“आम आदमी को नहीं मालूम कि कांग्रेस की विचारधारा क्या है”, दार्शनिक राठौड़

16 December, 2019

आकाश सिंह राठौड़ दार्शनिक हैं, जिन्होंने भारतीय राजनीतिक विचार, न्यायशास्त्र, मानव अधिकारों और दलित नारीवादी सिद्धांत के दर्शन पर काम किया है. राठौड़ ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, बर्लिन विश्वविद्यालय और न्यू जर्सी स्टेट यूनिवर्सिटी में अध्यापन किया है. फिलहाल वह रोम (इटली) के लुइस विश्वविद्यालय से संबद्ध एथोस नामक थिंक टैंक से जुड़े हैं. वह रीथिंकिंग इंडिया श्रृंखला के संपादक हैं जो 14 संस्करणों का एक संग्रह है. इसका उद्देश्य प्रगतिशील वामपंथी मूल्यों को स्पष्ट और मजबूत बनाने के लिए अलग-अलग पृष्ठभूमि के लेखकों को साथ लाना है. यह श्रृंखला जाति, अर्थशास्त्र, जेंडर, संस्थानों, अधिकारों और अल्पसंख्यकों की अवधारणाओं और प्रथाओं पर केंद्रित है. जल्द ही प्रकाशित होने जा रहे पहले भाग का शीर्षक, विजन फॉर ए नेशन : पाथ्स एंड पर्सपेक्टिव्स है. राठौड़ ने राजनीतिक मनोवैज्ञानिक और सामाजिक सिद्धांतकार आशीष नंदी के साथ इसका संपादन किया है.

कारवां के रिपोर्टिंग फेलो तुषार धारा ने राठौड़ से वामपंथियों की विफलता और दुनिया की तरह भारत में दक्षिणपंथ को मिल रहे जन समर्थन पर बात की. राठौड़ के अनुसार, भारतीय संविधान में मौजूद वामपंथी आदर्शों के जरिए दक्षिणपंथ को चुनौती देने की आवश्यकता है.

तुषार धारा : 14 खंडों के लिए 130 लेखकों को क्यों साथ लाना पड़ा? क्या यह प्रगतिशील आदर्शों की पुनः अभिव्यक्ति है?

आकाश सिंह राठौड़ : लेखकों की पृष्ठभूमि वामपंथियों से लेकर मध्यममार्गी और प्रगतिशीलों तक है. व्यक्तिगत तौर पर मैं आंबडेकरवादी हूं. लेकिन ये लेखक कमोबेश ऐसे लोग हैं जो संविधान की प्रस्तावना में निहित उन मूल्यों को मानते हैं जो बताते हैं कि भारत को कैसा होना चाहिए. जो लोग बहुसंख्यकवाद की चुनौती को समझते हैं, हम उनसे सहयोग ले रहे हैं. फिलहाल एक विशेष वर्ग के लोग इसका परिणाम भुगत रहे हैं. अल्पसंख्यकों, जिनमें ऐतिहासिक रूप से वंचित लोग शामिल हैं जैसे दलित-बहुजन, आदिवासी या धार्मिक समूह जैसे मुस्लिम और ईसाई और भौगोलिक और राजनीतिक रूप से हाशिए पर रहने वाले पूर्वोत्तर भारत के लोग इस विचारधारा का सामना कर रहे हैं. लेकिन यह विचारधारा हिंसा, अधिकारों के हनन, जीवन और आजीविका को नुकसान, लिंचिंग और भीड़ की मानसिकता के जरिए अभिव्यक्त होती है. जैसे-जैसे यह और फलती-फूलती है, वैसे-वैसे वह बहुमत को निशाना बनाने लगती है. अल्पसंख्यक की स्वतंत्रता और अधिकारों का हनन करने का अर्थ है सभी के अधिकारों का हनन करना. कोई भी व्यक्ति सुरक्षित या मजबूत नहीं होगा, सभी परिणाम भुगतेंगे. यह वास्तविकता हम सभी को प्रभावित करेगी. हमारे सभी अधिकारों के ऊपर राजनीतिक सनक का खतरा मंडरा रहा है. यदि हम इसी गति से जारी रहे, तो कौन मुक्त रहेगा?

धारा : इस श्रृंखला में क्या-क्या प्र​काशित होगा?

