परवेज परवाज गोरखपुर रेलवे स्टेशन के सामने से गुजर रहा था कि तभी उसकी निगाह महाराणा प्रताप की मूर्ति के पास जुटी एक बड़ी भीड़ पर गई. बात 27 जनवरी 2007 की है. शाम ढलने लगी थी. उसने देखा कि भारतीय जनता पार्टी के गोरखपुर के सांसद आदित्यनाथ अपने भगवा लबादे में एक भड़काऊ भाषण दे रहे थे और भीड़ में से लोग उत्साह में बीच-बीच में जय जयकार कर रहे थे. परवेज को इस बात की जानकारी थी कि अभी हाल के मुहर्रम के जुलूस के दौरान शहर में कहीं मुठभेड़ हो गई थी जिसमें एक हिंदू लड़का घायल हुआ था और बाद में उसकी मौत हो गई थी. इस घटना से काफी तनाव फैला हुआ था. उसने मुझे बताया कि ‘‘इस उत्तेजक वातावरण को देखकर मैं खुद को बचते-बचाते उस भीड़ में घुसा.’’ भीड़ में मुख्य रूप से हिंदू युवा वाहिनी के सदस्य थे. युवकों की इस वाहिनी का गठन आदित्यनाथ ने तकरीबन पांच साल पहले किया था. परवेज अपने साथ हमेशा एक कैमरा रखता था और उसने उस कैमरे की मदद से आदित्यनाथ के भाषण को रेकार्ड करना शुरू किया.
आदित्यनाथ ने जोशीले अंदाज में कहा, ‘‘एक हिंदू के खून के बदले आने वाले समय में हम प्रशासन से एफआईआर दर्ज नहीं कराएंगे बल्कि कम से कम 10 ऐसे लोगों की हत्या उससे करवाएंगे.’’ भीड़ ने उत्साह में तालियां बजाईं.
आदित्यनाथ का भाषण खत्म होते ही परवेज चुपचाप अपने घर लौट आया लेकिन शहर उबलने लगा था. सुनील सिंह ने मुझे बताया कि ‘‘आदित्यनाथ का भाषण खत्म होने से पहले ही जहां वह सभा हो रही थी उसके पास के एक होटल को लोगों ने लूट लिया और तहस-नहस कर दिया.’’ उन दिनों सुनील सिंह हिंदू युवा वाहिनी का राज्य अध्यक्ष था और आदित्यनाथ का दाहिना हाथ था. इस मामले में वह भी एक आरोपी है. आदित्यनाथ के भाषण से एकदम पहले उसने ही भीड़ को संबोधित किया था. उसने मुझे बताया कि ‘‘वह होटल एक स्थानीय मुसलमान का था. वहां से दंगा शुरू हुआ जो धीरे-धीरे गोरखपुर के अन्य हिस्सों तक फैल गया.’’ इस दंगे में कम से कम दो लोग मारे गए और करोड़ों की संपत्ति जलकर स्वाहा हो गई.
अगले दिन जिला अधिकारी की निषेधाज्ञा के बावजूद आदित्यनाथ और उनके समर्थकों ने एक जुलूस की शक्ल में गोरखपुर के दंगाग्रस्त इलाकों का दौरा किया. आदित्यनाथ को उनकी वाहिनी के दर्जन भर से अधिक नेताओं सहित गिरफ्तार कर लिया गया. यह गिरफ्तारी 29 जनवरी को ऐसे समय की गई ताकि वाहिनी के सदस्य मुसलमानों द्वारा अपने कंधों पर ले जा रहे ताजिया को जलाने की धमकी अमल में न ला सकें.
आदित्यनाथ कई दिनों तक गोरखपुर की जेल में पड़े रहे. 7 फारवरी को उनको जमानत मिल सकी. सुनील सिंह ने मुझे बताया, ‘‘मुझे भी आदित्यनाथ के साथ गिरफ्तार किया गया था. वह 11 दिनों तक हिरासत में रहे लेकिन मुझे 66 दिनों बाद रिहा किया गया.’’
यह पहला और एकमात्र मौका था जब स्थानीय प्रशासन ने आदित्यनाथ और उनके गुंडों के खिलाफ इतनी फुर्ती के साथ कार्रवाई की थी. उन दिनों उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी और वह भी आमतौर पर आदित्यनाथ की हरकतों की ओर से आंख बंद किए रहते थे. इतनी तेजी से कार्रवाई किए जाने का कारण यह हो सकता है कि उस वर्ष अप्रैल और मई में राज्य विधानसभा के चुनाव होने थे और आदित्यनाथ एक स्थानीय आपराधिक घटना को सांप्रदायिक दंगे का रूप देने पर आमादा थे. वहां के लोगों से जब मैंने बात की तो लोगों का यह कहना था कि अगर सांप्रदायिक आधार पर कोई लड़ाई होती तो चुनाव में समाजवादी पार्टी कमजोर पड़ जाती क्योंकि उस हालत में वहां के मुसलमान मुलायम सिंह की मुख्य प्रतिद्वंद्वी मायावती की बहुजन समाज पार्टी को वोट दे देते.
जो भी हो, इस गिरफ्तारी से और आदित्यनाथ की सुरक्षा में लगे लोगों को वापस लेने के राज्य सरकार के फैसले से योगी के हाथ पांव फूल गए. 12 मार्च की वह घटना सबको याद है जब लोकसभा में वह रो पड़े थे. 1998 से ही सदन में वह गोरखपुर का प्रतिनिधित्व कर रहे थे. जेल की अपनी आपबीती सुनाते हुए उनकी आंखें भर आईं और आंसू बाहर निकलने लगे. बोलते बोलते आवाज थरथराने लगी और गला भर आया. उन्होंने कहा- ‘‘मैंने समाज के लिए अपने घर बार का त्याग किया, अपने परिवार का त्याग किया, अपने माता और पिता को छोड़ दिया लेकिन मुझे अपराधी बनाया जा रहा है.’’ उन्होंने अपने खिलाफ ‘‘राजनीतिक साजिश’’ की बात कहते हुए धमकी दी कि अगर संसद ने उन्हें सुरक्षा नहीं प्रदान की तो वह अपनी सदस्यता छोड़ देंगे.
आदित्यनाथ जैसे दबंग के सार्वजनिक तौर पर रोने और संरक्षण प्रदान करने की गुहार लगाने का जबर्दस्त प्रभाव दिखाई दिया. इससे उनके अनुयायियों को धक्का लगा- खासतौर पर सवर्ण ठाकुरों को जो उनके अंदर एक जुझारू और बहादुर इंसान को देखते थे. उन्होंने महसूस किया कि उन्हें नीचा दिखाया गया है और बड़े जतन के साथ तैयार की गई उनकी निडर तथा आग उगलने वाले हिंदू योद्धा की छवि को ध्वस्त किया गया है. लेकिन उन लोगों ने एक बार फिर उनकी छवि को नए सिरे से गढ़ना शुरू किया और यह दलील देने लगे कि वह तो बेहद भावुक और संवेदनशील व्यक्ति हैं जबकि गोरखपुर के तमाम लोग उनके बारे में कहने लगे कि वह एक कायर इंसान हैं जो बस मार-काट और हिंसा फैला सकते हैं. इस वारदात के 10 साल बाद वह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए.
उत्तर प्रदेश पर आदित्यनाथ का शासन एक आत्मविश्वास और बेचैनी के साथ शुरू हुआ. 2017 के राज्य विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को जबर्दस्त कामयाबी मिली और सदन में उसका बहुमत स्थापित हो गया. चुनाव प्रचार के दौरान इसने मुख्यमंत्री पद के लिए किसी नाम की घोषणा नहीं की थी और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता के सहारे ही पूरे प्रचार अभियान को चलाया था. बीजेपी ने जब एक ऐसे कट्टर सांप्रदायिक महंत को इस पद के लिए चुना, जिसका हिंसा भड़काने का इतिहास रहा है, तो यह खबर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में आ गई. उस समय से ही आदित्यनाथ हिंदुत्ववादी राजनीति के सबसे ढीठ चेहरा बन गए. अपने चुनाव के एक महीने बाद टेलीविजन को दिए अपने पहले इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि ‘‘हिंदू राष्ट्र के विचार में कुछ भी गलत नहीं है.’’ राष्ट्रीय राजनीति में मोदी की पहली पारी के दौरान बीजेपी के पास अगर कोई मौका था जिसमें वह अपने हिंसक अतीत पर काबू पाते हुए विकासवादी राजनीति को बढ़ावा देने की कोशिश करती तो आदित्यनाथ के कार्यकाल ने उसकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया.
पिछले पांच वर्षों के दौरान उत्तर प्रदेश से एक के बाद एक खौफनाक खबरें आती रहीं-- गाय के मामलों को लेकर लोगों को मारे जाने की खबरें, फर्जी मुठभेड़ में मारे जाने की खबरें और हाल ही में कोविड-19 में बड़े पैमाने पर हुई मौतें जिनमें सरकार ने मृतकों की संख्या छिपाने की कोशिश की. जहां इन मुद्दों को आदित्यनाथ की सरकार ने छिपाने में कामयाबी नहीं पाई वहां इसने उन लोगों को अपनी सत्ता का शिकार बनाया जिन्होंने इन घटनाओं की ओर ध्यान आकर्षित कराना चाहा. 2017 में डॉक्टर काफिल खां को इसलिए जेल में डाल दिया गया और बार-बार दंडित किया गया क्योंकि उन्होंने गोरखपुर के अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी की ओर इशारा किया था जो सरकारी उपेक्षा की वजह से पैदा हुई थी और जिसके नतीजे के तौर पर 30 से अधिक बच्चों और बड़ों की मौतें हुई थीं. 2019 में पवन जायसवाल नामक पत्रकार को आपराधिक षडयंत्र के मामले में इसलिए गिरफ्तार कर लिया गया क्योंकि उसने स्कूल में भोजन के रूप में बच्चों को दी जाने वाली रोटी और नमक खाती तस्वीर का वीडियो तैयार किया था जो वायरल हो चुका था. 2020 में हाथरस में कुछ सवर्ण लोगों द्वारा एक दलित महिला के साथ किए गए सामूहिक बलात्कार और बाद में उस महिला की हत्या की खबर प्रसारित करने की कोशिश में लगे पत्रकार सिद्दीक कप्पन को दमनकारी यूएपीए कानून के तहत गिरफ्तार कर लिया गया. 2021 में कोविड महामारी की दूसरी लहर के दौरान जब एक अस्पताल ने अपने यहां ऑक्सीजन की कमी से संबंधित नोटिस को बाहर लगाया तो उस अस्पताल के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कर ली गई.
फिलहाल उत्तर प्रदेश पुलिस नियमित तौर पर उन खबरों या ट्वीट के लिए, जिसे सरकार नहीं पसंद करती है, पत्रकारों को नोटिस भेजने में लगी है. आदित्यनाथ ने विरोध प्रदर्शन करने वालों और पत्रकारों के खिलाफ राज्य की पुलिस को बेशुमार अधिकार दे दिए हैं जबकि अक्सर यह देखा जाता है कि वही पुलिस ऊंची जाति के हिंदू लफंगों की करतूतों पर आंख बंद किए रहती है. इसी तरह की कार्रवाइयों को कानून और व्यवस्था बनाए रखने के उनके कड़े उपायों के रूप में प्रचारित किया जाता है.
जैसे-जैसे उत्तर प्रदेश में 2022 का विधान सभा चुनाव नजदीक आता जा रहा है, आदित्यनाथ की सरकार ने विज्ञापनों का अंबार लगा दिया है जिनमें उसकी कथित उपलब्धियों को नकारात्मक खबरों के जवाब में उजागर किया जाता है. उत्तर प्रदेश से बाहर पढ़े जाने वाले अखबारों तक में लगभग रोज ही पहले पन्ने पर मोदी के साथ साथ योगी का चेहरा दिखाई देता है. अप्रैल 2020 से मार्च 2021 के बीच उत्तर प्रदेश सरकार ने विभिन्न टीवी चैनलों को दिए गए विज्ञापनों पर 160 करोड़ रुपए खर्च किए. अपनी छवि चमकाने और उनके शासनकाल में राज्य में व्याप्त आतंक और हिंसा की खबरों से ध्यान हटाने का यह जबर्दस्त प्रयास है.
