“भूखे-प्यासे लोग बगावत नहीं करते,” ज्यां द्रेज

अनुश्री फडणवीस/रॉयटर्स
31 March, 2020

Thanks for reading The Caravan. If you find our work valuable, consider subscribing or contributing to The Caravan.

लॉकडाउन के दूसरे दिन वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत गरीबों की भोजन आवश्यकता और उनके खातों में धन उपलब्ध कराने के लिए 1.70 लाख करोड़ रुपए की राहत योजना की घोषणा की. इस घोषणा की कई जानकारों ने यह कहते हुए आलोचना की कि यह आवश्यक धन का आधा है. 635 सुविख्यात शिक्षाविदों, सिविल सोसायटी कार्यकर्ताओं और नीति विश्लेषकों ने एक पत्र जारी कर राज्यों और केंद्र की सरकारों से संकट से बचाव के लिए न्यूनतम आपातकालीन उपाय लागू करने की अपील की है.

इस पत्र को जारी करने वालों में एक हैं रांची विश्वविद्यालय के विजिटिंग प्रोफेसर ज्यां द्रेजजो एक अर्थशास्त्री होने के साथ एक्टिविस्ट भी हैं. आने वाले दिनों में गरीबों के लिए भोजन और अन्य आवश्यक वस्तुओं की संभावित कमी के बारे में कारवां के स्टाफ रिपोर्टर कौशल श्रॉफ ने उनसे बात की. 

हमें नहीं पता कि कोविड-19 का जारी संकट कब खत्म होगा. यह कई महीनों या पूरे साल ही जारी रह सकता है. हमारे अर्थतंत्र पर इसका असर इस बात पर निर्भर करेगा कि इस वायरस का असर कितने लंबे वक्त तक रहता है. यदि हम स्वास्थ्य संकट से चंद हफ्तों में उबर जाते हैं तो भी इसकी बहुत बड़ी मानवीय कीमत चुकानी पड़ेगी लेकिन अर्थतंत्र शायद एक हद तक तेजी से सुधार भी कर जाए. लेकिन यदि संकट लंबा खिंचता है और कम-ज्यादा प्रबलता वाले लॉकडाउन होते रहते हैं तो अर्थतंत्र के नीचे ढुलकने की संभावना है क्योंकि यह एक तरंगनुमा असर छोड़ेंगे. बैंक दीवालिया हो जाएंगे. बैंक अपना कर्ज नहीं वसूल पाएंगे और आर्थिक संकट पैदा होगा. इस बीच स्वास्थ्य सेवाओं और संभवतः आवश्यक सामग्री पर भारी बोझ बना रहे. यह आर्थिक और मानवीय रूप से डरावनी स्थिति होगी.

सामाजिक रूप से देखें तो अन्य तरह की विकृतियां पैदा हो जाएंगी. मिसाल के लिए जैसे-जैसे लोग और डरेंगे, आवासीय कॉलोनियां अपने आपको बंद कर लेंगी और जिन लोगों पर संक्रमण का शक होगा उन्हें निकाल देंगी या खाने के लिए दंगे जैसी हालत बन जाएगी. हमें उम्मीद करनी चाहिए कि ऐसा न हो.

अल्पावधि में बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली कैसे काम करती है. पीडीएस व्यवस्था भूख से बचा सकती है लेकिन अभी इस पर बहुत दबाव है. यह अपने-आप में काम नहीं करती बल्कि एक चेन का हिस्सा होती है जिसमें लोगों तक खाद्यान्न पहुंचाने के लिए अर्थतंत्र के बाकी हिस्सों को काम करते रहना होता है. खाद्यान्न को यहां से वहां पहुंचाने के लिए यातायात, दूरसंचार, उपकरण, चालू प्रशासन और अन्य चीजों की आवश्यकता होती है. यह सुनिश्चित करना बहुत कठिन होगा कि ऐसी परिस्थिति में यह व्यवस्था प्रभावी रूप से काम करती रहे.

जिन स्थानों में पीडीएस काम नहीं करेगी वहां भोजन के लिए दंगे होंगे. हां, यह बात जरूर है कि भारत में लोग बहुत आसानी से ऐसा नहीं करते. अब आप ही देखिए कि जो प्रवासी मजदूर आपको टीवी में पिछले कुछ दिनों से लगातार दिख रहे हैं, उनको देख कर क्या आपको इस बात की हैरानी नहीं हो रही कि ये लोग स्थानीय दुकानों और गोदामों को क्यों नहीं लूट रहे. जब लोग भूखे और कमजोर होते हैं तो यह जरूरी नहीं कि वे बगावत ही करेंगे. लेकिन भोजन के लिए दंगे की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता.

जारी लॉकडाउन एक मानवीय संकट बनने लगा है. प्रधानमंत्री किसान योजना, पेंशन योजना और अन्य योजनाओं से धन का हस्तांतरण करने में वक्त लगेगा. यदि हस्तांतरण जल्दी होता भी है तो भी लोग तुरंत ही बैंकों में जाने की स्थिति में नहीं होंगे. और जब भी उनको बैंक जाने दिया जाएगा, तो नोटबंदी जैसी भगदड़ मचेगी.

सरकार को खाद्यान्न के भंडार को तुरंत खोल देना चाहिए. उसके पास खाद्यान्न का बहुत बड़ा स्टॉक मौजूद है. उसे इसे खोलने से कौन रोक रहा है. भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में 6 करोड़ टन गेहूं और चावल है. यह स्थिति गेहूं की कटाई के पहले की है जब आमतौर पर यह भंडार बढ़ जाता है. कई बार तो 8 करोड़ टन तक बढ़ जाता है. यह उस बफर स्टॉक से तीन गुना अधिक है जो संकट के वक्त की जरूरत के लिए होता है. इस अनाज को जारी करना सुनिश्चित करेगा कि सभी स्थानों में खाद्य वितरण केंद्र काम कर रहे हैं.

ऐसे लोग हमेशा होते हैं, प्रवासी मजदूर एवं अन्य, जो स्थापित सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के बाहर होते हैं. हमें सभी राज्यों में आपातकालीन सेवाएं बनाने की जरूरत है जहां जा कर लोग बिना राशन कार्ड या अन्य दस्तावेज दिखाए तुरंत ही भोजन प्राप्त कर सकें. यह दुखद है कि हमें उन्नीसवीं शताब्दी के अकाल राहत के तरीके अपनाने पड़ेंगे जिन्हें बाद में सार्वजनिक वितरण प्रणाली (राशन की दुकान) जैसे गरीमापूर्ण तरीकों से बदला गया था. लेकिन फिलहाल भूख से बचाव का मुझे कोई दूसरा रास्ता समझ नहीं आ रहा.

(कौशल श्रॉफ से बातचीत पर आधारित.)