राठौड़ : हमने "विचार" पुस्तक के साथ श्रृंखला की शुरुआत की है. जो बताती है कि प्रगतिशील लोग क्या मानते हैं और क्यों हम इसे सही मानते हैं. विचारों की किताब में हम जो कहना चाह रहे हैं वह यह है कि अगर हम एक राष्ट्र के रूप में सफल होना चाहते हैं, तो हमें न्याय, स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व के विचारों पर टिके रहना होगा. फिर भले वह संवाद कितना ही मुश्किल क्यों न लगे या चुनावों में हम बुरी तरह से पराजित ही क्यों न हों. दूसरा खंड अल्पसंख्यकों पर केंद्रित है और तीसरा रोजगार के निर्माण पर. भारत में रोजगार का बड़ा संकट है. यहां तक ​​कि दक्षिणपंथी झुकाव वाले थिंक टैंक भी मानते हैं कि हमें हर साल बीस मिलियन नौकरियां पैदा करनी होगी. इसके बजाय हम नौकरियां गुमा रहे हैं. चौथा खंड हमारे अधिकारों और विकास के लिए उनकी केंद्रीयता पर है. ये सभी प्रकाशन के लिए तैयार हैं, हम प्रति माह एक खंड प्रकाशित करेंगे. सभी तरह की विचाधारा वाली पार्टियों के लोग इस बात से सहमत हैं कि हमारे संस्थान विफल हो रहे हैं और हमें यह पता लगाने की आवश्यकता है कि इन संस्थानों को कैसे ठीक किया जाए. जो लोग पिछले पचास या साठ वर्षों से सत्ता में थे उन्हें यह स्वीकार करने की जरूरत है कि उन्होंने क्या गलत किया. इन संस्थानों को विफल क्यों होने दिया गया? जेंडर, अनुसूचित जाति, आदिवासियों और अन्य पिछड़े वर्गों पर पुस्तकें हैं.

धारा : सेंटर-लेफ्ट की किन विफलताओं के चलते ऐसा हुआ?

राठौड़ : एक दशक या उससे अधिक समय तक भारत का सेंटर-लेफ्ट अपने प्रगतिशील मूल्यों की अभिव्यक्ति से ज्यादा राजनीति के गिरते स्तर से चिंतित रहा. यह अस्पष्ट विचारधारा है. अगर मैं किसी से भी पूछूं, "कांग्रेस की विचारधारा क्या है?" तो आसान जवाब नहीं मिलता, लेकिन अगर मैं यह पूछूं कि "भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा क्या है?" तो जवाब आसान होता है. यह हो सकता है कि मुझे यह उत्तर पसंद नहीं आए लेकिन अगर सड़क पर औसत व्यक्ति यह नहीं कह सकता है कि आप क्या चाहते हैं, तो यह एक समस्या है और सेंटर-लेफ्ट पार्टियों ने अपनी कमजोरियों से इस विमर्श को बनने दिया है. एक दिन ये धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं और अगले दिन हिंदू वोटों के लिए मंदिर पहुंच जाते हैं. फिर एक और दिन अनुसूचित जातियों के अधिकारों के लिए होढ़ कर रहे होते हैं और अगले दिन आरक्षण को कमजोर बना रहे होते हैं. हम यह कहने के लिए एक साथ आ रहे हैं कि हमारे पास मूल्यों की एक पूंजी है जो स्पष्ट और मूल्यवान हैं. हम इसे उन दलों को सिखाना चाहते हैं जो अस्पष्ट हैं कि "क्या मैं धर्मनिरपेक्ष शब्द का उपयोग कर सकता हूं, या क्या यह एक गंदा शब्द है?" हम उन्हें याद दिलाना चाहते हैं कि यह वही है जिसके लिए 1940 के दशक में हम एक राष्ट्र के रूप में साथ आए थे.

धारा : आपने कहा कि भारत दक्षिणपंथ की दौड़ में दुनिया में सबसे आगे है. क्या आप उदाहरणों के साथ इस बारे में बताएंगे?

राठौड़ : मैंने बुडापेस्ट के केंद्रीय यूरोपीय विश्वविद्यालय से तुलनात्मक संवैधानिक कानून में एलएलएम (विधि में मास्टर्स) किया है. यह हंगरी में है जहां घोर दक्षिणपंथी सरकार है. मैं हंगेरियन, फ्रेंच, जर्मन और इतालवी अखबार पढ़ता था. उनमें जब भी राष्ट्रों में दक्षिणपंथ के हावी होने की बात होती है तो भारत हमेशा शीर्ष तीन देशों में आता है. अगर कोई पत्रकार इटली या हंगरी के बारे में बात कर रहा है जहां दक्षिणपंथी दौर रहा है तो वह अपने देश का और डॉनल्ड ट्रम्प के कार्यकाल में संयुक्त राज्य अमेरिका का उल्लेख तो करेगा ही लेकिन उसकी बातों में भारत और मोदी भी नंबर तीन पर होंगे, जो अप्रत्याशित है क्योंकि हम एक राष्ट्र के रूप में ऐसी पहचान नहीं चाहते. भारत हमेशा ही आशा की किरण जैसा था.

धारा : ऐसा क्यों है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मोदी को शीर्ष दक्षिणपंथी पॉपुलिस्ट नेताओं में देखा जाता है?