अन्य हिंदू राष्ट्रवादियों की ही तरह आदित्यनाथ ने भी उन नामों को बदलने में जबर्दस्त रुचि दिखाई है जिन नामों को वह आक्रामक समझते हैं. गोरखपुर के सांसद के रूप में उन्होंने शहर के बहुत सारे इलाकों के नाम बदले : अलीनगर को आर्य नगर, मियां रोड को माया रोड, और उर्दू बाजार को हिंदी बाजार किया. मुख्यमंत्री के रूप में उनकी यह सनक राज्य के अन्य शहरों के नाम बदलने में दिखाई दी. फैजाबाद जिला का नाम अयोध्या जिला और इलाहाबाद को प्रयागराज कर दिया गया. नवंबर 2021 में आजमगढ़ में एक विश्वविद्यालय की आधारशिला रखते हुए उन्होंने कहा, ‘‘यह विश्वविद्यालय, जिसकी आज आधारशिला रखी गई है, आजमगढ़ को सही अर्थों में आर्यमगढ़ बना देगा. इस बारे में कोई संदेह नहीं होना चाहिए.’’
आदित्यनाथ की प्रायः गायों, कुत्तों, बंदरों और अन्य जानवरों के साथ खींची गई तस्वीरें दिखाई देती हैं जिनसे उनके व्यक्तित्व के सहृदय स्वरूप को प्रदर्शित किया जा सके. लेकिन मुस्लिम विरोधी भावनाओं की सबसे हिंसक अभिव्यक्ति का सरोकार उनके गो-रक्षा से है. मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने सबसे पहले जिन मामलों में पहल ली उनमें से एक राज्य के सभी अवैध कसाई घरों बंद करने और इनके खिलाफ पुलिस की जबर्दस्त कार्रवाई करने से संबंधित थी. चूंकि उत्तर प्रदेश के अधिकांश कसाईखाने उचित लाइसेंसों के बिना चलते रहे हैं लिहाजा उनके इस आदेश से कसाइयों और मांस मछली का धंधा करने वालों की आजीविका पर बहुत बुरा असर पड़ा और इनमें मुसलमानों का ही बहुमत था. उन्होंने आदेश दिया कि हर जिले में ‘‘गो-रक्षा समितियों’’ का गठन किया जाए जिसकी अध्यक्षता जिला मजिस्ट्रेट और राज्य के पुलिस प्रमुख करें और जिन्हें दो निजी ‘‘गो-प्रेमी व्यक्तियों’’ का समर्थन प्राप्त हो. कागज पर तो इस कदम का मकसद गायों की उचित देखभाल सुनिश्चित करना था लेकिन व्यवहार में इसने हिंदुत्ववादी समूहों द्वारा गाय के नाम पर की जाने वाली गुंडागर्दी को बढ़ावा दिया. ऐसी बहुत सारी घटनाएं देखने को मिलीं जिनमें गाय की तस्करी करने या गाय की हत्या करने के आरोप में मुसलमानों के जीवन का दुःखद अंत हुआ.
आदित्यनाथ का घनघोर सांप्रदायिक नजरिया शायद ही किसी से छिपा हो. उनके सार्वजनिक भाषणों में यह हमेशा हावी रहता है. 2020 में दिल्ली के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के लिए प्रचार करते समय उन्होंने ‘शाहीनबाग के आंदोलनकारियों को समर्थन देने और उन्हें बिरियानी खिलाने’ के लिए आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल पर प्रहार किया. उनका इशारा नागरिकता (संशोधन) कानून के खिलाफ शांतिपूर्ण धरने की तरफ था जो मुसलमानों के प्रति भेदभाव प्रदर्शित कर रहा था. आंदोलनकारियों को धमकाते हुए उन्होंने अपने भाषण में कहा, ‘‘जो लोग बोली को नहीं समझते हैं उन्हें पुलिस की गोली समझाएगी.’’
उत्तर प्रदेश में सीएए के खिलाफ विरोध व्यक्त करने वालों का जिस बर्बरतापूर्ण ढंग से दमन किया गया वह उस तानाशाही शासन का जबर्दस्त प्रमाण है जो आदित्यनाथ के नेतृत्व में पैदा हुआ है. जितनी क्रूरता और खुलेआम ढंग से सांप्रदायिकता के साथ उत्तर प्रदेश में इस आंदोलन का दमन किया गया वैसा देश में कहीं देखने को नहीं मिला. उनकी सरकार ने सार्वजनिक संपत्ति को छति पहुंचाने का आरोप लगाते हुए मनमाने ढंग से आंदोलनकारियों पर जुर्माने लगाये और उनके अपराधों को साबित करने के लिए किसी तरह की न्यायिक जांच नहीं कराई. उन्होंने आदेश दिया कि प्रदर्शनकारियों के नामों और उनकी तस्वीरों के पोस्टर बनाकर लखनऊ शहर की दीवारों पर लगा दिए जाएं. जब उनकी इन कोशिशों से भी प्रदर्शनकारियों के हौसले नहीं पस्त हुए तब पुलिस के छापों और हमलों का सहारा लिया गया.
नवंबर 2020 में वह देश के पहले मुख्यमंत्री बने जिसने ‘‘लव जिहाद’’ के मामलों पर नियंत्रण लाने के लिए अध्यादेश जारी किया. हिंदू सांप्रदायिकों ने लव जिहाद को मुसलमानों का एक ऐसा षडयंत्र बताया था जिसके जरिए वे हिंदू युवतियों को शादी के जाल में फंसाते थे और फिर इस्लाम में उनका धर्म परिवर्तन कराते थे. ‘उत्तर प्रदेश प्राहिबिशन आफ अनलॉंफुल कन्वर्शन ऐक्ट, 2021’ में यह प्रावधान है कि संदिग्ध विवाहों के आरोपियों को एक वर्ष से लेकर 10 वर्ष की सजा दी जाए और उन पर 15 हजार से लेकर 50 हजार रुपए तक का जुर्माना किया जाए. लव जिहाद का मुद्दा मुख्यमंत्री बनने से काफी पहले से ही आदित्यनाथ के एजेंडा पर रहा है. उनकी हिंदू युवा वाहिनी ने गोरखपुर और आसपास के इलाकों में मुसलमानों को अपना निशाना बनाने के लिए इसका सक्रिय रूप से इस्तेमाल किया है.
इस नए कानून से लैस होकर उत्तर प्रदेश पुलिस ने राज्य के विभिन्न हिस्सों में अलग अलग धर्मों के बीच शादी करने वालों के खिलाफ एक दमन चक्र चलाया. इनमें सबसे दुखद घटना मुरादाबाद की उस 22 वर्षीय महिला के साथ हुई जिसके पति को इस कानून के तहत गिरफ्तार कर लिया गया और उसे एक शेल्टर होम में भेज दिया गया जहां उसका गर्भपात हो गया. बाद में पता चला कि धर्म परिवर्तन के आरोपों का कोई प्रमाण न मिलने से उसके पति को पुलिस ने छोड़ दिया.
दिसंबर 2020 में 104 अवकाश प्राप्त नौकरशाहों के एक समूह ने आदित्यनाथ को एक पत्र लिखा जिसमें मुरादाबाद के इस मामले में पुलिस की बर्बरता का उल्लेख था. इस पत्र में कहा गया था कि- ‘‘उत्तर प्रदेश के समूचे पुलिस फोर्स को अविलंब इस बात का प्रशिक्षण देने की जरूरत है कि कैसे वे सभी नागरिकों के अधिकारों का सम्मान करें; और उत्तर प्रदेश के राजनीतिज्ञों को, जिनमें आप भी शामिल हैं, संविधान के प्रावधानों से खुद को पुनर्शिक्षित करने की जरूरत है- उसी संविधान से जिसका पालन करने की आपने तथा अन्य विधि निर्माताओं ने शपथ ली है.’’
इन आपत्तियों को तो आप दरकिनार कर दें, आदित्यनाथ ने इसी तरह के उपायों से जबर्दस्त लाभ हासिल किया है. उनके विरोधियों की निगाह में ये उपाय तानाशाही के प्रतीक हैं लेकिन उन हिंदुओं की निगाह में, जो बीजेपी और इसके मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख समर्थन आधार हैं, मुसलमानों के प्रति उनकी नफरत के प्रमाण है और संयुक्त संघ परिवार का हिंदुत्ववादी एजेंडा लागू करने वाले पोस्टर ब्वाय की सर्वोत्तम योग्यता यही है. वैसे, सही अर्थों में देखें तो आदित्यनाथ ने उत्तर प्रदेश में अपने हिंदू मतदाताओं को भी कोई उल्लेखनीय लाभ नहीं पहुंचाया है, तो भी मुसलमानों की जिंदगी को नर्क बनाने वाली उनकी कोशिशों से राज्य के और साथ ही देश के अन्य हिस्सों के हिंदू साम्प्रदायिक तत्व प्रफुल्लित महसूस करते हैं.
उनकी सफलता का बहुत बड़ा श्रेय उनके योगी के चोले को जाता है. वह हमेशा एक खास तरह का गेरुआ लबादा पहने रहते हैं और सिर मुड़ाए रहते हैं. उन्होंने कट्टर हिंदुओं के एक उल्लेखनीय हिस्से को यकीन दिला दिया है कि वह ऐसे व्यक्ति हैं जो राज्य के सर्वोच्च राजनीतिक पद पर रहते हुए भी अराजनीतिक जीवन बिता सकते हैं और हिंदू परंपराओं को फिर से स्थापित करने या सुदृढ़ करने की आकांक्षा रखते हैं. हिंदू जनता की निगाह में वह मुख्य रूप से एक मठ के सबसे महत्वपूर्ण महंत हैं. प्रायः इस बात का उल्लेख किया जाता है कि मुख्यमंत्री बनने के बाद भी उन्होंने एक संन्यासी की जीवन शैली का पालन किया हैः तड़के सोकर उठ जाना, योगाभ्यास करना, और व्यापक पूजापाठ करने के बाद अपने दुनियावी क्रिया कलापों में लग जाना. यह भी कहा जाता है कि गौशाला में जाना उनकी दिनचर्या का लगभग नियमित हिस्सा है. तो भी आम अवधारणा के विपरीत उनके जीवन में एक समय ऐसा भी था जब उन्हें नहीं लगता था कि उन्हें संन्यासी का जीवन बिताना होगा.
आदित्यनाथ ने बड़े सुनियोजित आडंबर से खुद को हिंदू भिक्षु और कट्टर हिंदुत्ववादी के रूप में ढाल रखा है. सांप्रदायिक घृणा वाले उनके संकेत और उनकी घोषणाएं इतनी खुली और आम हैं कि नरेन्द्र मोदी और अमित शाह जैसे उनके सबसे नजदीकी लोग भी उनकी तुलना में हल्के दिखाई दें. एक पड़ाव के बाद जब उन्होंने बतौर मुख्यमंत्री अपनी जमीन पुख्ता कर ली तो अपनी खास दमदार शैली और नीतियों की बदौलत ऐसी बहस को हवा दी कि क्या उनकी हिंदुत्ववादी शख्सियत मोदी से भी बड़ी हो सकती है.
इसमें कोई संदेह नहीं कि मोदी पार्टी के अंदर किसी ऐसे व्यक्ति की लोकप्रियता को बर्दाश्त करने के आदी नहीं हैं जो अपनी शख्सियत के बल पर मोदी की चमक को धुंधला कर दे. वह खुद भी अपनी छवि एक ऐसे वैरागी राजनीतिज्ञ की प्रस्तुत करते रहते हैं जो हिंदुत्व की रक्षा के लिए समर्पित है. अनेक लोगों का मानना है कि जनता के बीच अपनी छवि गढ़ने की लड़ाई में मोदी को आदित्यनाथ से एक चुनौती मिलती है क्योंकि आदित्यनाथ को एक दीक्षित योगी होने का लाभ प्राप्त है- एक ऐसा योगी जिसके लिए भगवा महज राजनीतिक झंडे का रंग न हो जैसा कि बीजेपी के नेताओं के लिए हो सकता है बल्कि यह रंग उसकी अस्मिता का एक हिस्सा भी हो.
अजय मोहन सिंह बिष्ट का जन्म 5 जून 1972 को उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले के मसालगांव नामक गांव में एक ठाकुर परिवार में हुआ था. वह अपने पिता आनंद सिंह बिष्ट की सात संतानों में पांचवीं संतान थे. उनके पिता आनंद सिंह बिष्ट वन विभाग में एक कनिष्ठ अधिकारी थे और मां सावित्री देवी एक गृहिणी थीं. आनंद सिंह बिष्ट की नौकरी ऐसी थी जिसमें बार बार तबादले होते थे इसलिए अपने नौकरी वाले जीवन के उत्तरार्द्ध में अजय के जन्म के कुछ वर्षों बाद सावित्री देवी अपने बच्चों के साथ अधिकांशतः परिवार के मूल स्थान यानी पौड़ी गढ़वाल जिले के पंचूर गांव में रहने लगीं जबकि पिता छुट्टियों में यहां आते रहते थे.
