असम एनआरसी : अपने ही देश में शरणार्थी हो जाने का दर्द

अशरफ अली उन भारतीयों में हैं जिन्हें असम के राष्ट्रीय नागरिक पंजिका की नवीनीकरण प्रक्रिया में विदेशी नागरिक करार दे दिया गया. जिस रात उन्हें गिरफ्तार किया गया उसे याद करते हुए उनकी बीवी तारा खातून कहती हैं, “हम लोगों को ऐसे घेरा जैसे हम लोग आतंकवादी हों, जैसे हम बाहर से आए हों”. शाहिद तांत्रे/कारवां
21 December, 2018

12 अगस्त 2015 को रात करीब एक बजे , पश्चिमी असम के उदालगुरी जिले के सोनाजुली गांव के 38 वर्षीय किस्मत अली और उनका परिवार गहरी नींद में था जब उनके दरवाजे पर जोर की दस्तक सुनाई दी. “किस्मत, किस्मत” कोई उनका नाम पुकार रहा था. किस्मत ने दरवाजा खोला तो देखा कि असम सीमा पुलिस ने उनके मकान को चारों ओर से घेर लिया है. वे लोग किस्मत को जबरदस्ती अपने साथ पुलिस स्टेशन ले गए. उन लोगों ने गिरफ्तारी का कारण किस्मत को नहीं बताया. जाते वक्त पुलिस वालों ने उनके गांव के 40 वर्षीय अशरफ अली को भी हिरासत में ले लिया. उदालगुरी पुलिस स्टेशन में पुलिस अधिकारियों ने एक बयान में किस्मत से जबरन दस्तखत कराया. बयान में लिखा था: “मैं बंगलादेशी हूं”.

किस्मत बताते हैं कि उन्होंने पुलिस वालों को बताया, “मैं हिंदुस्तानी हूं.” फिर उन्होंने पूछा, “मुझे बंगलादेशी क्यों बना रहे हो”. किस्मत बताते हैं कि पुलिस ने उन्हें और अशरफ को धमकी देकर बयान में दस्तखत ले लिए और फिर 200 किलोमीटर दूर गोवालपारा जिले में स्थित डिटेंशन सेंटर (हिरासत केन्द्र) ले गई. असम में ऐसे छह डिटेंशन सेंटर हैं. इन डिटेंशन केन्द्रों में डी-वोटरों को रखा जाता है. डी-वोटर का मतलब है ‘डाउटफुल वोटर यानी संदिग्ध मतदाता’ है. ऐसे लोगों पर असम में गैरकानूनी रूप से रहने का शक है. बाद में किस्मत और अशरफ को विदेशी नागरिकों के लिए अर्ध न्यायाधिकरण ने विदेशी करार दे दिया. एमनेस्टी इंटरनेशनल की हाल की रिपोर्ट में बताया गया है कि 25 सितंबर 2018 तक असम के डिटेंशन केन्द्रों में कैद 1037 लोगों को विदेशी नागरिक करार दिया गया है.

23 नवंबर को एमनेस्टी ने बिटवीन हेट एंड फियर : सर्वाइविंग माईग्रेशन डिटेंशन इन असम नामक एक रिपोर्ट जारी की. यह रिपोर्ट उस वक्त आई जब असम में रह रहे भारतीय नागरिकों की सूची, राष्ट्रीय नागरिक पंजिका (एनआरसी), को नवीनीकरण करने की सर्वोच्च अदालत द्वारा तय अंतिम समय सीमा निकट थी. 30 जुलाई को जारी पंजिका के ताजा प्रारूप से राज्य के लगभग 40 लाख लोग गायब हैं. इस माह के आरंभ में सर्वोच्च अदालत ने पंजिका में नाम डलवाने के दावों और शिकायतों की अंतिम तिथि को बढ़ाकर 31 दिसंबर 2018 कर दिया. पंजिका परियोजना के तहत जिन लोगों का नाम पंजिका से छूट जाएगा उन्हें हिरासत में ले लिया जाएगा.

