजावाद, सरकारी धन का दुरुपयोग और भ्रष्टाचार उजागर करने के प्रयास किए हैं.
राय ने मुझे बताया कि वह किसी भी धर्म के खिलाफ नहीं हैं. उनका विरोध सिर्फ परिसर के अंदर मंदिर निर्माण के खिलाफ है. वह कहते हैं, “अगर वे बाहर बनाना चाहते हैं मंदिर, तो कहें, हम भी मदद करेंगे.”
राय के अनुसार, मंदिर एकदम नया ढांचा है. जनहित याचिका में कहा गया है कि 2004 में परिसर के अंदर एक बांस का ढांचा अस्तित्व में आया था. 2004 और 2015 के बीच इस मंदिर ने 1.5 स्क्वायर मीटर जमीन कब्जा ली है और इसके चारों तरफ बांसों का बाड़ा लगा दिया गया. राय के मुताबिक किसी सुरक्षा गार्ड ने बाड़ा लगाया होगा. पीआईएल के अनुसार संभवतः जब गौतम विश्वास निदेशक थे तब बाड़े का विकास कंक्रीट के ढांचे में हो गया. अगले चार सालों में यह ढंचा एक बड़े अवैध मंदिर में बदल गया.
याचिकाकर्ताओं ने दो महत्वपूर्ण साक्ष्य जमा किए हैं जो यह साबित करते हैं कि 2004 से पहले वहां कोई मंदिर नहीं था. एक साक्ष्य आईआईटी गुवाहाटी में 1996 से 2013 के बीच अध्यापन करने वाले पूर्व प्रोफेसर अनिल महंता का वह बयान है जिसमें उन्होंने बताया है, “मैंने 1996 से आईआईटी कैंपस परिसर के विकास के दखा है. जब आईआईटी में लैंडफिलिंग और निर्माण संबंधित गतिविधियां हो रहीं थीं तब 1990 के मध्य में वहां श्रमिकों और सुरक्षाकर्मियों के लिए अस्थाई आवास बनाए गए थे. जहां तक मेरी जानकारी है परिसर में कोई मंदिर या पूजा स्थल नहीं था.” महंता ने जोर दिया है कि फिलहाल जिस जगह शिव मंदिर है वह एरिया उस समय खाली स्थान था.”
दूसरा सबूत उस सीवेज सिस्टम का नक्शा था जिसे परिसर में 2004 में बनाया गया था. नक्शे के अनुसार, एक पाइपलाइन उस स्थान के ठीक नीचे से जाती है जहां आज मंदिर है. इसके दोनों ओर दो मैनहोल हैं. ये मैनहोल आज भी देखे जा सकते हैं. जनहित याचिका में तर्क दिया गया है कि अगर 2004 में सीवेज पाइप बिछाई गई थी और मंदिर वहां मौजूद था तो पाइपलाइन लगाने के लिए मंदिर को ध्वस्त करना पड़ा होगा लेकिन ऐसा कोई रिकॉर्ड नहीं है. संस्थान को अभी इस साक्ष्य का जवाब देना है.
दूसरी ओर, आईआईटी प्रशासन के जवाब का बड़ा हिस्सा मंदिर के "प्राचीन" अस्तित्व के समर्थन पर है. इस हिस्से में पांच पॉइंट हैं : "आईआईटी गुवाहाटी की स्थापना से पहले भी यह मंदिर इसी स्थान पर था.” जवाब के अनुसार, आईआईटी की स्थापना 1994 में हुई थी और परिसर के लिए भूमि का अधिग्रहण 1991 और 1992 के बीच हुआ था. जमीन को आदिवासी आबादी वाले स्थानीय लोगों से प्राप्त किया गया था. "भूमि अधिग्रहण करते वक्त तत्कालीन आईआईटी गुवाहाटी प्राधिकरण ने अधिग्रहित भूमि पर लगे पीपल के बड़े पेड़ के नीचे छोटा मंदिर पाया था." जवाब में कहा गया कि स्थानीय लोगों ने आईआईटी अधिकारियों को बताया कि "मंदिर में पूजा होती थी. पूजा-पाठ अनादिकाल से चली आ रही थी और वे पूजा-अर्चना के लिए नियमित रूप से मंदिर आते थे लेकिन उन्हें खुद नहीं पता कि पेड़ के नीचे शिव मंदिर कब और कैसे अस्तित्व में आया.”
