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“हालांकि हमें चिंता नहीं करनी चाहिए लेकिन समाचार रिपोर्टें निश्चित तौर पर बेचैन करने वाली हैं”. ऐसा कहना था बांग्लादेश के विदेश मंत्री एके अब्दुल मोमिन का. मोमिन भारत सरकार की राष्ट्रीय नागरिक पंजिका परियोजना या एनआरसी के बारे में एक टीवी चैनल में बोल रहे थे जिसका मकसद असम में अवैध आव्रजक की पहचान कर उन्हें नागरिकता से विहीन करना है. पिछले साल एनआरसी ने प्रोविजनल तौर पर 40 लाख अवैध लोगों की पहचान की थी- कुछ अपवाद को छोड़ दें तो ये सारे के सारे लोग मुसलमान हैं. भारत के आधिकारिक नैरेटिव में इन्हें “बंगाली घुसपैठिए” कहा जाता है. मोमिन का यह बयान बांग्लादेश सरकार की एनआरसी को लेकर चिंता की पहली सार्वजनिक स्वीकृति थी. मोमिन ने उस टीवी चैनल से कहा कि एनआरसी में जिन लोगों को बाहर किया गया है “वे लोग वहां 75 सालों से भी ज्यादा वक्त से रह रहे हैं. वे लोग भारत के नागरिक हैं, यहां के नहीं.”
भारत ने अभी यह नहीं बताया है कि एनआरसी के तहत जिन लोगों को बाहरी करार देकर देश विहीन बना दिया जाएगा उनके साथ वह क्या करेगी. लेकिन बांग्लादेश में शायद ही कोई हो जो यह न समझता हो कि इसके निशाने पर कौन लोग हैं. कई लोग इस बारे में मोमिन से भी ज्यादा कड़ी चेतावनी दे रहे हैं. बांग्लादेश के विदेश मंत्रालय के एक थिंक टैंक के शोध निदेशक शाहीन अफरोज ने मुझे बताया, “एनआरसी के तहत निशाना बनाए जा रहे असम के मुसलमान भारत का आंतरिक मामला बस नहीं हैं क्योंकि इस प्रक्रिया का मकसद इन लोगों को बांग्लादेश भेजना है.”
बांग्लादेश को इस तरह की त्रासदी पहले भी भोगनी पड़ी है. पहली त्रासदी बहुसंख्यक बौद्ध देश म्यांमार के साथ उसकी अंतरराष्ट्रीय सीमा में हुई. वहां भी रोहिंग्या मुसलमानों को, जो पीढ़ियों से उस देश में रहते आए हैं, अवैध करार कर दिया गया. क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ के लिए उन्हें “बांग्लादेशी” बताया गया. 2017 से हाल तक म्यांमार से जबरन बेदखल कर दिए गए रोहिंग्याओं की संख्या नौ लाख से अधिक है.
मोमिन ने जुलाई में कहा था, “हम 11 लाख रोहिंग्या शरणार्थी की समस्या का सामना कर रहे हैं. इसलिए हम और लोगों को नहीं रख सकते.” इस बारे में अफरोज का कहना हैं, “इस मामले को सतर्कता के साथ हैंडल करना होगा और भविष्य में आने वाली जरूरत के हिसाब से नीति विकल्प बनाने होंगे. हम रोहिंग्या जैसे दूसरे संकट का सामना नहीं कर सकते.” पिछले साल ढाका ट्रिब्यून में प्रकाशित एक समाचार का शीर्षक था, “क्या असम के 16 लाख गैर भारतीय शरणार्थी नए रोहिंग्या हैं?”
रोहिंग्या मुसलमानों के सुरक्षित म्यांमार लौटने की संभावना सिफर है. संयुक्त राष्ट्र संघ चाहे जो भी कहे लेकिन बांग्लादेश यह मान चुका है कि रोहिंग्या यहां स्थाई तौर पर रहने वाले हैं. हालांकि यह औपचारिक तौर पर नहीं कहा गया है. अंतरराष्ट्रीय सहायता के बावजूद शरणार्थियों को रखना बांग्लादेश पर भारी पड़ रहा है और इनकी उपस्थिति राजनीति का पेचीदा मामला बन गई है. जबकि यह साफ है कि बांग्लादेश भारत से आने वाली शरणार्थियों की एक और बाढ़ को बर्दास्त नहीं कर पाएगा, इसके बावजूद भारत ने इस संबंध में बांग्लादेशी अधिकारियों से ज्यादा चर्चा नहीं की है. एनआरसी से बांग्लादेश में जो संकट पैदा होगा वह म्यांमार से रोहिंग्या की बेदखली से पैदा हुए संकट से बड़ा होगा. दिल्ली की सत्ता में बैठे लोग शायद इस बात की ज्यादा परवाह नहीं करते कि उनकी घरेलू नीतियों से पड़ोसी देशों पर क्या असर पड़ता है. उनका व्यवहार अदूरदर्शी है. एनआरसी से पैदा होने वाली समस्या दोनों देशों के बीच के संबंध पर दरार डालेगी और भारत को इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि अन्य पड़ोसियों के मुकाबले बांग्लादेश के साथ उसके संबंध बेहतर हैं. इसके अलावा इसका असर भारत के अंतरराष्ट्रीय हितों पर भी पड़ेगा.