किस्मत और अशरफ को सर्वोच्च अदालत के दखल और केन्द्रीय अंवेषण ब्यूरो की जांच के बाद भारतीय नागरिक घोषित कर दिया गया. इन के मामलों से पता चलता है कि कैसे एनआरसी संदिग्ध विदेशियों को, खासकर असम के बंगाली मूल के मुसलमान और उसके बाद बंगाली हिंदुओं को प्रक्रिया के प्रत्येक चरण में अलग-थलग करता है. इनमें शामिल हैं जटिल दस्तावेजों की आवश्यकता, जो पंजिका में शामिल होने के रास्ते में कठनाइयां पैदा करती हैं, विदेशी न्यायाधिकरण के समक्ष होने वाली भेदभावपूर्ण कार्यवाहियां, जो अक्सर एकतरफा और बिना कानूनी मदद के होती हैं, और डिटेंशन केन्द्रों में रहने की अमानवीय परिस्थितियां. डिटेंशन में रहने का वक्त भी अनिश्चितता के खौफ से भरा होता है. समझ नहीं आता कि यह सब कब खत्म होगा. किस्मत से बात करते हुए लगता है कि हिरासत का भयावह मंजर अभी भी उसकी स्मृतियों की खिड़कियों से झांक रहा है. बातचीत में किस्मत बार बार दोहराते हैं, “दो साल, दो महीना, 17 दिन.”

एमनेस्टी की रिपोर्ट का लोकार्पण दिल्ली के प्रेस क्लब में हुआ. लोकार्पण के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम के दो सत्रों को एमनेस्टी इंडिया की शोधकर्ता अस्मिता बासु ने मॉडरेट किया. पहली पैनल चर्चा में किस्मत, अशरफ और उनकी बीवी तारा खातून ने अपनी पीड़ा को याद किया. अशरफ की गिरफ्तारी वाली रात को याद करते हुए तारा ने बताय, “हम लोगों को ऐसे घेरा जैसे हम लोग आतंकवादी हों, जैसे हम लोग बाहर से आए हों.”

1971 में पूर्वी पाकिस्तान से अलग कर भारत ने जब बंगलादेश के निर्माण में मदद की, उसके बाद बड़ी तादाद में शरणार्थियों ने असम में प्रवेश किया. इससे बंगला भाषी मुसलमानों और हिंदुओं के प्रति असम के मूल निवासियों में पहले से ही व्याप्त गुस्से को बढ़ा दिया. बहुत पहले से ही यहां रहने वाले मुसलमानों को “बंगलादेशी” कह कर पुकारा जाने लगा था. किस्मत और अशरफ जैसे मुसलमानों को भी इस प्रकार का पूर्वाग्रह झेलना पड़ा. किस्मत के मां-बाप उत्तर प्रदेश के रहने वाले थे जो उनके पैदा होने से पहले काम के सिलसिले में असम आ गए थे. अशरफ काम की तलाश में बिहार से असम आए थे. खुद को भारतीय नागरिक साबित करने के लिए दोनों के पास जरूरी सरकारी दस्तावेज थे लेकिन दोनों को एकतरफा कार्यवाही में विदेशी नागरिक ठहरा दिया गया.

अशरफ को हिरासत में लिए जाने के अगले दिन उनकी बीवी उदालगुरी पुलिस स्टेशन अपने पति की गिरफ्तारी का कारण पूछने के लिए गईं. उन्होंने पुलिसवालों को वे दस्तावेज दिखाए जो बताते थे कि अशरफ बिहार के रहने वाले हैं. “उन्होंने कहा कि इसका क्या करना है.” वो आगे बताती हैं, “हम लोगों ने हिंदी में बोला तो वो कहते हैं असमिया में बोलो.”

हिरासत में खातून ने अशरफ से छह बार मुलाकात की. खातून बताती हैं, “हमें डिटेंशन केन्द्र में पहुंचने में 5 घंटे लगते थे और हर बार 5000 रुपए खर्च हो जाते थे.” दोनों 10 फीट की दूरी से केवल 20-25 मिनट तक बात कर पाते थे और ऐसे में कानूनी मामलों पर बात करना कठिन था. खातून ने बताया कि सीमा पुलिस ने अशरफ को भोजन और दूसरी जरूरी चीजें देने के एवज में उनसे पैसे लिए. यहां तक कि जिन कागजातों के आधार पर उन लोगों ने अशरफ को गिरफ्तार किया था उन कागजातों की फॉटोकॉपी के पैसे भी खातूत से लिए गए.

