नागरिकता संशोधन कानून, आंदोलन और दिल्ली हिंसा : क्यों जरूरी है सीएए का व्यापक विरोध

31 अगस्त 2019 को पूर्वोत्तर राज्य असम के मोरीगांव जिले के पाभोकाटी गांव में एक मुस्लिम महिला राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर की अंतिम सूची में अपना नाम चैक करने जाती हुई. सरकार द्वारा जारी अंतिम सूची में 19 लाख लोग बाहर कर दिए गए थे. अनुपम नाथ / एपी फोटो
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26 February, 2022

24 फरवरी 2020 की शाम मेरे संपादक का कॉल आया. “मौजपुर में हालात काफी खराब हैं, शायद. आप ग्राउंड पर जाएं", संपादक ने कहा. मैं और मेरे कलीग्स दिल्ली और उत्तर प्रदेश में पिछले दो महीनों से नागरिकता कानून में भारत सरकार द्वारा किए संशोधन के खिलाफ जगह-जगह चल रहे आंदोलनों को कवर कर रहे थे. हमने मुसलमानों के खिलाफ दोनों राज्यों की पुलिस की बर्बरता देखी थी. मैं आंदोलनकारी की जगह मुसलमान इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि मैं खुद उन लोगों से मिलकर आया हूं जो अपने घरों में बैठे थे जब पुलिस ने घर में घुस कर उन्हें मारा, उनके मकान तोड़ दिए, उनकी औरतों के साथ बदसलूकी की और घर के मर्दों को उठा कर ले गई. ये वे घर थे जिनके आसपास कोई आंदोलन नहीं हो रहा था. ये वे लोग थे जिनके खिलाफ पुलिस में पहले कोई शिकायत भी दर्ज नहीं थी, फिर चाहे बिजनौर का 21 साल का लड़का सलमान हो या कानपुर के बाबू पुरवे मोहल्ले का 17 साल का एक किशोर. सलमान को पुलिस ने गोली मार दी, जबकि 17 साल के किशोर को पुलिस ने इतनी बेरहमी से पीटा था कि उसके शरीर का एक भी हिस्सा बिना जख्म के नहीं था. यह सब उनके साथ शायद नहीं होता अगर वे मुसलमान नहीं होते. 

देश में सीएए विरोधी आंदोलन दिसंबर 2019 के पहले सप्ताह से ही शुरू हो गया था, जब संशोधन को कैबिनेट ने मंजूरी दी थी. आंदोलनकारियों में लगभग सभी मुसलमान थे, जिनमें जयदातर औरतें और छात्र थे. कुछ हिंदू लिबरल इंटरनेट पर आंदोलन को समर्थन जरूर दे रहे थे मगर संशोधन की खिलाफत खुल कर सड़कों पर सिर्फ भीम आर्मी जैसे दलित संगठनों ने की थी. नरेन्द्र मोदी की सरकार ने नागरिकता कानून में संशोधन कर दिया था जिससे अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से दिसंबर 2014 से पहले आकर बसे हिंदुओं, सिखों, बोद्धों, जैनों, पारसियों और ईसाइयों को नागरिकता दिया जाना था. शर्त यह थी कि वे अपना देश धार्मिक यातनाओं की वजह से छोड़कर भागे थे. मगर यह कौन तय करता कि किसी के साथ होने वाली यातना धार्मिक है या सामाजिक या आर्थिक. और अगर यातना को ही गैर भारतीय को नागरिकता देने का आधार माना जाए तो किसी की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक यातना को धार्मिक यातना से कम क्यों माना जाए. और केवल धार्मिक यातना ही सरकार की नजर में नागरिकता के योग्य क्यों हो. सरकार के संशोधन ने यह मान लिया था कि उन तीन देशों से आने वाले उपरोक्त छह धर्मों के लोग धार्मिक यातना की वजह से ही भागे होंगे. उन्हें अपनी धार्मिक यातना सिद्ध करने की जरूरत नहीं थी. आंदोलनकारियों ने पूछा कि सिर्फ मुसलमान को ही इस कानून की सुरक्षा से बाहर क्यों रखा गया था. दिल्ली में दंगों के बाद मार्च 2020 में भारत के गृहमंत्री अमित शाह ने चुटकी लेते हुए कहा था कि मुसलमान उन तीन देशों में कैसे अल्पसंख्यक हो गए जब वे देश औपचारिक रूप से इस्लामिक देश है. मगर वह सवाल सिर्फ आंदोलनकारियों का नहीं था. इस कानून की जब बुनियाद रखी जा रही थी तो विपक्ष ने भी यही सवाल उठाया था, और सवाल सिर्फ यह नहीं था कि मुसलमान क्यों नहीं, बल्कि यह भी कि भारतीय गणराज्य धर्म निरपेक्ष होते हुए एक ऐसे कानून को कैसे सहमति दे सकता है जिसका आधार धर्म हो. 