भारत का सबसे नजदीकी पड़ोसी बांग्लादेश है. वर्तमान प्रधानमंत्री शेख हसीना और उनकी पार्टी आवामी लीग के कार्यकाल में दोनों देश के संबंध मजबूत बने रहे. बांग्लादेश में भारत की छवि अच्छी नहीं है. जैसे भारत में मुसलमानों को पाकिस्तान समर्थक माना जाता है उसी प्रकार बांग्लादेश के हिंदुओं को भारत समर्थक के रूप में देखा जाता है. शेख हसीना की अवामी लीग भारत और हिंदुओं के खिलाफ शत्रुता का भाव नहीं रखती. लेकिन उसकी प्रतिद्वंद्वी पार्टी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) ऐसी नहीं है. खासतौर पर बीएनपी के नेतृत्व सहित बांग्लादेश की अन्य सरकारों ने कथित तौर पर पूर्वोत्तर भारत के उग्रवादी समूहों को पनाह दी और हथियार और अन्य आपूर्ति का रास्ता दिया. ऐसा माना जाता है कि हसीना ने उस नीति को बदला और उन्हें दिल्ली की प्रशंसा भी मिली. उनके आलोचक यहां तक कहते हैं कि दिल्ली के समर्थन से वह सत्ता में बनी हुई हैं. इसके अलावा एक और बात है- बीएनपी की सरकार के दौरान पाकिस्तान की गुप्तचर संस्था आईएसआई को बांग्लादेश में काम करने की सहजता थी लेकिन हसीना के कार्यकाल में आईएसआई को दुश्मन की तरह देखा जाता है और पाकिस्तान के साथ देश के संबंध ठीक नहीं हैं. भारत और बांग्लादेश के बीच व्यापार भी खूब हो रहा है. बांग्लादेश का दूसरा सबसे बड़ा आयातकर्ता देश भारत है. दोनों देश के बीच व्यापक सामाजिक और सांस्कृतिक संबंध है. 1971 में भारत की मदद से बांग्लादेश पाकिस्तान से आजाद हुआ था.
इसके बावजूद दोनों देश के संबंध में तनाव देखा गया है. दोनों देश की सीमाओं से होकर बहने वाली नदी के जल को लेकर विवाद है. गंगा नदी के बांग्लादेश में प्रवेश पर नियंत्रण के लिए बने फरक्का बैराज के चलते लगातार तनाव बना हुआ है. तीस्ता नदी को लेकर प्रस्तावित ऐसा ही एक समझौता अभी तक पूरा नहीं हो पाया है. जल के सवाल पर बांग्लादेश भारत से हार मान चुका है.
उपरोक्त विषय भारत-बांग्लादेश संबंध के प्रमुख आयाम हैं. लेकिन इन दोनों देशों के संबंधों को द्विपक्षीय रूप में सीमित कर नहीं देखा जाना चाहिए. बल्कि इसे चीन के साथ मिला कर त्रिपक्षीय स्तर पर समझना जरूरी है. बांग्लादेश के लिए चीन आयात के मुख्य स्रोत देश और व्यापार साझेदार के रूप में आगे आ रहा है. वह भारत का स्थान ले रहा है. 2016 में चीन की महत्वाकांक्षी बेल्ट एंड रोड परियोजना में बांग्लादेश शामिल हो गया. (यहां तक कि हसीना ने मध्यस्थकर्ता की भूमिका निभाते हुए भारत को भी इस परियोजना में शामिल होने का निमंत्रण दिया था.) इस परियोजना का भारत कड़ाई से विरोध करता है. बांग्लादेश में चीन अरबों डॉलर का निवेश कर रहा है जो लगातार बढ़ता जा रहा है. साथ ही चीन हाई-प्रोफाइल और राजनीतिक रूप से मूल्यवान समझे जाने वाली आधारभूत ढांचा परियोजनाओं से जुड़ रहा है. ऐसी ही एक परियोजना पद्मा नदी के ऊपर बन रही पद्मा सेतु है. यह सड़क और रेल लिंक है जो भौगोलिक कारणों से अलग-थलग पड़े दक्षिण-पश्चिम को जोड़ता है. चीन बांग्लादेशी सेना को हार्डवेयर आपूर्ति करने वाला सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता देश है. चीन जो व्यापार बांग्लादेश में ला रहा है उसके कारण बांग्लादेश की सेना और बड़े व्यापारियों में उसकी दोस्ती गहरी हुई है और अब बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव सहित चीनी निवेश के पक्ष में बांग्लादेश में एक बड़ी लॉबी है. इसके बरअक्स बांग्लादेश के राजनीतिक और सांस्कृतिक वर्गों के साथ भारत के मजबूत संबंध हैं.