खातून को जो सहना पड़ा उस पर वह खुल कर बात करती हैं लेकिन उनके पति अधिकतर खामोश रहे. अशरफ कहते हैं, “केवल मैं ही नहीं असम में बहुत सारे लोगों को ऐसा ही झेलना पड़ रहा है.” लेकिन ऐसा लगता है कि वे डिटेंशन केन्द्र की आपबीती बयां नहीं कर पाते. “आज की डेट में भी हम बात नहीं कर सकते.”

असम के डिटेंशन केन्द्र जेल के बैरिकेड किए हुए हिस्से हैं जहां विदेशी नागरिक ठहराए गए लोगों को मुजरिमों या अंडरट्रायल को मिलने वाली सुविधाएं भी नहीं दी जाती. किस्मत और अशरफ ने बताया कि गोलपारा जिले के डिटेंशन केन्द्र में उन्हें 100 लोगों के साथ एक ऐसे कमरे में बंद कर दिया गया जो बामुश्किल 40 लोगों को समा सकता था. दोनों को बाथरूम के करीब एक छोटी जगह दी गई. किस्मत कहते हैं, “जब लोग अपने हाथ धोते थे तो पानी हमपे गिरता था. रात को सो नहीं पाते थे हम.” खाना खराब था इसलिए किस्मत ने पहला महीना चाय पी कर गुजार दिया. अशरफ की ओर इशारा करते हुए किस्मत ने कहा, “ये मुझसे कहता था कि खाना नहीं खाओगे तो मर जाओगे. एक दिन मैंने कहा, ‘ये खाना खाने से तो मर जाना ही अच्छा है.”

इस वर्ष जनवरी में नागरिक अधिकार कार्यकर्ता हर्ष मंदर ने राज्य की एनआरसी परियोजना की जांच के लिए राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के अल्पसंख्यकों के विशेष मॉनिटर के रूप में कोकराझार और गोलपारा डिटेंशन केन्द्र का दौरा किया. मंदर ने देखा कि केन्द्र में रखे गए लोगों को जेल के कैदियों को दिए जाने वाले अधिकार भी नहीं दिए जाते जैसे, “परोल और काम का अधिकार”.

विदेशी नागरिकों के न्यायाधिकरण में निरंतर पेश होने वाले और कार्यक्रम के दूसरे सत्र के एक पैनलिस्ट अमन वदूद ने बताया, “एक मामले में एक बंदी के पिता की मौत हो गई और उसे पिता के अंतिम संस्कार में शामिल होने भी नहीं दिया गया. पिता के शव को डिटेंशन केन्द्र लाया गया और उसने खिड़की से अपने पिता की शक्ल देखी.” जब मंदर ने इन अधिकारों के बारे में जेल के अधिकारी से पूछा तो उसका कहना था, “परोल हम फॉर्नर को तो दे नहीं सकते, हम इंडियन को ही दे सकते हैं.” उन डी वोटरों को भी जिन्हें विदेशी नागरिक घोषित नहीं किया गया है ये अधिकार नहीं दिए जाते.

मंदर का कहना है, “ये डिटेंशन केन्द्र जेल के भीतर जेल की तरह हैं. वहां ऐसे नियम नहीं हैं जो बताएं कि इन बंदियों के अधिकार क्या हैं.” जबकि इन लोगों के साथ कैदियों की तरह व्यवहार नहीं किया जा सकता तो भी केन्द्र में बंदियों के साथ व्यवहार को बताने वाले नियम नहीं हैं.” मंदर का कहना है कि कानून के अभाव में जेल मैनुअल को लागू किया जाना चाहिए लेकिन “इन अधिकारों को बंदियों पर जानबूझ कर लागू नहीं किया जाता.” मंदर ने बताया कि उदाहरण के लिए अधिकांश जेलों में कोर्टयार्ड हैं ताकि बंदियों को सांस लेने की जगह मिल सके. छह में से किसी भी डिटेंशन केन्द्र में ऐसा स्थान नहीं है.

