8 अक्टूबर को पटना के मौर्या होटल में ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के शीर्ष नेता असदुद्दीन ओवैसी, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) के मुखिया और नरेन्द्र मोदी सरकार में पूर्व मंत्री उपेंद्र कुशवाहा और समाजवादी जनता दल डेमोक्रेटिक के देवेंद्र यादव ने प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित कर बहुजन समाज पार्टी, सुहलदेव भारतीय समाज पार्टी और जनतांत्रिक सोशलिस्ट पार्टी के साथ मिलकर बिहार विधानसभा चुनाव के लिए ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेक्युलर फ्रंट बनाने का ऐलान किया.
प्रेस कॉन्फ्रेंस में फ्रंट का संयोजक देवेंद्र यादव ने महागठबंधन पर तंज किया कि “वे लोग सियासी सेक्युलर हैं और हम लोग जहनी सेक्युलर हैं.” बिहार में एनडीए बनाम महागठबंधन के बारे में उन्होंने बताया कि बिहार में सिर्फ दो ही विकल्प की बात करना और सेक्युलर फ्रंट को तीसरा मोर्चा कहना गलत होगा क्योंकि “जनता ने अगर चाहा तो हमारा मोर्चा पहला होगा.” प्रेस कॉन्फ्रेंस में साझा रूप से उपेंद्र कुशवाहा को फ्रंट की तरफ से मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया गया.
असदुद्दीन ओवैसी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, “पिछले 30 सालों की सरकार से बिहार को कोई लाभ नहीं हुआ है. नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए के 15 साल और राजद और कांग्रेस के 15 सालों के शासन के बाद बिहार के गरीबों की स्थिति और भी खराब हो गई.” उन्होंने कहा कि “बिहार के मुस्तकबिल के लिए इस गठबंधन का बनना जरूरी” था.
इससे पहले साल 2015 के विधानसभा चुनाव में एआईएमआईएम ने बिहार में पहली बार चुनाव लड़ा था. उस चुनाव में एआईएमआईएम ने सीमांचल के किशनगंज की 6 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे. (बिहार के सीमांचल क्षेत्र में अररिया, पूर्णिया, किशनगंज और कटिहार जिले आते हैं.) लेकिन इस बार, सितंबर में प्रकाशित समाचारों के अनुसार, वह 50 सीटों पर उम्मीदवार उतारेगी.
उस चुनाव में नीतीश कुमार ने “मिट्टी में मिल जाएंगे, लेकिन बीजेपी से हाथ नहीं मिलाएंगे” का नारा देकर राजद से हाथ मिला लिया था. नीतीश कुमार का यह कदम राजनीतिक पंडितों के लिए सबसे बड़ा सियासी फैसला था. पूरे चुनाव भर नीतीश कुमार और राजद मुखिया तथा पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के इर्द-गिर्द ही राजनीतिक विश्लेषण होता रहा. विधानसभा चुनाव में बीजेपी की हार हुई और राजद-जदयू-कांग्रेस के गठबंधन की सरकार बन गई. नीतीश कुमार ने तीसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली.
चुनाव परिणाम के बाद मीडिया में एएमआईएमआई का जिक्र बस इतना भर हुआ कि उसका कोई भी उम्मीदवार चुनाव नहीं जीत पाया. उस चुनाव में किशनगंज के कोचाधमन विधानसभा सीट पर एआईएमआईएम को 37086 वोट मिले थे, जो बीजेपी से करीब 2200 ज्यादा थे. इस सीट पर ओवैसी की पार्टी दूसरे नंबर पर थी. इसी तरह किशनगंज विधानसभा सीट पर 16440 वोट मिले थे और पार्टी तीसरे नंबर पर थी. बैंसी विधानसभा सीट पर 16723 वोटों के साथ चौथे पायदान पर थी.
