गुजरात के अहमदाबाद शहर में शाहपुर पड़ोस में एक आवासीय सोसायटी, सरदार कुंज के लगभग एक सौ अस्सी सदस्य दो साल से अपने घरों को बेचने की कोशिश कर रहे हैं. बिक्री के लिए एकमात्र बाधा गुजरात भूमि-हस्तांतरण कानून है जो संबंधित जिला कलेक्टर की मंजूरी के बिना "अशांत क्षेत्रों" के रूप में नामित क्षेत्रों में अचल संपत्तियों की बिक्री को प्रतिबंधित करता है. कानून राज्य सरकार को यह अधिकार देता है कि वह दंगों और हिंसा से प्रभावित हो सकना मान कर किसी क्षेत्र को अशांत घोषित कर दे. मुस्लिम बहुल क्षेत्र, शाहपुर, 2002 के बाद से इस तरह की घटनाओं के न दिखने के बावजूद कानून के तहत एक अशांत क्षेत्र के रूप में सूचीबद्ध है. सरदार कुंज निवासी संघ के अध्यक्ष संजीव पटेल ने कहा "शाहपुर एक पिछड़ा इलाका है जहां हमारे पास अच्छे स्कूलों जैसी सुविधाएं नहीं हैं. यह एक सामाजिक-सांस्कृतिक समस्या भी है क्योंकि लोग यहां के निवासियों के साथ विवाह संबंध रखना पसंद नहीं करते हैं."
इस कानून का नाम गुजरात प्रोटेक्शन ऑफ ट्रांसफर ऑफ इम्प्लॉएबल प्रॉपर्टी एंड प्रोविजन फॉर टेनेंट्स ऑफ प्रोटेक्शन ऑफ टेनेंट्स फ्रॉम इविक्शन फ्रॉम डिस्टर्बड एरियाज एक्ट, 1991 (गुजरात अचल संपत्ति हस्तांतरण निषेध और अशांत क्षेत्रों में किरायेदारों की परिसर से बेदखली से संरक्षण का प्रावधान 1991) है जिसे आमतौर पर डिस्टर्बड एरियाज एक्ट (अशांत क्षेत्र अधिनियम) के रूप में जाना जाता है. इसे राज्य में बार—बार होने वाली सांप्रदायिक हिंसा के प्रकाश में संपत्तियों की संकट बिक्री यानी जब संपत्तियों को बाजार मूल्य से कम दर पर बेचा जाता है, की जांच करने के लिए पारित किया गया था. संपत्तियों को स्थानांतरित करने के लिए अधिनियम एक लंबी और थकाऊ प्रक्रिया निर्धारित करता है. कलेक्टर की मंजूरी हेतु, संबंधित पक्षों को बिक्री के लिए रजिस्ट्रार और स्थानीय पुलिस से क्षेत्र की जांच करने और हस्तांतरण को मंजूरी देने के लिए उनकी सहमति की पुष्टि करनी होगी. इसके बाद, कलेक्टर मंजूरी देता है.
हालांकि, व्यवहार में राज्य ने मुस्लिमों के साथ संपत्ति के लेन-देन को अलग करने के लिए कानून को हथियार बनाया है, जिससे धार्मिक तर्ज पर स्थानीय अलगाव हो गया है. पटेल ने कहा कि आम तौर पर, जब संपत्ति विक्रेता मुस्लिम खरीदारों के साथ लेन—देन करने के लिए कलेक्टरों से संपर्क करते हैं, तो "अनुमति देने से इनकार किया जाता है या आवेदनों को महीनों या एक साल से अधिक समय तक लंबित रखा जाता है." अहमदाबाद में एक उप-पंजीयक कार्यालय के एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर पुष्टि की कि "अनुमोदन को लटकाने या देरी के अधिकांश मामले तब होते हैं जब खरीदार मुस्लिम होता है."