गोलपारा डिटेंशन केन्द्र में रहने की स्थिति के अतिरिक्त बंदियों के प्रति जेल के स्टाफ का व्यवहार हिंसक और घृणा से भरा हुआ होता है. किस्मत ने बताया कि जेल अधीक्षक बंदियों को बंगलादेशी पुकारते थे. उन्होंने आगे बताया कि यदि कोई छोटी सी गलती करे, जैसे खाने की लाइन को तोड़ना, तो अधिकारी ऑफिस में ले जा कर पिटाई करते थे.”

डिटेंशन केन्द्र ने बंदियों की मानसिक हालत पर खराब असर डाला है. खासकर, कोकराझार के महिला डिटेंशन केन्द्र की महिलाओं पर. मंदर ने बताया कि महिला की खराब मानसिक स्थिति को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है. “जब उनको लगता कि कोई उनको सुनने वाला है तो ये सामूहिक मातम करने लग जातीं. औरतें अपने घुटनों पर बैठ जातीं और खुद को पीटने लगतीं.” कुछ महिलाएं अपने बच्चों को डिटेंशन केन्द्र में ही रखना चाहतीं. लड़कों को छह साल की आयु तक डिटेंशन केन्द्र में रहने दिया जाता है और उसके बाद परिवार के पास वापस भेज दिया जाता है. लेकिन बेटियों को अनिश्चितकाल के लिए साथ रहने दिया जाता है. उस कार्यक्रम में एमनेस्टी ने एनसीआर प्रक्रिया पर एक चलचित्र जारी किया. चलचित्र में रोशमीनारा बेगम, जिन्हें 3 महीने की गर्भावस्था में बंदी बनाया गया था, बताती हैं कि “कई औरतें पागल हो गईं. कुछ पेड़ों से बात करने लगीं.”

मानसिक स्वास्थ की चिंताओं के मद्देनजर हर्ष मंदर की टीम के सदस्य अब्दुल कलाम आजाद उन लोगों पर एक स्वतंत्र शोध कर रहे हैं जिन्होंने नागरिकता की अनिश्चितता के चलते खुदकुशी की है. आजाद ने बताया, “2015 में जब एनआरसी शुरू हुआ था तब खुदकुशी के तीन मामले सामने आए थे.” 2018 में ऐसे 19 मामले सामने आए और इनमें से अधिकांश सूची के प्रकाशित होने के बाद आए हैं.” इनमें से अधिकतर लोग बंगाली मूल के मुसलमान और हिंदू और आदिवासी समुदाय कोच राजबोंगशी हैं. आजाद ने बताया कि पीड़ित लोगों के परिवार वालों का आमतौर पर मानना है कि यदि लोगों को अनिश्चित काल के लिए बंदीगृह में रहने को मजबूर किया जाएगा तो बंदी के लिए खुद को खत्म कर लेना अधिक सुविधाजनक उपाय होगा.”

असम के डिटेंशन केन्द्र की अमानवीयता उस प्रक्रिया से और बढ़ जाती है जो अपनी अंतरवस्तु में ही बंगाली मूल के मुसलमानों के प्रति पूर्वाग्रहों से भरी है. विदेशी न्यायाधिकरण में किस्मत और अशरफ के वकील वदूद ने बताया कि निर्वाचन आयोग के रिकॉर्ड या पुलिस की शिनाख्त के आधार पर तय किया जाता है कि कोई विदेशी नागरिक है या नहीं. “आज तक मैंने एक भी मामले में जांच होते नहीं देखी. जांच के अभाव में किसी भी व्यक्ति को विदेशी नागरिक घोषित किया जा सकता है.