उस चुनाव में एआईएमआईएम को कुल मिलाकर 80248 वोट मिले थे जो कुल मतदान का महज 0.21 प्रतिशत था. कोई भी राजनीतिक पर्यवेक्षक इन अंकों से यही निष्कर्ष निकालेगा कि पार्टी ने बेहद बुरा प्रदर्शन किया. लेकिन, एआईएमआईएम के लिए ये आंकड़े उम्मीदों से भरे हुए थे और इन्हीं आंकड़ों की बुनियाद पर पार्टी ने 2019 के लोक सभा चुनाव में किशनगंज सीट से उम्मीदवार उतारा और फिर उसी साल अक्टूबर में किशनगंज विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में बिहार में अपना खाता खोलकर सेक्युलर मानी जानेवाली पार्टी कांग्रेस और राजद को झटका दे दिया.
अक्टूबर 2019 में ही महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव हुए थे. उस चुनाव में पार्टी ने दो सीटों पर जीत हासिल की थी लेकिन पहले से जीती हुई दो अन्य सीटें पार्टी के हाथ से फिसल गईं. इसके बावजूद महाराष्ट्र चुनाव में उसके वोट प्रतिशत में इजाफा हुआ.
किशनगंज उपचुनाव में जीत इस मायने में अहम थी क्योंकि एआईएमआईएम ने खालिस हिंदी प्रदेश में पहली बार अपनी उपस्थिति दर्ज कराई थी.
सीमांचल से आने वाले एआईएमआईएम की बिहार इकाई के अध्यक्ष अख्तरूल ईमान ने पिछले विधानसभा में प्रदर्शन के बारे में मुझे कहा, “2015 के विधानसभा चुनाव में भले ही हम एक भी सीट नहीं जीत पाए लेकिन हमें जो वोट मिला था वह हौसला बढ़ाने वाला था.”
सीमांचल में कांग्रेस के मोहम्मद असरारुल हक और राजद के मोहम्मद तसलीमुद्दीन मुस्लिमों के लीडर माने जाते थे लेकिन उनके देहांत के बाद जो वैक्यूम बन गया था उसे अख्तरूल ईमान ने भरा दिया. उन्होंने अपनी राजनीति राजद के साथ शुरू की थी और बाद में जदयू में भी शामिल हुए. लेकिन अगस्त 2015 में वह एआईएमआईएम में शामिल हो गए.
अख्तरूल ईमान कहते हैं, “साल 2015 के विधानसभा चुनाव में महागठबंधन के पक्ष में हवा थी. वोट भी महागठबंधन और एनडीए में ही बंट रहे थे. कोई तीसरा फ्रंट नहीं था. लेकिन कई और छोटी पार्टियों ने उम्मीदवार उतारे थे और उन छोटी पार्टियों को एकमुश्त जितना वोट मिला था हमारी पार्टी को उनके मुकाबले बहुत ज्यादा वोट मिला. हमारे उम्मीदवारों को किसी सीट पर 37 हजार, तो किसी पर 16 हजार वोट मिले. इससे हमें बहुत बल मिला.”
2019 के लोक सभा चुनावों में अख्तरूल ईमान ने एआईएमआईएम के टिकट पर किशनगंज से चुनाव लड़ा. इस चुनाव में पार्टी 295029 वोटों के साथ तीसरे नंबर पर रही.
किशनगंज लोक सभा में पड़े वोटों का विश्लेषण अगर विधानसभा सीटों के अनुसार करें तो किशनगंज समेत कम से कम तीन सीटों पर एआईएमआईएम आगे रही थी. किशनगंज विधानसभा सीट से विधायक रहे मोहम्मद जावेद ने 2019 में किशनगंज लोक सभा सीट से सांसदीय चुनाव लड़ा और जीत गए. किशनगंज विधानसभा का सीट खाली होने पर अक्टूबर 2019 में इस सीट पर उपचुनाव हुआ और एआईएमआईएम ने जीत दर्ज कर ली.
