"एनआरसी मामलों के लिए मानक संचालन प्रक्रिया की दरकार”, अब्दुल बातिन खांडेकर

शाहिद तांत्रे/कारवां
28 November, 2019

31 अगस्त को राष्ट्रीय नागरिक पंजिका (एनआरसी) की अंतिम सूची प्रकाशित हुई थी जिसमें असम के 19 लाख लोगों को बाहर कर दिया गया. आज लगभग तीन महीने बाद बाहर कर दिए गए लोग आवेदन खारिज होने की वजह बताने वाले नोटिसों का इंतजार कर रहे हैं. ऐसे लोगों के पास विदेशी न्यायाधिकरण के समक्ष अपील करने के लिए 120 दिन का समय है. आवेदन खारिज किस वजह से हुआ है, जब तक इसके स्पष्टीकरण वाला नोटिस लोग प्राप्त नहीं कर लेते वे अपील नहीं कर सकते. भारत के रजिस्ट्रार जनरल ने भी आधिकारिक रूप से एनआरसी को भारत के राजपत्र में प्रकाशित नहीं किया और जब तक ऐसा नहीं होता, एनआरसी सूची की कानूनी मन्यता नहीं रहेगी.

इस बीच एनआरसी परियोजना की निगरानी वाला मामला नवनियुक्त भारत के मुख्य न्यायाधीश शरद अरविंद बोबडे के समक्ष पहली बार सुनवाई के लिए 26 नवंबर के लिए सूचीबद्ध किया गया. न्यायाधीश बोबडे की अध्यक्षता वाली बैंच में न्यायाधीश संजीव खन्ना और सूर्यकांत भी हैं.

सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किए जाने के एक दिन पहले, कारवां के सहायक संपादक अर्शु जॉन ने ब्रह्मपुत्र सिविल सोसाइटी के कार्यकारी अध्यक्ष अब्दुल बातिन खांडेकर से एनआरसी के प्रकाशन के बाद अनसुलझे रह गए मुद्दों के बारे में बात की. खांडेकर ने ऐसे चार प्रमुख मुद्दे गिनाए जिन्हें अपील प्रक्रिया शुरू होने से पहले हल किए जाने की आवश्यकता है.

अर्शु जॉन : एनआरसी के प्रकाशन के बाद, ऐसे कौन से मुद्दे हैं जिनका समाधान नहीं हुआ?

अब्दुल बातिन खांडेकर : फिलहाल चार या पांच ऐसे मुद्दे हैं. पहला डी-वोटर से संबंधित मामला है. इस चरण में यानी अंतिम एनआरसी सूची के प्रकाशन के बाद, डी-वोटरों का क्या होगा? क्या ये लोग अपील करेंगे या ऐसे मामलों को सक्षम प्राधिकारणों के हवाले किया जाएगा ये स्पष्ट नहीं हैं. लगभग 120000 डी-वोटर हैं जिनका भविष्य अधर में लटका है. जब जुलाई 2018 में एनआरसी का मसौदा प्रकाशित हुआ तब इनकी नागरिकता का निर्धारण लंबित रखा गया था. अंतिम एनआरसी के प्रकाशन के बाद, बिना जांच किए उनके दावों को खारिज कर दिया गया. इनमें से कुछ लोग 1997 तो कुछ 2010 से इंतजार कर रहे हैं. 20 साल बाद भी इस बात को लेकर कोई स्पष्टता नहीं है कि क्या उनका मामला रेफर किया जाएगा या अब आगे क्या होगा? उनके बच्चों का क्या होगा? यदि इन लोगों को विदेशी न्यायाधिकरण के समक्ष अपील करने की इजाजत दे दी जाती है तो भी यह इनके लिए अच्छा होगा क्योंकि उन्हें दस्तावेज पेश करने का मौका मिलेगा.

लेकिन यह दुर्भाग्य की बात है कि उन लोगों ने एक मौका पहले ही खो दिया है क्योंकि एनआरसी प्रक्रिया में उनके आवेदनों की जांच नहीं की गई. जब डी वोटर चिन्हित किया गया तो कोई जांच नहीं हुई मेरे पास यह साबित करने के लिए दस्तावेज हैं क्योंकि मैंने सूचना के अधिकार कानून के तहत आवेदन किया था.

