सुरक्षा में चूक

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी श्रीनगर के शेर-ए-कश्मीर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन केंद्र में अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस समारोह में हिस्सा लेते हुए. एएनआई फोटो

21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस समारोह में हिस्सा लेने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जम्मू-कश्मीर के श्रीनगर में थे. बहुत भारी सुरक्षा के साथ आयोजन स्थल के चारों ओर एक प्रकार की किलेबंदी थी जो पहले कभी नहीं देखी गई. लेकिन जिस चीज़ ने सबका ध्यान खींचा वह जूते थे - जिन सरकारी कर्मचारियों को समारोह में भाग लेना था, उन्हें निर्देश दिया गया था कि उन्हें अपने जूते कार्यक्रम स्थल से बहुत दूर उतारकर आने होंगे. विपक्षी दलों द्वारा पोस्ट किए गए वीडियो और तस्वीरों में युवा पुरुषों और महिलाओं को कीचड़ भरी बारिश से भीगी सड़कों पर नंगे पैर चलते हुए कार्यक्रम स्थल की ओर जाते देखा गया. यदि यह सुरक्षा के लिहाज़ से अनिवार्य था तो यह मोदी सरकार द्वारा लागू किया गया एक नया नियम था, जिसके लिए कोई आधिकारिक स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है. एक और बात जो दिमाग में आती है वह यह है कि काले कपड़े पहनने वाले लोगों को मोदी के सार्वजनिक कार्यक्रमों में जाने की अनुमति नहीं दी जाती है.

काले कपड़े सुरक्षा के लिए खतरा नहीं हैं, न ही जूते. हो सकता है कि श्रीनगर में प्रत्येक व्यक्ति की गहन जांच की गई होगी. इसका वास्तविक कारण 18 जून को मोदी की उनके लोकसभा क्षेत्र वाराणसी की यात्रा के दौरान हुई एक घटना से जुड़ा है, जब उनका काफिला दशाश्वमेध घाट से काशी विश्वनाथ मंदिर की ओर जा रहा था तब सोशल मीडिया पर पोस्ट किए गए वीडियो के अनुसार प्रधानमंत्री की सीट के ठीक सामने एक सपाट ठोस वस्तु, कुछ हद तक चप्पल या जूते जैसी, कार के हुड पर गिरती हुई दिखाई दी. कार के बाहरी हिस्से में सवार उनके एक अंगरक्षक को उस वस्तु को कार से उठाकर फेंकते हुए देखा जा सकता है. वीडियो में "मोदी, मोदी" के नारे के बीच एक दर्शक को "चप्पल फेंक के मारा" कहते हुए भी दिखाया गया है.

कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने सोशल मीडिया पर इस घटना की निंदा की और इसे सुरक्षा में एक बड़ी चूक बताया. सुरक्षा चूक के कारण अपने पिता और दादी को खोने के बाद ऐसी घटनाओं के घातक परिणामों को उनसे बेहतर कम ही लोग जानते हैं. गांधी के बयान पर न तो सरकार और न ही सत्तारूढ़ दल ने कोई प्रतिक्रिया दी. यहां तक ​​कि देश के कई समाचार पत्रों सहित मुख्यधारा के मीडिया ने भी बहुत कम ध्यान दिया. ऐसा लगता है कि यह इस शर्मनाक प्रकरण पर और अधिक ध्यान आकर्षित करने से बचने और खबर को तुरंत दफनाने की बीजेपी की रणनीति का हिस्सा है. यदि घटना हुई ही नहीं होती, तो सरकार द्वारा तुरंत आधिकारिक तौर पर खंडन किया जाता.

मोदी स्वयं अपनी व्यक्तिगत सुरक्षा के खतरों को लेकर मीडिया कवरेज से कभी नहीं कतराते. जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब ऐसी धमकियां गुजरात में नियमित रूप से प्रचारित की जाती थीं; इसके कारण कुछ विवादास्पद मुठभेड़ें भी हुईं, जिसने बाद में अमित शाह को काफी परेशानी में डाल दिया. भीमा-कोरेगांव मामला, जिसमें 16 बुद्धिजीवियों और कार्यकर्ताओं पर कठोर आतंकवाद विरोधी कानूनों के तहत आरोप लगाए गए थे, एक कथित पत्र को लेकर महीनों तक मीडिया द्वारा बनाई गई जोरदार कहानी पर आधारित था, जिसे मोदी की हत्या की साजिश से जोड़कर बताया गया था. हैरानी की बात यह है कि उस पत्र को अब तक मामले में दायर किसी भी पुलिस आरोप में शामिल नहीं किया गया है.


सुशांत सिंह येल यूनि​वर्सिटी में हेनरी हार्ट राइस लेक्चरर और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में सीनियर फेलो हैं.