इस साल होने जा रहे विधानसभा चुनाव में एआईएमआईएम सीमांचल क्षेत्र की तीन दर्जन से ज्यादा विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान कर चुकी है. क्षेत्र का किशनगंज जिला 67.98 प्रतिशत (2011 की जनगणना के अनुसार) मुस्लिम आबादी वाला क्षेत्र है. सन 1957 में किशनगंज लोक सभा सीट के अस्तित्व में आने के बाद से अब तक यहां से कांग्रेस ने 9 बार और राजद ने तीन बार जीत दर्ज की है. यहां से दो बार जनता दल, एक-एक बार प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और बीजेपी ने जीत का परचम लहराया है.
मुस्लिम वोटर पारंपरिक तौर पर कांग्रेस और राजद को वोट देते आ रहे थे. किशनगंज में भी कमोबेश यही रवायत थी. यही वजह भी थी कि दोनों पार्टियों ने 50 वर्षों तक यहां से प्रतिनिधित्व किया. मुस्लिम बहुल आबादी के चलते ही गया के बाशिंदा सैयद शहाबुद्दीन, पत्रकार व दिल्ली निवासी एमजे अकबर और सुपौल के मूल निवासी शाहनवाज हुसैन ने यहां आकर चुनाव लड़ा और जीत दर्ज कर ली. यहां तक कि 2014 के लोक सभा चुनाव में भी किशनगंज लोक सभा सीट से कांग्रेस उम्मीदवार ने अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी बीजेपी उम्मीदवार डॉ. दिलीप जायसवाल को 194612 वोटों के अंतर से पराजित किया था.
लेकिन, अब सीमांचल के मुस्लिम वोटर राजद और कांग्रेस को दरकिनार कर एआईएमआईएम की तरफ आकर्षित हो रहे हैं. किशनगंज विधानसभा क्षेत्र के टेऊसा गांव के रहने वाले 35 वर्षीय अतिकुर रहमान कांग्रेस के समर्थक रहे हैं और हर बार कांग्रेस को ही वोट देते थे, लेकिन अक्टूबर 2019 में हुए उपचुनाव में उन्होंने कांग्रेस की जगह एआईएमआईएम को वोट डाला.
उन्होंने मुझसे कहा, “किशनगंज लोक सभा और विधानसभा सीट पर लंबे समय से कांग्रेस जीतती रही है, लेकिन इस क्षेत्र में विकास का जितना काम होना चाहिए, उतनी नहीं हुआ है. वोटर जब किसी को वोट देता है, तो उम्मीद करता है कि जिसे वोट दिया है, वह नेता अपने वोटर के सुख-दुःख में काम आएगा लेकिन इस मामले में कांग्रेस के जीते हुए नेता खरे नहीं उतरे. तब हमलोगों के पास इनके अलावा कोई विकल्प नहीं था इसलिए मजबूरी में कांग्रेस को वोट देते थे लेकिन इस बार वोटरों को एआईएमआईएम के रूप में एक विकल्प मिला, तो उसे जिता दिया.”
अतिकुर रहमान साथ ही यह भी कहते हैं कि उन्होंने एआईएमआईएम का झंडा देखकर नहीं बल्कि उन्होंने उम्मीदवार को देखकर वोट डाला था.
“कमरूल होदा स्थानीय नेता हैं. वह काम करते हैं. उन्हें कोई भी व्यक्ति अपनी समस्या बताता है तो तुरंत उसकी मदद करते हैं. कांग्रेस के वक्त रोड वगैरह की योजना पास होने के बावजूद काम नहीं होता था लेकिन अभी जो विधायक जीते हैं वह काम करा रहे हैं. उनके विधायक बनने के बाद कोठिया से किशनगंज तक रोड का काम हुआ”, अतिकुर रहमान ने बताया.