कानून संसद में पास होने से पहले संयुक्त संसदीय समिति को अध्ययन के लिए भेजा गया. समिति में सदन के पक्ष और विपक्ष दोनों के सदस्य थे. सीमित में संविधान विशेषज्ञ थे जिन्हें अपनी राय बिना किसी विचारधारा से प्रभाभित हुए देनी थी. संविधान विशेषज्ञों ने सरकार से कहा कि आप धार्मिक यातना को आधार बनाने के बजाए सिर्फ यातना को आधार बनाइए क्योंकि धर्म को आधार बनाना संविधान के खिलाफ है. सरकार का जवाब आया कि धर्म के आधार पर यातना का किया गया वर्गीकरण संवैधानिक रूप से दुरस्त है. विपक्ष के करीब आठ कानून निर्माताओं ने लिखित अपनी में आपत्ति दर्ज कराई. इन सबका विवरण संसदीय समिति की रिपोर्ट में विस्तार से दर्ज है. मगर संसदीय समिति की रिपोर्ट को औपचारिकता मात्र माना गया. नरेन्द्र मोदी की सरकार ने इस कानून को संसद में अपनी बहुमत की ताकत के बल पर पारित करवा लिया. 

सरकार की संवैधानिक अवहेलना ही सिर्फ आंदोलनकारियों के आंदोलन की वजह नहीं थी. इसके पीछे गृहमंत्री अमित शाह की 2019 की लोकसभा चुनावों में मुसलमानों को दी गई वह धमकी थी कि वह “देश में रह रहे बांग्लादेशी घुसपैठियों को बंगाल की खाड़ी में फिकवा देंगे”. इसमें उन्होंने मुसलमानों का नाम नहीं लिया था मगर इसमें क्या शक है कि बीजेपी जब बांग्लादेशी घुसपैठिए बोलती है तो वह अप्रत्यक्ष रूप से देश में रह रहे मुसलमानों को निशाना बना रही होती है. 

इस दरमियान शाह ने एक प्रेस वार्ता में ये भी कह दिया था कि नागरिकता कानून में संशोधन करने के बाद सरकार देश में एनआरसी (भारतीय नागरिकता रजिस्टर) भी लाएगी. एनआरसी एक ऐसी प्रक्रिया थी जिसमें हर नागरिक को कागजों के जरिए अपनी वंशावली सिद्ध करनी पड़ती कि उनके दादा-परदादा स्वंतत्र भारत के निर्माण के समय से ही इस देश में रह रहे थे. हालांकि इसके देशव्यापी नियम अब भी बनने थे. मगर पहले आसाम राज्य में न्यायालय के आदेश पर करवाई गई इस प्रक्रिया से जो मानवीय त्रासदी हुई थी उसका अंदाजा देश के अल्पसंख्यकों को था. करीब 19 लाख लोग उसी साल जून में एनआरसी प्रक्रिया के बाद बांग्लादेशी घोषित किए जा चुके थे. महिलाओं और बच्चों समेत हजारों लोगों को अलग से बनी जेलों में पहले ही ठूस दिया गया था क्योंकि वे अपनी भारतीयता पूर्व प्रक्रिया के अनुसार सिद्ध नहीं कर पाए थे. जून 2019 में जब 19 लाख लोग और बांग्लादेशी घोषित कर दिए गए तो उनकी विदेशी प्राधिकरण न्यायलाओं में सुनवाई को टाल दिया गया था. उसी साल दिसंबर 2019 में असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा, जो बीजेपी के नफरत फैलाने वाले नेताओं की गिनती में अव्वल हैं, ने यह एलान कर दिया कि सीएए के संसद में पारित होने के बाद असम के हिंदुओं को जो एनआरसी में बांग्लादेशी करार दिए गए थे, सरंक्षण प्रदान किया जाएगा. 

शाह और सरमा के बयानों से यह स्पष्ट हो गया था कि अगर सरकार पूरे देश में एनआरसी लाती है, तो नागरिकता सूची से बाहर हुए हिंदुओं के लिए सीएए एक सुरक्षा कवच की तरह काम करेगा. जबकि ऐसी कोई सुरक्षा मुसलमानों के पास नहीं होगी. आंदोलन में शामिल हुए मुसलमानों की फिक्र जायज थी. जब दिसंबर के दूसरे सप्ताह में दिल्ली के जामिया नगर में आंदोलन शुरू हुआ तो एक आंदोलनकारी मुस्लिम महिला ने मुझसे कहा था, “घर में दूध पीते बच्चे को छोड़ कर आई हूं. अगर ये कानून लाने दिया तो मेरे बच्चे का कोई भविष्य नहीं रह जाएगा, हम अपने ही देश में रिफ्यूजी बन के रह जाएंगे.” 