जो भी साक्ष्य उपलब्ध हैं उसके अनुसार अजय के प्रारंभिक जीवन को देखने से ऐसा लगता है कि उनका बचपन बहुत सामान्य सा था. उनके मां-बाप ने उन्हें स्कूल में दाखिल कराया और थानगार के सरकारी प्राइमरी स्कूल में उन्होंने आठवीं तक की पढ़ाई पूरी की. चूंकि वहां के स्थानीय ग्राम पंचायत के क्षेत्र में कोई सेंकेंडरी स्कूल नहीं था लिहाजा वह शिक्षा के लिए टिहरी जिला गए जहां उनके पिता तैनात थे. उन्होंने गाजा के एक सरकारी स्कूल से अपनी पढ़ाई पूरी की. इसके बाद उन्हें ऋषिकेश भेज दिया गया जहां वह अपने बड़े भाई के साथ रहने लगे. वहां श्री भारत मंदिर इंटर कालेज में उन्होंने नाम लिखाया और अंग्रेजी तथा हिंदी के साथ फिजिक्स, कैमिस्ट्री तथा गणित की शिक्षा प्राप्त की.
1989 में अजय ने बीएससी करने के लिए कोटद्वार के पीजी गवर्नमेंट कालेज में दाखिला लिया. बीजेपी और हिंदू राष्ट्रवाद के लिए खुले तौर पर बल्लेबाजी करने वाले शांतनु गुप्ता नामक एक लेखक ने हाल ही में उनकी जीवनी लिखी है जिसमें दावा किया है कि अजय की दिलचस्पी सदा से ही राजनीति में थी और अगर गौर करें तो उन्होंने नहीं बल्कि आध्यात्मिक जीवन ने उनका चयन किया. इस पुस्तक में वह कहानी बताने की कोशिश की गई है जिसमें ‘‘उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में पला बढ़ा अजय सिंह बिष्ट नामक युवक गायों, खेतों, पहाड़ों, और नदियों के बीच विकसित हुआ और पहले महंत फिर सांसद और फिर मुख्यमंत्री बना.’’
अपने कॉलेज में अजय आरएसएस के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का सदस्य बना. 1992 में पढ़ाई के अंतिम साल में उसने छात्र संघ में सचिव के पद के लिए चुनाव लड़ा. चुनाव में वह एक स्वतंत्र उम्मीदवार था और बुरी तरह चुनाव हार गया. अरुण तिवारी ने, जिन्हें उस चुनाव में कामयाबी मिली थी और जो अब समाजवादी पार्टी के सदस्य हैं, मुझे बताया- ‘‘वह एक सामान्य छात्र था और शायद ही वह कभी छात्र राजनीति में सक्रिय रहा हो. उस वर्ष सचिव के पद के लिए चुनाव में कुल 9 उम्मीदवार थे. मुझे ठीक ठीक याद नहीं कि चुनाव में उसे कितने वोट मिले थे. बहुत कम वोट रहे होंगे क्योंकि उम्मीदवारों में वह छठे स्थान पर था.’’
निश्चय ही अजय के लिए यह ऊहापोह वाला क्षण रहा होगा. इस जबर्दस्त हार के कुछ ही समय बाद उसके जीवन में नाटकीय परिवर्तन आया. वहां स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद वह ऋषिकेश चला गया जहां विज्ञान में स्नातकोत्तर की पढ़ाई के लिए उसने पंडित ललित मोहन शर्मा पीजी कॉलेज में दाखिला लिया. लेकिन लगता है कि अब उसका ध्यान कहीं और केंद्रित हो गया था.
शांतनु गुप्ता ने लिखा है कि ‘‘ जब वह एमएससी के पहले वर्ष की पढ़ाई कर रहा था, उसने गोरखपुर जाना और महंत अवैद्यनाथ से मिलना शुरू किया. महंत अवैद्यनाथ उन दिनों गोरखनाथ मठ के प्रमुख थे.’’ कुछ मुलाकातों के बाद अजय ने तय कर लिया कि वह पूर्णकालिक शिष्य के रूप में गोरखनाथ मठ में महंत अवैद्यनाथ के साथ रहेगा.’’ लेकिन अजय के कई पुराने सहपाठियों से बातचीत करने से मुझे पता चला कि उन्होंने कभी भी उसके अंदर संन्यासी जीवन के प्रति कोई रुझान नहीं देखा था. अरुण तिवारी ने तो गौर किया था कि अजय का ध्यान पढ़ाई से हट गया है क्योंकि वह ‘अपने लिए किसी आरामदेह जिंदगी की तलाश में था.’ तिवारी ने बताया कि अपने इस मकसद को हासिल करने के लिए ‘‘उसने अवैद्यनाथ का सहारा लिया जो उसके दूर के चाचा थे.’’
कोटद्वार में अजय के एक पुराने सहपाठी ने अपना नाम जाहिर न करने की शर्त पर मुझे बताया कि ‘‘हालांकि वह अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का सदस्य था लेकिन काफी हद तक वह इससे अप्रभावित था और उस समय की घटनाओं के बारे में अनभिज्ञ था. जब मैंने सुना कि वह साधु हो गया तो मुझे हैरानी हुई क्योंकि उस समय तक वह निश्चय ही ऐसा व्यक्ति नहीं था जिसकी आध्यात्मिक प्रवृत्तियां हों.’’ इस व्यक्ति ने याद करते हुए बताया कि यहां तक कि 1992 में जब राम मंदिर का आंदोलन अपने चरम पर था, “वह कहीं नजर नहीं आ रहा था. जहां तक मुझे याद है उस वर्ष दिसंबर में वह अयोध्या भी नहीं गया था. 1993 में ही वह अचानक गोरखपुर की ओर मुखातिब हुआ.’’
यह स्पष्ट नहीं है कि साधु बनने के लिए अजय को किस चीज ने प्रेरित किया. उसके सहपाठी ने मुझे बताया, ‘‘1993 में वह काम की तलाश में दिल्ली जरूर गया था. हालांकि उसको अपनी इस तलाश में कामयाबी नहीं मिली लेकिन उसकी मुलाकात अवैद्यनाथ से हुई जो किसी इलाज के लिए दिल्ली के एक अस्पताल में भर्ती थे. उसने वहां रहकर कुछ समय तक अवैद्यनाथ की सेवा की और अस्पताल से उनकी छुट्टी कर दिये जाने के बाद वह वापस ऋषिकेश आ गया. इसके कुछ महीनों बाद वह चुपचाप गोरखपुर चला गया.’’
यही बातें कुछ फेर बदल के साथ शांतनु गुप्ता द्वारा लिखित जीवनी में भी मिलती हैं : दिल्ली के अस्पताल में जब उसकी मुलाकात हुई उस समय तक वह अवैद्यनाथ के लिए कोई अपरिचित नहीं था. इससे पहले ही राम मंदिर आंदोलन के प्रति उसके अंदर एक झुकाव पैदा हो गया था और गोरखनाथ के महंत से उसकी एक संक्षिप्त मुलाकात भी हुई थी जिसमें महंत ने उससे कहा कि ‘‘वह जन्म से एक योगी है और उसे एक दिन यहां आना ही था.’’ गोरखपुर तक की अजय की इस यात्रा का सही सही विवरण अनिश्चित है. गुप्ता ने भी अपने इस दावे को स्थापित करने के लिए किसी इंटरव्यू या दस्तावेज का संदर्भ नहीं दिया है. लेकिन गुप्ता ने भी यह लिखा है कि अजय के मां बाप को धक्का लगा जब उन्हें ‘‘अखबारों से उसके संन्यास की जानकारी मिली.’’ उन्होंने सोचा था कि वह गोरखपुर किसी रोजगार की तलाश में गया है.
बहरहाल नवंबर 1993 में किसी को कुछ खास बताए बिना एक हताश नौजवान के रूप में अजय गोरखपुर आ गया. 21 वर्ष के इस युवक ने उस समय तक साथ पढ़ने वाले अपने मित्रों को कभी इस बात का एहसास नहीं होने दिया कि उसका आध्यात्मिक झुकाव है और वह मंदिर में अपने कैरियर की कुछ अस्पष्ट उम्मीदें लेकर घूमता रहा.
अगले वर्ष 15 फरवरी को अवैद्यनाथ ने उसे साधु की दीक्षा दी, उसका नामकरण आदित्यनाथ के रूप में किया और उसे अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया.
2011 की सर्दियों में अयोध्या पर एक पुस्तक लिखने के सिलसिले में मैं गोरखनाथ मंदिर गया. यह पुस्तक में अपने एक सहकर्मी के साथ मिलकर लिख रहा था. मैं इंटरव्यू के लिए अवैद्यनाथ का इंतजार कर रहा था कि तभी मेरे निगाह एक संकोची और गंभीर दिख रहे व्यक्ति पर पड़ी. यह आदित्यनाथ थे जो मंदिर के गलियारे में लकड़ी की एक कुर्सी पर बैठे थे. सामने की मेज पर कुछ खुले पन्ने पड़े हुए थे और ऐसा लगता था जैसे वह उन्हें पढ़ने में व्यस्त हों. मेरी निगाह में न तो उनकी उतनी उम्र थी और न वह इतने मजबूत दिखाई दे रहे थे जो कट्टर हिंदुत्ववादी की छवि में फिट बैठते. इसके विपरीत वह अधेड़ व्यक्ति ज्यादा लंबा और मजबूत था जो उनसे कुछ फीट की दूरी पर सावधानी के साथ खड़ा था. अवैद्यनाथ से मिलने का अनुरोध मैंने आदित्यनाथ के समक्ष रखा और उनके संगठन हिंदू युवा वाहिनी के बारे में उनसे कुछ बातचीत करनी चाही लेकिन उन्होंने कुछ नहीं कहा. मैंने भी बहुत जोर नहीं दिया क्योंकि मेरा मुख्य मकसद तो उनके गुरु को इंटरव्यू करना था. बाद में वह अधेड़ व्यक्ति मुझे लेकर अवैद्यनाथ से मिलाने मंदिर के बगल में बनी दोमंजिला इमारत की पहली मंजिल पर ले गया.
गोरखनाथ मंदिर 11वीं शताब्दी के एक संत गोरक्षनाथ के नाम पर है जिन्होंने दूर-दूर तक यात्राएं की थी और जिनके बारे में कहा जाता है कि उन अनेक ग्रंथों की रचना की थी जिनमें नाथ संप्रदाय की रूपरेखा का वर्णन है. अंग्रेजी राज के समय से ही गोरखनाथ मठ ने दक्षिणपंथी राजनीति में एक केंद्रीय भूमिका निभाई है और आदित्यनाथ ने इस विरासत को उत्तराधिकार में पाया है. अवैद्यनाथ और उनके पूर्ववर्ती महंत और गुरु दिग्विजय नाथ ने उस जन्मभूमि आंदोलन की विभिन्न चरणों में अध्यक्षता की जिसकी देश के अंदर हिंदू राष्ट्रवाद के विकास में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका है. आदित्यनाथ के तत्वावधान में राम मंदिर के निर्माण की शुरुआत उस हिंसक और विनाशकारी आंदोलन की परिणति है जो लगभग एक शताब्दी से चल रहा है और जिसकी देखरेख एक के बाद एक तीन महंतों ने की है.
दिग्विजय नाथ 1935 से 1969 तक गोरखनाथ मंदिर के महंत पद पर रहे और वह बीसवीं सदी के सर्वाधिक कुटिल और घाघ साधुओं में से एक थे. उन्होंने इस मठ को, जो किसी जमाने में मुसलमानों के लिए समान रूप से पूजनीय धार्मिक स्थल था और जिस के अनुयायी मुख्य रूप से निम्न जातियों के लोग थे, ठाकुरों के नियंत्रण वाले हिंदुत्ववादी राजनीति का केंद्र बना दिया.
1937 में दिग्विजय नाथ हिंदू महासभा में शामिल हो गए जिस समय इसके अध्यक्ष वी डी सावरकर थे जो अभी संघ परिवार के ‘आदर्श व्यक्तित्व’ हैं. दिग्विजय ने महात्मा गांधी की हत्या से कुछ ही समय पहले हिंदू उग्रवादियों से अनुरोध किया था कि वे गांधी की हत्या कर दें और इसके नतीजे के तौर पर उन्हें जेल में नौ महीने बिताने पड़े. इसके बाद जब उन्हें हिंदू महासभा का महासचिव बनाया गया तो उन्होंने वायदा किया कि अगर यह पार्टी सत्ता में आई तो हर मुसलमान की निष्ठा की जांच की जाएगी. जून 1950 में ‘दि स्टेट्समैन’ में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार उन्होंने कहा कि ‘‘सरकार जब तक पूरी तरह आश्वस्त नहीं हो जाएगी कि उसके हित और भावनाएं भारत के पक्ष में हैं, ऐसे मुसलमानों को 5 से 10 वर्ष तक वोट देने के अधिकार से वंचित कर दिया जाएगा.’’