किस्मत और अशरफ खुशकिस्मत थे कि उन्हें निशुल्क कानूनी सहायता मिल सकी. एमनेस्टी की रिपोर्ट के मुताबिक केवल 30 प्रतिशत बंदियों को ही कानूनी सहायता मिल पाती है. इसके बावजूद किस्मत और अशरफ को गोलपारा डिटेंशन केन्द्र में 2 साल से अधिक समय तक रहना पड़ा. दोनों 2017 की अक्टूबर में रिहा हुए. हिरासत में लिए जाने के कई साल पहले ही दोनों को विदेशी नागरिक घोषित कर दिया गया था. 2005 में निर्वाचन आयोग ने दोनों को डी वोटर चिन्हित किया था जिसके बाद सीमा पुलिस ने दोनों के मामले को मंगलदाइ शहर के न्यायाधिकरण के पास भेज दिया. दो साल बाद न्यायाधिकरण ने दोनों को एकतरफा फैसले में विदेशी नागरिक घोषित कर दिया. दोनों को इस घोषणा का पता उस वक्त ही चल पाया जब दोनों को गिरफ्तार किया गया.

सर्वोच्च अदालत में दोनों का केस लड़ने वाले एक वकील अनस तनवर ने बताया कि इन लोगों का मामला न्यायाधिकरण में ही हल हो जाता यदि दोनों को निष्पक्ष सुनावई का मौका मिलता. तनवर अक्सर ही एनआरसी संबंधित मामले हाथ में लेते हैं. उन्होंने मुझे बताया, “दोनों के पास राज्य सरकारों के कागजात थे जो साबित करते हैं कि एक बिहार और दूसरा उत्तर प्रदेश का रहने वाला है.”

लेकिन विदेशी न्यायाधिकरण में निष्पक्ष सुनावई बिरले ही होती है. अधिकतर मामलों में न्यायाधिकरण एकतरफा फैसला सुनाता है क्योंकि संदिग्ध विदेशी नागरिकों को न्यायाधिकरण के समक्ष पेश होने का या तो नोटिस नहीं मिलता या वे नोटिस को पढ़ नहीं सकते. दंड प्रक्रिया के स्थापित मानकों से इतर विदेशी नागरिक कानून में आरोपी पर खुद को नागरिक साबित करने का भार होता है. वदूद कहते हैं, “यदि किसी ने हत्या की है तो उस आरोप को साबित करने का भार राज्य पर होता है. ये आरोपी गरीब, सबसे अधिक वंचित लोग हैं जिनके पास कानूनी सहायता पाने के संसाधन नहीं हैं.”

वदूद बताते हैं कि विदेशी न्यायाधिकरण में कार्यवाही के वक्त का माहौल अमूमन संदिग्ध व्यक्ति को डराने वाला और उसके प्रति शत्रुतापूर्ण होता है. “जब आप न्यायाधिकरण के समक्ष पेश होते हैं तो एक किस्म से डरे हुए होते हैं.” वदूद एक घटना को याद करते हैं जिसमें ऐसे ही डर के माहौल के चलते संदिग्ध विदेशी नागरिक के खिलाफ फैसला हो गया. “आरोपी का भाई न्यायाधिकरण के सामने गवाही दे रहा था. उसने सब कुछ सही सही बताया. लेकिन फिर अचानक अपनी बहन का नाम भूल गया.” वदूद का कहना है कि इस प्रकार के विरोधाभाषी बयानों के कारण कई बार भारतीय नागरिकों को विदेशी ठहरा दिया जाता है.

विदेशी न्यायाधिकरण के फैसले के खिलाफ गुवाहाटी उच्च न्यायालय में सुनवाई होती है जो मंहगी और थका देने वाली प्रक्रिया है. जून 2016 में इस हाई कोर्ट ने किस्मत और अशरफ की याचिका को खारिज कर दिया था. दोनों ने उच्च अदालत के निर्णय को सर्वोच्च अदालत में चुनौती दी. तनवर ने याद करते हुए कहा, अपील की सुनवाई कर रहे असम के जज अमिताभ रॉय ने टिप्पणी की, “ये लोग विदेशी नागरिक हैं. ये मेरा राज्य है और मैं इस समस्या को जानता हूं.”

