13 प्वाइंट रोस्टर का क्यों विरोध कर रहे हैं छात्र और शिक्षक

13 प्वाइंट रोस्टर के विरोध में छात्रों, शिक्षकों और कई राजनीतिक पार्टी के कार्यकर्ताओं ने दिल्ली के मंडी हाउस से जंतर मंतर तक मार्च किया. कारवां/शाहिद तांत्रे
07 February, 2019

स्वामी श्रद्धानंद कॉलेज में राजनीति-विज्ञान विभाग के प्रमुख मनीष कुमार ने कहा, “यह बहुत मुश्किल है कि आप आरक्षित वर्ग से हैं और दिल्ली यूनिवर्सिटी में आपको फैकल्टी सीट मिल जाए.” देश की राजधानी दिल्ली में 31 जनवरी को अंबेडकरवादी संस्था “भीम आर्मी” द्वारा एक भारी विरोध प्रदर्शन हुआ था. इसमें कुमार सहित हजारों लोग शामिल थे. रैली का आयोजन “13 प्वाइंट रोस्टर का विरोध” करने के लिए हुआ था. यह शैक्षणिक बहाली से जुड़ा एक नया तरीका है. जो पिछड़ों, आदिवासियों और ओबीसी से जुड़े उम्मीदवारों की सीटों की संख्या को देश भर के कॉलेजों में बेहद कम करने का तरीका है. इसी साल 22 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट ने इसके खिलाफ दायर की गई एक स्पेशल लीव पिटीशन को खारिज कर दिया.

छात्र, शिक्षक और कई राजनीतिक पार्टी के कार्यकर्ताओं ने दिल्ली के मंडी हाउस से जंतर मंतर तक मार्च किया. उनकी मांग थी कि इस सिस्टम को समाप्त किया जाए. प्रदर्शनकारियों की यह भी मांग थी कि केंद्र सरकार पुराने तरीके को बहाल करने के लिए एक बिल पास करे. इसके तहत “200 प्वाइंट रोस्टर” की मांग की गई है. कुमार ने मुझसे पिछले नियम के बारे में बताते हुए कहा कि पुराने वाले में भी कभी आरक्षित सीटों की संख्या 49 प्रतिशत के पार नहीं गई, “आप डीयू के पदों को चेक कर लीजिए. अगर दिल्ली यूनिवर्सिटी का यह हाल है तो बाकियों का अंदाजा लगा लीजिए. कोई भी हमारा साथ नहीं दे रहा, यह बेहद दुखद है.”

अप्रैल 2017 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक फैसला दिया. इसमें उच्च शिक्षा संस्थानों में फैकल्टी की नौकरी से जुड़ी आरक्षित सीटों का हिसाब लगाने की पद्धति बदलने का आदेश दिया गया. इस समय तक 200 प्वाइंट रोस्टर चलता था. इसके तहत एक कॉलेज और यूनिवर्सिटी को एक यूनिट मानकर आरक्षित सीटों का हिसाब बिठाया जाता था. 200 में 101 अनारक्षित वर्ग को जाता था जबकि बाकी की 99 सीटों को एससी, एसटी, ओबीसी उम्मीदवारों के बीच साझा किया जाता था. लेकिन हाई कोर्ट ने आदेश दिया कि यूनिवर्सिटी या कॉलेज में हर डिपार्टमेंट को एक अलग यूनिट माना जाए.

मार्च 2018 में यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमिशन यानि यूजीसी ने सभी सेंट्रल और स्टेट यूनिवर्सिटी को एक नोटिस जारी किया. यूजीसी भारत की उच्च शिक्षा की देख रेख करती है. नोटिस में यूजीसी ने नए नियम की घोषणा की जिसे हाई कोर्ट के आदेश का पालन करने के लिए बनाया गया है. नोटिस में कहा गया है कि यूनिवर्सिटी के हर डिपार्टमेंट को एक स्वतंत्र यूनिट माना जाएगा.

