30 नवंबर को महाराष्ट्र के राज्यपाल ने महाराष्ट्र राज्य सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा वर्ग कानून (2018) को मंजूरी दे दी. यह कानून संस्थाओं और सार्वजनिक सेवाओं में मराठा समुदाय के लिए 16 प्रतिशत कोटा आरक्षित करता है. महाराष्ट्र राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग की जिस रिपोर्ट को इस आरक्षण का आधार बनाया गया है वह कानून बनने से मात्र 15 दिन पहले जमा की गई थी. सरकार ने इस रिपोर्ट को विधानसभा के पटल पर नहीं रखा.
मराठा समुदाय बहुत पहले से आरक्षण की मांग कर रहा है. इसकी शुरुआत 1990 में हुई थी जिस समय द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग, जिसे मंडल आयोग के नाम से भी जाना जाता है, ने अपनी रिपोर्ट जारी की थी. इस आयोग ने भारत के अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण प्रस्तावित किया था लेकिन ओबीसी की अपनी सूची में मंडल आयोग ने मराठा को स्थान नहीं दिया था. अगस्त 1990 में केंद्र सरकार ने इस रिपोर्ट को मान लिया. यह ऐसा निर्णय था जिसे हिंसा और व्यापक विरोध प्रदर्शनों के बीच सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई. इंदिरा साहनी बनाम भारतीय संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट की 9 जजों की खंडपीठ ने आरक्षण के उन आधारों को स्पष्ट किया जो स्वीकार्य हैं. उस ऐतिहासिक फैसले में खंडपीठ ने उपलब्ध सीटों और पदों में आरक्षण को 50 प्रतिशत सीमित कर दिया था.
हाल के आरक्षण कानून से पहले ही महाराष्ट्र में आरक्षण तय 50 प्रतिशत सीमा से 2 प्रतिशत ज्यादा है. कई जांचों से पता चलता है कि मराठा सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा वर्ग नहीं है.वर्ष 2000में पिछड़ा वर्ग के राष्ट्रीय आयोग ने और वर्ष 2008 में महाराष्ट्र राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग ने भी यही माना था. महाराष्ट्र राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग और राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन इंदिरा साहनी मामले में अदालत के फैसले के बाद केन्द्रीय और राज्य की ओबीसी सूची से छूटे लोगों की शिकायत की सुनवाई के लिए किया गया था.2014 से लेकर वर्तमान तक महाराष्ट्र की सभी सरकारों ने मराठों की इस मांग को संबोधित करने का प्रयास किया है. सरकार ने पिछड़ा वर्ग आयोगों की अनदेखी कर “विशेष समिति” की सिफारिशों के आधार पर कानून पारित किया और बॉम्बे हाई कोर्ट में समुदाय के आरक्षण के दावे के समर्थन में 2500 पन्नों का हलफनामा दायर किया. इस अतिरिक्त 16 प्रतिशत आरक्षण के बाद महाराष्ट्र में आरक्षण का कुल प्रतिशत 68 हो गया है. लेकिन इंदिरा साहनी मामले में सर्वोच्च अदालत के फैसले के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो ऐसा नहीं लगता कि हाल का आरक्षण संवैधानिक चुनौतियों के सामने टिक पाएगा.
महाराष्ट्र राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग कानून (2005) के तहत राज्य आयोग की सिफारिशें आमतौर पर सरकार के लिए बाध्यकारी हैं. इसके बावजूद 2014 में तत्कालीन मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चौहान की कांग्रेस सरकार ने आयोग की 2008 की रिपोर्ट को नजरअंदाज किया और मराठा समुदाय की आरक्षण की मांगों का आकलन करने के लिए विशेष समिति का गठन किया. कांग्रेस सरकार ने मराठा समुदाय के नारायण राणे, जो उस वक्त सरकार में उद्योग मंत्री थे, की अध्यक्षता में यह समिति गठित की थी.
राणे समिति ने सिफारिश की कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और ओबीसी के लिए निर्धारित कोटे को प्रभावित किए बिना मराठों को आरक्षण दिया जाना चाहिए. इस रिपोर्ट के आधार पर राज्य सरकार ने 9 जुलाई 2014 को अध्यादेश जारी किया जिसमें समुदाय को 16 प्रतिशत आरक्षण प्रदान कर दिया गया. राज्य सरकार ने दूसरा अध्यादेश जारी किया और शैक्षणिक संस्थाओं और सार्वजनिक नौकरियों में मुसलमानों के लिए 5 प्रतिशत सीट आरक्षित कर दी. मुसलमानों के लिए आरक्षण 2013 की महमूद-उर-रहमान की अध्यक्षता वाले समूह की सिफारिशों पर आधारित था. महमूद-उर-रहमान भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी थे.