सांप्रदायिक अलगाव का राज्य का एजेंडा इस साल जुलाई में प्रदर्शित हो गया, क्योंकि गुजरात विधानसभा ने संपत्ति लेन-देन में हस्तक्षेप करने और सांप्रदायिक हिंसा की संभावना वाले क्षेत्रों का निर्धारण करने के लिए राज्य को और अधिक छूट देने के लिए कानून में संशोधन किया. जुलाई महीने के बाद के संशोधन पर चर्चा करते हुए, गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपानी ने इकोनॉमिक टाइम्स को बताया, “किसी मुस्लिम को कोई हिंदू संपत्ति बेचे यह ठीक नहीं है. किसी हिंदू को कोई मुस्लिम संपत्ति बेचे यह भी ठीक नहीं है." उन्होंने कहा, "हमने उन्हें (मुस्लिमों) यह बताने के लिए कि उन्हें अपने क्षेत्रों में संपत्ति खरीदनी चाहिए यह नियम उन क्षेत्रों में निर्धारित किया है, जहां दंगे हुए हैं".
हालांकि अधिनियम सीधे तौर पर यह नहीं बताता है, लेकिन रूपानी की बातें सच हैं. रूपानी की तरह, राज्य के दक्षिणपंथी नेता गुजरात में हिंदू-मुस्लिम अलगाव की अपनी मांग में मुखर रहे हैं, जिसमें मुसलमानों के हिंदुओं से संबंधित भूमि पर कब्जे के बारे में पागलपन भरे उन्माद की भावना पैदा करना शामिल है. वे अशांत क्षेत्र अधिनियम की एक गलत व्याख्या का प्रचार करते हैं कि धार्मिक तर्ज पर स्थानिक अलगाव यह सुनिश्चित करेगा कि दंगे न हों. अहमदाबाद के सीईपीटी विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले एक अकादमिक और लेखक फहद जुबरी कहते हैं कि, “‘अन्य’ का डर स्थानिक सीमाओं और अलगाव की भौगोलिक स्थितियों में बदल जाता है.”
मई 2018 में, एक व्यापारी और अल्पसंख्यक-अधिकार कार्यकर्ता दानिश कुरैशी ने गुजरात उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर कर अधिनियम को चुनौती दी. उन्होंने मुझे बताया कि अधिनियम पंजीकरण अधिनियम, 1908 के विपरीत है, जिसमें पंजीकरण के लिए संयुक्त रूप से संपत्ति लेन-देन के दोनों पक्षों को संयुक्त रूप से पंजीकरण करने की आवश्यकता होती है. उन्होंने कहा कि "यह भारत में कहीं भी रहने वाले के लिए संपत्ति के अधिग्रहण, अधिकार और निपटान के लिए संविधान के अनुच्छेद 19 में वर्णित मूल सिद्धांतों का भी उल्लंघन करता है."
अधिनियम के अनुसार, राज्य किसी क्षेत्र को अशांत घोषित कर सकता है यदि उसकी यह "राय हो कि उस क्षेत्र में सार्वजनिक व्यवस्था दंगा या भीड़ की हिंसा के कारण पर्याप्त अवधि के लिए अशांत थी." गुजरात एकमात्र ऐसा राज्य है, जहां संपत्ति के हस्तांतरण में इस तरह के प्रतिबंध हैं. पिछले तीन दशकों में, राज्य सरकार ने अधिनियम के प्रभाव का अध्ययन नहीं किया है. सीमांकित अशांत क्षेत्रों में से किसी का भी कभी उद्धार नहीं हुआ है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार एक राष्ट्रव्यापी प्रवृत्ति के तहत गुजरात में भी 2014 से 2016 तक सांप्रदायिक हिंसा में वृद्धि देखी गई. लेकिन 2002 के बाद से यहां बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक दंगे नहीं हुए.
हालांकि, पिछले साल जुलाई में, राज्य सरकार ने अधिनियम के तहत 74 नए स्थानों को शामिल किया, जिससे अशांत क्षेत्रों की संख्या 697 से बढ़कर 700 से अधिक हो गई. इस वर्ष का संशोधन यह बताता है कि अगर राज्य सोचता है कि किसी क्षेत्र में किसी एक समुदाय के व्यक्तियों के "अनुचित रूप से इकट्ठा" होने से "विभिन्न समुदायों के बीच आपसी और शांतिपूर्ण सामंजस्य खराब हो सकता है'' तो उस क्षेत्र को "अशांत" घोषित कर सकता है. संशोधन अशांत क्षेत्र के आसपास के 500 मीटर के दायरे को भी कानून के दायरे में निर्दिष्ट करता है. इस कानून के उल्लंघन करने की सजा भी गंभीर हो गई है- छह महीने की कैद से लेकर छह साल तक की जेल.