दिग्विजय यद्यपि हिंदू महासभा के नेता थे लेकिन वह हमेशा अपनी पार्टी से परे भी देखने के इच्छुक रहे. उन्होंने आरएसएस और इसके अधीनस्थ संगठनों के साथ सहयोग किया और प्रायः उनके लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए उन्हें सहयोग दिया. 1949 में उन्होंने उस ऑपरेशन का नेतृत्व किया जिसमें अयोध्या स्थित बाबरी मस्जिद में चोरी छिपे राम की मूर्ति रखी गई और जिसने राम जन्मभूमि आंदोलन को शुरू किया.
1969 में दिग्विजय नाथ की मृत्यु के बाद अवैद्य नाथ ने महंत का पद संभाला. 1989 तक हिंदू महासभा के टिकट पर वह चुनाव लड़ते रहे और राम जन्म भूमि आंदोलन का एक चेहरा बन गए. इसके बाद भगवा राजनीति के विस्तार में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
1989 में इलाहाबाद में आयोजित कुंभ मेला में विश्व हिंदू परिषद ने जिस धर्म संसद का आयोजन किया था उसमें अवैद्य नाथ के भाषण ने उस आंदोलन की बुनियाद रखी जिसने बाबरी मस्जिद गिराए जाने को लगभग अवश्यंभावी बना दिया. 1 फरवरी 1989 के ‘दि स्टेट्समैन’ की रिपोर्ट के अनुसार अवैद्य नाथ ने कहा कि ‘‘कुरान में मुसलमानों के लिए इस बात की मनाही है कि वे अन्य धर्मों के धार्मिक स्थान पर मस्जिदों का निर्माण करें.’’ उनके भाषण को उद्धृत करते हुए इस अखबार ने लिखा, ‘‘लड़ाई झगड़े से बचने के लिए वे हमसे कहते हैं कि मंदिर दूसरी जगह हम बना लें. यह तो वैसे ही हुआ जैसे कोई भगवान राम से कहे कि रावण से युद्ध से बचने के लिए वह किसी और सीता से शादी कर लें.’’
1992 में बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद मामला निर्णायक दौर में पहुंच गया. इस घटना पर लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट में उन लोगों की सूची में अवैद्य नाथ का नाम प्रमुख रूप से शामिल है जिन्हें सांप्रदायिक विनाश के कगार पर देश को पहुंचाने का दोषी पाया गया.
अब तक अवैद्य नाथ बीजेपी में शामिल हो चुके थे. 1991 में और फिर 1996 में वह बीजेपी के टिकट पर गोरखपुर से सांसद चुने गए. यद्यपि उन्होंने बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ा था लेकिन काफी हद तक वह अपनी स्वायत्तता बनाए रखते थे और इसको उन्होंने बराबर बनाए रखा. अपने उत्तराधिकारी का स्थान सुनिश्चित करते ही अवैद्य नाथ ने खुद को चुनावी राजनीति से अलग कर लिया. 1998 में आदित्यनाथ लोकसभा के सबसे कम उम्र के सदस्य के रूप में चुने गए.
2014 में 95 वर्ष की आयु में अवैद्य नाथ का निधन हो गया. मोदी ने, जो इसी वर्ष प्रधानमंत्री बने थे कहा कि ‘‘उन्हें देशभक्तिपूर्ण उत्साह और समाज सेवा के दृढ़ प्रयासों के लिए याद रखा जाएगा.’’
अंततः आदित्यनाथ ने महंत का पद संभाल लिया. अवैद्य नाथ के अधीन रहते हुए उनका जबर्दस्त प्रशिक्षण हुआ था और अब तक वह गोरखपुर से चार बार सांसद भी रह चुके थे. 2002 में उन्होंने हिंदू युवा वाहिनी की शुरुआत की थी जिसने पिछले दशक में उनके खुद के जुझारू आधार विकसित करने में मदद की थी. उनके इस संगठन ने समूचे राज्य में उनकी कट्टर हिंदुत्ववादी की छवि को प्रचारित किया लेकिन उनका प्रमुख सत्ता केंद्र गोरखपुर ही रहा जहां से समूचे पूर्वी उत्तर प्रदेश पर वह प्रभुत्वकारी नियंत्रण रखते थे.
गोरखनाथ मठ के महंत का पद संभालने के बाद आदित्यनाथ ने शुरूआती समय का अधिकांश हिस्सा मठ की देख-रेख में ही बिताया. इस अवधि में वह गायों को पालते थे, अपने गुरु की सेवा करते थे और अपनी इस नयी दुनिया में बंधे रहते थे. 1996 की गर्मियों में आदित्यनाथ संकोच और अनिश्चय के इस खोल से बाहर निकले और उन्होंने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत की. गोरखनाथ मठ द्वारा संचालित संस्थान महाराणा प्रताप इंटर कालेज के साथ उन्होंने एक नई शुरुआत की. इस कॉलेज के छात्रों का शहर के गोलघर बाजार में दुकानदारों के साथ झगड़ा हो गया था और आदित्यनाथ छात्रों के समर्थन में खुलकर सामने आए.
सुनील सिंह ने मुझे बताया कि ‘‘यह पहला मौका था जब मैंने आदित्यनाथ को देखा. छात्रों के पक्ष में वह पूरी संकल्प और दृढ़ता के साथ खड़े दिखाई दिए. मैं सचमुच उनसे बहुत प्रभावित हुआ.’’ सुनील सिंह उस कॉलेज के पुराने छात्र थे और वह भी अपनी एकजुटता प्रदर्शित करने के लिए वहां पहुंचे. उस घटना को याद करते हुए सिंह ने बताया कि, ‘‘किसी मामूली बात पर झगड़ा हुआ था लेकिन कुछ ही देर में इसने व्यापक रूप ले लिया जिसके नतीजे के तौर पर पुलिस ने छात्रों का उनके हॉस्टल तक पीछा किया. तनाव बहुत बढ़ जाने पर आदित्यनाथ कॉलेज के हॉस्टल में पहुंचे. उनकी मौजूदगी ने छात्रों में जोश पैदा कर दिया. उनके नेतृत्व में छात्रों ने मोर्चा संभाला और पुलिस को मजबूरन पीछे हटना पड़ा.’’
सिंह और उनके मित्रों को आदित्यनाथ में एक आदर्श व्यक्ति का दर्शन हुआ. अगली सुबह सुनील सिंह अपने कुछ मित्रों आशीष सिंह श्रीनेत, अमित सिंह, कुमार गौरव, और मयंक त्रिपाठी के साथ आदित्यनाथ से मिलने गोरखनाथ मंदिर पहुंचे. सिंह ने याद करते हुए बताया कि उन लोगों ने महंत अवैद्य नाथ को मंदिर से लगी गौशाला में चल रहे किसी निर्माण कार्य की देख-रेख करते हुए पाया. ‘‘हम लोगों को देखते ही वह अपना काम छोड़कर हमारे पास आए. उन्होंने हमारा नाम और हमारी जाति पूछी और फिर संतआश्रम में अपने कमरे में ले गए. गोरखपुर के राजनीतिक वातावरण पर और ठाकुरों के समक्ष उत्पन्न समस्याओं पर हमारी लंबी बातचीत हुई.’’ सुनील सिंह भी जाति से ठाकुर हैं.
सुनील सिंह और उनके साथियों ने उनसे रोज मिलना शुरू किया और वे सभी लोग इस मकसद के लिए युवकों को भर्ती करने साथ साथ निकलने लगे. सिंह ने बताया कि, ‘‘हमने गौशाला के निकट की जमीन को साफ सुथरा बनाया और वहां बैडमिंटन खेलने की व्यवस्था की.’’ आदित्यनाथ के बारे में एक बात ने सिंह को बहुत प्रभावित किया कि ‘‘गोरखपुर में ठाकुरों की स्थिति को समझने में उन्होंने विशेष रुचि दिखाई.’’
आदित्यनाथ ने इलाके के तनावपूर्ण जातीय समीकरण के केंद्र में खुद को रखना शुरू किया. गोरखपुर के एक वरिष्ठ पत्रकार मनोज कुमार ने मुझे बताया, ‘‘ऊपर से देखने पर यह जातीय भेदभाव लगता है लेकिन मामला इतना ही नहीं था. वह एक दौर था जिसमें एक ब्राम्हण हरिशंकर तिवारी और एक ठाकुर वीरेंद्र प्रताप शाही के गिरोहों के बीच गोरखपुर को अपने माफिक चलाने की होड़ लगी हुई थी. यहां तक कि गोरक्षपीठ मठ को भी, जो आदित्यनाथ की ताकत का मुख्य स्रोत था, ठाकुर मठ के रूप में जाना जाता था.’’
ठाकुरों के प्रभुत्व वाले क्षेत्र के सर्वोच्च नेता का रूप लेने के लिए जरूरी था कि आदित्यनाथ सबसे पहले ठाकुरों के सर्वोच्च नेता बनें. 1996 के लोकसभा चुनाव में गोरखपुर की सीट के लिए अवैद्य नाथ को वीरेंद्र प्रताप शाही से गंभीर चुनौती मिली थी जो समाजवादी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे थे और दूसरे स्थान पर आए थे. 1997 में श्री प्रकाश शुक्ला नामक एक उभरते हुए गुंडे ने वीरेंद्र प्रताप शाही की हत्या कर दी जिससे ऐसा महसूस हुआ कि गोरखपुर में ठाकुरों के प्रभुत्व को एक झटका लगा है लेकिन इस घटना ने इस कमी को पूरा करने का अवसर भी आदित्यनाथ को दिया.
अगले यानी 1998 के लोकसभा चुनाव में अवैद्य नाथ ने तय किया कि वह खुद चुनाव नहीं लड़ेंगे और अपने उत्तराधिकारी को बीजेपी का उम्मीदवार बनायेंगे. हालांकि उन्हें समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार और अन्य पिछड़ी जाति के सदस्य जमुना प्रसाद निषाद के मुकाबले चुनाव में कामयाबी मिली लेकिन वोटों का अंतर 1996 के मुकाबले बहुत ही कम रहा. समाजवादी पार्टी का मुसलमानों और अन्य पिछड़ी जातियों में अच्छा आधार था और लगता था कि बीजेपी को वह जल्दी ही पीछे छोड़ देगी. इसकी वजह से आदित्यनाथ को अपना राजनीतिक भविष्य अनिश्चित लगने लगा.
सुनील सिंह ने आदित्यनाथ के नेतृत्व में सांप्रदायिक आधार पर किए गए हमलों की सूची गिनाते हुए कहा कि, ‘‘यही वह पृष्ठभूमि थी जिसमें गोरखपुर और अगल बगल के इलाकों में खुल्लमखुल्ला मुस्लिम विरोधी साम्प्रदायिक राजनीति की शुरूआत हुई. मैं उनके साथ लगभग सभी घटनाओं में शामिल था. शायद ही ऐसा कोई मामला हो जिसमें मैं उनके साथ आरोपी न रहा होऊं.’’
इन घटनाओं में सबसे कुख्यात घटना 1999 का पंचरुखिया केस था. उस मामले के बारे में बताते हुए सिंह ने कहा कि, ‘‘हम लोग महाराजगंज में थे जब यह खबर आई कि कुछ स्थानीय हिंदुओं द्वारा लगाये गए पीपल के एक पौधे को किसी ने उखाड़ फेंका है. जिसने इसे उखाड़ा था उसका दावा था कि पीपल का वह पौधा एक मुस्लिम कब्रगाह में लगाया गया था. आदित्यनाथ ने फौरन ऐलान किया कि वह उसी स्थान पर फिर उस पौधे को लगाने के लिए तुरत पंचरुखिया जा रहे हैं.’’ आदित्यनाथ के ऐलान ने स्थानीय प्रशासन को चौकन्ना कर दिया और वह सक्रिय हो गया. ’’हम फाटाफट उस गांव में पहुंचे लेकिन इससे पहले कि हम अपना काम पूरा करते, पुलिस आ गई और उसने हमें खदेड़कर बाहर निकाल दिया.’’
आदित्यनाथ का काफिला गांव से बाहर तेजी से निकला लेकिन तलत अजीज के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं द्वारा काफिले को रुकने के लिए मजबूर कर दिया गया. ये कार्यकर्ता अपनी गिरफ्तारी देने के लिए गांव की मुख्य सड़क पर इकट्ठा हुए थे. ये लोग राज्य की सत्ता में बैठी बीजेपी सरकार के शासनकाल में कानून और व्यवस्था की बिगड़ती स्थिति के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे थे. दोनों पक्षों के बीच मुठभेड़ हुई और शुरू में उत्तेजक नारे लगे लेकिन बाद में गोलियां भी चलने लगीं. तलत अजीज की सुरक्षा में लगे हेड कांस्टेबल सत्य प्रकाश यादव के चेहरे पर एक गोली लगी और उसे बेतहाशा खून निकलने लगा. बाद में उसकी मृत्यु हो गई. घटना से भयभीत होकर अजीज तथा समाजवादी पार्टी के अन्य कार्यकर्ता अगल बगल के खेतों में भागे जिससे आदित्यनाथ और उनके आदमियों के आगे जाने का रास्ता साफ हो गया.