इसके तुरंत बाद कई याचिकाकर्ताओं ने इन आदेशों को अदालत में चुनौती दी. याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि संपूर्ण मराठा समुदाय को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा वर्ग करार देना राज्य आयोग की सिफारिशों को नजरअंदाज कर उठाया गया मनमाना कदम है. इसके अलावा उन लोगों ने यह तर्क भी दिया कि नारायण राणे समिति और महमूद-उर-रहमान अध्ययन समूह का गठन कानून की अवहेलना कर किया गया था. दावा किया गया कि राणे समिति ने अपना डेटा जल्दबाजी में संकलित किया है और रिपोर्ट मराठा समुदाय को आरक्षण देने के सुनियोजित मकसद से प्रेरित थी.
14 नवंबर 2014 को बॉम्बे हाई कोर्ट ने मराठा कोटा पर रोक लगा दी. परंतु अदालत ने शैक्षणिक संस्थाओं में 5 प्रतिशत मुस्लिम आरक्षण को विशेष पिछड़ा वर्ग श्रेणी के अंतर्गत मंजूरी दे दी. अगले महीने सर्वोच्च अदालत ने रोक की पुष्टि कर दी.
इस वर्ष 1 नवंबर को देवेन्द्र फडणवीस के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आई. सत्ता में आने के 3 महीनों के अंदर ही इस सरकार ने महाराष्ट्र राज्य सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन श्रेणी आरक्षण कानून 2014 को लागू किया और मराठा समुदाय को पूर्ववर्ती आधार पर 9 जुलाई से आरक्षण प्रदान कर दिया. नए कानून में हाई कोर्ट द्वारा मंजूर5 प्रतिशत मुस्लिम आरक्षण को शामिल नहीं किया गया. एक बार फिर पुराने आधारों पर मराठा कोटा को अदालत में चुनौती दी गई.2015 की अप्रैल में बॉम्बे हाई कोर्ट ने यह कहते हुए कोटे पर स्टे लगा दिया कि संशोधित कानून के प्रावधान अध्यादेश के प्रावधानों से मिलते जुलते हैं.
मार्च 2016 में आयोग के अध्यक्ष का कार्यकाल पूरा होने के बाद से यह आयोग निष्क्रिय अवस्था में था. जनवरी 2017 में नए अध्यक्ष संभाजीराव म्हसे की अध्यक्षता में आयोग का पुनर्गठन किया गया. संभाजी म्हसे हाई कोर्ट के अवकाश प्राप्त जज हैं जिन्होंने सार्वजनिक रूप से मराठा आरक्षण का समर्थन किया था. अगले महीने 2 मराठा नेता अजय साहेबराव बारस्कर और बालासाहेब आसाराम सराठे ने बॉम्बे हाई कोर्ट में याचिका दायर की और मामले को राज्य आयोग के पास पुनः भेजने की मांग की. 4 मई 2017 को हाई कोर्ट ने 2014 के कानून में दिए गए 16 प्रतिशत आरक्षण को जायज ठहराने के लिए सरकार की वह मांग स्वीकार कर ली जिसमें उसने अपना डेटा आयोग के सामने पेश करने की याचिका की थी. इसके बाद यह कानून जड़ हो गया क्योंकि अदालत सरकार के इस निर्णय के समर्थन में डेटा की प्रतीक्षा कर रही थी.
खबरों के अनुसार 2018 का कानून आयोग की पड़ताल पर आधारित है और यह 2014 के कानून को खारिज करता है. द हिंदू की नवंबर की रिपोर्ट के अनुसार राज्य आयोग ने फैसला दिया है कि तकनीकी, चिकित्सा, कृषि, व्यवसायिक और विश्वविद्यालय की अन्य शाखाओं में नाममात्र मराठा समुदाय की उपस्थिति यह दर्शाती है कि यह समुदाय सामाजिक रूप से असक्षम, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा है. इस फैसले का उस परिप्रेक्ष्य में बड़ा महत्व है जिसके तहत इंदिरा साहनी फैसले में आरक्षण की सीमा को 50 प्रतिशत तय किया गया था.
इंदिरा साहनी फैसले से 30 साल पहले 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार एम आर बालाजी बनाम मैसूर राज्य मामले में आरक्षण की सीमा को 50 प्रतिशत तय किया था. इंदिरा सहानी मामले में 9 में से 7 न्यायाधीशों ने इस सीमा को सही ठहराया था जबकि चार जजों ने, जस्टिस जीवन रेड्डी द्वारा लिखित विचार में, माना था कि 50 प्रतिशत की सीमा को “विशेष परिस्थितियों” में जबकि “दूरदराज और दुर्गम इलाकों में रहने वाली आबादी को राष्ट्रीय जीवन की मुख्यधारा में लाने के लिए” अपवाद स्वरूप बढ़ाया जा सकता है. न्यायमूर्ति पी बी सावंत के विचार अस्पष्ट थे. उन्होंने आरक्षण की सीमा को 50 प्रतिशत से अधिक किए जाने को “कानूनी रुकावट” की तरह नहीं देखा और कहा कि इसे मामला दर मामला देखा जाना चाहिए. लेकिन अपने फैसले के सार में उन्होंने भी कहा कि “आमतौर पर कोटा 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए.”