संशोधन अहमदाबाद में समुदायों के भौगोलिक अलगाव के एक लंबे इतिहास की पृष्ठभूमि को सामने लाता है. 1870 के दशक में साबरमती नदी के पार पुलों के निर्माण के साथ, उच्च जाति के हिंदू शहर के पश्चिमी किनारे पर चले गए, जबकि मुस्लिम, दलित और बहुजन समुदाय शहर के पूर्वी हिस्से में रहे. साबरमती के पूर्व में अब पुराना शहर है, और बेहतर बुनियादी ढांचे के साथ नए व्यापारिक केंद्र पश्चिम में हैं.
1940 के दशक में, शहर की कई हाउसिंग सोसाइटियों को विशिष्ट समुदायों के लिए भी सीमांकित किया गया था, जैसा कि उनके नामों से पता चलता है- "ब्रह्मक्षत्रिय समाज," "सौराष्ट्र सोसाइटी," "जैन सोसाइटी," "पटेल सोसाइटी," "ब्राह्मण सोसाइटी" और इसी तरह की अन्य सोसायटियां भी. परंपरागत रूप से पुराने शहर में अधिकांश सघन बस्तियां, जिन्हें पोल कहा जाता है, अब भी समान समुदायों के लोगों द्वारा बसी हुई हैं. जुबरी ने कहा, "अधिनियम के लिए एक सामाजिक वैधता है जो 'सीमाओं' की धारणा से आती है क्योंकि संपत्तियों को पहले से ही सामुदायिक तौर पर बहुत सख्ती से अलग किया गया है."
अहमदाबाद में 1969, 1985, 1992 और 2002 में बार-बार होने वाले सांप्रदायिक दंगों ने हिंदुओं और मुस्लिम समुदायों के बीच सीमाओं को और मजबूत किया. 1960 और 1980 के दशक के बीच मुस्लिम, हिंदू-बहुल क्षेत्रों से बाहर चले गए, जैसे कि खड़िया और किशोर दरवाजा, जबकि हिंदू शाहपुर जैसे क्षेत्रों से बाहर चले गए. धीरे-धीरे, अल्पसंख्यकों को अविकसित क्षेत्रों और भीड़भाड़ वाली सघन बस्तियों में धकेल दिया गया. पुराने शहर का जुहापुरा वर्तमान में गुजरात में मुस्लिमों की सबसे बड़ी सघन बस्ती है- 1992 और 2002 के दंगों के बाद, बड़ी संख्या में मुस्लिम इस क्षेत्र में चले गए क्योंकि इसे एक सुरक्षित क्षेत्र माना गया था.
इस अलगाव के चलते रियल एस्टेट बाजार को आर्थिक नुकसान हुआ है, जो प्रतिकूल रूप से हिंदुओं को भी प्रभावित करता है. जुबरी ने कहा, “यह विचार, जैसा कि जनता के सामने प्रस्तुत किया गया है, सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं के बाद संकट में बिक्री के माध्यम से संपत्तियों के अधिग्रहण को रोकने के लिए था. जो भी मामला है, अधिनियम का उपयोग इसके विपरीत उद्देश्यों के लिए किया गया है." उन्होंने कहा," यदि कोई मुस्लिम स्वामित्व वाली संपत्ति के बगल में रह रहा है, तो उनकी अचल संपत्ति की कीमतें गिर जाने की संभावना है." जब कोई गैर-मुस्लिम खरीददार बाजार मूल्य पर संपत्ति खरीदने का प्रस्ताव नहीं करता तो विक्रेताओं पर मुस्लिम खरीदारों को बिक्री करने के लिए मजबूर होना पड़ता है या कम लागत पर बिक्री करनी पड़ती है.