यह अनुमान गलत था. मई 2017 में सर्वोच्च अदालत ने नागरिकता के दावे की सीबीआई जांच का आदेश दिया. जांच एजेन्सी ने किस्मत और अशरफ को भारतीय नागरिक करार देने वाली रिपोर्ट जमा की जिसके बाद अदालत ने इनके मामलों को वापस विदेशी न्यायाधिकरण के पास भेज दिया. सीबीआई की रिपोर्ट के बावजूद सर्वोच्च अदालत ने निर्देश दिया कि “जब तक न्यायाधिकरण याचिकाकर्ता के मामले में सुनवाई नहीं कर लेती दोनों को डिटेंशन केन्द्र में रखा जाए.” 30 अक्टूबर को न्यायाधिकरण ने किस्मत और अशरफ दोनों को भारतीय नागरिक करार दिया. 2 साल, 2 महीने और 17 दिन बाद किस्मत और अशरफ को गोलपारा डिटेंशन केन्द्र से मुक्त कर दिया गया.

2008 और 2016 के बीच 80194 लोगों को विदेशी नागरिक करार दिया गया है. एमनेस्टी की रिपोर्ट के मुताबिक हर साल औसतन 2586 लोगों को विदेशी नागरिक घोषित किया गया. नवंबर 2017 तक यह संख्या बढ़ कर 1221 प्रति माह हो गई. कोर्ट के आदेश के तहत एनआरसी का पहला प्रारूप दिसंबर 2017 में जारी हुआ जिसमें 1 करोड़ 90 लाख लोगों के नाम शामिल थे और 60 प्रतिशत आवेदकों के नाम छूट गए. एमनेस्टी के कार्यक्रम के दूसरे पैनल में मंदर, आजाद और वदूद शामिल थे और बाद में एमनेस्टी इंडिया की शोधकर्ता लीह वर्गीज भी पैनल से जुड़ीं. पैनलिस्टों ने एनआरसी में शामिल होने में आ रही रुकावटों और घोषित विदेशी नागरिकों की संख्या में नाटकीय बढ़ोतरी पर चर्चा की.

एमनेस्टी रिपोर्ट के अनुसार, “निर्धारण प्रक्रिया भारतीय दस्तावेजों की वास्तविकता से कटी हुई है.” लिखाई की गड़बड़ी जैसे नाम के हिज्जे में गलती या मोटामोटी तारीखें, जो आधिकारिक दस्तावेजों में सामान्य हैं, इनके चलते न्यायाधिकरण भारतीय नागरिकों को विदेशी नागरिक घोषित कर देता है. इस रिपोर्ट में भारतीय नागरिक सुब्राता डे का वाकिया है, जिनकी मौत 26 जनवरी को गोलपारा में हो गई. सुब्राता को डिटेंशन केन्द्र भेज दिया गया था क्योंकि पहचान पत्र में उनका नाम सुबोध लिखा था. सुब्राता के परिजन गुवाहाटी उच्च अदालत में अपील की तैयारी कर रहे थे जब उनकी मौत की खबर मिली.

पैनल चर्चा के मॉडरेटर बासु कहते हैं, “ऐसा पूछना ही कितनी बड़ी बात है. आप एक ऐसे देश में लोगों को पहचान साबित करने को कह रहे हैं जहां जन्म का पंजीकरण भी उस तरह से नहीं किया जाता जैसा कि उसे होना चाहिए.” यह काम असमिया औरतों के लिए तो और भी मुश्किल काम हैं क्योंकि अधिकतर औरतों की शादी उनके 18 साल के होने से पूर्व ही हो जाती है और मतदाता पहचान पत्र और अन्य कानूनी कागजात विवाह के बाद ही बन पाते हैं. परिणामस्वरूप उनके पैदाईशी पते और निर्वाचन क्षेत्र में अंतर हो जाता है. कई मामलों में गांव बड़ा अथवा गांव का मुखिया आवासीय प्रमाणपत्र जारी करता है लेकिन विदेशी न्यायाधिकरण में यह प्रमाणपत्र स्वीकार्य दस्तावेज नहीं है.