24 फरवरी 2020 की शाम संपादक का फोन आते ही मैंने कारवां के अपने साथी शाहीन अहमद को फोन लगाया और कहा, "तुम जाफराबाद पहुंचो, मैं भी आता हूं". शाहीन कारवां के मल्टीमीडिया प्रोड्यूसर रहे हैं. कारवां से जुड़ने से पहले उन्होंने एक स्वतंत्र डॉक्यूमेंट्री फिल्ममेकर के तौर पर मोदी सरकार के दौर में हुई मुसलमानों की लिंचिंग को डॉक्यूमेंट किया था. वह केरल से आते हैं और उनकी हिंदी उतनी अच्छी नहीं है. हम दोनों ने साथ में दिसंबर से ही जामिया, जामा मस्जिद और फिर उत्तर प्रदेश में बिजनौर में आंदोलन को कवर किया था. सरकार द्वारा समर्थित कई मीडिया चैनलों ने आंदोलन को इतना गलत तरीके से दिखाया था कि लोग पत्रकारों को पसंद नहीं करते थे. आंदोलनकारियों को जरा भी भरोसा नहीं होता था कि हम उनकी आवाज पूरे देश को सुना सकते थे. उनमें पत्रकारों के प्रति नाराजगी और गुस्सा दोनों ही था जो बहुत जायज था. टेलीविजन चैनलों ने बिल्कुल उलट चीजें दिखाई थीं. जनवरी में दिल्ली विधान सभा के चुनावों में बीजेपी के लीडरान आंदोलनकारियों के खिलाफ अपने भाषणों में जो जहर उगलते थे, एक तरह से टीवी चैनल उनके जहर को अमली जामा पहना रहे थे. इन सबके बाबजूद कभी भी हम आंदोलनकारियों के बीच खुद को असुरक्षित महसूस नहीं करते थे. लोग कई बार बात करने से मना जरूर कर देते थे मगर हमारे प्रति किसी ने कभी कोई हिंसा नहीं दिखाई. 

दिल्ली के सीलमपुर में मुस्लिम महिलाएं जनवरी की शुरुआत से ही सड़क किनारे बैठी थीं. उनके बैठने से न कोई रोड जाम हो रहा था, न वहां हमने कभी राष्ट्र विरोधी नारे सुने. वहां आंबेडकर और गांधी की तस्वीर के नीचे बैठीं औरतें अगर नारा लगाती थीं तो सिर्फ संविधान की जय के लिए. हर जगह की तरह सीलमपुर में भी "आंबेडकर वाली आजादी" "फूले वाली आजादी" के नारे लगे थे. बीजेपी और सरकार समर्थित मीडिया चैनलों के नैरेटिव के उलट वहां कभी भी देश से आजादी के नारे नहीं लगे. यह अपने आप में एक ऐतिहासिक आंदोलन था. शायद पहली बार देश के अल्पसंख्यक, जिसे औरतें लीड कर रहीं थीं, संविधान को आधार बनाकर अपने हक की लड़ाई लड़ रहे थे. यही बात बीजेपी और उसकी मीडिया को पसंद नहीं आ रही थी. वे पूरी कोशिश कर रहे थे कि उनके आंदोलन को धार्मिक रंग दिया जाए. 

हम करीब 10 बजे के आसपास जाफराबाद पहुंचे. आंदोलनकरी महिलाएं मेट्रो स्टेशन के नीचे ही बैठी थीं. एक तरफ का रास्ता जाम था मगर दूसरी तरफ खुला रखा गया था, गाड़ियां आराम से आ-जा सकती थीं, मगर पुलिस ने पूरी सड़क बंद कर रखी थी. वहां बैठी महिलाएं डरी और सहमी थीं. उनके हाथ में तिरंगा था मगर सब खामोश थीं. मौजपुर अब तक छावनी में बदल चुका था. दिल्ली पुलिस के सिपाही पूरे रायट गीयर के साथ तैनात थे. उन्होंने आंदोलनकारियों को घेर रखा था. हमें वहां लोगों ने बताया कि मौजपुर में पथराव हुआ है. कुछ हिंदुओं की भीड़ ने मौजपुर ट्रैफिक सिग्नल जाम कर रखा था. मौजपुर मेट्रो स्टेशन जाफराबाद मेट्रो स्टेशन से कुछ एक किलोमीटर की दूरी पर ही था. हमारे दो कलीग जो वजीराबाद की तरफ चांदबाग का आंदोलन कवर कर रहे थे, उन्होंने बताया था कि खजूरी खास चौक पर हिंदुओं ने दोपहर को एक मजार जला दी थी. मौजपुर में भी पथराव हुआ था, हमें यह खबर मिली थी मगर हम इस सच की गहराई से अब एक किलोमीटर दूर थे. जाफराबाद से मौजपुर जाने वाली सीधी सड़क अंधेरी और सुनसान थी. हम दोनों डरे हुए थे. जाफराबाद पर मौजूद मुस्लिम लड़कों ने हमें बताया था कि मौजपुर चौक पर हिंदुओं की एक भीड़ है जो हर गाड़ी और हर राहगीर को रोक कर उनका धर्म पूछती है और मुसलमान पाए जाने पर उन्हें पीटने लगती है. उन्होंने हमें बताया कि वह भीड़ आदमियों से उनकी पतलून खुलवाकर उनका धर्म चेक कर रही है. 