तीन घंटे बाद महाराजगंज की पुलिस ने एक एफआईआर दर्ज की जिसमें आदित्यनाथ और 24 अन्य लोगों को आरोपी बनाया गया था. आरोपों की लंबी सूची थी जिनमें हत्या का प्रयास, दंगा, खतरनाक हथियार रखने, पूजा स्थल को अपवित्र करने, मुस्लिम कब्रगाह में जबरन घुसने और धार्मिक समूहों के बीच वैमनस्यता पैदा करने से संबंधित आरोप थे.
पंचरुखिया की घटना ने आदित्यनाथ की छवि गोरखपुर में एक सनसनीखेज व्यक्तित्व की बना दी लेकिन इससे समाजवादी पार्टी को निरंतर बढ़ रहे समर्थन में कोई कमी नहीं आई. कुछ महीनों बाद 1999 में हुए लोकसभा के चुनाव में निषाद के मुकाबले आदित्यनाथ की जीत का फासला और कम होकर महज 7000 वोट रह गया.
2002 के विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में बीजेपी की पराजय से यह परिदृश्य और जबर्दस्त हुआ और ऐसा लगता है कि इसने ही आदित्यनाथ को अपनी एक निजी हिंदू सेना बनाने के लिए प्रेरित किया. यह अवसर चुनाव नतीजों की घोषणा के एक सप्ताह के अंदर ही आ गया. 27 फरवरी 2002 को गुजरात के एक छोटे कस्बे गोधरा के रेलवे स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रेस के एक डिब्बे में आग लगने से 59 लोग मारे गए. इस घटना ने हाल के भारतीय इतिहास में मुस्लिम विरोधी हिंसा के भीषणतम स्वरूप को जन्म दिया और जो नरसंहार हुआ वह खासतौर पर गुजरात में देखने को मिला. पहली बार टेलीविजन के निजी चैनलों पर लोगों को इस तरह की हिंसा देखने को मिली और इसके बाद ही आदित्यनाथ ने हिंदू युवा वाहिनी के गठन की दिशा में पहला कदम उठाया.
हिंदू युवा वाहिनी के गठन के एक वर्ष के अंदर ही गोरखपुर और इसके अगल बगल के जिलों में सांप्रदायिक हिंसा के कम से कम छ: बड़े मामले देखने को मिले- छोटे मोटे मामले भी अनेक थे. हिंसा के बड़े मामले कुशीनगर जिले के मोहन मुंडेरा, गोरखपुर जिले के नथुआ और जून में शहर के तुर्कमानपुर, अगस्त में महाराजगंज जिले के नरकटहा और भेदही, सितंबर में संत कबीरनगर जिले के धनघटा में देखने को मिले. यद्यपि इस वाहिनी का पंजीकरण एक सांस्कृतिक संगठन के रूप में हुआ था लेकिन यह ग्रुप बुरी तरह आक्रामक था. इसकी मुख्य रणनीति पहले तो हर बहस और झगड़े को धार्मिक अर्थों में हिंदू और मुस्लिम के बीच का झगड़ा बनाना और फिर इसे पूरी तरह सांप्रदायिक दंगे का रूप देना था. बाद के वर्षों में सांप्रदायिक अशांति तीव्र होती गई क्योंकि स्थानीय प्रशासन अप्रभावकारी बना रहा. इस इलाके की सांप्रदायिक हिंसा को व्यवस्थित ढंग से दर्ज करने वाले पत्रकार मनोज कुमार ने मुझे बताया- ‘‘2007 में आदित्यनाथ की गिरफ्तारी होने तक गोरखपुर और अगल बगल के जिलों में कम से कम 22 बड़े दंगे हो चुके थे.
हिंदू युवा वाहिनी के उत्तेजक अभियानों ने आदित्यनाथ को काफी चुनावी फायदा पहुंचाया. 2004 के लोकसभा चुनाव में गोरखपुर की सीट पर उन्हें कामयाबी मिली जबकि देश भर में अधिकांश जगह बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा था. दूसरे स्थान पर आए उम्मीदवार से इस बार इनको काफी यानी एक लाख चालीस हजार वोट ज्यादा मिले थे.
2007 में उन्हें जो झटका लगा (जब वह जेल गए और बाद में लोकसभा में रोये) तो शुरुआत में ऐसा महसूस हुआ जैसे राजनीतिक तौर पर आदित्यनाथ अपेक्षाकृत ज्यादा बुद्धिमान और सहिष्णु हो गए हैं. कुछ समय तक उन्होंने खुद को पहले की तरह भीड़ के नेतृत्व करने और मुसलमानों पर हमले से बचाकर रखा. अब वह केवल भड़काऊ भाषण देते थे और घटनाओं में उनकी सांकेतिक मौजूदगी होती थी जबकि और सारे काम उनकी हिंदू वाहिनी करती थी. इस रणनीति का पालन करते हुए 2009 में वह और भी ज्यादा वोटों से लोकसभा का चुनाव जीत गए.
2014 के आम चुनाव के लिए जब नरेन्द्र मोदी ने अपने अभियान की शुरूआत की तो आदित्यनाथ और उनकी युवा वाहिनी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी क्योंकि पूर्वी उत्तर प्रदेश के अधिकांश इलाकों में संगठन के तौर पर इसकी मौजूदगी थी. बीजेपी की जीत और मोदी के प्रधानमंत्री बन जाने के बाद हिंदू युवा वाहिनी ने अपने एक अभियान के जरिए बीजेपी पर इस बात के लिए दबाव डाला कि वह उत्तर प्रदेश के 2017 के विधानसभा चुनाव में आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के रूप में पेश करे. लेकिन उसे इस काम में सफलता नहीं मिली और बीजेपी ने इस पद के लिए किसी का नाम उजागर किए बिना चुनाव में हिस्सा लिया. चुनाव से पहले आदित्यनाथ को एक हल्का झटका लगा. हिंदू युवा वाहिनी के नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं बढ़ने लगी थीं और उस समय वाहिनी में फूट पड़ गई जब सुनील सिंह सहित इसके कुछ अन्य सदस्यों को बीजेपी ने चुनाव में टिकट नहीं दिया. तकरीबन एक दर्जन सीटों पर विद्रोहियों ने अपने उम्मीदवार खड़े किए लेकिन वे सभी हार गए.
इस समय तक उत्तर प्रदेश में ध्रुवीकरण करने वाले महत्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में आदित्यनाथ की छवि बन गई थी.
उत्तर प्रदेश में अगला मुख्यमंत्री कौन होगा इसके बारे में बीजेपी ने जब फैसला लिया उससे एक सप्ताह पूर्व बहुत अफरा-तफरी का माहौल था. 11 मार्च से जब से लखनऊ में वोटों की गिनती शुरू हुई पार्टी के अंदर ताबड़तोड़ बैठकों का क्रम जारी रहा और अफवाहों का बाजार गर्म रहा. मुख्यमंत्री पद की दौड़ में मनोज सिन्हा सबसे आगे समझे जाते थे. जब यह ताज आदित्यनाथ के सिर पर पहनाया गया तो बीजेपी के बहुत सारे करीबी लोगों को भी काफी हैरानी हुई.
लेकिन कामयाबी के शिखर पर पहुंचने के साथ ही आदित्यनाथ का अतीत भी उन्हें जकड़े रहा. परवेज परवाज द्वारा दायर की गई याचिका पर कार्रवाई करते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने वोटों की गिनती से महज एक दिन पूर्व 10 मार्च 2017 को एक आदेश पारित किया जिसमें राज्य सरकार से कहा गया था कि वह गोरखपुर में आदित्यनाथ द्वारा दिए गए भड़काऊ भाषण के 2007 के मामले पर उठाए गए कदम से अदालत को अवगत कराए. जैसे ही वह मुख्यमंत्री बने उन्हें अपनी मेज पर पड़ा राज्य पुलिस का अनुरोध मिला जिसमें उनके खिलाफ मुकदमा चलाने की स्वीकृति मांगी गई थी.
परवेज ने एक दशक तक इस मामले को जिंदा रखा था. 2017 में उन्होंने मुझे बताया कि ‘‘शुरू में तो मुझे लगा कि यह यूं ही समाप्त हो जाएगा. अदालती लड़ाई के लिए मुझे अपनी सारी संपत्ति बेचनी पड़ी और इसका कोई अंत नहीं दिखाई देता था. लेकिन आदित्यनाथ के खिलाफ मेरे पास ठोस सबूत थे और इसीलिए निराशा के बावजूद मैंने अपना काम जारी रखा.’’
शुरुआत में परवेज के पास उपलब्ध सबूतों के आधार पर पुलिस ने एफआईआर दर्ज करने से मना कर दिया. फिर उन्हें इसके लिए अदालत की शरण लेनी पड़ी. उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद ही वह सितंबर 2008 में गोरखपुर के कैंटोनमेण्ट पुलिस स्टेशन में एफआईआर दर्ज कर सके. बाद में अपराध शाखा और सीआईडी ने आरोपों की जांच की और उसे इस बात का पर्याप्त आधार मिला कि आदित्यनाथ और उनके चार सहयोगियों पर मुकदमा चलाया जाए. सीबी-सीआईडी द्वारा सुझाया गया एक आरोप भारतीय दंड संहिता की धारा 153ए के अंतर्गत था जिसका संदर्भ ‘‘विभिन्न समूहों के बीच शत्रुता बढ़ाना’’ था. इसके लिए जरूरी था कि सरकार अपनी स्वीकृति दे. इसलिए 10 जुलाई 2015 को राज्य पुलिस की अपराध शाखा ने आदित्यनाथ तथा अन्य लोगों पर मुकदमा चलाने के लिए उत्तर प्रदेश के गृह विभाग से अनुमति चाही थी. यह अनुरोध लगभग दो वर्षों तक यूं ही पड़ा रहा क्योंकि 2017 के चुनाव में समाजवादी पार्टी की विफलता तक मुख्यमंत्री पद पर बैठे अखिलेश यादव ने आदित्यनाथ के प्रति तुष्टिकरण की उसी नीति का पालन किया जिसका पालन उनके पिता मुलायम सिंह यादव करते थे.
आदित्यनाथ अब मुख्यमंत्री थे और जनता की निगाह में अपने कामकाज की व्यापक छानबीन से बच पाना बहुत कठिन काम था. बाद के महीनों ने यह स्पष्ट कर दिया कि अभी भी उनके काम करने की मुख्य प्रेरक शक्ति आत्मरक्षा ही थी- उन्होंने मुकदमा चले बिना अपने खिलाफ आये मामलों को निपटाने की व्यवस्था कर ली.
11 मई 2017 को राज्य सरकार ने अपने मुख्य सचिव राहुल भटनागर के एक हलफनामें के जरिए उच्च न्यायालयको सूचना दी कि सरकार ने आदित्यनाथ तथा एफआईआर में उल्लिखित अन्य लोगों के विरुद्ध मुकदमा चलाने की मंजूरी देने से इनकार किया है. इसे आधार बनाते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 22 फरवरी 2018 को परवेज की याचिका खारिज कर दी. उनके साथ ही सहयाचिकाकर्ता असद हयात मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंचे.
सुप्रीम कोर्ट इस अपील पर विचार करता, इससे पहले ही 4 जून 2018 को गोरखपुर के राजघाट पुलिस स्टेशन में एक एफआईआर दर्ज की गई जिसमें परवेज और उसके दोस्त जुम्मन बाबा पर बलात्कार का आरोप लगाया गया था. पत्रकार मनोज कुमार के अनुसार, जिन्होंने इस कथित घटना की व्यापक छानबीन की थी, आरोपों में कोई दम नहीं था. उनके अनुसार राजघाट थाने के एसओ आशुतोष कुमार सिंह ने इसकी जांच की थी और उन्हें खुद इस मामले में कई सुराख नजर आए. कुमार ने बताया कि, ‘‘अपनी रिपोर्ट में उन्होंने इस बात को रेखांकित किया था कि कथित तौर पर जहां अपराध हुआ वह एक भीड़भाड़ वाली जगह थी और यहां तक कि अपराध का जो समय है उस समय तो उस इलाके में बहुत बड़ी भीड़ थी. उन्होंने यह भी बताया कि जिस समय कथित बलात्कार की बात कही जा रही है दोनों आरोपियों का लोकेशन बलात्कार वाली जगह से बहुत दूर था. इसलिए एसओ ने अपनी रिपोर्ट में इस बात की सिफारिश की कि एफआईआर को निरस्त किया जाए.’’
