23 अक्टूबर 1928 को बीआर आंबेडकर भारतीय वैधानिक आयोग के समक्ष उपस्थित हुए. वह ब्रिटिश भारत में दमित वर्गों की आबादी और उनके द्वारा सामना किए जाने वाले नागरिक निषेधों पर सबूत पेश करने आए थे. आयोग का कार्य 1919 में शुरू किए गए अंतिम औपनिवेशिक संवैधानिक सुधार की समीक्षा करना और भारतीयों को सत्ता का और अधिक हस्तांतरण करने के लिए जरूरी उपायों की सिफारिश करना था. आंबेडकर, पीजी सोलंकी के साथ, दमित वर्गों यानी उन जातियों और जनजातियों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, जिन्हें अभी भी कानूनी परिभाषा की जरूरत थी, लेकिन उन्हें हिंदू समाज द्वारा तिरस्कृत समुदाय माना जाता था. आंबेडकर ने आयोग के सामने तर्क दिया कि बॉम्बे प्रेसीडेंसी में दलित वर्ग के कुल 28 लाख लोग रहते हैं, जबकि बॉम्बे सरकार का दावा है कि दमित वर्ग के लोग 14 लाख हैं.
आयोग ने आंबेडकर से पूछा कि क्या दमित वर्ग से उनका तात्पर्य "उन अछूतों से है जो हिंदू हैं लेकिन जिन्हें हिंदू मंदिरों में प्रवेश करने नहीं दिया जाता." आंबेडकर ने कहा "हां." आयोग ने पूछा, "दूसरे अर्थ में आप 'दमित वर्गों' में ना केवल उन लोगों को शामिल कर सकते हैं जिनका मैंने वर्णन किया है बल्कि आपराधिक जनजातियों, पहाड़ी जनजातियों... को भी शामिल किया जा सकता है जो संभवतः हिंदू पदानुक्रम के संकीर्ण अर्थ में अछूत नहीं हैं." आयोग के अनुसार जनजातियों को शामिल करने पर ही दमित की संख्या 28 लाख हो पाएगी. आंबेडकर ने फिर से हां में उत्तर दिया.
फिर भी आंबेडकर ने इस प्रस्ताव को मानने से इनकार कर दिया कि दमित वर्गों का मतलब जनजातियों और आदिवासियों से भी है. आंबेडकर ने कहा कि उनका मानना है कि अपराधी जनजातियों और हिंदूकृत आदिवासियों के कुछ समुदाय भी अछूत थे. अछूतों को उन लोगों के रूप में समझा जाता था जिनके छूने या नजर भर पड़ जाने से हिंदू प्रदूषित हो जाते थे. आंबेडकर गैर-हिंदुओं के उन समूहों को ही दमित वर्ग मानने को राजी थे जिन्हें अछूत माना जाता था.
हालांकि, चार साल बाद भारतीय मताधिकार समिति को लिखे एक नोट में, आंबेडकर ने कहा, “मैं दमित वर्ग शब्द को केवल अछूतों तक ही सीमित रखने पर सहमत हुआ हूं. वास्तव में, मैंने खुद उन सभी को अस्पृश्यों से बाहर करने की कोशिश की है जिनमें उस तरह की चेतना नहीं हो सकती जो अस्पृश्यता की व्यवस्था में निहित सामाजिक भेदभाव से पीड़ित लोगों में होती है और इसलिए संभवतः वे भी खुद के हितों के लिए अछूतों का शोषण करते हैं.”