यह वह समय था जब मुसलमान पहचान वाली वेश-भूषा लेकर चलना खतरे से खाली नहीं था. जब मैं और शाहीन मौजपुर की तरफ बढ़ रहे थे तो मैंने शाहीन से कहा, "शीट यार, मैने दाढ़ी भी नहीं बनाई है." मैं फील्ड में अक्सर काले और उजले रंग के चेक का स्कार्फ गले में बांधे रहता था. मैंने चलते-चलते अपने स्कार्फ को फटाफट निकाल कर बैग में डाल लिया. जैसे-जैसे हम मौजपुर की तरफ बढ़ रहे थे, हमारे पैरों के नीचे ईंट के टुकड़े बढ़ते जा रहते. भीड़ ने दोनों तरफ की दुकानों को भी ईंट और पत्थरों से क्षत विक्षत कर दिया था. अब तक हमें जय श्रीराम के नारे सुनाई देने लग गए थे. हमें समझ आ गया था कि आगे सब कुछ अनिश्चित है. मैंने शाहीन को एक ऊंची जाति सरनेम का हिंदू नाम दिया और उससे कहा मैं ही सबसे बात करूंगा और वह अपना मुंह बिलकुल न खोले जब तक उसकी नौबत न आए. हम जैसे ही मोड़ पर पहुंचे वहां अनियंत्रित भीड़ थी. 4000-5000 लोगों की भीड़ पागलों की तरह "जय श्रीराम" "मोदी तुम लट्ठ बजाओ, हम तुम्हारे साथ है" के नारे लगा रही थी. उनके हाथों में डंडे, हॉकी स्टिक, चेन, त्रिशूल जैसे हथियार थे. वे सब दौड़ के कभी इधर जाते कभी उधर जाते. लोगों ने कहीं डीजे लगा रखा थे, तो कहीं ढोल-बाजा लेकर सड़क पर ही भजन पढ़ रहे थे. लड़कों ने अपनी टी शर्ट, ट्रैक सूट के आगे या पीछे पीठ पर ब्राह्मण, राजपूत या जाट शब्द लिखवाए हुए थे. दंगों के बाद जब मैने मौजपुर भीड़ की पड़ताल शुरू की, तो पाया था कि इनमें बीजेपी के यूथ विंग के लोग, आसपास के इलाकों के गौ रक्षक संगठन के सदस्य और आरएसएस के सदस्य थे. मैंने उनकी पहचान फेसबुक के लाइवस्ट्रीम को डाउनलोड करके की थी. बाद में मैंने उन सबका इंटरव्यू भी किया. लगभग हर व्यक्ति नरेन्द्र मोदी के आंदोलनकारियों के खिलाफ दिए भाषणों से प्रभावित था. इनमें 70-80 प्रतिशत लोग ऊंची जातियों के थे. 50 प्रतिशत से ऊपर अकेले ब्राह्मण जाति के थे. उस रात सड़क के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक भगवा झंडो की पताका लगी हुई थी. भीड़ के कई सदस्य बड़े भगवा झंडे लेकर खुद भी खड़े थे. कहने को वे सीएए के समर्थन में इकट्ठा हुए थे मगर वहां हर आदमी धार्मिक नारे लगा रहा था. कोई भी कानून या इसके फायदे की बात नहीं बता रहा था. माइक से मुसलमानों को गालियां दी जा रही थीं. इस भीड़ से पुलिस वाले बहुत ही मित्रता से पेश आ रहे थे. वे आपस में बात कर रहे थे, हाथ मिला रहे थे. भीड़ रह-रह कर "दिल्ली पुलिस तुम आगे बढ़ो, हम तुम्हारे साथ है" के नारे लगा रही थी. सड़क के किनारे-किनारे दिल्ली पुलिस की गाड़ियां लगी थीं. भीड़ बहुत हिसंक थी. वह हमें बिलकुल भी कैमरा निकालने नहीं दे रही थी. अगर हम कोशिश भी करते तो वे झुंड बनाकर हमें मना करते. मैंने शाहीन से कहा कि वह भीड़ से थोड़ी दूर जाकर पुलिस की गाड़ियों के पास खड़े रह कर मेरा इंतजार करे. मैं कुछ वक्त भीड़ के बीच रह कर उनसे बात करने की कोशिश करना चाहता था. भीड़ लगातार शोर मचा रही थी. मैंने इस बीच कई लोगों से बात की. लोग बस मुसलमानों को दोष दे रहे थे. किसी को भी यह नहीं पता था कि सीएए किस तरह मुसलमानों से उनके धर्म के आधार भेदभाव करता है. बाद के इंटरव्यू में भी कई लोगों ने मुझसे कहा था कि उनको कानून की जानकारी नहीं थी. 

भीड़ के बीच मुझे बिल्कुल अंदाजा नहीं था कि दूर खड़ी पुलिस की गाड़ी के पास मेरा कलीग मुझसे जायदा खतरे में था. मैंने थोड़ी देर बाद जेब से फोन निकाल कर टाइम देखना चाहा कि तभी देखा कि शाहीन के कई मिस्ड कॉल्स थे. मैंने तुरंत ही उसे फोन किया. शाहीन ने कहा, "जल्दी आ जाओ. हमें निकलना चाहिए यहां से". मैं भाग कर उस जगह पर गया मगर शाहीन वहां नही था. वह तेज रफ्तार से आगे बढ़ता जा रहा था. जब हम मिले तो शाहीन ने बताया कि मेरे जाते ही एक झुंड ने उसे घेर लिया था और उसका नाम पता पूछने लगी. मुझसे गलती यह हुई की मैंने जो उसे सरनेम दिया था वह उत्तर भारत के वैश्य समुदाय का था. जबकि शाहीन की हिंदी से तुरंत जाहिर हो जाता कि वह उत्तर भारत का नहीं है. शाहीन ने बताया कि लोग उसके साथ हातापाई करने ही वाले थे कि एक दूसरे झुंड ने कुछ दूरी पर एक "मुल्ले" को पकड़ लिया और पीटने लगी. शाहीन को घेरी खड़ी भीड़ भी उस तरफ भागी. तभी शाहीन मौका देख कर तेज रफ्तार में वहां से दूर भागने लगा. 