एसओ द्वारा रिपोर्ट जमा किए जाने के बाद परवेज ने अपनी फेसबुक पोस्ट में बताया कि ऐसे समय जब वह ‘‘पूर्वांचल के सांप्रदायिक तत्वों’’ के खिलाफ एक कानूनी लड़ाई में लगा हुआ है कौन उसे झूठे मामले में फंसाना चाहता है.
बाद में उसी महीने गोरखपुर के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक शलभ माथुर ने एसओ की रिपोर्ट को खारिज कर दिया और मामले की नए सिरे से जांच का आदेश दिया. इस दूसरी जांच के आधार पर 25 सितंबर को परवेज को गिरफ्तार कर लिया गया. कुमार ने बताया कि उसके और उसके दोस्त पर जिला अदालत में मुकदमा चला जहां से जुलाई 2020 में उन दोनों को आजीवन कारावास का दंड मिला.
दोनों मामलों में यानी भाषण के जरिए घृणा फैलाने वाले मामले में आदित्यनाथ के खिलाफ और कथित बलात्कार के मामले में परवेज के खिलाफ मुकदमें क्रमशः सुप्रीम कोर्ट और इलाहाबाद हाई कोर्ट में लंबित हैं.
मैंने इंटरव्यू लेने से संबंधित कई अनुरोध आदित्यनाथ के पास भेजे लेकिन किसी का जवाब नहीं आया.
बतौर मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के सामने जो समस्यायें आईं उनमें से अधिकांश में उन्होंने हिंसा का ही राजनीतिक समाधान के रूप में इस्तेमाल किया. इस पद पर बैठने के महीनों बाद जब कानून और व्यवस्था की बिगड़ती स्थिति की आलोचना होने लगी तो उन्हें और भी ज्यादा घबराहट हुई और उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि उनका प्रशासन संविधान के प्रावधानों से नहीं बंधा होगा. एक टेलीविजन इंटरव्यू में उन्होंने ऐलान किया, ‘‘अगर अपराध करेंगे तो ठोक दिए जाएंगे.’’
इसके बाद पुलिस द्वारा की जाने वाली ‘‘मुठभेड़ों’’ का समूचे राज्य में एक सिलसिला चल पड़ा. पहले ही महीने में 432 मुठभेड़ों का मामला सामने आया. एक साल बाद अगस्त 2018 में इंडिया टुडे टीवी ने इन मुठभेड़ों में से कुछ की घिनौनी सच्चाई को अपने एक स्टिंग ऑपरेशन के जरिए सामने ला दिया. इस स्टिंग ऑपरेशन से पता चला कि कुछ पुलिस अधिकारी मासूम नागरिकों को झूठे मामलों में फंसाते थे और उनसे कुछ पैसों की मांग करते थे और न मिलने पर उन्हें मार दिया जाता था.
इससे जबर्दस्त तूफान खड़ा हो गया लेकिन आदित्यनाथ के अंदर कोई बेचैनी नहीं दिखाई दी. राज्य प्रशासन ने बड़ी फुर्ती से उन तीन सब इंस्पेक्टरों को बर्खास्त कर दिया जो अपनी सेवाएं देते हुए गुप्त कैमरे में कैद हो गए थे. सरकार ने भी उनके खिलाफ जांच के आदेश दिये जिन्होंने इस तरह की गड़बड़ियां की थीं. लेकिन इस बात की कोई कोशिश नहीं हुई कि उन पुलिसकर्मियों ने जो कुछ बताया था कि उन्हें ऐसा क्यों करना पड़ा, उसकी कोई जांच की जाए. अन्य मुठभेड़ों में की गई संभावित ‘‘ज्यादतियों’’ की भी कोई जांच नहीं हुई.
इसके विपरीत इस तरह की मुठभेड़ों में और भी तेजी आयी. इन्हें अनौपचारिक शब्दों में ‘‘आपरेशन लंगड़ा’’ कहा जाता था क्योंकि इस तरह की मुठभेड़ों में जो घायल होते थे उनमें से अधिकांश के पैरों में गोली लगी होती थी. इस पर्दाफाश के कुछ महीनों बाद आदित्यनाथ ने तो इस हिंसा को और बढ़ा चढ़ा कर पेश किया और इसे अपनी सरकार की एक बहुंत बड़ी उपलब्धि बतायी. 2019 में गणराज्य दिवस के कुछ पहले राज्य के मुख्य सचिव ने जिला मजिस्ट्रेटों से कहा कि वे ‘‘अब तक 3000’’ नारे को प्रचार दें. यह संख्या आदित्यनाथ के सत्ता संभालने के बाद में हुई पुलिस मुठभेड़ों की है.
ऑपरेशन लंगड़ा के एक शिकार अयूब कुरैशी को इस तरह की ‘‘मुठभेड़’’ से दो बार गुजरना पड़ा. पहली बार पुलिस ने उनकी दायीं टांग में और दूसरी बार बायीं टांग में गोली मारी. अयूब मुफ्फरनगर जिले के खतौली में रहते थे. उन्हें अभी इस बात का भरोसा नहीं है कि पुलिस तीसरी बार भी उनसे मुठभेड़ करेगी. इससे पहले तक उनके खिलाफ कोई मामला नहीं था. उन्होंने बताया कि मैं अपने पिता के दूध व्यापार को चुपचाप चला रहा था. 2019 के मध्य में मुसीबतें शुरू हुईं जब मेरा किरायेदार भैंस के एक बछड़े को खरीदकर लाया और मेरे डेयरी फार्म में रख दिया. उसने वायदा किया कि वह इसे अगले दिन ले जाएगा. मैंने उसे अपने यहां बांधने की इजाजत दे दी. रात में पुलिस के एक दल ने मेरे डेयरी पर छापा मारा और यह कहते हुए कि मैंने भैंस का बछड़ा चुराया है, उन्होंने उसे अपने कब्जे में ले लिया और मुझे गिरफ्तार कर लिया. मैंने उनसे बार बार कहा कि यह बछड़ा मेरे किरायेदार ने खरीदा था लेकिन उन्होंने मेरी एक न सुनी. इस बात को मैं साबित नहीं कर सका क्योंकि मेरा किराएदार भाग खड़ा हुआ था.’’
उसके खिलाफ चोरी और जानवरों पर क्रूरता से संबंधित मामला दर्ज किया गया और उसकी जिंदगी ने एक खौफनाक मोड़ ले लिया. अब पुलिस ने रोज उसके यहां आना शुरू किया और वह उसे लेकर ऐसे मामलों में पूछताछ के लिए थाने ले जाती जिनके बारे में उसने कभी सुना भी नहीं था. कुरैशी ने बताया, ‘‘एक बार वे मेरी भैंस को पकड़कर ले गए और मुझे वापस तभी किया जब मैंने उन्हें डेढ़ लाख रुपए दे दिए. जैसे जैसे परेशान करने का सिलसिला बढ़ता गया मैं ज्यादा से ज्यादा समय घर से बाहर बिताने लगा. इसकी वजह से दूध के मेरे धंधे पर बुरा असर पड़ा. बावजूद इसके कि मेरे परिवार का यह अकेला आय का स्रोत था, मुझे यह धंधा बंद करना पड़ा.’’
2019 के अंत तक जैसे जैसे उत्तर प्रदेश में मुठभेड़ की घटनाएं बढ़ती गईं, कुरैशी की मां ने यह जाने बगैर कि वह अपने बेटे को कैसे बचाए, एक पत्र लिखा जिसमें न्याय की गुहार लगाई गई थी और उसने उस पत्र को उन सब लोगों को भेजा जिनके बारे में वह सोचती थी कि न्याय मिलेगा. उसने वह पत्र राष्ट्रपति, राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के अध्यक्ष, प्रधानमंत्री मोदी, आदित्यनाथ और राज्य तथा जिले के वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को भेजा. उस पत्र में लिखा गया था कि ‘‘पुलिस द्वारा परेशान किए जाने की वजह से अयूब को अपने रोजगार से हाथ धोना पड़ा. अब समूचा परिवार और अयूब के बालबच्चे भुखमरी के कगार पर हैं और पुलिस नियमित तौर पर मेरी बस्ती में आती है और प्रायः ऐलान करती है कि इस बार वे अयूब को जेल ले जाने से पहले उसका एनकाउंटर कर देंगे.’’
इस पत्र को लिखने का कोई फायदा नहीं हुआ. कुरैशी ने बताया कि ‘‘इस हालत में किसी तरह का सुधार करने की बजाय 5 अक्टूबर 2020 को मेरठ के किसी इलाके में किसी गाय के मारे जाने का आरोप लगाकर पुलिस ने मुझे गिरफ्तार कर लिया. वे मुझे एक सुनसान जगह ले गए और धक्का देकर मुझे गिरा दिया फिर एकदम नजदीक से मेरे बायें पैर में घुटने के नीचे गोली मार दी.’’ एक महीने बाद उसे जमानत मिल गई लेकिन अभी उसका पहला घाव भरा भी नहीं था कि 1 मार्च 2021 को उसे फिर गिरफ्तार कर लिया गया. इस बार उस पर मोटर बाईक चुराने का आरोप था. ‘‘इस बार फिर वे मुझे सुनसान स्थान पर ले गए और दायें पैर में घुटने से नीचे उन्होंने गोली मारी. अब मैं कहीं नहीं जाता हूं और सारा समय घर पर ही बैठा रहता हूं. एक बार मैंने सोचा कि अपनी आपबीती एनएचआरसी को लिखूं लेकिन मेरे परिवारजनों ने यह कहकर मुझे हतोत्साहित किया कि जब तक योगी जी मुख्यमंत्री हैं हमें कहीं से न्याय नहीं मिलेगा.’’
अक्टूबर 2021 में तीन मानव अधिकार समूह ने एक संयुक्त रिपोर्ट जारी की जिसका शीर्षक था- "एक्सटिंग्विशिंग लॉ ऐंड लाइफ: पुलिस किलिंग्स इन दि स्टेट आफ उत्तर प्रदेश." इसने उत्तर प्रदेश को मुठभेड़ों का एक “सक्रिय स्थल” कहा और बताया कि आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद से 8472 पुलिस मुठभेड़ हुई हैं. इस दस्तावेज में बताया गया है कि “इसके नतीजे के तौर पर 146 लोग मारे गए और 3,302 लोग पुलिस की गोलियों से घायल हुए.” 17 मुठभेड़ों की छानबीन करने के दौरान मानव अधिकार समूहों ने बताया है कि किस तरह राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग द्वारा निर्धारित सुरक्षा नियमों की अवहेलना की और साथ ही इसके प्रति आंख मूंदने में राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग की मिलीभगत का पर्दाफाश किया है.
सरकारी प्रचार ने, जिसे मुख्यधारा के मीडिया ने बढ़ाचढ़ा कर लोगों तक पहुंचाया, इसे इस तरह प्रस्तुत किया गोया इन मुठभेड़ों ने व्यापक जनसमुदाय के बीच अविश्वसनीय उत्साह का और कानून तोड़ने वालों के अंदर आतंक और भय का संचार किया. लेकिन धरातल पर देखें तो ऐसा कुछ भी नजर नहीं आता जैसे इसने किसी निवारक का काम किया हो. इसकी बजाय ऊपर से लेकर नीचे तक समूचे राज्य तंत्र ने एक पूर्वाग्रह से काम किया और कानून के दायरे से बाहर जाकर हिंसा का सहारा लिया.
यह बात खासतौर पर महिलाओं के विरुद्ध अपराध के मामले में सच है. उत्तर प्रदेश में इस तरह के अपराध--खास तौर पर बलात्कार और सामूहिक बलात्कार की घटनाएं आम हो गई हैं. इनमें सर्वाधिक कुख्यात मामला उन्नाव में 17 वर्षीय दलित महिला के सामूहिक बलात्कार और हत्या की घटना का है जिसका मुख्य किरदार बीजेपी नेता कुलदीप सिंह सेंगर था और दूसरा मामला बीजेपी के पूर्व नेता चिन्मयानंद द्वारा शाहजहांपुर में कालेज की एक छात्रा के साथ किए गए कथित बलात्कार की घटना है. (चिन्मयानंद को रिहा कर दिया गया जब अदालत में वह लड़की अपने आरोपों से मुकर गई). हाथरस में एक दलित युवती की सामूहिक बलात्कार के बाद हत्या कर दी गई और उसके शव को पुलिस ने परिवार की इच्छा के बगैर जला दिया; और प्रयागराज में सामूहिक बलात्कार की शिकार एक दलित युवती और उसके परिवार के तीन सदस्यों की हत्या की गई. इन सारे मामलों में आदित्यनाथ सरकार ने या तो जांच में टालमटोल की या अपराधियों के साथ खड़ी दिखाई दी.