राठौड़ : पिछली सदी का अंत एशिया की बढ़त के साथ हुआ. भारत ने सांस्कृतिक पहुंच और प्रभाव को बढ़ाने के लिए अपनी सॉफ्ट पॉवर का इस्तेमाल किया. उदाहरण के लिए, तुर्की टैक्सी के रेडियो में और न्यूयॉर्क, कनाडा या हांगकांग में हिंदी गाने सुनाई देते थे. लोग बॉलीवुड फिल्मों और भारतीय भोजन का संदर्भ दे रहे थे. उसी समय, इसकी आर्थिक शक्ति बढ़ रही थी. जब भारत और चीन जैसे देशों ने वैश्विक आर्थिक यथास्थिति को तोड़ना शुरू किया, तो लोग इन पर ध्यान देने लगे. भारत को वैश्विक स्तर पर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है और जब सरकार का मुखिया नरेन्द्र मोदी जैसा कोई व्यक्तित्व होता है, तो ध्यान दिया ही जाता है.

धारा : तो क्या जब मोदी अपने घरेलू समर्थकों के सामने दावा करते हैं कि उन्होंने भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ऊपर पहुंचाया है, वह पूरी तरह से गलत नहीं है, सिवाय इसके कि यह उस दायरे से अलग है जिस पर सेंटर-लेफ्ट सोचता है?

राठौड़ : हां, लेकिन यह एक दोधारी तलवार है. अब आपको यूरोप में ऐसे लोग नहीं मिलेंगे जिन्हें नहीं मालूम की मुंबई कहां है. लेकिन अब वह पूछते हैं, "क्या आपके यहां मिनी-हिटलर भी है?”

धारा : पिछले पांच सालों में अल्पसंख्यकों का सवाल जरूरी बन गया है. क्या अल्पसंख्यकों की समस्याओं को लेकर नई अवधारणा बन रही है?

राठौड़ : इक्कीसवीं सदी में अल्पसंख्यकों का सवाल महत्वपूर्ण बन गया है क्योंकि अल्पसंख्यकों को विभिन्न अवधारणाओं में रखा जा सकता है. एलजीबीटी को छोड़ दें तो दुनिया भर में सभी अल्पसंख्यकों के अधिकारों, समानता और सामाजिक समानता की भावना को चोट आई है. भारत के अल्पसंख्यकों ने किसी तरह मानव अधिकारों की सार्वभौमिक मान्यता में कुछ प्रगति करने में कामयाबी पाई है. लेकिन पिछले पांच सालों में उन पर हमले हुए हैं. अन्य अल्पसंख्यकों को बहुत नुकसान हुआ है. यह पॉपुलिज्म का सार है. लेकिन हमें स्पष्ट समझना होगा कि संसदीय लोकतंत्र के साथ न्यायिक समीक्षा की प्रक्रिया जुड़ी रहती है. चुनावी प्रक्रिया में अल्पसंख्यकों का भरोसा घटा रहता है. न्यायिक समीक्षा बहुसंख्यक के अत्याचार पर अंकुश लगाती है. बहुसंख्यक का अत्याचार वह है जो हम अनुच्छेद 370, राष्ट्रीय नागरिक पंजिका और अन्य में देख रहे हैं. संविधान का काम अल्पसंख्यक पर बहुमत के अत्याचार को रोकना है.

धारा : नरेन्द्र मोदी शासन में संस्थान काफी कमजोरे हुए हैं. क्या इस स्थिति में सुधारा किया जा सकता है?

राठौड़ : संयुक्त राज्य अमेरिका को लीजिए. वहां राष्ट्रपति संस्था और न्याय विभाग जैसी कार्यकारी शाखाओं के साथ उसके संबंध को देखिए. वहां का कानून बताता है कि संस्थानों को कैसे चलाया जाना चाहिए. वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इन सभी संस्थानों का माखौल उड़ाया. लोग चिल्ला रहे हैं कि यह अवैध है, और फिर भी, प्रत्येक मामले में यह सामने आता है कि अवैध भले ही न हो लेकिन मानक प्रथाओं से हट कर है. यह आवश्यक नहीं कि संस्थान केवल कानून से चलते हों बल्कि वह विरासत से भी संचालित होते हैं. भारत में पिछले पांच सालों में संस्थान धराशाई इसलिए हो गए क्योंकि इन पर कब्जा हो जाने से बचाने वाले कानूनी मानदंड स्पष्ट नहीं थे. जबकि, राजनीतिक दल, जब उन्हें बहुमत मिलता है, अपने इरादों में अस्पष्ट नहीं होते हैं.

लेकिन मुझे लगता है कि बगैर इस पर बात किए कि कांग्रेस के शासन में संस्थाओं का क्या हश्र हुआ इस पर बात करना ठीक नहीं होगा कि अब इनके साथ क्या हो रहा है. राजनीतिक दल हमेशा ही संस्थानों को अपने हिसाब से चलाना चाहते हैं. लेकिन अब यह माना जा रहा है कि संस्थानों का काम सत्तारूढ़ दल की नीतियों को लागू करना भर नहीं है, बल्कि उन्हें सत्ताधारी दल की मान्यताओं को भी लागू करना होता है.