विकास के मामले में सीमांचल, बिहार के अन्य हिस्सों से बेहद पिछड़ा हुआ है. सीमांचल में स्वास्थ्य का बुनियादी ढांचा बदतरीन है. लोगों को अपना इलाज कराने के लिए सीमा से सटे पश्चिम बंगाल का रुख करना पड़ता है. अनाज की खरीद-फरोख्त के लिए भी किसान पश्चिम बंगाल की मंडियों पर आश्रित रहते हैं. शैक्षणिक संस्थानों का टोटा है. कमोबेश हर साल यहां बाढ़ भी आ जाती है जो लोगों को आर्थिक रूप से कमजोर बना देती है. इसके अलावा पलायन भी सीमांचल का बहुत बड़ा मुद्दा है.
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता व प्रदेश कांग्रेस कमेटी के वर्किंग प्रेसिडेंट कौकब कादरी ने मुझसे बातचीत में स्वीकार किया कि बिहार के शेष इलाकों के बनिस्बत सीमांचल में कम विकास हुआ है.
उन्होंने मुझे बताया, “यह बात सही है कि बिहार के अन्य इलाकों के मुकाबले सीमांचल में विकास कम हुआ है. लेकिन अस्सी के दशक तक वहां जो भी काम हुआ, वह कांग्रेस की सरकार ने किया. लेकिन इसके बाद की जो भी सरकारें आईं उन्होंने क्षेत्र का विकास नहीं किया.”
किशनगंज विधानसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव में कांग्रेस की हार के लिए कौकब कादरी उम्मीदवार के चयन में गलती को जिम्मेदार मानते हैं. उन्होंने मुझे कहा, “जावेद साहब के सांसद बनने के बाद उनकी बुजुर्ग माता को किशनगंज विधानसभा का टिकट दिया गया. लोग चाहते थे कि कांग्रेस के किसी स्थानीय नेता को टिकट दिया जाए लेकिन ऐसा नहीं हुआ तो प्रतिक्रिया में लोगों ने ओवैसी की पार्टी को वोट दे दिया.”
वैसे, कांग्रेस उम्मीदवार का केवल बुजुर्ग होना ही किशनगंज में ओवैसी की पार्टी की जीत की एकमात्र वजह नहीं है. इलाके की चरम बदहाली और मुस्लिमों में अपनी पहचान की राजनीति को लेकर सजगता ने भी बड़ी भूमिका निभाई है.
असदुद्दीन ओवैसी सीमांचल में अपनी सभाओं में सीमांचल की बदहाली का जिक्र करना नहीं भूलते हैं. वह सीमांचल के विकास के लिए संविधान के अनुच्छेद 371 के तहत सीमांचल विकास परिषद के गठन की मांग करते रहे हैं. इसके अलावा मुस्लिमों से जुड़े मुद्दों पर ओवैसी का स्पष्ट नजरिया भी सीमांचल के वोटरों के एक वर्ग को रास आ रहा है.
सीमांचल में सक्रिय ऑनलाइन मीडिया पोर्टल ‘मैं मीडिया’ के संस्थापक और पत्रकार तंजील आसिफ ने मुझे कहा, “संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग), राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के नेतृत्व वाली केंद्र और राज्य सरकारों ने लगातार इस इलाके की अनदेखी की है. सालों साल आनेवाली बाढ़ की तबाही से लोग परेशान हैं. ऐसे में बदलाव के नाम पर ओवैसी की पार्टी सीमांचल में एक विकल्प बन कर उभरने में कामयाब रही है.”
“दूसरी बात ये भी है कि मुस्लिमों को प्रभावित करने वाले मुद्दों पर एआईएमआईएम मुखिया उनके साथ खुल कर खड़े रहते हैं, लेकिन राजद और कांग्रेस प्रतिक्रिया देने में देरी कर देती हैं. राम मंदिर जैसे संवेदनशील मुद्दे पर कांग्रेस और राजद बंटी हुई है, इसका फायदा भी ओवैसी को मिल सकता है”, तंजील आसिफ ने कहा.