जवाब में दावा किया गया है कि जनहित याचिका जिसे "अवैध निर्माण" कह रही है, वह झोपड़ी की संरचना को ईंट की बना देने के "छोटे सुधार से अधिक कुछ नहीं है.” यह भी कहा गया है कि सुधार के लिए धन "भक्तों के चंदे" से प्राप्त हुआ है जिसे स्थानीय लोगों के अलावा छात्र, शिक्षक और गैर-शिक्षण कर्मचारी ने दिया था.
10 सितंबर को, राय और सिंह ने प्रशासन के जवाब में हलफनामा दायर कर कहा कि संस्थान में मंदिर के अस्तित्व के तर्क का समर्थन करने के लिए कोई सबूत नहीं दिया है. "अगर आईआईटी गुवाहाटी के अस्तित्व में आने से पहले मंदिर का अस्तित्व था, तो यह मंदिर संस्थान की योजना के दस्तावेजों में होगा." उत्तर में यह भी कहा गया है कि "अधिकारीगण तत्कालीन निदेशक गौतम विश्वास के आने से पहले, मंदिर के उस स्थान पर पहले से होने से संबंधित कोई दस्तावेज, आधिकारिक नक्शा पेश नहीं कर सके.”
दिलचस्प बात यह है कि विश्वास ने मुझे मंदिर के अस्तित्व और निर्माण के बारे में लगभग वही बात और उसी भाषा में बताई जो जवाब में है. विश्वास ने मुझे बताया कि 90 के दशक के मध्य में संस्थान स्थापित होने से पहले भी मंदिर था और उसके बाद के निदेशकों के कार्यकाल में इसका "क्रमशः विकास हुआ." उन्होंने कहा कि संस्थान में रहने वालों और बाहर के लोगों ने मंदिर का निर्माण किया.
हालांकि, राय ने मंदिर निर्माण से जुड़ी घटनाओं का चित्रण अलग किया. उन्होंने मुझे बताया कि 2014 की शुरुआत में, विश्वास आईआईटी में आए. फिर एक दिन जब वह अपने सरकारी वाहन से कहीं जा रहे थे तो बांस की संरचना के सामने प्रार्थना करने के लिए रुके. राय ने मुझे बताया, "लोगों ने खुद देखा कि निदेशक वहां रुके थे. उस वक्त वह ढांचा झाड़ियों के बीच में हुआ करता था. लेकिन अगले दिन, निदेशक के निर्देश पर, झाड़ी को काटा गया और पूरे क्षेत्र को साफ कर दिया गया.” उन्होंने बताया कि निदेशक की उस यात्रा के बाद, अन्य संकायों के सदस्यों ने भी वहां आना शुरू कर दिया. राय के अनुसार, “तब से बांस के बाड़े को इमारत में बदलना शुरू हुआ. जनहित याचिका में, राय ने कहा कि उन्होंने विश्वास के साथ अपने पत्राचार में कई बार मंदिर के अवैध निर्माण का उल्लेख किया था. "लेकिन निदेशक ने कभी जवाब नहीं दिया और न ही अवैध कार्य को रोकने के लिए कोई कार्रवाई की."
पीआईएल में "लगभग चार साल पहले मंदिर का नवीनीकरण कार्य शुरू किए जाने” के आरोप पर प्रशासन खामोश है. जनहित याचिका में कहा गया था कि राय ने सूचना के अधिकार कानून के तहत मंदिर के गैर-कानूनी होने और उसके जीर्णोद्धार की जानकारी इकट्ठी की है. दिसंबर 2017 में, राय ने एक आरटीआई आवेदन दायर कर मंदिर में चल रहे निर्माण के बारे में जानकारी मांगी. राय ने पूछा, “शिव मंदिर कब से यहां है? क्या आईआईटी गुवाहाटी ने सरकारी फंड से निर्माण में पैसा खर्च किया है? क्या निर्माण के लिए कोई आधिकारिक स्वीकृति थी?” संस्थान के आरटीआई जवाब में कहा था, “शिव मंदिर का निर्माण या अन्य गतिविधियां संस्थान द्वारा नहीं की गई हैं…निर्माण कार्य में संस्थान के स्रोतों से पैसा नहीं लिया गया है. जवाब में स्वीकार किया गया कि मंदिर के निर्माण को आईआईटी बोर्ड की मंजूरी नहीं थी. याचिकाकर्ताओं द्वारा अदालत को आरटीआई जवाब की प्रति दी गई है. संस्थान ने आरटीआई के जवाब को खारिज नहीं किया लेकिन इसको अदालत के सामने पेश करने को "भ्रामक और दुर्भावनापूर्ण" कृत्य बताया.