एनआरसी निर्धारण प्रक्रिया इस बात पर भी गौर नहीं करती कि सीमा क्षेत्रों में आव्रजन एक सामान्य प्रक्रिया है. वर्गीज कहती हैं, “आव्रजक, विदेशी और नागरिक जैसी श्रेणियां कानून तय करता है. लेकिन यदि हम लोग सीमांत इलकों में रहने वालों के जीवन को देखें तो पाते हैं कि उनका जीवन गतिमान है, आव्रजन का है. आव्रजन मानवीय जीवन का सहज हिस्सा है. कानून जिन श्रेणियों को तय करता है और लोग जो अनुभव करते हैं दोनों में भारी अंतर है.”

जब भी न्यायाधिकरण किसी को विदेशी नागरिक करार देता है तो उसे असम के छह डिटेंशन केन्द्रों में से एक में भेज दिया जाता है. बंधक रखने की प्रक्रिया में किसी तरह का कानून लागू नहीं होता. बंधक रखने की अवधि की कोई सीमा नहीं है, बंदियों की समय समय पर समीक्षा नहीं होती, और यहां अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन होता है जो कहता है कि कैद अपवाद होनी चाहिए. विदेशी नागरिक कानून में बंधक न बनाने के कई विकल्प दिए गए हैं. व्यक्ति के रहने और जाने-आने की जगहों का निर्धारण या उन्हें किसी समुदाय के साथ संबंध रखने या खास तरह की गतिविधियां करने से रोकना. कार्यक्रम में वर्गीज ने बताया, “हो यह रहा है कि विदेशी नागरिक ठहराए गए व्यक्ति को सीधा डिटेंशन केन्द्र भेज दिया जा रहा है.”

विदेशी नागरिक करार दिए गए लोगों की नाटकीय बढ़ोतरी के पीछे विदेशी न्यायाधिकरणों और सीमा पुलिस पर राज्य सरकार का दवाब भी है और किस्मत और अशरफ जैसे लोग इन निर्देशों के मासूम शिकार हैं. वर्गीज कहतीं हैं, “ऐसी रिपोर्टें हैं कि विदेशी न्यायाधिकरणों पर अधिक से अधिक लोगों को विदेशी नागरिक करार देने का दवाब डाला गया.” वर्गीज आगे बताती हैं, “2015 से लोगों को विदेशी नागरिक करार देने में तेजी आई है.” दिसंबर 2015 में असम से आने वाले रंजन गोगोई और रोहिंग्टन नरीमन की सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने फैसला सुनाया था कि एनआरसी का नवीनीकरण समयबद्ध तरीके से होना चाहिए.

समाचार पत्र द हिंदू में सितंबर 2018 में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया है कि सीमा पुलिस पर भी इसी प्रकार का दवाब है. नाम न छापने की शर्त पर सीमा पुलिस के एक अधिकारी ने उस रिपोर्ट में स्वीकार किया कि सीमांत जिलों को प्रत्येक माह 20 ऐसे मामले ढूंढने हैं और प्रत्येक शहरी पुलिस को हर महीने पांच या छह ऐसे मामले खोजने हैं. एनएचआरसी मिशन की अपनी रिपोर्ट में मंदर ने बताया है कि गुवाहाटी पुलिस के उपायुक्त (अपराध) लुई एैन्द ने स्वीकार किया है कि प्रत्येक यूनिट का मासिक टार्गेट है कि वह छह मामले विदेशी न्यायाधिकरण को भेजे. इसका हवाला देते हुए वदूद ने कहा, “तो इसका सीधा सा मतलब है कि यदि उन लोगों को कोई अवैध आव्रजक नहीं मिलेगा तो वह बनाएंगे.”

दूसरे सत्र के सभी पैनलिस्टों का मानना था कि असम के बंदीगृहों की असल स्थिति की जानकारी को केन्द्र और राज्य सरकार छिपा रही हैं. मंदर ने बताया कि एनएचआरसी के अल्पसंख्यकों के लिए विशेष मॉनिटर होने के बावजूद इन केन्द्रों का दौरा करने से उन्हें रोकने की कोशिश की गई. जब वो नहीं माने तो उन्हें उनके दो सहयोगियों के साथ जाने दिया गया लेकिन एनएचआरसी ने उनकी रिपोर्ट को आगे ले जाने या उस पर कार्रवाही करने से इन्कार कर दिया. मंदर ने पद से इस्तीफा दे दिया और अपने ही खर्च पर रिपोर्ट को प्रकाशित किया.

