नागरिकता संशोधन कानून, आंदोलन और दिल्ली हिंसा : क्यों जरूरी है सीएए का व्यापक विरोध

26 फ़रवरी 2022
31 अगस्त 2019 को पूर्वोत्तर राज्य असम के मोरीगांव जिले के पाभोकाटी गांव में एक मुस्लिम महिला राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर की अंतिम सूची में अपना नाम चैक करने जाती हुई. सरकार द्वारा जारी अंतिम सूची में 19 लाख लोग बाहर कर दिए गए थे.
अनुपम नाथ / एपी फोटो
31 अगस्त 2019 को पूर्वोत्तर राज्य असम के मोरीगांव जिले के पाभोकाटी गांव में एक मुस्लिम महिला राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर की अंतिम सूची में अपना नाम चैक करने जाती हुई. सरकार द्वारा जारी अंतिम सूची में 19 लाख लोग बाहर कर दिए गए थे.
अनुपम नाथ / एपी फोटो

24 फरवरी 2020 की शाम मेरे संपादक का कॉल आया. “मौजपुर में हालात काफी खराब हैं, शायद. आप ग्राउंड पर जाएं", संपादक ने कहा. मैं और मेरे कलीग्स दिल्ली और उत्तर प्रदेश में पिछले दो महीनों से नागरिकता कानून में भारत सरकार द्वारा किए संशोधन के खिलाफ जगह-जगह चल रहे आंदोलनों को कवर कर रहे थे. हमने मुसलमानों के खिलाफ दोनों राज्यों की पुलिस की बर्बरता देखी थी. मैं आंदोलनकारी की जगह मुसलमान इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि मैं खुद उन लोगों से मिलकर आया हूं जो अपने घरों में बैठे थे जब पुलिस ने घर में घुस कर उन्हें मारा, उनके मकान तोड़ दिए, उनकी औरतों के साथ बदसलूकी की और घर के मर्दों को उठा कर ले गई. ये वे घर थे जिनके आसपास कोई आंदोलन नहीं हो रहा था. ये वे लोग थे जिनके खिलाफ पुलिस में पहले कोई शिकायत भी दर्ज नहीं थी, फिर चाहे बिजनौर का 21 साल का लड़का सलमान हो या कानपुर के बाबू पुरवे मोहल्ले का 17 साल का एक किशोर. सलमान को पुलिस ने गोली मार दी, जबकि 17 साल के किशोर को पुलिस ने इतनी बेरहमी से पीटा था कि उसके शरीर का एक भी हिस्सा बिना जख्म के नहीं था. यह सब उनके साथ शायद नहीं होता अगर वे मुसलमान नहीं होते. 

देश में सीएए विरोधी आंदोलन दिसंबर 2019 के पहले सप्ताह से ही शुरू हो गया था, जब संशोधन को कैबिनेट ने मंजूरी दी थी. आंदोलनकारियों में लगभग सभी मुसलमान थे, जिनमें जयदातर औरतें और छात्र थे. कुछ हिंदू लिबरल इंटरनेट पर आंदोलन को समर्थन जरूर दे रहे थे मगर संशोधन की खिलाफत खुल कर सड़कों पर सिर्फ भीम आर्मी जैसे दलित संगठनों ने की थी. नरेन्द्र मोदी की सरकार ने नागरिकता कानून में संशोधन कर दिया था जिससे अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से दिसंबर 2014 से पहले आकर बसे हिंदुओं, सिखों, बोद्धों, जैनों, पारसियों और ईसाइयों को नागरिकता दिया जाना था. शर्त यह थी कि वे अपना देश धार्मिक यातनाओं की वजह से छोड़कर भागे थे. मगर यह कौन तय करता कि किसी के साथ होने वाली यातना धार्मिक है या सामाजिक या आर्थिक. और अगर यातना को ही गैर भारतीय को नागरिकता देने का आधार माना जाए तो किसी की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक यातना को धार्मिक यातना से कम क्यों माना जाए. और केवल धार्मिक यातना ही सरकार की नजर में नागरिकता के योग्य क्यों हो. सरकार के संशोधन ने यह मान लिया था कि उन तीन देशों से आने वाले उपरोक्त छह धर्मों के लोग धार्मिक यातना की वजह से ही भागे होंगे. उन्हें अपनी धार्मिक यातना सिद्ध करने की जरूरत नहीं थी. आंदोलनकारियों ने पूछा कि सिर्फ मुसलमान को ही इस कानून की सुरक्षा से बाहर क्यों रखा गया था. दिल्ली में दंगों के बाद मार्च 2020 में भारत के गृहमंत्री अमित शाह ने चुटकी लेते हुए कहा था कि मुसलमान उन तीन देशों में कैसे अल्पसंख्यक हो गए जब वे देश औपचारिक रूप से इस्लामिक देश है. मगर वह सवाल सिर्फ आंदोलनकारियों का नहीं था. इस कानून की जब बुनियाद रखी जा रही थी तो विपक्ष ने भी यही सवाल उठाया था, और सवाल सिर्फ यह नहीं था कि मुसलमान क्यों नहीं, बल्कि यह भी कि भारतीय गणराज्य धर्म निरपेक्ष होते हुए एक ऐसे कानून को कैसे सहमति दे सकता है जिसका आधार धर्म हो. 