राय ने मुझे बताया कि संस्थान की सुरक्षा में सैकड़ों निजी सुरक्षा गार्ड लगे हैं और परिसर में प्रवेश में सख्ती बरती जाती है. उन्होंने कहा कि मंदिर का निर्माण अधिकारियों की अनुमति के बिना संभव नहीं है क्योंकि इसके लिए "रेत, सीमेंट, रॉड, टाइल और अन्य निर्माण सामग्री" की जरूरत होती है जिन्हें निर्माणस्थल तक लाया जाना पड़ता है. "क्या आपको लगता है कि इन्हें ले जाने वाले ट्रक बिना मंजूरी के गेट से गुजरे होंगे?" आईआईटी प्रशासन ने पीआईएल में सवालों के जवाब नहीं दिए कि निर्माण सामग्री परिसर में कैसे पहुंची जबकि उसने स्वीकार किया है कि मंदिर में "नवीकरण का कुछ काम" “भक्तों द्वारा” किया गया है.
आईआईटी के जवाब वाले हलफनामे में राय और सिंह ने मंदिर के प्राचीन होने पर सवाल उठाया है. हलफनामें में कहा गया, "लंबे समय से अस्तित्व में रहे मंदिरों का ऐतिहासिक महत्व होता है. ऐसे मंदिरों के निर्माण में प्रयुक्त सामग्री सहित वास्तुकला को आसानी से पहचाना जा सकता है. कामाख्या मंदिर, मदन मंदिर और अश्वकांता मंदिर उत्तरी गुवाहाटी क्षेत्र और उसके आसपास के मंदिरों के संरचनात्मक निर्माण को समझने के लिए उदाहरण के रूप में लिए जा सकते हैं.” इसके साथ ही मंदिर की 2018, 2019 और 2014 से पहले की तस्वीरें भी दी गईं हैं. 2014 से पहले मंदिर एक झोपड़ी नुमा संरचना में दिखाई देता है, जबकि बाद की तस्वीरों में वह संगमरमर के फर्श और कंक्रीट की दीवारों वाला है. मंदिर की दीवारों, फर्श या मूर्तियों पर प्राचीन मूर्तिकला का कोई चिन्ह नहीं है.
मंदिर के अस्तित्व के बारे में प्रशासन के स्पष्टीकरण को भी राय ने खारिज कर दिया. राय कहते हैं, "प्रशासन ने अदालत से कहा है कि आदिवासी उनके पास आए और कहा कि मंदिर को न गिराया जाए. दावा किया गया है कि संस्थान के लिए जमीन स्थानीय लोगों और आदिवासियों से ली गई थी. यह कैसी बकवास बात है कि स्थानीय लोगों ने संस्थान को अपनी जमीन दे दी लेकिन अधिकारियों से कहा कि वे मंदिर को न गिराएं और उन्हें पूजा करने की अनुमति दी जाए. ऐसे लोग कौन थे और कहां चले गए?"
परिसर में मंदिर की मजबूत वकालत करने वाली आईआईटी प्रशासन की मानसिकता को एक अन्य उदाहरण से समझा जा सकता है. अक्टूबर 2018 में दुर्गा पूजा से पहले, संकाय सदस्यों के बीच ईमेलों का आदान-प्रदान हुआ. इन ईमेलों से पता चलता है कि न केवल राय, बल्कि अन्य संकायों के सदस्य भी धार्मिक गतिविधियों का समर्थन करने पर प्रशासन के प्रति आशंकित थे. ईमेल में एक शिक्षक ने दुर्गा पूजा उत्सव आयोजन के लिए चंदा मांगा था.
एसोसिएट प्रोफेसर गौरव त्रिवेदी ने "शिव मंदिर समिति" की ओर से सभी संकाय सदस्यों और कर्मचारियों को ईमेल भेजा था. उस समिति की अध्यक्षता उनकी पत्नी कर रही थीं. चंदे के अलावा त्रिवेदी ने यह भी सुझाव दिया था कि संस्थान के सामुदायिक हॉल में दुर्गा पूजा उत्सव का आयोजन किया जाए. ईमेल में त्रिवेदी ने दावा किया, “यहां तक कि हमारे रजिस्ट्रार साहब ने बी-टाइप कम्युनिटी हॉल में दुर्गा पूजा के आयोजन के विचार की सराहना की है. मैं उनके शब्दों और समर्थन के लिए उनकी सराहना करता हूं.”