रिहाई मंच के महासचिव राजीव यादव ने बताया कि "महिलाओं के विरुद्ध आए दिन होने वाले अपराधों के अलावा ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनमें निर्दोष लोगों को पुलिस मुठभेड़ों में मार दिया गया." रिहाई मंच उत्तर प्रदेश का एक मानव अधिकार संगठन है जो पीड़ितों की राजनीतिक और कानूनी पैरोकारी भी करता है. राजीव ने आगे बताया, "इन मुठभेड़ों ने नागरिक और मानव अधिकारों को पूरी तरह समाप्त कर दिया है. आदित्यनाथ ने शासन का जो मॉडल विकसित किया है वह इस धारणा पर टिका है कि कानून लागू करने का मकसद न्याय सुनिश्चित करना नहीं बल्कि उन अपराधों के लिए, जो सरकार की निगाह में किए गए हैं, कठोर दंड देना है--इस बात की परवाह किए बगैर कि वे अपराध सचमुच किए गए हैं या नहीं."
11 दिसंबर 2019 को मोदी सरकार नागरिकता (संशोधन) कानून लेकर आयी. इसके खिलाफ देश भर में प्रदर्शनों का तांता लग गया. उत्तर प्रदेश में इन प्रदर्शनों का बर्बरतापूर्वक दमन किया गया. मुजफ्फरनगर में सबसे बुरी हालत देखने को मिली.
एक स्थानीय निवासी मोहम्मद इंतसार ने मुझे बताया- "20 दिसंबर को जुमे की नमाज के बाद सीएए के खिलाफ अपना विरोध व्यक्त करने के लिए शहर के विभिन्न हिस्सों से लोग मीनाक्षी चौक में इकट्ठे हुए." यह शांतिपूर्ण प्रदर्शन था और देर तक नारे लगाने के बाद लोग वापस जाने लगे. अचानक पथराव शुरू हो गया और यह स्पष्ट नहीं हुआ कि पत्थर किधर से आ रहे थे. पुलिस ने दावा किया कि प्रदर्शनकारियों ने पथराव किया लेकिन प्रदर्शनकारियों ने बीजेपी नेता संजीव बालियान और उनके आदमियों की ओर संकेत किया जो पुलिस के साथ खड़े साफ दिखाई दे रहे थे. जो भी हो, पुलिस ने भीड़ को तितर-बितर करने के लिए आंसू गैस के गोले छोड़े और लाठीचार्ज किया. शाम के 5:00 बजे तक इलाके में शांति छा गई.
रात में लगभग 11 बजे पुलिस स्थानीय मुस्लिम लोगों के घरों पर गई. इंतसार ने बताया कि "तकरीबन 200 की तादाद में पुलिस आई और उसने लोगों की संपत्ति को नुकसान पहुंचाना शुरू किया. दरवाजा तोड़कर वे मेरे घर के अंदर घुस आए और हर चीज को तहस-नहस कर दिया: मेरी कार, खिड़कियों के शीशे, फर्नीचर, रसोईघर. जो कुछ उनके हाथ लगा, नष्ट कर दिया." इंतसार ने आगे बताया कि उस रात मुजफ्फरनगर के अन्य सैकड़ों मकानों में पुलिस ने तोड़फोड़ की और "लोगों के साथ की गई पुलिस की बर्बरता के भी अनेक मामले सामने आए."
पुलिस ने अपने इन हमलों पर पर्दा डालने का प्रयास किया. बाद में सीसीटीवी फुटेज सामने आने लगे जिनसे पुलिस बर्बरता का पता चला. 20 दिसंबर की रात के एक वीडियो में पुलिस वाले तोड़फोड़ करते दिखाई दिए. जाहिर तौर पर पुलिस के इस हमले के पीछे राजनीतिक मंशा थी: मुसलमानों के अंदर इस कदर आतंक पैदा कर दिया जाए कि वे शांतिपूर्ण विरोध का अपना संवैधानिक अधिकार छोड़ दें. यही तरीका मेरठ, कानपुर, लखनऊ और बिजनौर सहित राज्य के अन्य हिस्सों में दोहराया गया.
दिसंबर की समाप्ति तक पुलिस बर्बरता के फलस्वरूप तकरीबन 19 लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी--इनमें से अधिकांश गोलियों के शिकार हुए थे. हजार से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार किया गया और 5000 से अधिक लोगों को एहतियात के तौर पर नजरबंद किया गया. 27 दिसंबर को आदित्यनाथ ने अपने आधिकारिक ट्विटर हैंडल पर विजय की मुद्रा में ट्वीट किया: "हर दंगाई सदमे में है. हर उपद्रवी हैरान है. योगी सरकार के सख्त रवैये को देखकर हर व्यक्ति खामोश है."
लेकिन 2020 की शुरुआत तक प्रदर्शनों का सिलसिला जारी रहा. आजमगढ़ जिले के बिलरियागंज ब्लॉक में सीएए विरोधी शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों को पुलिस दमन का सामना करना पड़ा और उन पर बर्बर देशद्रोह का कानून भी लगाया गया. बिलरियागंज के अत्यंत सम्मानित इस्लामिक स्कॉलर मोहम्मद ताहिर मदनी ने मुझे बताया कि "4 फरवरी 2020 को दोपहर के आसपास मौलाना जौहर अली पार्क में औरतों का जमावड़ा होने लगा. वे शाहीन बाग की तर्ज पर विरोध प्रदर्शन करना चाहती थीं. कुछ ही घंटों के अंदर जिले के उच्च अधिकारी पुलिस से लदी बसों के साथ ब्लॉक ऑफिस पहुंच गए. पहले उन्होंने मुझसे कहा कि इन औरतों से जौहर अली पार्क खाली कराने के लिए मैं अपने प्रभाव का इस्तेमाल करूं. मैंने उनसे बात की और वह जाने के लिए तैयार हो गयीं बशर्ते उन्हें लिखित आश्वासन दिया जाए कि उन्हें किसी और दिन यहां प्रदर्शन की इजाजत दे दी जाएगी. प्रशासन ने लिखित आश्वासन देने से इनकार किया और बातचीत विफल हो गई."
उस शाम हस्तक्षेप की दो और कोशिशों के लिए मदनी को मजबूर किया गया लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिली क्योंकि जिला प्रशासन केवल मौखिक आश्वासन देने के लिए तैयार था. उन्होंने बताया, ‘‘मैं वापस ब्लाक ऑफिस लौट आया और जिला के अधिकारियों से बातचीत विफल होने की बात कही. मुझसे कहा गया कि मैं यहां से कहीं और न जाऊं. इसके बाद मुझे जानकारी दी गई कि मुझे और बातचीत के लिए मेरे साथ गए मेरे मित्रों को नजरबंद कर दिया गया है.’’
देर रात में पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर धावा बोल दिया. उस ठंड में उन पर पानी का छिड़काव किया गया और आंसू गैस के गोले छोड़े गए. औरतों को तितर-बितर करने के बाद तकरीबन एक दर्जन प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार किया गया. अगले दिन एक प्राथमिकी दर्ज की गई और जिन्हें हिरासत में लिया गया था उन पर देशद्रोह का आरोप लगाया गया. मदनी को मंसूर अली पार्क में जुटी ‘‘उपद्रवी भीड़ को उकसाने वाला नेता’’ कहा गया. उनके साथ हिरासत में लिये गए अन्य लोगों को मुख्य दंगाई कहा गया जो उनके आदेश पर काम कर रहे थे. देशद्रोह संबंधी कानून के इस्तेमाल से यह सुनिश्चित हो गया कि वे सभी तकरीबन चार महीने तक जेल में पड़े रहेंगे.
2021 के शुरूआती महीनों में स्वास्थ्य के मामले में कमजोर इन्फ्रास्ट्रक्चर वाला उत्तर प्रदेश किसी भी हालत में कोविड-19 की दूसरी लहर से निपटने के लिए तैयार नहीं था. समूचे राज्य में ऑक्सीजन, वेंटीलेटर्स और आईसीयू में बिस्तर की गंभीर कमी थी. इस लहर का आना तय माना जा रहा था लेकिन महामारी के इस आसन्न संकट से निबटने के लिए राज्य को तैयार करने की बजाय आदित्यनाथ का पूरा ध्यान मुख्य रूप से अप्रैल में होने वाले पंचायत चुनाव पर टिका था. सामान्यतः राजनीतिक पार्टियों की प्राथमिकता सूची में पंचायत चुनाव का कुछ खास स्थान नहीं होता. लेकिन यह चुनाव 2022 के विधानसभा चुनावों से पहले के एक वर्ष से भी कम समय में होने जा रहा था इसलिए इसका प्रबंधन करना जरूरी लगा. जिस तरह आदित्यनाथ ने पंचायत चुनाव के नतीजों को बीजेपी के पक्ष में करने का प्रयास किया उससे यह बात स्पष्ट हो जाती है.
इन्हीं कारणों से विपक्षी पार्टियां भी पूरी ताकत के साथ इसमें लग गईं. चुनाव प्रचार के दौरान सोशल डिस्टेंसिंग का तनिक भी ध्यान नहीं दिया गया. अभी यह अभियान अपने चरम पर था कि तभी अप्रैल के दूसरे हफ्ते में उत्तर प्रदेश में कोरोना के मामलों में बेतहाशा वृद्धि हुई और अप्रैल के अंत तक हालात बेकाबू होने लगे.
चुनाव की ड्यूटी पर लगाए गए हजारों स्कूल टीचर और अन्य सरकारी कर्मचारी इस महामारी की चपेट में आ गए और उनमें से काफी लोगों की मौत भी हुई. आदित्यनाथ की सरकार लंबे समय तक इस बात को मानने से इनकार करती रही और जब कर्मचारियों और अध्यापकों के संगठनों ने धमकी दी कि अगर मृतकों के परिवारों को मुआवजा नहीं दिया गया तो वे हड़ताल पर चले जाएंगे, तब कहीं जाकर आदित्यनाथ ने उन मौतों को स्वीकार किया.
आदित्यनाथ ने दूसरी लहर से निबटने में जो ढिलाई दिखाई उससे न केवल वास्तविकता पर उनकी कमजोर पकड़ का पता चलता है बल्कि यह भी आभास मिलता है कि सच्चाई से उनकी सरकार का किस तरह का बैर था. मरीजों के बढ़ने और अस्पतालों में ऑक्सीजन सिलेंडरों के न होने की खबरें जब सुर्खियां बनने लगीं तो उनके कार्यालय ने ट्वीट किया कि राज्य में ऑक्सीजन या वेंटीलेटर और बेड की कोई कमी नहीं है. उन्होंने अपने अधिकारियों से कहा कि जो लोग ‘‘अफवाहें’’ फैला रहे हैं और सोशल मीडिया पर दुष्प्रचार के जरिए ‘‘वातावरण खराब कर रहे हैं’’ उनके खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के अंतर्गत कार्रवाई की जाए और उनकी संपत्ति भी जब्त की जाए.
उनकी धमकियों और तथ्यों को झुठलाने का कोई असर नहीं पड़ा. जब गंगा में तैरते शवों को लोगों ने देखा तो उनकी ये धमकियां एक क्रूर मजाक बनकर रह गयीं. आदित्यनाथ का यह व्यवहार पूरी तरह सभ्य राजनीतिक तौरतरीकों के विपरीत था और इससे उत्तर प्रदेश में जो कुछ हो रहा था उसकी एक दर्दनाक तस्वीर उभरकर आयी.
दैनिक भास्कर के संपादक ओम गौड़ ने न्यूयार्क टाइम्स में एक मार्मिक टिप्पणी लिखी- ‘‘अगर मौसम ने जाहिर नहीं किया होता तो शायद हम इस हादसे को कभी जान नहीं पाते. मई के शुरूआती दिनों में बारिश की वजह से गंगा का पानी बढ़ गया जिससे लाशें नदी की सतह पर आ गयीं और तटों तक बिखर गयीं. पानी की वजह से घाट की रेत खिसक गई और वहां दफनाई गई लाशें नजर आने लगीं. इस बारिश ने ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था को मजबूत करने या टीके की पर्याप्त सप्लाई सुनिश्चित करने या इन सारी खामियों की जिम्मेदारी लेने में सरकार की जबर्दस्त विफलता को तार तार कर दिया.’’
8 नवंबर को रामपुर की एक सार्वजनिक सभा को संबोधित करते हुए आदित्यनाथ ने कोविड-19 संकट के समय अपनी सरकार के प्रबंधन के लिए खुद को बधाई दी और कहा कि यह ‘‘दुनिया में सर्वोत्तम” था.