समिति को दमित वर्गों को परिभाषित करने का अधिकार था. आंबेडकर ने समिति को दमित वर्गों के लिए एक नया पदनाम भी सुझाया: "बाहरी जातियां." इसकी व्याख्या करते हुए उन्होंने लिखा, "यह उन अछूतों की स्थिति को सटीक रूप से परिभाषित करता है जो हिंदू धर्म के भीतर हैं लेकिन हिंदू समाज के बाहर हैं और इसे उन हिंदुओं से अलग करता है जो आर्थिक और शैक्षिक रूप से दमित हैं लेकिन जो हिंदू धर्म और हिंदू समाज दोनों के दायरे में हैं." तब तक, दमित वर्गों में अछूतों के साथ-साथ कुछ आर्थिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े समूह भी शामिल थे, जो स्वतंत्र भारत में अंततः 1990 में अन्य पिछड़ा वर्ग बन गए. कई सरकारी समितियों के सामने दलील रखने के बाद आंबेडकर को उन दमित वर्गों को मताधिकार का अधिकार और विधायिकाओं में प्रथक राजनीतिक प्रतिनिधित्व मिला जिन्हें अब अनुसूचित जाति के रूप में जाना जाता है. हालांकि, अनुसूचित जाति, दमित वर्गों के लिए एक परिभाषा थी जिसका तात्पर्य केवल अछूतों से था.
यह ऐतिहासिक प्रकरण अब से ज्यादा प्रासंगिक पहले कभी नहीं था. सर्वोच्च न्यायालय मुसलमानों और ईसाइयों के बीच सबसे निचले वर्गों की खुद के लिए एससी दर्जे की मांग वाली याचिकाओं पर फैसला सुनाने जा रहा है. औपनिवेशिक भारत में एक अलग और विशिष्ट अल्पसंख्यक के रूप में अनुसूचित जाति के गठन के इतिहास के दो पहलू हैं. सबसे पहले, अनुसूचित जाति की पहचान ऐसे समुदायों के रूप में की गई थी जिन्हें जाति-हिंदू समाज द्वारा लगाए गए सामाजिक प्रतिबंधों के कारण उनके बुनियादी नागरिक अधिकारों से वंचित किया गया था, जैसे कि सार्वजनिक कुओं से पानी भरना, मंदिरों के पास सड़कों का उपयोग करना या स्कूलों में प्रवेश करना. उन्हें हिंदू धर्म से जोड़ कर वैचारिक और कानूनी रूप से परिभाषित किया गया था. दूसरा, उन दलितों को शुरू से ही एक अपवाद रखा गया था जो सिख धर्म में परिवर्तित हो गए थे पंजाब क्षेत्र में रहते थे.
आजादी के बाद, अनुसूचित जातियां अपनी अलग पहचान और राजनीतिक सुरक्षा उपाय बनाए रखने में कामयाब रहीं. 1950 में केंद्र सरकार के एक आदेश के जरिए पंजाब में दलित सिखों को भी अनुसूचित जाति में रखा. अब इस पर ईसाई और मुस्लिम विद्वानों के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट और केरल अल्पसंख्यक आयोग में अपीलकर्ताओं द्वारा भी चुनौती दी गई है. जबकि दलित सिखों के लिए अपवाद केवल पिछली स्थिति की पुनरावृत्ति थी. 1990 के दशक में, नव-बौद्धों को भी संसद द्वारा एससी का दर्जा दिया गया. संसद में सरकार का रुख यह था कि लगभग सभी नव-बौद्ध, कागज पर, अभी भी अनुसूचित जाति के थे, इसलिए वे केवल संवैधानिक लाभ प्राप्त करने में आने वाली तकनीकी कठिनाइयों को दूर कर रहे थे. कुछ विद्वानों का तर्क है कि हिंदू धर्म के संबंध में परिभाषित जाति एक औपनिवेशिक रचना है और यह सभी धर्मों में मौजूद थी. हालांकि, सिखों और नव-बौद्धों के लिए अपवाद ही एससी की परिभाषा की पवित्रता को कानूनी रूप से विवादित बनाता है.
पिछले साल अक्टूबर में केंद्र सरकार ने उन समुदायों की जांच के लिए तीन सदस्यीय आयोग नियुक्त किया है जो "ऐतिहासिक रूप से अनुसूचित जाति होने का दावा करते हैं लेकिन सिख धर्म और बौद्ध धर्म के अलावा अन्य धर्मों में परिवर्तित हुए हैं". हालांकि, जो भी सार्वजनिक संस्थाएं इस पर निर्णय लेती हैं उन्हें सभी अछूतों के बीच साझा चेतना के आंबेडकर के दर्शन से सहमत होना चाहिए भले ही नए प्रवेशकर्ता हिंदू समाज से नहीं हों. "धार्मिक तटस्थता" जैसे वाक्यांश यह एहसास दिलाते हैं कि थोक में छूट मांगी जा रही है. ऐसे ही तर्क जो पत्रकार और राजनेता अली अनवर ने अपनी किताब “मसावत की जंग” में दिए हैं कि अगर एक हिंदू धोबी अनुसूचित जाति है, तो एक मुस्लिम धोबी को भी होना चाहिए- वह अस्पृश्यता के अनुभव को सिर्फ चंद नौकरियों तक सीमित कर देते हैं.