मध्यस्थता प्रक्रिया की दूसरी चिंताएं भी हैं. कानूनी सहायता की कमी और जेल की खस्ता हालत के अलावा इन बंदियों के भविष्य के संबंध में भी गंभीर सवाल हैं. इन बंदियों के बारे में माना जाता है कि ये लोग बंगलादेश से आए अवैध आव्रजक हैं. लेकिन बंगलादेश की सरकार ने कहा है कि एनआरसी और बंधक रखने की बात भारत का आंतरिक मामला है. जिन लोगों को बंगलादेशी करार दिया गया है उन्हें निर्वासित करने के संबंध में भारत और बंगलादेश ने किसी भी प्रकार का औपचारिक समझौता नहीं किया है.

चर्चा के दौरान मंदर ने बताया कि उनके सामने ऐसे मामले भी आए जिसमें खुद को बंगलादेशी कहने वालों को वापस जाने नहीं दिया जा रहा है. जिनको विदेशी न्यायाधिकरण ने विदेशी नागरिक करार दिया है उन्हें कई सालों तक न सिर्फ बंधक बना कर रखा जा रहा है बल्कि उनकी मुक्ति की संभावना तक नहीं है. अपनी रिपोर्ट में मंदर ने लिखा है, “फिलहाल तो ऐसा लग रहा है कि उन्हें आजीवन कैद में रखा जाएगा.”

पैनल चर्चा के दौरान इस प्रक्रिया के पीछे की राजनीति पर सवाल पूछा गया तो मंदर ने कहा, “बीजेपी सरकार नागरिकता के मामले में एकदम स्पष्ट है. यदि आप मुस्लिम न होकर हिंदू, ईसाई, बौद्ध या सिख हैं तो आप को शरणार्थी माना जाएगा.“ वे कहते हैं कि असम के लोगों के भीतर राष्ट्रीयता की भावना है लेकिन वे सांप्रदायिक नहीं हैं”. किस्मत ने भी ऐसी ही बात की. उन्होंने बताया कि कैसे लौटने पर गांव के सभी लोगों ने उनका स्वागत किया. “मुस्लिम ही नहीं, हिन्दू, असमिया सभी मुझसे मिलने आए. उन लोगों ने पटाखे जलाए और मुझे गले लगा लिया.”

रिहा होने के बाद किस्मत, अशरफ और उनके परिवारों ने अंतिम प्रारूप के प्रकाशन से पहले सूची में शामिल किए जाने का आवेदन किया. यह सूची 30 जुलाई को जारी हुई. दिसंबर में असम में एनआरसी के संयोजक प्रतीक हलेजा ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि जुलाई के प्रारूप में छूटे 40 लाख लोगों में से 14 लाख 80 हजार लोगों ने पुनः आवेदन किया था. इस सूची में न किस्मत और न अशरफ के किसी परिजन का नाम आया. हां खातून का नाम सूची में शामिल था. सभी ने दुबारा आवेदन किया लेकिन किस्मत का कहना है कि अब उन्हें अधिक डर लग रहा है क्योंकि न्यायाधिकरण के फैसले के बावजूद उनका नाम नहीं आया. वदूद कहते हैं कि यह हैरान करने वाली बात नहीं है. यदि उन्हें फिर खारिज कर दिया जाता है तो किस्मत, उसका परिवार और अशरफ का भविष्य अनिश्चित बन जाएगा और भारतीय नागरिकों को मिलने वाले अधिकारों से उन्हें वंचित कर दिया जाएगा.

खातून गुस्सा हैं. वे कहती हैं, “भारत सरकार कर क्या रही है? उनको हमारी परेशानियां क्यों नहीं दिखाई दे रहीं? क्या हम असम में रहने के लायक नहीं हैं?