संभवतः उस रात शाहीन के साथ भी वही होता जो मौजपुर की भीड़ ने उस "मुल्ले" के साथ किया होगा. हम दोनों ही अब मौजपुर से आगे वजीराबाद की तरफ बढ़ रहे थे. मौजपुर से कुछ ही दूर पर एक मुस्लिम इलाके, विजय पार्क, से हमें फोन आया था कि वहां उन्हें ऊपर घेर कर हमला किया जा रहा है. उस इलाके के कई लोग को घर आते हुए मौजपुर पर खड़ी भीड़ ने पीटा था. हम जब पहुंचे तो वहां के एक बाशिंदे हमें एक नुक्कड़ पर ले गए जहां फर्स्टएड रखा था. कॉलोनी में इतने लोग घायल थे कि दवाएं कम पड़ रही थीं. सब एक-दूसरे की मदद कर रहे थे. आदमियों की आंखें देख कर लगता था वे कई रातों से सोए नहीं थे. उनकी आंखों के चारो तरफ काला धब्बा हो गया था. उनकी आवाज भी बैठ गई थी. हमने एक से पूछ ही लिया कि शायद आप सोए नहीं है. उन्होंने कहा, “जब से मौजपुर पर हिंदुओं की भीड़ इकट्ठी हुई है हम रातों को सो नहीं पाते. लगता है कहीं से "आरएसएस वाले" हम पर हमला न कर दें.” हमने उस कॉलोनी के कई घायल मुसलमानों को इंटरव्यू किया. उनमें से कई डर के मारे हॉस्पिटल भी नहीं गए थे. फर्स्टएड से ही काम चला रहे थे. घायल मर्दों को इंटरव्यू कर हम एक अधेड़ उम्र की महिला से बात ही कर रहे थे की जय श्रीराम के नारे सुनाई देने लगे. मोहल्ले के सारे लड़के एग्जिट की तरफ भागने लगे ताकि भीड़ को बाहर की तरफ धकेल दिया जाए. हमें महिला का इंटरव्यू बीच में ही बंद करना पड़ा. शाहीन कैमरा और माइक बैग में रखने लग गया. वह महिला खुद को वापस अपने घर में बंद करती, उससे पहले उस महिला ने कहा "बेटे रुक जाओ". हम एकदम से रुक गए. हमने देखा वह आंखें नीची कर दुआ पढ़ रही थीं. उन्होंने दुआ पढ़ने के बाद, हमें फूंका, फिर कहा, "अब जाओ, अल्लाह तुम्हारी हिफाजत करेगा". मोहल्ले के मौजपुर रोड वाले एग्जिट पर बहुत सारी पुलिस खड़ी थी. वह हमें गुस्से से देख रही थी. हमने पूछा, "सर, इधर से सेफ होगा"? सारे पुलिस वाले हमे बस गुस्से से देख रहे थे. कुछ जवाब न आने पर हम वापस मौजपुर ट्रैफिक सिग्नल की तरफ चल पड़े. इस बार सड़क के किनारे-किनारे पुलिस से नजदीकी बनाए हुए हम दोनों ने सिग्नल क्रॉस किया. 

अगली सुबह स्टोरी फाइल कर मैं शाम तक फिर निकल गया. मगर 25 फरवरी की रात मैं सीलमपुर के पार नहीं जा पाया. पूरा मौजपुर, बाबरपुर, गोकलपुरी, चांद बाग, खजूरी खास सब लॉकडाउन में था. मुसलमानों के घरों के जलने के वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे थे. 26 की सुबह जब मैं गया तो मौजपुर से लेकर गोकलपुर तक कई घर और दुकानें जला दी गई थीं. मैं 27 फरवरी को खजूरी खास पहुंचा. सबसे जायदा तबाही इसी इलाके में हुई थी. दंगाइयों ने पूरा मोहल्ला ही जला दिया था. मुसलमानों की मस्जिद, घर, दुकान कुछ भी नहीं छोड़ा था. हम नाले के किनारे बसे भागीरथ नगर के हिंदू इलाके भी गए. मगर वहां तबाही उतनी नहीं थी जितनी मुस्लिम इलाकों में थी. वह पूरा हफ्ता लोगों से मिलने में निकल गया. कई लोगों को अब भी अपनों की तलाश थी. इस दरमियान एक वाकया यह भी हुआ कि एक इंटरव्यू के दौरान गोकलपुरी के उच्च जाति के लोगों को जब मेरे दलित होने का संदेह हुआ तो मुझसे बदतमीजी करने लगे. एक पत्रकार होने के नाते मैं लोगों को सिर्फ अपना नाम बताता हूं. मेरे नाम से वे खुद ही मेरी जाति का अनुमान लगा लेते है. दिल्ली दंगे में हिंदुओं का आक्रोश दलितों के प्रति भी था क्योंकि वे मुसलमानों के साथ खुल कर आए थे. मेरा दलित होना मुझे उनके बीच असुरक्षित करता था. मगर गोकलपुरी के राजपूतों ने मेरे नाम से मेरे राजपूत होने का अनुमान लगा लिया था. मैंने उनके अनुमान को बदलने की कोशिश नहीं की. मैं अपने आसपास के माहौल को समझ रहा था. इंटरव्यू भी मैं एक मंदिर के परिसर में कर रहा था. वहां सिर्फ ब्राह्मण और राजपूत बैठे थे. जबकि मेरे साथ मेरा सिर्फ एक पत्रकार मित्र था. मगर जब मैं उन्हें सवाल करने लगा तो उन्हे मेरी जाति पर शक हुआ. वह मुझसे पूछने लगे कि क्या मैं सचमुच राजपूत हूं. मैं चुप हो गया. न मैंने उनसे यह कहा कि मैं राजपूत नहीं हूं और न मैंने उनसे कहा मैं दलित हूं. वे हिंसक होते इससे पहले मेरे पत्रकार दोस्त ने जो खुद जाति से राजपूत थे, भीड़ को मेरे राजपूत होने का यकीन दिला दिया. हालात को देखते हुए मैंने अपने मित्र को माना भी नहीं किया. हम इंटरव्यू के बाद मंदिर से सही सलामत वापस निकल आए. 