आसिफ आगे कहते हैं, “एआईएमआईएम के नेता ‘अपनी कयादत’ का जिक्र बार-बार करते हैं. यानी कि अपनी बिरादरी का प्रतिनिधित्व. मसलन, राजद यादवों की पार्टी है, लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) पासवानों की पार्टी है, तो इसी तर्ज पर मुस्लिमों की भी अपनी पार्टी होनी चाहिए. सीमांचल में एआईएमआईएम की जहां भी सियासी पकड़ बन रही है, पार्टी के नेता वहां जाकर ये बातें कहते हैं. मुस्लिम वोटरों को भी लग रहा है कि एआईएमआईएम उनका प्रतिनिधित्व करेगी और उनके मुद्दे पुरजोर तरीके से उठाएगी.”
रुझान बताते हैं कि सीमांचल की कम से कम पांच सीटों कोचाधमन, बहादुरगंज, किशनगंज, अमौर और बैंसी पर एआईएमआईएम की अच्छी पकड़ है. अक्टूबर-नवंबर में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में इन सीटों पर महागठबंधन उम्मीदवारों का मुकाबला एनडीए नहीं, बल्कि एआईएमआईएम उम्मीदवारों से होगा. अगर इन सीटों पर एआईएमआईएम के उम्मीदवार कामयाब हो जाते हैं, तो महागठबंधन को नुकसान होगा क्योंकि ये क्षेत्र पारंपरिक तौर पर कांग्रेस और राजद का गढ़ रहा है.
कांग्रेस नेता कौकब कादरी का कहना है कि एआईएमआईएम की भूमिका चुनाव में खेल बिगाड़ने वाली है. उन्होंने मुझे कहा, “मैं तो ओवैसी जी से पूछना चाहता हूं कि अगर वह 5-6 सीटें जीत जाते हैं, तो किसकी गोद में बैठेंगे? बीजेपी के साथ जाएंगे या महागठबंधन में शामिल होंगे? या पांच विधायक लेकर अलग बैठेंगे? अपने पांच विधायक लेकर अलग बैठेंगे, तो इससे लोगों को क्या फायदा होगा. लोग उन्हें वोट देंगे ही क्यों? सीमांचल में ओवैसी की पार्टी का कुछ जनाधार है, लेकिन मध्य बिहार और दक्षिण बिहार में पार्टी का कोई जनाधार नहीं है. इन क्षेत्रों में अपने उम्मीदवार इसलिए उतार रहे हैं कि 2-4 हजार मुस्लिम वोट काटकर बीजेपी को जिता दें.”
कांग्रेस नेता की इस टिप्पणी के जवाब में अख्तरूल ईमान कहते हैं, “वोट किसी की पैतृक संपत्ति नहीं है जो कोई काट लेता है. वोट जनता की इच्छा का नाम है. कुछ पार्टियों ने मुसलमानों के वोट को अपनी संपत्ति समझ लिया है. लोकतंत्र में यह शब्द ही गलत है कि वोट कोई काटता है. अगर आपको कोई वोट नहीं दे रहा है और दूसरे विकल्प की तरफ जा रहा है, तो आपको आत्मावलोकन करना चाहिए कि ऐसा क्यों हो रहा है.”
उन्होंने आगे कहा, “रही बात कांग्रेस की, तो उसे वैसे भी मुस्लिमों का वोट पाने का हक नहीं है. उसने आरएसएस का डर दिखाकर केवल मुस्लिमों का वोट हासिल किया है. गुजरात दंगों के बाद कांग्रेस की सरकार बनी, लेकिन दंगों के दोषियों को सजा नहीं दिलवा पाई. 1992 में बाबरी विध्वंस के बाद कांग्रेस की सरकार बनी, लेकिन इसके दोषियों को भी सजा नहीं मिल पाई. मुसलमानों की नई नस्लें देख रही हैं कि सेक्युलर दलों ने मुसलमानों का केवल वोट लिया, इसलिए अब वो इन दलों से इतर छोटी पार्टियों पर भरोसा जता रहे हैं.”