पुराने शहर में रियल एस्टेट बाजार का नुकसान लगभग मुस्लिमों की सघन बस्ती के रूप में स्पष्ट हैं. एक रियल एस्टेट ब्रोकर गुलजार अहमद मोमिन मुझे शाहपुर और दरियापुर की भूलभुलैया जैसी गलियों में ले गए. खाली मकानों और जीर्ण-शीर्ण संरचनाओं की ओर इशारा करते हुए, मोमिन ने कहा, “ये इस हालत में पड़े हुए हैं क्योंकि मालिक उन्हें उचित दर पर नहीं बेच पा रहे हैं. गरीब लोग जिनके ये घर ही उनका एकमात्र निवेश है, वे वास्तविक परेशानी में हैं.” जुबरी ने कहा कि कुछ रियल एस्टेट डेवलपर्स मुसलमानों को अपने प्रोजेक्ट के मूल्य में गिरावट होने के रूप में फ्लैट नहीं बेचते हैं. उन्होंने कहा कि यह ध्यान देने योग्य है कि एक अधिनियम जो "विशेष रूप से गुजरात जैसे व्यापार-उन्मुख राज्य में बाजार के लिए हानिकारक है, लंबे समय तक कायम रहा."
इन मौजूदा विभाजनों की पृष्ठभूमि में, दक्षिणपंथी समूहों ने मुसलमानों को दुश्मन बनाने के लिए अधिनियम को लागू किया है. 2014 में, एक सार्वजनिक सभा में, विश्व हिंदू परिषद के एक पूर्व नेता, प्रवीण तोगड़िया, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सहयोगी थे, ने सुझाव दिया कि अशांत क्षेत्र अधिनियम लागू किया गया था ताकि मुस्लिम हिंदू स्थानों में प्रवेश न कर सकें. तोगड़िया ने दावा किया कि हिंदुओं के स्वामित्व वाली भूमि पर कब्जा करना एक "लंबे समय से चली आ रही साजिश है जिसे मुसलमान अंजाम दे रहे हैं." उन्होंने आगे कहा "हम इसे कैसे रोक सकते हैं?" इसके दो तरीके हैं. एक, हर जगह अशांत क्षेत्र अधिनियम लागू करना. दो, किसी वकील से परामर्श करें, उनके घरों में घुस जाएं, जबरदस्ती उस पर कब्जा कर लें और वीएचपी की युवा शाखा, बजरंग दल के बोर्ड को लटका दें. हम बाद में विवाद को संभाल सकते हैं."
शहर में तोगड़िया के दोनों प्रस्तावों पर अमल किया जा रहा था. 89 साल के मालेक हुसैन ने मुझे बताया कि वे और उनका छह लोगों का परिवार 1994 से दरियापुर के मुस्लिम बहुल इलाके में अपने घर में नहीं रहा है. हुसैन ने कहा कि उस साल विहिप से जुड़े लोगों ने घर पर कब्जा कर लिया. जब हुसैन ने पुलिस से संपर्क किया, तो उन्होंने इस मामले में कोई हस्तक्षेप नहीं किया. मई 2013 में, गुजरात उच्च न्यायालय ने पुलिस को निर्देश दिया कि यदि हुसैन दुबारा उनके पास आएं तो पुलिस को उनकी मदद करनी चाहिए. लेकिन हुसैन ने मुझे बताया कि पुलिस अभी भी उसकी सहायता के लिए नहीं आई. उन्होंने बताया कि वे अब एक कमरे के किराए के घर में रहते हैं, जबकि घुसपैठिए वर्तमान में अपने दरियापुर के घर में रह रहे लोगों से किराया लेते हैं. हुसैन के चार पड़ोसियों ने कहा कि उन्हें भी विहिप सदस्यों के साथ इसी मुद्दे का सामना करना पड़ा है, और उनके मामले अभी भी अदालत में लंबित हैं.