दिल्ली में हुए मुस्लिम विरोधी दंगों में जला दी गई एक बिल्डिंग. फोटो : शाहीन अहमद

24 फरवरी से फरवरी के आखिर तक यही सिलसिला चला. मैं हर रोज उन लोगों से मिलता जिनके घर, दुकान जला दिए गए थे, जो रेफ्यूजी की तरह मस्जिदों और चैरिटी के मकानों में रह रहे थें. हम हिंदू इलाके भी जाते मगर वहां अक्सर लोग दंगों में हुए खुद के नुकसान को दिखाने के बजाए पूरा समय यह बताते कि मुसलमानों को क्यों देश से भगा देना चाहिए. और यह भी कि मोदी को जरूर एनआरसी लाना चाहिए. दंगों के तीन दिन बाद केंद्रीय पुलिस बल के तैनात होने पर जब मामला शांत हुआ तो खजूरी खास में वापस लौटते लोग रोते बिलखते नजर आए. गाली नंबर 11 में किसी की बहन की शादी के लिए रखे जेवर और पैसे लूट गए थे, तो कहीं मलवों में बच्चों की किताबें दबी थीं. दंगाइयों ने उस गली की मस्जिद को भी जला दिया था. 

जब दंगाइयों का खौफ खत्म हुआ तो पुलिस की मार शुरू हुई. किसने गुनाह किया था, किसने नहीं, इस बात से पुलिस को शायद ही मतलब था. क्राइम ब्रांच वालों ने मोबाइल टावरों से डंप डाटा मंगवाया था. उसमें से उन्होंने नंबर निकाले और फिर उन नंबर से लोगों की लोकेशन देखते और उन्हें घरों से उठा लेते. दंगाइयों ने मुसलमानों के मोहल्ले पर हमला बोला था तो जाहिर सी बात थी कि उस वक्त पीड़ितों की कॉल लोकेशन भी दंगों की जगह पर ही बताता. पुलिस यहीं नहीं रुकी. पुलिस ने फेस मैच टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया. सीसीटीवी में कैद चेहरों को लोगों की वोटर आईडी कार्ड और ट्रैफिक लाइसेंस से मैच किया गया. अमित शाह ने संसद में कहा था कि मशीन किसी का धर्म नहीं देखती. मगर उन्होंने यह नहीं कहा कि सिर्फ मुसलमान इलाके में लगी मशीनों में चेहरे देखेंगे तो उनमें पीड़ित और दंगाइयों दोनों का चेहरा होगा. मशीन यह भी नहीं बताती कि कौन पीड़ित और कौन दंगाई है. लोगों के इंटरव्यू से मुझे समझ आया कि पुलिस ने एकतरफा कार्रवाई की थी. सैंकड़ों मुसलमान लड़कों को उठाया था और उन्हें थाने में पीटा भी था. यह किसी से छिपा नहीं था कि दिल्ली पुलिस दंगों के दौरान दंगाइयों के साथ मिल कर मुसलमानों पर पथराव कर रही थी. कई पीड़ितों ने हमें बताया था कि पुलिस कई बार 10 कदम पर ही खड़ी होती थी मगर दंगाइयों से उन्हें बचाने नहीं आती थी. 28 फरवरी को जब कुछ केंद्रीय पुलिस बल के जवानों से बात करने का मौका मिला तो उन्होंने कहा था वे राज्य पुलिस की तरह नहीं होते. हालांकि दिल्ली पुलिस अन्य राज्यों की पुलिस से अलग है. उनका ऑपरेशनल संचालन केंद्रीय गृह मंत्रालय करता है. जवानों ने मुझे बताया कि उन्हें नहीं पता होता है कि कौन मुसलमान है और कौन हिंदू. जब मैने उनसे पूछा कि फिर वे 24 और 25 फरवरी को क्यों नहीं आए लोगों को बचाने, तो उनके पास इसका जवाब नहीं था. वे सिर्फ जवान थे, कोइ आधिकारी नहीं. उन्होंने कहा वे तभी आए जब उन्हें आदेश हुआ. 