कानून संसद में पास होने से पहले संयुक्त संसदीय समिति को अध्ययन के लिए भेजा गया. समिति में सदन के पक्ष और विपक्ष दोनों के सदस्य थे. सीमित में संविधान विशेषज्ञ थे जिन्हें अपनी राय बिना किसी विचारधारा से प्रभाभित हुए देनी थी. संविधान विशेषज्ञों ने सरकार से कहा कि आप धार्मिक यातना को आधार बनाने के बजाए सिर्फ यातना को आधार बनाइए क्योंकि धर्म को आधार बनाना संविधान के खिलाफ है. सरकार का जवाब आया कि धर्म के आधार पर यातना का किया गया वर्गीकरण संवैधानिक रूप से दुरस्त है. विपक्ष के करीब आठ कानून निर्माताओं ने लिखित अपनी में आपत्ति दर्ज कराई. इन सबका विवरण संसदीय समिति की रिपोर्ट में विस्तार से दर्ज है. मगर संसदीय समिति की रिपोर्ट को औपचारिकता मात्र माना गया. नरेन्द्र मोदी की सरकार ने इस कानून को संसद में अपनी बहुमत की ताकत के बल पर पारित करवा लिया. 

सरकार की संवैधानिक अवहेलना ही सिर्फ आंदोलनकारियों के आंदोलन की वजह नहीं थी. इसके पीछे गृहमंत्री अमित शाह की 2019 की लोकसभा चुनावों में मुसलमानों को दी गई वह धमकी थी कि वह “देश में रह रहे बांग्लादेशी घुसपैठियों को बंगाल की खाड़ी में फिकवा देंगे”. इसमें उन्होंने मुसलमानों का नाम नहीं लिया था मगर इसमें क्या शक है कि बीजेपी जब बांग्लादेशी घुसपैठिए बोलती है तो वह अप्रत्यक्ष रूप से देश में रह रहे मुसलमानों को निशाना बना रही होती है. 

इस दरमियान शाह ने एक प्रेस वार्ता में ये भी कह दिया था कि नागरिकता कानून में संशोधन करने के बाद सरकार देश में एनआरसी (भारतीय नागरिकता रजिस्टर) भी लाएगी. एनआरसी एक ऐसी प्रक्रिया थी जिसमें हर नागरिक को कागजों के जरिए अपनी वंशावली सिद्ध करनी पड़ती कि उनके दादा-परदादा स्वंतत्र भारत के निर्माण के समय से ही इस देश में रह रहे थे. हालांकि इसके देशव्यापी नियम अब भी बनने थे. मगर पहले आसाम राज्य में न्यायालय के आदेश पर करवाई गई इस प्रक्रिया से जो मानवीय त्रासदी हुई थी उसका अंदाजा देश के अल्पसंख्यकों को था. करीब 19 लाख लोग उसी साल जून में एनआरसी प्रक्रिया के बाद बांग्लादेशी घोषित किए जा चुके थे. महिलाओं और बच्चों समेत हजारों लोगों को अलग से बनी जेलों में पहले ही ठूस दिया गया था क्योंकि वे अपनी भारतीयता पूर्व प्रक्रिया के अनुसार सिद्ध नहीं कर पाए थे. जून 2019 में जब 19 लाख लोग और बांग्लादेशी घोषित कर दिए गए तो उनकी विदेशी प्राधिकरण न्यायलाओं में सुनवाई को टाल दिया गया था. उसी साल दिसंबर 2019 में असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा, जो बीजेपी के नफरत फैलाने वाले नेताओं की गिनती में अव्वल हैं, ने यह एलान कर दिया कि सीएए के संसद में पारित होने के बाद असम के हिंदुओं को जो एनआरसी में बांग्लादेशी करार दिए गए थे, सरंक्षण प्रदान किया जाएगा. 

सागर कारवां के स्टाफ राइटर हैं.

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