भाजपा के नेताओं ने खासकर चुनाव से पहले वही आह्वान किया है जो तोगड़िया ने किया था. गुजरात विधानसभा चुनाव से चार महीने पहले अगस्त 2017 में, सूरत जिले के लिम्बायत निर्वाचन क्षेत्र के भाजपा विधायक संगीताबेन पाटिल ने कहा, "लिंबायत कभी हिंदू क्षेत्र था." उन्होंने अपने निर्वाचन क्षेत्र में अधिनियम लागू करने की मांग की. "उन्हें हिंदू क्षेत्रों में फैलने से रोकें.” एक समाचार रिपोर्ट के अनुसार, उन्होंने कहा कि मुसलमानों के लिए यह बहुत गलत है कि वे हिंदुओं को अपने घर बेचने के लिए बहुत ज्यादा कीमत देने का प्रलोभन दें. सूरत पश्चिम विधानसभा क्षेत्र के भाजपा विधायक पूर्णेश मोदी ने भी यही मांग उठाई थी.
अक्टूबर 2017 में, लिम्बायत और वडोदरा सहित, सूरत के कुछ हिस्सों में किसी अशांति के बिना ही अधिनियम लागू किया गया था. पाटिल और मोदी दोनों अपने निर्वाचन क्षेत्रों से दुबारा चुन लिए गए. कुरैशी के अनुसार, अधिकांश निर्वाचन क्षेत्रों में अल्पसंख्यक समुदाय के जनसांख्यिकीय प्रसार को नियंत्रित करके, राज्य सरकार विधानसभा में समुदाय के प्रतिनिधियों की संख्या में कमी लाई है.
अलगाव के अपने उद्देश्यों को आगे बढ़ाते हुए, कुछ दक्षिणपंथी समूहों ने यह भी चिंता जाहिर की कि मुसलमानों का अपना खुद का एक अलग समाज है. उदाहरण के लिए, इस साल मार्च में, एक भाजपा नेता और वडोदरा के पूर्व महापौर भरत शाह ने वडोदरा के निजामपुरा के 52 इलाकों में 800 मुस्लिम परिवारों के लिए आवास परियोजना को निरस्त करने की अनुमति नहीं मिलने पर लोकसभा चुनाव का बहिष्कार करने की धमकी दी थी. प्रदर्शनकारियों ने "हिंदू-बहुल क्षेत्रों को बचाओ" लिखे हुए पोस्टर के साथ कलेक्टर कार्यालय तक जुलूस निकाला.
उन्होंने कलेक्टर को ज्ञापन सौंपा. जिसमें कहा गया कि, "इसके बाद, भविष्य में मुस्लिम समुदाय के सदस्यों द्वारा सभी निर्माण कार्य अपने समुदाय के सदस्यों के पास ही किए जाएंगे और अशांत क्षेत्र अधिनियम के नियमों का पालन करते हुए, वे इसे अपने समुदाय के लोगों को ही बेचेंगे." 2015 में महापौर के अपने कार्यकाल में, शाह ने एक सस्ती-आवासीय योजना के लिए अनुमति वापस ले ली थी, जिसमें मलिन बस्तियों से विस्थापित हुए 450 मुस्लिम परिवारों के पुनर्वास की मांग की गई थी.
मुख्य बाजार पालड़ी क्षेत्र में स्थित एक अपार्टमेंट परिसर, वर्षा फ्लैट्स को लेकर अप्रैल 2018 में हुआ विवाद यह दर्शाता है कि धार्मिक अलगाव विकास में कैसे बाधा है. उस महीने, जब यह खबर फैली कि एक मुस्लिम बिल्डर ने कॉम्प्लेक्स का पुनर्विकास शुरू कर दिया है, तो विहिप से जुड़ी, नागरिक सेवा समिति के लोगों ने इसका विरोध किया. फ्लैटों के 24 मालिकों में से बीस मुस्लिम थे. प्रदर्शनकारियों के पोस्टरों में कहा गया था, "पालड़ी को जुहापुरा न बनने दें " और "पालड़ी को भूमि जिहाद से बचाएं."
वर्षा फ्लैट्स के एक मुस्लिम निवासी ने मुझे बताया कि पालड़ी में रहने वाले हिंदू और जैन समुदायों को उस क्षेत्र के मुस्लिमों से कोई समस्या नहीं थी. उन्होंने कहा, "यह राजनेताओं और राजनीतिक रूप से प्रेरित समूह हैं, जो इसे मुद्दा बना रहे हैं." उन्होंने, वर्षा फ्लैट्स के पार स्थित एक आवासीय संपत्ति की ओर इशारा करते हुए कहा, "उस घर के मालिक घर बेचना चाहते हैं, लेकिन वे इस धार्मिक अलगाव के कारण उचित मूल्य पर उसे बेचने में असमर्थ हैं."
