उत्तर प्रदेश चुनाव के परिणाम सामने हैं. फिर से बीजेपी ने सरकार में वापसी की है. उसे 403 सीटों में 255 सीटें मिली हैं. सीटों की संख्या पिछली बार से 57 कम है लेकिन इससे सत्ता समीकरण में बड़ा बदलाव नहीं होने जा रहा है.
चुनाव अभियान में समाजवादी पार्टी की रैलियों में दिखाई दे रही भीड़ से लगता था कि बीजेपी की हिंदुत्व की राजनीति को कम से कम समाजवादी पार्टी से तगड़ी टक्कर मिलेगी. लेकिन सपा सिर्फ 111 सीटें ही जीत पाई. हालांकि उसके वोट प्रतिशत में 10 अंकों से अधिक का इजाफा हुआ है.
परिणाम आने के बाद सवाल उठता है कि आखिर किसान आंदोलन, बेरोजगारी, महंगाई, कोरोना और छुट्टे सांडों सहित अन्य जरूरी मुद्दों का असर चुनाव के परिणामों में क्यों दिखाई नहीं दिया? ऐसा क्यों है कि लोगों ने अपने जनजीवन से जुड़े इन मुद्दों को नजरअंदाज कर दिया?
परिणाम से पहले और चुनाव के दौरान यूपी चुनाव पर नजर रख रहे जानकार अलग-अलग तरह के कयास लगा रहे थे. उनका जोर इस बात पर था कि योगी सरकार के प्रति यादव, जाट, गुर्जर और ब्राह्मणों की नाराजगी और साथ ही मुस्लिम मतदाताओं के स्वाभाविक रूप से बीजेपी के खिलाफ रहने के चलते बीजेपी के लिए यह चुनाव जीत पाना नामुमकिन नहीं तो मुश्किल जरूर होगा. इसके साथ ही राज्य सरकार पर ठाकुरवाद का आरोप भी लगता रहा. बता दें कि राज्य की आबादी में ठाकुर/राजपूत का प्रतिशत 7 है और सूबे के मुख्यमंत्री इसी जाति के हैं. राज्य की 20 प्रतिशत दौलत पर इसी जाति का कब्जा है.
मैंने कारवां में 4 फरवरी को लिखा था कि “मोदी समर्थक दक्षिणपंथी विश्लेषक 2014 के लोक सभा चुनाव और फिर 2017 के प्रदेश विधानसभा चुनाव में बीजेपी की जीत को “मोदी लहर” का कमाल भले बताते रहे हैं लेकिन वे जीतें तथाकथिक मोदी लहर से अधिक ओबीसी जातीयों के विकेंद्रीकरण का परिणाम थीं.” हाल के यूपी विधानसभा चुनाव परिणाम मेरी उसी बात को पुख्ता करते हैं.
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