1936 में अनुसूचित जातियों के आधिकारिक वर्गीकरण में दलितों के पारंपरिक व्यवसायों की कोई भूमिका नहीं थी; अनुसूचित जाति की उसी सूची में बीच-बीच में कुछ प्रविष्टियां की गई हैं. सांविधिक आयोग ने आंबेडकर को इस संबंध में भी सवालों से घेरा कि क्या अछूतों के अलगाव का अस्वच्छ नौकरियों, उनके पहनने के ढंग और उनके काम करने के सस्ते वेतन से कोई लेना-देना है. आंबेडकर को उन्हें समकालीन उदाहरण देकर समझाना पड़ा कि भेदभाव के पीछे अस्पृश्यता ही एकमात्र कारण था. 1931 में जनगणना आयुक्त जेएच हटन ने भी इस आधार पर अनुसूचित जाति की पहचान के लिए पेशे को एक मानदंड के रूप में खारिज कर दिया कि जिन लोगों ने अपने अपमानजनक रोजगार छोड़ दिए उन्हें दूषित माना जाता रहा है. 1932 में फ्रैंचाइजी समिति ने भी पारंपरिक व्यवसायों को पहचान मानदंड के रूप में शामिल नहीं किया.
1931 में, हटन ने अपने अधीक्षकों को निर्देश दिया था, “यह इरादा नहीं है कि शब्द [दमित वर्ग] का व्यवसाय के लिए कोई संदर्भ होना चाहिए, बल्कि यह उन जातियों और ... हिंदू समाज में उनकी पारंपरिक स्थिति के कारण है." 1932 में, फ्रैंचाइजी कमेटी ने किसी समुदाय को एससी के रूप में स्वीकार करने के लिए अस्पृश्यता के लिए दस में से केवल दो परीक्षणों को अपनाया: हिंदू मंदिरों में प्रवेश से इनकार और अस्पृश्यता. दस परीक्षण मूल रूप से 1911 में जनगणना अधिकारियों द्वारा अपनाए गए थे; प्रत्येक परीक्षण को हिंदू धर्म के संबंध में परिभाषित किया गया था. फिर भी, पंजाब प्रांतीय समिति ने रामदासिया, धर्म के आधार पर सिखों और अद धर्मियों- जिन्हें पिछली जनगणना में हिंदू संप्रदाय कहा जाता था- को दमित वर्ग में रख दिया, जबकि कुछ उत्तरी प्रांतों ने हलालखोर और लालबेगी जैसी जातियों को वापस इसी में डाल दिया, जिनमें हिंदू और मुस्लिम और कई वे जनजातियां शामिल हैं जो ईसाई धर्म का पालन करती थीं.
समिति ने लिखा कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि कुछ प्रांतीय सरकारों ने एक विज्ञप्ति को गलत ढंग से समझकर अपने तरीके अपनाए. समिति ने सिफारिश की, “हमारे सामने सबूत हैं कि मुसलमानों, भारतीय ईसाइयों और सिखों के बीच अछूत हैं. अगर अद-धर्मियों को अछूतों में शामिल करना है, तो हमारी जांच का दायरा बढ़ाना होगा. हालांकि, 1936 के एक सरकारी आदेश में अद-धर्मियों, रामदासिया, हलालखोर और लालबेगिस को अनुसूचित जाति के रूप में वर्गीकृत किया गया था. यह स्पष्ट नहीं है कि सूची में हलालखोर और लालबेगिस हिंदू या मुस्लिम आस्था के थे, लेकिन आदेश ने विशेष रूप से बौद्धों और ईसाइयों को एससी सूची से बाहर करने से इनकार कर दिया. 1956 में, केंद्र सरकार ने एक आदेश के माध्यम से हलालखोर और लालबेगिस को सूची से हटा दिया.