पिछले दिनों राजद, कांग्रेस व वामदलों ने पटना में एक साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस कर जब महागठबंधन में सीटों के बंटवारे पर सहमति बन जाने का ऐलान किया, तो उस मंच पर न तो कांग्रेस की तरफ से और न ही राजद की तरफ से ही कोई मुस्लिम नेता मौजूद था. कुछ मुसलमान युवकों ने सोशल मीडिया पर इस मुद्दे को उठाकर बताने की कोशिश की कि खुद को सेक्युलर कहने वाली राजद और कांग्रेस को केवल मुसलमानों का वोट चाहिए, उनका प्रतिनिधित्व नहीं.
सीमांचल में अपनी सियाती जमीन मजबूत करने में जुटी एआईएमआईएम चुनाव परिणाम के बाद महागठबंधन में शामिल होने की ख्वाहिशमंद है. किशनगंज विधानसभा से एआईएमआईएम विधायक कमरूल होदा ने बातचीत में मुझे बताया, “चुनाव में अगर हम कुछ सीट जीत लेते हैं, तो जरूरत पड़ने पर महागठबंधन में शामिल होंगे.”
एआईएमआईएम के कई स्थानीय नेताओं ने मुझे बताया कि यही संदेश एआईएमआईएम के नेता वोटरों तक भी पहुंचा रहे हैं ताकि सत्ताविरोधी लहर का फायदा मिल सके. इस पार्टी ने दावा किया कि सेक्युलर फ्रांट में शामिल होने से पहले वह महागठबंधन में शामिल होने की कोशिश कर चुकी है लेकिन महागठबंधन के सबसे अहम घटक दल कांग्रेस और राजद इसके लिए तैयार नहीं हैं.
किशनगंज के विधायक कमरूल होदा ने मुझे कहा, “हमलोग महागठबंधन का हिस्सा होना चाहते थे. इसके लिए राजद के नेताओं से संपर्क भी किया था लेकिन उनकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई. केवल हमारी तरफ से कोशिश करने से तो नहीं होगा. उनकी तरफ से भी सक्रियता दिखनी चाहिए.”
इस बारे में जब मैंने राजद के राष्ट्रीय प्रवक्ता डॉ. नवल किशोर से पूछा तो उन्होंने कहा, “ओवैसी से गठबंधन पर कभी कोई बात नहीं हुई है. एआईएमआईएम का बिहार में कोई जनसमर्थन नहीं है, इसलिए उससे गठबंधन करने का कोई सवाल ही नहीं उठता है.”
राजद का एआईएमआईएम के साथ गठबंधन नहीं करने के पीछे मुख्य वजह हिंदू वोटों के बिखराव की आशंका है. शायद यही कारण रहा कि उत्तर पूर्वी दिल्ली में फरवरी में हुए दंगों के मामले में यूएपीए के तहत गिरफ्तार किए गए जामिया के छात्र व राजद के छात्र नेता मीरान हैदर के खिलाफ राजद के शीर्ष नेताओं ने सार्वजनिक तौर पर कोई टिप्पणी नहीं की. मीरान हैदर के साथ-साथ सफूरा जरगर को भी गिरफ्तार किया गया था. राजद के शीर्ष नेताओं की इस चुप्पी के खिलाफ ट्वीटर पर “तेजस्वीचुप्पीतोड़ो” हैशटेग से अभियान भी चलाया गया था.
उधर राजद और कांग्रेस से अलग एआईएमआईएम खुद को मुस्लिमों की पार्टी कहलाने में कोई गुरेज नहीं करती है. उसकी राजनीति इसी बिरादरी के इर्द गिर्द घूमती है, तो जाहिर है कि वह उन सीटों पर ही फोकस कर रही है जहां मुस्लिम वोटर निर्णायक स्थिति में हैं.