भारत में ओबीसी को 27 प्रतिशत, एससी को 15 प्रतिशत और एसटी को 7.5 प्रतिशत आरक्षण हासिल है. इसे आसानी से समझें तो प्रत्येक चौथी सीट ओबीसी, प्रत्येक सातवीं सीट एससी और प्रत्येक 14वीं सीट एसटी कैंडिडेट को आरक्षित होनी चाहिए. जब एक बड़ी यूनिट होती है तो आरक्षण सुनिश्चित करना आसान होता है. लेकिन नए नियम के तहत प्रत्येक डिपार्टमेंट एक यूनिट होगा और उस पर ऊपर दिया गया हिसाब लागू होगा. अब इसे ऐसे समझें कि छोटे यूनिट में आरक्षण लागू ही नहीं हो पाएगा. उदाहरण के लिए अगर किसी डिपार्टमेंट में छह पद हैं तो उसमें महज एक पद ओबीसी को मिल पाएगा. 14 से कम पदों वाले यूनिट यानि विभाग में एसटी प्रत्याशी के लिए कोई आरक्षण होगा ही नहीं.

इस सिस्टम की वजह से प्रत्येक श्रेणी के लिए आरक्षित सीटों में भारी कमी आ जाएगी. शिक्षा मंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक यह सीटें एससी के लिए 97 प्रतिशत, एसटी के लिए 78 से 100 प्रतिशत और ओबीसी के लिए 100 प्रतिशत तक कम हो जाएंगी.

प्रदर्शन के दौरान मेरी बात कई प्रोफेसरों से हुई जिन्होंने कहा कि ज्यादातर विभागों में 13 पद नहीं है. मोतीलाल नेहरू कॉलेज के प्रोफेसर खोल टिमॉथी पाउमाइ ने मुझसे कहा, “एसटी के लिए बेहद कम नियुक्तियां होती हैं. मुश्किल से ही कोई विभाग 13 नियुक्तियों तक पहुंचेगा.” उन्होंने कहा कि उनके कॉलेज में सिर्फ एक डिपार्टमेंट में 13 पद हैं. स्वामी श्रद्धानंद कॉलेज के कुमार ने कहा, “ज्यादातर विभागों में चार, पांच और कहीं सात पद होते हैं, ऐसे में किसी को मुश्किल से ही वो सीट मिलेगी जो उसे मिलनी चाहिए.” उन्होंने कहा नया नियम संविधान की भावना के खिलाफ है, “आरक्षण संवैधानिक अधिकार है. इस नए नियम के तहत इस अधिकार के पर कतरे जा रहे हैं.”

यूजीसी के नोटिफिकेशन का देश भर के शिक्षकों और छात्रों ने भयंकर विरोध किया. इसके बाद मानव संसाधन विभाग ने सुप्रीम कोर्ट में एक स्पेशल लीव पिटीशन दाखिल कर अनुरोध किया कि पुराने नियम को बहाल किया जाए. इसका कोई फायदा नहीं हुआ और सुप्रीम कोर्ट ने याचिका खारिज कर दी. प्रदर्शन के दौरान दिल्ली यूनिवर्सिटी के जाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज के फैकल्टी मेंबर भरत भूषण ने मुझसे कहा, “हम समझ नहीं पा रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट ऐसा कैसे कर सकता है. वो इस नियम के साथ धीरे-धीरे खिलवाड़ कर रहे हैं और शिक्षकों के पास जो बचा है उसे भी समाप्त कर रहे हैं.”

बृहस्पतिवार को हुए इस प्रदर्शन को सोशल मीडिया पर जम कर प्रमोट किया गया. इसके लिए “Against13pointRoster” हैशटैग का इस्तेमाल किया गया. कई छात्र संगठन जिनमें अंबेडकरवादी समूह प्रमुख थे, रैली में मौजूद थे. एक टेंपों के ऊपर भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर आजाद ने बेहद गर्मजोशी से भरे भाषण में कोर्ट को “मनुवादी” करार दिया. इस दौरान भीड़ जय भीम के नारे लगा रही थी. मनुवादी उसे कहते हैं, जो मनु का अनुसरण है. वहां राष्ट्रीय जनता दल यानि आरजेडी और समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता भी मौजूद थे. बिहार में विपक्ष और आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने भी जंतर-मंतर पर भीड़ को संबोधित किया.