इन सबके के बीच मैं एक जरूरी व्हाट्सएप मैसेज मिस कर गया था. उस वक्त कई मैसेज आते थे. उनमें ज्यादातर मुसलमान इलाकों से होते थे जो मदद की गुहार लगा रहे होते थे. वे चाहते थे कि कोई मीडिया दिखाए कि उनके साथ पुलिस और दंगाई क्या ज्यादती कर रहे हैं. यह वह वक्त था जब एक पत्रकार होने के नाते हमें अपना काम प्राइऑरटाइज करना पड़ता था कि जिनकी फैमिली मार दी गई है दंगों में उनके पास जाएं या जिनका सिर्फ घर जला है. जो मैसेज मैंने मिस किया था वह विजय पार्क के एक निवासी का था जो उन्होंने हमें 25 फरवरी को भेजा था. मैसेज में नाम और पता था विजय पार्क के एक दूसरे निवासी का जिनको 25 फरवरी की दोपहर को दंगाइयों ने गोली मार दी थी. मरने वाला शख्स कोई और नहीं बल्कि 35 वर्षीय मुहम्मद मुबारक थे. मुबारक को हमने मुश्किल से 12-14 घंटे पहले ही इंटरव्यू किया था. मुबारक रिक्शा चलाते थे और विजय पार्क में किराए पर रहते थे. वह मूलतः झारखंड के थे. उस रात उनकी आंखों के ऊपर गहरा जख्म था. दंगाइयों ने उन्हें घर आते हुए तलवार से मारा था. इस बात की खबर मुझे और शाहीन को 7-8 महीने बाद मिली जब किसी ने मुबारक की आखिरी वीडियो, जिसे हम लोगों ने ही शूट किया था सोशल मीडिया पर शेयर की. शाहीन ने मुबारक के मरने की पोस्ट मुझसे शेयर की और लिखा, “हमने इनको इंटरव्यू किया था”. हमने इस बारे फिर कोई बात नहीं की.

जो कुछ भी दिल्ली में हुआ इसकी झलक हम एक महीने पहले बिजनौर और कानपुर में भी देख आए थे. उत्तर प्रदेश में तो जिन मुसलमानो के परिजन मरे, उनको ही मुकदमा भी झेलना पड़ा. जिनकी दुकानें जलीं, उन्हें ही मुआवजा देना पड़ा. कानपूर में एक आंदोलनकारी ने कहा कि वह चुप रहे जब बची हुई बाबरी मस्जिद को अदालती फसलों के बाद गिरा दिया गया, वह चुप रहे जब ट्रिपल तलाक के नाम पर उनके समुदाय को क्रिमिनलाइज किया गया, क्योंकि अगर इन मामलों के लिए वे आंदोलन करते तो लोग उन्हें कहते कि वे सिर्फ धर्म के लिए लड़ते हैं. उन्होने कहा कि सीएए पहला मौका था जब वे बहुसंख्यकों के आरोप को नाकार कर अपने संवैधानिक हक के लिए लड़ रहे थे. सीएए इस मायने में एक बहुत ही महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक आंदोलन था. संविधान को आधार मानकर अभी तक सिर्फ दलित संघर्ष करते आए थे. इस देश में देशव्यापी आंदोलन ज्यादातर धर्म को आधार बना कर हुए हैं. सीएए आंदोलन को ऐसी औरतों ने लीड किया था जिनकी पहले कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं थी. यह दुर्भाग्य था कि इस आंदोलन को बहुसंख्यक समुदाय, मीडिया, पुलिस या यहां तक कि न्यायलयों का सहयोग नहीं मिला. दलितों ने यह सब कुछ इस देश में पहले ही अनुभव कर रखा था. शायद इसलिए सीएए के खिलाफ आंदोलन में वे अकेले जमीन पर मुसलमानों के साथ खड़े नजर आए. यह एक ऐसा साथ था जो हिंदू धर्म की हैजिमनी को चैलेंज कर रहा था. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक रहे प्रधानमंत्री मोदी ने दिल्ली चुनावों के दौरान दलितों पर चुटकी लेते हुए कहा कि भगवान ने “थोड़ी सी (बुद्धी) दी है तो उसका प्रयोग करो". उन्होंने कहा कि तीनों देशों से आए ज्यादातर रेफ्यूजी दलित ही हैं. प्रधानमंत्री ने यह नहीं बताया कि लोग किसी को नागरिकता प्रदान करने का विरोध नहीं कर रहे थे बल्कि कानून से अपने बहिष्करण का विरोध कर रहे थे. यह बात भी सही थी कि सीएए के बाद अगर सरकार एनआरसी लाती तो आसाम की तरह पूरे देश में भी सबसे ज्यादा बाहर होने वाली कम्युनिटी दलितों की होती क्योंकि बहुत कम दलितों के पास अपनी जमीन है. 

सरकार ने कभी भी इस बात का भरोसा नहीं दिलाया कि सीएए के बाद वह एनआरसी कभी नहीं लाएगी. मार्च 2020 में अमित शाह ने कहा था कि सरकार के पास एनआरसी का तत्काल कोई प्रस्ताव नहीं है. मगर शाह ने इसका भरोसा कभी नहीं दिया कि भविष्य में सरकार सीएए का इस्तेमाल एनआरसी से बाहर हुए हिंदुओं को बचाने के लिए नहीं करेगी. 