लेकिन राजद के राष्ट्रीय प्रवक्ता किशोर ऐसे आरोपों आधारहीन बताते है कि मुसलमानों से संबंधित मुद्दों पर पार्टी चुप्पी साध लेती है. उन्होंने मुझे बताया, “इन मुद्दों पर राजद का रुख साफ है. वह कोई और नहीं बल्कि लालू प्रसाद यादव ही थे, जिन्होंने लाल कृष्ण आडवाणी का रथ रोक कर उन्हें गिरफ्तार कर करवाया था. लालू जी ने बिहार में मुख्यमंत्री रहते किसी तरह का सांप्रदायिक तनाव नहीं होने दिया. जहां मीरान हैदर का मामला है, तो उनका केस राजद लड़ रही है. जब मीरान की जमानत याचिका पर सुनवाई होनी थी तो पार्टी के राज्य सभा सांसद मनोज झा खुद कोर्ट गए थे. इसलिए स्टैंड अलोन केस को लेकर नहीं कहा जा सकता है कि राजद इन मुद्दों पर चुप है."
बिहार में सीमांचल के चार जिलों में ही मुस्लिम आबादी ज्यादा है, लेकिन इनमें भी किशनगंज को छोड़ दें, तो अन्य जिलों में मुस्लिम आबादी 38 से 45 प्रतिशत के आसपास है. ऐसे में बिहार की सियासत में एआईएमआईएम किसी बड़े बदलाव का बायस बनती नजर नहीं आ रही है सिवाय मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में कांग्रेस और राजद को चुनावी नुकसान पहुंचा कर कुछ सीट अपनी झोली में डालने के.
हालांकि, एआईएमआईएम बिहार में मुस्लिमों के साथ-साथ दलित व पिछड़ों को भी अपने साथ जोड़ना चाहती है. वर्ष 2015 के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने एक हिंदू उम्मीदवार को भी टिकट दिया था और अब बिहार विधानसभा चुनाव के लिए पार्टी ने पिछड़ी जातियों की राजनीति करने वाले रालोसपा और बसपा के साथ चुनावी गठबंधन किया है. बिहार में कुशवाहा की आबादी 8 प्रतिशत है, लेकिन रालोसपा को 2 से 3 प्रतिशत वोट मिलता है. इसी तरह बसपा को 2 प्रतिशत के आसपास वोट मिलता है. यानी अस्तित्व में आए इस नए फ्रंट का वोट प्रतिशत कम से कम 5 प्रतिशत है, जो महागठबंधन के ही परंपरागत वोट बैंक से आता है.
बिहार की राजनीति पर नजर रखने वाले राजनीतिक विश्लेषक सुरूर अहमद वर्ष 2019 के लोक सभा चुनाव में किशनगंज लोक सभा सीट पर एआईएमआईएम को भारी वोट और किशनगंज विधानसभा सीट से एआईएमआईएम उम्मीदवार की जीत को पार्टी की जीत नहीं मानते हैं. उन्होंने मुझे बताया, “पूर्व में बाहरी मुस्लिम नेता किशनगंज आकर जीतते रहे हैं. इससे लोगों में नाराजगी है. अब मुस्लिम वोटर स्थानीय नेताओं को जिताना चाहते हैं. ओवैसी की पार्टी को जो भी वोट मिल रहा है, वो स्थानीय नेताओं की बदौलत मिल रहा है.”
उनका मानना है कि बिहार की राजनीति में ओवैसी की मौजूदगी से केवल बीजेपी को फायदा होगा. वह कहते हैं, “ओवैसी की पार्टी ज्यादा से ज्यादा दो-चार सीट जीत लेगी, लेकिन उसके चुनावी मैदान में आने से काउंटर पोलराइजेशन होगा, जो आखिरकार बीजेपी को फायदा पहुंचाएगा.” उन्होंने आगे कहा, “ऐसा नहीं है कि जिन सीटों पर ओवैसी की पार्टी चुनाव लड़ेगी, उन्हीं सीटों पर ध्रुवीकरण होगा बल्कि दूसरी सीटों पर भी इसका बड़ा प्रभाव पड़ सकता है,”