दूसरा मामला ऐसे लोगों का है जिन्हें डी-वोटर चिन्हित किया गया लेकिन विदेशी न्यायाधिकरण ने उन्हें भारतीय घोषित कर दिया. एनआरसी प्राधिकरणों ने उनके मामले में सुनवाई नहीं की. इन लोगों को विदेशी न्यायाधिकरण ने क्लीन चिट दे दी लेकिन क्योंकि इन लोगों को एनआरसी में शामिल नहीं किया गया इसलिए इन्हें दोबारा अधिकरण में अपील करनी होगी. ऐसे लोगों की संख्या हजारों में है. हम चाहते हैं कि जिला मजिस्ट्रेट को अधिकार दिया जाए ताकि वह विदेशी न्यायाधिकरण द्वारा भारतीय घोषित लोगों को एनआरसी में समावेश करने का आदेश दे सके.

अर्शु : आपने क्या आरटीआई दायर की थी और कब?

अब्दुल बातिन खांडेकर : मैंने उन नोटिसों की कॉपी मांगी थी जिसमें डी-वोटरों को अपनी नागरिकता साबित करने के लिए दस्तावेज पेश करने का अवसर दिया गया था और उन जांच रिपोर्ट की कॉपियां भी मांगी थी जिनके आधार पर लोगों को डी-वोटर चिन्हित किया गया.

हमने जनवरी 2018 में आरटीआई दायर की और रिट याचिका भी डाली. हमने असम के सभी जिलों के निर्वाचन अधिकारियों को आरटीआई आवेदन किया था. उन सभी ने जवाब दिया कि उनके पास ऐसा कोई रिकॉर्ड नहीं है. डी-वोटरों से जुड़ी इस अस्पष्टता का जल्द समाधान करने की जरूरत है.

अर्शु : वोटरों को 31 अगस्त से पहले या बाद में भारतीय घोषित किया गया?

अब्दुल बतिन खांडेकर : इन लोगों को पहले डी-वोटर घोषित किया गया और बाद में इन लोगों ने इस आदेश को एनआरसी प्राधिकरण के सामने पेश किया लेकिन प्राधिकरण का भाव शत्रुतापूर्ण था. ऐसा मैं इसलिए बोल रहा हूं क्योंकि मैंने असम के 10 से 15 जिलों का दौरा किया है और लोगों से बात की है. हमने सर्वे नहीं किया लेकिन यह हमारे दोरों से प्राप्त जानकारी और सोशल मीडिया पर मिली प्रतिक्रियाओं पर आधारित है. लेकिन यह सच है.

अर्शु : किस आधार पर एनसीआर अधिकारियों ने अध्यादेश को अस्वीकार किया?

अब्दुल बतिन खांडेकर : मनमाने ढंग से ऐसा किया गया. हुआ क्या कि जुलाई 2019 में एनआरसी की समय अवधि को अंतिम बार बढ़ाने का मुख्य उद्देश्य बाहर किए जाने वाले लोगों की संख्या बढ़ाना था. एनआरसी अधिकारियों के ऊपर जबरदस्त दबाव था. असम में स्थानीय मीडिया ऐसे समाचार चला रहे थे कि अगर एनआरसी सूची से बाहर किए गए लोगों की संख्या 40 लाख से कम हुई तो लोग एनआरसी स्वीकार नहीं करेंगे. ऐसे माहौल में एनआरसी अधिकारियों के ऊपर भारी दबाव बना तो इन लोगों ने डी-वोटरों को बाहर करना शुरू कर दिया.

तीसरा मामला उन लोगों का है जिनके पूर्वजों की गलत पहचान हुई है. जिन लोगों ने विरासत से जुड़े गलत दस्तावेजों के जरिए आवेदन किया था, वे बाहर कर दिए गए. लेकिन दावा प्रक्रिया में इन लोगों को विरासत में नामित व्यक्ति को बदलने की अनुमति नहीं मिली. इन लोगों को गलत दस्तावेजों के आधार पर अपना दावा पेश करना पड़ा तो इन लोगों को इसी आधार पर बाहर कर दिया गया. इन लोगों को कानूनी तौर पर मान्य अपने बड़े लोगों के दस्तावेज पेश करने का अवसर दिया जाना चाहिए था. यह लोग गरीब और अनपढ़ लोग हैं और ऐसे में गलतियों की बहुत गुंजाइश रहती है.