अपनी नागरिकता को लेकर मुसलमानों में भय जायज था. उसी साल उन्होंने देखा था कि किस तरह 19 लाख लोग असम में बांग्लादेशी करार दे दिए गए थे. एनआरसी किस तरह लाखों लोगों की जिंदगी तबाह कर सकता है इसको मैंने बहुत करीब से देखा था. दिल्ली और उत्तर प्रदेश में आंदोलन कवर करने से पहले मैं सितम्बर में असम में उन लोगों से मिलने गया था जिनका नाम एनआरसी में नहीं आया था और अब उन्हें विदेशी प्राधिकरणों में अपनी नागरिकता साबित करनी थी. अभी उनकी सुनवाई शुरू नहीं हुई थी मगर असम में विदेशी नागरिकों को पकड़ने का अभियान पहले से चलता आया है. वहां पहले ही लाखों लोगों को सरकार ने संदेहास्पद (डाउटफुल) वोटर घोषित कर दिया था. ऐसे लोगों की भी सुनवाई प्राधिकरणों में होनी थी. ऐसे न्यायलयों में न मीडिया अलाउड होता है और न जनता. इन न्यायलयों में सिर्फ अभियुक्त और उनके वकील होते है. मैंने लगभग एक सप्ताह गुवाहाटी में इन प्राधिकरणों के बाहर खड़े होकर वहां आने वाले हर अभियुक्त को इंटरव्यू किया. सारे अभियुक्त जिन पर बांग्लादेशी होने का आरोप था वे बेहद गरीब थे. उनमें औरतें और बच्चे भी थे. वे सब कामकाजी मजदूर थे. उनकी सारी पुश्तें शायद इस देश में ही मेहनत करते-करते मरे होंगे. उन्होंने पहले कभी न्यायलय नहीं देखा था और न वे कानून समझते थे. उनके पास वकील रखने तक के पैसे नहीं थे. ऐसे न्यायलायों में बचाव पक्ष के वकील अक्सर प्रो बोनो (निशुल्क) काम करते थे. ये वकील अधिकांशतः खुद भी मुसलमान थे. वे जानते थे कि जिनको बांग्लादेशी करार दिया गया है वे सिर्फ बदकिस्मत थे जो अपने कागज नहीं जुटा सके थे. यह प्रक्रिया ऐसी थी जिसमें अगर आपके एजुकेशन सर्टिफिकेट और आधार कार्ड में खुद का नाम, पिता का नाम, घर के पते की एक स्पेलिंग भी एक दूसरे से अलग होती थी तो उन्हे बांग्लादेशी घोषित कर दिया जाता था. कई मामले ऐसे थे जिनमें एक ही परिवार के कुछ सदस्य नागरिक घोषित किए गए थे तो कुछ बंगलदेशी. ब्रह्मपुत्र नदी के बीच एक टापू, लखीपुर, में बसे सभी लोगों की नागरिकता चली गई थी. उन्हें एनआरसी के बारे में पता ही नहीं था जब तक कि एक दिन अचानक एक सरकारी आदमी ने उनके टापू पर आकर बताया कि वे लोग बांग्लादेशी हैं. टापू के सारे लोग अपनी गुजर-बसर मछली मार कर, खेती कर और अपने मवेशियों का दूध बेच कर करते हैं. उनका मुश्किल से कभी मेनलैंड आना होता था. ऐसे में एक दिन अचानक सारे लोगों को पता चला कि अब वे इस देश के नागरिक ही नहीं रहे. 

एनआरसी एक बहुत बड़ी मानवीय त्रासदी है. हर भारतीय को इसे रोकने का प्रयास करना चाहिए. विदेशियों के गैर कानूनी तरीके से प्रवेश को रोकने के लिए हमारे देश में पहले से ही कई व्यवस्थाएं हैं. इसके लिए अलग से फौज और पुलिस की भी व्यवस्था है. एनआरसी को कभी भी इस देश के लोगों पर इस्तेमाल नहीं होने देना चाहिए. यह देश को बांट सकता है. सीएए की हर बहस में यह जरूरी है कि हम एनआरसी की भी बात करें. इसे इसके हालिया स्वरूप में एनआरसी से अलग करके नहीं देखा जा सकता है. यह कानून सचमुच में भारत जैसे जनतांत्रिक देश की दरियादिली को साबित कर सकता है अगर इसमें धर्म के आधार पर नागरिकता देने के बजाए यातना को ही आधार बनाया जाता है, जैसा संविधान विशेषज्ञों ने सुझाव दिया था. किसी भी धर्म का नाम लिखे बिना कानून में हर तरह की प्रताड़ना से पीड़ित लोगों को शरण व नागरिकता दी जानी चाहिए. एक ऐसा कानून जो म्यांमार के रोहिंग्या और पाकिस्तान के हिंदुओं के बीच फर्क न करे, जो श्री लंका के तमिल हिंदू और पाकिस्तान के सिखों के बीच फर्क न करे. भारत सरकार को हर प्रताड़ित व्यक्ति को सरंक्षण देना चाहिए.


सागर कारवां के स्टाफ राइटर हैं.