अस्पृश्यता ही हो अनुसूचित जाति होने की अंतिम कसौटी

30 अगस्त 2023
8 जुलाई 1942 को नागपुर में महासंघ के एक सम्मेलन के दौरान अनुसूचित जाति महासंघ की महिला प्रतिनिधियों के साथ बीआर अंबेडकर.
विकिमीडिया कॉमन्स
8 जुलाई 1942 को नागपुर में महासंघ के एक सम्मेलन के दौरान अनुसूचित जाति महासंघ की महिला प्रतिनिधियों के साथ बीआर अंबेडकर.
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23 अक्टूबर 1928 को बीआर आंबेडकर भारतीय वैधानिक आयोग के समक्ष उपस्थित हुए. वह ब्रिटिश भारत में दमित वर्गों की आबादी और उनके द्वारा सामना किए जाने वाले नागरिक निषेधों पर सबूत पेश करने आए थे. आयोग का कार्य 1919 में शुरू किए गए अंतिम औपनिवेशिक संवैधानिक सुधार की समीक्षा करना और भारतीयों को सत्ता का और अधिक हस्तांतरण करने के लिए जरूरी उपायों की सिफारिश करना था. आंबेडकर, पीजी सोलंकी के साथ, दमित वर्गों यानी उन जातियों और जनजातियों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, जिन्हें अभी भी कानूनी परिभाषा की जरूरत थी, लेकिन उन्हें हिंदू समाज द्वारा तिरस्कृत समुदाय माना जाता था. आंबेडकर ने आयोग के सामने तर्क दिया कि बॉम्बे प्रेसीडेंसी में दलित वर्ग के कुल 28 लाख लोग रहते हैं, जबकि बॉम्बे सरकार का दावा है कि दमित वर्ग के लोग 14 लाख हैं.

आयोग ने आंबेडकर से पूछा कि क्या दमित वर्ग से उनका तात्पर्य "उन अछूतों से है जो हिंदू हैं लेकिन जिन्हें हिंदू मंदिरों में प्रवेश करने नहीं दिया जाता." आंबेडकर ने कहा "हां." आयोग ने पूछा, "दूसरे अर्थ में आप 'दमित वर्गों' में ना केवल उन लोगों को शामिल कर सकते हैं जिनका मैंने वर्णन किया है बल्कि आपराधिक जनजातियों, पहाड़ी जनजातियों...  को भी शामिल किया जा सकता है जो संभवतः हिंदू पदानुक्रम के संकीर्ण अर्थ में अछूत नहीं हैं." आयोग के अनुसार जनजातियों को शामिल करने पर ही दमित की संख्या 28 लाख हो पाएगी. आंबेडकर ने फिर से हां में उत्तर दिया.

फिर भी आंबेडकर ने इस प्रस्ताव को मानने से इनकार कर दिया कि दमित वर्गों का मतलब जनजातियों और आदिवासियों से भी है. आंबेडकर ने कहा कि उनका मानना है कि अपराधी जनजातियों और हिंदूकृत आदिवासियों के कुछ समुदाय भी अछूत थे. अछूतों को उन लोगों के रूप में समझा जाता था जिनके छूने या नजर भर पड़ जाने से हिंदू प्रदूषित हो जाते थे. आंबेडकर गैर-हिंदुओं के उन समूहों को ही दमित वर्ग मानने को राजी थे जिन्हें अछूत माना जाता था.

हालांकि, चार साल बाद भारतीय मताधिकार समिति को लिखे एक नोट में, आंबेडकर ने कहा, “मैं दमित वर्ग शब्द को केवल अछूतों तक ही सीमित रखने पर सहमत हुआ हूं. वास्तव में, मैंने खुद उन सभी को अस्पृश्यों से बाहर करने की कोशिश की है जिनमें उस तरह की चेतना नहीं हो सकती जो अस्पृश्यता की व्यवस्था में निहित सामाजिक भेदभाव से पीड़ित लोगों में होती है और इसलिए संभवतः वे भी खुद के हितों के लिए अछूतों का शोषण करते हैं.”

समिति को दमित वर्गों को परिभाषित करने का अधिकार था. आंबेडकर ने समिति को दमित वर्गों के लिए एक नया पदनाम भी सुझाया: "बाहरी जातियां." इसकी व्याख्या करते हुए उन्होंने लिखा, "यह उन अछूतों की स्थिति को सटीक रूप से परिभाषित करता है जो हिंदू धर्म के भीतर हैं लेकिन हिंदू समाज के बाहर हैं और इसे उन हिंदुओं से अलग करता है जो आर्थिक और शैक्षिक रूप से दमित हैं लेकिन जो हिंदू धर्म और हिंदू समाज दोनों के दायरे में हैं." तब तक, दमित वर्गों में अछूतों के साथ-साथ कुछ आर्थिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े समूह भी शामिल थे, जो स्वतंत्र भारत में अंततः 1990 में अन्य पिछड़ा वर्ग बन गए. कई सरकारी समितियों के सामने दलील रखने के बाद आंबेडकर को उन दमित वर्गों को मताधिकार का अधिकार और विधायिकाओं में प्रथक राजनीतिक प्रतिनिधित्व मिला जिन्हें अब अनुसूचित जाति के रूप में जाना जाता है. हालांकि, अनुसूचित जाति, दमित वर्गों के लिए एक परिभाषा थी जिसका तात्पर्य केवल अछूतों से था.

सागर कारवां के स्टाफ राइटर हैं.

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