गणित विभाग में एक प्रोफेसर भाभा कुमार शर्मा ने ईमेल के जवाब में लिखा, “मैंने पहली बार संस्थान में शिव मंदिर समिति नाम का कुछ सुना है. मैं जानना चाहता हूं कि यह कब बनी थी और इसे किन सक्षम प्राधिकारियों ने मंजूरी दी है.” त्रिवेदी ने जवाब दिया कि “मेरी पत्नी द्वारा दी गई जानकारी के मुताबिक शिव मंदिर से संबंधित कामकाज की देखरेख के लिए आईआईटी गुवाहाटी परिसर की महिला श्रद्धालुओं ने समिति बनाई है.” शर्मा ने फिर जवाब दिया, “शिव मंदिर समिति का काम मंदिर की देख-रेख करना है न कि गतिविधियों का आयोजन करना. इसके अलावा, ग्रुप मेलिंग में दान/चंदा के लिए अपील करने से पहले उचित औपचारिकताएं पूरी की जानी चाहिए.” प्रोफेसर विश्वमोहन मल्होत्रा ने भी त्रिवेदी से कहा, “कृपया उस अधिकारी की पहचान बताएं जिनकी ओर से धन संग्रह किया जा रहा है.”
एसोसिएट प्रोफेसर देवर्षि दास ने ग्रुप मेल का जवाब देते हुए पूछा था, "मैं इसे बहुत बुरा मानती हूं कि संस्थान ने मंदिर के लिए जमीन दी है (निर्माण और रखरखाव के लिए धन भी?). क्या अब संस्थान सर्वशक्तिमान बॉब की पूजा के लिए भूमि आवंटित करेगा? अब हमें सुनने में आ रहा है कि संस्थान आधिकारिक रूप से धार्मिक त्यौहार मनाने का प्रस्ताव कर रहा है. कम से कम मैं प्रस्ताव का विरोध करती हूं.” (सर्वशक्तिमान बॉब डगलस एडम्स की साइंस-फिक्शन श्रृंखला हिचहाइकर्स गाइड टू द गैलेक्सी का एक पौराणिक देवता है.)
त्रिवेदी ने मुझसे बात करने से इनकार कर दिया और कहा कि वह "केवल तभी बोलेंगे जब अदालत उनसे सवाल करेगी और वह भी एक उचित चैनल के जरिए." दिलचस्प बात यह है कि विश्वास ने दावा किया कि उनके कार्यकाल में राम नवमी और अन्य त्यौहार के दौरान लोग मंदिर में इकट्ठा होते थे. उन्होंने मुझसे कहा कि वह लोगों को इससे रोक नहीं सकते थे क्योंकि अगर वह ऐसा करते तो लोग पढ़ाई छोड़ देते. विश्वास यह दावा करते हैं कि याचिकाकर्ता "सोचते हैं कि लोगों को किसी दैवीय ताकत पर विश्वास नहीं करना चाहिए." लेकिन हिंदू व्यक्ति दिल में किसी न किसी की पूजा करता है.” विश्वास ने आगे कहा, “विश्वास करने वाला अपराध नहीं कर रहा... केवल भगवान की पूजा कर रहा है.”
प्रसाद ने भी पीआईएल के जवाब में यही तर्क दिया था. "संस्थान की प्रगति में मंदिर से कोई बाधा नहीं पड़ रही है." उन्होंने तर्क दिया है, "छात्रों सहित बड़ी संख्या में लोग, इस मंदिर में रोजाना आते हैं", इसलिए इसे गिराने का कोई कारण नहीं है.” एक कदम आगे बढ़ते हुए, प्रसाद ने बताया कि प्रशासन मंदिर के बिजली बिल का भुगतान कर रहा है क्योंकि "एक कल्याणकारी राज्य के संस्थान का कर्तव्य है" कि वह सार्वजनिक स्थान के लिए बुनियादी सुविधाएं प्रदान करे. उन्होंने कहा कि "चार ट्यूबलाइट के बिजली बिल का भुगतान जनहित याचिका दायर करने का कारण नहीं हो सकती."
राय ने मुझे बताया कि आईआईटी गुवाहाटी के खिलाफ उनकी आरटीआई सक्रियता से उनको निशाना बनाया गया है. “लोग आएंगे और मुझे अनुसंधान पर ध्यान देने और आरटीआई दाखिल न करने के लिए कहेंगे. मैंने नजरअंदाज किया और वही किया जो अब तक मैं मानता हूं. लेकिन इस बार मामला गंभीर लग रहा है”, राय ने कहा, “मुझे बताया गया है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थानीय इकाई इससे खुश नहीं है और उन लोगों ने मुझे संदेश भेजा कि ‘तुमको जो करना है करो लेकिन यह मंदिर का मुद्दा छोड़ दो.’”