आदित्यनाथ ने जिस तरह शासन चलाने की कोशिश की उस पर गौर करें तो पूरी निश्चितता के साथ बस यही कहा जा सकता है कि बुनियादी तौर पर कोई परिवर्तन वह नहीं चाहते; उन्हें बस सत्ता चाहिए. जिस तरह हिंदू युवा वाहिनी ने राजसत्ता पर कब्जा करने के लिए उनके उपकरण के तौर पर काम किया उसी तरह आज उत्तर प्रदेश में उनका प्रभुत्व बनाए रखने के लिए पुलिस बल एक उपकरण की तरह काम कर रहा है.
आदित्यनाथ की सरकार राज्य की आबादी के एक बड़े हिस्से की भौतिक स्थितियों में कोई उल्लेखनीय विकास लाने में असफल रही है. स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन स्तर से संबंधित ‘नीति आयोग’ के नए सूचकांक में बिहार और झारखंड के साथ उत्तर प्रदेश उन राज्यों में है जहां सबसे ज्यादा लोग बहुआयामी गरीबी की चपेट में हैं. 2017 से 2021 के बीच आदित्यनाथ के शासनकाल में राज्य के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में महज 1.95 प्रतिशत का चक्रवृद्धि वार्षिक विकास हुआ. इसकी तुलना में 2012 और 2017 के बीच की चक्रवृद्धि वार्षिक विकास दर देखें तो यह लगभग 7 प्रतिशत थी.
आदित्यनाथ आर्थिक अवधारणाओं और सरकार के कामकाज पर मजबूत पकड़ न रखने वाले न तो पहले मुख्यमंत्री हैं और न आखिरी. आमतौर पर इस तरह की स्थितियों में नेतृत्व अपनी खामियों पर काबू पाने के लिए सलाहकारों की मदद लेता है. लेकिन आदित्यनाथ के अंदर एक अजीब तरह की आत्मलीनता है जो उन्हें सलाहकारों, नौकरशाहों और यहां तक कि अपने मंत्रिमंडल के सहकर्मियों के साथ भी घनिष्ठ संबंध बनाए रखने के माफिक नहीं है.
उत्तर प्रदेश सरकार के एक वरिष्ठ मंत्री ने मुझसे कहा- ‘‘वह अधिकांश मंत्रियों और पार्टी विधायकों पर विश्वास नहीं करते. शायद उन्होंने कभी खुद को इस टीम का हिस्सा नहीं समझा.’’ उस मंत्री ने बताया कि यद्यपि आदित्यनाथ ने सभी चुनाव बीजेपी के टिकट पर ही जीते लेकिन पार्टी में वह खुद को कभी सहज नहीं पा सके. ‘‘उनको हमेशा, मुख्यमंत्री बनने तक भी, यही यकीन था कि पूर्वांचल के बारे में सभी फैसले अकेले उन्हें लेने चाहिए और पार्टी को उसका अनुपालन करना चाहिए. अपनी हिंदू युवा वाहिनी की मदद से उन्होंने न केवल सपा और बसपा से बल्कि बीजेपी नेताओं से भी अपने साम्राज्य की रक्षा की. यही वजह है कि आज बीजेपी सरकार का नेतृत्व करने के बावजूद वह अपने अंदर पार्टी के विधायकों और मंत्रियों के प्रति विश्वास नहीं पैदा कर सके और आमतौर पर इनमें से अधिकांश के प्रति संदेह का भाव रखते हैं.’’
इस मंत्री के अनुसार अधिकांश सरकारी नौकरशाहों में भी उनका भरोसा नहीं है. उन्होंने बताया कि ‘‘उनके उग्र स्वभाव और अकसर अपमानजनक भाषा इस्तेमाल करने की आदत से अच्छे इरादों वाले सरकारी कर्मचारी और सलाहकार भी घबराये रहते हैं. अपनी राय बताने की बजाय वे खामोश रहना बेहतर समझते हैं क्योंकि कुछ पता नहीं कि अगर उन्होंने कुछ कहा तो अपमानित न कर दिए जाएं.’’ अपने अनुभव के आधार पर उस मंत्री ने बताया, ‘‘मैं आपको बता सकता हूं कि कैसे नौकरशाह अपने को बचाकर चलते हैं- अगर उन्हें महसूस होता है कि बास गुस्से में है और कब क्या कर दे इसका ठिकाना नहीं तो वे खामोश हो जाते हैं. ऐसी हालत में प्रायः योगी जी अकेले ही संकट से निपटते हैं या कुछ गिने चुने चापलूसों से सलाह मश्विरा करते हैं जिनमें कुछ पुलिस अफसर भी शामिल हैं.’’
2021 की गर्मियों में अटकलें बहुत तेज हो गयीं कि आदित्यनाथ को मोदी हटाना चाहते हैं या कम से कम उनकी औकात थोड़ी कम करना चाहते हैं. जून आते आते इन अटकलों में और तेजी हो गई जब देखा गया कि बीजेपी और आरएसएस के अनेक शीर्ष नेता लखनऊ जा रहे हैं और आदित्यनाथ तथा महत्वपूर्ण मंत्रियों के साथ बैठकें कर रहे हैं. हालांकि पार्टी ने इन बैठकों को राज्य विधानसभा चुनावों के मद्देनजर ‘‘सामान्य बैठकें’’ कहा लेकिन यह बात जाहिर हो गई थी कि बीजेपी हाई कमान के साथ आदित्यनाथ का समीकरण सचमुच कुछ ठीक ठाक नहीं है.
इन अफवाहों में कुछ दम था- इसकी पुष्टि कुछ महीने बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के एक वरिष्ठ सदस्य ने की. उसने मुझे बताया कि ‘‘जून में उनके पंख कतरने के कुछ गंभीर प्रयास किए गए थे. उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाना मकसद नहीं था बल्कि हम चाहते थे कि वे कुछ खास सहकर्मियों के साथ सत्ता का बंटवारा करें. लेकिन उन प्रयासों को तुरत रोक दिया गया जब यह महसूस हुआ कि योगी जी इस मामले में बहुत दृढ़ हैं कि नियंत्रण उनके हाथ से और किसी के हाथ में बिलकुल न जाए.’’
एक और अफवाह का बाजार काफी गर्म था. यह कि अगर आगामी विधानसभा चुनाव में बीजेपी को सफलता मिली तो आदित्यनाथ को दूसरा मौका नहीं दिया जाएगा. आरएसएस के नेता ने मुझे बताया- ‘‘यह अफवाह चुनावों के बाद आदित्यनाथ के भविष्य को लेकर हमारे समर्थकों के दिमाग में अनिश्चितता पैदा कर सकती थी और इससे बीजेपी की जीत की संभावना पर असर पड़ सकता था. जरूरत थी कि पार्टी के वरिष्ठ नेता फौरन इस पर अपनी सफाई दें.’’
अक्टूबर 2021 में अमित शाह ने लखनऊ की एक जनसभा में कहा, ‘‘अगर आप लोग चाहते हैं कि 2024 में मोदी जी एक बार फिर प्रधानमंत्री बनें तो आपको 2022 में योगी जी को दुबारा मुख्यमंत्री बनाना ही होगा. ऐसा करके ही देश का विकास आगे बढ़ सकता है. उत्तर प्रदेश के विकास के बिना देश का विकास नहीं हो सकता.’’
एकता के इस संदेश को और मजबूती देने के लिए आदित्यनाथ ने अपनी और मोदी की साथ साथ चलते हुए 21 नवंबर की दो तस्वीरें ट्वीट कीं. इस तस्वीर में आदित्यनाथ के कंधे पर हाथ रखे मोदी उनके साथ बातचीत करते हुए दिखाई देते हैं. आदित्यनाथ ने कुछ पंक्तियां भी लिखीं : ‘‘हम निकाल पड़े हैं प्रण करके/ अपना तन-मन अर्पण करके/ जिद है एक सूर्य उगाना है/ अंबर से ऊंचा जाना है/ एक भारत नया बनाना है.’’
बीजेपी और आदित्यनाथ दोनों के लिए ऐसा करना महत्वपूर्ण था. लेकिन इससे यह जानकारी भी मिली कि बगैर ज्यादा झंझट किए आदित्यनाथ ने अपने सामने आई पहली बड़ी चुनौती को लांघ लिया है. जो लोग उन्हें किनारे करना चाहते थे उन्होंने खुद ही मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में उनके नाम की घोषणा की- शायद चुनाव के समय एकजुटता बनाए रखने का दिखावा करने की मजबूरी की वजह से.
आरएसएस के नेता ने आगे मुझे बताया कि ‘‘योगी जी की हैसियत कम करने में मोदी और शाह को जो नाकामयाबी मिली उसका एक कारण यह था कि संघ अब योगी जी को उस तरह नहीं देखता जैसे पहले देखा करता था. मुख्यमंत्री बनने तक संघ के लिए योगी जी एक तरह से मुसीबत थे क्योंकि वह हमेशा स्वतंत्र और प्रायः समानांतर और राजनीतिक आकांक्षाओं से भरपूर नीति का अनुसरण करते दिखाई देते थे. लेकिन पिछले पांच वर्षों में हालात बदले हैं. उन्होंने खुद को संघ परिवार के साथ जोड़ने की जबर्दस्त कोशिश की है. संघ ने भी इस बात के लिए उनकी प्रशंसा की है कि उन्होंने राजनीतिक क्षेत्र में निरंतर हिंदू धार्मिक प्रतीकों पर जोर दिया और मुसलमानों से निपटने में बर्बर गुणों का परिचय दिया. इसलिए योगी जी के सवाल पर बीजेपी नेतृत्व दुविधा में था लेकिन संघ का एक महत्वपूर्ण हिस्सा पहले ही उत्तर प्रदेश के अगले चुनाव के लिए उनके चेहरे को पसंद कर चुका था.’’ पार्टी का अब हर कदम एक चालाकी भरा कदम है जिसका मकसद 2022 में चुनावी सफलता हासिल करना है. अमित शाह की घोषणा के बाद खुद आदित्यनाथ ने चुनाव प्रचार की शुरुआत का संकेत दिया. दिवाली की पूर्व संध्या पर अयोध्या में उन्होंने कहा कि उनकी सरकार उस पैसे से मंदिरों का निर्माण कर रही है जिन्हें पुरानी सरकारों ने ‘‘कब्रिस्तानों की दीवारें बनाने पर खर्च किया था. जनता ने उन लोगों को, जो कब्रिस्तान पसंद करते थे, उनकी जगह दिखा दी.’’ उन्होंने आगे कहा, ‘‘वे आज हमें मंदिरों के निर्माण और भारतीय संस्कृति को आगे ले जाने पर पैसे खर्च करते हुए देख रहे हैं.’’
चुनाव अभियान की शुरुआत अयोध्या से करने का एक महत्व है. 2017 में विधानसभा चुनाव के लिए भी उन्होंने बड़ी सावधानीपूर्वक अयोध्या का प्रतीकात्मक इस्तेमाल किया था. उन्होंने कहा था- ‘‘भव्य राम मंदिर के निर्माण के मार्ग में आए अवरोधों को क्रमशः दूर किया जाएगा और जल्दी ही अयोध्या में इसका निर्माण कार्य शुरू होगा.’’ मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने हर साल दिवाली के मौके पर अयोध्या में ‘‘दीपोत्सव’’ मनाना शुरू किया. आदित्यनाथ ने यह दिखा दिया कि वह अपने आजमाए तौर तरीकों का ही इस्तेमाल करेंगे और चुनाव जीतने के लिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की अपनी नीति जारी रखेंगे.
आदित्यनाथ की सफलता उस वैचारिक परिवेश की सफलता है जिसमें वह, मोदी और संघ परिवार काम कर रहे हैं. उन्हें उन प्रवृत्तियों और ग्रंथियों के चरम उत्पाद के रूप में देखा जाता है जिन्होंने आरएसएस और हिंदू राष्ट्र की इसकी विघटनकारी दृष्टि को आकार दिया. आदित्यनाथ की गतिविधियां संघ की धार्मिक और राजनीतिक प्रवृत्तियों के मिश्रण को अभिव्यक्त करती हैं जबकि उनके भाषणों में वे सारे पूर्वाग्रह मिलते हैं जिनसे इस विचारधारा को बल मिलता जा रहा है.
जाहिर सी बात है कि आदित्यनाथ को पुराने विचारों के इस्तेमाल से कोई भय नहीं है. इन्हीं से अतीत में उन्हें बेशुमार लाभ मिले हैं.
(कारवां अंग्रेजी के जनवरी 2022 अंक में प्रकाशित इस कवर स्टोरी का अनुवाद वरिष्ठ पत्रकार आनंद स्वरूप वर्मा ने किया है. मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)