मुसलमानों और ईसाई धर्मों के अछूतों को एससी सूची में वापस लाने का एक तरीका उन जातियों की जनगणना करना है जिनकी प्रविष्टियां 1936 के आदेश में पाई गई थीं और जिनके पास अस्पृश्यता का सामना करने के सबूत हैं, जिनकी न्यायिक आयोग के माध्यम से जांच की गई है. योग्य पाए गए लोगों को कुल आबादी के प्रतिशत के अनुपात में एससी कोटा बढ़ाने के बाद ही शामिल किया जाना चाहिए जो कि बढ़ी हुई एससी आबादी होगी. 1931 के परीक्षण मुसलमानों और ईसाइयों पर लागू नहीं होंगे. हालांकि, 1931 में एससी की गिनती के पीछे हटन का सिद्धांत एक नई विधि तैयार करने में मार्गदर्शन कर सकता है. हटन ने लिखा कि दमित वर्गों की पहचान के लिए उनके परीक्षण राज्य के दृष्टिकोण से तैयार किए गए थे, जिसका उद्देश्य किसी के "सार्वजनिक सुविधाओं-सड़कों, कुओं और स्कूलों के उपयोग के अधिकार" में सामाजिक बाधाओं को देखना था. अगर इस तरह के धर्मनिरपेक्ष, लेकिन ऐतिहासिक रूप से सीमांकित परीक्षणों को एससी क्षेत्र के भीतर नए समुदायों की पहचान में अपनाया जाता है, तो मौजूदा सदस्य अधिक स्वागत योग्य होंगे.
हटन ने स्वयं मुसलमानों और ईसाइयों को अछूत के रूप में पहचाने जाने से बाहर रखा था. उन्होंने लिखा कि सिख धर्म, इस्लाम और ईसाई धर्म में रूपांतरण से "एक बार में सामाजिक कलंक" दूर नहीं होता है, लेकिन एक बार "वे परिवर्तित हो जाते हैं तो उन्हें सामाजिक स्तर पर ऊपर उठने में ज्यादा समय नहीं लगता है." गैर-हिंदू अछूतों को बाहर करने का फ्रैंचाइजी समिति का कारण यह था, जैसा कि उन्होंने लिखा था, "यदि दमित वर्गों को राजनीतिक उद्देश्यों के लिए आबादी के एक विशिष्ट तत्व के रूप में मान्यता दी जानी है, तो जहां तक संभव हो, उनका अधिक सटीक वर्गीकरण” आवश्यक है. विवरण पर यही सावधानी अब दिखाई जानी चाहिए.
कोई भी सरकारी या न्यायिक प्रयास जो नए प्रवेशकों को एससी का दर्जा देता है, उसे तीन कारकों को ध्यान में रखना चाहिए: राजनीतिक विशिष्टता की पवित्रता, समुदाय के पिछड़ेपन के कारण के रूप में अस्पृश्यता और जाति अनुभव या सामाजिक चेतना की एकता. मुसलमानों और ईसाइयों के निचले वर्गों को राहत देने का एक और शांतिपूर्ण तरीका यह है कि उनके साथ एक अलग सामाजिक समूह के रूप में व्यवहार किया जाए और उनकी आबादी के अनुपात में खुली सीटों से कोटा तय किया जाए. यह उसी तर्ज पर तैयार किया जा सकता है जैसा कि पूर्व आपराधिक जनजातियों के लिए किया गया था. सभी राज्यों में डीएनटी पर जनसंख्या और उनके पिछड़ेपन की जांच के लिए एक अलग आयोग का गठन किया गया था. हालांकि, केंद्रीय स्तर पर, सरकार को अभी भी डीएनटी के लिए अलग आरक्षण प्रदान करने पर विचार करना बाकी है, यह मॉडल दलित मुस्लिम और ईसाई धर्मांतरितों की पहचान कर उन्हें एक अलग वर्ग के रूप में मानने में कारगर होगा.