इंदिरा सहानी फैसले से जो नियम बना उसके अनुसार 50 प्रतिशत की सीमा अनुल्लंघनीय है. उपरोक्त दो विचारों के अध्ययन से पता चलता है कि केवल राष्ट्रीय जीवन की मुख्यधारा से बाहर के समुदायों के लिए इस सीमा को बढ़ाया जा सकता है. 1995 में इस तरह का एक अपवाद महाराष्ट्र में लागू किया गया था जिसमें गोवारी आदिवासी समुदाय को अतिरिक्त 2 प्रतिशत आरक्षण प्रदान किया गया था.
द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार राज्य आयोग ने संकेत दिया है कि मराठा समुदाय असाधारण परिस्थिति का सामना कर रहा है और इसलिए 16 प्रतिशत आरक्षण का पात्र है. आयोग की जांच यह निर्णय करने के लिए महत्वपूर्ण होगी कि मराठा सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े हैं और राज्य के पदों और सेवाओं में उनका प्रतिनिधित्व अपर्याप्त है, जैसा कि संविधान के अनुच्छेद 15 (4) और 16 (4) में उल्लेख है.
पूर्व की राज्य और राष्ट्रीय आयोग की रिपोर्टों के अलावा इकनॉमिक एंड पॉलीटिकल वीकली में प्रकाशित एक रिपोर्ट बताती है कि मराठा अगड़ी जाति है. यह रिपोर्ट मराठों को पश्चिमी प्रांत महाराष्ट्र में मुख्य रूप से भूस्वामी जाति और राजनीतिक और आर्थिक रूप से दबंग समूह बताती है. उस एकमात्र परिस्थिति में सरकार पिछड़ा वर्ग आयोग और उसकी सिफारिशों को नजरअंदाज कर सकती है जब उसकी सिफारिशें “असंभव और दुराग्रही” हों. ऐसी स्थिति में, जैसा की सर्वोच्च अदालत ने 2015 में जाटों को ओबीसी श्रेणी में रखने वाली केंद्र सरकार की अधिसूचना को खारिज कर दिया था, यह कानून भी खारिज हो सकता है.
महाराष्ट्र विधानसभा इस बिल को पारित करने से पहले फडणवीस ने मीडिया से कहा था, “हम मराठा समुदाय को तमिलनाडु मॉडल के आधार पर आरक्षण देंगे और ऐसा हम संविधान के प्रावधानों के अनुसार करेंगे. 1993 में तमिलनाडु सरकार ने केंद्र सरकार पर संविधान में संशोधन करने और आरक्षण कानून को 9वीं अनुसूची में रखने का दबाव बनाया था.
तब अनुसूची में उल्लिखित कानूनों की कानूनी समीक्षा नहीं की जा सकती थी.2007 में यह न्यायायिक संरक्षण समाप्त हो गया जब सर्वोच्च अदालत की 9 जजों की खंडपीठ ने आई आर कोएल्हो बनाम तमिलनाडु राज्य मामले में एकमत से यह फैसला सुनाया कि 9वीं अनुसूची के अंतर्गत आने वाले कानूनों की भी संविधान में संशोधन करने वाले कानूनों की भांति, यह जानने के लिए कि इससे संविधान का बुनियादी ढांचे तो नष्ट नहीं हो रहा, समीक्षा की जा सकती है.1975 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि संविधान के बुनियादी ढांचे के लिए न्यायिक समीक्षा आधारभूत है और इसलिए आई आर कोएल्हो के बाद 9वीं अनुसूची के कानून जो अनुच्छेद 14, 15 और 21 में प्राप्त स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करते हैं उन्हें रद्द किया जा सकता है.
इसके बावजूद भी तमिलनाडु का आरक्षण कानून लागू है.1994 में वॉइस कंज्यूमर केयर काउंसिल ने पहली बार इस कानून को 9वीं अनुसूची में रखे जाने को चुनौती दी थी लेकिन आई आर कोएल्हो फैसले के बाद काउंसिल की याचिका धरी की धरी रह गई. जुलाई 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने 9वीं अनुसूची का उल्लेख किए बिना ही याचिका को खारिज कर दिया. अदालत ने सरकार को जांच कर सकने लायक डेटा तमिलनाडु राज्य आयोग के सामने पेश करने का निर्देश दिया. जुलाई 2011 में आयोग ने 69 प्रतिशत आरक्षण को सही मानते हुए अपनी रिपोर्ट दायर की. इस रिपोर्ट को यह कह कर अदालत में चुनौती दी गई कि यह रिपोर्ट वैध कसौटी पर आधारित नहीं है. इस मामले में अंतिम सुनवाई अभी नहीं हुई है.
अदालत की 9 सदस्यीय खंडपीठ का निर्णय, आई आर कोएल्हो और इंदिरा साहनी मामलों के फैसले महत्वपूर्ण है. और इनके मद्देनजर यह कहा जा सकता है कि महाराष्ट्र के हाल के कानून को संविधान की 9वीं अनुसूची में रखने के बावजूद इसे चुनौती मिल सकती है.