प्रदर्शन के दौरान शिक्षकों ने भी अपनी बाकी शिकायतें रखीं. भूषण ने मुझसे कहा कि वो 14 साल से एड-हॉक प्रोफेसर हैं. द प्रिंट वेबसाइट की एक रिपोर्ट के मुताबिक केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 33 प्रतिशत शिक्षकों के पद खाली हैं. बावजूद इसके एड-हॉक शिक्षकों को स्थायी पद नहीं दिए जा रहे हैं. उन्होंने कहा, “ऐसे अनक प्रोफेसर हैं जिन्हें 25 साल से ज्यादा हो गए लेकिन प्रमोशन नहीं मिला, ऐसे में आप देख सकते हैं कि स्थिति कैसे बद से बदतर हो रही है.” दिल्ली यूनिवर्सिटी के जिन शिक्षकों से मैं मिला, उन्होंने कहा कि उन्हें वह पेंशन भी नहीं मिल रही है जो उनका अधिकार है. 13 प्वाइंट रोस्टर पर भूषण ने कहा, “यह आखिरी कील होगी.”

ऐसे कई प्रदर्शनकारी जिनसे मैं मिला उनका कहना था कि नए नियम वर्तमान सरकार की नीतियों की बानगी हैं. यह पृथक तबके को और शोषित करने वाला है. हालांकि, सरकार ने मामले में एक स्पेशल लीव पिटीशन दायर की है लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि फिर भी इसने सरकार को अन्य नीतियों को पेश करने से नहीं रोका जो पृथक समुदायों को पीछे ढकेलती है. कार्यकर्ता और जेएनयू के पूर्व छात्र उमर खालिद ने कहा, “एक तरफ जहां देश भर में दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों के खिलाफ होने वाला अत्याचार साफ दिखाई देता है, वहीं शिक्षा जगत में इसने खुद को अलग ढंग से पेश किया है.” खालिद ने दावा किया कि जेएनयू में तीन सालों से आरक्षण लागू नहीं किया गया है. 2016 में यूजीसी ने एक नियम की घोषणा की जिसने विश्वविद्यालय में एमफिल या पीएचडी करने के लिए एडमिशन की प्रक्रिया को बदल दिया. इसमें कहा गया कि क्वालीफाइंग राउंड में एक लिखित परीक्षा होगी जिसके बाद दाखिला पूरी तरह से मौखिकता पर निर्भर होगा. इस नियम को भारी विरोध के बाद भी लागू किया गया. कई छात्रों और शिक्षकों ने विरोध किया कि मौखिक परीक्षा का इस्तेमाल पृथक तबके से आने वाले छात्रों के खिलाफ भेदभाव करने के लिए किया जा सकता है. बाद में सुप्रीम कोर्ट ने इस खारिज कर दिया. 13 प्वाइंड रोस्टर पर खालिद ने कहा, “यह एक विषय के जैसा लगता है जो इस सरकार में लगातार बरकरार रहा है.”

आरजेडी के राज्यसभा सदस्य और दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर मनोज झा ने मुझसे कहा, “नए सिस्टम से लगता है कि सालों की कड़ी मेहनत पर पानी फिर गया है. पहले उन्होंने एससी-एसटी एक्ट कमजोर किया, फिर उन्होंने ईडब्ल्यूएस को फायदा पहुंचाया.” वो अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार रोकथाम) कानून का जिक्र कर रहे थे और हाल ही में आर्थिक रूप से पिछड़ों को दिए गए आरक्षण की बात कर रहे थे. उन्होंने कहा, “यह व्यवस्थित और भयानक उत्पीड़न है.”