2017 में रोहिंग्याओं की बेदखली से नाराज बांग्लादेश ने इस क्षेत्रीय कूटनीतिक संकट को त्रिपक्षीय रूप में देखा. 1977 और 1992 में म्यांमार से बेदखल किए गए रोहिंग्याओं को अंतरराष्ट्रीय दबाव में वापस लेना पड़ा था. फिलहाल राष्ट्र संघ शक्तिहीन है और बांग्लादेश अपने दो बड़े क्षेत्रीय सहयोगियों से मदद चाहता था. लेकिन अपने स्वार्थों की खातिर दोनों देशों ने इस मामले में, प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से, म्यांमार का पक्ष लिया. भारत- बांग्लादेश संबंध के इतिहास को देखते हुए बांग्लादेश को उम्मीद नहीं थी कि भारत ऐसा करेगा. लेकिन इसके बावजूद दोनों देशों के व्यापार संबंधों पर असर पड़ने नहीं दिया. हालांकि लोगों को आशंका है कि भारत के प्रति दोस्ताना नीति रखने वाली हसीना के राजनीतिक प्रभाव पर इसका असर पड़ेगा. यह भी संभव है कि रोहिंग्या शरणार्थियों को बांग्लादेश में रखने के खिलाफ लोग भड़क जाएं क्योंकि उन्हें बाहरी और बांग्लादेश पर भार माना जाता है. लेकिन हसीना ने तब भी 2018 का चुनाव जीत लिया.
यदि असम से शरणार्थियों की बाढ़ आती है तो इस बात पर कोई संदेह नहीं है कि बांग्लादेश में भारत के प्रति असंतोष पैदा होगा और 1971 की यादें भी इस असंतोष को फैलने से नहीं रोक सकेंगी. अधिकांश बांग्लादेशी रोहिंग्या मुसलमानों के मुकाबले असम के मुसलमानों के साथ सांस्कृतिक और भाषाई नजदीकी महसूस करते हैं इसलिए असम के मुसलमानों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार का गंभीर असर घरेलू राजनीति और क्षेत्रीय कूटनीति पर पड़ेगा. इससे चीन को फायदा होगा और भारत को अपनी ऐतिहासिक, सामाजिक और राजनीतिक पूंजी गंवानी पड़ेगी. यह भी हो सकता है कि भारत के खिलाफ जन आक्रोश शेख हसीना को मजबूर कर दे कि वह भारत के प्रति अपने दोस्ताना रवैये में संशोधन करें. अगर ऐसा होता है तो इससे चीन का आर्थिक और राजनीतिक प्रभाव बढ़ेगा और संभवतः बांग्लादेशी भूभाग में चीन का सैन्य प्रभाव बढ़े और इसके जल क्षेत्र में उसकी नौसैनिक की उपस्थिति में वृद्धि हो. भारत पहले ही जता चुका है कि ऐसा होना उसके लिए नागवार है.
ढाका ट्रिब्यून के संपादक जफर सोभन बताते हैं, “इसके तीन नुकसान हो सकते है : एक, भारत विरोधी भावना तीव्र होगी. दो, सरकार विरोधी भावना बढ़ेगी जिससे उन लोगों को बोलने का मौका मिलेगा जो यह दावा करते हैं बांग्लादेश सरकार भारत की जेब में है और तीन, इसका असर बांग्लादेश में रह रहे हिंदुओं पर पड़ेगा.
सोभन को ऐसा नहीं लगता कि असम के मुसलमानों के संबंध में भारत एकतरफा फैसला करते हुए बांग्लादेश से बातचीत किए बिना लोगों को बेदखल कर देगा. यह बेदखली कितनी बड़ी होगी इस बात का अनुमान लगाना नामुमकिन है लेकिन इतना जरूर होगा कि इसके सामने रोहिंग्या शरणार्थी संकट बौना नजर आएगा. सोभन को इस संकट की गंभीरता पर कोई संदेह नहीं है. वह कहते हैं, “एनआरसी कोई राजनीतिक नारेबाजी या चुनाव जीतने का खेल भर नहीं है. यह एक ऐसी नीति है जिस पर भारत सरकार के बहुत से लोग यकीन रखते हैं.” फिलहाल सवाल यह नहीं रह गया है कि क्या बांग्लादेश के सामने अगला शरणार्थी संकट खड़ा होगा. बल्कि सवाल है कि यह कब होगा?