ऐसे कई मामले हैं जहां सदर कुंज जैसी ही हालत है. पटेल ने कहा कि वे नवरंगपुर जैसे विकासशील क्षेत्रों में संपत्ति खरीदना चाहते थे, लेकिन अगर वे शाहपुर की संपत्ति "हिंदू या जैन खरीदारों द्वारा दी जा रही दर पर बेचते हैं, तो हम वहां एक बाथरूम भी खरीदने के बारे में नहीं सोच सकते हैं." कुछ मुस्लिम खरीदार थे जो बाजार मूल्य पर खरीदने को तैयार थे, लेकिन उन्हें बेचने के लिए कलेक्टर की अनुमति प्राप्त करना एक बड़ी दिक्कत है, उन्होंने कहा, "हम खरीदारों के धर्म की परवाह नहीं करते हैं." मैंने सदर कुंज के संबंधित कलेक्टर, विक्रांत पांडे और शाहपुर से विधायक गयासुद्दीन शेख से संपर्क किया लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया.
इसके अलावा, अधिनियम के कार्यान्वयन में अस्पष्टता प्रतीत होती है. वर्षा फ्लैट्स के डेवलपर्स में से एक नौशाद ने कहा, “जब हमने 2015 में पुनर्विकास की अनुमति मांगी, तो रजिस्ट्रार ने कहा कि ये प्लॉट अधिनियम के तहत नहीं आते हैं, लेकिन जब एक नए रजिस्ट्रार ने कार्यभार संभाला तो उन्होंने कहा कि कुछ प्लॉट अधिनियम के तहत आ गए थे”. राज्य के राजस्व विभाग के एक अधिकारी ने स्वीकार किया कि अधिनियम के तहत शामिल क्षेत्रों के बारे में स्पष्टता का अभाव है- कोई प्लॉट इसके दायरे में आ सकता है और उसके बगल वाला प्लॉट नहीं भी आ सकता है.
हालांकि, परमीशन को मंजूरी देने का दायित्व स्थानीय पुलिस पर होती है. मैं शाहपुर में एक 56 वर्षीय ऑटोमोबाइल-रिपेयर शॉप के मालिक से मिली, जिन्होंने मुझे बताया कि वे दो दशक से दुकान का किराया दे रहे हैं. उन्होंने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि वे डेढ़ साल से इस जगह के मुस्लिम मालिक से इसे खरीदने की अनुमति लेने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन अभी तक अनुमति नहीं मिली है. उन्होंने कहा कि "लोगों ने अनुमोदन प्राप्त करने के लिए पुलिस अधिकारियों को लगभग 20000 या 30000 रुपए का भुगतान किया. ये बातें हर जगह होती हैं. लेकिन निराशा की बात यह है कि इसके बाद भी काम नहीं हो रहा है."
कलेक्टर की अनुमति पुलिस के ऊपर टिकी है. अहमदाबाद के पुलिस कमिश्नर ए के सिंह ने कई बार फोन और ईमेल करने का कोई जवाब नहीं दिया. राजस्व विभाग के अधिकारी ने पुलिस की ओर से अनुमति देने में देरी की पुष्टि की. उन्होंने कहा, "पुलिस स्टेशन से अनुमति लेने में कई बार छह महीने और उससे अधिक समय लगता है." उन्होंने कहा कि आमतौर पर, जब अनुमति नहीं दी जाती है, तो "आवेदक को यह जवाब मिलता है कि सौदे को मंजूरी नहीं दी जा सकती क्योंकि क्षेत्र में सांप्रदायिक गड़बड़ी की संभावना है." कुरैशी ने इस पद्धति को दोषपूर्ण पाया. उन्होंने कहा कि "नागरिकों की सुरक्षा करना पुलिस का कर्तव्य है. अगर वे जानते हैं कि हिंसा की संभावना है, तो वे भविष्यवाणी करने के बजाय इसे रोकने के लिए कार्रवाई क्यों नहीं करते हैं?"