चौथा मामला 13 अगस्त 2019 को सुप्रीम कोर्ट के दिए आदेश से संबंधित है. नागरिकता के संबंध में एनआरसी अधिकारी आवेदक के माता-पिता की नागरिकता को जानते हैं. नागरिकता कानून की धारा 3 के अंतर्गत जो लोग 3 दिसंबर 2004 से पहले पैदा हुए हैं अगर उनके माता-पिता में से एक भारतीय नागरिक हैं तो उन्हें भी नागरिक माना जाएगा. लेकिन सुप्रीम कोर्ट का आदेश कहता है कि जिन लोगों ने दस्तावेज जमा कराए, उनको उस अवस्था में नागरिक माना जाएगा जब उनके माता-पिता संदिग्ध नागरिक नहीं होंगे. लेकिन कानून स्पष्ट है कि अगर मां या बाप में से कोई एक भारतीय है तो ऐसे व्यक्ति को नागरिकता दी जाएगी. लेकिन सुप्रीम कोर्ट का आदेश कहता है कि व्यक्ति को नागरिक तभी माना जाएगा जब उसके मां-बाप भारतीय होंगे. यह आदेश एक शर्त लगाता है जिसके तहत आप तभी नागरिक माने जाएंगे जब आप किसी नागरिक के दस्तावेज को विरासती दस्तावेज के रूप में लगाते हैं. इससे सूची से बाहर किए गए लोगों की संख्या बढ़ गई.

यह मामला भी अपील में है. अपनी प्रक्रिया में आपको अपने दस्तावेज बदलने की अनुमति नहीं है. तो ऐसी अपील का कोई मतलब नहीं है. यह कानून के खिलाफ है. कानून कहता है कि अगर आप 1987 से पहले पैदा हुए हैं और आपके मां-बाप भारतीय हैं तो आपको नागरिकता मिलेगी. इस प्रावधान को ध्यान में नहीं रखा गया. दूसरी तरफ जो लोग दिसंबर 2004 के बाद पैदा हुए हैं और अगर उनके मां-बाप में से कोई एक भारतीय नहीं है या उसकी नागरिकता संदिग्ध है तो उनकी संतानों को नागरिकता नहीं दी गई. इन लोगों ने धारा 3 का इस्तेमाल किया ताकि सूची से बाहर किए गए लोगों की संख्या बढ़ जाए. हमारी मांग है कि यदि मां-बाप में से कोई एक भारतीय है तो संतानों को उनका दस्तावेज इस्तेमाल करने दिया जाना चाहिए.

इन सभी मामलों का समाधान अपील प्रक्रिया शुरू होने से पहले हो जाना चाहिए, इसलिए विदेशी न्यायाधिकरण की अपील प्रक्रिया के लिए एक नई मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) होनी चाहिए जो इन मामलों का संबोधन और समाधान कर सके.

अर्शु : अपील प्रक्रिया में विदेशी न्यायाधिकरण में कैसी कार्यवाही होगी? वहां एनआरसी प्राधिकरणों की जैसी कार्यवाही होगी या न्यायाधिकरण में डी-वोटर मामलों के जैसी कार्यवाही होगी?

अब्दुल बातिन खांडेकर : यह इस बात पर निर्भर होगा कि रिजेक्शन का कारण लीगेसी दस्तावेज है या लिंकेज दस्तावेज. जिन लोगों के लिंकेज दस्तावेज अस्वीकार किए गए हैं उन लोगों के लिए दस्तावेज लाना आसान होगा लेकिन लिगेसी दस्तावेज खारिज हुए मामले, विदेशी न्यायाधिकरण जैसे होंगे.

अर्शु : समाचारों में व्यापक तौर पर आया है कि विदेशी न्यायाधिकरण की कार्यवाही पूर्वाग्रह पूर्ण थी. आपको क्या लगता है कि अपीलों में क्या होगा?

अब्दुल बातिन खांडेकर : हम इससे भयभीत हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि न्यायाधिकरण सदस्यों का मूल्यांकन उनके द्वारा विदेशी करार दिए गए लोगों की संख्या के आधार पर होता है और यही वजह है कि हमें विदेशी न्यायाधिकरण के लिए एक एसओपी की आवश्यकता है.

आर्शु : सुप्रीम कोर्ट में जो आवेदन आपने डाला है वह किसलिए है?

अब्दुल बातिन खांडेकर : हमनें एसओपी का मसौदा तैयार कर अदालत में जमा किया है. इसे मुख्य मामले के साथ नत्थी किया है लेकिन इस पर अभी सुनवाई नहीं हुई. हमें उम्मीद नहीं है कि उसकी सुनवाई 26 नवंबर को होगी. हम यह देखना चाहते हैं कि नए मुख्य न्यायाधीश मामले की सुनवाई किस तरह करते हैं.